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आगम के अनमोल रत्न
भगवान के दीक्षा की बात जानकर सारस्वतादि नौ लोकान्तिक देव भगवान के पास आये और उन्हें प्रणाम कर कहने लगे"हे क्षत्रियवर वृषभ ! आप की जय हो विजय हो । हे भगवन् ! आप दीक्षा ग्रहण करें ! लोकहित के लिये धर्मचक्र का प्रवर्तन करें। ऐसा कह कर वे स्वस्थान चले गये । उसके पश्चात् भगवान ने वर्षों दान देना प्रारंभ कर दिया । वे प्रतिदिन १ करोड ८० लाख सुवर्ण मुद्रा का दान करने लगे। इसप्रकार एक वर्ष की अवधि में ३ अरष ८८ करोड ८० लाख सुवर्णमुद्राभों का दान दिया । वर्षदान की समाप्ति के बाद भगवान, अपने भाई नन्दिवर्धन तथा अपने चाचा सुपार्श्व के पास आये
और बोले-अब मै दीक्षा के लिये आपकी भाज्ञा चाहता हूँ । तब नन्दिवर्धन ने एवं सुपार्श्व ने साश्रुनयनों से भगवान को दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी।
सौधर्म आदि इन्द्रों के मासन चलायमान होने से उन्हें भी भगवान की दीक्षा का समय मालूम हो गया। सभी इन्द्र अपने अपने देव देवियों के असंख्य परिवारों के साथ क्षत्रियकुण्ड आये और भगवान का दीक्षाभिषेक किया। नन्दिवर्धन ने भी भगवान को पूर्वाभिमुख बिठला करके दीक्षाभिषेक किया । उसके बाद भगवान ने स्नान किया चन्दन आदि का लेप कर दिव्यवस्र और अलंकार परिधान किये ।
देवों ने पचास धनुष लम्बी ३६ धनुष ऊँची और२५ धनुष चौड़ी चन्द्रप्रभा नाम की दिव्य पालकी तैयार की। यह पालकी अनेक स्तभों से एवं मणिरत्नों से अत्यंत सुशोभित थी। भगवान इस पालकी में पूर्वदिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठगये। प्रभु की दाहिनी ओर हंसलक्षणयुक्त पट लेकर कुलमहत्तरिका बैठी । बाई ओर दीक्षा का उपकरण लेकर प्रभु की धाई मा बैठी। राजा नन्दिवर्धन की आज्ञा से पालकी उठाई गई । उस समय शकेन्द्र दाहिनीभुजा को, ईशानेन्द्र वायीं भुजा को, चनरेन्द्र दक्षिण ओर की नौवे की बाँह