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तीर्थङ्कर चरित्र
२५७ ६. स्वयंप्रभस्वामी धातकीखण्ड द्वीप के वपु नामक विजय में विजया नाम की नगरी में मित्रसेन नाम के राजा राज्य करते थे। वे प्रजावत्सल और न्यायप्रिय थे। उनकी रानी का नाम सुमंगला था । इस रानी का जैसा नाम था वह वैसी ही गुणवती थी । रानी सुमंगला के गर्भ से भग. वान स्वयंप्रभ ने जन्म प्रहण किया । अव भगवान स्वयंप्रभ गर्भ में आये तब रानी सुमंगला ने १४ महास्वप्न देखे थे। स्वयंप्रभ का जन्मोत्सव इन्द्र तथा देवी देवताओं ने बड़ी धूम धाम से किया। आप जन्म से ही अवधिज्ञानी थे । आपका लांछन चन्द्र था और ऊँचाई पाँचसौ धनुष थी। यौवनावस्था में वीरसेना नाम की रूपवती कन्या से आपका विवाह हुआ । तिरासी लाख पूर्व की अवस्था में आप ने ऋद्धि सम्पदा का परित्याग कर वार्षिकदान देकर दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेते ही आप को मन.पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ । कालान्तर में सम्पूर्ण धनघाती कर्मों के क्षय से आप को केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुआ । कुल ८४ लाख पूर्व की अवस्था में भाप निर्वाण पद को प्राप्त करेंगे। वर्तमान में आप चारों तीर्थ का नेतृत्व करते हुए अपनी दिव्यवाणी से भव्यों का कल्याण कर रहे हैं।
७. ऋपभाननस्वामी धातकीखण्ड द्वीप के पूर्व महाविदेह में वपुविजय नामक विजय में सुसीमा नाम की सुन्दर नगरी है । वहाँ कीर्तिराय नाम के न्यायप्रिय राजा राज्य करते थे। उनकी सर्वगुण सम्पन्ना वीरसेना नाम की रानी थी।
एक वार सुखशय्या पर सोई हुई महारानी ने रात्रि के समय चौदह महास्वप्न देखे । महारानी ने गर्भ धारण किया और नौ मास व साढे सात रात्रि के बीतने पर एक भव्य व तेजस्वी बालक को जन्म दिया । चालक के जन्मते ही तीनों लोक दिव्य प्रकाश से आलोकित हो उठे । -नरक में अन्तर्मुहूर्त के लिए शान्ति छा गई । चौसठ
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