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आगम के अनमोल रत्न
प्रथम वर्षाकाल
दीक्षाग्रहण करने के बाद, भगवान ने निम्न कठोरतम प्रतिज्ञा कीकि बारह वर्ष तक जबतक कि “मुझे केवलज्ञान नहीं होगा मै इस शरीर की सेवा-सुश्रूषा नहीं करूँगा और मनुष्य तिर्यञ्च एवं देवता सम्बन्धी जो भी कष्ट आयेगे उनको समभावपूर्वक सहन करूँगा। मन में किचित्मात्र भी रंज नहीं माने दूंगा ।" इस प्रकार की कठोर प्रतिज्ञा कर भगवान ने एकाकी - विहार- कर दिया । जब वे कुछ दूरी पर गये तो मार्ग में उनके पिता का मित्र 'सोम' नामक ब्राह्मण मिला । भगवान को, वन्दन कर वोला-स्वामिन् ! मैं, जन्म से ही दरिद्र ब्राह्मण हूँ । गांव-गांव याचना कर अपनी आजीविका चलाता हूँ। आप जब-वार्षिक दान देकर जगत का दारिद्रय दूर कर रहे थे उस समय मै , अमागा गांवों में याचना करता हुआ भटक रहा था। जब घर आया तो मेरी स्त्री ने फिर मेरा तिरस्कार करते हुए कहा-अभागे ! जब यहाँ घरआंगन में गंगा प्रकट हुई -तब तू बाहर भटकने चला गया । अब भी अवसर है तू भगवान महावीर के पास जा. उनसे याचना कर वे जरूर तुझे कुछ न कुछ देंगे। इससे भगवान ! मैं, यहाँ आया हूँ! आप, जरूर मेरी आशा पूरी करेंगे. । भगवान, ने कहा-सोम ! अब तो मैं अपरिग्रही साधु, हो गया हूँ। देने के लिये अब,, मेरे पास कुछ भी नहीं है फिर भी कंधे पर रखे हुए देवदूष्य, का आधा टुकड़ा तुझे देता हूँ। ऐसा कह कर भगवान ने आधा देवदूष्य फाड़कर उसे दे दिया। ब्राह्मण. देवदृष्य का आधा भाग. पाकर बड़ा, प्रसन्न हुआ । वह उसे लेकर रफूगर के पास गया और उसे बताया.! देवदूष्य देखकर रफूगर बोला-ब्राह्मण ! अगर तू, इसका आधाभाग और ले भावेगा तो इसकी कीमत एक लाख सुवर्णमुद्रा मिलेगी।" ब्राह्मण, वापस महावीर स्वामी के पास पहुँचा। माधा, देवदूष्य प्राप्त करने के लिये वह उनके पीछे-पीछे घूमने लगा।