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तीर्थकर चरित्र
२४१ में उसके पास शान, कलंद, कर्णिकार, अछिद्र, अग्निवेश्योयन और अर्जुन गोमायुपुत्र नामक छ दिशाचर (भगवान पार्श्व की परम्परा के पथभ्रष्ट शिष्य) आये । उन दिशाचरों ने आठ प्रकार के निमित्त, नवम गीतमार्ग, तथा दशम नृत्यमार्ग का ज्ञान प्राप्त कर रखा था। उन्होंने गोशालक का शिष्यत्व अङ्गीकार किया । इन दिशाचरों से गोशालक ने निमित्त-शास्त्र का अभ्यास किया जिससे वह सभी को लाभ, अलाभ, सुख, दुःख एवं जीवन, मरण आदि के विषय में सत्यसत्य बताता था। अपने इस अष्टांग निमित्त ज्ञान के कारण उसने अपने को श्रावस्ती में जिन न होते हुए भी जिन, केवली न होते हुए भी केवली, सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ घोषित करना प्रारंभ कर दिया । वह कहा करता था-मै जिन, केवली और सर्वज्ञ हूँ। उसकी इस घोषणा की श्रावस्ती में सवत्र चर्चा थी।
भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्द्रभूति अनगार ने भिक्षार्थ घूमते समय यह जन प्रवाद सुना कि आजकल श्रावस्ती में दो तीर्थङ्कर विचर रहे हैं । एक श्रमण भगवान महावीर और दूसरे मखलिपुत्र गोशालक । वे भगवान के पास आये और जन प्रवाद के सम्बन्ध में पूछा-भगवन् ! आजकल श्रावस्ती में दो तीर्थकर होने की चर्चा हो रही है। यह कैसे ? क्या गोशालक सचमुच तीर्थङ्कर, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है?
भगवान ने कहा-गौतम ! गौशालकं के विषय में जो नगरी में बातें हो रही हैं वे मिथ्या हैं। गोशालक जिन, केवली भौर सर्वज्ञ नहीं है। वह अपने विषय में जो घोषणा कर रहा है वह मिथ्या है। वह जिन, केवली, सर्वज्ञ आदि शब्दों का दुरुपयोग कर रहा है। गौतम ! यह शरवण ग्राम के बहुल ब्राह्मण की गौशाला में जन्म लेने से गोशालक और मखलि नामक मंख का पुत्र होने से मंजंलिपुत्र कहलाता है । यह आज से चौवीस वर्ष पहले मेरा शिष्य होकर मेरे साथ