________________
wwwwwwwwwwwwwwwwwwww
२४२
आगम के अनमोल रत्न रहता था । छ वर्ष तक मेरे साथ रहने के बाद वह मुझ से अलग हो गया। तदनन्तर उसने मेरे बताये गये उपाय से तेजोलब्धि प्राप्त की । दिशाचरों से निमित्तशास्त्र पढ़ा । तेजोलब्धि और निमित्तशास्त्रके वल से वह अपने आपको सर्वज्ञ कहता फिरता है वस्तुतः उसमें सर्वज्ञ होने की किंचित् भी योग्यता नहीं है ।
भगवान महावीर ने यह सव वातें गौतम को सभा के बीच कहीं। सुनने वाले अपने अपने स्थानों की ओर चल दिये । भगवान महावीर ने गोशालक का जो विस्तृत परिचय दिया वह सारे नगर में फैल गया। सर्वत्र एक ही चर्चा होने लगी-"गोशालक जिन नहीं है परन्तु जिन प्रलापी है। श्रमण भगवान महावीर ऐसा कहते हैं।"
मंबलिपुत्र गोशालक ने भी अनेकों मनुष्यों से यह वात सुनी। वह अत्यन्त क्रोधित हुआ । क्रोध से जलता हुमा वह आतापना भूमि से हालाहला कुम्हारिण की भाण्डशाला में आया और अपने आजीविक संघ के साथ अत्यन्त आमर्ष के साथ बैठा और एतद् विषयक विचार करने लगा।
उस समय भगवान महावीर के शिष्य आनन्द नाम के अनगार जो कि निरन्तर छठछठ तप किया करते थे आहार के लिये घूमते हुए हालाहला के कुम्भकारापण के आगे होकर जा रहे थे । गोशालक देखते ही उन्हें रोक कर बोला-देवानुत्रिय आनन्द ! तेरे धर्माचार्य और धर्मगुरु श्रमण ज्ञातपुत्र ने उदार अवस्था प्राप्त की है । देव मनुष्यादि में उनकी कीर्ति तथा प्रशंसा है पर यदि वे मेरे सम्बन्ध में कुछ भी कहेंगे तो अपने तप तेज से उन्हें मै लोभी वणिक की तरह जलाकर भस्म करदूँगा और हितैसी वणिक की तरह केवल तुझे बचा दूंगा। तू अपने धर्माचार्य के पास जा और मेरी कही हुई बात उन्हें सुना दे।
गशालक को क्रोधपूर्ण भाषण सुनकर आनन्द स्थविर घबरा गया । वह जल्दी जल्दी महावीर के पास गया और गोशालक की बातें