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तीर्थङ्कर चरित्र
રક वैशाली में जिनदत्त नाम का श्रेष्ठी रहता था । उसको सम्मत्ति चलीजाने से वह 'जोर्णसेठ' के नामसे प्रसिद्ध हुमा । वह हमेशा भगवान के दर्शन करने आता था। उसके मन में यह अभिलाषा थी कि प्रभु को मै अपने घर पर पारणा कराऊँगा और अपने जीवन को सफल करूँगा।
चातुर्मास समाप्त हुमा । जीर्णसेठ ने प्रभु को भक्तिपूर्वक वन्दना फर प्रार्थना की-भगवन् ! आज मेरे घर पारणा करने के लिये पधारिए । वह घर आया और भगवान के आने की प्रतीक्षा करने लगा। समय पर प्रभु आहार के लिए निकले और धूमते हुए पूरणसेठ के घर में प्रवेश किया। भगवान को देखकर पूरणसेठ ने दासी से सकेत किया-जो कुछ तैयार हो इन्हें दे दो । दासी ने उवाले हुए उदद के बाकुले भगवान के हाथों में रख दिये। भगवान ने उसे निर्दोष आहार मानकर ग्रहण किया । देवताओं ने उसके घर पंचदिव्य प्रकट किये। लोग उसकी प्रशंसा करने लगे । वह मिथ्याभिमानी पूरण कहने लगा कि, मैने खुद प्रभु को परमान्न से पारणा कराया है।
जीर्णसेठ प्रभु को आहार देने की भावना से बहुत देर तक राह देखता रहा । उसके अन्तकरण में शुभ भावनाएँ उठ रही थीं । उसी समय उसने आकाश में होता हुआ देव--दुंदुभि नाद सुना । 'अहोदान | अहोदान !' की ध्वनि से उसकी भावना भंग हो गई। उसे मालम हुआ कि-प्रभु ने पूरणसेंठ के घर पारणा कर लिया है तो वह बहुत निराश हो गया। अपने भाग्य को कोसने लंगा । पूरणसेठ के दान की प्रशंसा करने लगा। शुभ-भावना के कारण जीर्णसेठ ने अच्युत देवलोक का भायु वांधा ।
वैशाली से विहार कर प्रभु अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए सुसुमारपुर में आये और अष्टम तप सहित एके रात्रि की प्रतिमा प्रहणे