________________
तीर्थकर चरित्र
mu
पर जोरों से झपटा । उसने भगवान के संगुष्ठ को मुंह में पकड़ लिया
और उसे चूसने लगा । रक्त के स्वाद में दूध सा स्वाद पाकर वह स्तब्ध होगया । वह भगवान की ओर देखने लगा। भगवान की शान्त मुद्रा देखकर उसका क्रोध शान्त होगया । इसी समय महावीर ने ध्यान समाप्त कर उसे संबोधित करते हुए कहा-"समझ ! चण्ड कौशिक समझ !" • भगवान के इस वचनामृत से सर्प का क्रूर हृदय पानी पानी हो गया । वह शान्त होकर सोचने लगा-'चण्डकौशिक' यह नाम मैंने कहीं सुना हुभा है । उहापोह करते करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया। किस प्रकार उसका जीव पूर्व के तीसरे भव में इस आश्रमपद का 'चण्डकौशिक' नामका कुलपति था, किस प्रकार दौड़ता हुमा गड्ढे में गिरकर मरा और पूर्वसंस्कारवश भवान्तर में इस उद्यान में सर्प की जाति में उत्पन्न होकर इसका रक्षण करने लगा इत्यादि सब बातें उसको याद भागई। वह विनीत शिष्य की तरह भगवान महावीर के चरणों में गिर पड़ा भौर अपने पाप का प्रायश्चित करते हुए वर्तमान पापमय जीवन का अन्त करने के लिये अनशन कर लिया । भगवान भी वहीं ध्यानारूढ़ होगये।
सर्प को स्थिर देखकर ग्वाले उसके नजदीक आने लगे और उसे पत्थर मारने लगे। ग्वालों ने जब देखा कि वह सर्प किचित्मात्र भी हिलता-डुलता नहीं, तो वे निकट आये और भगवान को वन्दन कर उनकी महिमा गाने लगे। ग्वालों ने सर्प की पूजा की। दूध दही और घी बेचनेवाली जो औरतें उधर से आतीं वे उस सर्प पर भक्ति से घी आदि डालती और नमस्कार करतीं । फल यह हुआ कि सर्प के शरीर पर चीटियाँ लगने लगी । इस प्रकार सारी वेदनाओं को समभाव से सहनकर के वह सर्प आठवें देवलोक सहस्रार में देवरूप से उत्पन्न हुआ।