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तीर्थकर चरित्र .
लगे। इस प्रकार धीरे-धीरे धार्मिक शिथिलता बढ़ने लगी । यह शिथिलता भगवान शीतलनाथ के तीर्थ प्रवर्तन तक अनवरत रूप से चलती रही । इस काल में ब्राह्मणों का ही भरतक्षेत्र पर एकछत्र राज्य चलता रहा । इस प्रकार छः तीर्थङ्करों के अन्तर में [धर्मनाथ से शान्तिनाथ के अन्तर में] इसी प्रकार बीच-बीच में तीर्थाच्छेद होता रहा और मिथ्यात्व बढ़ता रहा।
१०. भगवान शीतलनाथ पुष्कराध द्वीप के वज्र नामक विजय में 'सुसीमा' नाम की नगरी थी। वहाँ 'पद्मोत्तर' नामके राजा राज्य करते थे। उन्हें संसार की असारता का विचार करते हुए वैराग्य उत्पन्न हो गया। उन्होंने अस्ताप नाम के आचार्य के समीप दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेकर वे कठोर तप करने लगे । तीर्थकर नाम कर्म उपार्जन के बीस स्थानों में से किसी एक स्थान का भाराधन कर उन्होंने तीर्थङ्कर नॉम कर्म का-उपार्जन किया । अन्त समय में संथारा कर वे प्राणत नामक: देव विमान में देव रूप से उत्पन्न हुए। . .
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में महिलपुर नाम का नगर था । वहाँ 'दृढरथ' नाम के राजा राज्य करते थे । उनकी रानी का नाम 'नंदा' था । पद्मोत्तर मुनि का जीव प्राणत 'कल्प' से चक्कर वैशाख कृष्णा छठ के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के योग में महारानी नंदा के उदर में भाया । गर्भ के प्रभाव से महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे । गर्भ काल के पूर्ण होने पर माघ कृष्णाद्वादशी के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र के योग में श्रीवत्स के चिन्ह से चिन्हित सुवर्णकान्तिवाले पुत्र को जन्म दिया । भगवान के जन्मते ही समस्त लोकों में प्रकाश फैल गया। समस्त लोकों में शान्ति व्याप्त होगई । इन्द्रादि देवों ने भगवान का जन्मोत्सव किया। वाद में इंढरथ राजा ने भी पुत्र जन्मोत्सव किया । जब भगवान माता के गर्भ में थे तब दृढरथ राजा के शरीर में दाह उत्पन्न हो गया था।