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आगम के अनमोल रत्न
'उपदेश का असर पड़ गया । साधुओं को मार्ग बताकर नयसार वापस 'लौट आया ।
मुनियों के उपदेश से नयसार ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । मरकर वह सौधर्म देवलोक में पल्योपम की आयुवाला देव बना । तृतीय और चतुर्थ भव
देवगति का आयुष्य पूर्णकर नयसार का जीव तीसरेभव में चक्रवर्ती भरत का पुत्र मरीचि नामक राजकुमार बना ।
युवावस्था में मरीचि ने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की। कालान्तर में वह श्रमणमार्ग से च्युत होकर त्रिदण्डी संन्यासी बन गया ।
एकसमय भगवान ऋषभदेव ने भरत चक्रवर्ती से कहा कि तेरा पुत्र मरीचि २४वा तीर्थकर महावीर होगा। इतना ही नहीं, तीर्थकर होने से पहले वह भारतवर्ष में त्रिपृष्ठ नाम का वासुदेव होगा उसके बाद पश्चिमविदेह में, प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा और अन्त में चरमतीर्थकर महावीर होगा ।
भगवान के मुख से भावी वृतांत सुनकर भरत मरीचि के पास जाकर वन्दनपूर्वक बोला-मरीचि! मैं तुम्हारे इस परिव्राजक्त्व को वन्दन नहीं करता पर तुम अन्तिम तीर्थकर होने वाले हो यह जानकर तुम्हें वन्दन करता हूँ। तुम इसी भारतवर्ष में त्रिपृष्ठ वासुदेव, महाविदेह में प्रियमित्र चक्रवती और फिर वर्द्धमान नामक २४वें तीर्थकर होंगे।
भरत की बात से मरीचि बहुत प्रसन्न हुआ । वह त्रिदण्ड को उछालता हुआ बोला-अहो ! मै वासुदेव चक्वी और तीर्थकर होऊँगा बस मेरे लिये इतना ही बहुत है।
मैं वासुदेवों में पहला । पिता चक्रवर्तियों में पहले ! और दादी जीर्थ करों में पहले । अहो ! मेरा कुल कैसा श्रेष्ठ है ! .