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तीर्थकर चरित्र
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भगवान ने अंग संचालन किया और साथ में यह प्रतिज्ञा की कि"जबतक मातापिता जीवित रहेंगे, तब तक मै प्रव्रज्या नहीं ग्रहण करूँगा।"
जव गर्भस्थ बालक का हलन चलन हुआ तो त्रिशलादेवी को अपार हर्ष हुआ । रानी त्रिशला को हर्षित देखकर सारा राजभवन आनन्द से नाच उठा और खूब उत्सव मनाने लगा।
भव महारानी अपने गर्भ का पथ्यपूर्वक पालन करने लगी। गर्भ के अनुकूल प्रभाव से त्रिशलारानी के शरीर की शोभा, कान्ति और लावण्य भी बढ़ने लगे तथा सिद्धार्थ राजा की ऋद्धि, यश, प्रभाव और प्रतिष्ठा में भी वृद्धि होने लगी। गर्भ के समय त्रिशला के मन में जो प्रशस्त इच्छाएँ उत्पन्न होती थीं उन्हें महाराज पूरी कर देते थे । इसप्रकार गर्भ का काल सुखपूर्वक बीता।
चैत्रमास की शुक्लपक्ष की त्रयोदशी मंगलवार के दिन नौ मास और साढ़ेसात- रात्रि सम्पूर्ण होने पर त्रिशला माता ने हस्तोत्तरा नक्षत्र में सुवर्ण जैसी कान्तिवाले एवं सिंहलक्षण वाले पुत्ररत्ल को जन्म दिया । जिसप्रकार देवों की उपपातशय्यामें देव का जन्म होता है। उसी प्रकार रुधिरादि से वर्जित, कर्मभूमि के महामानव २४वें तीर्थकर का' जन्म हुआ। दिशाएँ प्रफुल्ल हुई । जनसमुदाय में स्वभाव से ही आनन्द का वतावरण निर्मित हो गया । तीनोंलोक में प्रकाश फैल गया। नरक के जीवों को क्षणभर के लिये अपूर्वसुख की प्राप्ति हुई । आकाश देव दुंदुभियों से गूंज उठा । मेघ सुगन्धित जलधारा बरसाने लगे। मंद सुगन्धित पवन रजकणों को हटाने लगा । इन्द्रों के आसन चलायमान हुए । अवधिज्ञान से भगवान के जन्म को जानकर उनके हर्ष का पार नहीं रहा । वे आसन से नीचे उतरे और भगवान की दिशा में सात भाठ कदम चलकर दाहिने घुटने को नीचा कर और वायें घुटने को खड़ाकर दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति करने लगे। उसके वाद