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आगम के अनमोल रत्न
अपने अपने आज्ञाकारी देवों को भगवान के जन्मोत्सव में शरीक होने की 'सुघोषा' घंटा द्वारा सूचना-दी-1 छप्पनदिग्कुमारिकाओं ने माता त्रिशला के पास आकर उनका सूतिकाकर्म किया और मंगलगान करती हुई माता का मनोरंजन करने लगी। T' सौधर्मेन्द्र पालक -विमान में बैठकर भगवान के पास आया और भगवान को तथा माता को प्रणामकर स्तुति करने लगा । स्तुति कर लेने के बाद वोला-मैं सौधर्मस्वर्ग का इन्द्र हूँ और आपके पुत्र का जन्मोत्सव करने के लिये यहाँ आया हूँ। इतना कहकर इन्द्र ने माता त्रिशला को निद्राधीन कर दिया और भगवान का एक प्रतिविम्व बनाकर त्रिशला के पास रख दिया । इसके बाद पांचरूपधारी इन्द्र ने. भगवान को अपने दोनों हाथों से. उठा लिया। आकाशमार्ग से, चल कर वे मेरुपर्वत के पाण्डुकवन में आये। वहाँ अतिपाण्डुकम्बला नामक शिलापर सिंहासन रखा और अपनी गोदी में प्रभु को लेकर सौधर्मेन्द्र पूर्वदिशा की तरफ मुँह कर के बैठ गया। उस समय अन्य ६३ इन्द्र और उनके आधीन असंख्य देवी देवता भी वहाँ उपस्थित हुए । आभियोगिक देव तीर्थजल ले आये और सब इन्द्र-इन्द्रानियों ने । एवं चार निकाय के देवों ने भगवान का जन्माभिषेक किया । सब दौसौंपचास अभिषेक हुए । एक एक अभिषेक में ६४ हजार कलश होते हैं । ११ इस अवसर्पिणी काल के चौवीसवें तीर्थङ्कर का शरीर 'प्रमाण दूसरे तेईस तीर्थङ्करों के शरीर प्रमाण से बहुत छोटा था इसलिये अभिबैंक करने की सम्मति देने के पहले इन्द्र के मन में शंका हुई कि भग. वोन का यह वालशरीर इतनी अभिषेक की जलधारा को कैसे सह सकेगा ? ., भगवान अवधिज्ञानी थे। वे इन्द्र की शंका को जान गये । तीर्थकर का शरीर प्रमाण में छोटा हो या बड़ा हो किन्तु बल की अपेक्षा सभी तीर्थकर समान अनन्तबली होते हैं और यह बताने के लिये उन्होंने अपने बाएँ पैर के अंगूठे से मेरुपर्वत को जरा सा दवाया