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तीर्थकर चरित्र । ..
तेईसवाँ और चोवीसवाँ भव- .
. तेईसवें भव में नयसार का जीव पश्चिमविदेह की राजधानी सूका नगरी में प्रियमित्र नामक चक्रवर्ती राजा हुआ । उसने संसार से विरक्त होकर प्रोष्ठिलाचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण की और चौरासी लाख पूर्व का आयुष्य भोगकर चौवीसवें भव में महाशुक कल्प के सर्वार्थ नामक देव विमान में देव हुआ । पच्चीसवाँ और छब्बीसवाँ भव
सर्वार्थ सिद्ध विमान से निकल कर नयसार का जीव छत्रा नगरी के राजा जितशत्रु का पुत्र नन्दन नामक राजकुमार हुभा । २१लाख वर्ष तक राज्यावस्था में रहने के बाद नन्दन राजा ने प्रोष्ठिलाचार्य के पास दीक्षा ग्रहण की । और ग्यारह अंगसूत्रों का अध्ययन किया । उसके बाद वे नन्दनमुनि कठोर तप करने लगे । उन्होंने एकलाख वर्ष तक निरन्तर मासखमन की तपस्या की। जिनकी संख्या एक लाख आठ हजार थी। इसतरह निरन्तर कठोर तप करके एवं अर्हत, सिद्ध, संघ, धर्मापदेशक, वृद्ध, बहुश्रुत, तपस्वी, आहेतादि, वात्सल्य आदि तीर्थदर नामकर्म के उपार्जन करनेवाले वीस स्थानों की आराधना की और तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन किया । ___ अन्त में नन्दनमुनि ने अनशन किया और समाधि पूर्वक देह छोड़कर प्राणतकल्म के पुष्पोत्तर विमान में महर्दिक देवपद् प्राप्त किया । सत्ताईसवाँ भव भगवान महावीर का जन्म
भारत के इतिहास में विहारप्रान्त का गौरवपूर्ण स्थान है। इसी गौरव-गरिमा से सम्पन्न प्रान्त में वैली नामकी नगरी थी। काल के अप्रतिहत प्रभाव से आज वैशाली का वह वैभव नहीं रह गया है, फिर भी उसके खण्डहर आज भी विद्यमान हैं । गङ्गावट के उत्तरीय भाग अर्थात् हाजीपुर सवडिवीजन से करीर १२-१४ मोल उत्तर में