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आगम के अनमोल रत्न दीक्षा ग्रहण की और चवालिसलाख वर्ष पूर्व की-भायु पूर्णकर: माहेन्द्र कल्प में देव. हुआ ।
.. माहेन्द्र कल्प के वाद नयसार ने अनेक छोटे छोटे भव किये। पन्द्रहवाँ और सोलहवाँ भव
तदनन्तर नयसार का जीव राजगृह में स्थावर नामक ब्राह्मण हुमा । अन्त में परिव्राजक धर्म स्वीकार करके भायुष्य समाप्ति के बाद ब्रह्मदेव देवलोक में देव हुआ । सत्रहवाँ और अठारहवाँ भव
सोलहवे भव में नयसार का जीव राजगृह में विश्वनन्दी राजा के भाई विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति राजकुमार हुभा। राजा विश्वनन्दी का विशाखनन्दी नाम का पुत्र था। विशाखनन्दी के व्यवहार से दुःखी होकर विश्वभूति ने आर्यसंभूत के पास दीक्षा ग्रहण की। कठोर तप किया । अन्तमें विशाखनन्दी से अपमान का बदला लेने के लिये इन्होंने निदान किया । एक करोड वर्ष आयुष्य के पूर्ण होने पर विश्वभूतिमुनि महाशुक्र देवलोक में देव बने । उन्नीस, वीस, इक्कीस और बाइसवाँ भव- ।
महाशुक्र देवलोक से निकल कर नयसार का जीव अपने निदान के फलस्वरूप पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नामक वासुदेव हुआ । इनके पिता का नाम प्रजापति था । इनके लधुभ्राता अचल थे।
त्रिपृष्ट और अचल युवा हुए । युवावस्था में एक बार त्रिपृष्ठ वासुदेव ने एक बलिष्ठ सिंह को अपने दोनों हाथों में पकड़ कर चौर डाला और अपने प्रतिशत्रु अश्वग्रीव को उसी के चक्र से मार डाला था प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव के भारेजाने पर ये भरतार्द्ध के स्वामी वासुदेव बने ।
८४ लाख वर्ष का आयुष्य पूरा करके त्रिपृष्ठ वासुदेव सातवीं नरक में-उत्पन्न हुए। वहाँ से निकल कर नयसार सिंहयोनि में पैदा हुआ-1 वहां से मरकर नरक में उत्पन्न, हुआ । .....