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तीर्थकर चरित्र
१०५ - भगवान शान्तिनाथ ने अब राज्य की वागडोर अपने हाथ में ली और न्याय पूर्वक राज्य करने लगे । उनके यशोमती नामकी एक पट्टरानी थी। उसने एक रात्रि को स्वप्न में सूर्य के समान तेजस्वी ऐसे एक चक्र को आकाश से उतर कर मुख में प्रवेश करते हुए देखा । दृढरथ मुनि का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान से चवकर उनकी कुक्षि में उत्पन्न हुआ । महारानी ने स्वप्न की बात पति से निवेदन की । महाराज शान्तिनाथ अवधिज्ञान से युक्त थे । उन्होंने कहा-देवी ! मेरे पूर्व भव का भाई दृढरथ अनुत्तर विमान से च्युत होकर तुम्हारे गर्भ में आया है । गर्भ काल पूर्ण होने पर महारानी यशोमती ने पुत्र को जन्म दिया । स्वप्न में चक्र देखा था इसलिये बालक का नाम चक्रायुध रखा । यौवन वय प्राप्त होने पर चक्रायुध का अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह किया गया ।
कलान्तर में शान्तिनाथ के शस्त्रागार में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। चक्ररत्न के वाद अन्य तेरह रत्न भी उत्पन्न हुए । उनको सहायता से महाराजा शांतिनाथ ने भरतक्षेत्र के छह खण्डों को जीता । छहों खण्डों पर विजय प्राप्त करने में आठ सौ वर्ष लगे। देवों इन्द्रों और मनुष्यों ने मिलकर भगवान शान्तिनाथ को चक्रवर्ती पद पर अधिष्ठित किया। उन्हें इस अवसर्पिणी काल का पांचवां चक्रवर्ती घोषित किया। आठसौ वर्ष कम पच्चीस हजार वर्ष तक भगवान चकवर्ती पद पर आसीन रहे।
एक समय चक्रवर्ती शान्तिनाथ संसार की असारता का विचार कर रहे थे । इतने में लोकान्तिक देव भगवान के पास उपस्थित हुए भौर प्रणाम कर कहने लगे-भगवन् ! अव आप धर्मचक्र का प्रवर्तन करें । जनकल्याण के लिये चारित्र ग्रहण कर तीर्थ की स्थापना करें।
भगवान पूर्व से ही वैराग्य के रंग में रंगे हुए थे। देवों की प्रेरणा से उन्होंने दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। अपने पुत्र चक्रायुध को राज्यभार देकर वे वर्षीदान देने लगे । वर्षीदान की समाप्ति पर