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आगम के अनमोल रत्न
इतनी है कि इससे विगय रहित पारणा किया जाता है अर्थात् पारणे में घृत आदि विगय का सेवन नहीं करते । इसी प्रकार तीसरी परिपाटी भी समझनी चाहिये । इसमें विशेषता यह है कि अलेपकृत (विगय' के लेप मात्र का त्याग ) से पारणा करते हैं। चौथी परिपाटी में भी ऐसा ही करते हैं । इसमें आयंबिल से पारणा की जाती है । इस प्रकार दो वर्ष और अट्ठाईस अहोरात्र में लघुसिंह - निष्क्रीडित तप का सम्यकू रूप से आराधन कर महानिष्कीड़ित तप प्रारम्भ कर दिया । यह तप भी लघुनिष्वीड़ित की तरह ही किया जाता है भन्तर इतना है कि इसमें चौतीस भक्त अर्थात् सोलह उपवास तक पहुँच कर वापस लौटा जाता है । एक परिपाटी 'एक वर्ष, छह मास और अठारह अहोरात्र में समाप्त होती है । सम्पूर्ण महासिंहनिष्कीड़ित तप छह वर्ष, दो मास और बारह अहोरात्र में समाप्त होता है । प्रत्येक परिपाटी में ५५८ दिन तक लगते हैं । ४९७ उपवास और ६१ पारणा होते हैं । महासिंहनिष्कीड़ित तप करने के बाद महाबल आदि सात मुनिराजों ने और भी अनेक प्रकार के तप किये जिससे उनका शरीर अन्यन्त कृष हो गया । रक्त और मांस सूख गया । शरीर हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया। अन्त में अपना आयुष्य अल्प रहा जानकर सातों मुनिवर स्थविर की आज्ञा प्राप्त कर 'चारु' नामक वक्षकार पर्वत पर आरूढ़ हुए । वहाँ दो मास की संलेखना करके अर्थात् एक सौ बीस भक्त का अनशन कर चौरासी लाख वर्षो तक संयम पालन करके, चौरासी लाख पूर्व का कुल आयुष्य भोग कर
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जयन्त नामक तीसरे अनुत्तर विमान में देवपर्याय से उत्पन्न हुए | इनमें महाबलमुनि ने ३२ सागरोपम की और शेष छह मुनिवरों ने कुछ कम ३२ सागरोपम की उत्कृष्ट आयु प्राप्त की । महाबल के सिवाय छह देव, देवायु पूर्ण होने पर भारत वर्ष में विशुद्ध माता-पिता के वंशवाले राजकुलों में अलग अलग कुमार के रूप में उत्पन्न हुए । वे इस प्रकार हैं---