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आगम के अनमोल रत्न
राजोमती ने कहा-कुमार रथनेमि ! आप अन्धक्वृष्णि के पौत्र हैं, महाराज समुद्रविजय के पुत्र एवं तीर्थङ्कर भगवान अरिष्टनेमि के भाई हैं । त्यागी हुई वस्तु को फिर भोगना लज्जा जनक है ।।
पक्खंदे जलिय जोई धूमकेउं दुरासयं ।
नेच्छंति वंतयं भोत्तुं कुले जाया अगंधणे ॥ अगन्धन कुल में पैदा हुए सांप जाज्वल्यमान प्रचण्ड अग्नि में गिर कर भस्म हो जाते हैं किन्तु उगलेहुए विष को पीना पसन्द नहीं करते।
आप तो मनुष्य हैं, महापुरुषों के कुल में आपका जन्म हुआ है फिर यह दुर्भावना कहाँ से आई ?
आपने घर-द्वार छोड़कर प्रज्या ग्रहण की है । आप और भगवान दोनों एक कुल के हैं। इस प्रकार श्रेष्ठकुल में जन्म लेकर वमन की हुई वस्तु को फिर ग्रहण करना श्रेष्ठमानव का कार्य नहीं हो सकता। है महामुने । अपने इस दुष्कृत्य का पश्चात्ताप कर पुनः संयम में दृढ़ होइये।
___ राजीमती के उक्त वचन सुनकर रथनेमि का सिर लज्जा से झुक गया । उसे अपने कृत्य पर पश्चात्ताप होने लगा । अपने अपराध के लिये वे राजीमती से बारबार क्षमा मांगने लगे।
रथनेमि ने भविष्य के लिये संयम में दृढ़ रहने की प्रतिज्ञा की। राजीमती साध्वी ने उन्हें कई प्रकार के हित वचन सुनाकर संयम में दृढ़ किया । जैसे भदोन्मत्त हाथी अंकुश की मार से वश में हो जाता है, उसी प्रकार राजीमती के सुभाषित वचनों से कामोन्मत्त रथनेमि ठिकाने आ गये । वे पुनः संयम में स्थित हो गये ।
बार वार चोट खाये रथनेमि ने अपनी समस्त शाक्त वासना के उन्मूलन में लगादी । उन्होंने उग्रतर तपस्या करके घातीकर्मों को नष्ट किया और केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष की राह ली ।