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आगम के अनमोल रत्न '
दूसरे दिन गोष्ठमें वरदत्त ब्राह्मण के घर परमान से पारणा किया । देवताओं ने वसुधारादि पांचदिव्य प्रकट किये। भगवान ने अन्यत्र विहार कर दिया ।
चौवन दिनरात छद्मस्थकाल में विचरण करनेके बाद भगवान रैवतगिरि के सहस्राम्र उद्यान में पधारे । वहाँ वेतस-वृक्ष के नीचे अष्टमभक्त तप की अवस्था में आश्विनमास की अमावस्या के दिन घातीकर्मों को क्षय कर भगवान ने केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त किया। भगवान को केवलज्ञान हुआ जानकर इन्द्रादि देव भगवान की सेवा में आये । समवशरण की रचना हुई । एक सौ बीस धनुष ऊँचे । चैन्यवृक्ष के नीचे रत्नमय सिंहासन पर आरूढ़ होकर भगवान उपस्थित परिषद् को धर्मोपदेश देने लगे । भगवान की वाणी श्रवण कर वरदत्त आदि ने दीक्षा ग्रहणकर गणधर पद प्राप्त किया । भगवान की देशना समाप्त होनेपर वरदक्त गणवर ने उपदेश दिया । भगवान के उपदेश से अनेक राजाओं तथा यादवकुमारों ने श्रावकव्रत एवं साधुव्रत ग्रहण किये । भगवान के शासन में गोमेध यक्ष एवं अविका देवी शासनरक्षक देवदेवी के रूप में प्रकट हुए।
भगवान अरिष्टनेमि की दीक्षा का समाचार राजीमती को भी मालूम पड़ा । समाचार सुनकर वह विचार में पड़ गई कि अब मुझे क्या करना चाहिये । इसप्रकार विचार करते करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया । उसे मालूम पड़ा कि मेरा और भगवान का प्रेम सम्बन्ध पिछले आठ भवों से चला आ रहा है । इस नवे भव में भगवान का संयम अंगीकार करने का निश्चय पहले से था । मुझे प्रतिबोध देने की इच्छा से ही उन्होंने विवाह का आयोजन स्वीकार कर लिया था। अब मुझे भी शीघ्र सयम अंगीकार करके उनका अनु. सरण करना चाहिये।
महासती राजोमती ने मातापिता को पूछकर सातसौ सखियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। महाराज उग्रसेन तथा श्रीकृष्ण ने उसका