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'तीर्थकर चरित्र
अत्यधिक प्रिय है। इसके रूप, रस या रंग में कोई फरक नहीं पड़ा है । केवल एकबार मेरे पेट तक जाकर निकल आया है।
रथनेमि-इससे क्या, है तो वमन ही ?
राजीमती--मेरे साथ विवाह करने की इच्छा रखनेवालों के लिये वमा पीना कठिन नहीं है।
रथनेमि-क्यों ?
राजीमती-जिस प्रकार यह पदार्थ मेरे द्वारा त्यागा हुआ है। उसी प्रकार मै भापके भाई द्वारा त्यागी हुई हूँ। त्यागी हुई वस्तु को स्वीकार करने का अर्थ ही वमन की हुई वस्तु का पुनः उपभोग करना है । यादवकुमार ! मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखते समय आपने यह नहीं सोचा कि मैं आपके बड़े भाई की परित्यक्ता पत्नी हूँ। आप के इस वासनामय जीवन को धिक्कार है।
राजीमती की युक्तिपूर्ण वात सुनकर रथनेमि का सिर लज्जा से नीचे झुक गया । उसे मन ही मन पश्चात्ताप होने लगा। उसने कहा-महादेवी मुझे क्षमा करो । आपने मेरी आँखे खोल दी हैं।
रथनेमि चुपचाप राजीमती के महल से चले आये । उनके हृदय में लज्जा और ग्लानि थी। सांसारिक विषयों से उन्हें विरक्ति हो गई । उन्होंने अपने भाई अरिष्टनेमि के साथ प्रव्रज्या लेने का निश्चय कर लिया। वे उस दिन की प्रतीक्षा करने लगे।
धीरे धीरे एक वर्ष बीत गया । भगवान अरिष्टनेमि का वार्षिकदान समाप्त हो गया । इन्द्र आदि देव दीक्षा-महोत्सव मनाने के लिये आये । श्रीकृष्ण तथा यादवों ने भी खूब तैयारियां की। अन्त में श्रावणशुक्ला षष्टी के दिन 'उत्तरकुरा' नाम की शिविका पर आरूढ़ होकर उज्जयत पर्वत पर सहस्राम्र नामक उद्यान में भगवान ने दीक्षा धारण कर ली । उनके साथ उनके लघु भ्राता रथनेमि, दृढ़नेमि आदि हजार राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की । उस दिन भगवान ने छठ की तपस्या की थी।