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तोर्थर चरित्र
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गति तथा चपलगति के साथ दमधर मुनि के पास दीक्षा ले ली। चिरकाल तक तपकर चित्रगति माहेन्द्र देवलोक में महद्धिक देवता हुए । उसके दोनों भाई और उसकी पत्नी भी उसी देवलोक में देव बने।
पाँचवाँ और छठा भव
पूर्वविदेह के पद्म नामक विजय में सिंहपुर नाम का नगर था। वहाँ हरिनन्दी नाम का राजा था। उसकी रानी का नाम प्रियदर्शना था । चित्रगति मुनि का जीव देव आयु पूरी कर महारानी प्रियदर्शना के उदर में उत्पन्न हुआ । गर्भकाल के पूर्ण होने पर महारानी ने पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम अपराजित रखा।
जनानन्दपुर के राजा जितशत्रु थे। उनकी रानी का नाम धारिणी था। रत्नवती का जीव धारिणी के उदर से पुत्री रूप में जन्मा उसका नाम प्रीतिमती रखा। प्रीतिमती युवा हुई। महाराज जितशत्रु ने स्वयंवर पद्धति से प्रीतिमती का विवाह करने का निश्चय किया। इसके लिये उसने देश देश के राजा राजकुमार स्वयंवर के लिये आमंत्रित किये । भव्य, सुन्दर और विशाल स्वयंवर--मण्डप बनाया गया ।
स्वयंवर के समय अनेक देश के राजा एव राजकुमार वहाँ उपस्थित हुए । अपराजित कुमार भी वेष बदल स्वयंवर मण्डप में उपस्थित हुआ । अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार राजकुमारी ने स्वयंवर मण्डप में अपनी कला का प्रदर्शन किया किन्तु कोई भी राजकुमार उसे जीत नहीं सका । अपराजितकुमार ने राजकुमारी प्रीतिमती को कला में जीत लिया । राजकुमारी ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपराजितकुमार के के गले मे वरमाला डाल दी। विधिपूर्वक राजकुमारी का विवाह अपराजित के साथ होगया। कुछ दिन श्वशुरगृह में रहकर राजकुमार अप. राजित प्रीतिमती के साथ अपनी राजधानी लौट आये । माता-पिता पुत्र को एवं पुत्रवधू को देखकर बड़े प्रसन्न हुए।