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आगम के अनमोल रत्न
अरिष्टनेमि को विवाह के लिए राजी हुआ समझ कर सारा यादवपरिवार हर्ष से उन्मत्त हो गया । वसन्तोत्सव भी समाप्त हो गया । यादवगण अपने अपने परिवार के साथ लौट आये । श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेमि के द्वारा विवाह की स्वीकृति का वृत्तान्त समुद्रविजय तथा शिवादेवी से कहा । उन्हें यह जानकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । उन्होंने कृष्ण से फिर कहा--अरिष्टनेमि के लिये योग्य कन्या को खोजने का काम भी आप हो का है । इसे भी आप ही पूरा कीजिये | श्रीकृष्ण ने यह जिम्मेदारी अपने पर ले ली ।
भोजवृष्णि के पुत्र महाराज उग्रसेन मिथिला में शासन करते थे । उनकी रानी का नाम धारिणी था । इनके एक पुत्र था जिसका नाम 'कंस' था । अपराजित विमान से चवकर यशोमती का जीव धारिणी की कुक्षि में उत्पन्न हुआ । उसका नाम राजीमती रखा गया । राजीमती अत्यन्त सुशील सुन्दर और सर्वगुणसम्पन्न राजकन्या थी । उसको कान्ति विजली की तरह देदीप्यमान थी । उसका शैशवकाल राजचित लाड़-प्यार से बीतने लगा । वह शैशवकाल को पारकर युवा हुई | मातापिता को योग्यवर की चिन्ता हुई । वे चाहते थे, राजीमती जैसी सुशील तथा सुन्दर है उसके लिए वैसा ही वर खोजना चाहिए । इसके लिए उन्हें बहुत तलाश करने की जरुरत नहीं पड़ी । उनकी दृष्टि में राजुल के लिए सबसे उपयुक्त वर यदुकुलनन्दन अरिष्टनेमि थे किन्तु अरिष्टनेमि बचपन से ही वैराग्यरंग में रंगे हुए थे । यादवों के भोगविलास उन्हें अच्छे नहीं लगते थे । वे इस वंश में त्यागजीवन का एक आदर्श उपस्थित करना चाहते थे । इसी कारण महाराज उग्रसेन को चिन्ता हो रही थी कि कहीं राजीमती का विवाह उसके अनानुरूप वर से न करना पड़े ।
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सत्यभामा की भी इच्छा थी कि उसकी बहन राजीमती के साथ अरिष्टनेमि का विवाह हो । उसने श्रीकृष्ण के सामने प्रस्ताव रखा और श्री कृष्ण के मुँह से वह प्रस्ताव समुद्रविजय के सामने गया ।