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तीर्थङ्कर चरित्र
mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm ___समुद्रविजय महारथी श्रीकृष्ण तथा महाराज उग्रसेन नेमिकुमार को समझाने आये किन्तु नेमिकुमार अपने निश्चय पर अटल थे । वे सांसारिक भोगविलासों को छोड़ने का निश्चय कर चुके थे । महाप्रभु नेमि के दृढ़वैराग्य व अटलतर्क के सामने वे सब निरुत्तर थे । अन्त में वे निराश होकर अपने स्थान में लौट आये । भगवान नेमिनाथ बारात छोड़कर अपने महल की ओर रवाना हुए।।
भगवान के जाते ही बरातियों की सारी उमंगे हवा हो गई। सभी के चहरे पर उदासी छा गई । महाराज उग्रसेन की दशा और भी विचित्र हो रही थी। उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था कि इससमय क्या करना चाहिये ?
राजीमती को जब चेतना आई तो उसका सारा दुःख वाहर उमड़ आया । वह अपना सर्वस्व नेमिकुमार के चरणों में अर्पित कर चुकी थी। उन्हें अपना भाराध्यदेव मानचुकी थी। उनके विमुख होने पर वह अपने को सूनीसी, निराधार सी एवं नाविक रहित नौका सी, मानने लगी। उसकी आखों में अविराम आंसू बह रहे थे । मातापिता पुत्री के इस दुःख को देख नहीं सके । कहा
बेटी ! राजकुमार नेमि ने हमारी वात नहीं मानी। वह वापिस चला गया। हजारों युक्तियों का एक ही उत्तर था और वह था उसका अवलोकन । सभी उसके सामने भकिचित्कर सिद्ध हुए । बेटी ! हमारा दुर्भाग ! ऐसे रत्न सरीखे जामाता को देख कर मेराहृदय कितने उल्हास से भरता!
राजीमती बोली—माताजी ! यदि वे वापिस नहीं आये तो मेरा क्या होगा।"
महारानी ने उत्तर-दिया बेटी। उन्होंने दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया है। उस महापुरुष के निश्चय को बदलने की अब किसी में ताकत नहीं है। अव तो उन्हें भूल जाने में ही भलाई है। किसी नये