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तीर्थङ्कर चरित्र
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सभी ने प्रस्ताव स्वीकार करते हुए यह उपयुक्त समझा कि श्री कृष्ण स्वयं राजा उग्रसेन के महल में जाकर कन्या देख ले और विवाह का निश्चय करदे |
कन्या की मांग करने के लिए श्रीकृष्ण स्वयं महाराज उग्रसेन के घर गये । कृष्ण वासुदेव के भागमन से उग्रसेन के आनन्द की सीमा न रही । उन्होंने वड़ो श्रद्धा और भक्ति से श्रीकृष्ण का राजोचित सन्मान किया । महाराज उग्रसेन से कुशलक्षेम सम्बन्धी वार्ता विनिमय के बाद श्रीकृष्ण बोले- महाराज ! मैं आपकी गुणवती पुत्री राजीमती का विवाह यदुकुलनन्दन अरिष्टनेमि से करना चाहता हूँ । आपकी कन्या की याचना करने के लिये ही मै आपके द्वार पर उपस्थित हुआ हूँ । आप निराश तो न करेंगे ? राजी का चेहरा खिल उठा । राजीमती के मुखमण्डल पर अरुणाई की आभा प्रस्फुटित हो गई और वह वहाँ से खिसक गई । राजा उग्रसेन अरिष्टनेमि के गुणों की प्रशंसा सुन चुके थे । हृदय में उमड़ते हुए प्रसन्नता के सिन्धु को रोकते हुए उन्होंने कहा - " आपको निराश किया ही कैसे जा सकता है । जब कि हम स्वयं राजीमती के लिये ऐसे ही उपयुक्त वर की खोज में थे ।" किन्तु मेरी एक शर्त है । श्रीकृष्ण ने कहा- वह क्या ? उग्रसेन - कुमार सपरिवार यहाँ पदार्पण करें । श्रीकृष्ण - मुझे आपकी यह शर्त मंजूर है | आप विवाह की तैयारियाँ प्रारंभ करदें । श्रावणशुक्लाषष्टी के शुभमुहूर्त में कुमार का विवाह होगा | कुमार के साथ यादवों का विशाल परिवार होगा । श्रीकृष्ण स्वीकृति प्राप्तकर द्वारावती लौट आये ।
श्रीकृष्ण के लौटते ही महाराज समुद्रविजय ने विवाह की तैयारियाँ प्रारम्भ करदीं । सभी यादवों को आमंत्रण भेजे गये । द्वारिकानगरी नववधू की तरह सजायी गयी । जगह जगह बाजे बजने लगे । मंगलगीत गाये जाने लगे । नगरी के प्रत्येक द्वारपर सुवर्ण के स्तम्भों
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