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तीर्थकर चरित्र
गर्भ के पूर्ण होने पर महारानी शिवादेवी ने सावन सुदि पंचमी के दिन चित्रा नक्षत्र में शंख के चिन्ह से चिन्हित श्यामवर्णीय पुत्र को जन्म दिया । भगवान के जन्मते ही समस्तदिशाएँ प्रकाश से प्रकाशित हो उठी। नरक के जीव भी कुछ समय के लिये शान्ति का अनुभव करने लगे । भगवान की माता का सूतिकाकर्म करने के लिये ५६ दिग्कुमारिकाएँ आई । इन्द्रादि देवों ने भगवान को मेरुपर्वत पर ले जाकर नहलाया और उत्सव किया। माता-पिता ने भी पुत्र जन्मोत्सव किया । जव भगवान गर्भ में थे तब उनकी माता ने स्वप्न में अरिष्ट रत्नमयी चक्रधारा देखी थी इसलिए बालक का नाम भरिष्टनेमि रखा। अरिष्टनेमि देवदेवियों एवं धात्रियों के संरक्षण में बढ़ने लगे । शैशव-- भवस्था को पार कर वे युवा हुए।
एक समय अरिष्टनेमि घूमते हुए महाराज श्रीकृष्ण के शस्त्रागार में पहुँच गये । शस्त्रागार का संरक्षक अरिष्टनेमि को वासुदेव कृष्ण के शस्त्रों को दिखाने लगा । शस्त्रों का निरीक्षण करते हुए अरिष्टनेमि की दृष्टि सारंगधनुष पर पड़ी। उन्होंने उसी समय सारंगधनुष को उठाया । सारंगधनुष को उठाते देख संरक्षक अरिष्टनेमि से बोलास्वामी ! यह धनुष श्रीकृष्ण के अतिरिक्त और कोई उठा नहीं सकता । यह बड़ाभारी और भयंकर धनुष है। आप इसे उठाने का व्यर्थ प्रयत्न न करें । अरिष्टनेमि हँसे और धनुष को उठाकर उसे कमलनाल की भाँति झुकाकर प्रत्यंचा भी चढ़ाई और एक टंकार भी की। इस टंकार को सुनकर सभी लोग कांप से गये । शस्त्रागार का रक्षक विस्फारित नेत्रों से देखता रह गया ।
उसी समय अरिष्टनेमि ने पांचजन्य शंख उठाया और फूंका। पांचजन्य की आवाज सुनकर सारी पृथ्वी कांपने लगी और प्रजाजन घरा उठे । उधर श्री अरिष्टनेमि ने सुदर्शनचक्र भी उठाकर घुमाया। फिर गदाएँ और खड्ग चलाये जिनके विषय में सभी को ज्ञात था कि श्रीकृष्ण के अतिरिक्त उन्हें उठाने की शक्ति किसी में नहीं है।