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आगम के अनमोल रत्न
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वह समवशरण एक सौ अस्सी धनुष ऊँचे अशोक वृक्ष से सुशोभित हो रहा था। अशोक वृक्ष के नीचे भगवान पूर्वदिशा की ओर मुखकर रत्नसिंहासन पर आसीन हो गये और धर्म-देशना देने लगे। भगवान की देशना सुनकर अनेक नर-नारियों ने प्रव्रज्या ग्रहण की उनमें कुंभ आदि सत्रह गणधर मुख्य थे। भगवान की देशना समाप्त होने पर कुंभ गणधर ने भी उपदेश दिया। भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की।
भगवान के तीर्थ में भृकुटी नामक यक्ष एवं गांधारी नामक शासनदेवी हुई । इस प्रकार भगवान नौ मास कम ढाई हजार वर्ष तक केवलीअवस्था में विचरण कर के भव्यों को प्रतिबोध देते रहे । भगवान के हरिसेन चक्रवर्ती परम भक थे।
भगवान के विहारकाल में बीसहजार साधु, इकतालीसहजार साध्वियाँ, ४५० चौदह पूर्वधारी, एक हजार छह सौ अवधिज्ञानी, बारह सौ आठ मन पर्ययज्ञानी, सौलहसौ केवली, पांच हजार वैक्रियलब्धिवाले, एकहजार वादलब्धिवाले, एकलाख सत्तरहजार श्रावक एवं तीनलाख अड़तालीसहजार श्राविकाएँ हुई।
अपना निर्वाणकाल समीप जानकर भगवान समेतशिखर पर पधारे । वहाँ एक हजार मुनियों के साथ अनशन ग्रहण किया । एक मास के अन्त में वैशाख कृष्णा दसमी के दिन अश्विनी नक्षत्र के योग में हजार मुनियों के साथ अक्षय-अव्यय पद प्राप्त किया । भगवान के निर्वाण का उत्सव इन्द्रादि देवों ने किया । ।
ढाईहजार कुमारावस्था में, पांचहजार राज्यत्व में एवं ढाईहजार वर्षे व्रतमें बिताये । इस प्रकार भगवान की कुल आयु दस हजार वर्ष की थी। भगवान मुनिसुव्रत के निर्वाण के बाद छहलाख वर्ष व्यतीत होने पर भगवान नमिनाथ का निर्वाण हुआ ।