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तीथङ्कर चरित्र अपने असली देव रूप में प्रकट होकर अरहन्नक श्रावक से बोलाहे भरहन्नक ! तुम धन्य हो ! तुम्हारा जीवन सफल है। तुमने जिस श्रद्धा से निम्रन्थ प्रवचन को स्वीकार किया है उसी श्रद्धा और दृढ़ता से तुम उसे निभा रहे हो। हे अरहन्नक ! भाज देवसभा में शकेन्द्र ने तुम्हारी धार्मिक दृढ़ता की प्रशंसा करते हुए कहा था कि"अहरन्नक श्रावक जीवाजीवादि का ज्ञाता है और उसे निग्रन्थ प्रवचन से विचलित करने की तथा सम्यक्त्व से भ्रष्ट करने की किसी देव या मानव में शक्ति नहीं है ।" मुझे शक्रेन्द्र के इन वचनों पर तनिक भी विश्वास नहीं हुआ । अतः मै तुम्हारी धार्मिक दृढ़ता की परीक्षा करने के लिये ही पिशाच का भयंकर रूप बनाकर यहां आया किन्तु यहाँ आने पर तुम्हारी धार्मिक दृढ़ता और निर्भयता को देखकर मैं आश्चर्यचकित हुआ हूँ। जिस तरह शकेन्द्र ने आपकी प्रशंसा की थी वास्तव में आप वैसे ही हैं। भापकी धार्मिक दृढ़ता की प्रशसा एक इन्द्र नहीं अपितु हजार इन्द्र भी करें तव भी कम ही है। आप का जीवन सचमुच धन्य है । आप जैसे श्रावकों से ही निर्गन्थ . प्रवचन गौरवान्वित है । मैने जो आपको कष्ट दिया है और आपके साथियों को भयभीत किया है उसके लिये क्षमा याचना करता हूँ। मेरे अपराध को क्षमा कर और मेरी यह कुण्डलों की जोड़ी स्वीकार करें । देव अरहनक श्रावक से वार-वार क्षमा याचना कर और दिव्य कुण्डल जोड़ी को रख कर अपने स्थान को चला गया । उपद्रव के शान्त होने पर भरहन्नक श्रावक ने अपना सागारी संथारा पारित किया । समुद्र का वातावरण शान्त था। हवा भी अनुकूल बहने लगी । सब को जीवन वचने का आनन्द था । जहाज वड़ी तेजी के साथ दक्षिण दिशा की ओर बढ़ने लगे। और गम्भीर नामक बन्दरगाह के किनारे आ पहुँचे । वहां उन्होंने अपना सामान गाड़ा और गाड़ियों में भरा और मिथिला की ओर प्रस्थान कर दिया ।
ये नौ यात्रिक अपने-अपने सामान के साथ मिथिला नगरी पहुँचे । उन्होंने उद्यान में अपना अपना पड़ाव डाला । बहुमूल्य