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आगम के अनमोल रत्न
थो और भीख जुगुनू की तरह थीं । होठ लटक रहे थे और लम्बे व नुकीले दांत बाहर निकले हुए थे। हाथ में तलवार लिये भयंकर अट्टहास करता हुआ वह पिशाच जहाज पर चढ़ गया और भयंकर गजना करता हुआ बोल उठा-ऐ यात्रिको रुक जाओ ! अब तुम्हारी मौत नजदीक आगई है। अगर एक भी यात्री ने मेरी बात न मानी तो उसे इसी समय मौत के घाट उतार दिया जायगा ।" वह पिशाच अरहन्नक श्रावक के पास आया और गरज कर बोला "हे भरणक ! तुझे अपने धर्म से विचलित होना इष्ट नहीं है परन्तु मैं तुझे तेरे धर्म से विचलित करूँगा। तू अपने धर्म को छोड़ दे अन्यथा मैं तेरे जहाज को आकाश में उठाकर फिर समुद्र में पटक दूंगा जिससे तू मरकर आतं और रौद्र ध्यान करता हुआ दुर्गति को प्राप्त होगा ।"
पिशाच के उपरोक्त वचनों को सुन कर जहाज में बैठे हुए दूसरे लोग बहुत घबराये और इन्द्र, वैश्रमण दुर्गा आदि देवों की अनेक प्रकार की मानताएँ करने लगे किन्तु अरणक श्रावक किंचित् मात्र भी घबराया नहीं और न विचलित ही हुआ प्रत्युत अपने वस्त्र - से भूमि का परिमार्जन करके सागारी संथारा करके, धर्म ध्यान करता हुआ शान्त चित्त से बैठ गया। इस प्रकार निश्चल बैठे हुए भरणक श्रावक को देखकर पिशाच और भी क्रुद्ध हुआ और नंगी तलवार को धुमाता हुभा भयोत्पादक वचन कहने लगा । फिर भी अरहन्नक शान्त भाव से बैठा ही रहा। अरहन्नक को विचलित न होते देख पिशाच उस जहाज को दो अंगुलियों से उठाकर आकाश में बहुत उंचा ले गया और भर. हन्नक श्रावक से फिर इस प्रकार कहने लगा-हे अरहन्नक । अगर तू अपने धर्म को छोड़ने के लिए तैयार है तो मैं तुझे जीवित छोड़ सकता हूँ वरना जहाज सहितं तुझे इस समुद्र में डुबा दूंगा । पिशाच के इन भयजनक शब्दों का अरहन्नक पर कोई असर नहीं हुआ, वह पूर्ववत ही स्थिर रहा । अन्त में पिशाच ,अरहन्नक श्रावक को धर्म-से विचलित करने में असमर्थ रहा । पिशाच का क्रोध शान्तं, हो गया । वह