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आगम के अनमोल रत्न (१०) तत्वार्थ विनय-सम्यग् ज्ञानादि रूप मोक्षमार्ग, उसके साधन आदि में उचित सत्कार आदि विनय से युक्त होना । ज्ञानदर्शन चारित्र और उपचार विनय से युक्त होने पर तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है।
(११) आवश्यक-सामायिकादि छह आवश्यकों का भावपूर्वक अनुष्ठान करना, उनका परित्याग न करने से तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन होता है।
(१२) शीलवतानतिचार-हिंसा असत्य आदि से विरमणरूप मूल गुणों को व्रत कहते हैं । उन व्रतों के पालन में उपयोगी उत्तर गुणों को शील कहते हैं उनके पालन में जरा भी प्रमाद न करना । उनके निरतिचार निर्वद्य पालन से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है।
(१३) क्षणलव संवेग-सांसारिक भोगों के प्रति सतत उदासीनता रखने से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध होता है।
(१४) तप-अनशनादि बारह प्रकार की तपस्या करने से तीर्थकर नामकर्म का वन्ध होता है ।। __(१५) त्याग-साधुओं को प्रासुक एषणीय दान देने से तीथर नामकर्म का बन्ध होता है। - (१६) वैयावृत्य-आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, तपस्वी, ग्लान, शैक्ष्य, कुल, गण, संघ और साधर्मिक की सेवा सुश्रुषा करने से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है। '
. (१७) समाधि-मुनिजनों को साता उपजाने से तीर्थदर नाम'कर्म को बन्ध होता है।
(१८) अपूर्व ज्ञान ग्रहण-नया नया ज्ञान ग्रहण करने से तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध' होता है।
(१९) श्रुतं भक्ति-सिद्धान्त की भक्ति करने से तीर्थङ्कर नाम'कर्म का बन्ध होता है। - ।