________________
आगम के अनमोल रत्न
दीक्षा का उत्सव मनाया । महाबल ने अपने छहों मित्रों के साथ धर्मघोष स्थविर के समीप दीक्षा धारण की और संयम की उत्कृष्ट भावना से आराधना करते हुए विचरने लगे । जिस प्रकार राज्यकार्य में छहों मित्रों ने महाबल का साथ दिया था, उसी प्रकार संयम साधना में भी देने लगे । एकबार सभी ने मिलकर यह निश्चय किया कि हम सब मिलकर एक साथ तप करेंगे और साथ ही में पारणा भी करेंगे। इसी संकल्प के अनुसार सातों मुनिराजों ने छठ छठ का तप प्रारम्भ कर दिया । एक छठ की तपस्या में महाबल मुनि ने अपने मित्र मुनियों से भी अधिक तप करने का निश्चय किया । तदनुसार छठ का पारणा न करके अष्टम भक्त का प्रत्याख्यान कर लिया किन्तु यह बात मित्रों से गुप्त रक्खी । छठ की समाप्ति पर अन्य मुनियों ने पारणा करने के भाव प्रकट किये तो महाबलमुनि ने भी यही भाव व्यक्त किया । जब अन्य मुनियों ने पारणा कर लिया तो वे कहने लगे-मैं तो तेला करूँगा । जब छहों अनगार चतुर्थ भक्त (उपवास) करते तो वे महाबल अनगार अपने मित्र मुनियों को बिना कहे ही षष्ठ भक्त (वेला) ग्रहण करते । इसी तरह जब छहों अनगार षष्ठ भक्क अंगीकार करते तब महाबल भनगार अष्ठम भक्त ग्रहण करते इस प्रकार अपने साथी मुनियों से छिपाकर कपट पूर्वक महावल मुनि भधिक तप करते थे । इसी कपट के फलस्वरूप उन्हें स्त्रीवेद का वन्ध हुमा । इसके अतिरिक महाबल मुनि ने उत्कृष्ट भावना से अनेक प्रकार की कठोर तपस्या प्रारम्भ करदी जिसके फलस्वरूप उन्होंने तीर्थङ्कर नामकर्म का बन्ध किया ।
तीर्थङ्कर नामकर्म का निम्न बीस कारणों से बन्ध होता है
(१) अरिहन्तवत्सलता-घनघाती कर्मों का नाशेकर केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्तकरने वाले अहंन्तों की आराधना करने से तीर्थकर नामकर्म का वन्ध होता है ।