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तीर्थङ्कर चरित्र
को जन्म दिया । गुण के अनुरूप बालक का नाम महाबलकुमार रखा। महाबल जब भाठ वर्ष के हुए तब वे कलाचार्य के पास कला सीखने गये । अल्पकाल में ही ७२ कलाएँ सीखली । युवा होने पर महाबलकुमार का एक ही दिन में पांच सौ सुन्दर एवं गुणवती कन्याओं के साथ विवाह कर दिया गया । युवराज 'महावलंकुमार अपने पिता के 'राज्य को सम्भालने लगे । युवराज महावल के छह मित्र थे उनके नाम क्रमशः अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अभिचन्द थे । ये छहों राजकुमार थे और महावल के अनुगामी थे। उनके सुख दुःख में साथ देने वाले थे । बचपन से ही वे साथ में रहते थे।
एक बार धर्मघोष नामके स्थविर अपने शिष्यपरिवार के साथ वीतशोका पधारे । महाराजा वल और नगरी की जनता धर्मोपदेश सुनने उनके पास गई और उपदेश सुन वापस लौट आई । महाराज बल को स्थविर के उपदेश से वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने महाबल को राज्य पर स्थापित कर के दीक्षा अंगीकार करली । कुछ समयं के बाद महाराज महावल को भी एक पुत्ररत्न हुआ जिसका नाम बलभद्र रक्खा । बलभद्र युवा हुआ और उसका सुन्दर राजकुमारियों के साथ विवाह कर दिया गया ।
कुछ समय के बाद फिर धर्मघोष मुनि का इस नगरी में आगमन हुआ । उनका उपदेश सुनकर महाराजा महाबल के मन में संमार के प्रति विरक्ति हो गई । उन्होंने अपने मित्रों से संयम-धारण करने की भावना प्रकट की। सभी मित्रों ने महावल की मनोकामना की भूरि
भूरि प्रशंसा करते हुए स्वयं भी दीक्षा धारण करने का निश्चय किया। । मित्रों का सहयोग पाकर महावल का उत्साह बढ़ गया । उन्होंने अपने है उत्तराधिकारी सुपुत्र वलभद्र का राजूसिंहासन पर अभिषेक किया । राजा । बनने के बाद बलभद्र ने राजोचित समारोह के साथ अपने पिता की