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तीर्थङ्कर चरित्र . . (२) सिद्धवत्सलता-आठ कर्मों के नाश करनेवाले सिद्ध भगवान की आराधना-गुणगान करने से तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन होता है।
(३) प्रवचनवत्सलता-श्रुतज्ञान के गुणगान से तथा भर्हत् शासन के अनुष्ठायी श्रुतधर, वाल, तपस्वी, वृद्ध, शैक्ष, ग्लानादि के प्रति अनुग्रह से एवं सार्मिक के प्रति निष्काम स्नेहभाव रखने से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है ।
(४) गुरुवत्सलता-गुरु एवं भाचार्य की विनय भक्ति एवं उनके गुणगान से तीर्थकर नामकर्म का पन्ध होता है।
(५) स्थविरवत्सलता-ज्ञान-स्थविर (शुद्ध) समवायांग के ज्ञाता ज्ञानस्थविर, साठ वर्ष की उम्रवाले जातिस्थविर एवं बीसवर्ष को दीक्षा वाले चारित्रस्थविरों का विनय करने से तीर्थकर नामकर्म का बन्ध होता है।
(६) बहुश्रुतवत्सलता-विशिष्ट आगम के अभ्यासी साधुओं का विनय करने से तीर्थङ्कर नामकर्म का उपार्जन होता है ।
(७) तपस्वी वत्सलता-एक उपवास से भारम्भ कर बड़ी बड़ी तपस्या करने वाले मुनियों की सेवा भक्ति करने से तीर्थङ्कर नाम कर्म का बन्ध होता है।
(८) अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग-अभीक्ष्ण-बार बार । ज्ञान अर्थात् द्वादशांग प्रवचन । उपयोग अर्थात् प्रणिधान-सूत्र अर्थ और उभय में आत्मव्यापार-आत्मपरिणाम बाँचना, प्रच्छना भनुपेक्षा धर्मोपदेश के अभ्यास से तथा जीवादि पदार्थ विषयक ज्ञान में सतत जागरूकता से तीर्थकर नामकर्म का उपार्जन होता है।
(९) दर्शन विशुद्धि-जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट तत्त्वों में शङ्कादि दोष रहित, निर्मल रुचि, प्रीति-दृष्टि दर्शन का होना, तत्त्वों में निर्मल श्रद्धा रूप सम्यग् दर्शन के होने से तीर्थकर नामकर्म को बन्ध होता है।