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आगम के अनमोल रत्न
रानी अचिरा देवी की कुक्षि में अवतरित हुआ। उस समय महारानी अचिरा देवी ने अर्धजागृत अवस्था में रात्रि के पिछले प्रहर में चौदह महास्वप्न देखे ।
स्वप्नों को देखते ही महारानी जागृत हो गई। वह उसी समय अपनी शैया से उठी और पति के पास पहुँच कर उसने अपने स्वप्नों का फल पूछा । महाराज विश्वसेन ने अत्यन्त प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहामहारानी ! तुम त्रिलोक-पूज्य एक महान पुत्ररत्न को जन्म दोगी। इस पुत्र के जन्म से तुम्हारी कोख धन्य बनेगी।
महारानी पति के मुख से स्वप्नों का फल सुनकर बड़ी प्रसन्न हुई । अब वह विधि पूर्वक अपने गर्भ का पालन करने लगी । गर्भ में भगवान के आने से सारे विश्व में शान्ति व्याप्त होगई ।
__गर्भकाल के पूर्ण होने पर जेष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भरणी नक्षत्र में जब सब ग्रह उच्च स्थान में थे तब महा. रानी ने पुत्र को जन्म दिया । भगवान के जन्मते ही तीनों लोक में प्रकाश फैल गया। कुछ समय के लिये नारकी जीवों को भी शान्ति मिली । इन्द्रों के आसन कम्पित हो उठे। दिशाकुमारियों आईं। इन्द्र भाये और मेरु पर्वत पर बाल भगवान का जन्माभिषेक महोत्सव किया । महारामा विश्वसेन ने भी पुत्र का जन्मोत्सव मनाया । जब भगवान गर्भ में थे तब उनके प्रभाव से नगर की महामारी शान्त हो गई थी अतः बाल भगवान का नाम 'शान्तिनाथ' रखा ।
भगवान को जन्म से ही तीन ज्ञान थे। धीरे धीरे दूज के चन्द्रमा की तरह बढ़ने लगे । अपनी वाल सुलभ लीला से शान्ति कुमार माता पिता को बढ़ा प्रसन्न करते थे । जब शान्तिकुमार युवा हुए तब महाराज विश्वसेन ने यशोमती आदि अनेक सुन्दर राजकुमारियों के साथ उनका विवाह किया। राजकुमार शान्तिनाथ जब पच्चीस हजार -वर्ष के हुए तब महाराज विश्वसेन ने राज्य का भार उन्हें-सौंप दिया
और वे प्रव्रज्या ग्रहण कर आत्म साधना- करने लगे।