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आगम के अनमोल रत्न
दिया । भगवान के जन्मने पर इन्द्रादि देवों ने उत्सव मनाया । गर्भ काल के समय श्रीदेवी ने कुन्थु नाम का रत्न-संचय देखा था अतः चालक का नाम कुन्थुनाथ रखा गया । यौवनवय के प्राप्त होने पर कुन्थुनाथ का अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ । जन्म से तेइस हजार साढ़ेसातसौ वर्ष के बाद राजा बने और उतने ही वर्ष के बाद उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । उसी के बल से छसौ वर्ष में उन्होंने भरतक्षेत्र के छ खण्डों पर विजय प्राप्त किया। छह खण्ड पर विजय पाने के बाद आप विधिपूर्वक चक्रवर्ती पद पर भधिष्ठित हुए । तेइस हजार सातसौ पचास वर्ष तक चक्रवर्ती पद पर रहने के बाद इन्हें वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ । भगवान को वैराग्य भाव उत्पन्न हुआ जान लोकान्तिक देव उनके पास आये और प्रार्थना करने लगे कि हे भगवन् ! जगत के हित सुख एवं कल्याण के लिये आप दीक्षा धारण करें । देवों की प्रार्थना पर भगवान ने दीक्षा लेने का दृढ़ निश्चय किया और एक वर्ष तक नियमानुसार वर्षीदान दिया। वर्षी दान के बाद वैषाख कृष्णा पंचमी को दिन के अन्तिम प्रहर में कृत्तिका नक्षत्र के योग में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हुए । इन्द्रादि देवों ने भगवान का दीक्षा महोत्सव किया । उस दिन भगवान को परिणामों की उच्चता के कारण मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ.। दूसरे दिन षष्ठ का पारणा चकार के राजा व्याघ्रसिंह के घर परमान्न से किया । देवों ने पुष्पवृष्टि की और दान-देने वाले की खूब महिमा गाई।
सोलह वर्ष तक भगवान छद्मस्थ काल में विचरते रहे । विहार करते हुए आप पुनः हस्तिनापुर के सहस्राम्र उद्यान में पधारे और तिलक वृक्ष के नीचे बेले का तप कर ध्यान करने लगे। घातीकमे जर्जर हो चुके थे । ध्यान को धारा वेगवती हुई और धर्म -ध्यान से भागे बढ़कर शुक्लध्यान की उच्चतम अवस्था में प्रवेश कर गई । ध्यान के प्रभाव से घातीकर्म समूल नष्ट हो गये और भगवान