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तीर्थङ्कर चरित्र
एक वार स्तिमितसागर वन-विहार के लिए उद्यान में गया । स्वयंप्रभ नाम के आचार्य को वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए देखा । वह उनके पास बैठा । ध्यान समाप्त होने पर मुनिवर ने उसे उपदेश दिया । मुनि का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया । अपने पुत्र अनन्तवीर्य को राजगद्दी पर स्थापित कर उसने प्रवज्या ग्रहण कर ली । बहुत काल तक संयम की आराधना की। एक बार मन से चारित्र की विराधना हो गई जिसकी वजह से वह मर कर भवनपति के इन्द्र चमर के रूप में जन्मा । ___अनन्तवीर्य अपने बड़े भ्राता अपराजित की सहायता से राज्य का संचालन करने लगा। एक समय कोई विद्याधर उसकी राजधानी में आ निकला । उसके साथ उन दोनों की मित्रता हो गई । इससे प्रसन्न हो कर विद्याधर ने दोनों भाइयों को महाविद्या प्रदान की। भनन्तवीर्य के यहाँ बरी और किराती नाम की दो दासियाँ थीं । वे संगीत नृत्य एवं नाट्यकला में बड़ी कुशल थीं। वे समय समय पर संगीत और नृत्य से दोनों भाइयों का मनोरंजन करती थीं ।
एक समय अनन्तवीर्य और अपराजित राजसभा में नृत्यांगनाओं की नृत्यकला का आनन्द ले रहे थे कि अचानक कौतुकप्रिय नारद जी वहां आ पहुँचे। दोनों भाई नृत्य देखने में इतने तल्लीन हो गये थे कि उन्हें नारद जी के आने का कोई पता ही न लगा । इसी वजह से वे नारदजी का यथोचित सन्मान नहीं कर सके । बस फिर क्या था ! नारदजी अत्यन्त ऋद्ध हुए और विना कुछ कहे वहाँ से चल दिये । मार्ग में सोचने लगे-वे दोनों भाई बड़े अभिमानी हैं। इन्हें अपने वैभव का गरूर है । अवश्य ही उन्हें अपनी मगरूरी का मजा चखना होगा । इस प्रकार विचार करते नारदजी वैतात्य पर्वत पर विद्याधरों के राजा दमितारि की राजसभा में पहुँचे । महाराज दमितारि ने नारदजी का यथोचित सम्मान कर उन्हें ऊँचे आसन पर विठलाया । नारदमुनि ने आशीर्वाद देकर कुशल प्रश्न पूछा । यथोचित