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तीर्थङ्कर चरित्र
रमा था । ग्रैवेयक का आयु पूरा कर वज्रायुध का जीव महारानी प्रीयमती के उदर में मेघ का स्वप्न सूचित कर उत्पन्न हुआ । जन्मने पर बालक का नाम मेघरथ रखा । सहस्रायुध का जीव भी देवलोक से चवकर मनोरमा के उदर में भाया । जन्मलेने पर उसका नाम दृढरथ रखा गया । दोनों बालकों ने कलाचार्य के पास समस्त कलाओं का अभ्यास किया ।
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सुमन्दिरपुर के महाराजा निहतशत्रु को तीन पुत्रियां थीं । उनमें प्रियमित्रा और मनोरमा का विवाह युवराज मेघरथ के साथ हुआ एवं छोटी राजकुमारी सुमति का विवाह दृढरथ के साथ संपन्न हुआ। ये दोनों राजकुमार सुखपूर्वक काल यापन करने लगे ।
कालान्तर में राजकुमार मेधरथ की रानी प्रियमित्रा ने एक पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम नन्दिषेण रखा गया । मनोरमा ने भी मेघसेन नामक पुत्र को जन्म दिया । राजकुमार दृढरथ की पत्नी ने भी एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम रथसेन रखा गया ।
कुछकाल के बाद लोकान्तिक देवों ने आकर महाराज धनरथ से निवेदन किया- "स्वामिन् ! अब आपके धर्मतीर्थ प्रवर्तन का समय आ गया है । कृपा कर लोक हित के लिये आप प्रव्रज्या ग्रहण करें" वे तो तीन ज्ञान के धनी और संसार से विरक्त थे हो । योग्य अवसर भी आ गया था । अतएव महाराज ने युवराज मेघरथ को राज्यभार सौंपा और राजकुमार दृढरथ को युवराज पद प्रदान कर वर्षोदान दिया और संसार छोड़ कर दीक्षा ग्रहण की । कठोर तप कर केवलज्ञान प्राप्त किया और धर्म तीर्थं का प्रवर्तन किया ।
मेघरथ राजा न्याय और नीति से राज्य संचालन करने लगे ।
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उनके राज्य में समस्त प्रजा सुख पूर्वक रहती थी । महाराजा स्वयं धार्मिक होने से प्रजा में भी धार्मिक वातावरण फैला हुआ था ।