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तीर्थङ्कर चरित्र
और मंत्रवल से अग्नि को बुझा दिया । वनावटी सुतारा जो मंत्रबल से बनी हुई थी वह भाग गई ।
श्रीविजय राजा ने जब यह घटना सुनी तो वह बड़ा क्रुद्ध हुआ उसने अशनिघोष से युद्ध कर सुतारा को मुक्त करने का निश्चय किया। वह विद्याधरों के साथ वैताध्य पर्वत पर आया और वहां के राजा अमिततेज से मिला । अमिततेज को जब अपनी बहन के अपहरण का पता लगा तो वह भी बड़ा क्रुद्ध हुआ। उसने श्रीविजय के साथ अपनी विशाल सेना भेजी । श्रीविजय ने महाज्वाला नाम को विद्या की सहायता से अशनिघोष की तमाम सेना नष्ट कर दी । अशनिघोष अपने प्राण बचाने के लिये वहां से भागा। महाज्वाला भी उसके पीछे पड़गई । अशनिघोष भरतार्द्ध में सीमंत गिरिपर केवलज्ञान प्राप्त अचल बलदेव मुनि की शरण में गया । अशनिघोष को केवली सभा में बैठा देख महाज्वाला वापस लौट आई। महाज्वाला के मुख से अचल बलदेव मुनि को केवलज्ञान होने की वात सुनकर अमिततेज सुतारा और श्रीविजय विमान में बैठकर मुनि के दर्शन के लिये सीमंतगिरि पर आये। केवली को वन्दन कर उनकी देशना सुनने लगे।
देशना समाप्ति के बाद अशनिघोष ने अचल केवली से पूछामेरे मन में कोई पाप नहीं था फिर भी मै सुतारा की ओर इतना क्यों आकृष्ट हुआ और मैने उसका अपहरण क्यों किया ?
अचल केवली ने सत्यभामा और कपिल का पूर्ववृत्तांत सुनाया और कहा कि-पूर्वभव का स्नेह ही इसका मुख्य कारण था ।
अपने पूर्व जन्म का वृत्तांत सुनकर अशनिघोष को वैराग्य उत्पन्न हो गया उसने अचल केवली के समीप दीक्षा धारण करली ।
अमिततेज ने पूछा-हे भगवन् ! मैं भन्य हूँ या अभव्य हूँ? केवली ने कहा-अमिततेज तुम आज से नौवें भव में सोलहवे तीर्थङ्कर और पांचवें चक्रवर्ती बनोगे और श्रीविजय राजा तुम्हारा प्रथम पुत्र और प्रथम गणधर वनेगा।