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आगम के अनमोल रत्न
बल से एक सुन्दर और स्वर्णवर्णी हिरण बनाया । उस हिरण को भागते हुए सुतारा ने देख लिया और अपने स्वामी से कहा-प्राणनाथ ! मुझे यह हिरण चाहिये।
श्रीविजय हरिण को पकड़ने के लिये उसके पीछे दौड़ा । 'वह' बहुत दूर निकल गया । सुतारा को अकेली पाकर अशनिघोष ने उसे उठा लिया और उसकी जगह बनावटी सुतारा रखदी । अशनिघोष सुतारा को लेकर भाग निकला । बनावटी सुतारा जोर-जोर से चिल्लाई 'मुझे कुक्कुट सर्प डस गया । हाय मै मरी !' यह आवाज सुनते ही राजा घबड़ाया और शीघ्रता से दौड़कर वहाँ आया। उसने बेहोश सुतारा के अनेक इलाज किये मगर कोई लाभ नहीं हुआ और रानी मर गई । रानी का वियोग राजा सह नहीं सका। उसने एक बड़ी चिता तैयार करवाई और अपनी रानी के साथ वह भी चिता में जाकर बैठ गया । धू धू करके चिता जलने लगी।
उसी समय दो विद्याधर आये । उन्होंने पानी मंत्रित करके चिता पर डाला । चिता शान्त हो गई और उसमें से नकली सुतारा के रूप में प्रतारणी विद्या अट्टहास करती हुई भाग गई। यह सब आश्चर्य देखकर श्रीविजय ने आगन्तु : विद्याधरों से पूछा आप कौन हैं ? यह चिता कैसे घुझ गई भौर मरी हुई सुतारा कहाँ अदृश्य हो गई ?
विद्याधर ने कहा-श्रीविजय 1 मेरा नाम संभिन्नश्रोत है । यह मेरा पुत्र दीपशिख है। हमने अपने स्वामी अमिततेज़ की बहन सुतारा को जबरदस्ती हरण करते हुए अशनिघोष को देखा । हमने उसका रास्ता रोका और उससे लड़ने को तैयार हुए । इतने में सुतारा ने कहा विद्याधरो ! तुम तुरत ज्योतिर्वन में जाओ और उनके प्राण बचाओ । मुझे मरी समझकर कहीं वे प्राण न दे दें'। 'उनको अशनिघोष द्वारा मेरे अपहरण के समाचार देना । वे आकर मेरा अवश्य उद्धार करेंगे। हम यह सुनते ही तुरन्त इधर दौड़ भाये