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तीर्थकर चरित्र । । ।
यौवन वय के प्राप्त होने पर भगवान की काया ७० धनुष ऊँची हो गई । अब राजकुमार वासुपूज्य के साथ अपनी राजपुत्रियों का विवाह कराने के लिए अनेक राजाओं के संदेश महाराजा वसुपूज्य के पास आने लगे। माता पिता भी अपने पुत्र को विवाहित देखना चाहते थे किन्तु वासुपूज्य सांसारिक भोग विलास से सदैव विरक रहते थे। उन्हें संसार के प्रति किंचित भी भासक्ति नहीं थी। एक दिन अवसर देखकर माता पिता ने वासुपूज्य से कहा-पुत्र ! हम वृद्ध होते जा रहे हैं। हम चाहते हैं कि तुम विवाह करके हमारे इस भार को अपने कन्धे पर ले लो। हमें तुम्हारी यह उदासीनता अच्छी नहीं लगती । पिता • की बात सुनकर वासुपूज्य कहने लगे-- पूज्य पिताजी ! आपका पुत्र-स्नेह मैं जानता हूँ किन्तु मै चतुर्गति रूप संसार में भ्रमण करते हुए ऐसे सम्बन्ध अनेक वार कर चुका हूँ। संसार सागर में भटकते हुए मैने जन्म मरणादि के अनन्त दुःख भोगे हैं। अब मै संसार से उद्विग्न हो गया हूँ इसलिए अब मेरी इच्छा मोक्ष प्राप्त करने की है। भाप मुझे स्व-पर कल्याण के लिए प्रवज्या ग्रहण करने
आज्ञा दीजिए।
वासुपूज्य के तौव वैराग्य-भावना के सामने माता पिता को झुकना पड़ा । अन्त में उन्होंने उन्हें प्रवज्या लेने की स्वीकृति दे दी। तत्पश्चात् लोकान्तिक देवों ने भी भगवान को प्रवजित होने की प्रार्थना की। भगवान ने वर्षीदान दिया। देवों द्वारा सजाई गई पृथ्वी नाम की शिविका पर मारूढ़ हो विहारगृह' नामक उद्यान में भगवान पधारे। उस दिन भगवान ने उपवास किया था। फाल्गुनी अमावस्या के दिन वरुण नक्षत्र में दिवस के अपराह्न में पंचमुष्टी लुंचन कर प्रव्रज्या प्रहण की। भगवान के साथ छः सौ राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की। भगवान को उस दिन मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ। इन्द्र द्वारा दिये गये देव-दूष्य को धारण कर भगवान ने अन्यत्र विहार कर दिया ।