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तीर्थङ्कर चरित्र
उपस्थित हुभा । इन्दुसेन के रूप और गुणों से मुग्ध हो कर श्रीकांता ने इन्दुसेन के गले में वरमाला डाल दी। दोनों का विवाह संपन्न हो गया । बलराजा ने बहुत सा धन व साथ में अनन्तभती नामकी एक वेश्यापुत्री को देकर सम्मान पूर्वक इन्दुसेन और श्रीकान्ता को विदाई दी। दोनों घर पहुँचे । अनन्तमती अत्यन्त सुन्दरी थी । उसके अनुरम सौन्दर्य को देखकर राजकुमार इन्दुसेन और विन्दुसेन दोनों उसपर आसक्त हो गये । दोनों भाई उसे प्राप्त करना चाहते थे। इस बात को लेकर दोनों भाई युद्ध के लिए तैयार हो गये । महाराज श्रीषेन को जब इस बात का पता लगा तो वे तत्काल वहाँ आये और अपने दोनों पुत्रों को समझाने लगे किन्तु उनका समझाना व्यर्थ गया । महाराज निराश हो कर अन्तःपुर में चले आये। उन्हें पुत्रों की दुर्दमता, भातृ-वैर और निर्लज्जता से बड़ा आघात लगा । नरेश अब जीवित रहना नहीं चाहते थे । उन्होंने तालपुट विष से व्याप्त कमल को सूंघकर प्राण त्याग दिये । दोनों रानियों ने भी महाराजा का अनुसरण किया। सत्यभामा ने यह सोचकर फूल सूंघ लिया कि अगर जीती रहुँगी तो कपिल मुझे अपने घर जरूर ले जायगा । इस प्रकार ये चारों जीव मर कर जंबूद्वीप के उत्तर कुरुक्षेत्र में चुगल मनुष्य के रूप में उत्पन्न हुए। श्रीषेन और अभिनन्दिता तथा शिखिनन्दिता और सत्यभामा, इस प्रकार दो युगल सुख पूर्वक जीवन विताने लगे ।
इधर अनन्तमतो वैश्या को पाने के लिये दोनों भाई युद्ध करने लगे । उस समय चारणमुनि वहाँ आए और दोनों को उपदेश दिए मुनि का उपदेश और अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर दोनों भाइयों को वैराग्य उत्पन्न होगया । उन्होंने चार हजार पुरुषों के साथ दीक्षा ग्रहण की । अन्त में दोनों भाइयों ने उग्र तप कर केवलज्ञान प्राप्त किया । शरीरान्त के बाद वे मोक्ष में गये। द्वितीय और तृतीय भव -
. श्रीषेनराजा आदि चारों युगलिक भव को पूर्त कर मृत्यु के पश्चात् सौधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुए ।