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तीर्थकर चरित्र
जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रत्नपुर नाम का नगर था । वहाँ सूर्य की तरह प्रतापी 'भानु' नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम 'सुव्रता था'। वह शीलवती एवं पतिपरायणा थी । दृढरथ मुनि का जीव वैजयन्त विमान से चवकर वैशाख शुक्ल सप्तमी के दिन पुष्यनक्षत्र में महारानी के उदर में उत्पन्न हुभा । महारानी ने -तीर्थकर के सूचक चौदह महास्वप्न देखे ।
गर्भकाल के पूर्ण होने पर माघ शुक्ला तृतीया के दिन पुष्यनक्षत्र में वन चिन्ह से चिन्हित सुवर्णवर्णी पुत्र को महारानी ने जन्म दिया। उसी समय भोगकरा आदि दिग्कुमारिकाओं ने आकर प्रभु की माता का सूतिका कर्म किया । सौधर्म भादि इन्द्रों ने भगवान को मेरु पर्वत पर लेजाकर अतिपाण्डुक शिला पर उनका जन्माभिषेक किया । '
जन्माभिषेक होने पर इन्द्र ने प्रभु को माता की गोद में रख दिया। माता पिता ने वालक का जन्मोत्सव किया। जब भगवान गर्म में थे तब माता को धर्म करने का दोहद उत्पन्न हुआ था इसलिए बालक का नाम धर्म रखा । भगवान शिशु भवस्था को पार कर युवा हुए । युवावस्था में भगवान के शरीर की उँचाई ४५ धनुष थीं। अनेक राजकुमारिओं के साथ भगवान का विवाह हुमा। जन्म से ढाई लाख वर्ष बीतने पर पिता के आग्रह से भगवान ने राज्य ग्रहण किया। पांच लाख वर्ष तक राज्य करने के पश्चात् भगवान ने प्रव्रज्या ग्रहण करने का निश्चय किया । तदनुसार लोकान्तिक देवों ने भी दीक्षा लेने के लिये विनती की । नियमानुसार भगवान ने वर्षीदान दिया। देवों द्वारा सजाई गई 'नागदत्ता' नामक शिविका में बैठकर भगवान वप्रकाचन उद्यान में पधारे। वहाँ षष्ठ तप की अवस्था में एक हजार राजाओं के साथ माघशुक्ला त्रयोदशी के दिन पुष्य नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की। भगवान को उसी समय मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न होगया ।