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तीर्थङ्कर चरित्र हुए वादल, टुकड़े टुकड़े होकर बिखर गये । क्षणभर में वादलों का नभमण्डल में छा जाना और क्षणभर में विखर जाना देखकर राजा विचार में पड़ गया । उसने सोचा--
"ओह ! यह कैसो विडम्बना है। बादलों की तरह संसार की सभी पौद्गलिक वस्तुएँ भी नष्ट होने वाली हैं।" बादलों की तरह पौद्गलिक पदार्थों की असारता का विचार करते हुए राजा को वैराग्य हो गया। उसने अपने पुत्र विमलकीर्ति को बुलाकर उसे राज्याधिकार दे दिया और स्वय स्वयंप्रभ आचार्य के समीप दीक्षित हो गया । प्रव्रज्या स्वीकार करने वाद वे पूर्ण उत्साह के साथ साधना करने लगे । परिणामों की उच्चता से तीर्थकर नाम कर्म को पुष्ट किया
और समाधि पूर्वक आयुष्यपूर्ण करके 'आनत' नामके नौवे स्वर्ग में उत्पन्न हुए । स्वर्ग के सुखभोग कर आयुष्य पूर्ण होने पर 'श्रावस्ती' नगरी के 'जितारी' नाम के प्रतापी नरेश की 'सेनादेवी' नामकी महारानी की कुक्षि में उत्पन्न हुए । महास्वप्न और उत्सवादि तीर्थङ्कर के गर्भ एवं जन्मकल्याणक के अनुसार हुए ।
भगवान का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला १४ को हुमा । प्रभु का शरीर चार सौ धनुष ऊँचा था । युवावस्था में भगवान का अपने ही समान राजाओं की श्रेष्ठ कुमारियों के साथ विवाह हुआ। पन्द्रह लाख पूर्व तक आप कुमार युवराज पद पर रहे। पिता ने प्रभु को राज्याविकार देकर प्रवज्या ले ली । प्रभु ने चार पूर्वांग और चवालीस लाख पूर्व की उम्र होने पर वर्षीदान देकर मार्गशीर्ष पूर्णिमा को प्रवज्या स्वीकार कर ली । प्रभु चौदह वर्ष तक छमस्य रहे । कार्तिक कृष्णा पंचमी के दिन बेले के तप युक्त प्रभु के धाति म नष्ट हो गये और केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हो गया। भगवान ने केवलज्ञान के पश्चात् चतुर्विध तीर्थ की स्थापना की।
__ भगवान के दो लाख साधु, तोनलाल छत्तीस हजार साध्वियों, २१५० चौदह पूर्वधर, ९६०० अवधिज्ञानी, १२१५० मनःपर्ययज्ञानी,