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आगम के अनमोल रत्न
वान को मनःपर्यवज्ञान उत्पन्न हो गया । इस ज्ञान से वे मनवाले प्राणियों के मनोगत भावों को जानने लगे । भगवान के साथ एक हजार राजाओं ने भी दीक्षा ग्रहण की। दोक्षा के पश्चात् भगवान ने सहस्राम उद्यान से विहार कर दिया । दूसरे दिन अजितनाथ भगवान ने अपने बेळे का पारणा ब्रह्मदत्त राजा के घर परमान्न से किया। पारणे के समय देवों ने दिव्य वृष्टि की और दान देनेवाले की मुक्तकण्ठ से प्रशंसा की। भगवान तप संयम की आराधना करते हुए ग्रामानुग्राम विचरने लगे। इस प्रकार छद्मस्थ अवस्था में विचरते हुए भगवान के बारह वर्ष व्यतीत होगये । पौषमास की शुक्ल एकादशी के दिन भगवान विहार करते हुए पुनः सहस्राम्र उद्यान में पधारे। उस दिन भगवान के वेले का तप था। ध्यान करते हुए भगवान के घन घाती कर्म नष्ट हो गये और केवलज्ञान केवलदर्शन उत्पन्न हो गया। जिससे वे सम्पूर्ण चराचर वस्तु को जानने लगे । देवों और इन्द्रों ने भगवान का केवलज्ञान उत्सव मनाया। समवशरण की रचना हुई। उद्यान पालक ने सगर महाराजा को भगवान के आगमन और केवलज्ञान की खबर सुनाई । महाराज सगर बड़े आडम्बर के साथ भगवान के दर्शन के लिये आये । भगवान ने समवशरण के बीच अपनी देशमा प्रारंभ कर दी। भगवान को देशना सुनकर हजारों नर नारियों ने त्याग मार्ग स्वीकार किये जिसमें सगर चक्रवर्ती के पिता सुमित्रविजय भी थे जो कि भगवान के काका थे तथा भावदीक्षित थे।
भगवान की देशना से गणधर पद के अधिकारी सिंहसेन आदि ९५ महापुरुषों ने दीक्षा ग्रहण की। भगवान के मुख से त्रिपदी का श्रवण कर उन्होंने चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना की। भगवान ने विशाल मुनिसमूह एवं गणधरों के साथ सहस्राम्र उद्यान से निकल कर बाहर जनपद में विहार कर दिया । विहार करते हुए भगवान कोशांवी नगरी के निकट पहुँचे । वहाँ शालिग्राम के निवासी