Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम मख्या
काल न
___
खाद
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
wanlod
AN
.
अनेका
T
Lama
आन्त जयति जाननामिनाया
MARArea
का
ERA JAMSHAMARE... ENTERTAINMENT
गुणमुख्य-कल्पा
PANCHAM
ENERNEARNINMENT
MAAVAT
-
अनेकान्तात्मिका
AR
SAUR
स्याद्वादमपिणी
सापेक्षवादिनी
Man
IESJ IME -may-RSAMEENA
MERashiressippA JERTAMANEMAMATA
KARNATIONA
RISTOTRAM
Sonote.in
/PLANATAWvahinion
n
i witune- tra
VyanNS E-TE.MAAY".
MERIKA JAGATi--
स्यान
PhowinARTY
.
..,
Kranti
ic
+
NANN MEEMENT
10-15
SONAL
SA0.04.
U - 1-H INI NAVARANASENA
HARISHALANNEL
Fri
ainik
P rerana
M 4-
11 ANA P ray:
नष्ट
ERATION:
विध्यनुभयोष्ट
ramyporting ....
Madirtrainst
-1 २६.1 KamamipriNLIPHA
AIADA Jan
EDER
...
........
ANCHAR
R INDINISTANTawdsairupan
त्व प्रापका
AashiqMAKAR
ISH
R
MAHARASHTRAPARINEE
READ
JARSHAN
FAawaim
RS
a
laywanceTAASTRA
HERE
AWAH
STA
JALA JANAMIN
-
n-
indialistudies
सम्यवस्न माहिर
Shuklal
Holiabita
.kakkar
फ.मा.
किग्गा १-२ मिया मनाया जा सकता
- सम्पादक- जुगल किशोर मुख्तार -
१६४२
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची
१. समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
... पृष्ठ १ १६. विश्ववाणी का जैन संस्कृति अंक .... ""पृष्ठ ४८ २. जैनकला और उसकामहत्त्व-बाबू जयभगवान जैन वकील ३ १७. ग्रंथ-प्रशस्तिसंग्रह और दि. जैनसमाजश्रगरचंद नाहटा ४६ ३. कवि. भगवतीदास और उनकी रचनाएँ-[परमानंद शास्री १३ १८. तत्त्वार्थ सूत्रका अंतः परीक्षण-[पं० फूलचंद शास्त्री ५१ ४. मरुदेवी-स्वप्नावली-4 पन्नालाल जैन साहित्याचार्य १७ १६. हृदय-द्रावक दो चित्र-बा. महावीर प्रसाद जैन ५४ ५. मैं और वीरसेवामन्दिर-जयभगवान जैन वकील २३ २०. भ. महावीर और अहिमा सिद्धान्त दरबारीलाल जैन ५६ ६.० शीतलप्रसाद जी का वियोग-बा,जयभगवानवकील २४/२१. पन्धी से(कविता)-[श्री 'कुसुम' जैन
५८ ७. बन्दी-(कविता)-पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' २५ / २२. तामिल भाषा का जैन साहित्य-प्रो. ए. चक्रवती ५६ ८. महत्व की प्रश्नोत्तरी-[सम्पादक
२६ २३. गिग्निगर की चन्द्रगुफा-[प्रो० हीरालाल जैन ६५ ६. मुख्तार साकी वसीयत और वीर सेवामंदिरट्रस्टकीयोजना २७/२४. वरदत्त की नि० भूमि और वरोगनिर्वाण०[ दीपचंदजैन ६६ १०. रिक्शा गाड़ी (कविता) श्रीहरिप्रसाद शर्मा 'अविकमित' ३० २५. पंजाब में उबलब्ध कुछ जैन लेख-[डा बनारसीदास ७१ ११. सच्चे अचोंमे 'दानवीर'-[जुगलकिशोर मुख्तार (चित्रार) २६. श्रीवीरपंचक-(कविता)-[पं० हरनाथ द्विवेदी ७४ १२. बाबा भागीरथजी वर्णी-[ परमानंद शास्त्री . ३१ २७. बलात्कार के समय क्या करे ?-[महात्मा गाँधी ७५ १३. श्रात्मसमर्पण (कहानी)-श्री भगवत्' जैन ३३ २८. यशस्तिलक का मंशोधन-पि० दीपचंद जैन पाएड्या ७६ १४. पराधीन का जीवन ऐमा(कविता)-श्री 'भगवत्'जैन ३७ २६. माहित्य-परिचय और ममालाचन- परमानंदशास्त्री ६५ १५. पउमचरिय और पद्मचारत-श्री नाथूराम 'प्रेमी' ३८ ३०ऐनालालदि जे०मरस्वतीभवनब गई ह०ग्रंथोकी सूची
अनेकान्तस गहरा प्रेम
श्रीमान बाबू छोटेलालजी जैन रईम कलकत्ता 'अनकान्त' में कितना प्रेम रग्बते हैं, यह बात ममय समयपर अनेकान्तके पाठकों के सामने आती रही है । गत वर्ष आपने १२५) रु० की सहायता भेजकर अनेकान्तक सहायकोंमें अग्रस्थान प्राप्त किया था। पिछले दिनों-फर्वरी मामक अन्तिम मताहम-जब मै कलकत्ता गया और वहाँ मे वापिस चलने लगा तो आपने चूपक्रमे १००) रु० का नोट लाकर मेरे सामने रख दिया। 'यह कैमा ?' मेरे पूछनेपर, आपने फर्माया कि यह अनेकान्तकी सहायताका है। मैने कहा सहायताके तो आप १२५) रु. भेज चुके हैं, क्या स्मरण नही रहा आप बोल 'स्मरण तो मब कुछ है; परन्तु वे रुपये तो पिछले सालकी बाबत दिये थे, इस साल भी तो खर्च के लिये चाहिये, इन्हें दूसरे वर्षकी महायता में जमा कर लीजिये। मै देखकर दंग रह गया । इस कहते हैं अनेकान्तमे गहरा प्रेम, जो बिना मॉगे र बिना किसी प्रेरणाक स्वयं ही पत्रको ज़रूररियातको सम्भकर उसकी ओर सहायताका हाथ बढाया जाता है । इस गाढ प्रेमके लिये बाबू छोटेलालजीका जितना भी आभार माना जाय और उन्हें जितना भी धन्यवाद दिया जाय वह सब थोड़ा है। निःसन्देह ऐसे सच्चे सनके प्रेमियों के बल-बतेपर ही अनेकान्तको इस भारो मॅहगाईके ज़माने में उसी घटाये हए मूल्यपर निकालनेका साहस किया जारहा है। मै आपकी इस प्रेम-परिणति र उदार चित्तवृत्तिका हृदयसे अभिनन्दन करता है । आशा है दृमरे महानुभाव भी अनकान्तके प्रति अपने प्रमका इसी प्रकार परिचय देगे।
-जुगलकिशोर मुख्तार
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ए.
Kara ********
ॐ अहम् * अनेकान्त * सत्य, शान्ति और लोकहितके संदेशका पत्र नीति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास-साहित्य कला और समाजशास्त्रके प्रौढ विचारोंमे परिपूर्ण
सचित्र-मासिक
-
-
*
सम्पादक
जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर अधिष्ठाता 'धीरसेवामन्दिर' (समन्तभद्राश्रम)
सरसावा जि० सहारनपुर
पञ्चम वर्ष
[फाल्गुन से माघ, वीर नि० सं० २४६८-६६]
-
-
प्रकाशक परमानन्द जैन शास्त्री वीरसेवामन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर
-
जून सन् १९४३
(एक किरणका मूल्य । पांच पाना
वार्षिक मूल्य
तीन रुपये। ए -जर....
...
....
....
...*
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तके पंचम वर्षकी विषय-सूची
विषय और लेखक
पृष्ठ विषय और लेखक अछूतकी प्रतिज्ञा (कहानी) [श्री भगवत्' जैन १२८ जीवस्वरूप-जिज्ञासा [जुगलकिशोर मुख्तार २०५ अनेकान्तके मुखपृष्ठका चित्र (संपादक ३३३ जैनकला और उसका महत्व बा० जयभगवान ३ अनेकान्त-बहिापिका [पं०धरणीधर शास्त्री २०६ जैन जातियों के प्राचीन इतिहासकी समस्या अपभ्रंशभाषाकाशान्तिनाथचरित्र परमानन्दशास्त्री२५३
[श्री अगरचन्द नाहटा ३२१ अपभ्रंशभाषाके प्रसिद्ध कवि पं० रइधू
जैनशास्त्रभंडार सोनीपतमें मेरे पाँच दिन [पं० परमानन्द शास्त्री ४०१
बा० माईदयाल जैन बी.ए. वी.टी. १६८ अपराधी (कहानी) [श्री 'भगवत्' जैन ३५६ जैनसंस्कृतिका हृदय [पं० सुखलाल संघवी ३१० अभिनन्दनपत्र [वीरसेवकसंघ देहली २३६ जैनसाहित्यमें प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री आत्मसमर्पण (कहानी) [श्री भगवत्' जैन. ३३ [श्री वासुदेवशरण अग्रवाल क्यूरेटर ३६३ आदमी, जानवर या बेकार ? [श्री भगवत्' जैन २४८ तत्त्वार्थसूत्रका अन्तःपरीक्षण [पं० फूलचन्दशास्त्री ५१ बाबू-आन्दोलन [बाबू जयभगवानजी वकील २०१ तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण न्यायाचार्य पाशा-गीत (कविता) [श्री 'भगवत् जैन ३६१ पं० दरबारीलाल कोठिया २२५, ३६३ एक मुनिभक्त (पद्य कहानी) [श्री 'भगवत्' जैन २०२ तामिलभाषाका जैनसाहित्य [प्रो० ए० चक्रवर्ती ५६ एक साहित्यसेवीपर घोरसंकट जुगलकिशोर मुख्तार १६६ दही-बड़ोंकी डाँट [श्री दौलतराम 'मित्र' १६१ ऐ० पन्नालाल दि० जन सरस्वती भवन बम्बईके दीवाली और कवि [पं०काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित'२६५ ___कुछ हस्तलिखित ग्रंथोंकी सूची [सम्पादक ६७ नागौर, जयपुर और आमेरके कुछ हस्तलिम्बित कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएँ
_ ग्रंथोंकी सूची [सम्पादक ३६६ . [पं० परमानन्द शास्त्री १३ पिउमचरिय और पद्मचरित [श्री नाथूराम प्रेमी ३८ क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियाँ
पर्डमचरियका अन्तःपरीक्षण [पं० परमानंद शास्त्री३३७ [पं० सुमेरचन्द दिवाकर बी.ए. एल.एल. बी. पथिक (कविता) [श्री ददुलाल जैन २६७ ग्रंथ-प्रशस्ति-संग्रह और दि० जैन समाज
पन्थीसे (कविता) श्रिी 'कुसुम' जैन [श्री अगरचन्द नाहटा ४६ पराधीनताका जीवन ऐसा(कविता)[श्री भगवत जैन३७ गिरिनगरकी चन्द्रगुफा [प्रो० हीरालाल जैन ६५ परीक्षामुखसूत्र और उसका उद्गम [न्यायाचार्य गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्र० के संस्मरण
पं० दरबारीलाल कोठिया ११६ [पं० सुमेरचन्द दिवाकर बी. ए. एल. एल. बी. २४१ पंचायतीमंदिर सोनीपतके कुछ हस्तलिखित चलती चक्की [डा० भैयालाल जैन
२६३
ग्रंथोंकी सूची [सम्पादक २१५ चामुण्डराय और उनके समकालीन प्राचार्य पंजाबमें उपलब्ध कुछ जैन लेख [डा० बनारसीदास ७१
[पं० नाथूराम प्रेमी २६२ पंडित-गुण-[सम्पादक चूनडीग्रंथ' [पं० दीपचन्द पांड्या २५७ प्रश्नोत्तरी [ बा. जयभगवान वकील जीवन इसका नाम नहीं है (कविता)-
प्रेम-कसौटी [ श्रीदौलतराम 'मित्र' . [श्री 'भगवत्' जैन २०३ बन्दी (कविता) [पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' २५ जीवन है संग्राम कहानी) [श्री भगवत्' जैन २८८ बलात्कार के समय क्या करें ? [महात्मा गांधी ७५
बी १३
चरियका
दलाल
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्र० शीतलप्रसादजीका वियोग[बा जयभगवान २४ वीरशासन और उसका महत्त्वबाबा भगीरथजी वर्णीका स्वर्गवासांपरमानंद शास्त्री३१ न्यायाचार्य पं०दरबारीलाल कोठिया १८८ बासी फुल (कविता) [श्री 'भगवत् जैन १३८ वीर-शासन-जयन्ती (कविता) [श्रीयोमप्रकाशशर्मा२६१ बुद्धिवादविषयक कुछ विचार [ दौलतराम मित्र' २६८ वीरसेवामन्दिरमें वीरशासन-जयन्ती-उत्सव भगवान महावीर [श्रीविजयलाल जैन ३५३ न्यायाचार्य पं० दरवारीलाल कोठिबा २६६ भ० महावीर और उनका अहिंसा सिद्धान्त
वेदना-गीत (कबिता)-[पं० चैनसुखदास [न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया ५६ श्रमण-संस्कृति और भाषाभगवान महावीरकी मॉकी |बा. जयभगवान ५१५
[न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमार १६३ मध्यप्रदेश और बरारमें जैनपुरातत्व किान्तिसागर१६० श्रवणबेल्गोल और इन्दौरके हलिग्रन्थोंकीसूची मरुदेवी-स्वप्नावली अनु.पं० पन्नालाल साहित्या०१७
[सम्पादक २६६ महत्वकी प्रश्नोत्तरी [सम्पादक
२६ शान्ति-भावना [पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' १८१ महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवनस्वयंभु
श्री अकलंकचौर विद्यानन्दकी राजवातिकादि कृत्तियों पर [पं० नाथूगमजी प्रेमी २६७ पं०सुखलालजीके गवेषणापूर्णविचार-[सम्पादक २७५ महाधवल अथवा महाबन्धपर प्रकाश
श्री चारुकीर्ति भट्टा०भंडार मूडबिद्रीके कुछ हस्तलिखित पिं० सुमेरचंद दिवाकर बी०ए० शास्त्री ४०५
ग्रन्थोंकी सूची [सम्पादक
२०६ मंगलाचरण पर मेरा अभिमत
श्री दादीजा [जुगलकिशोर मुख्तार [पं० सुमेरचन्द दिवाकर बी० ए० शास्त्री २६४
श्रीवीर-पंचक (कविता)[पं०हरनाथ द्विवेदी ७४ मुख्तार मा. की वमीयत और वीर सेवामन्दिर
श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच ट्रस्टकी योजना [परमानन्द शास्त्री
२७
[सम्पादक १०७, १७३ मेंकके विषय में शंका-समाधान दौलतराम'मित्र'३२३
सच्चे अर्थों में दानवीर-[जुगलकिशोरमुग्न्तार३० (चित्र) मै और वीरमवामन्दिर- बिा. जयभगवान २३ 'मोक्षमार्गस्य नेतारं न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार २०१ समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ? यशस्तिलकका सशोधन [पं0 दीपचन्द्र पांड्या ७
न्याया० ५० दरवारीलाल कोठिया ३८३ रत्नाकर वर्णी और रत्नाकराधीश्वरशतक
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने-[सम्पादक [पं० के० भुजवली जैन शास्त्री २५१
१, १०५, १६६, १७, २७३, ३२६,३८१ राष्ट्रकूट नरेशअमोघवर्षकी जैन दीक्षा
समर्थन-पं० परमानन्द शास्त्री [प्रो० हीरालाल एम०ए० १८३
समाजके दो गण्यमान्य सज्जनोंका वियोग १६७ रिक्शागाड़ी(कविता)-[हरिप्रमादशर्मा अविकसित ३०
सम्पादकीय (टिप्परिणयाँ)
३०६,४२३ लाला जिनेश्वरदास संघवी-[ मम्पादक २४० सांथेसिद्धिपरममन्तभद्रका प्रभाव--[सम्पादक ३५५ वरदत्तकी निर्वाणमि और वरांगके निर्वाणपर मंकटका समय (कविता)-[श्री 'भगवन् जैन १२३
विचार | पं0 दीपचन्द जैन ६६ मामायिकपाठ-[साहित्याचार्य पं० पन्नालाल वह देवता नहीं मनुष्य था-दिौलतराम 'मित्र' १८२ साहित्य-परिचय और समालोचनवह मनुष्य नही देवता था [पं. अजितकुमार ५६८ ० परमानन्द शास्त्री ६५, १५, १६, ४१७ वादिगजसूरि-[पं. नाथगम प्रेमी १३६ मीनलसवामन्दिर देहली के लिये अपील १६४ वासनाओं के प्रति (कविता)-श्री भगवत जैन १२ सेठ भागचन्दजीके भापणके कुछ अश ००७ विश्ववाणीका जैन-संस्कृतिग्रंक [सम्पादक ४८ हृदयद्रावक दो चित्र-बाच महावीरप्रसाद जैन ५४
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तकी सहायक-सूची वीरसेवामन्दिरसे 'अनेकान्त' के प्रकाशनकी योजना होनेपर गत दो वर्षों के भीतर जिन सज्जनोंने अनेकान्तकी ठोस सेवाओके प्रति अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे घाटेकी चिन्तासे मुक्त रखने आदिके लिये २५) ५०) १००) या इससे अधिककी सहायताका वचन देकर उसकी सहायक श्रेणी में अपना नाम लिखाया था, उनमेंसे जिन्होंने जितनी सहायता भेजकर संचालकोंके उत्साहको बढ़ाया है उनके शुभनाम सहायताकी रकम सहित निम्न प्रकार हैं। साथ ही, जिन सजनोने दूसरोंको अनेकान्त फ्री (विना मूल्य )या अर्ध फ्री भिजवाया है उनके शुभ नाम भा दिये जाते हैं :२२५) श्रीमान् बाबू छोटेलालजीजैन रईस, कलकत्ता।
,, ला. दलीपसिहजी जैन कागजी और उनकी मार्फत, देहली५०) ला० सिद्धोमलजी एण्ड सन्स काराजी, देहली। ५०)ला. घूमीमल धर्मदासजी काराजी देहली।
५०) ला० दलीपसिंहजी, पा० एल० बच्चूमलजी कागजी और बा० पत्रालालजी अग्रवाल । १०१) श्रीमान बा० अजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ १०१) ,, बा० बहादुरसिंहजी सिघी, कलकत्ता । १००), साहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर । १००) , बा० शान्तिनाथजी सुपुत्र बा० नन्दलालजी जैन, कलकत्ता। १००) सेठ जास्वीराम बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता । १००)
बा. जयभगववानजी वकील आदि जन पंचानन, पानीपत्त । रा० ब० बाबू उलफतरायजी जैन रि० इजीनियर, मेरठ।
साहू श्रेयांसप्रसादजी जैन, लाहोर । २५) वार्षिक मध्ये १००) रु० के। ५०) , बा० लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक । २५) वार्षिक, मध्ये १८०) रु० के।
ला० प्रद्युम्नकुमारजी जैन रईस, सहारनपुर।
पं० नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, बम्बई। २५) ,, ला० रूढामलजी जैन, शामियाने वाले, महारनपुर ।
बा० रघुवरदयालजी जैन एम० ए० करोलबाग, देहली। ,, सेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर।
ला० बाबूरामजी अकलङ्कप्रसादजी जैन, तिस्सा, जिला मुजफ्फरनगर । सवाई सिंघई धर्मदासजी भगवानदासजी जैन, सतना। ला० दीपचन्दजी जैन रईस, देहरादून । मंशी सुमतप्रसादजी जैन रि० अमीन, सहारनपुर
अनेकान्तको फ्री भिजवाने वाले विशेष सहायक ७१।) श्रीमान बा०विमलप्रसाद जी जैन, सदर बाजार, देहली । २०) ला० उदयराम जिनेश्वरदामजी बजाज सहारनपुर । २०) ल.. मित्तरमैनजी रिमरिम, मुजफ्फरनगर। २०) बा. देवेन्द्रकुमारजी और श्रीमती शकुन्तलादेवीजी नजीबाबाद । १५) ला० मिट्रनलालजी ओवरमियर तोतरो निवासी । १२) ला० पेरूमल चतरसेनजी, सरधना जि० मेरठ । १०) ला० रतनलालजी नई सड़क देहली । १०) रायसाहब बा० मीरीमलजी तातरों निवासी । १०) ला० वृन्दावन चन्दूलालजी, कैराना जि० मुजफ्फरनगर । १०) सेठ रोडमल मेघराजजी, सुमा।। १०) बा. महावीर प्रसादजी, बी०ए०, सरधना (मेरठ)। १०) ला० रखबचन्द राजमल जी, इन्दौर । ७॥) ला लक्ष्मीचन्दजी सेठी केकड़ी (अजमेर) 11) पं० दरबारीलालजी, सरसावा। -व्यवस्थापक
५१)
,
२५)
"
मरातुन
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
* ॐ अहम् *
वस्ततत्त्व-सघातक
विश्वतत्त्व-प्रकाशक
HEE
नीतिविरोषध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
वर्ष ५ किरण १-२
।
वीरसेवामंदिर (समन्तभद्राश्रम) मरम्मावा ज़िला महारनपुर फाल्गुन-चैत्रशुक्र. वीरनिर्वाण स. २४६८ विक्रम सं० १६१८-६९
। फरवरी-मार्च
१६४२
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
+martner
श्रीअजित-जिन-स्तोत्र यस्य प्रभावात त्रिदिवच्युतम्य क्रीडाबपि क्षीबमुखारविन्दः ।
अजेयशक्तिर्मवि बन्धुवर्गश्चकार नामाऽजित इत्यवन्ध्यम ॥६॥ 'जो देवलोकन अवतरित हुए थे श्रार इतने प्रभावशाली थे कि उनकी क्रीडाओ-बाललीलाओं-में भी उनका बन्धुवर्ग-कुटुम्बसमूह-हपन्मित्त-मुम्बकमल होजाता था, तथा जिनके माहात्म्यम वह बन्धुवर्ग पृथ्वीपर अजेय शक्तिका धारक हा-उसे कोई भी जीत नही मका-और (इलिये) उस बन्धुवगेन जिन का 'अजितमा मार्थक अथवा अन्वर्थक नाम रकबा ।'
अद्यापि यम्याऽजिनशासनस्य सतां प्रणेतः प्रतिमंगलार्थम ।
प्रगृह्यते नाम परंपवित्रं स्वसिद्धि-कामेन जनेन लोके ॥२॥ "जिनका शासन अनेकान्तमन-अजय था-सर्वथा एकान्तमतावलम्बी परवादीजन जिम जीतने में असमर्थ थे-और जो सत्पुरुपोंके-भव्यजनोंक-प्रधान नेता थे-उन्हें आत्मकल्याणके समीचीन मार्गमें 'न केनचिजायते (अन्तरंगेबाह्येश्वशत्रभिन जीयने वा) इत्यजित: अतएव अवन्ध्यमवर्थम' ।
-प्रमाचन्द्र:
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ वर्ष ५
प्रवृत्त कराने वाले थे—उन अजित तीर्थंकरका परमपवित्र - पापक्षयकारक और पुण्यप्रबर्धक — नाम आज भी असंख्यात काल बीत जीनेपर भी - लोकमें अपनी इष्टसिद्धिरूप विजय के इच्छुक जनसमूहकेद्वाराहर मंगल के लिये अपनी प्रत्येक इष्टसिद्धिके निमित्त - सादर ग्रहण किया जाता है- भव्यजनों की दृष्टिमें वह बराबर महत्वपूर्ण बना हुआ है ।'
२
अनेकान्त
यः प्रादुरासीत्प्रभुशक्ति-भूम्ना भव्याशयालीन कलंक- शान्यै । महामुनिर्मुक्त-घनोपदेहो यथारविन्दाऽभ्युदयाय भास्वान् ॥३॥
'घातिया कर्मोंके आवरणादिरूप उपलेपसे मुक्त जो महामुनि ( गणधरादि मुनियों के अधिपति) भव्य नोंके हृदयों में संलग्न हुए कलंकोंकी - अज्ञानादि दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि कर्मोंकी - शान्ति के लिये -- उन्हें समूल नष्टकर भव्यजनोंका आत्म-विकास सिद्ध करनेके लिये - जगतका उपकार करने
समर्थ अपनी वचनादि-शक्तिकी सम्पत्ति के साथा प्रदूर्भूत हुए, जिस प्रकार कि मेघोंके आवरण मुक्त हुआ सूर्य कमलोंके अभ्युदयके लिये उनके अन्तः अन्धकारको दूरकर उन्हें विकसित करनेके लिये - अपनी प्रकाशमय समर्थ शक्ति-सम्पत्तिके साथ प्रकट होता है ।'
येन प्रणीतं पृथु धर्मतीर्थ ज्येष्टं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखं । गाङ्गं हृदं चन्दनपङ्कशीतं गजप्रवेका इव धर्मताः ॥ ४ ॥
'(उक्त प्रकारसे प्रादुभूत होकर) जिन्होंने उस धर्मतीर्थका सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय, उत्तम क्षमादि दश लक्षण और सामायिकादि पंचचारित्र धर्मके प्रतिपादक आगमतीर्थका - प्रणयन किया- प्रकाशन कियाजो महान है-सम्पूर्ण पदार्थोंके स्वरूप- प्रतिपादनकी दृष्टिसे विशाल है-, ज्येष्ठ है - समस्त धर्मतीर्थोमं प्रधान है, और जिसका आश्रय पाकर भव्यजन (संसार- परिभ्रमण - जन्य ) दुःख - सन्ताप पर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं— उससे छूट जाते हैं- जिस प्रकार कि ग्रीष्मकालीन सूर्य के प्रतापसे सन्तप्त हुए बड़े बड़े हाथी चन्दनलेपके समान शीतल गंगाद्रहको प्राप्त होकर अथवा गंगाके अगाध जल में प्रवेश करके सूर्य तापजन्य दुःखको मिटा डालते है ।'
स ब्रह्मनिष्ठः सम मित्र - शत्रुर्विद्याविनिर्वान्ति कपाय-दोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिन श्रियं मे भगवान्विधत्ताम् ||५||
- (स्वयम्भू स्तोत्र)
'जो ब्रह्मनिष्ठ थे - अनन्य श्रद्धाके साथ आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा किये हुए थे -, (इसीमें) सम-मित्र-शत्रु थे – मित्र और शत्रुमें कोई भेद-भाव न करके उन्हें आत्मदृष्टिसे समान अवलोकन करते थे, आत्मीय कपाय दोषोंको जिन्होंने सम्यग्ज्ञानाऽनुष्ठानरूप विद्याके द्वारा पूर्णतया नष्ट कर दिया थाआत्मापरमे उनके आधिपत्यको बिल्कुल हटा दिया था - ( ओर इसीसे ) जो लब्धात्मलक्ष्मी हुए थे— अनन्त ज्ञानादि आत्मलक्ष्मीरूप जिनश्रोको जिन्होंने पूर्णतया स्वाधीन किया था - ; ( इस प्रकार के गुणो से विभूषित) वे श्रजितात्मा - इन्द्रियों के आधीन न होकर आत्म स्वरूपमें स्थित भगवान अजितजिन मेरे लिये जिनश्री का— श्रुद्धात्मलक्ष्मीकी प्राप्तिका - विधान करे । अर्थात मै, उनके आराधन-भजन- द्वारा उन्हीका आदर्श सामने रखकर, अपनी आत्माको कर्मबन्धनमे छुड़ाता हुआ पूर्णतया स्वाधीन करनेमे समर्थ होऊ, और इस तरह जिनश्रीको प्राप्त करनेमें वे मेरे सहायक बने ।'
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनकला और उसका महत्त्व
(लेखक-श्री बाब जयभगवान जैन बी० ए० वकील )
जैन कलाकी विशेषता:
सौम्य, सुन्दर और सुदृढ बनी है। भारतकी पुरानी संस्कृतिको जाननेके लिये जहाँ जैन- वास्तु-कलामें इसने अर्हन्तोंके रहनेके लिये हजारों
साहित्य का अध्ययन एक जरूरी चीज़ है। वहाँ वसतिका और विहार बनाये हैं. गुफायें और उपाश्रय बनाये जैनकलाका अध्ययन भी कुछ कम महत्त्वकी चीज़ नही है। हैं। इनके मृतक अवशेषों की रक्षाके लिये हजारों चैत्य जैनकला अपनी विशेषताओंके कारण भारतीय कलामें एक और स्तूप खडे किये हैं। इनके निर्वाण-स्थानोंको याद रखने अद्वितीय स्थान रखती हैं।
के लिये हजारों निसीदिका, और चरणपादुकाएँ बनाई हैं। यह कला श्राजकी सभ्यताकी चीज़ नहीं है, यह बहुत इनके पञ्चकल्याणकोंकी स्मृतिमे मुख्य मुख्य स्थानोंपर तीर्थ पुरानी सायनाकी चीज है। यह उन अादर्शोकी चीज़ है, बनाये हैं। इनकी मतियोंकी पूजा-प्रतिष्ठा करनेकेलिये हजारों यह उन मान्यताओंकी उपज है, जो भारतमे वैदिक मन्दिर और महनकट चैत्यालय बनवाये हैं । इनके शास्त्र
आर्यगण के श्रानेमे भी पहले यहाँके रहने वाले व्रात्य लोगों प्रवचनके लिये सभाभवन, और सभामंडप बनवाये हैं। मे प्रचलित थी। यह उन लोगोंकी सृष्टि
इनकी कीर्तिको फैलानेके लिये अनेक मामहै जो ध्यानी बीनगगी दिगम्बर अर्हन्ताको
स्तम्भ और कीर्तिस्तम्भ खड़े किये हैं। अपने जीवनका श्रादर्श समझते थे, जो उन्हें
इन्हे सुन्दर तोरणों स्तम्भो, पायागपटीं' साक्षात परमात्माका रूप मानते थे, जो
परमेष्टिपटों वेदियों बाडोसे खूब अलंकृत परमात्मपद-अमृतपद-निर्वाणपदको जीवन
किया है। का ध्येय मानते थे, जो अहिंसा-संयम,
___ इनमें कितने ही एलोरा, बादामी तप-त्याग, ज्ञान-ध्यानको मुक्तिका मार्ग
श्रादिके मन्दिर खडी चट्टानोंको खोदकर जानते थे। यह उन लोगोंकी कृति है जो
पर्वतके भीतरी भागमे बनाये गये हैं, परमार्थक सामने सब ही अर्थोको तुच्छ
कितने ही देवगढ़, प्राबू, शत्रुजय श्रादि समझते थे जो मोक्ष-मुम्बके सामने सब ही
स्थानामें करोडोकी सम्पत्ति लगाकर ऐहिक सुखाको हेय गिनते थे, जो पाहन्य
विशाल दिव्य मन्दिर बनवाये गये हैं, विभूतिके सामने समस्त विभूतियोको धूल
... खण्डगिरि और तेरापुर आदि स्थानोमे म्बयाल करते थे।
लेखक
कितनी ही पहाडी गुफाएं बनाई गई हैं। इनकी धार्मिक श्रद्धा, धार्मिकप्रियता, धार्मिक संलग्नता १.२. EDIgraphica Indica vol. l pari कितनी बढ़ी चढ़ी थी, इसका अन्दाज़ा जैनकलाकी XIV March 1894 P. 314. विशालता, बहुलता, विस्तार और बारीक कारीगरीको "The Times seems to be a distincदेखनेसे लग सकता है। कलाका कोई अंग ऐसा नही जिग्ये tive feature of the ancient Jain इन्होंने अपने हृदयस्थ भावोंको प्रगट करनेके लिये अपना Art, as neither the Buddhists, nor माध्यम न बनाया हो, जिसे इन्होने अपने भक्ति रसको the orthodox sects mention them, दर्शानेके लिये अपना साधन न बनाया हो। इन्होंने वास्तु- In the more modern Jaina temples कला, मृतिकला, चित्रकला श्रादि सब ही कलााग्मे खूब we find instead of them slabs काम लिया है। इसी लिये जैनकला इन सब ही अंगाये called पंचपरमेष्टिपट, चतुर्विंशति तीर्थकरपट"
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष५
मूर्तिकलामें इसने अर्हन्तीकी अगणित कायोग्पर्ग और मृतियोंके शिरापर सर्पफण लगे हैं। पद्मासन ध्यानमग्न दिगम्बर मृतियोंको पैदा किया है, ये चित्रकलाम इसने भारतकी दोनो शैलियोंको अपनाया मृतियो मामूली पत्थरोमे लेकर मृगा, पन्ना, हीरा, पुग्वराज, है-नदाकार वा स्पष्ट शैली (Direct Representaनीलम आदि बहुमूल्य पाषाणों की बनी हुई हैं। ये मामूली thon), अतदाकार वा सांकेतिक शैली (Symbolic ताबा, पीतलसे लेकर चांदी, सोना जैसी कीमती धातुओंकी Representation). बनी हुई हैं। ये आकारमं छोटी छोटी हैं और बडी बडी स्पष्ट शैलीके द्वारा जैनकलाने अर्हन्तोंके पञ्चकल्याणकहैं। इनमें कितनी ही ३० फुट ६० फुट, ६० फुट तक ऊंची उत्सवो उनकी परिषदोंका दिग्दर्शन कराकर बतलाया है ग्वडी विशालकाय प्रतिमाएँ हैं, ये कही चट्टानोंको काटकर कि इन महापुरुषोके जीवनमे गर्भकालसे लेकर निर्वाणकाल ग्वालियर, एनर, कारकल, श्रवणबेलगोल, बडवानी श्रादि तक कैसी कैसी अद्भुत घटनाय लोकमे पैदा होती हैं । इन स्थानों में बनाई गई हैं।
की शान्ति और सौम्यताके कारण कैसे कैसे जातिविरोधी इनमे कितनी ही चतुर्मुख प्रतिमाये हैं, कितनी ही जीव अपने वैर-विरोधको छोड़कर श्रापममें कल्लोल करने सर्वतोभद्र प्रतिमायें हैं। ये शिलावण्डो व स्तम्भोके चागे लगते हैं।
और जन्कीर्ण होने से सबही पोरके दर्शकोंको शान्ति देती इस शैलीक द्वारा जैनकलाने मठ शलाका महापुरुषों हैं। कितनी ही चतुर्विशति-संख्यक शिला प्रतिमाय है। इनमें की जीवनी, उनके पूर्वभव पीगणक पाख्यान, ऐतिहासिक बीचके भागमे मृलनायककी प्रतिमा कुछ बटी बनी हुई होनी वृत्तांका चित्र चित्रण कर दिग्बलाया है कि स्वकृत कर्मोके है श्रीर उसके चारों ओर बाकी २३ नीर्थकरोंकी मूर्तियां कुछ प्रभावसे जीवको कैसे से उतार-चटाव मेमे गजरकर स्मार छोटी छोटी सी बनी हुई होती हैं।
में भ्रमण करना पड़ता है। इनमे कितनी ही छत्र, चमर, सिहासन, भामण्डल,
इस शैलीके द्वारा इसने स्वर्गों के सुग्ब और नरकाकी वृत्त श्रादि अट प्रानिहार्य-संयुक्त प्रतिमाएँ हैं । इनमें
वेदनाओंके दृश्य ग्बीचकर दिग्बनाया है कि पुण्य और पाप मूर्तियोंके शिरोपर छत्र घूम रहे हैं, गर्दनके पीछे भामराडल
के प्रभाव जीवको कम कैस मीटे और कटुवे फल भोगने लगे हैं बराबरमें चामरधारी खड़े हैं. दाय-बाये वृक्ष बने पडत हए हैं और उपरकी तरफ गन्धर्व अपनी अप्पराओके साथ
जहां इस स्पष्टशैल मे जैनकलाने इतना काम लिया है फुलोकी मालाय लिए हुए हैं. दन्दभि बजा रहे हैं. पाप-वधि वहां साकतिक शैलीम ग्रोर भी अधिक काम लिया है। कर रहे हैं। कितनी ही मूर्तियों में सुण्डोंमें धारण किये हर इस दूसरी शैलीये इसने पशु-पक्षी अादिकं चिद बनाकर कलशोंमे अभिषेक करते हुए हाथी दिखलाए गए हैं।
मंगलकारी अर्हन्त-मृत्तियोको जगह-जगहपर स्थापित इन मूर्तियों के सिंहासनोंपर कुछमै धर्मचक्र बने हुए
किया है। विविध वृक्षाकी तसवीर बनाकर श्रहन्तांक है, कुछमें हिरण ग्बड़े हुए हैं, कुछ में बैल, मृग, हाथी,
वृबोधिक्षकी और उनके तपस्वी जीवनकी याद दिलाई घोडा, सर्प, सिह ग्रादि चिह्न अंकित हैं। कुछमें कुबेर,
है। स्वस्तिक, त्रिशूल और चक्रकी नस्वीरे बनाकर उनके नमेश, हारिती तथा नवग्रहों श्राकार बने हैं। करमे इन सिद्धान्तोकी शिक्षा दी है । श्रष्ट मंगलद्रव्याकं चित्र खीचमृतियोको बनवाने वाले नर-नारी तथा कटम्बी जनोंकी कर उनकी सभ्यतापरक बताकी सूचना दी है। संसारमृतियां भी बनी हैं। कछम उपर्युक्त चीजोके अतिरिक्त वृक्ष और पर लेश्या वृक्षकं चित्र खीचकर उनके द्वाग शिलालेग्व भी लिखे हुए है।
संसारका नथा मनोवृत्तियोका स्वरूप दर्शाया है। ___ इनमें कितनी ही मूतिया ऐसी हैं, जिनके दाय-बाये यह समस्त जैनकला अर्हन्तोंके अादर्शकी समर्थक है। शासनदेवी-देवता कहलाने वाले यक्ष-यक्षणियांकी मूनियां यह सब श्रमण-संस्कृतिकी स्मारक है । यह सब धर्मबनी हैं, कितनी ही ऐसी हैं, जिनके दाय बाय सर्पफण प्रचारके उद्देश्यसे रची गई है। इससे कल्पनाकी अपेक्षा धारण किये हुए नाग लोग वन्दना कर रहे हैं, कितनी ही वास्तविकता (Realism) को अधिक स्थान मिला है।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२ ]
जैनकलाकी मूर्तियां किन्हीं प्राकृतिक शक्तियोंकी किन्हीं पुराने ऐतिकी काल्पनिक मानय। प्राकृतियां नहीं है। सब ऐतिहासक पुरुषोंकी वास्तविक मूर्तिया हैं । जैनकलाका विस्तार:
जैनकला और उसका महत्त्व
इस जैनकलाका विस्तार बहुत बडा है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि भारतका कोई प्रान्त ऐसा नहीं जहां जैनियो के माननीय तीर्थ और अतिशय क्षेत्र मीर्थस्थल कैलाशपर्वत लेकर करनाटक तक, और गिरिनार पर्वतमे लेकर पार्श्वनाथ पर्वत तक सब ही दिशाओंमें फैले हुए हैं। ये बंगाल और बिहार, उडीमा और बुन्देलखण्ड, श्रवध श्रीर रोहेम्बर देहली और हस्तिनापुर मथुरा और बनारस, संयुक्तप्रान्त और मध्यप्रान्त, राजपूताना और मालवा, गुजरात और काठियावाद, बरार और बदादा, मैसूर और हैदराबादके सब ही इलाकों में मौजूद हैं। हरसाल लाखों यात्री इनकी बढ़ना और दर्शनार्थ दूर दूर से चलकर आते हैं।
1
ये दूर दूर फैले हुए तीर्थस्थान और अतशय क्षेत्र श्रतिशय जैनकलाकी हजारो नई और पुरानी रचनाओं से भरे पड़े हैं, ये रचनाएँ यों तो सब ही दर्शनीय हैं और इतिहासके लिये अध्ययन करने योग्य हैं, परन्तु इनमें भी वे रचनायें अधिक मवाली है जो अब अपने स्थानों मौजूद न होकर केवल अनुश्रुति और साहित्यके बलपर ही मौजूद हुई जान पडती हैं | सवाल होता है कि यह रचनाएँ कहां गई ?
ये पुरानी रचनाएँ अधिकांश प्राकृतिक उपद्रव अथवा राजविवो टूट-फूटकर भूगर्भम दबी पडी हैं, इन के उद्वारके लिये जैनसंस्कृतिके पुराने केन्द्रकी पुराताधिक बोज होना बहुत जरूरी है। इन स्थानोंमें केवल मथुरा और राजगृह ही ऐसे दो स्थान हैं जिनके खण्डरातको खोद कर सरकारी पुरातत्रविभागने बहुत बड़ी जैन ऐतिहासिक मम्पत्तिका पता लगाया है। परन्तु जिस दिन यहि क्षेत्र, पयोसा, पावा, पटना, गिरिनार, कबीर, दस्तिनापुर, कन्नौज, शौर्यपुर अथवा नर्बदा नदीके किनारे-किनारे सिद्धवरकूट आदि पुराने स्थानीकी खुदाई होगी, उसदिन इससे भी अधिक कीमती ऐतिहासिक सामग्री निकलने भावना है।
इन पुरानी रचनाओंमें बहुत ऐसी हैं, जो राज
५
वि'लव के कारण मुस्लिम गज्में अपने स्थानोंसे विभिन्न होम और बगेकी हमारी सामग्री बन चुकी हैं। इस सम्बन्धमें भारतकी वह पहिली मस्जिद, जो ईसाकी १२ वीं शताब्दीमे कुतबुद्दीन बादशाहने लोहेकी लाठके गिर्द देहलीमें बनाई थी, विशेष उल्लेखनीय है। इस मस्जिद में बगे स्तम्भों और उनके शिलापटपर अनेक प्रकारकी जैन मूर्तियों डिश है कि देहलीदर्शक (Delhi Gunde) से जाहिर है, अनेक जैन मन्दिरको सोदकर यहां लाई गई थी।
1
इनमे बहुत सी रचनाएँ ऐसी है भी राजव जैनियों के प्रभाव हो जानेके कारण समूल अन्य सम्प्रदाय वालोंके हाथमें चली गई है। इस सम्बन्ध कोल्हापुरका प्रसिद्ध श्रम्बाबाईका मन्दिर गोदराकी प्रसिद्ध बैली माताकी मूर्ति विशेष उल्लेखनीय है। यह मन्दिर वास्तवनियों की माननीय देवी पद्मावतीका मन्दिर था । इसकी गुबदों और दीवारोंपर अनेक कायोत्सर्ग दिगम्बर जैन अर्हन्तोंकी मूर्तियां बनी हुई हैं। इसी प्रकार उक्कली माताकी मूर्ति श्री पार्श्वनाथकी मूर्ति है वह नग्न और कायोत्सर्ग है इसके सिरपर सर्पके फल भी लगे हैं। ये केवल उदाहरण मात्र हैं, वरना इस प्रकारके अनेक मन्दिर और मूर्तियां, चैस्य और स्तूप जो वास्तव में जैनसंस्कृतिकी कृतियां हैं, भारत के सब ही हिस्सोंमे अन्य सम्प्रदाय वालोंके अधिकार में मौजूद हैं। ये रचनाएँ यद्यपि श्रा धन्य नामों से पुकारी जाती हैं, और अन्य धर्मवालोंकी सम्पत्ति गिनी जाती हैं, परन्तु इन रचनाओोकी कारीगिरी, इनके तोरण, द्वार छत और स्तम्भेोपर लोदी हुई दिगम्बर पन्त प्रतिमाएँ इस बातकी साधी है कि ये चीजें इनलोगों की विभूति रही हैं।
इनमें बहुत सी रचनाएँ ऐसी हैं, जो आज अपने स्थानोंसे उठकर भारतके विविध अजायबघरों अथवा कलाभवनों में चली गई है। बहुतसी मिमी संग्रहालयोंमें दाखिल हो गई है। बहुत सी इधर उधर विभिन्न लोगों कब्जे में पड़ी हुई हैं।
इनमें बहुत सी रचनायें ऐसी भी हैं, जो अपने स्थानों में रहते हुए भी ज्ञात दशामें पडी हुई हैं। ये श्राज किसीके भी अधिकार मे न होकर जंगली दरिन्दों और
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
निशाचरोंके निवास स्थान बनी हुई हैं। कुछ रचनाएँ ऐसी परिचायक हैं कि मध्यकालीन भारत में महापुरुष-मुनि. हैं, जिन्हें "प्राचीन स्मारक-रक्षा" कानून ( Ancient रचना जैनकलाकी देन है. वहां य इस बातकी भी परिचाMonuments Protection Act. ) के अनुसार यक हैं. कि जैनसंस्कृति भारतकी बहुत पुरानी संस्कृति है।' मकारने अपनी अध्यक्षतामें कर लिया है। कुछ ऐसी हैं, इन मूर्तियों और चित्रों के देवनेने. जहां भारतीय
विविध जैनतीर्थ-रक्षा-कमेटियोंने अपनी अध्यक्षतामे लोगोंके रहन-सहन, मकान-उद्यान, व्यसन-व्यवसाय, वेषलियारे कछ स्थानीय जैनसमाजकी अध्यक्षतामें मौजूद भूषाका ज्ञान होता है. वहां इन्हें देखनसे यक्ष-गन्धर्व नागहै। इनमें से कितनी ही रचनाओंका जीर्णोद्वार और राक्षस, खचर-विद्याधर, सुर-असुर श्रादि भारतकी पुरानी व्यवस्थित होना शुरू हो गया है कितनी ही का पहिले से जातियोकी सभ्यताका भी बोध होता है। दो और कितनी ही का होना अत्यन्त वाञ्छनीय है। जैनकलाके पशपक्षिजैनकलाका अध्ययन करते समय उपर्युक्त सब ही
इन सब चीजोसे भी अधिक महत्वशाली जैनकलाक प्रकारकी रचनापोका ध्यान रखना ज़रूरी है।
वे पशुपक्षि श्रादि चिह्न हैं. जो विभिन्न अहन्नाके प्रतीक जैनकलाका ऐतिहासिक महत्त्व :
होनेके कारण महाअादरणीय बने हुए हैं। यह चिह्न संख्या इस जैनकलाकी बहुत सी चीज उपलब्ध जनसाहित्य में चौबीम हैं- वृषभ. २ हाथी, ३ घोडा ४ बन्दर. मे भी पुरानी हैं। वे जैनसंस्कृतिके बहुतसे अज्ञात पहलुङ्गो
५ चकवा, ६ कमल, ७ स्वस्तिक, ८ चन्द्रमा. . मन्छ, पर असाधारण प्रकाश डालती हैं। वे जैनधर्म सम्बन्धी
१० वृक्ष. १९ गेंडा, १२ भैसा, १३ बराह १४ मेहि साम्प्रदायिक मान्यताओंगी समालोचना करने में बडी
(श्यन) १५ बज्र, ५६ हिरण, १७ बकरा, १८ मछली, सहायक हैं।
१६ घट, २० कछवा. २१ उत्पल. २२ शंख, २३ सर्प, ___इन चैत्यों और स्तूपों पर, मन्दिरों और गुफाओंपर,
२४ सिंह। मृतियों और चित्रोपर बहुतमे लेख लिखे हुए हैं, जिनमे ये क्रमश: : ऋषम, २ अजित, ३ संभव, ४ अभिअनेक राजवंशों, गुरू परम्पराओं और अन्य ऐतिहासिक
नन्दन, ५ सुमति, ६ पद्म, ७ सुपार्श्व, ८ चन्द्रप्रभ, ६ पुष्पमातीकी खोज हो सकती है।
दन्त. १० शीतल, ५९ श्रेयांस, १२ वामपूज्य. १३ बिमल, ये लेख जहां भिन्न भिन्न कालोंकी नागरी लिपि में लिम होनेसे नागरी लिपिके क्रमिक विकासके जानने में अद्वितीय 1. "The discovelles (al Mathura) साधन हैं, वहा ये भिन्न भिन्न भाषायोमे लिखे होनेमे, भारत
have to a very large extent supplied की भाषाओं के पारस्परिक सम्बन्धको जानने में भी बड़े corroboration to the written Jain मूल्यवान हैं।
tradition and they offer tangible । ये मूर्तियां जहां भिन्न भिन्न कालोंकी, भिन्न भिन्न ढंगोकी incontrovertible proof of the anबनी हुई होने के कारण मूर्तिकलाके वकामपर गहरा प्रकाश
tiquity of the Jam religion and डालती हैं, वहां ये विभिन्न कालीन योगियोके प्रासन,
of its early existence in its preमुद्रा. केश और प्रतिहार्योंपर भी काफी प्रकाश डालती हैं,
sent form. The series of 24 Tirक्योंकि ये सब एक समान नहीं हैं। इनमें कितनी ही thankaras each with his disपद्मासन हैं. कितनी ही खगासन हैं, कितनी ही जटाधारी tinctive emblem was evidently है. कितनी ही उष्णीष वाली हैं और कितनी ही लोच किये firmly believed in at the begining हुए बालों वाली हैं।
of the Christian era." ये महन्तोंकी मूर्तियां जहां बुद्ध और बोधिसत्व, राम -Vicent A. Smith Archeological और कृष्णकी मूर्तियोंये पहले मिलनेके कारण, इस बातकी Survey of India. Vol XX,1901 ,96
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
जैनकला और उसका महत्व
१४ अनन्त, १५ धर्म, १६ शान्ति, १७ कुन्थ (क्कुस्थ) वृषभसे, पद्मका पामे, चन्द्रप्रभका चन्द्रमासे, शीतलका १८ अर १६ मल्लि, २० मुनिसुव्रत, २१ नमि २२ नेमि वृक्षछायामे, उग्र वा उरगवंशी पार्श्वका सर्पमे संकेत होना २३ पार्थ, २४ महावीर तीर्थंकरोंको पृथक पृथक संकेत स्वाभाविक ही है। इसी तरह कच्छप-नामधारी पुरुषको करने के लिये प्रयुक्त हुए हैं। ये चित्र बहुधा महन्त- मन्तान होने के कारण इनका कहपगोत्री कहलाना भी मूर्तियोके धामनोंपर खुदे हुए मिलते हैं। परन्तु इतना ही स्वाभाविक ही है। नही, ये सजावटी चित्रकारीके लिये स्तूपोंकी बाढीपर,
लम्बे-लम्बे युगोकी विभिन्न भाषाओमेमे गुजरकर हम मन्दिरोंकी दीवारों पर, तोरण और शिलापटीपर, शिला
तक पहुचते हुए इन महापुरुषों के नामांकी इनमी काया लेखों और ताम्रपत्रीपर, झण्डा और सिक्कोंपर भी जगह
पलट हुई है कि प्राज इनका और इनके उपर्युक प्रतीकोंका जगह अङ्कित हुए मिलते हैं।
सम्बन्ध बिठाना कुछ प्रामान काम नहीं है। परन्तु इस ये चिह्न जैनियोम पदचिह अथवा शारीरिकचिह
मामले में यह बात याद रखने योग्य है कि यपि काल शरीरके सानुद्रिक चिह्न-के नाममे प्रसिद्ध है, परन्तु इनका
इन महापुरुषोके उच्चाग्नि नामोको काफी बदल चुका है, रहस्य इन दोनों बातोप परे है। ये न तो अहंन्तीके पद
परन्तु वह इनके लिये प्रयुक्त होने वाले चित्रलिपिके प्रतीकों चिह्न हैं. न शारीरिकचिव हैं, ये वास्तवमै अर्हन्तोंके नाम, वंश, गोत्र और जातिसूचक शब्दोंके चित्र है-उन शब्दोंके
को कुछ भी न कह सका है। वे प्रतीक पूर्वकी तरह प्राज
भी उसी तरह प्रयोगमे भारहे हैं। इसलिये यदि इन महाजिनके द्वारा यह अपने जीवनकालम पुकारे और माने जाने
पुरुषों के वास्तविक नाम गोत्र व वंशोका पत्ता लगाना हो थे । चित्रलिपिके नियम अनुसार वृषभ नामधारि पुरुषका
नो वह इन प्रतीकोंके पर्यायवाची शब्दोंके आधारपर ही १ (अ) गावारणाश्वा: कारकाकपद्माः
लगाया जा सक्ता है। और मत्स्य कन्छप बगह. आदि म्वन्यापधीशो मकरद्र माको ।।
प्रतीक नामधारी अवनागेंके अनेक प्राण्यानोपरमे जो भारत गहौलु गाय: किटि मधिक च
के पौगणिक साहित्यमे भरे पडे हैं. इन महापुरुषोंकी वज्र मृगानः कुसुमं घटश्च: ।। ३४६ जीवन-कथाका संकलन भी किया जा सकता है। इसतरह कुमतिल शग्वजगमिदः
ये प्रतीक भारतका पुराना इतिहास जाननेके लिये बहुतही क्रमण विबऽकांवर लानाान ॥ ३४७ सहायक हैं। -- श्री स्यमनकृत प्र गट
इसी प्रकार स्वास्नक, चक्र और त्रिशूल आदि चिह्न (या) पं० श्राशाकृन प्रानामागद्धार १, ७८, ७६ जो सदा भारतमे मंगलकारी चिह्न माने जाते रहे हैं, जो (है। गोनमचारत्र-५, १३०, १३१
सदा भारतकी शुभकामनाओंके माथ बंध रहे हैं, जो सदा (ई) प्राकृत निर्वाणर्भात ।
भारतीय संस्कृतिके माथ साथ विदेशोंमें भी अपनाए गये हैं, २ (अ) Archeological Survey of India- वास्तवमै भारतीय श्रमणलोगोकी मान्यताश्रीके प्रतीक हैं।
VolxX Mathura Antiquities,(90) इनकी रचना मी भारतकी पगनी चित्रलिपिके नियमानुसार फलका-६५ मे ७५ नक श्रोर ७८ म ८१ तक पर ही हुई है। इनमें स्वम्निक, पुरुष-प्रकृति रूप दो तत्त्वांमे मयुगके जं. स्तूपाकी बाइपर यह चिह्न अङ्किन हुए बने और चतुर्गतिरूप मंसारमें भ्रमनेवाले जीवन-संबंधी दिग्बनाये गये है।
महामन्यका प्रतीक है। इस स्वस्तिककी बीच वाली खड़ी (श्रा) निलायाणगान ४.८१६. पृष्ठ २०, यागग प्रति और पडी दो लकीर पुरुष और प्रकृति, जीव और पुदगल
त्रिलाकमारं ॥१०१०॥ श्रादिपुगण २२ २६ चैतन्य और जद, ग्रह्म और माया, अमृत और मन्यं, सन्य हरिवंशपुर ग २,७३ म उपराक्न प्रकार के चिह्नामे और असाय, अमूर्त और मृरूप विश्वके दो सनातन संयुक्न ध्वनाांका वर्णन किया गया है। तत्वोंका निर्देश करती हैं और सिरोपरकी चार लकीरें चार
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
गतियोका निर्देश करती हैं। इस तरह यह प्रतीक घोषणा सूचक पशु-पक्षियोंके चित्र आदर और पूजाकी वस्तु बने, करता है कि यह समस्त विभिन्न नाम, रूप, धर्मवाला इन चित्रोंका इतना दौर-दौरा बढ़ा कि आखिर कालकी संसार मायासे बंधे हुए ब्रह्म अथवा प्रकृतिये जकड़े हुए भूलभुलय्यामे पढ़कर मनुष्य अपने असली वीरोंको भुला पुरुषका-जड़-चैतन्यका ही पसारा है।
बैठे वे उनके नामोंके प्रतीकरूप प्रयुक्त होने वाले पशु___इनमे नाभि, नेमि और पारों से बना हुआ चक्र, ऋत अथवा पक्षियोंको ही अपने कुल और गोत्रका, अपने संघ और धर्मचक्रका प्रतीक हैं, जोरात और दिन, शुक्लपक्ष और कृष्ण- समाजका अपने धर्म और कर्मका सृष्टा मानने लगे, वे पक्ष, उत्तरायण और दक्षिणायण, उत्सपिणी और अव- मस्य, कन्छप वराह श्रादि जन्तुओंको ही अवतार समझने सर्पिणीममे होता हुश्रा सदा ही घूमना रहता है, जो लगे। वे पुराणकथित नाग और सुपर्ण, वानर और रीछ द्वादश मास और षट ऋतुचक्रमें नाचता हुआ संसारमें उत्पत्ति, अादि मानव जातियोंको तत्ततशल-सूचक पशुपक्षियोंकी स्थिति और प्रलय करनेवाले कालचक्र के साथ साथ बिना ही जातियां जानने लगे। रोक-टोक सदा मागे ही चलता रहता है, जो यादि और अन्त अपनी पुरानी मान्यताओं और प्रथाओंके साथ मोह रहितमंसारमे सदाक्रमनियम और व्यवस्थाको कायम रखता है। लोना मनलिये बदती शिकल । इसीलिये
त्रिशुल मोक्षमार्गका त्रिदण्डाकार प्रतीक है । यह बत- भारतमे ब्राह्मी श्रादि लिपिका आविष्कार होजानेपर भी लाता है कि जो जीव अपने मन, वचन और कायके तीनो भारतीय लोगोने अपनी पुरानी चित्रलिपिका साथ न छोडा, योगोंको भली भांति दण्डित वा वश कर लेता है, वह
वे अपने महापुरुषों और उनकी मान्यताका सदा चित्रसंसारके भ्रमणमे छूट जाता है और कालकी मारमे बच ।
लिपिसे ही संकेत करते रहे, उनके नामसूचक जन्तुओंकी जाता है।
श्राकृतियांको ही अपने मुक्ट, मण्डी और सिक्कोपर महापुरुषोंके उपर्युक नाम अाजकलके ढंगमे रक्वे दर्शाते रहे और अाज तक उन्ही प्रतीको बरतर काम ले हुए नाम नहीं हैं और न उनके उपर्युक्त प्रतीक अाजकल रहे हैं। की लिपि में लिखे हुए शब्द हैं। ये बहुत पुराने ढंगके हैं। इस तरह इन चिह्नोंका अध्ययन जहाँ भारतकी प्राचीनइनका सम्बन्ध भारतकी उस प्रारम्भिक सभ्यता है जब तम सभ्यता, उसकी चित्रलिपि, उसका व्याकरण जाननेके मनुष्योका शब्दकोष बहुत ही परिमित था, जब वे अाजकल लिए जरूरी है, वहा ये तीर्थकरके वास्तविक नाम, वंश, के अशिक्षित, देहाती लोगों के समान पशुपक्षियों, फल- जीवन और विचार जाननेके लिये भी जरूरी हैं। फलों, चांद-सूरज, जैसे प्रत्यक्ष दीखने और व्यवहारमे जैन कलाके वृक्ष.श्राने वाले पदार्थों के नामपर ही अपने बच्चोंके नाम इन चिह्नोंके अतिरिक्त जैनकलाके वह प्राचीन वृक्ष सुपर्ण, गरुड़, नाग, जटायु, हाथी, सिंह, ऋषभ, मृग, भी कुछ कम महत्त्वकी चीज़ नही हैं, जो जैनसाहित्यमे मीन, कच्छप, बानर, रीछ आदि रक्ग्वा करते थे, जब इन चन्यवृक्ष अथवा दीक्षावृक्षके नामग्ये प्रसिद्ध हैं। ये वृक्ष नामधारी विशेष पराक्रमी वीरोंके नामपर ही मनुष्योंमे उपयुक्त तीर्थकरके क्रमसे निम्न प्रकार हैं।' विविध वंश, गोत्र और जातियोंकी स्थापना होती थी। १. न्यग्रोध (बड) २. सप्तपणं (देवदास) ३. साल जब श्राधुनिक ढंगकी परिमार्जित लिपियोका आविष्कार न ४ प्रियालु (खिरनीका वृत्त) ५ प्रियंगृ, (एकलता)६ छत्रहुआ था और मनुष्य अपने वीरोंके प्रति श्रद्धा जाहिर करने वृक्ष ७. सिम्म ८ नाग ६. मालवी १० पिलखन
और उनके जीवनकी गौरव गाथा नोंको ज़िन्दा रखने के लिये १: टिंबरू १२ पाटल १३. जम्बू (जामन) १४. पीपल प्रस्तरशिलानों, धातुपत्रों, मिट्टीकी बनी 'टो और झंडापर १(अममवायोगसूत्र-उत्तम परुष अधिकार १७-१-३, पृ०३१३: चित्रलिपिके नियमानुसार उनके नामों के चित्र बनाते थे।
(अमोलक ऋषिकृत हिन्दीअनुवाद) ज्यों ज्यों समय बीता, ये वीरपुरुष मनु कुलकर (श्रा) श्री जयमेन-प्रतिष्ठापाठ ८३५ प्रजापति आदि उपाधियोंसे विख्यात हुए। इनके नाम (इ) हेम नन्द--अभिधान चिन्तामगि, ६२
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १.२]
जैनकला और उसका महत्व
१५. दधिपर्ण, ५६. नन्दीवृक्ष, १७. तिलक, १८. प्राम, अपनी इन्द्राणी-सहित पंचकल्याणक-उत्सवोंमे तीर्थकरोंके ११. अशोक, २०. चम्पा, २१. वकुल (मौलमिरि), अभिषेक करने, उनके समवसरण बनाने, आदिके रूपमें २२. वेतस् (बांस), २३. धवा, २४. शालि।
अनेक सेवाएँ करते हुये प्रकट किया गया है, उसके स्वर्गजैन अनुश्रति-अनुसार ये वे वृक्ष हैं, जिनके नीचे ध्यान भवन देवगण, ऐरावत हाथी और वन-प्रायुधका भी काफी लगाते हुये वृषभ आदि सीथंकरोंने केवलज्ञान उपजाया उल्लेख किया गया है, जैनकलामे उसकी मूर्तियों और था। मालूम होता है कि ज्यों ज्यों समय बीता, ये वृक्ष चित्रोंको भी मन्दिरद्वारों और वेदियोंके आस-पास स्थान योगी महात्मायोंके ज्ञान अथवा बोधिके स्मारक होनेके दिया गया है, परन्तु जैनसाहित्य और संस्कृतिमे जैनकारण भारतीय लोगों में एक पादरकी वस्तु बन गये और कला और पाख्यानोमें जो महत्वका स्थान नाग, सुपणं, महारमाओंकी मृतियों अथवा उनके प्रतीकोके समान ही किन्नर और यक्ष देवताओंको दिया गया है वह इन्द्रको पूजनीय होगये।
प्राप्त नहीं हुआ। इसीलिये जैनमाहिग्यमें इनका उल्लेख करते हुए नाग-नागानया धार उनक अधिपति धरणन्द्र अथवा लिखा है कि ये वृक्ष वेदिका-तोरणसे एक स्तूपोंके पाम फणीन्द्रको सदा बहन्तीका परम उपासक माना गया है। उगे रहते हैं. और इनके नीचे छत्र, चमर, ध्वजा, श्रासन जब कभी अर्हन्तोंपर कोई उपसर्ग हुमा है, या जब उन श्रादि श्रष्ट प्रातिहायोसे युक्त श्रहन्तोंकी मूर्तियां स्थापित कोई भीद पड़ी है तो धरणेन्द्र अपनी पूरी शक्तिसे उनका करके सुर-असुर लोग उनकी पूजा करते है। पुरानी और महायक हुश्रा है। सातवे तीर्थकर सुपार्श्वनाथ और २३ मध्यकालीनकी जैनकलामे भी इन वृक्षोंको महन्ती मृतियों ताथकर पाश्वनाथका मृतियाक शिरोपर बहुधा जो सपफण
और उनके स्तपोके दोनों ओर खदा हा दिखलाया गया है। बने हुए मिलते हैं वे इसी बातके सूचक हैं। इसके नाग श्रार यक्ष :
अलावा जैनमृतियोंके दायें बाय सर्पफणधारी नाग लोग भी इनके अलावा जैनकलाके नाग और यक्ष भी भारतकी
खड़े हुए मिलते हैं। यक्ष और यक्षिणियों और उनके प्राचीन संस्कृति जाननेके लिये बड़े महत्त्वकी चीजें है।
अधिपति वरुण कुबेर अथवा वैश्रवणको अहंन्त-शासनका यद्यपि जैन साहित्यमें वेदोंके प्रमुख देवता इन्द्रको
मुख्य संरक्षक समझा गया है। कुबेर तीथंकरोंके गवतार अईन्तीका एक परमश्रद्धालु सेवक बतलाया गया है-उसे
से ६ मास पूर्व ही उनके भावी माता-पिताके भवनोंपर
रनवृष्टि करता हुआ बतलाया गया है। और हिमाचल (A) मच्छत्ता सपडाका मवेश्या नाणेदि उबवेया।
प्रादि पर्वतोंके ऊपर सरोवरोंके कमलोंमें रहने वाली श्री, सुर-असुर-गमन-महिया चेइयरुग्वा निगा नगणं । ६-१८
ही, धति, बुद्धि, कीर्ति, लक्ष्मी नाम वाली देवियोंको गर्भसमय (समवायाङ्ग सूत्र पृ० ३१४ अमोलकषि अनुवाद)
तीर्थकरोंकी माताओंकी सेविका कहा गया है। इनके (श्रा) मालत्तय पाढत्तय जुना माणसाइपत्तपफफला।। नच उमामझगया चेदिगरुकवा सुमोहंनि ।।
३ उत्तराध्ययन ११.२२. कल्पमत्र व्याख्या १, द्वादशानुप्रेक्षा; -त्रिलोकसार गाथा १०१३ स्वयंभूम्तोत्र, २ (अ) Epigraphica Indica-Vol II. ४ सूत्रकृताङ्गमत्र १-६-२०, पद्मपुराण ३, ३०६-३३६, Part XIV, 1894, पृ० ३११, फलक-1, फलक-२ श्रादिपुराग १८,१२-१४८; हरिवंश पुगण २२,५१-८२;
(श्रा) १३ वी शताब्दीके इस्तालास्वत कल्पसत्रके पार्वाभ्युदय ४,६४ । ताडपत्रीपर केवलशानी भगवान महावीरका एक चित्र अंकित ५ पद्मपुराण ३,१५५, श्रादिपुगण १२,८४-१..: हरिवंशहै जिसके दोनों ओर शाल वृक्षके चित्र बने हुए हैं। यह पुगगा ३७.१-३ शाल वृक्ष महावीरका चैत्यवृक्ष था, इस चित्रके लिये ६ "तन्निवासिन्यो देव्य: श्री ही धृतिकानि बुद्धिलक्ष्मयः "। देखो "उत्तर हिन्दुस्तानमे जैनधर्म-चीमनलाल एम० ए०
तत्त्वार्थसूत्र ३-१६. कृत, पृ० २५
७ श्राशावर---प्रतिष्मसारोदार ३, २३१-२३६.
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
भवनोंमे अत्यन्त सुन्दर लाग्यो अकृत्रिम जिनचैयालय बने घण्टाकर्णकल्प, कामचाण्डालीकल्प, पद्मावतीस्तोत्र, हप बतलाए गये हैं। जिनकी जैनलोग सदा अपने पूजा- कृष्मांडिनीस्तोत्र, ज्वालिनी स्तोत्र विद्यानुशासन आदि । पाठोंमे वंदना करते रहे हैं।
यह साहित्य जैनवाङ्गमयमें कहीं बाहरसे आकर यां गोमुख, २ महायक्ष, ३ निमुख, ४ यक्षेश्वर, ५ तुम्बुर, ही दाखिल नही हो गया है. स्वयं भगवान महावीरके ६ पुष्प, ७ वरनंदि.८ श्याम, अजित, १० ब्रह्म, ११ ईश्वर, प्रमुख गणधर गौत्तमने इन सबही बातोको 'विद्यानुवाद' १२ कुमार, १३ कार्तिकेय, (४ चतुमुख), १४ पाताल, नामके दशवं पूर्वमे संकलित किया था। उसी परम्पराके १५ किन्नर, १६ किंपुरुष (गरुड), १७ गन्धर्व, १८ रवंद्र, प्राधारपर जैनाचार्योंने इस माहित्यका निर्माण किया है। १६ कुबेर, २० वरुण, २९भ्रकुटि, २२ सर्ववाहन (गोमेद),
इन ग्रन्थों में इनकी विद्याओं और उनकी साधनाके २३ धरणेन्द्र और २४ मातंग नाम वाले यक्षोको क्रमश: अर्थ अनेक यन्त्र-मन्न श्रादिकी चर्चा की गई है। पद-पद ऋषभ श्रादि नौबीस नीर्थक का शासन-देवता माना गया
पर इनकी स्तुत और नमस्कृति की गई है। है। और 1 चक्रेश्वरी, २ रोहिणी. ३ प्रज्ञप्ति, ४ वज्रग्खला,
वार-उपरान्त कालम अकलंकादि जैनाचार्योने संकटके ५ पुरुषदत्ता, ६ मनोवेगा (मोहिनी), ७ काली, ८ ज्वाला
समय इन्ही देव-देवियांकी पाराधना करके बर्हन्तशामनकी मालिनी, ६ महाकाली (भ्र कुटि), १० मानवी (चामुंडा),
रक्षा की है इतना ही नहीं जिनशासनके रक्षक देवता ११ गौरी (गोमेदिका), ५२ गांधारी (विद्युन्मालिनी), होने के कारण ही जैनागम पूजापाठ और प्रातामन्याम १३ वैोटी, १४ अनन्तमती (विज भिणी) १५ मानमी, अन्तबिम्ब प्रनिष्टा एव महाभिषक श्रादि उमाके ममय ५६महामानसी, १७ जया (विजया). १८ अजिना(तारादेवी), इन यत यक्षणियाँ श्री ही श्रादि देवयां तथा इन्द्र, १६अपराजिना, २० बहुरूपिणी २१ चामुण्डा, २२ कृष्मां
अग्नि, यम नैऋत्य वगण, मम्न बेर ईशान, नाग और डिनी २३ पद्मावती और २४ सिद्धायिका नामवाली यक्ष..
मोम इन दशा दिशाओंके संत्रपालांनी पका पाराधना णियोंको क्रमशः तीर्थक की शासन-देविया कहा गया है।
करनेका विधान भी किया गया है। इसके अलावा नीर्थजैन अनुश्र ते अनुसार यह यक्ष यक्षणिया निरी जैन
करोंकी मूर्तियां बनाने के समय इनकी भी मनिय बनानेका शासनकी रक्षिका ही नही हैं. यह ऋद्धि-सिद्धिप्रदायक
उल्लेख किया गया है।" जिन-तिमाश्रीक दाहिनी ओर अनेक विद्यानोंकी अध्यक्षा भी हैं। इनकी यदि विधिपूर्वक
यक्ष तथा बाई और यत्क्षणी नीचेके भागमे नवग्रह श्रार यन्त्र-मन्त्र द्वारा साधना की जाय तो ये स्तम्भन, वशीकरण,
पीठके मध्यभागमे क्षेत्रपालकी प्राकृतिया बनाने के लिये उरचाटन, शान्तिकरण श्रादि अनेक शक्तियाको देनेवाली
कहा गया है। कई जगह जिनप्रतिमाकं दो तरफ यक्ष होती है। इन यक्ष-यक्षणियो, ही, श्री श्री देवियों और
और यक्षणी दो चामरधारी, दो सिंह. दो हाथी और नागों के प्रति श्रमणसंस्कृतिको मानने वाले लोगों में कितनी
सिंहासनके बीचमे धर्मचक्र उसके दोनों ओर दो सुन्दर श्रद्धा और भक्ति रही है, इसका पता जैनवाक्मयके यन्त्र
हिरण और उस चक्रके नीचे अर्हन्तका चिह्न बनाने के लिये मन्त्र वाले उस विपुल माहिन्यस लग सकता है, जो बहुधा कल्प और स्तोत्रोंके रूपमे लिखा गया है जैसे ३ ( अ ) पं०भुजबल। शास्त्र, 'जनमिदान्न भास्कर भाग र ज्वालिनी-कल्प भैरव-पद्मावतीकल्प चश्वरीकल्प किरगा ३, पृ० १३५---१४६
( श्रा) पं० जुगलकिशोर. अनेकान्न-वर्ष । पृ ४२१-५३२ १ त्रिलोकमार २,६८५,१०१६, प्रनिष्ठा गट ७० 5.50है.
र प्रतिष्ठामागेदार ३-१२७-१७६ । २ प्रतिष्ठामारोद्धार ३.१२६-१६६, अभिधानाचन्तामांगा
५ यक्षादयो जिना मनकाम्नवनिध्या । १,४२-४६. अमरकोष १,१२-२३ । वीरमेवामन्दिर मरसावा प्रात । वास्तुमारप्रकरगा जयपर,पृ० १६८ प्रातष्ठया
प्रतिष्ठेयाम्ततंन्येषा प्राताविधिकच्यते ॥ ६.४२ Digambar Jain Iconograpy-by Jus
प्रतिष्ठामारोद्धार Burges, 1904 P.3-6, इरिवंशपराण २२,६२-६८, ६- - मोमसेन भट्टारक---र्वाग्मकाचार ६.३१, ३२ विद्यानुशासन-तृतीय उद्देश श्लोक ८-३७ । जयपुर प्रति । प्रतिष्ठामागेद्वार १.६४
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १.२
जैनकला और उसका महत्त्व
-
कहा गया है।
और कलापरसे भारतकी पुरानी जातियोंके रंगरूप, दीलकुशनयुगकी मथुराकी पुरानी जैनकलामें इन उपयुक्त डील अंगोपाङ्ग, वस्त्राभूषण, अस्त्र-शस्त्र, श्रामन-वाहन, देवी-देवताओं को इतना महख दिया गया है कि अर्हन्त- कलाकौशल विद्या-पकम
कला-कौशल, विद्या-पराक्रम, धन-वैभवका पग परा पता प्रतिमायोंके सिंहासनोपर तीथ करों के चिह्न न देकर केवल लगता है। इनमें कितने ही यक्षयतिणियोंके कई कई इन्हें ही उत्स्कीर्ण किया गया है। बीचमे धर्मचक्र, उसके
मुंह और कई कई हाथ दिखाये गये हैं। कितनोंके मुंह दोनो ताफ दो हिरण, उनके पीछे एक अोर कुबेर, हाथमे
पशु प्राकारके बने हैं, इनकी सवारीके वाहन बहुत ही धनकी थैली लिये हुए, दूसरी और हारिनी बार्य घुटनेपर अजीब हैं। उपर्युक यक्षोंके वाहन क्रमशः निम्न प्रकार हैं:बरचेको बिठाये हुये, प्रतिमाके श्रापपास ये दो चामरधारी
१ बैल, २ हाथी, ३ मोर, ४ हाथी, ५ गरुड, और उनके ऊपर नवग्रह ।' कई मूर्ति-शिलाम्बराडॉपर
६ हिरण, ७ सिंह ८ कबूतर, १ कथा, १० कमल, जिनबिम्बोंके नीचे काली दुर्गा पार्वती, गणेश कुबेर
११ बैल, १२ हम, १३ मोर, १४ मच्छ, १५ मछली, श्रादिकी प्राकृनियों बनी हुई है।
१६ सूअर, १७ पक्षि, १८ शंग्व, १६ हाथी, २० बैल, बन्दलखगड के प्राचीन नगर देवगढ के १२ वी शताब्दीके
२१ बेल, २२ मनुष्य २३ करा, २४ हाथी। और एक जैनमन्दिर के बरामदेम उपर्युक, शासन देवियोंमे २०
२० यक्षिणियों के वाहन क्रमशः निम्न प्रकार हैं- गरुन, देवियोंकी वाहन-पायुध-ग्राभूषण-महिन अत्यन्त मनोहर
२ लोहामन ३ पनि, ४ हम ५ हाथी, ६ घोडा, ७ बैल,
नोटासन मृतिया अभी तक मौजूद हैं।
८ भैया, ६ कश्रा. १० मृथर, ११ हिरण, १२ मच्छ, जैन माहि यम जहां कहीं जैनमन्दिरों और अन्न- १३ नाग, १४ हंस. १५ शेर, ५६ मोर. १७ मुअर, बिम्बका वर्णन अाया है वहां उन्हें यक्षमिथुनकी मूर्तियों १८ हंस. १६ अष्टापट, २० नाग, २१ मरल, २२ शेर
और चित्रांप संयुक बतलाया गया है। श्राज भी बहुधा २३ कमल , २४ शेर । जैन मगम तीर्थका-मूर्तियों दाय बाय मिथुनयतकी
इन के कितने ही प्रकार के रंग-रूप, डील डौल, वेषभूषा, मुनिया स्थापित हुई मिलती हैं । किनमे ही मन्निगेंमें
अमन-शस्त्रोंसे पता लगता है कि ये लोग मुर-असुर, यक्षतीथरीकी मूर्तियों पे पृथक भी यक्ष-यक्षणियों की मृतिया
राक्षस, भून प्रेत, विनायक कृष्माण्ड श्रादि अनेक जातियों में रग्बी हुई मिलती हैं । गन्धर्व और अप्पगोकी अनेक
बँटे थे। ये बड़े पराक्रमी और समृद्धिशाली थे। इनके मर्निया और चित्रस्तूपों तथा मन्दिरके द्वारी. स्तम्भों श्रीर
कई-कई मुँह और हाथाये. कितने ही मानवी और पशु गुबदाम नाचती गाती और अनेक प्रेमपणं क्रीडा करती
समान चेहरोये पता लगता है कि ये बड़े मायावी थे, ये हुई दिग्याई देती हैं। इसके लिये मथुराके पगने स्तूपोंके
अपने कई तरह के मौम्य और भैग्वरूप बनाना जानते नोरणद्वार और ११वी ई० शताब्दीका बना हुअा अाबृका
थे।" इनके अजीब-अजीब पशु-पक्षिरूप वाहनोंमे पता देलवाडा मन्दिर विशेष दर्शनीय है।
लगता है कि ये बड़े कलाकुशल थे- तरह तरह के पशुइन यक्ष-यक्षणी, गन्धर्व, अप्सरा-मम्बन्धी साहित्य ।
पक्षियों के प्राकार वाले वाहन बनाकर उनमें सवार होते थे। १-वाम्नुमार परकगा-जयपर-म ।६३६-०६-६४ और शायद उनसे श्राकाशमं भी उड़ने थे। इनकी विविध २ Catalogue of the Archeological Mus-५ (अ) "कर्मभूमी भारते मनुष्य बद्दवो देवा.” ॥ १३४ ।। eum at Mathura, 1910 Image No. B, मुगसुग्यक्षराक्षमभूत येतविनायककुशमाण्डविकृताननाः 65, B.75.
॥१३५॥ निरुद्धाभारवेषाः ।।१३६।। मौम्य भैरवा योगि३ Ibid catalogue मूर्तिशिना नं.D.६, D.. न्यत्र नागाश्च मानवै. मद रूपरम: अमरख्याता संचरन्ति ४ त्रिलोकसार ६८-६८६, यशस्तिल कचम्यू - ५वा श्राश्वाम ||१३७||
-वाईस्पत्य अर्थशास्त्र अध्याय ३ पृ० २४६ (निर्णयसागर प्रेम, १६०३) ।
(श्रा) मायेत्यसुराः । शनबा. १०.५-२-२०
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
द
अनेकान्त
[ वर्ष ५
विद्यार्योसे पता लगता है कि ये लोग मायाविद्या, प्रायुध- महावीर अपनी केवलज्ञान-प्राप्तिके समय जम्भिक प्रामके विद्या, आयुर्विद्या, जादूटूना विद्या, नत्य, संगीत, वादित्र, बाहिर वैर्यवर्तनामक यक्षमन्दिरके उद्यान में ठहरे हुए थे।
चत्र और मूर्तिकला आदिमें बडे निपुण थे। इन्हीं गुणों नाग, यक्ष लोगोंके साथ इस प्रकार जैनसंस्कृतिका के कारण ये लोग भारतीयसाहित्यमें मायावी, विक्रियाधारी, घनिष्ट सम्बन्ध होनेके कारण यह स्पष्ट सिद्ध होता है, कि खग, खच्चर, विद्याधर चादि नामोंसे उल्लिखित हुए हैं। भारतकी श्रमणसंस्कृतिकी श्रन्य शाग्याओंकी तरह जैनमस्कृति
वैदिकसाहित्यसे पता लगता है कि ये लोग अधिक- के वास्तविक जन्मदाता वैदिक धार्य नहीं बल्कि भारतके तर कृष्णवर्णके थे। मृध्रवाच थे अर्थात समझमें न मलवासी यक्ष गन्धर्व. नाग राक्षस श्रादि लोग हैं। उन्ही भानेवाली प्राकृतिक भाषाये बोलते थे । इनमें विवाह की यन्त्रों-मन्त्रों वाली राष्टिमेंसे अध्यामवादकी सृष्टि हुई है। मादिके सम्बन्धमें कोई विशेष व्यवस्था बनी हुई न थी। उन्हीकी ऋद्धियोंको सिद्ध करने के लिये कायक्लेश वाले ये संस्काररहित थे। ये वैदिक ब्राह्मणोंके देवतावाद और अनष्टानों से योगसाधनाकी उत्पत्ति हुई है। उन्हीकी वीरपाशिक क्रियाकाण्डको न मानते थे। ये पितरों में श्रद्धा रखते। उपासनावाली वृत्तिमेमे अर्हन्तीकी उपासना, उनके चैय थे और वीर उपासक थे। ये अपने अपने पित्रों और स्तूप, उनकी मूर्तियों और मन्दिर बनानेकी कलाका के लिए श्राद्ध-तर्पण करते थे। ये रुद्र, वरुण, मरुत श्रादि विकास हुआ है। इमलिये जैनअनुश्रतिके अनुसार यक्ष. अपनी अपनी जातियोंके वीरोंकी मूर्तियां बनाते थे। यक्षणियोंका अर्हन्तशासनके देवी-देवता कहा जाना, जैनवैदिक ऋषि इन्हें 'मुरदेवा' अर्थात जड़ देवता कहकर इन माहिन्यमें उनके लिये स्तुति और नमस्कनिके गाठोंका होना, मूर्तियोंकी निन्दा करते थे। ये इन पित्रों और वीरोंको और जैन-कलामें उनकी मृतियोंका अहंन्त-मृतियोके साथ अपनी जाति और संस्कृति, अपने नगर और ग्रामोंके साथ पाया जाना स्वाभाविक ही है। यह सब कुछ होते संरक्षक मानकर प्रत्येक नगर और ग्रामसे बाहर अनेक हृये भी श्री रामकृष्णदासजीका यह कहना कि अप्सराओंकी नाग-यक्ष-यक्षिणियोंके मन्दिर बनवाते थे। जैसे इनके भावनाका बौद्ध और जैनसम्प्रदायोंमे कहीं पता नहीं. निरा मन्दिर प्राज भारतके ग्राम और नगरोंसे बाहर बने हुए हैं। भ्रममूलक जान पड़ता है। विशेष तिथियों में उनके उत्सवम नाये जाते हैं, इनके इस तरह जैनकला भारतके प्रागैतिहासिक जीवनको उद्यानों में कहीं कहीं से श्राकर साधु लोग ठहर जाते हैं जाननेके लिये एक अनन्य साधन है। परन्तु कितना खेद है, वैसे ही महावीरकाल में भी इनके अनेक मन्दिर नगर, कि जैनसमाजका इधर-तनिक भी ध्यान नहीं है, इसीलिये प्रामोंके बाहर बने हुए थे। उनके उत्सव मनाये जाते थे।" यह कला अाज अज्ञानके कारण विलुप्तसी होती जारही है, उनके उद्यानों में श्रमण लोग आकर ठहरते थे । स्वयं इसका पता लगाने, इसकी सूची बनाने, इसकी रक्षा करने, १ "अहा देवानसृजन ते शुक्लं वर्गममध्यन् । गध्याऽसुरॉम्ते
इसका संग्रह करने और फोटो श्रादि लेनेका जैनसमाजकी कृष्णा अभवन् ॥"
-काठकसंहिताह-११
भोरसे कोई प्रबन्ध नहीं है, जिसके शीघ्र होनेकी बहुत बड़ी
जरूरत है। आशा है जैनसमाज इस ओर ध्यान देगा, २ ऋगवेद ७-१८-१३, ७-६-३ ।
और शीघ्र ही अपना एक पुरातत्त्व-विभाग खोलकर जैन३ ऋगवेद १.३३-६% १-२५.१३% ५-१५२-१५ । ४ (अ) ऋगवेद १०-८७-१४ ।
इतिहास और कलाकी अस्त-व्यस्त पड़ी सारी सामग्रीको
संकलित करनेका श्रेय प्राप्त करेगा। (at)I am therefore of opinion that there were images of gods in Rgvedic times, though their worship was com deued
धीरसेवामन्दिर, सरसावा by some of the advanced Aryan tubes - (A.C. Das Rgvedic culture 1925,P145) ६ श्राचारागसूत्र २-२४-३५ । व्याख्याप्रति E-431
. रामकृष्णदास । भारतीय मूर्तिकला १६३६ पृ०४६
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएँ
(लेखक-५० परमानन्द जैन, शास्त्री)
.
गिम्बर जैनसमाजमे हिन्दीभाषाक अनंक गद्य-पद्य- म श्रोसबाल जानिके कटारियागोत्री माहू दशरथलालजी
लेखक विद्वान और कवि हो गये हैं; परन्तु दिगम्बर एक बड़े ही भद्र पप थे | आप आगरेके प्रसिद्ध व्यापारियो जनसाहित्यका कोई मुकम्मल सूची न होनेसे श्राधकाश मंस थे और पण्योदयवश आपपर लल्मीकी बड़ी कृपा थी। विद्वानोंकी वे अमूल्य कतिया आँखोस श्रोझल हुई यत्र नत्र विशाल सन्यात्तक स्वामी होते हुए भी अभिमान आपको अन्य-भण्डारोंमे ही बन्द पड़ी हैं और दीमको चहा आदि छकर नहीं गया था । अापके सुपत्र साहूलालजी भी पितासे का भोज्य बन रही हैं । इसी कारण अधिकाश जनता हिन्दी किसी बातमे कम न थे, बड़े ही धर्मात्मा और उदार सजन जैनमाहित्यसे प्राय: अपरिचित है। फिर भी हिन्दी जैन
थे। इन्दी माहूलाल जीके सुपुत्र हमारे चरित्र गयक पं. माहित्यके जो ग्रन्थ अभी तक प्रकाशमे श्राए है उनपरसे
भगवतीदाम है, जो एक बड़े ही उदार तथा सदाचारी इतना तो सष्ट कहा जा सकता है कि भारतीय हिदीमाहिल्य
विद्वान थे श्राप १७ वी १८वी शताब्दीके प्रतिभा सम्पन्न कति के इतिहासमें जनविद्वानोंका भाग हाथ रहा है-उनकी
थे और आध्यात्मिक ममयसारादि ग्रन्थोके बड़े ही रसिक थे । बहुमूल्य अनूठी रचनाएँ हिन्दी माहित्यको अनुपम देन हैं।
श्रापका अधिक समय तो अध्यात्म ग्रन्योंके पठन-पाटन तथा कविवर बनारसीदास आदि कुछ जैनकवियोंकी रचनाएँ
गृहस्थोचित षट्कर्मोके पालन करनेमे व्यतीत होता था सामने अानेसे विद्वान तथा सर्व साधारणजन उनका रम
और शेष ममयका सव्यय विद्वद्गाष्ठी, तत्त्वचर्चा एवं स्वाद ले रहे है और देख रहे हैं कि वे कितनी सरस न्या
हिन्दी भाषाकी भावपूर्ण कविता के करनेमे हाता था। गम्भीर अर्थको लिए हुए है।
श्राप प्राकृत-सस्कृत तथा हिन्दी भाषाके अभ्यासी होने के ___कविवर भगवनीदास पं. बनारसीदासके ममकालीन
साथ साथ उर्दू, फारमी, बंगला तथा गुजरानी भाषाका भी विद्वान ही नहीं, किन्तु उनके माधर्मी पंचमित्रांमसे तृतीय
अच्छा ज्ञान रखते थे, इतना ही नहीं, किन्तु उर्दू और ये*। बनारसीदासने अपने नाटक समयसारम इनका 'सुमन'
गुजरातीमे तो अच्छी कविता भी करने थे । कवितापर विशेषण के साथ उल्लेख किया है । श्रागरा मुग़ल
श्रापका असाधारण अधिकार था। श्रापकी काव्यकला हिंदी बादशाइतके जमानेमे खूब समृद्ध रहा है, शाहजहाँके राज्य
साहित्य-संसारमे निराली छटाको लिये हुए हैं उसमे कहीपर काल मे नो उसकी प्रतिष्ठा और भी बढी है । जयपुर के
भी शृङ्गार रस जैसे रसोका और स्त्रियोकी शारीरिक सुन्दरता समान अागरा भी दि. जैन विद्वानोंका कुछ समय तक केन्द्र रहा है। कविवर बनारसीदाम, पं. रूपचन्दजी आदि
का वह बढ़ा चढ़ा हुआ वर्णन उपलब्ध नहीं होता, विद्वानोंने अपने निवाससे उसे पवित्र किया था। कविवर
जिससे मानव श्रात्मा-पतनकी ओर अग्रसर होता है। आपकी भगवतीदामकी तो वह जन्म भूमि ही थी। उस समय आगरा
रचनाएँ प्राय: वैराग्य रससे परिपूर्ण हैं और बड़ी ही रसोली,
मनोमोहक तथा पढते ही चित्त प्रसन्न हो उठता है और रूपचंद पंडित प्रथम दुनिय चतुभुज नाम । तृतिय भगौतीदास नर कौरपाल गुनधाम || २६ ।।
छोड़नेको जी नहीं चाहता। उनके अध्ययन और तदनुकूल
वर्तनसे मानव जीवन बहुतकुछ ऊँचा उठ सकता है। धमतास ये पंच जन मिलि बैथे इकठौर । परमारथ चरचा करें इनके कथा न और ॥ २७ ॥ वास्तवमे हमारे कविवरकी काव्य-कलाका विशुद लक्ष्य
नाटक समयसार आत्म-कल्याणके साथ साथ लोककी सची-सजीव-सेवा रहा
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४
अनेकान्त
[वष ५
है। जो अज्ञानी मानव संसार-यंक में फंसे हुए है, विषय- इम समालोचना परस पाठक कविवर भगवतीदासजी वामनाके गुलाम है तथा श्रात्म-तनकी ओर अग्रसर हो रहे की प्रकृति, परिमानि और चिनवृनिका कितना ही अनुभव हैं उन्हें संबोधित करके सम्मार्गपर लगानेका आपने भरसक कर मकते हैं । अस्तु । काववरकी इस ममय तीन रचनाएँ प्रयत्न किया है । अापकी कविता के उच्चादर्शका पता उपलब्ध हैं। अनेकार्थनाममाला, लघुसानामतु और ब्रह्मविलासकी कवितायाका अध्ययन करनेमे महज दीम ब्रह्मविलास । इन नीनो रचनाश्रीमसे अब तक मिर्फ ब्रह्मचल जाना है। उसमें लोकरंजन और ख्यानि-नाम-पूजादि बिलाम ही प्रकाशित हुआ है । शेष दोनों अन्य अप्रकाशित का कोई स्थान नहीं रहा है। अलंकार तथा प्रामाद गुणमे है। इनका शायद नाम भी अब तक प्रकाशम नहीं. अाया विशिष्ट होने के साथ माय आपकी रचना मरल, मरम एवं था। हालम वीर सवामन्दिरसे अनेकान्त द्वारा प्रकाशम गंभीर अर्थको लिये हुए हैं। कविताम अापने की कहीपर लाई जानेवाली देहली पंचायती मन्दिरके भण्डारकी ग्रंथउर्दू, गुजराती और अपभ्रंश प्राकृतक, शन्दका बहुत ही मूचीपरसे इन दोनों ग्रन्थाका पता चला है। इन तीनका सुन्दर प्रयोग किया है।
मंक्षित परिचय निम्न प्रकार है:कवि केशवदामजी हिन्दीक एक प्रसिद्ध कवि हो गए अनेकार्थ नाममाला-यह एक पद्यात्मक कोष है. हैं, जिनको शृङ्गार रसम अगाध प्रेम था। इतना ही नहीं जिमम एक शब्द के अनेकानेक अर्थोका दाहोंम संग्रह किया किन्तु वृद्धावस्थाम भी शृङ्गार-विषयक लालसा कम नहीं गया है। यइ पंचायती मन्दिर देहलीके एक गुटकम संगृहीत हुई थी। केशाके सफेद हो जाने पर भी उनका हृदय ।
है। गुटका प्राचीन और वह कोई ३०० वर्षसे भी अधिक विलामताकी कलुषित कालिमामे कलुपित था। परन्तु वृद्ध ।
पगना लिखा हुअा जान पड़ता है, लिपि पुगनी माफ तथा हानेके कारण वे अपनी वामनााकी पूर्ति करनेम अशक्य सुन्दर है, परन्तु कही कही लिखनेकी कुछ अशुद्धियो ज़रूर हो गए थे युवनियों एवं तरुण बान अनि मफेद केशको हैजा दूमग किमी प्रति परसे ठीक की जा सकती है। अन्ध देवकर उनके समीप जाना ग्राना बन्द कर दिया था. इसम का प्रशास्तम कविवरन अपना कोई परिचय न देकर रचना उन्हें असह्य पोड़ा होती थी अपनी हम अन्नपीडाको उन्होंने
के ममयादकको हा व्यक्त किया है । रचना संवत् १६८७ निम्न दोहेमें व्यक्त किया है :
म अाषाढ कृष्णा तृतीया गुरुवार के दिन श्रवण नक्षत्रमे केशव केशनि असिकरी, जैसी अरि न कराय।
शाहजहाँक गज्यकालम पूरी की गई है। परन्तु यह रचना चन्द्रबदन मृगलोचनी, बाबा कहि मुरि जाय ॥
किस स्थानपर की गई है यह प्रशस्तिम दिया जरूर है पर केशवदास जीने अपने को तथा रामक नाका मंतुष्ट करनं ठीक उपलब्ध नही होता । सम्भवतः इसकी और लघु सीताके लिये प्रसिकप्रिया' नामकी एक पस्तक बनाई थी. जमम सतुकी रचना देहली या शाहदरा दोनोमसे किसी एक स्थान नारीक. नन्वये शिग्वातक मभी अंगांका अनेक तरहकी परकी गई है। प्रशस्तिम सिहरदि' पाठ दिया है जो कछ उपमाओंसे अलंकृत कीर्तन किया गया है।
अशुद्ध जान पड़ना है, उसके स्थान पर 'महदरि' पाठ कहा जाता है कि कवि केशवदामने इस प्रस्तककी।
अधिक उपयुक्त जचता है । यदि यह ठीक हो तो इनका एक प्रति कविवर भगवतीदामक पाम ममालो ननार्थ की रचना स्थान सहदरा (शाहदरा) हो सकता है, जो देहलीसे थी, कविवरने उसे देग्वकर एक छन्द बनाया और 'रमिक- मिलता है; क्याकि प्रशास्तम दहलाका भट्टारक गदाक तान प्रिया' के पृष्ठ पर लिखकर वह पस्तक उन्दीक पाम वापिम मट्टारका---गुणचन्द्र, सकलचन्द्र और महेन्द्रसेनके नाम भेज दी, वह छन्द इस प्रकार है:
दये हैं। रचना के ममय भ० सकलचन्द्र के पट्टपर महेन्द्रसेन "बदी नीति लघु नीति करत है वाय-सरत बदबोय-भरी। विराजमान थे । पशास्तके पद्य हम प्रकार है:कोदा मादि फुनगनी मंडित सकल देह मनु रोग-दरी॥ मोलह सय रु सतासियइ, साढि तीज तम पाखि । शोणित-हार-मांस-मय मूरति तापर रीझत घरी घरी। गुरु दिनि श्रवण नक्षत्र भनि, प्रीति जोगु पुनि भाषि ॥६६॥ ऐसी नारि निरख कर केशव 'रसिकप्रिया' तुम कहाकरी॥" माहिजहाँके राजमहि, 'सिहरदि' नगर मंझारि ।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १:२]
कविवर भगवनीदाम और उनकी रचनाएँ
-
अर्थ भनेक जु नामकी, माला भनिय विचारि ॥६॥ लघु सीता सतु- इस प्रथमे सीताके सतीत्वका गुरु गुणचंदु अनिंद रिसि, पंच महावत चार ।
अच्छा चित्रण किया गया है। यह भी पंचायती मंदिर सकलचन्त तिस पहभनि, जो भवसागर तार ॥६॥ देडलीक उमी गुटकेमे है जिमका परिचय ऊपर दिया गया तासु पट्ट [पुनि] जानिए. रिमि मुनि माहिंदसेन । है, और यह उम गुटकम शुरुके १७ पत्रोम दिया हुआ है। भट्टारक भुवि प्रगट जसु, जिनि जितियो रणि मैनु ॥६६॥ परन्तु ग्रन्थ-सूचीम हमका नाम नहीं दिया गया। मालूम सिंह ज सिहइ, [कविसु भगवतीदासु। हाता है ग्रन्थ-मची बनाते समय लघु मीता मतु और तिनि लधुमति दोहा करे, बहुमति करहु न हामु ॥७॥ अनेकार्थनाममाला इन दोनोंको एक ही ग्रन्थ समझ लिया खषु दीरघ मात्रा वरण, सबद भेद अवलोह।
गया है। ये दोनों ग्रंथ गुट केके २६ पत्रांमे समान हुए है। बुधिऊन मबह सवारियहु, हीन अधिक जहं होइ ॥७॥ इनकी रचना मंवत् १६८७ में चैत्र शुक्रा चतुर्थी चंद्रवार
इति श्री अनेकार्थ नाममाला पंडितभगोतीदासकृत दोहा के दिन, भरणी नक्षत्रम सिगद नगरम (दिल्ली-शाहदग) बंध बालबोध-देसभाषा समाप्तं ॥छ॥
म की गई है, जैसा कि उसके निम्न प्रशस्ति-पद्याम प्रस्तुन ग्रन्थोम तीन अध्याय हैं और वे क्रमश: ६५ प्रकट है:१२२.अौर ७१दीदी को लिये ० है । यह कोष हिन्दी भाषा- इन्द्रपुरी सम सिहरदि पुरी, मानवरूप अमरघुति दुरी। भाषी जननाके लिये बता । उपयोगी है। इसकी रचना अग्रवाल श्रावक धनवन्त, जिनवर भकिकरहिं समकंत ॥ बनारमीनाममालास १७ वर्ष बाद हुई है। अनार्थ शन्दों तहं कवि आइ भगोतीदास, सीतासुत भनियो पुनि मासु। का हिन्दीम ऐमा मुन्दर पाबद्ध कोष अब तक दूमग देवने बहु विस्तरु सरुवंद घनेरा, पढत प्रेम बाह चित्तरा॥ म नही पाया । कविवर भगवतीदाम जीकी भारतीय हिन्दी- एक दिवस पूरन हा नाही, अति अभिवाप रहा मनमाहीं। माहिन्यको यह अनुपम देन है। ग्रन्थ की रचना सुन्दर और ... ... ... ...... . ......... ... ... ॥ माम है। यहाँ पाठकोकी जानकारीक लिये 'मारग' और दोहा—तिहिं कारण लघु सुत करयो, देस चौपाई भास । 'गो' इन दो शन्दाके वाचक अनेक अर्थों वाले पद्य नीचे वंद जूम सबु छोडि कह, राधे बारह मास ॥ दिये जाने हैं, जिनमें प्रस्तुन काय महत्वका मटन दीम मोरठा-संवतु मुणहु सजान, सोलह सहरु सवासियह । पता चल मकेगा:
चैति सुकल तिथि दान, भरणीमसि दिनि सो भयो। कुरकटु कापु कुरंगु कपि कोकु कुंभु कोदंदु।
___ इम ग्रंथम बारह मामांक मंदादरी-मीता प्रश्नोत्तर के कंजरु कमल कुठारु हलु मोड कोपु पविदंदु ॥५॥ म्पमे कविने रावण और मंदोदरीकी चित्तवृत्तिका परिचय करटु करमु केहरु कमटु कर कोलाहल चोरु।
देते हा सोताके दृढतम सतीत्वका जो चित्रण किया है वह कंचनु काकु कपोतु अहि कंबल कलसरु नीरु ॥६॥ बड़ा ही मुन्दर और मनमाहक है। अत: यह ग्रंथ भी मत्रग्वगु नगु चातिगु वह खलु खरु खोदनड कुदालु । माधारणके लिये बहुत उपयोगी और शिक्षाप्रद है। पाठको भूधरु भूमह भुवनु भगु भटु भेकजु अरु कालु ॥७॥ की जानकारीके लिये आपाढ मासका प्रश्नोत्तर नीचे दिया मेखु महिषु उत्तिम पुरुमु पु पारसपाषानु ।
जाता है:हिमु जमु ससि सूरजु सलिलु बारह अंग बखानु ॥८॥
(मंदोदरी) दीपु कृपु कजलु पवनु मेघु सबल सब भृक्ष ।
चौपाईकवि सुभगोती उच्चरह ए कहियत सारंग ॥३॥
तब बोलह मंदोदरी रानी । ति अषाढ धन घट घहरानी ॥
-इति सारंगशब्दः। पीय गए ते फिर घर मावा । पामर नर नित मंदिर छापा। गो धर गो तरु गो दिसा गो किरना भाकास ।
जवहि पपीहे दादुर मोरा । हियरा उमग धरत नहि मोरा । गो इंद्री जल छन्द पुनि गोवानि जन भास ॥५॥ बादर उमहिरहे चौपासाातिय पिय बिनु तिहि उसन उसासा ।।
-इति गोशब्दः। नन्हीं बंद मरत मरवावा । पावस मम भागमु परसावा ।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६
अनेकान्त
दामिनि दमकल निशि अंधियारी विरहनि काम वान उरे मारी। भुगव हि भोगु सुनहि सिख मोरी जान काहे मई मति वीरी ॥ मदन रसायनु हइ जगसारू, संजमु मेमु कथन विवहारू ॥ शे०-जब लगु हंस शरीरमहिं तब लग की भाँगु
राज तजहिं भिक्षा भमहिं इंउ भूला मबु लोगु ॥ सो०-सुख विलसहि परवीन, दुख देखहिं ते बावरे ।
जिउ जल हां] मीन, तह फिमरोह पलि रेलकइ ।। पुनिहां-यहु जग जीवन लाहु न मनु तरमाइए । तिय पिय सम संजोगि परमसुहु पाइए ॥ जो हु समझणहारू तिसहि सिख दीजिए । जाणत होह प्रयाणु तिसहिँ क्या कीजिये ॥ ( सीता ) शुक-नासिक मृग-डग पिक-वहनी जानुकि वचन लवइसुखिरइनी अपना पियुपय अमृत जानी अवरपुरिष रवि- दुग्ध-समानी ॥ पिय चितवन चितु रहद्द अनंदा, पिय गुन सरत बदल जसकंदा प्रीतम प्रेम रहह मनपूरी, तिनि वाजिम संगु नाहीं दूरी ॥ जिनि पर पुरष तिवारति मानी हसेनि सो आदि विकानी ?
,
करत कुशील बढ़त बहु पाए, नरकि जाइ लिउ हर संतापू जिउ मधुबिंदु समुख अढ़िये, शीख बिना दुरगति दुख सहिये। कुशल न हुइपरपिय रस बेली, जिउ सिसु मरइ उरग- सिउँ खेली दोहरा -सुख चाहते बांवरी पर पति संग रतिमानि ।
जिउ कपि शीत विथा मरह तापत गुञ्जा आनि । सोरठा-तृष्णा तो न बुझाइ जलु जब खारी पीजिये ।
मिरगु मरइ धपि वाह जल धोखपति रेतक पुनिहां पर पिव सिउँ करि नेहु सु जनसु गँवावना ।
दीपगि जरह पतंग पे ख सुहावना ॥
[ वर्ष ५
रचनाएँ तो इतनी बड़ी है कि वे स्वयं एक एक स्वतंत्र ग्रंथ के रूपमे संकलकीमती है। ब्रह्मविलास की कविताएँ काव्य-कलाकी दृष्टिसे तमाम रीतियों शब्दालङ्कार और अर्धालङ्कारसे परिपूर्ण है, स्थान स्थानपर अनुप्रास और यमक की झलक भी दिखाई देती है, साथ ही इसमें अन्तर्लापका बहिलपिका और चित्रबद्ध काव्योंकी रचना भी पाई जाती दे प्रस्तुत संग्रह पवपि सभी रचनाएँ अच्छी है परन्तु उन सबमे १ चेतन कर्मचरित्र, १ पंचेन्द्रिय-सम्याद, ३ मनबत्तीसी, ४ वाईस परिषद्य, ५ वैराग्यपबीसिका ६ वन बत्तीसी, ७ सूवाबत्तीमी और परमात्मशतक श्रादि रचनाएँ बड़ी ही चित्राकर्षक और शिक्षाप्रद जान पड़ती हैं। ये अपने विषयकी अनूठी रचनाएँ हैं। कविवर भक्तिरसके भी रसिक थे, इसीसे आपकी कितनी ही रचनाएँ भक्तिरस से स्रोत-प्रोत है। इस ग्रंथके दो चार पयोंको ही यहाँ बतौर नमूने दिया जाता है:
।
राग न कीजे जगतमें, राग किये दुःख होय । देखहुकोकिल पीजिरे, गहि डारत हैं लोय ॥ परिग्रह संग्रह ना भलो, परिग्रह दुखको मूल । माखी मधुको जोरती देख दुखको गुल ॥ चेतन चन्दन वृक्ष सों, कर्म साँप लपटाहिं । बोलत गुरु वच मोरके, सिथिल दोष दुर जाहिं ॥ केई केई बेर भये भूपर प्रचंड भूप,
बडे बडे भूपनके देश छीन लीने हैं। कई कई बेर भये सुर भौनवासी देव
केई केई बेर तो निवास नर्फ कोने हैं ।। कई कई बेर भये कीट मल मूत महि
ऐसी गति नीच बीच सुखमान भीने हैं। कौडीके अनंग भाग श्रापन बिकाय चुके,
पररमणी रस रंग कवणु नरु सुहु लहह । जब कब पूरी हानि महति जिहं अहि रहद्द ॥ यहां पाठकों को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इन दोनों प्रकाशित प्रत्योंमेंसे 'अनेकार्थनाममाला' के प्रका शनकी योजना वीरसेवामन्दिर में होगई है। सीर सेवामंदिर के अधिष्ठाता पं० जुगलकिशोर मुरुनार उसे शीघ्र ही 'शब्दानुक्रमकोष' आदि अलंकृत करके अपनी 'प्रकीर्णकपुस्तक 'माला' में प्रकाशित करना चाहते हैं ।
३ ब्रह्मविलास - यह भिन्न भिन्न विषयों पर लिखी गई ६७ कविताओंका एक सुन्दर संग्रह है। इनमे से कितनी
गवं कहा करे ! देख ' रग दीने हैं ॥ मूद जे लागे दश बीस सौ से तेरह पंचास सोरह वासठ कीजिये, छांड चारको वास ॥ जोलों तेरे हिये भर्म तोलों तू न जाने मर्म
कौन आप कौन कर्म कौन धर्म साँच है। देखत शरीर धर्म जो न सहे शीत धर्म
वाहि घोष माने धर्म ऐसे भ्रम मात्र है ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
मरुदेवी-स्वमावली
नेक ह न होय नर्म बात बात माहिं गर्म,
मान ठीक हो तो आपका जन्म मंत्रत् १६६० या इसके रहो चाहे हेम हर्म बस नाहीं पाँच है। श्राम-पासका अनुमानित किया जा सकता है। सं० १६६३ एते पैन गहे शमं कैसे हैं प्रकाश पर्म,
मे नाटक समयसारकी रचना करते हुए पं. बनारसीदासजी ऐसे मूढ भर्ममाहि नाचै कर्म नाच है। ने, अोर सं० १७११ में पंचास्तिकायका पद्यानुवाद करते इम तरह कविवर भगवनीदासजीकी उपलब्ध सभी हुए जहानावाद निवामी पं० हीगनन्दजीने इनका उल्लेख रचनाएँ बढी सुन्दर हैं। ब्रह्मावलाममें आपकी रचनाएँ किया है। बहुत सम्भव है कि प्रयत्न करने पर आपकी सं० १७३१ से १७५५ तककी उपलब्ध होती हैं। इसके अन्य रचनाएँ भी उपलब्ध होजाएँ और उनपरस फिर बाप बाद कितने समय आप और जीवित रहे, यह कुछ भी का जीवन परिचय भी उपलब्ध होजाए: क्योकि १६८७ से मालूम नहीं हता, और न प्रयत्न करनेपर यही मालूम हो १७३१ क मध्यकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है, इस लम्बे सका है कि आपका जन्म और मरण किस संवतम हश्रा है। ममयमे श्रापने कोई न काई रचना करूर की होगी। इस ममय आपकी संवत् १६८० से १७५५ तककी जो भी अाशा है विद्वान इस दिशाम प्रय
श्राशा हे विद्वान इस दिशाम प्रयत्न करगे और भगवती रचनाएँ उपलब्ध है, उनसे ता सिर्फ यही कहा जा सकता है दास जीकी अभ्य किमी रचनाका पता लगाकर सचिन करने कि अनेकार्थनाममालाकी रचना करते समय आपकी उम्र की कग करेंगे। कमसे कम २४-२५ वर्षकी नरूर रही होगी, पदि यह अनु- --चीरसेवामन्दिर, मरसावा ।
श्रीदेवनन्दि-विरचितमरुदेवी-स्वप्नावली (अनुवादक-पं० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य)
[गत भादा माममे श्रीजनमन्दिर सेठका कुँचा देनीक शाम्बभण्डार पर प्रन्य-मची मम्बन्धी कुछ नोट्स लेन ममय मेरे मामने यह 'स्वप्नावली' आई. जो मुझे माहित्यकी दृष्टि से एक नई चील मालूम पड़ी और टलिये मैं इमे काम करानेके लिये अपने साथ ले अाया। इमकी रचना शब्दालङ्कागदिको लिये हुए बड़ी मुन्दर जान पड़ती है
और इसके पहनेमे मङ्गीत जैसा अानन्द श्राता है। रचना 'मिद्धिप्रिय' स्तोत्रके दृगकी है और उन्ही देवनन्दि मुगिकी कात मालूम होती है जो 'मिद्विप्रिय स्तोत्रके कर्ता है। अनेकान्त के पाटकाको इसका रसास्वादन करानेके लिये अाज यह रचना उम अनुवाद के साथ नीचे प्रकाशित की जाती है जिसे पं० पन्नालालजी जैन माहित्याचायं सागग्ने मेरी थोड़ी सी प्रेरणाको पाकर बड़ी प्रसन्नताके साथ प्रस्तुत किया है और जिसके लिये मैं श्रापका बहुत अाभारी हूँ। अनुवाद के माथमें संस्कृत टिप्पणियोको लगाकर आपने हमके माहित्यक-धर्मको बोलने का जो यत्न किया है वह प्रशमनीय है और उमग इस पुस्तककी उपयोगिता बढ़ गई है । आशा है साहित्यमिक इसे पढ़कर जरूर प्रसन्न होंगे। -सम्पादक
मातङ्ग-गो-हरि-रमा-वरदाम-चन्द्र
मार्तण्ड-मीन-घटयुग्म-तडाग-वाधिसिंहासना-ऽमरविमान-फणीन्द्रगेह
रत्नप्रचाय-दहना रजनीविरामे ॥शा
ये मेदिनी-धरण-मन्दर! नाभिराज!
स्वप्न यशोभवन ! मुन्दरनाभिराज ! दृष्टा मया शयिनया खल-नाप-राग' । १खलाना-दुर्जनानातापे गगी यम्य तत्सम्बुद्धौ हे ग्वलनापगग!
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
अनेकान्त
[वर्ष ५
तेषां फलं कथय मे खलताऽपराग' ! ॥२॥
शब्दं (सद्यः) सदानगति रुन्नतसाध्व'शोकः।
(युग्मम) मुक्त्यर्थमम्बरफलत्रसुवर्णमुक्तेः 'पृथिवीको धारण करने में मेरु-प्रजापालन करनेमें धीर,
पुत्रो भविष्यति मृगाक्षि! सुवर्णमुक्ते'.!||४|| कीर्तिके मन्दिर, सुन्दर नाभिसे शोभायमान, दुष्ट मानवोंके 'सुवर्ण मुक्काके प्राभरणोंसे युक्त हे मृगनयनि मरुदेवी। तापमें-दमन करनेमे रागी तथा दुर्जनताके विद्वेषी गजेन्द्र के देखनेसे तुम्हारे शीघ्र ही वह पुत्र होगा जो कि हे नाभिराज महाराज । माज रात्रिके अन्तमें सोते साधुओंको शोकरहित करेगा, दानपद्धतिसे मुक्त होगा हुए मैंने स्वममें हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मीदेवी वरमाला, अथवा सदाके लिये नगति-नरनारकाादि गतिओंसे रहित चन्द्रमा, सूर्य, मीन युग्म, घटयुग्म, सरोवर, समुद्र, सिंहासन, होगा, [ हाथी भी दानगति-मदनावसे युक्त होता है] देवविमान, नागेन्द्रभवन, रत्नराशि और (निर्धूम) अग्नि-ये (अरहन्त अवस्थामें) उतुङ्ग और उत्तम अशोक वृक्षसे (सोलह) चीजे देखी हैं, आप मुझे इन स्वमोंका फल युक्त होगा और वस्र, स्त्री तथा सुवर्णका त्याग करनेसे बतलाएँ।॥ १२॥
मुक्ति के लिये-मोक्ष प्राप्तिके लिये तत्पर होगा ॥ ४ ॥ सम्पूणचन्द्रमुखि ! नीलतमाऽलकाऽन्ते !
दृष्टेन मानिनि ! गवा तपसे वनानि केशप्रभाविजितनील-तमाल-कान्ते !
गत्वाऽतिवातसलिलातप सेवनानि''। रम्भानिभोरु ! मरुदेवि! सती-व्रताऽऽपे !
धुर्यत्वमेष्यति विधो २विधुराधराणां, संश्रूयतां मधुरवाग"सतीव्र-तापे' ! ॥३॥
चन्द्रानने ! चरणभारधुराधगणाम् ॥ ५॥
'हे मानवति चन्द्रमुखि ! वृषभके देखनेसे तुम्हारे बह 'अत्यन्त कृष्णा अलकों (जुलफ़ों) के अन्तभागाँसे युक्त और केशोंकी प्रभासे नीलतमाल वृत्तकी-तापिछ पुष्पकी कान्ति ।
पुत्र होगा जो कि तपके लिये, अत्यन्त पवन, पानी और को जीतनेवाली हे पूर्णचन्द्रमुखि ! कदलीसमज! पाति
घामकी बाधाओंसे मुक्त बनोंको जाकर उन तस्वियोंके वते ! संतापवर्जिते ? मधुरभापिणि मरुदेवि! स्वमफल
मध्यमें धुर्यत्वको-श्रेष्ठपनेको [ पक्षमें वृषभके सदृश
धूहिकरवको] प्राप्त होगा जो कि चारित्ररूप भारसे युक्त धुरा सूचक मधुर वचन सुनो ॥३॥
को धारण करने वाले हैं और जिनके अधरोष्ठ विधूसे कपूर दृष्टेन दन्तिपतिना कृतसाध्वशोकः
से-विधुर हैं-रहित हैं॥५॥ १ वलताया दौर्जन्येऽपरागो-विषो यस्य तत्सम्बड़ी है दृष्टेन पञ्चवदनेन सुखेन मोग-१५ स्वलनापराग!
८ दानगत्या-दानपद्धत्या, त्यागभावेन सहवर्तमानः, इस्तिपक्षे २ नीलतम:-सातिशयकृष्णः अलकाना-चूर्णकुन्तलानामन्नो दानगत्या-मदनावेस सहितः । अथवा सदा सर्वदा, नगनि:यस्यास्तमम्बुद्धौ।
नरनारकादिगतिशून्यः, न शब्देन महसमास. । ३ केशप्रभया विजिता नीलतमालस्य-कृष्णतापिच्छपृष्यस्य ६ उन्नतः साधुश्च अशोकः-अशोकवृक्षो यस्य सः। कान्तिर्यया तत्सम्बुद्धौ।
१० सुवर्णाः सुछु कान्तियुक्ता मुक्ता:-मुक्ताफलानि यस्याः । आपनम्-श्राप: प्राप्तिरित्यर्थः, सतीवतस्य-पातिव्रत्यधर्मस्य तत्सम्बुद्धौ । आपो यस्थास्तत्सम्बुद्धौ।
११ अत्यन्तं वातमलिलातपाना सेवनं येषु तानि, वनानि ५ मधुरा वाचो यस्या स्तत्सम्बुद्धौ, अथवा मधुरा चासो वाक् इत्यस्य विशेषणम् । चेति कर्मधारयः, संश्रयतामित्यस्य कर्म ।
१२ 'विधुः शशाङ्के कर्पूरे हृषीकेशे च राक्षसे' इति विश्वः । ६ तीवतापेन सहवर्तमाना सतीव्रतापा, तथा न भवतीत्य- १३ जन्येनेति शेषः । अथवा सुखेन-मुछुखानि-इन्द्रियाणि यस्य सतीव्र तापा तत्सम्बुद्धौ।
स तेन पञ्चवदनेने त्यस्य विशेषणम् । भोगैस्तृतोन्नत इति • कृतः साधनाम्-अशोकः शोकाभावो येन सः ।
प्रकृते सम्बन्धी योज्यः ।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
मरुदेवी स्वप्नावली
स्तृप्तोन्नतश्चतुरसमसुखेनभोगैः'।
अनुपम स्वयंबर विधिमे मुक्ति वधूकी वर मालाको प्रहण क्रोधादिसिन्धुरहरिबजिताऽपवर्ग
करेगा-तपस्याके द्वारा मोतको प्राप्त होगा,-और इस नाथो नताङ्गि ! तपसाथ विताप वर्गम ॥६॥ प्रकार वह विभु-सारे संसारका स्वामी-होगा' 'हे नताङ्गि! सिह देखनेका फल यह है कि तुम्हारे जो दृष्टेन शीतकिरणन सुधीरतापः पुत्र होगा वह क्रोधादि हस्तिो नष्ट करनेके लिए सिह
साधुर्यशोधवलितो व्रतधीरतापः । के समान होगा, सुन्दर गृहसुखके समय-गृहस्थ अवस्था
आहादयिष्यति मनांसि महादयानां' मे-अनेक विद्याधरों अथवा देवोंके साथ विविध भोगजन्य धर्मामृतव्रतवतां समहोदयानाम ।।६।। सुखसे अत्यन्त तृप्त होगा । पुनः तपके द्वारा वैषयिक मुखो 'चन्द्रमाके देखनेसे वह पुत्र सुधी-समीचीन बुद्धिसे से विरक्त होकर-तापवर्गसे-मानसिक वाचनिक और कायिक युक्त-होगा, संतापरहित होगा, यशसे उज्वल होगा, व्रतसंतापसे रहित अपवर्गको-मोक्ष स्थानको प्राप्त होगा और राहत मनुष्योंको संताप पहुंचाने वाला होगा, अथवा बोंमें इस प्रकार वह जगत्का स्वामी होगा'॥६॥
धीरताको प्राप्त होगा तथा धर्मामृतके द्वारा महान् अभ्युदय दृष्टन माधववधूवररूपकरण
से युक्त व्रतवान् महापुरुषों के मनको हषित करेगा' ॥1॥ भोगोपभोग कृतसौख्यनिरूपण
दृष्टन चण्डकिरणन विभासमानः१० लक्ष्मी प्रदा(धा)स्यति जिनो भवतीति भिन्नं पापान्धकारदलनेन विभासमानः।
चण्डि ! क्षितारिरमणो भवतीति भिन्नम ॥७॥ भव्याब्जबोधनपटुर्विधुराजितो मे 'हे चण्डि ! भोग-उपभोगजनित सुखोंका निरूपण
मोदं तनिष्यति मुनिविधगजितो मे ।।१०।। करनेवाले लक्ष्मी दर्शम-स्वमसे यह प्रक्ट है कि वह पुत्र
__ हे चन्दतुल्य कीर्ति अथवा कान्तिसे शोभित मरदेवि ! पहले शत्र-राजाभावो नष्कर विजय लक्ष्मीको धारण करेगा
सूर्यदर्शनका फल यह है कि वह पुत्र अपनी शारीरिक विभा और उसके अनन्तर जिन होकर-धाति कर्मशऋत्रोंको नष्टकर
से असमान अनुपम (अथवा सूर्यके समान) होगा, पापरूप परमाईन्त्य लक्ष्मीको धारण करेगा । अथवा अन्य जीवोंको
अन्धकारको नाश करके शोभायमान होगा, भव्यरूप कमलों प्रदान करेगा।'
के हर्षित-विकासित करने में समर्थ होगा, चन्द्रमा तथा दृष्टेन दामयुगलेन विनाऽशनानि
नारायणके समान शोभित होगा, अथवा विधुर-वैकल्प
वेचैनी भादिसे अजित होगा. मुनि होगा-जितेन्द्रिय कृत्वा तपांसि बहुदुःखविनाशनानि । माला स्वयंवर विधौ विगतोपमाने५
होगा-और इस तरह मेरे हर्षको विस्तृत करेगा।' ॥१०॥ मुक्तेग्रहीष्यति विभुर्विगतोपमाने ! ७ सुधी: + अतापः इति पदच्छेदः । 'हे विगतोपमाने ।-उपमारहित प्रिये ! मालाओंका
८ न व्रतधीरा इत्यव्रतधीरास्तान् तापयतीत्यव्रतधीरतापः । युगल देखनेसे प्रकट है कि वह पुत्र भोजनका त्यागकर,
अथवा-अाग्नम श्रार: प्रातिरित्यर्थः, नंतषु धारताया अापो
यस्य म:। अस्मिन् पक्षे व्रतधीरनाप: इति पदच्छेदः। अनेक दुःखोंका नाश करनेवाले उपवासादि तप करके.
---.-.-६ महोदयः महवनमानानाम् । १ नभम-गगने गच्छन्तीति नभोगास्तैः।
१० विभया-कान्त्या अममान: अमदृश अनुपम इत्यर्थः । २ विगतस्तापवर्गों यस्मात्म तम् ।
११ विभासते-इति विभाममान: शोभमान इत्यर्थः । ३ अशनानि भोजनानि विना-याहारं परित्यज्येत्यर्थः। १२ विधुवत् राजित:-विधुराजितः, चद्रतुल्यशोभितः अथवा ४ वहुदु:ग्वाना विनाशनानि-विघातकानि ।
विधुरै: वैकल्पादिभिर्दुःखैरजितोऽपरिभृतः । ५ विगतम्-उग्मान-सादृश्यं यस्य तस्मिन् 'स्वयंवर विधौ' १३ विधुवच्चन्द्रवत् राजिता शोभिता-उमा-कीर्ति कान्तिर्वा इत्यस्य विशेषणम्।
यस्या: मा तत्मम्बुद्धौ ‘उमा गौर्यामतस्या च हरिद्रा कान्ति ६ विगतम्-उपमानं यस्यास्तत्मबुद्धौ।
कीर्तिषु' इति विश्वलोचनः ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
दृष्टेन मीनयुग्लेन सुकेवलेन'
हारोपशोभितकुचे ! सुमनो हितस्य'. पूर्व श्रिया जगति राजसु केवलेन ।
तृष्णां हनिष्यति पतिः सुमनोहितस्य ॥१३॥ कीडिष्यति प्रियतमे ! नृपराजकामः
'हारमे सुशोभित स्तनों तथा अत्यन्त सुन्दर हृदयको सिद्धया पुनर्जिनवरोऽनृपराजकामः। ॥ ११॥ धारण करनेवाली हे मरुदेवि ! कमल युक्त सरोवरके देखने 'हे प्रियतमे ! उत्तम जलमे संचरण करते हुए मीनोंका से प्रकट है कि वह पुत्र कमलाके-धनधान्यादिविभूति युगल देखनेसे प्रकट होता है कि वह पुत्र पहले तो नृपराज- अथवा अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीके-करने वाले धर्मोपदेश राजराजेश्वर बननेका इच्छुक होता हुआ मुख्य राजलक्ष्मी के विधान द्वारा (हितस्य) भक्तोंकी अथवा गगद्वेषसे रहित बननेकी इच्छामे रहित हो जिनेन्द्र होकर केवलज्ञानलक्ष्मी होने के कारण (अहितस्य) अभक्तोंकी भी तृष्णाकोद्वारा जगन्के राजाओंमें क्रीडा करेगा और बादमे नृपराज भोगाकांक्षाको [तालाब पक्षमे प्यासको नष्ट करेगा और वह तथा सिद्धिलक्ष्मी मुक्तिश्रीके साथ क्रीडा करेगा। ॥१॥ विद्वानों अथवा देवों के हितकर पदार्थों में (पति) मुख्य होगा
दृष्टेन कुम्भयुगलेन कुलोपकारे ! [तालाब भी पुष्पों के हितैषियोमें-उन्हें जलसिंचन श्रादि हैमेन पल्लवमुग्वेन कुलोपकारे !
के द्वारा हरा भरा रखने वालोंमे मुख्य होता है। प्रारब्धमञ्जनविधिः सुमनोरमाभिः"
(अथवा वह पुत्र जगत्का स्वामी होकर हित और सेव्यो भविष्यति गुरुः सुमनोरमाभिः ।।१२|| अहितकी--भक्तों और अभक्तोंकी तृष्णाको दूर करेगा (हि) 'कुलका उपकार करनेवाली और कुत्सित वृत्तियोंका क्योकि (तस्य) उसका (सुमनः) हृदय अन्यन्त श्रेष्ठ होगा लोप करनेव ली हे मरुदेवि ! पल्लवों-किसलयोंसे युक्त राग-द्वेषमे रहित होगा।) ॥ १३ ॥ मुखवाले दो सुवर्ण घटोंके देखनेसे यह जाहिर होता है
दृष्टेन तोयनिधिना प्रमदाकुलेन'' कि उस पुत्रकी प्रारंभिक स्नानविधि-जन्माभिषेक सम्बन्धी
रत्नाकरावधिमिमां प्रमदाकुलेन । विधि-देवताओं के द्वारा सम्पन्न होगी, वह विद्वानों अथवा
भूमि विमुच्य तपमेष्यति साधुनाथो देवोंको आनन्द देनेवाली देवियों के द्वारा मेवनीय होगा
यां शुभ्रकां न मुदमेष्यति माधुनाथो ॥१४|| और [जगत्त्रयका] गुरु होगा' । ॥ १२ ॥
'हे देवि ! समुद्र देग्बनेका फल यह है कि वह (समुद्र दृष्टेन देवि ! सरमा कमलाकरंग'
के समान गाम्भीर्य गुणसे) सापुरुषोका नाथ होगा । तथा धर्मापदेशविधिना कमलाकरेण ।
हर्ष अथवा प्रकृष्ट मदमे युक्त स्त्रीसमूहके साथ जिस उज्ज्वल १ सुके-शोभन जले बलते संचरति-इति मुकेवलम् बाहुलका- ममदान्त पृथिवीको छोडकर तपके अर्थ (वनको) जावेगा
सप्तम्या अलुक । सुध जलसंचारित्यथ: 'मनयुगलेन' इत्य- वह पथिवी (श्रथो) उनके स्वामित्वके बाद फिर हर्षको प्राप्त स्य विशेषणम् ।
न हो सकेगी।' ॥१४॥ २ केवलेन-मुख्येन मामान्ये नमकात्वम् । केवलेन-कंवलज्ञानेन इति च।
१० हितस्य अहितस्य वा पदच्छेदः । मगंवर पक्षे दिनस्य ३ कुलस्य-उपकारो यस्यास्तत्मम्बुद्वी।
भगेवरे धृतम्येत्यर्थः । 'दधाने 'ि इत्यनेनः निष्ठायारत: ४ कुत्मित जनलोपकारिणि !
धा धाता: स्थाने दृयादेशः। ५ सुमनसो रमयन्तीति सुमनोरमास्ताभिः। सुमनसा देवा ११ सुमनोभ्योहितस्य । अथवा 'सुमन:+द+तस्य' इति पदविद्वामश्च ।
त्रयम । दि यतः, तस्य पुत्रस्य सुमनः सुष्टु हृदयं ६ सुमनमा रमा स्ताभि:-देवागनाभिः ।
भविष्यतीतिशेषः । ७ कमलाना पद्मानाम्-अाकरस्तन मर मेत्यस्य विशेषणम् । १२ प्रमदेन-हर्षेण-प्रकृष्टमदेन बा अाकुलम्नेन । ८ कमलाया: करस्तेन धर्मोपदेशविधिनेत्यस्य विशेषणम् । १३ स्त्रीकुलेन मह ।। ६ सुषु मनो यस्यास्तत्सम्बुद्धौ देवीत्यस्य विशेषणम्। १४ सा+अधुना+अथो, इति पदच्छेदः ।
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण१-२]
मरुदेवी-स्वप्नावली
दृष्टेन सिहविधृतेन सदासनेन'
ते सत्पदं२ सुरनृणामरुणाधराणां 3 धाम्नान्धकारविवहस्य सदासनेन ।
स्वामी विशालकरुण ! करुणाधराणाम् ॥१॥ साम्राज्य मस्तवृजनो वसुधाऽवनेन'
है विशाल दयासे युक्त देवि ! अत्यन्त शोभायमान कान्ते ! करिष्यति जिनोऽवसुधावनेन ॥२शा नागेन्द्र भवनके देखनेसे प्रकट होता है कि तुम्हारा वह पुत्र 'हे कान्ते ! अपने तेज-कान्तिके द्वारा सदा अन्धकारके देवोचित सातिशय विनयके साथ नागेन्द्रोंके द्वारा स्तुत समूहको नष्ट करनेवाले सुन्दर सिंहासनके देखनेसे जाहिर होगा-नागेन्द्र नम्रतापूर्वक उसकी स्तुति करेंगे। वह उत्तम होता है कि वह पुत्र पहले निष्पाप होकर पृथिवीरक्षाके उत्तम वस्तुओंका स्थान होगा तथा लाल लाल ओठोंसे द्वारा साम्राज्यको-उत्तम राज्यको करेगा और बादमें निष्कलङ्क युक्त और दयाको धारण करने वाले सुर एवं मनुष्योंका जिनेन्द्र होकर प्रज्ञानान्धकार को नष्ट करनेवाले ज्ञानरूप स्वामी होगा' ॥१७॥ तेजसे पृथिवीरक्षाके विना ही अथवा पृथिवी और बनके दृष्टेन रत्ननिचयेन सुखायमानो'५ विना ही-मुक्ति साम्राज्यको करेगा।' ॥१५॥
रत्नत्रयेण कलकण्ठि ! सु-खायमानः। दृष्टेन देवसदनेन विहाय५ सारं
कृत्वा विरंस्यनि मनश्च्युत-चाप-रागं. स्वर्ग ममेन्यति नयेन विहायसाऽरम ।
मोक्षं क्षमाधरणि ! यास्यति चाऽपरागम११८॥ पातु क्षिति क्षितिपतिः कर-वाल भातः
हे मधुर स्वरसे युक्त तथा क्षमाकी आधारभूत देवि ! चश्चच्चकोरनयने ! करवालभातः ॥१६॥ रत्नगशिके देखने से प्रकट है कि वह पुत्र सम्यग्दर्शन 'चकोर जैसे नयनांसे सुशोभित हे मरदेवि ! देवविमान सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्ररूप रनायसे सुखको प्राप्त के देखनेसे प्रकट होता है कि वह पुत्र नीतिपूर्वक पृथिवी होगा तथा अपने मनको धनुषकी प्रीतिसे रहित करकेका पालन करनेके लिये श्रेष्ठ स्वर्गको छोड़कर शीघ्र ही दयालु बनाकर- (निप्परिग्रह होनेके कारण) आकाशके समान भाकाश मार्गसे भावेगा । वह पृथ्वीका अधिपति होगा आचरण करता हुआ विरक्त होगा-मुनिव्रत धारण करेगा, तथा सुन्दर हस्त तथा बालोये शोभित होगा और पृथिवीकी अन्तमें रागसे (रागद्वेषसे) रहित होकर मोक्षको प्राप्त होगा। रक्षा करवालकी-तलवारकी दीप्तिमे करेगा' ॥१६॥
दृष्टेन धीमति ! विधूमधनंजयेन' दृष्टेन नागनिलयेन सुरोचितेन'.
दत्त्वा स्वयं स्वतनुजाय धनंजयेन। नागस्तुतोऽतिविनयेन सुरोचितेन"
धर्माधिपः सकलसोमसमाननाय २२ १ मच्चतत्यामवं च तेन ।
१२ पद व्यवांस तत्राग स्थान नमाडिवस्तुषु' इत्यमरः। २ सदा+असनेन-दनि पदच्छेदः।
१३ अरुणो रक्नोऽधरी येषां तेषाम् । ३ वसुधाया अपनं रक्षणं तेन ।
१४ धरतीनिधरा: करुणायाधरास्तेषा कृणधारकाणामित्यर्थः। ४ न वसुधाया अपनं अवसुधावनं तेन अथवा वसुधा च ननं १५ सुखायतइ।
शिवा मानना १५ सुखायतेइ ति सुग्वायमानः सुग्वयुक्तः। च-अनया: ममाहार: वसुधावन-नद न भवति-तन। १६ सुष्टु धूलिमेघादिदितत्त्वेन शोभनं खमिव गगनामवा५ त्यक्त्या ६ श्रेष्ठ ।
चग्नीत सुग्वायत इति सुग्वायमानः । • विहायमा+अरम् इति पदच्छेदः, विहायमा-गगनेन अरम् १७ श्च्युतस्त्यवतः चापाद्धनुषागगो यस्य सः । शीघ्रम्।
१८ च + अपरागम् इति पदच्छेदः, अपगतो रागो यस्मिन् ८ करो च वालाश्च ते भातः शोभितः ।
___म तं, मोक्ष मिल्यस्य विशेषणम् । ६ करवालस्यमा करवालभाः तस्याः पञ्चम्यास्तमिल । १६ धनंजयेन-अग्निना। १० सु-अत्यन्तं रोचितः शोभितस्तेन ।
२० धन-वित्तं । २. जयेन-विजयेन् सह । ११ सुराणा देवानामुचिती योग्यस्तेन ।
२२ सयल-सोमसमं-पूर्णचन्द्रसदृशम् श्राननं यस्य स तस्मै
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२
अनेकान्त
[वर्ष ५
ध्यानेन धत्यति रजांसि समाननाय' ॥१॥ इस प्रकार, नेत्रोंको आनन्द देनेवाली और बिम्बफल 'हे बुद्धिमति देवि ! निधूम धनंजय-अग्निके-देखने के समान श्रोटोंसे युक्त वह चतुरनाभिराजकीपत्नी-मरुदेवी, से प्रकट है कि वह पूर्णचन्द्र तुल्य मुखवाले सुबोध क्त दुर्जन मनुष्योंके विषय में अलस और सुखकी लालसासे अपने सुयोग्य पुत्रको विजयके साथ धन देकर-निष्परिग्रह युक्त बुद्धिमान् पतिके द्वारा कहे हुए स्वमॉक फलको जान होकर-धर्मका अधिपति बनेगा और ध्यानके द्वाग कर विशुद्ध हरु ज्ञानावणादिरूप पापोंको दुष्कर्मोको जलावेगा।' ॥१६॥
यः पूजितो जगति राजसभाजनेन' इत्थं फलं निगदितं सुखलालसेन
श्रीदेवनन्दिमुनिदेव सभाजनेन । पत्या प्रबुध्य सुधिया सुखलालसेन ।
स्वप्नावली प्रपठतो मम तापहार' शुद्ध प्रमोदमगमन्नयननाभिरामा
माक्षं करोतु स जिनो ममतापहारम' ॥२१॥ विम्बाधरा सकलभूपतिनाभिरामा" ॥२०॥
'जो जगतमें राजसभागत जनोंके द्वारा तथा श्रीदेवनन्दि १ मननमेव माननं बोधः तेन सहवर्तमानस्तस्मै ।
मुनिके सभाजन-सस्कारके द्वारा अथवा देवसभाके लोकों २ सातिशया: खला: सुखलास्तषु अलसस्तेन दुर्जन
द्वारा पूजित हैं वे जिनेन्द्रदेव (इस) स्वप्नावलीको पढ़ने ___ समर्कशून्येनेत्यर्थः।
वाले मुम देवनन्दिके उस मोक्षकी सिद्धि करें जो कि तापको ३ सुखे शर्मणि लालसा वाञ्छा यस्य स तेन् ।
हरनेवाला और ममताभावको दूर करने वाला है।' ॥२१॥ ४ नेत्रप्रिया-मनोहरेत्यर्थः।
६ गमसभा गतपुरुषः। ५ कलाभिः सह वर्तमान: सकल: सचासौ भूपतिश्चेति . सभाजनं सत्करणम् । सकलभूपतिः, सकलभूरतिश्चासौनाभिश्चति सकलभूपति- ८ मम + तापहारम् इनि पदच्छेदः । नाभिस्तस्यरामा वनिता मरुदेवीत्यर्थः ।
६ ममताम् अाहरनीति ममतापदारस्तं ममत्वनिवारकम् ।
प्रकाश-स्तम्भ
श्रीमान बा० भैयालालजी सराफ बी० ए०, एल-एल० बी एडवोकेट सागरने 'अनेकान्त' को 'प्रकाश स्तम्भ' बतलाते हुए अपने जो हृदयोद्गगार प्रकट किये हैं वे इस प्रकार हैं:
"अनेकान्तका स्थान चलती फिरती इच्छाओका पूरक भले न हो, पर जैन जातिके अमरत्व का इस युगमें वह 'प्रकाशस्तम्भ' है । ईश्वर जैन जातिको अपने उद्धारके लिये उस ओर मुड़नेकी शक्ति दे, कि विचार गहनताको भेदकर वह उसे अपने जीवनका अंश बना मके और इस देशकी वसने वाली अजैन किन्तु बहुत शो में समान म्स्कृति रसने वाली बहुसंख्यक जातिको मुक्त हस्त से वितीर्ण कर सके, जा आजके राष्ट्रनिर्माणमें भी अपना खास स्थान रख सके। जैन जातिको ही नहीं पर उसके साहित्य तथा ज्ञानके द्वारा वृहत हिन्द जातिके उत्थान तथा उत्कर्षको इस छोटेसे पत्र के हर पृष्ठ में वही जागृत तपस्या लक्षित हो रही है जिसके बगैर कोई राष्ट्र शास्वतिक कीर्ति पथका पथिक बन नहीं सकता। हो नहीं सकता कि इस युगमें जैनसमाज इस जीवन-ज्योतिको स्थायित्व प्राप्त न करावे। जनसमाज परिग्रह-संन्यासके महत्वको बहुत कुछ समझने लगा है इस ओरसे विचारोंमें शुभ-दिक्-परिवर्तन मालूम हो जाता है। साहू शांतिप्रसाद तथा दानवीर सेठ हीरालाल आदि जैसे धनिक जिस जातिके ज्ञानध्वजको अपने हाथमें थामलें उसके उद्धारकी चिन्ता कैसी ?"
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैं और वीरसेवामन्दिर
बहुत मुद्दतसे मेरे दिल में यह भावना बनी थी कि ३. ला. राजेन्द्र कुमार जी लाहौर । मैनसमाजमें कोई ऐसी योजना हो, जिसके द्वारा लुमप्राय: ४. बा० छोटेलाल जी, कलकत्ता । जैनसंस्कृतिका पुनरोद्घाटन हो सके। विचारपरम्पराक ५ ला. अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय डालमियानगर । मूल स्रोतोको खोजकर इसके निकाम और विकासका पता ६. ला. जयभगवान जैन वकील, पानीपत । लगाया जा सके तर्क और परिभाषाके बने हुए दार्शनिक ७.६० जुगल किशोर मुख्तार सरसावा । कंकालको तोड़कर इसकी जीती जागता मूर्तिका दर्शन ८. पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, बनारस किया जा मके-इसे साम्प्रदायिक व्यामोहके गवैसे निकाल ६. डा० ए० एन० उपाध्याय, कोल्हापुर । कर एक बहती हुई विश्वकल्याण) गंगा बनाया जा सक। १०. बा० लालचन्द एडवोकेट, रोहतक । परन्तु, कुछ घरबारकी चिन्ताएँ कुछ शरीरको व्यथाएँ, कुछ ११ बा. कौशल प्रसाद जैन, सहारनपुर । तबीयतको ढील, कुछ प्रोत्साहनको कमी, ऐसी बाड़े अाती नई योजना अनुमार इस संस्था द्वारा निम्न प्रकारका रही, कि यह भावना अानतक भावना ही बनी रही। माहित्य सम्पादित हुश्रा करेगा। अयक पर्युषण पर्वमे देहली श्राकर, बा० जुगलकिशोर
१-संग्रहात्मक रचनाएँ-जैसे जैनग्रन्थ सूची, जैन जी मुग्वताग्ने मुझे इस मामलेम विशेष प्रोत्साहन दिया,
प्रशस्तिसंग्रह. जैनशिलालेग्यसंग्रह, जैनमन्त्रसंग्रह, जैनऔर इम योजनाका केन्द्र 'वीर-सेवा-मन्दिर' को बनाने के
पट्टावली-संग्रह, जैनकलासंग्रह, पुगतन जैनवाक्य-सूची, लिये एक सुझाव पेश किया-उधर इस फरवरी के महीनेमे जैगलक्षणावली, जैनपारिभाषिक शब्दकोष, जैनमंत्रकोप, साह शान्तिप्रसादजीने इस संस्थाका संरक्षक बनना स्वीकार ऐतिहासिक जैन व्याक्तकोष इत्यादि। किया, और योजना अनुमार इमकी बढ़ती हुई श्रावश्य- २-मौलिक रचनाएँ-जैसे जैनसंस्कृतिका इतिहास, कताग्रीमे सहायक होने के लिये बड़ी उदारताका परिचय जैनदर्शनका इतिहास, जैनसाहित्यका इतिहास, जैनकलाका दिया-इन सब ही बातोंको दृष्टिमे रखकर मेने अपनी इतिहास, जैन तीर्थकगे, श्राचार्यों और अन्य महापुरुषाका सेवाएँ वीरसेबामन्दिरको अर्पण कर दी।
इतिहास, ज्ञेय ज्ञान-मीमॉमा, बुद्धि और श्रुति, मत्यासत्यचीरमेवा मन्दिर, गो शुरुसे ही देश, धर्म और जाति
वाद, अपेक्षाघाद काल और विकासवाद, मृत्युविज्ञान, के हित के लिए बनाया गया था, और शुरूसे ही वह इन स्वप्नविज्ञान, मन्त्रविज्ञान, अदिसा और सदाचार, जीवनहितके कामोके लिए योजनाएँ करता रहा है, लेकिन कानून मीमामा, अात्मसाधना आदि नये दार्शनिक-प्रन्थ । की दृष्टिसे वह याज तक मुख्तार माहबकी ही निजी चीन ३-अनुवाद सहित पुरानी रचनाएँ-जैसे वास्तुकला, समझा जाता रहा है। इस दोपको मुख्तार साइबने २४ मनिकला, चित्रकला, संगीतकला, श्रादि कला ग्रन्थअप्रैलको अपनी वसीयत रजिष्ट्री कराकर बहुत अंशोम दूर गणित ज्योतिष, आयुर्वेदिक, मन्त्र-तन्त्र, पशु-पक्षि आदि कर दिया है । इसके अलावा इसके संचालन में भी बहुत वैज्ञानिक ग्रन्थ-नीति, कथा, छन्द, व्याकरण और कोष बडा परिवर्तन आ गया है। अब तक इमके संचालनका श्रादि माहित्यिक ग्रन्थ । समस्त भार मुख्तार माहबके ही ऊपर था, मगर अब यह इस कार्यको प्रामाणिक ढंगसे पूरा करने के लिए जहाँ सब काम एक संचालक कमेटी द्वारा हुश्रा करेगा, जिसे आजकल सेवामन्दिर लायरीको विविध प्रकारके ऐतिइसकी रीति-नीति में सब प्रकार हेरफेर करनेका पूग पूरा । हासिक, धार्मिक, दार्शनिक और कोष-ग्रन्थोसे सम्पन्न करने अधिकार होगा। अब तक इम कमेटीके लिए निम्न का यत्न किया जा रहा है। वहाँ प्रौढ अनुभवी विद्वानोको महानुभावोंके नाम प्रस्तावित हुए हैं :
भी इस संस्थामे काम करनेके लिए निमन्त्रण दिया जा १. साहू शान्तिप्रशादजी, डालमियाँनगर ।
रहा है।
-जयभगवान जैन २. साहू श्रेयॉसप्रशादजी, लाहौर
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब्र० शीतलप्रसादजीका वियोग !
( बा० जयभगवान वकील )
श्री० प्र० शीतलप्रसादजीके ता० १० फर्वरी सन् १९४२ को होनेवाले स्थायी वियोगसे जो भारी क्षति जैनसमाजको पहुंची है उसकी पूर्ति निकट भविष्यमें होना यदि असम्भव नहीं, तो मुशकिल जरूर है ।
आप जैनधर्मके एक अनन्यभक्त और जैनसमाजके एक सच्चे सेवक थे, स्वभावसे बड़े ही उदार और सुधारकवृत्ति वाले थे। आप जैनियोको अनेक टुकड़ियोमे बॉटने बाले दिगम्बर श्वेताम्बर, अग्रवाल खण्डेलवाल, दस्सा बीसा आदि सब ही भेद-भावोंको सम जसत्ताके लिये अत्यन्त हानिकारक समझते थे। इन भेदभावों के कारण अथवा सामाजिक कुरीतियों और धार्मिक कुरूढियों के कारण जैनियोंकी दिन-पर-दिन घटती हुई जनसंख्याको देखकर आप बहुत ही दुःखित होते थे। संकीर्णताके इन पाशोंसे, रूढ़ियोंके इन अन्धेरे गड्ढों से निकालनेके लिये श्राप आपस में हेलमेल, विवाहसम्बन्ध, धार्मिक एकता बढ़ानेकी सदा नई नई योजनाएँ करते रहते थे । आप जैन जातिको एक फलती फूलती जीविन जाति बनानेके लिये सब ही रचनात्मक कार्यों में, प्रगतिशील आन्दोलनोंमें बढ़ बंद कर भाग लेते रहते थे। इन उद्देश्योंकी पूर्तिके लिये थापने कई सभा-सोसाईटियोंके बनाने में सहयोग दिया था। जैन
जैन सब ही लोगों में धर्मप्रचार करनेके लिये श्रात्मधर्मसम्मेलन बनाया था, सामाजिक संघटन के लिये जैनमहा. मण्डल चलाया था, रचनात्मक काम करनेके लिये परिषद को जन्म दिया था और समाज में क्रान्तिकारी सुधार लाने के लिये 'सनातन जैनसमाज' को कायम किया था ।
जहाँ अन्य विद्वान अंग्रेजी शिक्षित युवकोंको धर्मभ्रष्ट जानकर उनकी अवहेलना करते थे, वहाँ आप उन्हें खूब अपनाते, उनमें धार्मिक प्रेम, और धार्मिक जिज्ञासा बढ़ाने के लिये जगह जगह बोर्डिंग हाऊस, पुस्तकालय खुलवाते थे उन्हें धार्मिक शिक्षा दिये जानेका प्रबन्ध करते थे । उनका दृष्टिकोण समझ अपना दृष्टिकोण समझाते, उन्हें
धर्मका सर्वतोभद्र व्याकरूप दिखा सत् मार्गपर लगाते थे । श्राज जैनसमाजके अधिकांश अंग्रेजी लिखे पदोंमे जो कुछ धर्मनिष्ठा और धर्मपरायणता दिखाई देती है, उसका बहुत कुछ श्रेय आपको ही है।
श्राप जहाँ हृदयसे बहुत उदार थे, वहाँ श्राप विचारमें भी बहुत उदार थे, श्राप साम्प्रदायिक भेदभावको छोड़कर हिन्दू, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई सब ही प्रकारके नेता और विद्वानोंसे मिलते, उनके पास जाकर ठहरते, उनसे विचारगोष्टी करते और उनके तथा अपने विचारोंमें समन्वय लानेकी कोशिश करते थे ।
आप बड़े ही कर्मठ थे, दिन-रात के २४ घण्टोंमें आप मुशकिल से छह घण्टे विश्राम करते थे। शेष सारा समय आरमसाधना और धर्मसेवामें लगाते थे । त्रिकाल सामायिक, जिनबिम्बदर्शन, शास्त्र-स्वाध्याय, ग्रन्थ-अनुवाद, नवीन साहित्य-रचना, उपदेश शिक्षण, शास्त्रसभा, पत्रपत्रिका वाचन, चिट्ठी-पत्री, और जैनपत्रोंके लिये लेख लेखन-सब ही काम आपका दैनिक प्रोग्राम था। इसके लावा पर्व के दिनोंमें उपवास भी रखते थे ।
सालके आठ महीने श्राप भारत भ्रमण में लगाते, और वर्षाके चार महीने किसी नगरमें ठहरकर बिताते थे । आप जहाँ कहीं जाते वह ग्राम सभाएँ कराकर सब ही को जैनधर्मका स्वरूप और इतिहास समझाते, गृहस्थों के कर्त्तव्य बतलाते, लोगोंको स्वाध्याय, जिनविम्बदर्शन, अष्टमूल गुण, पञ्च धरणुवतके नियम दिलाते, और चलते समय वहाँके सारे हालात लिखकर जैनपत्रोंको प्रकाशनार्थ भेज देते ।
चौमासमें आप जिस नगरमें ठहरते, वहाँ सार्वजनिक सभा, शास्त्रसभा, धर्मउपदेश, बृहत् पूजाविधान, दीक्षासंस्कार विधान, प्रीतिभोज आदि कार्योंद्वारा इतनी धार्मिक जागृति पैदा करते कि बहाँकी कायापलट ही कर देते । वहाँके स्त्री-पुरुषोंको अनेकविध प्रोत्साहन देकर खूब ही
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
बन्दी
दान कराते, उस दानसे जहां श्राप बाहिरकी सब ही बढ़ी न तो कायरके समान धर्मका ही साथ छोड़ा, न निरुद्यमीके बड़ी संस्थानोको सहायता पहुचवाते, वहां आप उस दानसे समान वर्तन्य मार्गस ही मुंह मोड़ा। आपने जिस पथपर स्थानीय संस्थानोंका भी खूब उद्धार कराते, और यदि कदम रक्खा, उसपर अन्त तक साबित कदम रहे। श्रावश्यकता होती तो वहां स्कूल, विद्यालय, कन्यापाठशाला वाचनालय, चैत्यालय, श्रादि अनेक संस्था कायम
श्राप निरे सुधारक ही न थे, पाप बढे साहित्य सेवी
भी थे। अापने सर्वसाधारणके हितके लिए हज़ारो लेख कराते थे। अपनी धुनके श्राप बड़े ही धनी थे । कठिनाइयोसे
लिखनेके अलावा, अनेक आध्यात्मिक निबन्ध और भजन डरना तो श्राप सीखे ही न थे। श्राप जिस प्रतिज्ञाको लेते,
भी लिखे हैं । अनेक जैन ग्रन्थोंका टिप्पण सहित सरल उसे पूरी तरह निभाते और जिस योजनाको शुरू करते,
हिन्दी अनुवाद भी किया है। अनेक जैन स्मारक, शब्द
कोप और जीवनी सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखे हैं। आपका उसे श्राखरी मंजिल तक पहुंचाते । श्रापको कभी भी अपनी निन्दा और बढ़ाईवा खयाल न हुश्रा, पापको यदि
जहां अध्ययन विशाल था, वहां आपका लेखन भी कोई अनुराग था तो केवल जैन धर्मसे, जैन सम.जसे । इस
विशाल था। अनुरागमे श्राप इतने मस्त थे, इतने निर्भीक थे, कि इसके श्रापकी विचारसरणी और योजनाओंसे कुछ भी मत. लिए श्राप बडीमे बही आहुति दे देनेको, शक्तिमे भी भेद रखते हुए यह कहना ही होगा, कि आपका जीवन अधिक काम करनेको तैयार हो जाते थे। इस अनुरागके एक प्रादर्श जीवन था। ऐसे उदारवृत्ति, धर्मसेवी, कर्मटपथपर चलते हुए आपको कई बार ऐसे संकट पाये कि वीरके लिए जैन समाज जितनी भी कृतज्ञता दिखलाए, अपने पराए होगये, प्रशंसक मिन्दक बन गये, परन्तु आपने उतनी थोडी है।
" बन्दी
हो चला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी ! वेदनाओको समटे, मिसकते अरमान तेरे ! प्रणयकी पीड़ा लपेटे, किलकते ये प्राग तेरे !
व्यक्त करते हैं हृदयके घाव, गीले गाल बन्दी !!
हो चला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !! विवशताके पाशमें पड़, मूक तू कब तक रहेगा ! कूपका मण्डूक बनकर, त्रास यों कब तक महंगा!
पास ही तो है नलय्याँ, देख निर्मल ताल बन्दी !! ___ हो चला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !! नियतिके निश्चल नियमये ममयकी गति अतिप्रवल है, रजनिसे क्या और काला, दिवसमे क्या कुछ धवल है ?
होगये हैं वेत, पककर देख काले बाल बन्दी !!
होचला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !! प्रलयका-तूफानका सन्देश ले आलोक या ! पापका दृढ-दुगे, सुघुमित-साधनासे कॅप-कॅपाया !
मुक अन्तरभावनामें झाँकता है काल बन्दी !! होचला है जीर्ण, तेरी दासताका जाल बन्दी !!
पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित'
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
महत्त्वकी प्रश्नोत्तरी प्रश्न- संसारमें सार क्या है ?
प्रश्न-दरिद्रता क्या चीज है ? उत्तर-मनुष्य होकर तत्वज्ञानको प्राप्त करना और स्व-परके उत्तर-असंतोष का नाम दरिद्रता है, जहा संताप है वहां हितसाधनमें सदा उद्यमी रहना ।
दरिद्रताका नाम नहीं। प्रश्र- संसारको बढ़ानेवाली बेल कौनसी है ?
प्रश्न-नरक क्या है ? उत्तर-बाशा-तृष्णा।
उत्तर-गधीनताका नाम नरक है। प्रश्न- संसारमे पवित्र कौन है ?
प्रश्न-मित्र कौन है ? उत्तर-जिसका मन शुद्ध है।
उत्तर-जो पापोमे प्रवृत्त होने अथवा कुमार्गमें जानेसे प्रश्न- पंडित कौन है ?
रोकता है। उत्तर-जो हय-उपादेयके ज्ञानको लिये हुए विवेकी है। प्रश्न—मनुष्यका असली श्राभूषण क्या है ? प्रश्न- बड़े लुटेरे कौन है ?
उत्तर-पवित्र श्राचार-विचाररूप शील । उत्तर-इन्द्रिय-विषय, जो अात्माके ज्ञान-वैराग्यादि धनको प्रश्न-वाणीका भूषण क्या है ? लूट रहे हैं।
उत्तर-सत्यताके साथ प्रिय भाषण प्रश्न-बड़ा बेरी कौन है ?
प्रश्न-असली माण कौनसा है ? उत्तर-श्रालस्य-अनुयाग, जिसके कारण अात्मा विकमित उत्तर-मूर्खता, जिसमें आत्माक ज्ञान गुणका तिरोभाव नही हो पाता और न भले प्रकार मी मकता है।
होजाता है। प्रश्न-शूरवीर कौन है?
प्रश्न-किनमे सदा उपेक्षाभाव रखना चाहिये ? उत्तर-निमका चित स्त्रियोके लोचन-वाणी (कटाक्षों) से उत्तर-दुर्जनोम, पर स्त्रियाम और पराये धनमे । व्यथित नहीं होता।
प्रश्न-किसको अपनी प्यारी महचरी बनाना चाहिये ? प्रश्न-अन्धा कौन है ?
उत्तर-दया, चातुरी और मैत्रीको। उत्तर-जो न करने योग्य कार्य के करनेमे लीन है। प्रश्न-कण्ठगत प्राण होनेपर भी किसके सुपर्द अपनेको प्रश्न-बहरा कौन है ?
नही करना चाहिये? उत्तर-जो हितकी बातें नहीं सुनता।
उत्तर-मूखके,विषादयुक्तके, अभिमानीके और कृतघ्नके । प्रश्न-गंगा कौन है ?
प्रश्न-धन होनेहर शोचनीय क्या है ? उत्तर-जो समयपर प्रिय वचन बोलना नहीं जानता। उत्तर-कृपणता। प्रश्न-अन्धेसे भी अन्धा कौन है?
प्रश्न-धनकी अत्यन्त कमी (निर्धनता) होने पर प्रशंसनीय उत्तर-जो रागी है-किमी विषयमें श्रामक्त होकर विवेक
क्या है ? शून्य होगया है।
उत्तर-उदारता। प्रश्न-जागता कौन है ?
प्रश्न-चिन्तामणि के समान दुर्लभ क्या है ? उत्तर-जो विवेकी है-भले बुरेको पहचानता है ?
उत्तर-प्रियवाक्यसहित दान, गवरहित ज्ञान क्षमायुक्त प्रश्न-सोता कौन है ?
शूरता और दान सहित लक्ष्मी, ये चार कल्याणउत्तर-जो मूढताको अपनाये रखता है और श्रात्मामें विवेक
कारी चीजे अत्यन्त दुर्लभ है।* को जाग्रत नही होने देता। प्रश्न-पूज्य कौन ?
यह प्रश्नोत्तरी अमोघवर्षको 'प्रश्नोत्तर-रत्नमालिका' संस्कृत उत्तर-जो सच्चारित्रवान् है।
के आधारपर नये ढंगसे संकलित की गई है।-सम्पादक
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
मुख्तार साहबकी वसीयत और 'वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट' की योजना
५१ हजारकी सम्पत्तिका विनियोग
बहुत असेंसे मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोर जीकी इच्छा हो गई है और १२ फरवरी सन् १९१४ को मुख्तारकारी अपनी वायत लिखने और दृष्ट कर देने की हो रही थी, छोड़ देनेके वक्तसे मेरी चित्तवृत्ति एवं श्रात्मपरिणतिका परन्तु अनवकाशम लगातार घिरे रहने के कारण वे अभी झुकाव अधिक से अधिक लोकसेवा यानी पब्लिक सविम ब तक उसे नही कर पाये थे। हालमे देशकालकी विकट- कौमी खदमतकी तरफ होता चला गया है, जिसका स्थितिको देव। उन्होंने अन्य कामोको गेककर अग्ना आन्विरी नतीजा यह हुआ कि मैंने जीवन के उस ध्येय वसीयतनामा लिख दिया है और उसमे ट्रस्टकी योजना भी (मकसद)को कुछ अाला पैमानेपर पूग करनेके लिये कर दी है। यह वमीयतनामा फुलिस्केर साइजके १२ पत्रों अपनी बातखाससे खुदकी पैदा की हुई भारी रकम लगाकर पर हिन्दुस्तानी भाषा अर देवनागरी अक्षरोमे लिखा गया अपनी जन्मभूमि कस्बासरसावाम चौर-सेवा-मंदिर' नामका है। मुख्तारमाहबने इसे वैशाख शु. पंचमी ना०२० अप्रेल एक श्राश्रम निर्माण किया, जो अम्बाला-सहारनपुर-ओढ़ को स्वयं अपनी कलमसे लिखकर २४ अप्रैल १६४२ ई. पर स्थित है और जिसके उद्घाटनकी रस्म वैसाख सुदि ३ को सहारनपुरम रजिष्ट्री भी करा दिया है, यह बड़ी ही प्रसन्नता (अक्षयतृतीया) सम्बत् १६६३ मुताबिक ता. २४ अप्रैल का विषय है । वसीयतनामेका प्रारम्भिक अंश, जो मुख्तार सन् १६३६ को एक बड़े उत्सव के रूप मे अमल में आई थी, साहयकी श्रात्मपरिणति अथवा चित्तवृत्तिका अच्छा जिमम श्रीबीगभगवानकी रथयात्रा भी निकाली गई थी। प्रतिबिम्ब है और ऐतिहासिक ढंगमे लिखा गया है उद्घाटनकी रस्मके बादसे उक्त आश्रममे पब्लिक निम्नप्रकार है:
लायब्ररी, कन्याविद्यालय, धर्मार्थ औषधालय अनुसंधान __ श्रीसमन्तभद्राय नमः
( Research), ग्रन्थनिर्माण, ग्रन्थप्रकाशन और "मैं कि जुगलकिशोर 'मुख्तार' पुत्र चौधरी लाला 'अनेकान्त' पत्रका प्रकाशन व संपादन जैसे लोकसेवाके नत्थूमल व पौत्र चौधरी लाला धर्मदामका, जातिमे जेन- काम होते आ रहे हैं, लोकसेवाके कामोके लिए ही वह अग्रवाल सिंहलगोत्री, निवासी कस्वा मरसावा तहसील संकल्पित है, कई विद्वान पंडित उममें काम करते हैं, मैं नकुड़ नि० सहारनपुर का हूँ।
भी वही रहकर दिनगत सेवाकार्य किया करता है, वही इस ____ जो कि मैं सम्पत्तिवान (साहिबे जायदाद) हूँ और मेरे वक्त मेरी सारी नवजह एवं ध्यानका केन्द्र बना हुआ कोई सन्तान पुत्र गा पुत्रीके रूपमें नहीं हैं, धर्मपत्नी श्रीमती है, मेरी मारी आमदनी भी करीब-करीब उमीक कामोमें गजकलीदेवी भी जीवित नही है, उसकी मृत्यु सोलह खर्च होती है और इसलिए मैं उसको अपने तर्केका मार्च सन् १९१८ ई०को हो चुकी है, अपनी पचास वर्षकी (मृत्युके बाद छोड़ी जानेवाली सम्पत्तिका) सबसे बड़ा हकउन दो जानेपर इक्यावन वर्षके शुरु दिन ४ दिसम्बर दार व वारिस समझता हूँ और चाहता हूँ कि उसकी सन् १६२७ ई०को मेरे ब्रह्मचर्यव्रत ले लेनेकी वजहसे इन उन्नति व हितवृद्धिमे लोकसेवाकी मेरी दिली मुरादें (कामदोनोकी यानी पत्नी और सन्तान की प्रागेको कोई संभावना नायें) पूरी होवें। मेरे संभाव्य कानूनी बारिस में इस वक्त व आवश्यकता भो अवशिष्ट नहीं है; दत्तक पुत्र लेनेके मेरे बड़े भाई ला. हींगनलाल चौधरी, उनका पुत्र चि. खयालको मैं बहुत असेंसे छोड़ चुका हूँ। इसके सिवाय प्रदमनकुमार और छोटे भाई स्व. बाबू रामप्रसादके दो मँगासर सुदि एकादशी, सम्वत् १६३४ विक्रमका जन्म पुत्र चि. ऋषभचन्द व श्रीचन्द मय अपने दो लड़कों होने के कारण उम्र भी मेरी इस वक्त ६४ सालसे ऊपरकी चि. नेमचन्द व महेशचन्द के मौजद हैं और एक चचा
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वष ५
-
बाद माई ला० चमनलाल पिमर ला० शंकरलाल भी 'वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट'के सुपुर्द किया है और ट्रस्टियोमे समाज मौजद हैं। ये सब लाग मुझसे अलग रहते हैं, अलग के गण्यमान्य ११ मजनों के नाम दिये हैं। अगली तीन धाराश्री कारोबार (कार्यव्यवहार) करते हैं और मेरी इनकी कोई मे वीर-सवा-मन्दिर और ममन्तभद्राश्रमक रुपये तथा सामान शराकत, महकारिता अथवा माझेदारी नही है।
की स्पष्ट व्यवस्था की है और जहाँ कहीं रुपया जमा है उसकी यद्या ब्रहाचर्यव्रत और मंयमक प्रतापमे मेरो तन्दुरुस्ती सूचना भी की है। १०वी धाराम 'वार-सवा-मन्दिर ट्रस्ट' के अच्छी बनी हुई है और मैं बगबर ही सेवा कार्य करता उद्देश्यों तथा ध्येयोको स्पष्ट किया गया है, जिनको पूरा करने रहता हूँ फिर भी बुढापेका अमर हो चला है और जिन्दगी कराने के लिये ही ट्रस्टीजन ट्रस्ट के फण्ड मौजूदा व आइन्दा का कोई भगेमा नहीं है । मैं नहीं चाहता कि कोई शरम को वर्च किया करेंगे। ११वी धागमे 'ट्रष्ट फण्ड मौजदा' मेरी मर्जी व इच्छाके विरुद्ध मेर तर्केका वारिम बनकर और टम्ट फण्ड पाइन्दा' की पारभाषाको स्पष्ट किया गया नाजायज फायदा (अनुचित लाभ) उठाए या मेरी मृत्युके है, शेष धागोम ट्रस्टियोंके अधिकारी श्रादिका स्पष्ट बाद मेरे वारिसोम किसी प्रकारका कोई विवाद या झगड़ा निर्देश है और उममे ट्रस्टियोको चार ओर ट्रष्टी पैदा हावे और उमकी वनमे मेरी आत्माको कप पहुँचे। नियत करनेका अधिकार भी दिया गया है । अत: मैं दरअन्देशीके खयालसे, स्वस्थदशामे, बिना किमी इन धाराश्रोमेसे पाठकोकी जानकारीक लिए पाचवीं, के दबाव या नबरदस्सीके अपनी र तन्त्र इच्छा और ग्वुशी छटी धागके श्राद्यग्रंश, १०वी, ११वी और १२वी धाराएँ से अपनी स्थावर-जंगमादिरूपमे मार्ग सम्पत्ति के सम्बन्धम, पूरी नीचे दी जाती है। साथ ही २१वी धाराके अन्तका जिमका मैं इस वक्त मानिक, काविक्ष व मुनमरिफ (व्यया- वह मार्मिक अंश भी दिया जाता है जिसके द्वारा मुख्तार धिकारी) हूँ, या जो बादको किसी तरह मेरे कब्जे व साहबने अपनी वसीयतको मारी जैन जाति के साथ सम्बद्ध दखल मे आवे, तथा उन कनौके सम्बन्धमें जो मुझे पाने किया है:हैं व उन रकमौके सम्बन्धमे जो मुझे देनी है और ग्वामकर अपने संस्थापित 'वीर-सेवा-मन्दिर' के सम्बन्धम नीचे।
"(५)उक्त जायदाद सहगई व सकनाईके अतिरिक्त और
जिम कदर भी जायदाद सहराई व सकनाई, स्थावर-जंगम लिखी वमीयत (इच्छाभिव्यक्ति) करता हूँ. जिसकी पाबन्दी मेरे सम्पूर्ण वाारमों और उत्तराधिकारियों पर लानिमी
सम्पत्ति, कम्पनियोंके हिस्मे, निजको प्राग्य कर्ज, मामान होगी :-"
लायरी, ग्वाज की सामग्री, दस्तावेजे नई व पुरानी. अस्वाच इसके बाद वमीयतनामे में २१ धाराएँ हैं, जिनमेमे शुरू
घर-गृहस्थी और नकद रुपया श्रादिक रूपम मेरे पास की कुछ धाराश्रमें मुख्तार माहबने अपनी उस मब पैतृक ।
__मौजूद है, उसका पिताको सम्पत्ति या जायदाद जद्दीमे सम्पत्तिको जो उन्हें नजदीसे पहुंची थी, अपने भीमाके
कोई खाम ताल्लुक या वास्ता (सम्बन्ध) नहीं है। वह नाम लिम्ब दिया हैं और बड़े भाईको जो कुछ देना है
सब प्राय: भेरी खुदकी पैदा की हुई, खगदी हुई और उमका भी उल्लेख कर दिया है। पाँचवी धाराम शेष सब
प्राप्त की हुई है। उसमसे स्थावर सम्पत्ति (जायदाद गैर सम्पत्तिका उल्लेख तथा संकेत किया गया है, जिसकी
मनकला) कम्पनियोके हिस्से और प्राप्य डिगरीकी तफसील मालियतका तखमीना इक्यावन हनार ५१०००) रु० से ।
निम्नप्रकार है:-... ....." ऊपरका है और जिममें वीर-सेवा-मन्दिरकी मब इमारात, (६)कुल जायदाद जो ऊपरकी धारा नं. ५ में दर्ज व एक अहाता, एक बाग़, एक ग्खेत, एक दुकान, श्राधी उल्लेखित हैं, मय सम्पूर्ण सामान लायब्ररी, खोजको हबेनी, प्राय डिगरी, लायब्रेरी और नकद रुपये श्रादिके सामग्री, दस्तावेज्ञात नई व पुरानी, नोटम-बुक्स, हिसाबअतिरिक्त देहली क्लाथमिल एण्ड जनरल मिल्म कम्पनी किताबके रजिस्टर व अस्वाब घर-गृहस्थी, मय अलमारी लिमिटेड के . ४१३ हिस्से और साउथ बिहार सुगर मिल्म के अाहिनीके, जो स्वर्गीय भाई रामप्रसादकी हबेलीके ऊपर १०० हिस्से शामिल हैं । छठ। धागमें इस सब सन्यांत को के एक स्वाधिकृत मकानमे स्थित है, मय उक्त ईटोंके
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२ ]
व
चट्टों और तरनकद वगैरहके, और साथ ही मय उस जायदाद के जो बादको किसी तरह मेरी मिल्कियत कब्जे दखल मे श्रावे, मेरी मृत्यु पर 'वीर-सवामन्दिर ट्रष्ट' के सुपुर्द होगी, जिसके टूष्टियान निम्नलिखित होंगे और वे कुल जायदादपर मेरे समान काबिज व दखल होंगे :
मुस्तार सा०की वसीयत वीरसेवामन्दिर ट्रस्टकी योजना
" (१०) उक्त 'वीर-सेवामन्दिर दृष्ट के उद्देश्य न ध्येय निम्न प्रकार होंगे, जिन्हें पूरा करनेके लिए हर मुमकिन का शिश (संभव प्रयत्न करना |ष्टयोका कर्तव्य होगा और जिनको पूरा करने कराने के लिए ही दृष्टीजन ट्रष्टके फण्ड मौजूदा तथा आइन्दाको खर्च किया करेंगे :
(क) जैनसंस्कृति और उसके साहित्य तथा इन सम्बन्ध रखनेवाले विभिन्न मन्या शिलालेख, प्रशास्तव उल्लेखवाक्यां, सिक्कों, मूर्तियो, चित्रकला के नमूनो आदि माग्रीकालापत्रे व म्यूशियम आदिक रूपमे अच्छा संग्रह करना और दूसरे ग्रन्थो की भी ऐसी लायो प्रस्तुत करना जो खाजके काममे अच्छी मदद दे सके ।
(ख) उक्त सामग्री परसे अनुसंधान कार्य चलाना और उसके द्वारा लुमप्राय प्राचीन जैन साहित्य इतिहास व तत्त्वज्ञानका पता लगाना और जैनसंस्कृतिको उसके असली रूपमे खोज निकालना |
प्रधान-वधान
(ग) अनुसंधान व खोके आधारपर नये मौलिक साहित्यका निर्माण कराना और लोकनिकी से उसकी प्रकाशित करना जैसे जैनसंस्कृतिका इतिहास, जैनधनका इतिहास, जेनसाहित्यका इतिहास, भगवान् महावीरका इतिहास, नाचायका निद्दाम, जातिगोत्रों का इतिहास, ऐतिहासिक जैन व्यक्तिकोष, जैनलक्षणावली, जनपारिभाषिक शब्दकोष जैकी सूची, जैनमन्दिर मूर्ती सूची और किसी-किसी नई शैली से विवेचन या रहस्यादि तैयार कराकर प्रकाशित करना । (घ) उपयोगी प्राचीन जैन प्रथाका विभिन्न देशी विदेशी भाषाश्रमं नई शैली अनुवाद तथा सम्पादन बराकर प्रकाशन करना, प्रशस्तियां और शिलालेखी यादि के संग्रह भी पृथक् रूपसे सानुवाद प्रकाशित करना । जैन-संस्कृति के प्रमारके लिये योग्य व्यवस्था करना, वर्तमान प्रकाशित 'अनेकान्न' पत्रको चालू रखकर उसे
तत्त्वका
(ङ)
२६
और ऊँचा उठाना तथा लोकप्रिय बनाना। साथ ही, उपयोगी वैम्फलेट ट्रेक्ट प्रकाशित करना और प्रचारक घुमाना । व (च) जैन साहित्य, इतिहास और संस्कृतिकी सेवा तथा तत्सम्बन्धी अनुसंधान व नई पद्धतिसे ग्रन्धानर्माण के कामो दिलचस्पी वेदा करने और यथाश्यकता शिक्षण (ट्रेनिंग ) दिलानेके लिये योग्य विद्वानोको स्कालरशिप्स (वृत्तियां वजीफे देना |
(छ) योग्य विद्वानों को उनकी साहित्यिक सेवाओं के पुरस्कार या उद्दार देना ।"
लिये
“ ( ११ ) मेरी मृत्यु वर जो जायदाद माल व स्वाब और नकद कावष्टियानके सुपुर्द होगा या उनके अधिकार arar aौर जिसकी वे बाजाब्ता एक सूचा तैयार कराएँगे, यह और उससे जो ग्रामदनी होगी, वह सब टूट पड मौजूदा समझा जायगा और मेरी मृत्यु के बाद दृष्टके उद्देश्योंको पूरा करने और उसके कामोंको चलाने के लिए टूट शशसे या बिना कोशिश है जा जायदाद या नकद रुपया वगैरा किसीकी तरफसे या खुद ट्रप्टिोकी तरफसे उक्त ट्रष्टके सुपुर्द होगा अथवा उसको किसी तरह पर प्राम होगा, वह सब 'ट्रष्ट फण्ड आइन्दा' कहलाएगा। टूट फण्ड आइन्दा भी ट्रष्ट फण्ड मौजूदाका अंश (पार्ट) होगा उसके निययोके आधीन होगा और उसपर भी टूष्टियों को उसके प्रवन्ध, व्यवस्था तथा इसके लाने और काममे करने के सम्पूर्ण अधिकार 'एड मौजूदा के समान प्राप्त होंगे और वे उसके भी मैनेजिंग प्रोप्राइटर समझे जायेंगे और उसी देखियत तथा पदाधिकारसे उसे स्वीकार करेंगे।"
' (१२) ट्रष्टियोको अधिकार (इख्तियार) होगा कि वे दृष्ट के उद्देश्यों तथा करानेके लिये अनेक उक्त ध्येयांको पूरा विभाग या डिपार्टमेंट्स कायम करें, उपसंस्थाएँ खोले और उनकी प्रबन्धकारिणी समितियाँ (कमेटियों नियत करें, जो कयों द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार अपना अपना कार्य सम्पन्न करेंगी, और जिनमें ऐसे व्यक्ति भी शामिल किए जाएँगे जो ट्रष्टीन नहीं होगे ।
" (२१) यद्यपि मेरी भी थोड़ी और बड़ी है, फिर भी चूँ । क मेरी इस इच्छा (वसीयत) का सारा सम्बन्ध
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
जैनजाति की उन्नति, बेहतरी, भलाई और देश-धर्म तथा समाजकी सच्ची ठोस सेवा से है, जैसा कि टूट के उद्देश्यों व ध्येयों (धारा १०) से प्रकट है और इसके साथ मेरी जीवन-भर की सारी सद्भावनाएँ तथा शुभकामनाएँ लगी हुई हैं, इसलिए मेरी यह वसीयत मेरे वारिसों, उत्तराधिकारियों और दृष्टियोंके लिये ही नहीं बल्कि सारी जैनजातिके लिये है, और मुझे दृढ़ विश्वास है कि वह जरूर टूष्टके काम पूरा हाथ बटाकर अपने इस सतत् सेवककी इच्छा ( वसीयत) को जल्द पूरा करेगी और पब्लिककी नज़रों में पूँजीको थाड़ी नहीं रहने देगी ।"
श्रनेकान्त
अन्तमें मुख्तार साइबकी इस वसीयत और टूष्ट-योजना के सम्बन्धमें मैं अधिक कुछ भी न कह कर सिर्फ इतना ही निवेदन कर देना चाहता हूँ कि मुख्तार साहबने अपने सारे
[ वर्ष ४ जीवनकी तपस्या में सच्ची लगन और एकनिष्ठाके साथ निःस्वार्थ भाव से दिनरात अविभ्रान्त परिश्रम करके सेवाओं की जा भव्य इमारत खड़ी की है उस पर इस वसीयत श्रीर दूष्ट-योजनाके द्वारा सब कुछ अर्पण करके सुवर्ण कलश चढ़ा दिया है। अब समाजका कर्तव्य अवशिष्ट है और वह वही है जिसका संकेत वसीयतकी अन्तिम धाराके उक्त मार्मिक शब्दोमे संनिविष्ट है और जिसपर मुख्तार महोदय ने अपनी आशा ही नही किन्तु दृढ़ विश्वास तक व्यक्त किया है । कितना अच्छा हो यदि जैनसमाज श्रभीसे इस
बैभवका अति ऊँचा आसन ! निर्धनताका नंगा नर्तन !! साँबेके थोडे टुकड़ों परनर करता नरका भार वहन !! श्रम करता है दम तोड़ हाय ! पर, कब उसकी विपदा टलती ! देखो, रिक्शा गाड़ी
र अपना पूरा प्रयत्न करे, जिसके फलस्वरूप मुख्तार साहब अपने जीवनकालमें ही अपनी भावनाओं को खूब फलता-फूलता तथा इच्छाको पूरा होता देख कर परमसंतोष को प्राप्त होवें । - परमानन्द जैन शास्त्री
*-: रिक्शा गाड़ी
देखो, रिक्शा गाड़ी चलती ! धीमी-धीमी घण्टी बजती !! निर्धनताका वरदान लिये, हाथों में हल्की यान लिये; मानव लिपटा कुछ चिथड़ों मेंछाती में आकुल प्राण लिये, घोड़े सी दौड़ लगाता हैनंगे पैरों- पृथिवी जलती ! देखो, रिक्शा गाड़ी चलती !!
मानव है पर, पशु-सा जीवन ! दुर्भाग्य ! तुझे शत-शत वन्दन ! श्री बेकारी ! ओ उदर-ज्वाल !! मानवता मान तुझे अर्पण || लाचारी - कंगाली, कलंककी मस्तक पर स्याही मलती ! देखो रिक्शा गाड़ी चलती !!
भारी पूँजीपति है ऊपर | मज़दूर पसीनेमे है तर !! करुणा का कितना करुण दृश्य ! नरको नर खींच रहा बेजर !! जीवनमें घोर विषमताकी - यह बात नहीं किसको खलती ! देखो, रिक्शा गाड़ी चलती !!
++
हैं मार्ग विकट अति पथरीले, कर देते हैं पौरुष ढीले ! बर्षा होती नभ से छम छमहो जाते जी वसन गीले !! स- बस करती नस-नस निशिभर उरसें रहती पीड़ा पलती ! देखो रिक्शा गाड़ी चलती !!
चलती !!
[ र० - श्री हरिप्रसाद शर्मा 'अविकसित' ]
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त सच्चे अर्थों में 'दानवीर'।
जैनसमाजके शिरोगग्न और भारतके लब्धप्रतिष्ट व्यापारी अग्रवाल-कुल-भूपण श्रीमान माह शान्तिप्रसादजी जैन डालमियानगरका मचित्र परिचय देते हुए गत अक्तूबर मामकी अनेकान्त-किरण नं. ६ में मैंने कुछ युनियाँके साथ आपको 'सच्चे अर्थमि दानवीर' लिखा था। मेरे इस लिम्बनेको अभी तीन महीने भी पूरे होने को नहीं श्राए थे कि माह जी इन्दीरमे होनेवाले दिगम्बर जैन मालवाप्रान्तिक सभाके अधिवेशनके लिये सभापति चुने गये और अापने वह जाकर २७ जनवरीको मान लाम्बके दानकी नई घोषणा की, जिसके उपलक्षम, अापके बहुत कुछ विरोध करनेपर भी, सर मेठ हुकमचन्दजी श्रादि अनेक दानवीके हायोंमे आपको 'दानवीर' की समुचिन पदवी प्रदान की गई और आपका बहु सम्मान किया गया। दानवी इस भारी ग्क्रम श्राप चाहने नो अपने नामये एक दी संस्था खोल । 'नम्रताकी मृति' माह शान्तिप्रमादजी जैन । देते और उसे अपने ही स्थानपर रग्बकर स्थानीय महत्व ।
दालमियानगर यस बार उन अपमहान्यानपर रखकर पाना माप
न प्रदान कर देने परन्तु आपको अपने नाम और स्थान जग भी मोह नहीं है और इसलिय श्रापको ये दोनों बतं तर
तक समाजके दसरे श्रीम नांया ध्यान इस उपयोगी कार्यको इष्ट नहीं हुई, आपने इस रकममे होनेवाली २५ हजार ओर नहीं गया था और उससे समाजके कार्योम बाधा पट रुपये वार्षिक मृदकी श्रामदनीको उन कार्याम खर्च करनेका रही थी। अब समाज-संवकोको इससे अछा प्रोसाहन संकल्प किया है जो समने जैन समाजको टोस वा लिये मिलेगा धीर कितने ही मजन गंवाके क्षेत्रमे श्रवनीर्ण होकर बहुत ही श्रावश्यक हैं, और वे हैं-- जैनमातियवाशन, जी-जान से उसके करनेम प्रवृत्त हाग'
जी-जान उपके करने में प्रवृत्त होंगे और साथ ही दर १२) विविध विषयों में अधिकारी योग्य विद्वानोको तथ्यार
श्रीमानको भी इस सत्कार्य में योग देनेकी प्रेरणा मिलेगी। करनेके लिये तात्रवृत्ति-प्रदान, तथा (३) समाजसेवाके लिये
यसब बाते श्रापके मञ्च अर्थोम 'दानवीर' होनेकी और भी अपनेको अर्पण कर देनेवाले विद्वानाको निगकुल करनेमे
समर्थक हैं। इस दानम्मे वीरमेवामन्दिरको भी योग्य विद्वानी महयोग-दान । इन कामोमे क्रमशः ३०००), १२०००,
की सम्प्राप्ति और साहित्यके प्रकाशनादिका कितना ही ६०००) वापिक खर्च किये जायंगे. और इस तरह सभी
श्राश्वासन मिला है, जिसके लिये मैं साहू साहबका बहुत ही स्थानों तथा समाजोंके व्यकि. श्रापके इस दान म.चित
श्राभारी है और आपकी इस दान-परिणतिका हृदयमै अभि. लाभ उठा सकेंगे । नृतीय कार्यमें ६००० म. वार्षिकके
नन्दन करता हा श्रापको हार्दिक धन्यवाद भंट करता है। विनियोगकी जो योजना की गई है वह नि.सन्दह जैनसमाज
जुगलकिशोर मुख्तार के लिये बिल्कुल नई और बडी ही प्रशंसनीय है । अभी
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
* म्व० न्यागमूर्ति बाबा भागीरथजी वर्णी *
AWAL
...
..
.. warn
MARAT
.
Ant
MAA.
3
. M
el
Tai
--
* स्व. ब्रह्मचारी शीतलप्रमादजी *
AMA
MSRAMenergin-
M A -4eyr danti -rakeMIALNroin
05 . . .
.........NANEMY
ORE . .
. ..
RAN
FLI
..
.
.SEE
HERA
''
M
SEAN
RE.
श्रापका ईसरी में ता. २६ जनवरी सन १६४२ को समाधिमरण-पूर्वक स्वर्गवास हो गया है। विशेष परिचय के
लिये देखो पृष्ट ३३
MATA
TA
andnMAKARANASIA HAMAR umar
Cattent
TOTLARGALA
थापका लखनऊ मेलम्बी बीमारीके बाद 50 फरवरी सन १६४२ को स्वर्गवास हो नया है ।
विशेष परिचयके लिये देखो पृष्ट २४ ।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाबा भागीरथजी वर्णीका स्वर्गवास !!
( लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
बाबा भागीरथजी वर्णी जैनसमाजके उन महापुरुषों गया है ! फिर भी उनके त्याग और तपस्याकी पवित्र स्मृति मेंसे थे जिन्होंने श्रा'मकल्याणके साथ साथ दूसरों के कल्याण हमारे हृदयको पवित्र बनाये हुए है और वीरसेवामन्दिरमें की उत्कट भावनाको मृर्तरूप दिया है। बाबाजी जैसे श्रापका ३॥ मासका निवास तो बहुत ही याद आता है। जैनधर्मके दृढ़श्रद्धानी, कष्टसहिष्णु और आदर्शयागी संसार बाबाजीका जन्म सं० ११२५ में मथुरा जिलेके पण्डापुर में विरले ही होते हैं। आपकी कषाय बहुत ही मन्द थी। नामक ग्राममे हुआ था। आपके पिताका नाम बल्देवदास मापने जैनधर्मको धारणकर उसे जिस माहस एवं प्रारम- और मासाका मानकौर था। तीन वर्षकी अवस्थामें पिताका विश्वासके साथ पालन किया है वह सुवर्णाक्षरोंमें अङ्कित ग्यारह वर्षकी अवस्थामें माताका स्वर्गवास हो गया था। करने योग्य है। आपने अपने उपदेशों और चरित्रबलसे आपके माता पिता गरीब थे इस कारण आपको शिक्षा प्राप्त सैंकड़ों जाटोंको जैनधर्म में दीक्षित किया है-उन्हें जैनधर्म करनेका कोई साधन उपलब्ध न होसका। आपके माता पिता का प्रेमी और हदश्रद्धानी बनाया है। और उनके भाचार- वैष्णव थे। अत: आप उसी धर्मके अनुसार प्रात:काल विचार-सम्बन्धी कार्यों में भारी सुधार किया है। आपके स्नानकर जमुना किनारे राम राम जपा करते थे और गीली जाट शिष्योंमेंसे शेरसिंह जाटका नाम खासतौरसे उल्लेख- धोती पहने हुए घर पाते थे। इस तरह आप जब चौदह नीय है, जो बाबाजीके बढे भक्त हैं, नगला जिला मेरठके पन्द्रह वर्षके होगए तब आजीविकाके निमित्त दिली पाए । रहने वाले हैं और जिन्होंने अपनी प्रायः सारी सम्पत्ति जैन दिल्ली में किसीसे कोई परिचय न होने के कारण सबसे पहले मन्दिरके निर्माण कार्य में लगादी है। इसके सिवाय खतौली श्राप मकानकी चिनाई के कार्य में इंटोको उटाकर राजोंको देने और आसपासके दस्सा भाइयोंको जैनधर्ममें स्थित रखना का कार्य करने लगे। उससे जब ५.६ रुपये पैदाकर लिये आपका ही काम था। आपने उनके धर्मसाधनार्थ जैन- तब उसे छोड़कर तोलिया रूमाल भादिका बेचना शुरू कर मंदिरका निर्माण भी कराया है आपके जीवनकी सबसे बड़ी दिया। उस समय आपका जैनियोंमे बदा द्वेष था । बाबाजी विशेषता यह थी कि आप अपने विरोधी पर भी सदा जैनियोंके मुहल्ले में ही रहते थे और प्रतिदिन जैनमन्दिरके समष्टि रखते थे और विरोधके अवसर उपस्थित होने पर सामनेसे पाया जाया करते थे। उस रास्ते जाते हुए भापको माध्यस्थ्य वृत्तिका अवलम्बन लिया करते थे। और किसी देखकर एक सजनने कहा कि भाप थोडे समयके लिये मेरी कार्यके असफल होने पर कभी भी विषाद या खेद नहीं दुकानपर भाजाया करो। मैं तुम्हें लिखना पढ़ना सिखा करते थे। आपको भवितव्यताकी अलंध्य शक्ति पर दृढ़ दूंगा। तबसे श्राप उनकी दुकान पर नित्यप्रति जाने लगे। विश्वास था। श्रापके दुबले पतले शरीरमें केवल अस्थियोंका इस ओर लगन होनेसे आपने शीघ्र ही लिखने पढ़नेका पंजर ही अवशिष्ट था, फिर भी अन्त समयमें आपकी मानसिक अभ्यास कर लिया। सहिष्णुता और नैतिक साहसमें कोई कमी नहीं हुई थी। एक दिन पाप यमुना स्नानके लिये जा रहे थे, कि स्याग और तपस्या आपके जीवनका मुख्य ध्येय था, जो जैनमन्दिरके सामनेसे निकले, वहाँ 'पद्मपुराण' का प्रवचन विविध प्रकारके संकटों-विपत्तियों में भी आपके विवेकको हो रहा था, रास्ते में मापने उसे सुमा, सुनकर भापको उससे सदा जाग्रत (जागरूक) रखता था। खेद है कि वह भादर्श बना प्रेम होगया और मापने उन्हीं सजनकी मार्फत पन त्यागी माज अपने भौतिक शरीरमें नहीं है, उसका ईसरीमें पुराणका अध्ययन किया। इसका अध्ययन करते ही भापकी २६ जनवरी सन् ४२ को समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास हो रष्टिमें सहसा नया परिवर्तन होगया, और जैनधर्मपर प
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
अनेकान्त
श्रद्धा होगई। अब आप रोज़ जिनमन्दिर जाने लगे तथा पूजन स्वाध्याय नियमसे करने लगे। इन कार्योंमे आपको इतना रस आया कि कुछ दिन पश्चान श्राप अपना धन्धा छोड़कर त्यागी बन गए। और श्रापने बालब्रह्मचारी रहकर विद्याभ्यास करनेका विचार किया। विद्याभ्यास करनेके लिये आप जयपुर और खुर्जा गए । उस समय आपकी उम्र पच्चीस वर्षकी हो चुकी थी। खुर्जा में श्रनायास ही पूज्य पं० गणेशप्रसादजीका समागम हो गया, फिर तो आप अपने अभ्यासको और भी लगन तथा दृढताके साथ सम्पन्न करने लगे। कुछ समय धर्मशिक्षा को प्राप्त करने के लिये दोनों ही आगरेमें पं० स्वदासजी के पास गये और पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धिका पाठ प्रारम्भ हुआ। पश्चात् पं० गणेशप्रशाद जीकी इच्छा अजैन न्यायके पढनेकी हुई, तब आप दोनों बनारस गये और वो भीपुराकी धर्मशाला ठहरे ।
[ वर्ष ५
पाठशाळा स्थापित करनेकी स्वीकृति दे दी और दूसरे सज्जनोंने रुपये श्रादिके सहयोग देनेका वचन दिया। इस तरह इन यु.ल महापुरुषोंकी सद्भावनाएँ सफल हुई और पाठशालाका कार्य छोटेसे रूप में शुरू कर दिया गया। बाबाजी उसके सुप्रिन्टेन्डेन्ट बनाए गए। यही स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस के स्थापित होनेकी कथा है। जो श्राज भारतके विद्यालयोंमे अच्छे रूपये चल रहा है और जिनमें अनेक ब्राह्मण शास्त्री भी अध्यापन कार्य करते श्रा रहे हैं। इसका पूरा श्रेय इन्ही दोनी महापुरुयोंकी है।
पूज्य बाबा भागीरथजो वर्णों और पूज्य पं० गणेश प्रसादजी वर्णका जीवन पर्यन्त प्रेमभाव बना रहा। बाबा जी हमेशा यही कहा करते थे कि पं० गणेशप्रसादजीने ही हमारे जीवनको सुधारा है बनारस के बाद आप देहली, खुर्जा रोहतक खट्टा (मेरठ) खतौली, शाहपुर आदि मिन जिन स्थानों पर रहे वहाँकी जनताका धर्मोपदेश श्रादिके द्वारा महान् उपकार किया है
1
बाबाजीने शुरू से ही अपने जीवनको निःस्वार्थ और श्रादर्श त्यागीके रूपमे प्रस्तुत किया है । श्रापका व्यक्तित्व महान था। जैनधर्मके धार्मिक सिद्धान्तोंका आपको अच्छा अनुभव था । समाधितंत्र, इष्टोपदेश, स्वामिकार्तिकेयानुपेक्षा, बृद्दनस्वयंभू स्तोत्र और थाप्तमीमांसा तथा कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रन्थोंके आप मर्मज्ञ थे और इन्हींका पाठ किया करते थे। आपकी यागवृति बहुत बड़ी हुई थी। ४० वर्ष से नमक और मीठेका त्याग था, जिहा पर थाप का खासा नियन्त्रण था जो अन्य त्यागियोंमें मिलना दुर्लभ हैं। आप अपनी मेवा दूसरो कराना पसन्द नही करते थे। आपकी भावना जैनधर्मको जीवमात्रमे प्रचार करनेकी थी और श्राप जहाँ कहीं भी जाते थे तब सभी जातियों के लोगोसे मास मदिरा श्रादिका त्याग करवाते थे । जायेंगे जैनधर्म के प्रचारका और हस्सोंको अपने धर्ममें स्थित रहनेका जो ठोस सेवाकार्य किया है उसका समाज चिरऋणी रहेगा। श्रतः समाजका कर्तव्य है कि पूज्य बाबाजीको जैनधर्म के प्रचारकी भावनाको खूब पल्लवित किया जाय। और बाबाजीके अनुरूप कोई अच्छा स्मारक कायम किया जाए, जिसमे सतीजी भाइयोंको से अपना योग देना चाहिये।
एक दिन आप दोनों प्रमेयनमाला और अपरीचा आदि जैन न्याय सम्बन्धी ग्रन्थ लेकर पं० जीवनाथ शास्त्री के मकान पर गये । सामने चौकी पर पुस्तकें और १) रु० गुरूदक्षिणा स्वरूप रख दिया तब शास्त्रीजीने कहा श्राज दिन ठीक नहीं है कल ठीक है। दूसरे दिन पुनः निश्चि समय पर उक्त शास्त्रीजीके पास पहुचे । शास्त्रीजी अपने स्थानसे पाठ्य स्थान पर श्राए और श्रासन पर बैठते ही पुस्तकें और रुपया उठाकर फेंक दिया और कहने लगे कि मैं ऐसी पुस्तकोंका स्पर्श तक नही करता। इस घटना हृदयमें क्रोधका उद्वेग उत्पन्न होने पर भी आप दोनों कुछ न कह सके और वहाँसे चुपचाप चले श्रायें। अपने स्थानपर आकर सोचने लगे कि यदि श्राज हमारी पाठशाला होती तो क्या ऐसा अपमान हो सकता था ? अब हमें यही प्रयत्न करना चाहिये जिससे यहाँ जैनपाठशालाकी स्थापना होसके और विद्याके इच्छुक विद्यार्थियोको विद्यान्यास के समुचित साधन सुलभ हो सके। यह विचार कर ही रहे थे कि उस समय कामा जि० मथुराके एक सेठने, जो धर्मशाला में ठहरे हुए थे, आपका शुभ विचार जानकर एक रुपया प्रदान किया । उस एक रुपये के ६४ कार्ड खरीदे गये, और ६४ स्थानोंको अभिमत कार्यकी प्रेरणारूपमें डाले गये । फलस्वरूप बा० देवकुमारजी धाराने अपनी धर्मशाला भदैनी घाटमें
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
आत्म-समर्पण
[ लेखक - श्री 'भगवत्' जैन ]
[१]
farm at बुरी नही है ! बुग है विराग के नाम पर आत्म-हनन ! इच्छा-शक्ति और वासना जब तक आत्मा के सम्पर्कमे है, तब तक चाहे कोई रूप क्यो न रख लिया जाय, सच्चे अर्थ मे उसे विरागी न कहा जाएगा ।
विरागकी कसौटी है-वासनाकी हीनता ! जहाँ वासना जीवित है, वहाँ विगगकी गुजर कहाँ ? उसे कहना चाहिए - दम्भ, विरागका कलंक ! क्योंकि वासना पाप है। और विराग एक पावन वस्तु । मुक्ति प्राप्तिका एक मफल- प्रयत्न !
और यो, विरागके दो हिम्से हो जाते हैंएक सराग-विराग, एक यथार्थ विगग ! या कह लीजिए, विराग एक ही रहता है! सिर्फ पहलू उसके दो दीखने लगते हैं- एक उत्थान, एक पतन |... एक वासना-शून्य, एक पापमय ! एक विवेकपूर्ण, एक अज्ञान !
विरागके इन्हीं दो पहलुओका विश्लेषण इस कहानीम किया गया है !...
दुनिया से उदास, वे दोनों चल दिए तपोभूमिमें स्थान पाने की आशा लेकर, दुनिया वालोसे दूर : माँ-बाप, सुजन-सनेही सबके दुलार प्यार और साम्राज्य की लुभावक समृद्धिको ठोकर मार कर ! मन जा ऊब चुका था दुनिया खुदगर्जी से ! जीवन की खोखली आशा भोस !
कोई रोक न सका उन्हें! न माँ की ममता, पिता का स्नेह ! न ही राज्य-वैभवका लोभ ! सुखो
के लालचको भी शायद वह ग्वो चुके थे। और फिर आने वालोको कभी कोई रोक भी पाया है ?
शुभचन्द्र थे बड़े और भर्तृहरि था छांटा ! कुछ दूर दोनो साथ चले- दोनोका रास्ता एक था-विराग ! आगे बढ़ने पर रास्ता फटा, दो पगडंडियाँ मिली ! एक और चले शुभचन्द्र, दूसरा और भर्तृहरि दोनो अपन अपन विचारोंमें इतने उलझे हुए, खाये हुए थे कि एक दूसरे की गति-विधिसे अनभिज्ञ : जरूरत भी किसीको यह नहीं थी कि एक दूसरे के सुधारकी चिन्ताको अपने सिर लेता । सबाल जा अपनी-अपनी आत्म-विशुद्धिका सामने था ।
दोनोका विपरीत दिशा की ओर जाना थाविरागके दो पहलुओका स्पष्टीकरण !... दानो आगे बढ़ते गए ।
शुभचन्द्र के चारों ओर था अब निर्जन वन ! लेकिन वे थे, जो उससे बिल्कुल बेखबर थे ! कहाँ चल रहे हैं, इसे भूले हुए! अपनी निजी समस्याएँ जो उनके सामने विग्वरी पड़ी थीं ! सांघते जारहे थे- 'संसारकी अथिरता, प्राणीका एकाकीपन, निरीहता!'
और जो नजर उठा कर देखा, तो हृदय गद्गद् आनन्द-विभोर हो उठा ! - समयकी उपयुक्त वर्षा पर जैसे किसान ! स्वच्छ पाषाण खण्डपर तपोनिधि, वामना विजयी दिगम्बर साधु विराजे हुए हैंवंदनीय श्रनसागर !
शुभचन्द्रकी आध्यात्मिकताको एक मौका दिया, संयोगने - सम्भवतः विकास प्राप्त करनेके लिए !
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
अनेकान्त
[ वर्ष ५
और उन्होंने उठाया, एक विवेकी, बुद्धिमानकी तरह अब उसे चेन श्राया-भब लगी है उम! भरपूर लाभ ! भावना' जो उनकी बहुत ऊँची उठ प्यामम गला सूखा जा रहा है ! सुबह से यह वक्त चुकी थी!
हाने आया, ग्वाया पिया क्या है, जग भी तो नहीं !' अनायास भक्ति और श्रद्धानमा नवा दिया- वह उठा, क्षुधा-ममम्या का हल खोजन। और उस पाप-क्षीण, पूज्यताके चरणोम । बोले-'भग- फिर जा कुछ कन्द-मूल-फल हाथ लगे, उन्हें गले वन् । दुनियाकी धधकनी भाग निकल कर, आप के नीचे उतारा। कुछ तसल्ली जरूर हुई, लेकिन की शरणमे आ पड़ा हूँ ! मुझे उघाग्यि !'
पानीन शान्त होने वाली प्याम ज्यो-की-त्या बनी रही। और फिर, थाइम ममयमे ही एक आदर्श,
यह दमग बाधा थी, क़रीब करीब असहनीयभनुकरणीय परिवतेन हुआ-कि शुभचन्द्र, ते जम्बा- मा । पानीकी तलाशम घूमने लगा अब, डगवन बनो गजपुत्र न रह कर, परमशान्त, वेगग्य-मगिटन के बीच । लेकिन पानी था कहॉ, वहाँ जहाँ तहाँ दिगम्बर-मप, निर्लिप्त-साधुकी श्रेणीम जा बैठे। निगशा, मायामचिका!
आत्म-विकास की सीमाका आनन्दोपभोग करनेकी दिवाकरका विनाश-काल मन्निकट था । अभेद्यलालसा लेकर।
अन्धकार वृक्षोकी रमणीयताको भयोत्पादनकी वस्तु x x x x
बना देनके लिए ललचा रहा था।
कि भर्तृहरिको दीग्वा-कुछ दर घनी-छायाको चीर भर्तृहरि बढ़ा, और बढ़ता चला गया कछ दर । कर ऊपर उठना हुआ, धुआँ-मा। हदयन कल्पनाका दुनियाकै अरुचिकर-मंघर्ष, और विपादपूर्ण घटनाओ
महारा लिया-'जरूर वहाँ कुछ मनुष्य हान को सोचता-विचारमा हश्रा ! मन उमका दनियाम चाहिएँ। जहाँ धुओं है, वहाँ आग। और फिर कुढ़-सा रहा है। चाह रहा है-'कहीं दूर, शायद
मानवका अागम गहरा मम्बन्ध है। मुमकिन है, वहाँ दुनियाके उस पार, जाकर रहे, जहाँ आनन्द ही पाना पाना मिल मक आनन्द हो।'
___ पाम पहुँचकर भर्तृहग्निं दग्ना-चा और बहुत घूमा, म मानव-हीन बीहडमे । दिन आग धधक रही है और बीचमे मफेद बाल, मतंज ढलने लगा! दिवाकरन अपनी उग्रतासे हाथ खीचा। ललाट और जटाओसे सुशोभित एक तपम्बी-गजपृथ्वीको झुलमा-मुलमा कर जला डालनकी गक्षमा- मिहासनपर विगजे-पंचाग्नि-नप, नप रहे है। शरीर प्रवृत्ति पर जैसे धीरे-धीरे काबू पाते जा रहे हो ! पैगे में वृद्धता अवश्य है, लेकिन अशक्तिना नहीं। तपाकी थकावटने अधिकार पूर्वक विचार-धागाक मार्ग बलन उ.हे दीप्ति दे रखी हो जैसे। में रुकावट डाली !
__ ममापमे झोपड़ियां हैं-मृगचर्म, चीमटे, भर्तृहरि कया!
बाघम्बर, कोपीने, कमण्डल वगैरहम मंयुक्त । दरख्तकी ठंडी छाँहमे बैठ गया, सणिक जहां-तहां शिष्य-समुदाय अपने अपने कार्यमे विश्रामकी नीयनसे-विचार-ऊर्मियांस निकल कर । संलग्न है।चागे ओर देखा-पर, भैय्या थे कहाँ? जो दीव भर्तृहरि प्रभावित हुआ । आडम्बर जो था, सकते ! वही पेड़, गवारकी तरह जहाँ-तहाँ छानी प्रभावित करने के लिए ही शायद । नही, आत्मात्थान ताने खड़े थे। मोचने लगा-'तलाश करना व्यर्थ के लिए बाहरी किम चीज़की जरूरत ?.. है। अपन हिलमिल के साथ रहने ता आए नहीं, सिर नवा कर अभिवादन किया। तपम्बी-गजने आए हैं श्रात्माद्धार के लिए ! और नमक लिए माथी समाधि-भंग की । बोल, मृदु-मुमकानका बखेरते की नहीं, आत्म-बलकी जरूरत होगी । फिर बेकार ! हुए-'कहा, गजपुत्र । यहां कैसे ?'
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १.२]
प्रात्म-समर्पण
गजपुत्रने अपने आपको मौंपते हर विनम्र-भाव कहनम उसे मकुचता हो रही हा।"भत हरिको न से उत्तर दिया-'आपकी चरण-ग्जमे !' रुचा, यह । जल्दीस बोला-बात क्या है, महस
तपम्वांगजन प्रसनना-पूर्वक अनुमति दी- बाल ता" 'कल्याण होगा, बच्चा तेग, अभय रह ।'
कहने लगा-'भैय्याकी दशा अच्छी नहीं है। और भतृहरिको नपवीगजका शिष्यत्व प्राप्त घोर-दरिद्रतास दिन काट रहे हैं, वं| अंगुल-भरकी हुआ ही।-ममाद ।
कोपीन नक नहीं है, उनके पाम। न रहनके लिए बिलस्त-भर जगह । खाने तकमे मुहनाज हैं। डेढ़
दिन रहा, और भूग्वा हा वापस पा रहा हूँ, खुदके बारह मी, और बारह गर्मियां माधु-सेवाम खान तकको तो है नही, खिलाने कहाँ में मजबूरन बिना दन बाद भतृहग्नि एक दिन तपम्वागजम उपवास करने पड़े।' प्रार्थना की-'गुरुदेव । अब मुझ एकाकी-वहारकी भर्तृहरिका मर चकग गया, भ्रातृत्व जो था आज्ञा दी जाए। भैय्याकी खबर लेनको जी कर उसके हृदयग । मोचता रहा, पल-भर । फिर बोलारहा है, मुहन हागई-क दृमरंम जुदा हुए । 'हं । यह बात है ?
भत हार जा अब स्वयं एक प्रमुम्ब-माधुके रूपमे और उसी वक्त उमने आधी लॅबी-कलंकरमथा। जंत्र, मंत्र, तंत्र मबम निपुण । अनेक विद्याश्री भैय्याकी दरिद्रताकी प्रतिद्वन्दताक लिए-एक शिष्य का स्वामी । नपवागजन उम महर्प आज्ञा दी। हाथो ग्वानः करदी। कुछ विद्या दी, और दी महा मूल्य 'कल करम'
से x x x x भग हई-क तंबी। नांबका साना बनानकी दुर्लभ वस्तु ।
कह दिन बाद, शिष्य लौट कर आया-थका, भतृहरि कलंकरस पा आनन्द विभोर हो उठा। भयभीन मा, उदाम । साध मेवाको अन्तिम और कीमनी भेठने उसे मुग्ध भत हग्नि पृछ। 'कहा, प्रसन्न हुए न, भैय्या ? कर दिया। पैगम मिर डाल कर उमन प्रगाम किया, -कलंक ग्म' पाकर ?' और चला अपने शिष्य दल-महित-शुभचन्द्रकी वह बाला-दरिद्रनानं भैय्याकी अक्ल भी वाजम।
बिगाड़ दी है । कलंक-रम जैमी महावस्तु उनके X X X X नर्माबम कहाँ
बहत दर कही, सुहावन स्थानम, भर्तृहरिन हेतिम भर कर मत हार बोला-ए क्या अपना श्राश्रम बनाया। शिप्य, शुभचन्द्रकी बाजम आधी तंबी-रस गॅवा पाया कही गए हुए थे-चागे ओर।
शिप्यन तफमील पंश की-नबी देकर मैन कई निगश लौटे। कुछने मफलताका समाचार बना दिया उन्हें कि यह बहुमूल्यम तांबेको स्वर्ण कहा-'गुरुवर ! आपके भैय्याका हम लाग खोज बनाने की ताकत रखता हे । आपकी दरिद्रनास आए। वे गन्धमादन पर्वतपर ठहरे हुए हैं।" दु.खिन हाकर भैयान यह कठिन-साध्य वस्तु आपके
भर्तृहरिकी आँख चमक उठी, शायद भीतरका लिग भजी है। स्वीकार कीजिए-इस। वात्सल्य जगमगा उठा था। गद्गद-कण्ठम बाला- उन्होंने उपेक्षामं एक बार बीकी और देवा, फिर 'अच्छा'.१ कैमी दशा है-उनकी ? चैनसे ना हैं बोले-'पटक दा इम, मामनके पत्थरोपर ।' मैं
घबगया-कह क्या रहे है य व फिर बोलेशिष्य गर्दन झुकाकर बैठ रहा, जैसे कडुवी बान 'कह ना रहा हूँ-पटक दा इम पत्थगे पर।' मैं
न
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
संकटम था-एक मोर कुओं, दूसरी ओर खाई। वहीत ?-एक स्वच्छ पाषाणखण्डपर बिराजा हुआ किसकी आज्ञा पालन करूँ -मांचने लगा । है-नग्न! आंखोंने पहिचाना-'भैय्या ही ता हैं।'
आखिर तय किया-'बड़े भाईकी आज्ञा पालन करनी मोर वह गद्गद् हा उठा। चरमोमे गिरकर अभि चाहिए । छाटे भाई जा बड़े भाईकी प्रसन्नता इच्छक वादन किया-सप्रेम। हैं। बड़े भाईकी आज्ञा-भंग, छोटे भाईको दुग्वद न शुभचन्द्रन नजर उठाकर देखा, ता-भत हरि । हो। और तभी मैंने कलंकरस पत्थर्ग पर उँडेल गेरुत्रा वस्त्रांस मण्डित, जटामास शाभित, मृगचर्म दिया।'
से संयुक्त ____ भतृहरिके हृदयपर जैन बिच्छ्ने डंक मार धर्मवृद्धि दी ! दिया-'आह !'
भर्तृहरि बाला-भैया ! जैसे ही सुना, कि तुम वह मर्माहत-सा, बैठाका बैठा रह गया । जैस संकटम हां, आधी तंबी कलंकरस भेज दिया था। चैतन्यता खो बैठा हो।
लेकिन वह व्यर्थ गया ! अब शेष आधी तंबी भी लेकर उपस्थित हुश्रा हूं!'
'हो ! क्या होता है इससे-वत्स ?' उस रात भतृहरिको नीद न आई । बहुत प्रयत्न
'माना बनाया जाता है-भैया ! बड़ी वेशकीमत करनेपर भी वह न मोमका । चिन्ताएँ जो मनको धद्वलित किए हुए थीं। ..
'सोना ?'--शुभचन्द्र ने पूछा, और तंबी उठा कर
पत्थरपर पटक दी। कलंकरस बह कर जाने लगा, ___ वह ग्वीजा हुआ था-अपने आप पर। मोच
पननकी प्रोग; निराश्रित-सा! रहा था-'भूल मैंने ही की है। इतनी बहुमूल्य
भर्तृहरि सन्न !! वस्तुए कही यों भेजी-मँगाई जाती हैं। ऐहतियात
शुभचन्द्र बोले-'कहां हुआ माना ? देख रहे भी तो कोई चीज़ है-आखिर । अमम्भव नही, कि शिष्यन भैय्याको रमकी ठीक ठीक महना ही न
- हो-भर्तृहरि ?' बताई हो और उन्होंने उसे वैमा ही कुछ समझ लुढ़का देने की आज्ञा देदी हो।'
नही, नाँबा मोना बनता है। तुमने यह क्या कियादेर तक वह लटे हए धनिककी तरह माचता उफ़ ? बारहवर्ष गुरुकी सेवा करने पर इस पा मका विचारता रहा । और जब सुबह उठा तो एक निश्रय था-मैं । आफ् । यह दुर्लभ-वस्तु न तुम्हारे काम की दृढ़ता उसके माथ थी। 'ग्मकी बरबादी और आयीन मेरी रही!' भैय्याकी दुरवस्थान उसे काफी प्रसन्नाष दे रखा शुभचन्द मुस्कराये-भतृहरिकी सरलता पर, था। लेकिन वह था, जो असन्तोषक बीचमे सन्ताष भोले पन पर ! फिर बोले-भतृहरि ! तुम विगगके का साम्राज्य कायम करने का बीड़ा उठाए हुए था। लिए, यहाँ आए थे-धन-दौलत, मान-सम्मान और
भ्रातृत्वकी पुनीत भावनास प्रेरित भर्तृहरि चला, गज्य-लक्ष्मीको ठुकराकर । मैं देख रहा हूँ-सोनेके म्वयम् आधी-बची कलक-रस तंबी लेकर । दुमगे पर लोभको यहाँ आकर भी तुम नहीं छोड़ मकं हो। से यकीन जो जाता रहा था-उमका ! भैय्या को आज भी तुममे कलंक बाकी है। इतने वर्ष बिताकर आँखोंसे देख लेनकी क्षुधा जो जाग्रत हो उठी थी- भी विगगकी तह तक नहीं पहुंच पाए हो ? : 'सान मनमें।
की इच्छा ही जीवित रखनी थी, तो विगगको पविदुग्म देखा, देखा कि कृश शरीर-तपांबलसं त्रताको मलिन करने क्यो पाए-यहाँ ? इसे विराग
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १.२]
पराधोनका जीवन ऐसा
नहीं, दम्भ कहते हैं-भोले प्राणो!'
हृदय भर आया-उसका। भैय्याकी तपस्याने भर्तृहरिको अपने भीतर कुछ उजेला-सा होता मोह लिया ! पैरोमें गिरकर बोला-'मुझ डूबतेको मालूम दिया !
उबारिए-महाराज ! ...!' मैं अपनेको आपके शुभचन्द्र कहते ग!-'सोनको ही इच्छा है, तो लो चरण-रणमे अर्पण करता हूँ !'* कितना सोना चाहते हो ?
*म कथाके पात्रोमे 'भतृहरि' वह भर्तृहरि नही जान और अपनी चरण-रजको चुटकीमें भरकर, उस पड़ता जो राजा था और राज्यशासनको चलाता हुया स्त्रीविशाल पापाण-खण्ड पर छोड्दी !
चरित्रको देखकर वैरागी हुआ था तथा जिसने वैराग्यशतकादि तपोबलको अचिन्त्य-शक्ति !!!
ग्रन्याकी रचना की है; अथवा 'शुभचन्द्र' वह शुभचन्द्र वह सारा पत्थर सोना बन गया ! भर्तृहरि आँखे नहीं, जो दिगम्बर ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' का रचयिता है। क्योंकि फाड़े देखता-भर रह गया-अचम्भित-सा!
उक्त भतृहरि राजा और ज्ञानार्णव-कर्ता शुभचन्द्र दोनांका समय एक नहीं है।
-सम्पादक
पराधीनका जीवन ऐसा!
[१] मनों-अन्न उपजाने पर भी,
पाता है जो रूखा-सूखा ! दुनियाका तन ढकने वाला ,
खद रहता है नङ्गा-भूखा !! 'हलधर' आज कहाकर भी जो
रहा मगर जैसे का तैसा ! पराधीनका जीवन ऐसा !!
[३] जीवन कहना ठीक नहीं है, इसे मृत्यु कहना सुन्दर है ! क्योकि 'दीनता' में 'जीवन में, एक बड़ा मौलिक अन्तर है !! जीवन, जागृति मय होता है, मृत्यु-मम्मिलित जीवन कैसा ? पराधीनका जीवन ऐसा !!
मान, गुलामोंके नसीबमें ,
बच्चे भूख - भूख चिल्लातेनहीं कभी सुनने में आया !
घरमें दाना अन्न नहीं है! उसको तो गाली मिलती हैं
क्यों न हमें कह लेने दो अबजाता है दर - दर ठुकराया !!
छोटा-मोटा नरक यहीं है !! कष्ट भोगनेको जन्मा है !-,
हाथ-पाँव हैं, नाक - कान हैं, भोग रहा है प्रतिदिन जैसा!
अगर नहीं है तो वस, पैसा! पराधीनका जीवन ऐसा !!
पराधीनका जीवन ऐसा !! "-[श्री भगवत्' जैन]
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
पउमचरिय और पद्मचरित
[प्राकृत और संस्कृत जैन-रामायणांकी तुलना ]
(ले०–श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी)
परिचय
गुरु इन्द्र थे। चार्य रविषेणका पद्मचरित' ( पद्मपुराण) नाइलकुलका उल्लेख नन्दिसूत्र-पट्टावलीम मिलता है।
श्रासंस्कृतका बहुत ही प्रसिद्ध ग्रन्थ है श्रीर उसका भूतदिन प्राचार्यको भी-जो श्रार्य नागार्जुनके शिष्य थेहिन्दी अनुवाद तो उत्तर भारतके जैनामें घर घर पढ़ा जाता नाइलकुलवशनंदिकर' विशेषण दिया गया है। जैनागम की है. परन्तु विमलमूरिके परमचरियको बहुत ही कम लोग नागार्जुनी वाचनाके कती यही माने जाते हैं । मुनि जानते हैं, क्या के एक तो वह प्राकृनमे है और दृपर श्रीकल्याण विजयजी प्रार्य स्कन्दिल और नागार्जुनको लगभग उसका कोई अनुवाद नहीं हुआ।
समकालीन मानते हैं और धार्य स्कन्दिलका समय वि०सं० विषेणने पद्मचरितकी रचना महावीर भगवान के ३५६ के लगभग है । पुष्पिकाम विमलमृरिको पूर्वधर निर्वाणके १२०३ वर्ष छह महीने बाद अर्थात् वि० सं० ७३४ के लगभग' और विमलसूरिने बीर नि० सं० ५३०
रविषेणने न तो अपने किसी संघ या गण-गछका कोई या वि० सं०६० के लगभग की थी। इस हिमाबसे
उल्लेख किया है और न स्थानादिकी ही कोई चर्चा की है। पउमचरिय पद्मचरितमे ६७४ वर्ष पहले की रचना है।
परन्तु मेनान्त नामसे अनुमान होता है कि शायद वे सेनसपके जिस तरह पउमचरिय प्राकृत जैन-कथा-पाहियका सबसे
हीं, यद्यपि नामोंमे संघका निर्णय मदेव ठीक नहीं होता। प्राचीन ग्रन्थ है, उसी तरह पद्मपुराण संस्कृत जैन-कथा
इनकी गुरुपरम्पराके पूरे नाम इन्द्रमन, दिवाकरमन, अर्हलपेन साहित्यका सबसे पहला ग्रन्थ है।
और लक्ष्मणनन होगे, ऐसा जान पडता है। विमलसूरि राहू नामक प्राचार्यके प्रशिष्य और
उद्योतनमरिने अपनी कुवलयमालाम-जो वि०सं०८३५ विजयाचार्य के शिष्य थे" । विजय नाइलकुलके थे । इसी
की रचना है-विमलसूरिके 'विमलांक' (प उमचरिय ) तरह रविषेण अर्हन्मुनि के प्रशिष्य और लक्ष्मणमेनके
[क और 'हरिवंश' इन दो ग्रन्थोंकी तथा रविषेणके पद्मचरितकी शिष्य थे। अर्हन्मुनिके गुरु. दिवाकर यति और उनके
६ यामादिन्द्र गुगंदिवाकग्यनि: शि' योऽम्य चाईन्मनिः । १ माणिकचन्द्र-जन-ग्रन्थमाला. बम्बई, बाग प्रकाशित ।
नम्मालचमगामेनमन्मनिरद:शिष्यो विस्तम्मृतः ।। ६६ ।। २ जैनधर्मप्रसारक मभा, भावनगर, द्वारा प्रकाशित । ३ द्विशताभ्यधिके ममामले ममतानचतुर्थवर्षयुक्ते ।
दग्बो, 'वीर-निर्वाण-मवत् और जैन-कालगणना' नागरी जिनभास्करबर्द्धमानसि चरितं पद्ममनेरिदं निबद्धम् ॥१८॥
प्रचारिणी पत्रिका, भाग १०-११ ४ पंचव वाममया दुममा नीम परममंजुत्ता।
८ जारिमय विमलं को विमलं को नारिस लाइ अत्थं । वीरे मिद्धिमुवगए तो निबद्ध इमं चरियं ॥ १०३ ।। अमयमय व सरमं सरसं चिय पाइय जस्स ।। ३६ ।। ५ राह नामारियो स समय-परममयडियसम्भायो। बुदयणमहम्मदइयं इरिवंमुष्पनिका पढमं ।। विजयो य तस्म म मा नाइलकुलवंमनंदियरो ।। ५१७॥
चंदामि बंदियं पिहु हरिवम चेव विमलपयं ॥ ३८ ॥ सीमेण तस्म रदयं गवरियं तु मरियमलग।
जहि कर रमणिज्ज वर ग-पउमाण चरियवित्थारे । सो कणं पुधगा नागयण-मोरि चरियाई || १४८| कहब ग मलाइणिज्जे ते कई गो जडिय चिमणे ।। १ ।।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
पउमचरिय और पद्मचरिन
३६
(जटिलमुनिके वरांगचरिनकी भी) प्रशंसा की है। इसम पउमरियके प्रत्येक उद्देसके अन्तिम पद्यमें विमल' मालूम होता है कि उनके सामने ये दोनों ही ग्रन्थ मौजूद और पद्मचरितके अन्तिम पद्यमें 'रवि' शब्द अवश्य आता थे। हरिवंशको उन्होने 'प्रथम' कहा है जिसका अर्थ है। अर्थान् एक 'विपलाई' है और दूसरा 'रव्यङ्क' । संभवत. यह है कि हरिवंशकी उत्पत्तिके सम्बन्धमै सबसे ५पमचरितमे जगह जगह प्राकृत भार्यात्रोंका शब्दशः पहले उन्होंने लिखा।
संस्कृत अनुवाद दिखलाई देना है। ऐसे कुछ पद्य इस लेख प्राचार्य जिनमन (पुन्नाटबंधीय) ने भी अपने हरिवंश- के परिशिष्टमै नमुनेके तौरपर दे दिये गये हैं और उसी पुगण (वि.सं.८४०) मे-जी उद्योतनसरिके पांच वर्ष तरहके मैंकडो और भी दिये जा सकते हैं। बाद ही की कृति है-विषेणके पद्मचरितकी प्रशंसा की है। पल्लवित कहनेका कारण यह है कि मृलमें नहीं प्राकृतका पल्लवित छायानवाद
स्त्री-रूपवर्णन नगर-उद्यानवर्णन आदि प्रसंग दो चार दोनों ग्रन्थकांडोंने अपने अपने अन्धमे रचनाकाल पोमे ही कह दिये गये हैं वहां अनुवादमें ज्योदे-दने पद्य दिया है उसमे यह स्पष्ट है कि पउमचरिब पद्मपुगणमे लिखे गये हैं। इसके भी कुछ नमूने अन्तम दे दिये गये हैं। पुराना है और दोनो ग्रन्धोका की तरह मिलान करने पउमचारियके काने चौथे उदेसमे ब्राह्मणोंकी पत्ति मालूम होता है कि पद्मपुराणके कतके सामने पउमचरिय बतलाते हुए कहा है कि जब भरत चक्रवर्तीको मालूम अवश्य मौजूद था। पद्मपुराण एक नरहने प्राकृत पउम- हुअा कि वीर भगवानके अवमानके बाद ये लोग कुतीर्थी चरियका ही पल्लवित किया हश्रा संस्कृत छायानुवाद है। पापण्डी हो जायेगे और झूठे शास्त्र बनाकर यज्ञामे पशुओं पउमचरिय अनुष्टप श्लोकोके प्रमाण से दस हजार है और की हिंसा करेंगे, तब उन्होने उन्हे शीघ्र ही नगरसे निकाल ग्मचारत अठारह हजार । अर्थात प्राकृत संस्कृन लगभग देनेकी प्राज्ञा दे दी और इस कारण जब लोग उन्हें मारने पान दोगुना है । प्राकृत ग्रन्थकी रचना यायां छन्दमे की लगे दब ऋषभदेव भगवानने भरतको यह कहकर का कि गई है और संस्कृनकी प्राथ. अनुष्टप छन्दमे, इसलिए हे पुत्र, इन्हें मा हण, मा हणमत मारो मत मारो, तबसे पद्मपुराणमे पद्य तो शायद दो गुनेने भी अधिक होंगे। उन्हें 'माहण' कहने लगे। शायानुवाद कहनेके कुछ कारण
___ संस्कृत ब्राह्मण' शब्द प्राकृतमे 'माहण' (बाह्मण) हो दोनोंका कथानक बिल्कुल एक है और नाम भी जाता है। इसलिए प्राकृतम नो उमकी ठीक उपपत्ति उक्त
स्प बतलाई जा सकती है परन्तु संस्कृतमे वह ठीक नही • पर्वो या उददेसी नक नाम दोनों के प्राय: एकये बैठनी। क्योंकि संस्कृत 'ब्राह्मण' शब्दमेमे 'मत मारों' जैसी
कोई बान बीच-तानकर भी नहीं निकाली जा सकती। ३ हराएक पर्व या उददेमके अन्त में दोनीने छन्द बदल संस्कृत 'पद्मपुगण के कोंके सामने यह कठिनाई अवश्य दिये हैं।
आई होगी. परन्तु वे लाचार थे। क्योंकि मूल कथा तो वाटमपीय निनने यो शभापति धवलने बदली नहीं जा सकती, और संस्कृतके अनुसार उपपत्ति विणके बाद टिलमानका उलंब किया है, हममे बिठानेकी स्वतन्त्रता कमे ली जाय ' इमलिए अनुवाद अनुमान होता है कि जटा-मिग्नन्दिका वगगचरित शायद करके ही उनको मन्तुष्ट होना पहागविग के पद्मचरितके बादका हो।
यस्मान्मा हननं पुत्र कापारिति निवाग्निः । ६ उमच ग्यिकी, वि.म. BHEEन जयमिहदेवक राज्य- ऋपमेण नतो याना 'माहना' इति ते थ तिम् ॥४-१२२ कालम, भडोनम लिली गई एक नाइयत्रीय प्रनि उपलब्ध
इस प्रसंगमे यही जान पडता है कि प्राकृत ग्रन्थमे ही है। दिवा जमलमग्क ग्रन्या-भगडारकी सी. प्र.
संस्कृत ग्रन्थकी रचना हुई है। 2 नरोदयोन्योता प्रन्या परिवर्तिता।
४ मा हगामु पुत्त जं उम्भजिगरग वारियों भरी। मनि' काव्यमयी लोक ग्वेग्वि वि. प्रिंया ॥ ३४ ॥ नंग इमं मया मित्र युन्नान य 'माहरणा' लोग ||४-८४॥
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
परन्तु इसके विरुद्ध कुछ लोगोंने यह कहने तकका शताब्दीके लगभगकी या उसके बादकी रचना मानते हैं। माहस किया है कि संस्कृतसे प्राकृतमें अनुवाद किया गया क्योंकि उसमें दीनार' शब्दका और ज्योतिषशास्त्रसम्बन्धी है। परन्तु मेरी समझमें वह कोरा साहस ही है। प्राकृतमे कुछ ग्रीक शब्दोंका उपयोग किया गया है। स्वर्गस्थ दी. तो संस्कृतमें बीसी ग्रन्थोके अनुवाद हुए हैं बल्कि साराका ब. केशवलाल ध्र बने तो उसे और भी अब चीन कहा सारा प्राचीन जैनसाहित्य ही प्राकृतमें लिखा गया था। भग- है। वे छन्दांके क्रम-विकास के इतिहासके विशेषज्ञ माने जाते वान महावीरकी दिव्यध्वनि भी अर्धमागधी प्राकृतमें ही हुई थे। इस ग्रन्थ के प्रत्येक उद्देसक अन्तमें जो गाहिणी, शरम थी। संस्कृतमें ग्रन्थ-रचना करनेकी ओर तो जैनाचार्योंका श्रादि छन्दोंका उपयोग किया गया है, वह उनकी समझमें ध्यान बहुत पीछे गया है और संस्कृतसे प्राकृतमें अनुवाद अर्वाचीन है । गीतिमे यमक और सगन्तम विमल' शब्द किये जानेका तो शायद एक भी उदाहरण नहीं है। का पाना भी उनकी दृष्टिम अवाचीनताका द्योतक है । परन्तु इसके सिवाय प्राकृत पउमचरियकी रचना कितनी
हमें इन दलीलोमें कुछ अधिक सार नहीं दीखता । ये सुंदर. स्वाभाविक और आडम्बररहित है, उतनी संस्कृत
अधिव तर ऐसे अनुमान हैं जिनपर बहुत भरोसा नहीं रक्खा पद्मचरितकी नहीं है जहाँ जहाँ वह शुन्द्व अनुवाद है, वहाँ
जा सकता, ये गलत भी हो सकते हैं और जब स्वयं ग्रंथतो खैर ठीक है, परन्तु जहां पल्लवित किया गया है वहाँ
कर्ता अपना समय दे रहा है, तब अविश्वास करनेका कोई अनावश्यक रूपसे बोझिल हो गया है। उदाहरणके लिए
कारण भी तो नहीं दीखता। इसके सवाय डा. विंटरनीज़, अंजना और पवनंजयके समागमको ले लीजिए । प्राकृतमें
डा. लायमन, श्रादि विद्वान वीर नि० ५३० को ही पउमकेवल चार पाँच प्रार्या छन्दोंमें ही इस प्रसंगको सुन्दर
चरियकी रचनाकाल मानते हैं । न माननेका रनकी समझमें ढंगने कह दिया गया है. परन्तु संस्कृतमें बाईस पद्य लिखे काई कारण नहा है। गये हैं और बड़े विस्तारमे श्रालिंगन-पीडन, चुम्बन, दशन
रामकथाकी विभिन्न धागएँ छद, नीवी-विमोचन, सीफार श्रादि काम-कलायें चित्रित रामकथा भारतवर्षकी सबसे अधिक लावयि क्या है की गई हैं जो अश्लीलताकी सीमा तक पहुँच गई हैं। और इसपर विपुल साहित्य निर्माण किया गया है। हिन्दू, पउमचरियके रचनाकाल
बौद्ध और जैन इन तीनों ही प्राचीन सम्प्रदायोमे यह कथा
अपने अपने ढंगम लिखी गई है और तीनों ही सम्प्रदायविमलसूरिने स्वयं पउमचरियकी रचनाका समय वीर
वालोंने रामको अपना अपना महापुरुष माना है। नि० सं० ५३० (वि० ६०) दिया है, परन्तु कुछ विद्वानों
अभी तक अधिकाश विद्वानोंका मत यह है कि इस मे इसमें सन्देह किया है । डा. हर्मन जाकोबी उसकी भाषा
कथाको सबसे पहले बाल्मीकि मुनिने लिखा और संस्कृतका और रचना-शैली परसे अनुमान करते हैं कि वह ईसाकी
सबसे पहला महाकाव्य (आदि काव्य) वाल्मीकि रामायण चौथी पाँचवीं शताब्दीसे पहलेका नहीं हो सकता । डा.
है। उसके बाद यह कथा महाभारत, ब्रह्मपुराणा, पद्मपुराण, कीय,' डा. वुलनर भी उसे ईसाकी तीसरी
अमिपुराण श्रादि सभी पुराणोमे थोड़े थोडे हेर फेरके साथ १ उदाहरणार्थ भगवती आगधना और पंचमंग्रहके अमित- संक्षेपमें लिपिबद्ध की गई है। इसके सवाय अध्यात्म
गतिसू रिकृत संस्कृत अनुवाद, देवसेनके भावसंग्रहका रामायण, श्रानन्द-रामायण, अद्भुत-रामायण श्रादि नामसे वामदेवकृत संस्कृत अनुवाद, अमरकीतिके 'छक्कमोवाएम' भी कई रामायण-ग्रन्थ लिखे गये। बृहत्तर भारतके जावा, का संस्कृत 'पटकर्मोपदेश-माला' नामक अनुवाद, सर्व- सुमात्रा श्रादि देशोंके साहित्यमें भी इसका अनेक रूपान्तरों नन्दिके लोकविभागका सिइम रिकृत संस्कृत अनुवाद,आदि। के साथ विस्तार हुश्रा । २ 'एन्माइक्लोपिडिया लाफ रिलीन एण्ड एथिक्स' भाग अद्भुत-रामायणमें सीताकी उत्पत्तिकी कथा सबसे
७, पृ० ४३.७ और 'माडर्न रिव्यू' दिसम्बर सन् १६१४। निराली है। उसमें लिखा है कि दण्डकारण्यमें गृसमद ३ कथका संस्कृत साहित्यका इतिहास। ४ इन्ट्रोडक्शन टु प्राकृत। नामके एक ऋषि थे। उनकी स्त्रीने प्रार्थना की कि मेरे गर्भ
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
करियर-२]
से साक्षात् लक्ष्मी उत्पन्न हो। इसपर उसके लिए वे एक घमें प्रतिदिन थोडे थोडे दूधको अभिमंत्रित करके रखने लगे कि इतने में एक दिन वहाँ रावण आया और उसने पेपर विजय प्राप्त करने के लिए अपने मोके चुमा बाणोकी चुभाकर उनके शरीरका बृद्ध बृद रक्त निकाला और उसी घड़े मे भर दिया। फिर वह घडा उसने मन्दोदरीको जाकर दिया और सा दिया कि वह एक विषसे भी है। परन्तु मन्दोदरी यह सोचकर उस रक्तको पी गई कि पतिका भुझ पर सच्चा प्रेम नहीं है और वह नित्य ही परस्त्रियोमे रमण किया करता है; इस लिए अब मेरा मर जाना ही ठीक है। परन्तु उसके पीनेसे वह मरी तो नही, गर्भवती हो गई ! पतिकी अनुपस्थिति गर्भधारणा हो जानेसे वह उसे दुपानेका प्रण करने लगी और आखिर एक दिन विमान में बैठकर कुरुक्षेत्र गई और उस गर्भको जमीनमें गावकर वापस चली आई। उसके बाद हल जोतते समय वह मंदोदरी - गर्भजात कन्या जनकजीको मिली और उन्होंने उसे पाल लिया । वही सीता है ।
पउमचरिय और पद्मचरित
विष्णुपुराण (४-५ ) में लिखा है कि जिस समय नवंशीय राजा सीवन पुत्रलाभ के लिए भूमिगत रहे थे, उसी समय लाङ्गलके अग्रभाग सीता नामक दुहिया उत्पन्न हुई।
बौद्ध जातक ग्रंथ बहुत प्राचीन हैं जिनमें बुद्धदेव के पूर्व-जन्मोंकी कथाएँ लिखी गई हैं। दशरथ जातक के धनुसार काशीनरेश दशरथकी सोलह हजार रानियों थी । उनमें से मुख्य रानीमे राम लक्ष्मण ये दो पुत्र और सीता नामकी एक कन्या उत्पन्न हुई। फिर मुख्य रानी के मरनेपर दूसरी पहनी हुई उसमें भरत नामका पुत्र हुआ। यह रानी बड़े पुत्रोका हक मारकर अपने पुत्रको राज्य देना चाहती थी तब इस भयसे कि कहीं यह बड़े पुत्रोको मार न डाले, राजाने उन्हे बारह वर्षतक धरण्यवास करनेकी आज्ञा दे दी और इस लिए वे अपनी बहिनके साथ हिमालय चले गये और यहां एक आश्रम बनाकर रहने लगे। नौ वर्ष के बाद दशरथकी मृत्यु हो गई और तब मंत्रियों के कहने भरतादि उन्हें लेने गये, परन्तु वे पिताद्वारा निर्धारित अवधि के भीतर किसी तरह लौटनेको राजी नहीं हुए, इस लिए भरत रामकी पादुकाओंको ही सिहासनपर रखकर
ર
उनकी ओर से राज्य चलाने लगे। आाखिर बारह वर्ष पूरे होनेपर वे लौटे उनका राज्याभिषेक हुआ फोर फिर सीताके साथ ब्याह करके उन्होने १६ हजार वर्ष तक राज्य किया ! पूर्वजन्म मे शुद्रोदन राजा दशरथ, उनकी रानी महामाया रामयी माता राहुनमाता सीता बुद्धदेव रामचन्द्र, उनके प्रधान (शष्य श्रानन्द भारत और सारिपुत्र लश्मण थे ।
इस कथा में सबसे अधिक खटव नेवाली बात रामका अपनी बहिन सीता के साथ ब्याह करना है। परन्तु इतिहास बतलाता है कि उस कालमें शाक्योंके राजघरानों में राजवंश की शुद्धता सुरक्षित रखने के लिए भाई के साथ भी बहिनका विवाह कर दिया जाता था । यह एक रिवाज था । इस तरह हम हिन्दू और बौद्ध साहित्य में रामकथाके तीन रूप देखते हैं एक बाल्मीकी रामायणका दूसरा अद्भुत रामायणका और तीसरा बौद्ध जातकका । जैन रामायणके दो रूप
इसी तरह जैन-सहमे भी रामकथा दो रूप मिलते हैं. एक तो पउमचरिय और पद्मचरितका और दूसरा गु भद्राचार्य के उत्तरपुराणका । पद्मचरित या पउमचरियकी कथा तो प्रायः सभी जानते हैं क्योंकि जैनरामायणके रूप में उसकी सबसे अधिक है परन्तु उत्तरपुराणकी कथा का उतना प्रचार नहीं है जो उसके ६८ वे पर्वमें वर्णित है । उसका बहुत संक्षिप्त सार यह है
राजा दशरथ काशी देशमें वाराणसीके राजा थे । रामयी माताका नाम मुबाला और लक्ष्मणकी माताका नाम केकेयी था । भरत शत्रुघ्न किसके गर्भ में श्राये थे, यह स्पष्ट नही लिखा । केवल कस्याचित् देव्यां' लिख दिया है । सीता मन्दोदरी गर्भने उत्पन्न हुई थी, परन्तु भविष्यद्वक्ताओं के यह कहनेसे कि वह नाशकारिणी है, रावण ने उसे मंजूषामेराकर मरीचके द्वारा मिथिलामें भेजकर अमीन में गडवा दिया था। दैवयोगसे हलकी नोकमें उलझ जाने से वह राजा जनकको मिल गई और उन्होंने उसे अपनी पुत्री के रूपमें पाल लिया। इसके बाद जब वह ब्याहके योग्य हुई, तब जनकको चिन्ता हुई। उन्होंने एक वैदिक 'यज्ञ किया और उसकी राके लिए राम-लमको श्राग्रहपूर्वक दुलवाया। फिर रामके साथ मीताको ब्याह दिया । यज्ञके समय रावणको श्रामंत्रण नहीं भेजा गया,
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
४९
अनेकान्त
इसमें वह अत्यन्त क्रुद्ध हो गया और इसके बाद जब नारद के द्वारा उसने सीताके रूपकी अतिशय प्रशंसा सुनी तब यह उसको हर लानेकी सोचने लगा। कैकेयी के हरु करने, रामको बनवा इस कथा में कोई
या
देने, आदि बालोका नहीं है। पंचवटी दंडकवन, जटायु प्रसंगांका भी प्रभाव है। बनारस के पास चित्रकूट नामक वनमे रावण सीताको हर ले जाता है और फिर उसके उद्धारके लिए लंकामे राम-रावण युद्ध होता है । रावणको मारकर राम दिग्विजय करते हुए लौटते हैं और फिर दोनो भाई बनारस में राज्य करने लगते हैं । मी अपवाद और उसके कारण उसे निर्वासित करने की भी चर्चा इसमें नही है । लक्ष्मण एक असाध्य रोग मे प्रसित होकर मर जाते हैं और इससे रामको उद्वेग होता है।
लक्ष्मण के पुत्र पृथ्वीसुंदरको राजपदपर और सीताके पुत्र श्रजितजयको युवराजपदपर अभिदित करके अनेक राजाश्र और अपनी सीता आहे रानियों के साथ जिना ले लेते हैं।
इसमे सीता के आठ पुत्र बतलाए हैं पर उनमे लबकुशका नाम नहीं है । दशानन विनमि विद्याधरके वंशके पुलस्यका पुत्र था । शत्रुयोंको रुलाता था. इस कारण वह रावण कहलाया ।
1
जहाँ तक मैं जानता है यह उत्तर पुराणकी राम - कथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित नहीं है। श्राचार्य हेमचन्द्रके त्रिपष्टिशलाका पुरुषपरित जो राम कथा है उसे मैंने पढ़ा है यह बिल्कुल पचय' की कथा के अनुरूप ऐसा होता है कि पचय और पद्मचरि टी चाचार्य के सामने थे। जैसा कि पहले लिखा जा चुका है दिगम्बर सम्प्रदाय मे भी इसी कथाका अधिक प्रचार है और पीछेके कवियोने तो प्रायः इसी कथाको संक्षिप्त या पल्लवित करके अपने अपने ग्रन्थ लिखे हैं। फिर भी उतरपुराणकी कथा बिल्कुल उपे नहीं हुई है। अनेक महाकवियोंने उसको भी आदर्श मानकर काव्य-रचना की है। ऊदाहरण के लिए महाकवि पुष्पदन्तको ही ले लीजिए। उन्होंने अपने उत्तरपुराणके अन्तर्गत जो रामायण लिखी है, वह गुणभद्रकी कथाकी ही अनुकृति है | चामुण्डराय - पुराणमे भी यही कथा है।
पउमचरिय और पद्मचरेिनकी कथाका अधिकांश
वर्ष ४
वाल्मीकि रामायण के ढंग का है और उत्तरपुराणको कथाला जानकी जन्म प्रद्भुत रामायणके ढंगका । उसकी यह बात कि दशरथ बनारस के राजा थे, बौद्ध जानकरी मिलती जुलती है। उत्तरपुराण के समान उसमें भी सीता नियंस ल कुश जन्म श्रादि नहीं हैं।
कथा- भेदके मूल कारण
अर्थात भारतवर्ष मे रामकथा की जो दो तीन भारती हैं, वेद भी प्राचीनकालमे पल्ली आ रही है। पउमचरियके कर्त्ता ने कहा है कि मैं उस पद्मचरितको कहता हूं जो श्राचार्योंकी परम्परामे चला था रहा था और नामावलीन था । इसका अर्थ में यह समझना है कि रामचन्द्रका चरित्र उस समय तक केवल नामावलीके रूप में था. अर्थात उसमे कथाके प्रधान प्रधान पात्रोंके उनके मातापितास्थानी वीर भवान्तरों आदि के नाम ही हो वह पद्मविन कथाके रूपमें न होगा और विमलने उसीको विस्तृत परिके रूपमें रचा होगा। वसुदेवसरे
कहा है उससे भी यही मालूम होता है कि उन देव भीगोके क्रम निर्दिष्ट था। उससे पूछ तव था और कुछ श्रथापरम्परागत ।
• सामायिनिवासिनं ।
||
अपुलिस के अनेक कमानी
भिन्नता है, उसका कारण भी गडी मालूम होता है। उनके सामने कुछ तो 'नामावली साहित्य था और कु आचार्य परम्परा चली आई हुई स्मृतियों थी । इन दोन के आधार अपनी अपनी रचिके अनुसार कथाको
करने भी जाना स्वाभा है। एक मंचित लाटको यदि आप दो लेखकोको देंगे तो उन दोनो की पति रचनाएँ निस्सन्देह भिन्न हो जाएंगी। पति की तिलोत्तमे, जो करणानुयोगका ग्रन्थ है, उक्त नामावलीनिक कथासूत्र दिये हुए है
|
रहंत चक्कि वासुदेव-गणितानुयोग-कर्मा वसुदेव रिति । तत्थय किचि सुपनिबद्धं किचि ग्रायरिय परंपरागण श्रागतं । ततो अवधारितं में ।"
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२
पउमचरिय पार पद्मर्चारत
जब विमलमूरि पूर्वोक नामावलीके अनुसार अपने बहुत पहले विमलसूरिके ही समान विसी अन्य प्राचार्यने ग्रन्थकी रचनामे प्रवृत्त हुए होंगे तब एसा मालूम होता है भी स्वतंत्र रूपम जैनधर्मके अनुकूल सोपपत्तिक और कि उनके मामने अवश्य ही कोई लोक-प्रचलित रामायण विश्वसनीय रामकथा लिखी होगी और वह गुणभद्राचार्यको एसी रही होगी जिसमें रावणादिको राक्षम, वसा-रक्त-मास गुरु-परम्पराद्वारा मिली होगी। गुणभटके गुरु जिनमनस्वामीने का खाने-पीनेवाला और कुम्भकर्णको छह छह महीने तक अपना आदिपुराण कविपरमेश्वरकी गद्यकथा आधारमे इस तरह सोनवाला कहा है कि पर्वततुल्य हाथियों के द्वारा लिखा था- कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोचरितम् ।" अंग कुचले जाने, कानाम घडी नेल डाले जाने और नगाडे और उसके पिछले कुछ अंशकी पूति स्वयं गुणभद्रने भी बजाये जाने पर भी वह नही उठता था और जब उठता था की है। जिनमनरवामाने कविपरमेश्वर या कविपरमेष्टीको तो हाथी भने आदि जो कुछ मामने पाता था, मब निगल वागर्थमंग्रह' नामक समग्र पुराणका कर्ता बतलाया है। जाना था। उनकी यह भूमिका इस बात का संकेत करती अतएव मुनिसुव्रत तीर्थकरका चरित्र भी गुणभदने उमौके है कि उस समय बाल्मीकि रामायण या उसी जैसी कोई प्राधारमे लिखा होगा जिसके अन्तर्गत रामकथा भी है। रामकथा प्रचलित थी और उसमें अनेक अलीक, उपपत्ति चा गडरायने भी कविपरमेश्वरका स्मरण किया है। विरुद्ध और अविश्वसनीय बात थी, जिन्हें म य मोपपत्तिक तापर्य यह कि पउमचरिय और उत्तरपुराणकी
और विश्वासयोग्य बनाने का विमलसरिने प्रय न किया है। रामकथाकी दो धागा अलग अलग स्वतन्त्ररूपम उद्गन जैनधर्मका नामावलिनिबद्ध ढाचा उनके समक्ष था ही और हुई और वे ही आगे प्रवाहित होती हुई हम तक पाई है। श्रनिपरम्परा या प्राचार्यपरम्परापे आया हुआ कोई कथा
इन दो धागोम गुरुपरम्परा-भेद भी हो सकता है। सूत्र भी था। उसीके अाधारपर उन्होंने पउमरियकी
एक परम्पगने एक धारा को अपनाया और दूसरीने रचना की होगी।
दूसरी। ऐसी दशाम गुणभद्र स्वामीने पउमच यकी उत्तरपुराण के कता उनमे और रविषेणम भी बहुन धाराम परिचित होनेपर भी इस स्वयालमे उमका अनुसरण पीछे हुए है, फिर उन्होंने इस कथानकका अनुसरण क्यों न किया होगा कि वह हमारी गुरुपरम्पराकी नहीं है। यह नहीं किया, यह एक प्रश्न है। यह नो बहुन कम संभव है भी संभव हो सकता है कि उन्हें ५उमचरियके क्थानक्की कि इन दोनों ग्रन्थाका उन्हें पता न हो, और इसकी भी अपेक्षा यह कथानक ज्यादा अच्छा मानम हुआ हो। मभावना कम है कि उन्होंने स्वयं ही विमलमूरिके समान
- ---- - --
र दंग्वा, उत्तरपगणका प्रशाम्नका १६ वो पय । किमी लोकप्रचलित कथाको ही स्वतंत्र रूपम् जैनधर्मके .
५ म पृज्य: कविभिनोंक कवीना परमेश्वरः। मोचेम दाल। हो। क्योंकि उनका समय जो वि० सं० १४
___ वागर्थमग्र कृत्नपुगण य: ममग्रहीत् ॥६०||-अादिपुगण है बहुत प्राचीन नही है। हमारा अनुमान है कि गणभद्रम
६ महामात्य चामुण्डरायका बनाया हुअा त्रिपष्टिलक्षणमटा, दग्या श्रागे पशिटम. पउगरियकी नं. १०७ मे १९६
पगण (चामुगडगय-पगण) कनड़ी भाषाम है। उमक. नककी गाथाएँ।
प्रारम्भमे लिखा है कि म चरित्रको पहले कृचि भट्टारक : महाकाव पापदन्नन ना अपन उनपगगमे गमकथाका नदनन्तर नन्दि मुनीश्वर, फिर कविपरमेश्वर श्रार नदार
प्रारम्भ करते हुए वाल्मिकी और व्यामका पट उल्ग्य भी जिनमन-गुगणभद्र श्राचार्य, एकके बाद एक पगमे किया है
करने श्राय है । इममे भी मालूम होता है कि कपिपरगार बम्मीय रामबर्याहि गडिट, अण्णाणु कुमगाकवि का चोवमा नार्थकगंका चरित्र था । चामुगद्धगया ममान डिउ । ६६ या मन्धि ।
गुग्णभद्रने भी उर्मक आधारमै उनपर लिग्बा होगा : अलियं निमब्वमयं उवनिविस्सपञ्चयगुरंगहि ।
और कविपरमेश्वरम भी पटिले नदि मनि श्रार कृचि न य मांति परिमा वंति जे पंडिया लाए ।
भट्टारक.के इस विषयक ग्रन्थ होंगे।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
४४
अनेकान्त
वर्ष ५
पउमचरियकी रचना वि० सं० ६० में हुई है और १५ स्वप्न हैं । आवश्यक सूत्रकी हारिभद्रीय वृत्तिमें यदि जैनधर्म दिगम्बरश्वेताम्बर भेदों में वि० सं० १३६ के (पृ. १७८ ) लिखा है कि विमान और भवन ये दो स्वम लगभग ही विभक्त हुवा है-जैसा के दोनी सम्प्रदायवाले ऐसे हैं कि इनमें जिनमाताओंको एक ही पाता है। जो तीथंकर मानते हैं तो फिर कहना होगा के यह उस समयया है देववपेरत होकर पाते हैं उनकी माता पिान देखती है जब जैनधर्म अविभक्त था। हमें इस ग्रन्थमें कोई भी ऐसी ओर जो अधोलोक्स पाते हैं उनकी माता भवन देखती है। बात नहीं मिली जिसपर दोमेस वेसी एक समुदायकी परन्तु पउमचारयमे विमान और भवन दोनों ही स्वप्न कोई गहरी छाप लगी हो और जिसम्म यह निर्णय या मादेवीने एक साथ देखे हैं। जा सके कि विमलसूरि अमुक सम्प्रदाय के ही थे । बल्क
३-दूसरे उद्देसकी ३० वी गाथामें भगवानको जब उसमे कुछ बाते ऐसी हैं जो श्वेताम्बर-परम्पराके विरद जाती और
केवलज्ञान उपन्न हुश्रा, तब उन्हें 'अष्टकर्मरहित' विशेषण हैं और कुछ दिगम्बर-परम्पराके विद्ध। इसमें मालूम होता
दिया गया है और यह विशेषण शायद दोनों सम्प्रदायोकी है कि यह एक तीसरी ही, दोनोके बीचकी, विचार धारा थी। टिमे चिन्तनीय है। क्योंकि केवल ज्ञान होते समय पउमग्यि वशिष्ट कथन
केवल चार घातिक कर्मोंका ही नाश होता है, पाठोंका नहीं। १-इस प्रन्यके प्रारम्भमें कहा गया है कि भगवान्
४-दूसरे उद्देसकी ६५ वी गाथामें पृथ्वी, जल, महावीरका समवसरण विपुलाचलपर पाया, तब उनकी थग्नि. वाघु और वनस्पतिको स्थावर और द्वीन्द्रियादि खबर पाकर मगध-नरेश श्रेणिक वहाँ पहुँचे और उनके जीवोंको बस कहा है। यह दिगम्बर मान्यता है। श्वेताम्बर पूछनेपर गोतम गणधरने गमक्था कही' । दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार पृथ्वी, जल और बनस्पति ही स्थावर सम्प्रदायके प्राय: सभी कथा-ग्रन्थोंका प्रारम्भ इसी तरह होता हैं. अग्नि वाय और दीन्द्रियादि वस है। है। कहीं कहीं गोतम स्वामीके बदले सुधर्मा स्वामीका नाम भी रहता है। परन्तु जहाँ तक हम जानते हैं श्वेताम्बर ५-चौथे उदेस की ५८ वी गाथामें भरत चक्रवर्तीकी सम्प्रदायमें कथा-ग्रन्थोंको प्रारम्भ करनेकी यह पद्धति नही ६४ हजार गनियाँ बनलाई हैं । यह संख्या श्वेताम्बर है। उनमे पाम तौरसे सुधा स्वामीने जम्बूसे कहां-इस तरह परम्पराके अनुसार है, दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार कहनेकी पद्धति है। जैसे कि संघदासवाचकने वसुदेव हिंडिके
४ वमह गय मीह वरमिरि दाम" प्रथमांशमे कहा है, कि सुधर्म स्वामीने जम्बू प्रथमानुयोगगन
समिरवि भयं च कलसं९ च । तीर्थकर-चक्रबर्ति-यादववंशनरूपणागत वसुदेवचरित कहा।
सर१० मायरं११ विमाग१२ अन्य ग्रन्थोंमें भी यही पद्धति है ।
वग्भवणं १३ रयण १४ कुडग्गी ॥६२||-तृ० उद्देस २-जिन भवानकी माताको जो स्वम पाते हैं. उनकी ५ पद्मचरितमे दिगम्बर मम्प्रदाय के अनुमार स्वप्नांकी संख्या संख्या दिगम्बर सम्प्रदायमें १६ बतलाई है, जब कि श्वेताम्बर १६ कर दी गई है... सम्प्रदायमें १४ स्वप्न माने जाते हैं । परन्तु पउमचरियमें
"अद्राक्षीत् पोडशस्व'नानिति श्रेयोविधायिनः ॥"
वाटा १ वीरस्स पचरठाणं विउन्नगिरिमस्थये मणभिगमे ।
तृतीय पर्व, श्लो० १२३ __ तह इंदभूइकहियं सेणियरएणस्स गामे ॥
६ अइ अट्ठकम्मरहियस्म तस्स भाणोवयोगजत्तस्म । २ श्रेणिकप्रश्नमुद्दिश्य सुधर्मो गणनायकः।।
सयलजगुजोयकर केवलणाणं समप्यराण ॥३०॥ यथोवाच मयाप्येतदुच्यते मोक्षलि मया ।। -क्षत्रचूडामणि ७ पदवि-जल जलण-मारुय-वएस्सई चेव थावरा भणिया । ३ तत्थ तार सुहम्मसामिणा जंबुनामस्स पढमा सुयोगेतित्थयर- वेइंदियाइ जाव उ, दुविहतसा सणिण इयरे वा ॥६५॥
चक्कवहि-दमार-वंसपरू-बणागयं वसुदेवचरियं कहियं' ति ८ चउसटिसहरमाई जुबईगां परमरूबधारीणं । तस्सेव पभवो कहेयन्यो, तप्यभवस्स य पभवस्स त्ति । बत्तीसं च सहस्सा राईणं बदमउडाणं ॥५८|
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
पउमचरिय और पद्मचरित
चक्रवर्तीकी १६ हजार रानियाँ होती हैं।
ममयने और सम्प्रदाय मोहने उन्हें मज़बृत बना दिया। ६-उमरियके दूसरे उद्देसमें कहा है कि भगवान् हमारा अनुमान है कि शायद यह तीसरी विचारधारा महावीर बाल-भावसे उन्मुक्त होकर तीस बरसके होगये और वह है जिसका प्रतिनिधित्व यापनीय संघ करता था और फिर एक दिन संवेग होनेमे उन्होंने प्रवज्या ग्रहण जो अब लुप्त हो गया है और पउमचरिय शायद उसीके करली । इसमे उनके विवाहित होनेकी कोई चर्चा नही है द्वारा बहुत समय तक सुरक्षित रहा है। इस बातकी पुष्टि
और कुमारावस्थामे ही दीक्षित होना प्रकट किया है। बीसवे महाकवि स्वयंभूके उमचरिय' सं होती है जो यापनीय उद्देसकी गाथा ५७-५८ में भी यही ध्वनित होता है कि संघके थे और जिन्होने अपने समक्ष उत्तरपुराणानुमोदित मल्लिनाथ, अरिष्टनेमेि पार्श्व, महावीर और वासुपूज्य ये पाच रामायणकथाके रहने हुए भी पउमचरियका ही अनुपरण तीर्थकर कुमारकालमें ही घरमे निकल गये और शेष तीर्थ- किया है। कर पृथ्वीका राज्य भोगकर निकान्त हुए। कहनेकी
परिशिष्ट आवश्यकता नहीं कि यह उल्लेख दिगम्बरपरम्पराके अनुकूल उमचरिय और पद्मचरितक कुछ छायानुवादरू। उद्धरण है। यद्यपि अभी अभी एक विद्वान्मे मालम हुआ है कि मुञ्चति लोयमाथे रावणपमुहा य वखसा सन्वे । श्वेताम्बर सम्प्रदायके भी एक प्राचीन ग्रन्थ 'प्रावश्यकनियुनि' वस-लोहिय-मसाई-भक्खणपाणं क्याहारा ॥ १० ॥ में महावीरको अविवाहित बतलाया है।
किर रावणस्म भाया महाबलो नाम कुंभयण्णो त्ति । परिश्रम करनेमे इस तरहकी और भी अनेक बातोंका छम्माम विगयभश्रो संजासु निरंतरं सुयह ॥ १०८॥ पता लग सकेगा जिनमेमे कुछ दिगम्बर सम्प्रदायके अधिक जइ वि य गएमु अंग पलिजइ गरुयपन्वयसमेसु । अनुकूल होगी और कुछ श्वेताम्बर सम्प्रदायके ।
तेल्लघडेसु य कण्णा पूरिजंने सुयंतस्स ॥ १० ॥ इन सब बातोंये हमारा झुकाव इस तीसरी विचार- पडुपडहतूपसदं ण मुणइ सो सम्मुहं वि वजतं । धाराके विषयमें इस ओर होता है कि वह उस समयकी नय उर्दुइ महप्पा सजाए अपुण्णकाल म्मि ॥ ११०॥ है जब दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके मत-भेद व्यव- अह उदियो वि संतो असणमहा(णामह)घोरपरिगयमरीसो। स्थन और दृढ नहीं हुए थे। उन्होने आगे चल कर ही धीरे पुरो हवेज जी सो कुंजरमहिमाइणो गिलइ ॥ ११॥ धीरे स्थायित्व और दृढत्व प्राप्त किया है। पहले वे किसी काऊण उदरभरणं सुरमाणुसकुंजराइबहुपसु । ग्रंथके पाठभेदोंके समान साधारण मतभेद थे. परंतु पीछे पुणरवि मेजारूढो भयरहियो मुयह छम्मामं ॥ १२॥
अनं पि एव सुब्वह ह इंदो रावणंण मंगामे । पद्मचरितम रविष्टेगने यह सच्या भी अपने मम्प्रदायक
जिणि ऊण नियलबद्धो लंकानयरी समाणीनी ॥ ११३ ॥ अनुसार मशोधित करके ६६ हजार कर दी है
को जिणि य समन्थो इंदं ममरामरे वि तेलोके । 'पुग्न्त्रागा महागि नवनि: पाभन्विताः।"
जो सागरपेरंन जंबुद्दीवं मयुद्धरह ॥ ११४॥ १० च० श्लो०६६
एरावणो गहंदी जस्स इ वजं अमोहपहरन्थं । मुग्वटदिन्नाहागे अगुट्यमयलवलेहंग ।
नस्स किर चिनिएण वि अन्नो वि भवेज मसिरामी ॥११॥ उम्मुक्कचालभावी तीमट वरिमा जियो जात्रो
सीहो माण निहलो माणेण य कुंजरो जहा भग्गो। अह अन्नया कयाई मंवेगपंगे जियो मांगयदोमा ।
नह विवरीयपय थ कई हि रामायणं रइयं ॥ १६ ॥ लोगनियाकिएणी पध्वजमवागी वोगे ॥ ३० ॥
अलियं पि मन्वमेयं ज्ववत्तिविरुद्धपञ्चयगुणेहि । निहतकण्यवरगा मेमा तित्थकग समक्वाया।
न य मदहति पुरिसा हवंति जे पंडिया लोए ॥ १७ ॥ महा अग्नेिमी पामो वीगे य वासुपजो य ।। ५७ ॥
-पउमच० २ उद्देश एप कुमाग्मोहा गेट्टायो गिगाया जिग्णवाग्दिा ।
४ देवी, भेग महाकवि स्वयभु और त्रिभुवन स्वयभु' गमा विहरायागो पहई भोत्तण गिवंता ॥ ५ ॥ शीर्षक लेन ।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
यह बात रविपेने पद्मचरित इस प्रकार कही है - श्रयन्ते लौकिके ग्रन्थे राक्षसा रावणादयः । माशांसादिपानभवणकारिणः ॥ १३० ॥ रावणस्य किल भ्राता कुम्भकर्णो महाबलः । धोरनिद्रापरीतः षण्मासान शेते निरन्तरम् ॥ २३३ ॥ मत्तैरगस्तस्य किमनं यदि ।
नेट ने बड़े । २३२ ।।
अनेकान्त
भेरीशं निनादे मुमहान स तथापि किल नायाति कालेऽपूर्णे विबुद्धत्ताम् ॥ २३३ ॥ धावयुद्ध सम्महोदरः ।
भक्षयन्यग्रतो दृष्ट्वा हस्यादीनपि दुर्द्धरः ॥ २३४ ॥ तिर्यग्भिर्मानुषैर्देवै कृत्वा तुप्तिं ततः पुनः । स्वत्येव विमुनिः शेषः ।। २३५ ।। श्रमराणां किलाधीशो रावणेन पराजितः । कृष्ट वा ॥ २४७ ॥ देवानामधिपः वास वराक कैप मानुप. । तस्य मात्रे यायायो भस्मराशिताम् ॥ २४२ ॥ ऐरावतो गजो यस्य यस्य वज्र महायुधम् । समेवारिधिं क्षोणी यांना सात्समुद्धरत ॥ मृगैः सिंहवथ मोऽयं शिलान पेपतः । वधो गंडूपदेनाहेर्गजेन्द्रशासनं शुना ॥ २४६ ॥ सर्व विमुपपत्तिभिः ।
भगवन्तं गणाधीशं सोऽहं पृष्टाऽस्मि गौतमम् ॥ २४८ ॥ - पद्मचरित द्वि० प० श्रापुच्छिऊण सव्वं माय पियनुत्तमयणपरिचगं । तो सुप भूषणाई कडाई ॥ १३५ ॥ परि० उ० सिद्धाण वारं काऊण य पंचमुट्टियं लोयं । चहि सहस्पेहि समं पत्तो इणं परमदि ॥ १३६ ॥ पृच्छनं ततः कृत्वा पित्रोन्नस्य च ।
नमः सिद्धेभ्य इयुक्वा धामण्यं प्रतिपद्यत ॥ २८३ ॥ अलंकारैः समयस्था वमतानि महामुनिः । चकारासी परिया केशानां पंचमुष्टिभिः ॥ २८४ ॥
ग्रह एवं परिकहिए पुणरवि मगहादिवो पण मिऊणं । पुछ गरम मयहरमहुरेडि वयखेहिं ॥ ६४ ॥
[ वर्ष ५
वरणाण समुत्पत्ती तिरहं पि सुया मए अपरिसेमा । एतो कहे भवयं उप्पत्ती सुत्तदा । ६५ ।। तो भइ जणवरिंदो भरह न कम्पइ इमो उ श्राहारो । समणाण संजयाण कीयगदुद्देसनि फणो ॥ ७१ ॥ पउमच० ० उपदेस
००
श्रथैवं कथितं तेन गौतमेन महात्मना । श्रेणिकः पुनरप्याह पायी ॥ ८५ ॥ वयस्य भगवन् संभव मे गतिः । उत्पत्तिं सूत्रकण्ठाना ज्ञातुमिच्छामि साम्प्रतम् ॥ ८६ ॥ इक्के भगवानाह भरतेयं न कल्पते । साधूनामीदृशी भिक्षा या तदुद्देशसंस्कृता ॥ ८७ ॥ - पद्मचरित च० प०
न
एवं लहर चरिवं नियोपावे । सो लहइबोहिला बुद्धिबलाउं च ग्रइपरमं ॥ ६३ ॥ उज्जयसन्थो वि वि खिष्पं उवसमइ तस्य उवसग्गो । अनि चैव पुराणं संदेह ॥ ६४ ॥ रज्जरहिश्रो विरजं लहद्द धरण थी महात्रणं विडलं । उवममइ तक्वणं चिय वाही सोमा य हाँति गहा ॥ ६५ ॥ महिलबी वरमहिलं पुसी गोतनंद पुतं । लहइ परदेसगमणे समागमं चेत्र बंधूणं ॥ ६६ ॥
-पउम च० ११८ उ०
वायोति जनस्तस्याद्विमीचने पुरुषम् । चाष्टस्तो रिपुरपि न करोति वैरमुपशममेति ॥ १५७ ॥ किं चान्यद्मांर्थी लभते धर्म यशः परं यशसोऽर्थी । राज्यभ्रष्ट राज्यं प्राप्नोति न संशयोऽत्र कश्वित्य ॥ १५८ ॥ इष्टसमायोगार्थी लभते धनं धनार्थी यार्थी परपनी पुत्रार्थी गोश्रनन्दनं पुत्रम् ॥ १५६ ॥ -प० १२३ व प० एवं वीर जिणेण रामचरियं सिद्धं महत्धं पुरा पाडला ऊ कहिये सीसा धम्मामयं । भू साहूपरंपरा सथ लोए दियं पाप एता विमले सुत्तसहियं गाहानिबद्धं कथं । १०२ ।। पउम०, ११८ व उ० निर्दिष्टं सकलैनंतेन भुवः श्रीमानयत तवं वासवभूतिना निगडितं जम्बो प्रशिष्यस्य च । शिष्येोचरवाग्मिना प्रकटितं पद्मस्य मुनेः
1
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण१.२]
पउमचरिय और पद्मचरिन
श्रेयः साधुसमाधिवृद्धिकरणं सर्वोत्तम मंगलम् ॥ १६६॥ बलविहवकंतिजुत्तो अहियं धम्मुजयमईयो ॥४॥ -पद्मचरित, १२३ वो पर्व नडनदृछत्तलं ग्वयणिरचं णरचंतगीयसद्दालो।
णाणाहारपसाहिय भुजाविजतपहियजणो ॥ ५ ॥ नीचे कुछ ऐसे उद्धरग दिये जाते है जिनमें पद्मचरित- अहियं वीवाहसव-वियाचडो गंधकुसुमतत्तिल्लो । का ने विषयको अनावश्यक रूपमे बाया है
बहुपाणग्वाणभायण प्रणवरयं वडिढउच्छाहो ॥ ६ ॥ जं एव पुच्छिा सो भणद् तो नारयो पसंमंतो। पुरवरणीमु सरेमु य उजाणेमु य ममंतयो रम्मो। अस्थि महिलाए राया जणग्रो सो इंदुकेउसुश्री ॥ १५ ॥ परचकमारितक्कर-दुन्भिवश्वविवजिनो मुद्दो ॥ ७ ॥ नस्प महिला विदहा तीए दुहिया इमा परवरकन्ना।
-उमच० दि० उ० जोवणगुणाणुरुवा सीया णामेण विवरवाया ॥ १६ ॥
अथ अंदमति द्वीपे क्षेत्रे भरतनामनि । अहवा किं परितुटो पडिरूवं पेच्छिऊण थालेकवे ।
मगधाभिख्यया स्यातो विषयोऽस्ति समुज्वलः ॥ १॥ जे तीए विम्भमगुणा ते रिचय को वशिण उं तरइ ॥ ७ ॥ निवासः पूर्णपुण्यानां वासवावाससन्निभ. ।
-पउमचरिय, २६ वा उददेस व्यवहाररसंकीण : कृतलोकव्यवस्थितिः ॥२॥ अस्यत्र मिथिला नाम पुरी परम सुन्दरी।
क्षेत्राणि दधते यस्मिब्रुखातान लांगलाननैः । इन्द्र केतोस्मुतस्तत्र जनको नाम पार्थिव ॥ ३३ ॥ स्थलाजमृलसंघातान्महीमारगुणानिय ॥ ३ ॥ विदहति प्रिया तस्य मनोबन्धनकारिणी।
तीरमेकादिवोदतमन्दानिलचलदरलैः। गोत्रसर्वस्वभूतेयं सीनेति दुहिता तयोः ॥ ३४ ॥
पुराई क्षुः टसंतानव्याप्तानंतरभूतलः ॥ ४ ॥ निवधवममौ तेभयः कुमारं पुनरुकवान ।
अपूर्वपन्नाकारविभक्तः खलधामभिः । बाल मा या विपाद त्वं तवयं मुलभैव हि ॥ ३५ ॥ सस्यद मुविन्यस्तै. सीमांता यस्य संकटाः ॥ ५॥ रूपमात्रेण यातोऽसि किमस्या भावमीदृशं ।
उदाटक्वटी सिक्तयत्र जीरकजूटकैः । ने तस्या विभ्रमा भट्ट कस्ता वर्णयितुं क्षम ॥ ३६ ॥ नितांतहरितवीं जटालेव विराजते ॥ ६ ॥ नया चित्त समाकृष्टं तवेति किमिहागतम् ।
उर्वगयां वरीयोभि यः शालेयरलंकृतः । धर्मध्याने दृढं बढ़ मुनीनामपि मा हरेन ॥ ३७ ॥ मुद्रकोशीपुरयस्मिन्नद देशान्कपिलचिपा ॥ ७॥ प्राकारमात्रमतत्तस्या न्यस्तं मया पटे ।
नाएस्फुटितकोशीकै गजमा निरन्तराः। लावण्यं यत्तु तत्तस्या तस्यामेवैतदीदृशम् ॥ ३८॥ उददेशा यत्र किर्गीग निक्षेत्रिय-तृणोद्मा (१)॥८॥ नवयौवनसंभूतकान्निसागरवीचिपु।
अधिष्टिने स्थलीयप्ठे श्रेष्टगोधूमधामभिः । या तिष्ठति तरंतीव संसक्ता स्तनकुंभयोः ॥ ३ ॥ प्रशस्यैग्न्यस्यैश्च युकात्यहर्जितैः ॥॥ तस्या श्रोणी वरारोहा कान्तिपेशाविनांशुका ।
महामहिषपृष्टस्थगायद्गोपालपालितः । वीक्षितोन्मूलय स्वान्तं समूलमपि योगिनाम् ॥ ४० ॥ कीटातिलंपटोदग्रीववलाकानुगतध्वनिः ॥ १०॥
-पद्मचरित, २८ वौं पर्व विवर्णमृत्रयंबधघण्टा रटति हारिभिः इह जंबुदीवदीवे दक्खिणभरहे महंतगुणकलियो। क्षरद्भिरजरनाम्पपीतक्षीरोदव पयः ॥ ११ ॥ मगहा णाम जणबयो नगगगरमंडियो रम्मो ॥१॥ मुस्वादुग्यसंपन्नैर्बाप्प छद्यैरनंतरै । गाम-पुर-खेड कब्बट-मडम्बदोणीमुहमु परिकिरणो। तृणैस्तृप्ति परिप्राप्तगर्योधनः मितकक्षः ॥ १२ ॥ गोमहेिसिबलवपुराणो धणणिवहणिरुद्वसीमपहो ॥२॥ सारीकृतसमुददेशः कृष्णसारैबिसारिभिः । सन्थाहमेट्रिगणवद-कोम्बियपमुहसुद्धजणणियहो। सहस्रसंन्यैर्गीर्वाणस्वामिनो लोचनैरिव ॥ १३॥ मणिकणगरयणमोत्तियबहुधन्नमहंतकोट्टारो॥३॥ केनकीधूलिधवला यस्य देशाः समुन्नताः । देसम्मि तम्मि लोगो विरणाणवियक्खणो अइसुरुवो। गंगापुलिनमंकाशा विभानि जिनमविताः ।। १४ ॥
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
शाककंदलवाटेन श्यामज: श्रीधर क्वचिन्ः । वनसालकृनास्वादनालि केरै विराजितः ॥ १५ ॥ कोटिमिः शुकचंचूनां तथा शाखामृगाननैः । संदिग्धकुसुमै पुनः पृथुभिर्दाडिमीवनैः ॥ १६ ॥
वसपालीकरावृष्टमातुलिंगीफलांभसा । लिप्ताः कुंकुमपुष्पाणां प्रकरैरुपशोभिताः ॥ १७ ॥ फलस्वादपयःपानसुखमंसुप्तमार्गगाः । वनदेवीप्रपाकारा द्राक्षाणां यत्र मंडपाः ॥ १८ ॥ इत्यादि
पद्मचरित, दू० पूर्व
विश्ववाणीका ‘जैनसंस्कृति अंक'
[भारतकी प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका 'विश्रवाणी' के सुसम्पादक भाई विश्वम्भरनाथजीने, जैन-संस्कृतिक सम्बन्धमें अपना जो विचार इसी अप्रैल मासकी विश्ववाणीमें व्यक किया है और साथ ही विश्ववाणीका एक 'जैनसंस्कृति अंक' भी निकालनेका विचार प्रस्तुत किया है. वह सब अनेकान्त के पाठकों के जानने योग्य है। अत: उसे नीचे प्रकट किया जाता है। मैं सम्पादकजी के इस सद्विचारका अभिनन्दन करता हश्रा जैन विद्वानोंसे अनुरोध करता है कि वे उनकी इस सतयोजना को सफल बनाने में लेखादिद्वारा अपना पूरा सहयोग प्रदान करें।
-सम्पादक "भारत य ममान जेनसंस्कृतको लेकर ग्रान अनेकों एक महान् अग मानकर उमपर गपणा और अन्वेषण ग़लतफहमिया फैला हुई हैं। लोगोम यह न। ममाया हया करना चाहिये। है कि जैनोक अहिमाने हा भारतको गारत किया जैनधर्म हमने पहले यह मोचा था कि मई १६४२ का
और जैनमस्कृतिका भारताय मभ्यता के निर्माण में कोई विश्ववाणी' का अंक बोव और जैनसंस्कृति के नाम हाथ नही पोर जैनममा न भारतीय ममात्रका एक ऐमा निकाला जाय, किन्तु हमने यह देखा कि इस तरह न ना अंग रहा है जिनपर भारतको कोई अभिमान नहीं हो सका हम मन्नाप हागा और न हम जैनसस्कृति के माथ ममुचित श्रादि तरह नरहका मिथ्या बाने पढ़े लिखे लोगों के दि नामें न्याय कर पायंगे। इस विचारमे हमने यह निश्चय किया है घर किर हुए हैं। सौभाग्यमे हातहामके अनुसार वाम्त- कि 'विश्ववाणी' का मईका अंक "चौद्ध मंस्कृति" अंक विकता ऐमी नहीं है | जनदार्शनिको और अध्यात्मिक होगा ओर अागामी पयु पण पर्वा हम विश्ववाणी' का एक नेतायाने जात ईमाम दो शताब्दी पूर्व मध्य शिया, पूग अंक जैनमस्कृति' पर निकाले, निमार जैनधर्म, जैननिकटपूर्व, फिलस्तीन इथियोपिया और मिश्र तक अपने संस्कृति, जैन दर्शन, जैनकर्मयोग, जेनतीर्थदर, जैनम्थापत्य, मट कायम करके बहोमे जैनधर्मका प्रनार किया था। जैसे जैनकला, जैनमादित्य विदेशीम जैनधर्म ग्रादि अादि जैसे पुरातत्ववेत्ता इनिहामपरसे अतीतका अावरण हटात विष पर पूग पूग प्रकाश डाला जाय। जान है वैसे वैसे जैनमंस्कृतिक सम्बन्धमे नई नई बाते देश के समस्त जैन और अजैन विद्वानोंमे हमारी नम्र दुनिया के सामने आती जाती हैं। यह भी हर्पका विषय है प्रार्थना है कि वे हमे इम काममें मदद द । जिन भाईयो कि मन्दिरजीके तहग्वानोमे निकलकर जैनदर्शनकी पुस्तके का इम सम्बन्धमे दमने अब तक व्यक्तिगत निमन्त्रण नई प्रकाश पा रही हैं और जैनसस्कृति के व्यापक स्वरूपका दिया वह अपरिचित होने के कारण दी। अभी तीन चार परिचय धीरे धीरे लोगोको मिलता जा रहा है। जैनपुरानत्व महीनेका मभय है और यदि हमें मबका महयोग मिला नो के अनुसन्धानका काम केवल जैनोका कर्तव्य नहीं है, दम पयुषण पूर्वपर एक शानदार और श्रादर्श जैनमस्कृति प्रत्येक भारतीय विद्वानको जैनमंस्कृतिको भारतीय संस्कृतिका अंक' निकालने में सफल हो सकेंगे।"
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह और दिगम्बर समाज
[ लेखक-श्री अगरचन्द नाहटा]
दिसम्बर समाजके ऐतिहासिक माधनोंक प्रकाशनकी समझकर उनके प्रकाशनकी ओर ध्यान देना चाहिए। उपना बड़ी अखरती है। सैकड़ो वि.नोके रहते ग्रन्थप्रशस्ति दो प्रकारवी होती हैं, जिनमसे हप भी इस उपेक्षाका विचार करने पर मखद आश्चर्य प्रथम ग्रन्थ-रचना-प्रशस्तिमें कक्किी गुरुपरमरा, होता है । श्वेताम्बर समाजकी ओरसे इस बार रचनाकाल एवं स्थान, तत्कालीन राजा, बादशाहादि अपेक्षाकृत अच्छा प्रयत्न हुआ है। उनके कई प्रतिमा- का नाम, प्रेरक और सहायक का नाम आदि बातें लेखसंग्रह, ग्रन्थसूची, माहित्यका इतिहास, पावली- लिम्बी हुई पाई जाती है। दूसरी प्राथ प्रति (जिसे संग्रह, प्रशान्तसंग्रह, ऐतिहासिक काव्य इत्यादि अनेक पुषिका लेख भी कहते हैं) में प्रतिक लेखनका समय, तिहासिक साधन प्रकाशित हो चक है व हो रहे हैं। स्थान, लेखक श्रीर लिखवाने वालेषी पूर्व परमारा, तब दिगम्बर समाजकी ओर से अद्यावधि एक भी राजाका नाम, इत्यादि अनेक महत्वपूर्ण जानकारीका पट्टावलोमंग्रह,मायिका इतिहास प्रकाशित हुआ देखनमे समावेश होता है कि भारतीय इतिहास,भगोलिक नही श्राता । भाकर एवं अनेकान्तमे प्रकाशित कई जन गच्छ एवं जातियों के इतिवृत्तकै सम्बन्धमे बहुत स्थानोमे मैने दिगम्बर समाजका ध्यान इस महत्वपूर्ण ही महत्वपूर्ण सामग्री कही जा सकती है। कार्य की ओर आकर्षित किया है, आर यह जानकर इन दोनों प्रकारकी प्रतियोमे संख्याकी प्रिसे बड़ी प्रसन्नता हुई कि वीरसेवामन्दिर द्वारा दिगम्बर पहिले प्रकार वाली अपेक्षाकृत कम और दारे प्रकार ग्रन्थसूची प्रकाशित करनेका प्रयत्न चालू हो गया है, की अत्यधिक पाई जाती हैं, क्योकि एक ही ग्रन्थकी पर अभी तक अन्य कई महत पूर्ण कार्य की ओर सैकडो हजारो प्रतिया यत्रतत्र उपलब्ध होती है, जिनमें कोई प्रयत्न प्रारम्भ होनेकी सूचना नहीं मिली, अाशा रचना प्रशस्ति नो मबमें एक समान अर्थात ा क ही है अन्य ऐतिहासिक साधनोक प्रकाशनको ओर भी होती है पर लेन-प्रशान्त भिन्न भिन्न और कभी दिगम्बर विद्वान और समाजके प्रतिष्ठित शीघ्राति- कभी एक ही ग्रन्थमे दो-तीन प्रशस्तियां तक पाई शीघ्र ध्यान देगे।
जाती हैं। श्रतएव इन दोनो प्रकारकी प्रशम्नियोका ऐतिहासिक साधनों में प्रशस्ति-संग्रह का वही मंग्रह तिहामिक मंशोधनमे बहुत ही आवश्यक एवं स्थान है जो कि शिलालेख-संग्रहका है। क्योकि जिस उपयोगी है। प्रकार शिलालेख-संग्रह-द्वारा मन्दिर और मूर्तियोंके श्वेताम्बर समाजके विद्वानोंका ध्यान बहुत अरसे निर्माण-समय, निर्माताका वंश-परिचय, प्रतिष्ठापक से इन दोनों प्रकारके प्रशस्तिसंग्रहकी ओर आकृष्ठ
आचार्यकी गुरुपरम्परा एवं जिस राजाके शामनकाल है, फलतः हजारों प्रशस्तियां प्रकाशमे श्रा चुकी हैं में प्रतिष्ठा हुई उन सब बातोंकी जानकारी होती है। और हजारों अप्रकाशित रूपमें कई विद्वानोके पास उसी प्रकार ग्रन्थ-प्रशस्तिमें भी प्रायः वे सभी बातें संकलित पड़ी हैं। भारतीय एवं पाश्चात्य शोधक गंफित रहती हैं। अतएव शिलालेख-संग्रहके प्रकाशन विद्वानोंने अनेक श्वेताम्बर ज्ञान भण्डारोका निरीक्षण की भांनि पुस्तक-प्रशस्ति-संग्रह भी महत्वपूर्ण कार्य कर उन ग्रन्थ प्रशस्तियोंको अपनी रिपोटों एवं सूचियों
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
५०
अनेकान्त
[ वर्ष ५
कि श्वेताम्बर समाजकी अपेक्षा दिगम्बर समाजका प्रयत्न इस ओर बहुत ही कम है ।
में प्रकाशित किया है । डा० पिटर्सन, वूल्हर, किल्हर्न, भण्डारकर, आदिको रिपोर्ट विविध ग्रन्थ संग्रहालयों को सूचिये, जैन ग्रन्थों की स्वतन्त्र सूचियां जैसे संस्कृतकालेज कलकत्ता, भण्डारकर इन्स्टयूट पूना, जेसलमेर अ. र पाटणके भण्डारोका सूचियां, जन गूर्जर कवियों भाग १-२-३ इस कथन के महत्वपूर्ण निदर्शन हैं । स्वतन्त्र रूप से भा श्वेताम्बर समाजकी ओर से दो प्रशतिसंग्रह छप चुके हैं । जिनमसे देशविरति धर्माधक समाजको आरसे प्रकाशित श्री प्रशन्तिसंग्रहम ताड़पत्र एवं काग़ज़ पर लिखित लग्भग १५०० पुस्तक के पुष्पिका-लेख प्रगट हो चुके है । र सिंधी जैन ग्रन्थमाला मे प्रकाशित मुनिजिनविजय जी सम्पादित 'जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह मे ५४४ महत्त्वपूर्ण प्राचीन पुष्पिकालेख छप चुके है । यह प्रन्थ शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला । मुनिजीका विचार इसका दूसरा भाग भी प्रकाशित करनका है। इन प्रकाशित प्रशस्तियों से कई कई प्रशस्तियाँ तो ४०-५० श्लोको तक की है जो काव्यकी दृष्टिसे भी बड़ी सुन्दर हैं, जिन्हे हम खण्ड काव्य भी कह सकते है। प्रकाशित प्रशस्तियों में हमारी संग्रहीत करीब ३०००, स्वर्गीय बाबू पूर्णचन्दजी नाइटा संग्रहात २०००, श्री विजयेन्द्र सूरिजी संग्रहीत लगभग १०००, श्री हरिसागर सूरि
संग्रहीत ग्रन्थ रचना प्रशस्ति करीब १००, इसी प्रकार अन्य विद्वानोके पास भी हज़ारो प्रशस्तियां संग्रहित है । हम नहीं कह सकते कि दिगम्बर विद्वानांमंसे किस किसने कितनी प्रशस्तियोका संग्रह किया हूँ पर प्रकाशित रूपसे तो हमारे सामने केवल निम्नोक्त ३ ग्रन्थ ही दृष्टिगोचर होते हैं:
१- रायबहादुर होरालाल सम्पादित Catalogue
of Sanskrit and Prakrit manuscripts के पृष्ठ ७१७ से ७६८ में । २- श्री ऐल्क पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन बम्बईकी रिपोर्टों में ।
३ - जैन सिद्धान्त भवन, आरा से प्रकाश्यमान जैन सिद्धान्त भास्कर में |
इससे पाठकोको सहज ही में अनुमान जायगा
अब हम नमूने स्वरूप बोकानेरके श्री जिनचारित्र सूरि ज्ञानभण्डारस्थ दिगम्बर गुणभद्रकृत धनदचरित्रका पुष्पिकालेख नीचे देते हैं जिससे पाठकों को प्रशस्ति संग्रह के महत्त्वका थोडासा आभास मिलजायगा।
धनदचरित्रको लेखन प्रशस्तिः
(१) सम्बत १५२१ वर्षे अश्विनी बदि ६ गुरुवासरे पुस्तक लिखितं बहुद्रव्यपुरे आलमखानराज्यप्रवर्तमाने श्री काष्ठासंघ माथुरान्वये पुष्कर भट्टारक श्री हेमकीर्तिदेवा तत्पट्टे भट्टारक श्री कुमारसेनदेवाः तत्पट्टे भट्टारक श्री हेमचन्द्र देवाः तदाम्न्याये ।
( २ ) अथ संवत्स स्मिन श्रीनृपविक्रमादित्य राज्य मं० १५६० वर्षे मार्गशिर सुदि ११ दिने वृहस्पतिवारे अश्विनी नक्षत्रे परिधजोगे श्री कुरूजांगलदेशे मुलितान मुगल काबली हमायुज्यमाने श्री काष्टसंघे माथुरान्वये पुष्करगणे भट्टारक श्री मलयकीर्ति देवान तत्पट्टे भट्टारक श्री गुणभद्रसूरि देवान तस्य शिष्य मुनि धर्मदास तभ्य आम्नाये अप्रोत वंश भूषण गर्गगोत्र दहीरपुरवा तव्य श्रावकाचार विचारकविधान मा० डालू तत्य भार्या शीलशालिनी गुणमालिनी विनयवागेश्वरी साध्वी जालपही त पुत्र रत्नत्रय धर्म इव ३ सा० रामचन्द्र कर्मचन्द्र तस्य भार्या देइ द्वितीय पु० सा० कर्मचन्द्र त० भा० सा० हाल ३ पुत्र सा० माडणु तम्य भा० शीलो तोयतरंगिणी सा० कल्हणही तस्य पु० द्वौ प्र० राजसभा श्रृंगार हारान सा० हसू तस्य भार्या टाकरही तस्य पु० धर्मानुरक्त श्रावकाचारदक्ष चतुर्विध दानदायक सा० भीखा तम्य भार्या साध्वी बालाही । हांसू द्वि पुत्रो सा० जेटा तस्य भार्या सर्वगुणालंकृत साध्वी लूगाही तम्य पुत्र चिरंजीवि भारथी चन्दु माडण हि पु० सहसू तय भार्या सा० डुगरही एतेषां मध्ये सर्वज्ञ ध्वनिनिर्गत जीवादि षडद्रव्य श्रद्धायें सा० हासू तस्य पुत्रेण इदं धनदचरित्रं अन्य पुमान हस्तात् गृहीय छुडाई मोल लेई दीनी ब्रह्म० धर्मदासस्य प्रदत्तं पठनार्थम् ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थ सूत्रका अन्तःपरीक्षण
द्वितीय लेख
[ लेखक - पं० फुलचन्द्र जैन शास्त्री
30
तत्त्वार्थसूत्र यह नाम बतलाता हूँ कि इसमें तत्त्वार्थ"विषयक सूत्रोका संग्रह किया गया है। जिनागममें सात तर नौ पदार्थ कहे गये हैं। सात तत्त्रों का कथन करते समय पुण्य और पाप स्वतन्त्र नही गिने जाते, वे आम्रत्र और बन्ध में अन्तत हो जाते हैं । तथा नौ पदार्थोका कथन करते समय पुण्य और पाप आम्र और से अलग गिने जाते है । सान तत्त्व र नो पदार्थों की कथनी में यही अन्तर है । दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रचलित ग्रन्थोमे ये दोनों परं पराएं स्वतन्त्ररूपसे अपनाई गई है । पर श्वेताम्बर सम्प्रदायन पदार्थ विषयक परम्परा ही अधिकतर पाई जाती हूँ । सान तत्त्व-विपयक परम्परा तत्त्वार्थाfare सूत्रको छोड़कर अन्यत्र एक तो पाई नही जातो, पाई भी जाती है तो वह बहुत बाद के एक-दो ग्रन्थो में ही पाई जाती है । तालर्य यह कि सात तत्त्व विषयक मान्यताको श्वेताम्बर सम्प्रदायमं तत्त्वार्थसूत्र के बाद भी विशेष महत्त्व नही दिया गया है । सर्वत्र तत्त्व या तत्त्वार्थरूप नो पदार्थों का ही उल्लेख किया जाता हूँ । अतः इस विषयका साधार विचार कर लेना आवश्यक हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्रमे सूत्रकारने विवेचन करनेके लिए जो सात तत्त्व स्वीकार किए है उसपर किस सम्प्रदायको मान्यताका प्रभाव है। इस विचार के लिए निम्न विभाग आवश्यक प्रतीत होते हैं :
(१) सूत्र, भाग्य और उसकी टीकाएँ ।
सूत्र. भाष्य और उसको टोकाएँ तत्त्वार्थसूत्रके पहले अध्याय के चथे सूत्रमें सात तत्त्वोंके नाम गिनाये हैं । इस सूत्रकी सर्वार्थसिद्धिकार और भाष्यकार ने जो व्याख्या की हूँ उसमे अन्तर है । उक्त सूत्रमें सूत्रकारने प्रथमपद बहुवचनान्त और द्वितीय (तत्त्वं ) पद एक वचनान्त रक्खा है। इसका सर्वार्थसिद्धिकारने 'विशेषण विशेष्य भावके रहते हुए भी कामचार देखा जाता है इस अभिप्रायानुसार समर्थन किया है । पर भाष्यकारने जो कुछ लिखा है वह भिन्न ही हैं। वे लिखते है
"जीवा अजीवा आस्रवो वन्यः संवरो निर्जरा मोक्ष इत्येष सतविधोऽर्थस्तत्त्वम् । एतं वा सप्त पदार्थास्तत्त्वानि ।"
विशेषण विशेष्यभावके रहते हुए कामचार (यथेच्छ प्रयोग ) को भाष्यकार भी स्वीकार करते है । भाष्यमे ऐसे अनेक स्थल पाये जाते है जहां द्विवचनाके साथ एकवचनान्त, बहुवचनान्तक साथ एक वचनान्त आदि प्रयोग किये गये है । इसलिए सूत्रमे जो कामचार है उसके निवारण के लिये भाष्यकार ' इत्येष' आदि कहते होगे यह तो कहा नहीं जा सकता है। फिर इस प्रयोगका क्या काररण हूँ यह विचारणीय जाता है।
जहां तक शैलीके सम्बन्ध में विचार किया जाता है तो इसी प्रकार के अन्य सूत्रोपर लिखे गये भाष्यको देखने यही प्रतात होता है कि उनके प्रकृत लेखनसे शैलीका कोई सम्बन्ध नही है । उदाहरण के लिए
(२) सात तत्त्व और नौ पदार्थों के विषयमे दोनों पहले अध्यायका ध्वां सूत्र ही ले लीजिये । वहां सम्प्रदायों के आगम-प्रमाण । भाष्यकार 'एतत्पंचविधं ज्ञानम्' इतना ही कहकर आगे
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
बढ़ गए हैं। वहाँ 'एताति वा पंच ज्ञानानि' आदि इस मत्रका जो भाप्य माना है वह इसमे पहलेके सूत्र विकल्पान्तर नही सुझाया। भाप्यक टीकाकारोंने इस 'शुभः पुण्यस्य' का ही है इसका नहीं। उसम तो का एक समर्थन किया है। सिरसेन गणि लिखते हैं- पुण्यप्रकृतियोकी ही सूचना दी गई है इस लिये उसे
"सामान्येन विवक्षिता सतो सैकत्वमिव विभर्ति. चाथे सत्रका भाग्य कहना अमंगत है। तथा सारे मुख्यया तु कल्पनया वस्तुधमेवान प्रतिवस्तु भत्तव्या तत्त्वाथमत्रमें पृव मत्रमे जो विषय कहा गया है उससे भवति । तदा तु बहुवचनेनैव भवितव्यमेवेति ।" शेष रहे विपयका प्रतिपादन यदि पारिशेपन्यायमे हो
अर्थात-जीवादि अर्थो में रहने वाली स्वसत्ता जाता है तो भाग्यकार उसके लिये स्वतंत्र सूत्रकी जब सामान्यरूपसे विवक्षित होती हैं तब वह एक आवश्यकता नही मानते है जैसा कि उनकी क्थनश ली कही जाती है और जब मुख्य कल्पनासे विचार करते से मालूम पड़ता है। हरिभठमरिने अपनी टीकामें हैं तो वह वस्तुका धर्म होनेके कारण प्रत्येक वसुमें 'अशुभः पापस्य' इसे कई स्थान नही दिया अंर अलग अलग हो जाती है। अतः उस समय 'तत्त्व' इसके भाग्यको पूर्व स्त्रका ही भाष्य माना है । अतः पद बहुबचन ही होना चाहिये।
यही कहा जा सकता है कि यह भाज्यसम्मत मत्र नहीं यह तो स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसत्र में तत्त्वोंका प्रति- है। वह कब और कैसे जुड़ गया यह प्रश्न विचारण य पादन सामान्यरूपमे विवक्षित नहीं है, तभी तो उनके है जिस पर आगे प्रकाश डाला गया है। सात नाम गिनाये । पर सिद्धसेनगरिने भाप्यके उक्त हरिभद्रग्नेि 'शेपं पापमिति' इम प्रकार जो अंशका जो अभिप्राय निकाला है तदनुमार मूलसूत्रमें चौथामत्र माना है वह सिद्धम्न गएि की नीकामें तत्त्वपद एक वचनान्त अर बहुवचनान्त इसप्रकार भाग्यका अंश माना गया है । इससे इतना तो नि त दोनो प्रकारसे होना चाहिये । भाष्यकारक उक्त हो जाता है कि यह पाट भा-यसम्मत है। केवल भाज्यांशका यदि यही अभिप्राय मान लिया जाय तो विचारणीय यह रह जाता है कि यह सत्र है या नही। कहना होगा कि मूल सूत्रकार श्रर भाष्यकार ये एक पर इसका विचार करते समय हमें अाटचे अध्याय के व्यक्ति नहीं है, किन्तु भिन्न भिन्न हैं। स्वयं सूत्रकार 'श्रतोऽन्यत्पापमिति' इस पाठको भी सामने रख इस प्रकार प्रयत्न करेगा, यह विचारणीय हो जाता है। लेना आवश्यक प्रतीत होता है, क्योंकि, भाष्यकार ___ इसीप्रकार छठे अध्यायके श्वेताम्बर-सम्मत सत्र- यहां जिस विषयकी सूचना ‘शेष पापमिति' पाट द्वारा पाठमें पुण्य पार पापविषयक दो सूत्र मने गये हैं. कर रहे हैं उसी विषयकी मचना वे बाट अध्यायमें जिनको क्रमसंख्या ३ ओर ४ है। पर पापविषयक 'श्रतोऽन्यत्पापमिति' पाठ द्वारा भी कर रहे हैं। सूत्रके विपयमे मतभेद है। सिद्धमेनगणिकी टीका- इसे सत्र मानने और न माननेके विषयमे तो नुसार तो 'अशुभः पापस्य' यह चोथा सूत्र होता है इतना ही कहा जा सकता है कि सर्वत्र भाप्यकारने और हरिभद्रसूरिकी टीकानुमार 'शेषं पापमिति' यह जो नीति अपनाई है तदनुसार यह भाष्यांश ही हो ना चौथा सूत्र होता है। इन दोनों सूत्रोंमेंसे किसी भी चाहिये । यदि यह स्वतंत्र सत्र माना जाय तो आटवें सूत्रपर भाष्य नही पाया जाता है, यह निश्चयपूर्वक अध्यायमें 'श्रतोऽन्यत्पापम्' को सूत्ररूपसे स्वीकार कहा जा सकता है, इस लिये यह निर्णय करना कटिन नहीं करनेका कोई सबल प्रमाण नही पाया जाता है। हो जाता है कि भाग्यकारने इनमेंसे किसे सत्ररूपसे मान्य न पाये जानेकी युक्ति दोनों सत्रोके लिये स्वीकार किया होगा । इस समय जो प्रमाण पाये समान है। जाते हैं उनके अनुमार विचार करनेसे तो यही प्रतीत सर्वार्थसिद्धिमान्य मत्रपाठ मूल है या नहीं इस होता है कि 'अशुभः पापस्य' यह भाष्यमान्यस्त्र विषयपर तो इस लेखमालाके अनन्तर फिर कभी नहीं है, क्योंकि, सिद्धसेनगणिने 'अशुभः पापस्य' प्रकाश डाला जायगा। पर दूसरे अध्यायके अन्तिम
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
तत्त्वाथसूत्रका अन्तःपरीक्षण
सूत्रकी वृत्तिमें पाठान्तरकी मृचना, चौथे अध्यायके निर्णय करनेमें सहायता मिले कि तत्त्वार्थसूत्रपर किस २२वे सूत्रकी वृत्तिम 'अयमर्थः सूत्रतः कथं गम्यते' सम्प्रदायको मान्यताको गहरी छाप है:इत्यादि ऐसे म्थल है, जिनसे भी यह अनुमान किया भगवान कुन्दकुन्द लिखते हैंजा सकता है कि सर्वार्थसिद्धिवृति मूल सूत्रोक दबत्थिकायप्पण तञ्चपयत्थेसु सत्तणवएसु । ६४ आधारसे लिखी गई होगी। इसलिये सर्वार्थसिद्धि
-रयणसार निबद्ध 'अशुभः पापस्य' यह मत्रांश सर्वार्थसिद्धिकार अर्थ-द्रव्य छह हैं, अस्तिकाय पांच है, तत्त्व का न होकर मूल सूत्रकारका ही रहा होगा, यह कहा सात है श्रार पदार्थ नी हैं। जा सकता है। पर एक तो भाग्यकारने इमे स्वाकार छदव्य णव पयत्था पंचत्थी सत्त तच्च णिट्टिा । हो न किया हागा, यदि स्वीकार भी किया होगा तो सद्दहइ ताण रूपं सो सद्दिट्ठी मुणेयव्यो ।।२०।। वह भाज्यके अवयवरूपसे ही स्वीकार क्यिा होगा। अथ-द्रव्य छह हैं, पदाथ नो हैं, अस्तिकाय पांच इमे मिलाकर यदि समूचा भाव्य पढ़ा जाता है तो हैं श्रार तत्त्व सात हैं। इनके स्वरूपका जो श्रद्धान उसका स्वरूप निम्नप्रकार होता है। जो कि 'शुभः करता है उसे सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये। पुण्यस्या शुभः पापस्य' को एक सत्र मान लेने पर सव्वविरो वि भावहि णव य पयत्थाई सत्त तच्चाई। अपने रूपमे परिपूर्ण कहा जा सकता है। यथा- जीवसमासाई मुणी चउदस गुणगणणामाई ।।६।। 'शुभो योगः पुण्यस्य श्रावो भवनि अशुभः
-भावप्राभृत पापस्य । तत्रमद्वेद्यादि पुण्यं वन्यते । शेपंपापमिति।' अर्थ-सर्वविरत मुनि भी नापदार्थ, साततत्त्व,
इससे दो अनुमान किये जा सकते है। एक तो चैदह जोवसमास और चौदह गुणस्थानोका चिन्तवन श्वेताम्बर परंपरामे 'अशभः पापस्य' यह सत्र कसे करे। बना, इस पर भी इससे प्रकाश पड़ जाता है। मिद्ध- श्वेताम्बर परम्परामें सात तत्त्वोंका उल्लेख कहीं सेन गणिके सामने कदाचित यह प्रश्न रहा हो कि नहीं पाया जाता है। स्वयं श्रद्वेय पं. सुखलालजी 'शुभः पुण्यस्य' इस सत्रकी व्याख्यारूपसे भाष्यमें तत्त्वार्थसूत्रकी भूमिकामें लिरते हैं:इमे कैसे स्थान दिया जा सकता है इस लिये उन्होने इस मीमांसा में भगवानने नवतत्त्वोंको रखकर इसे दमरा सत्र मान लिया हो । दूसरे स्वयं भाष्यकार इनपर की जाने वाली अचल श्रद्धाको जैनत्वक प्राथसंदेहास्पद हों कि इसे भाष्यमें स्थान दिया जाय या मिक शर्त के रूप वर्णन किया है। त्यागी या गृहस्थ पारिशेपन्यायकी मरगीके अनुसार अनुक्तके समुच्चयसे कोई भी महावीर के मार्गका अनुयायी तभी माना जा काम निकाला जाय। इस द्विधावृत्तिके कारण किसी सकता है जबकि उसने चाहे इन नवतत्त्वोंका यथेष्ट पुस्तकमे वह जुड़ गया हो और किसीमें न जुड़ा हो। ज्ञान प्राप्त न किया हो, तो भी इनके उपर यह श्रद्धा यदि यह दूसरा अनुमान ठीक हो तो यह विवादका रखता ही हो; अर्थात जिन-कथित ये तत्त्व ही सत्य सारा मामला समाप्त हो जाता है। तथा इससे यह हैं ऐसी रुचि-प्रतीति वाला हो। इस कारणसे जैननिश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि सूत्रकार और दर्शनमें नव तत्त्व जितना दृम्रे किसीका महत्व नहीं भाष्यकार ये अलग अलग दो व्यक्ति होने चाहिये। है । ऐसी वस्तुस्थिति के कारण ही वा० उमास्वातिने सात तत्त्व और नौ पदार्थोके विषयमें दोनों अपने प्रस्तुत शाम्रके विपयरूपसे इन नवतत्त्वोंको
पमंद किया।"....... संप्रदायोंके आगमोंके प्रमाण पंडितजीके इस उल्लेखमे ही स्पष्ट हो जाता है कि अब हम दोनों सम्प्रदायके आगमोंके प्रमाण श्वेताम्बर परंपरामें नोपदार्थों को ही अपनाया गया है उपस्थित किये देते हैं, जिससे पाटकोंको इस विषयके मातको नहीं। आगम ग्रन्थों में भी नौपदार्थों का ही
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
वर्ष५
उल्लेख पाया जाता है। स्थानगंग अध्ययन में छटे अध्यायमें आये हए 'शे पापमिति' और आठवें लिग्बा है:
अध्याय में आये हुआ 'अतोऽन्यत्पापमिति' इन दोनों ___ "नव सम्भावपयत्था पएणत्ते । तं जहा-जीवा वाक्योंमें जो रचना-वैचित्र्य पाया जाता है वह भी अजीवा पुरणं पावो श्रासयो संघरो निजरा बंधो ध्यान देने योग्य है। मोक्खो ।" सूत्र ६६५।
इस प्रकार इस लेग्यमे एक तो पुण्य-पाप विषयक इसका अर्थ स्पष्ट है । धर्मसंग्रह, कर्मग्रन्थ आदिमे ,
सूत्रों में श्रर उनके भाष्यमे जो मतभेद पाया जाता इसी प्रकारके भार भो प्रमाण पाये जाते हैं, जो यहां
है :सका क्या कारण रहा होगा इमपर तथा मात नहीं दिये हैं। यहाँ 'जावा अजावा यदाना पद बहु- तत्सविषयक मान्यता दिगम्बर सम्प्रदायकीही विशेषता वचनान्त पाये जाते हैं। श्रास्रवपदके सम्बन्धमें मत- ।
है, इमपर प्रकाश डाला गया है। आशा है विद्वान तिहामिक दृष्टि से भाप्यम स्थानागका यह पाठक इसमे मचित लाभ उठावगे। अनुकरण ध्यान देने योग्य है । तथा तत्त्वार्थ भाज्यक
हृदयद्रावक दो चित्र
[चित्रलर. क-श्री बा० महावारप्रसाद जैन, बी० ए०]
[१] बिटियासे...
आई है । चुपचाप उपलोकी आगफी भाँति अन्दर ही
अन्दर मुलगना तुमने हो सीग्वा है ! जीवन प्रार बिटिया ! नीचको र म्लानमुख किये क्यों
मृत्युक प्रश्रपर भी तुम अोठ नहीं हिला सकती । उफ ! बैठी हो ?
कितनो विवशता है तुम्हारी ! रह रहकर गर्म श्वांमसे तुम्हारे नथुने फूल उटते
"बाबुल हम ता ग्वू टंकी गइयाँ, हैं ! बिना कंघो किये बाल बार बार तुम्हारा आँखा
जिधर हाका हक जाय रे! सुन बाबुल मोरे।" पर आ रहे हैं ! बर्तन माँजकर अभी तुमने अपने
उसदिन तुम अपनहींम गुनगुना रही थी । ठीक हाथ भी नही धोये?
है परन्तु गाय रस्मी तुड़ाकर भागनकी चेष्टा तो अरे ! तुम तो रोने लगी !!
करती है। किन्तु कितनी निश्चेष्ट हो तुम! __ क्या मेरे इस सीधे-साद प्रश्रमें कोई शल गड़ा जानता है कि आज इस प्रकार अकेले कमरमें था, जिसने तुम्हारे कमल हृदयको मन्तिक पीड़ासे लाल-लाल आंखे सुजाये तुम क्यो रही हो ! पिता भर दिया ? "नही, उटकर भाग तो न सकोगी! मरे जीने तुम्हारी माँ का सारा जेवर-नथ और अंगूठी प्रश्नका उत्तर
तफ-बन्धक रख दिय । एक एक करके जेवर देते मैं समझ गया : उत्तर भी तो तुम नहीं दे सकती। समय तुम्हारी माँ चुक्का फाड़कर रो उठी थी बार यही तो तुम्हारी परिस्थितिकी सबसे बड़ी विपमता है। तुम्हारे पिता ने लीट कर कहा था-"यदि यह कम्बख्त "शर्मको बात" ही जो टहरी।
पैदा न हुई होती तो यह दिन काहे को देखना पड़ता! सारी दुनियाफी शर्म मानों तुम्हारे ही हिस्से में संयमकी असीम क्षमता रखते हुए भी तुम यह
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
हृदय-द्रावक दो चित्र
नहीं कह सकी कि ऐमी शादी मुझे नहीं चाहिए ! इस में खड़ा है। शादी की चिता मे अपनी प्यारो मॉक सारे जेवर एक वह प्रतीक्षा भी अब अधिक लम्बी नहीं। लड़की एक कर होम जाते मै नही देख सकूगी ! जबकि वालोने तो तुम्हारे पिताजोको बहुत दिन पहलेसे ही माता-पिता संच रहे होगे-"लड़की सयानो होगई, परेशान कर रखा है ! अ.र अब तो तुमने बी०१० सखियोंसे शादोको बाते करती होगी !” तुमने उनकी पास भा कर लिया ! अब क्या दर ह ? बस इतना धारणाको मुटलानेकाछ भी प्रयत्न नही किया ! ऐसा हो न कि तुम्हारे पिताजी चाहते है कि शादी होते ही भीपण श्राघात चुपचाप सहलनको क्षमता रखने वालो नव-वधूको लेकर विलायत जानेका खच पहलस ही भारतोय हिन्दू-बालाम आजन्म ब्रह्मचारिणी रहकर लड़कीवाला दे दे जोवन-यापन करनेको शक्ति नहीं है ! भला कौन कह दसियो अभागी युवनियो के पिता प्रा लिये सकता है?
हुए तुम्हारे पिताजाक द्वारपर आकर निराश हो ल.ट ___मर उपरको स्टाअो बाल ! अब वह समय गया। गये। परन्तु तुम्हे इमस क्या? तुम्हारे लिए दिन धनक लालुपो इन “पुत्रों के भाग्यवान पिताश्री" को भर आमोद-प्रमोदक कार्य कानसे कम है ? जा इन जरा बनाओ तो मही कि अभागी "पुत्रियो के भाग्य- व्यर्थकी बातोंमे मराज-पच्ची करते फिरो ! सुबह हीन पिता" भी इसा संसारमं रहते है !
स्नानकर, चाय पो, थोड़ो देर नाविल पर नेम ही अधिक की आवश्यकता नहीं । बस, एक ही-मरो कालिजका समय हो जाता है। लाटते ही ब्याटकर बेटी, बस तुम ह। कापी हो। रग-कुण्डम चण्डीको रेकट हाथमे ले मित्रों के माथ टेनिम खलने जाना नाई हुँकार करती हुई गिरने वाली रक वीर-बाला अ.र अपने क्लवकी नई मम्पर मिमक श्राग्रह पर चुपचाप सिमक सम्मककर घुलने वाली निरह (भला उनका श्राग्रह कोई फैसे बाल सकता है !) कन्याओस अधिक मूल्यवान है !
प्रायः प्रतिदिन सिनेमा जाना तुमको पड़ता है। और उठो ! जो भारा मत कर
न जाने कितनी मंलग्नता है तुम्हारी ?
उम ओर देखने की ताननिकमीपुर नतुमको नहीं मिलती ? हां, उसी अंर जहां म्लान-मुम्बी कुम्हलाये
कमलमी तुम्हारी बड़ी बहिन अपनी श्रायुका एक-क मदान्ध युवक ! इस प्रकार विलायती सेन्ट लगे दिन बढ़ते देखकर सिहर उठती है। एक दिन परदे रेशमी रुमालका हवाम उडालते कहाँ जा रहे हो? के पीछे खड़ो एक लड़को-वालपे पिताजीको मांगांका
तुम्हारे मुखपर विजयोल्लासकी भाभा है, प्रॉखोंमें विशद विवेचन मन रही थी। पिताजी कह रहे थेचमक हं श्रर धनियाम गर्मरक्त आनन्दका संचार "मेरे तो एक ही ल का है । इमीकी शादीम ले-देकर कर रहा है ! पॉव भी धरतीपर पड़ते मालूम नही मनकी निकालना चाहता है। मोटरकार तो मै न होते! ..
लेता परन्तु विगतरीके मब आदमियोको मालूम हो आग्विर क्यो न हो ? धनी मॉ-बापके इकलौते गया है कि कार लेकर ही मै अपने लड़की शादी लड़क! सुन्दर सुगठित देह · 'अर तिसपर अभी करूंगा। अतः अब न लेकर मैं अपनी बेइज्जती नहीं बिन ब्याहे !!
कराना चाहता । बम, जनाव । अधिक बात में नहीं भविष्य की प्राची में भाग्योदयके सुन्दर रंग देख करना चाहता। यदि श्रापको स्वीकार हो तो..." कर तुम्हारा हृदय पुलकित हो उठता है। लगता है इतना ही सुन पाई थी कि तुमने पहुंचकर उसको मानों जगतके सकल पदार्थ, जो भाग्य-हीन नर नहीं लताड़ दिया था-"यहाँ क्या सुन रही है ? मवेरे पा सकेंगे, भविष्य अपने हाथों में लिए तुम्हारी प्रतीता जो दिया था उस कोटमे अभी तक बटन नही टॉके
युवकम..
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
५६
श्रनेकान्त
गये ।" और वह चुपचाप सुई डोरा लेकर बैठ गई । थींउनको तुमने नही देखा जिन्हें तुम्हारी पीठ फिरते ही उसने धोतीके छोरसे पोंछ
डाला !
उन नन्हे-नन्हे प्रलयंकारी तूफान छुपे हुए थे । हृदयमें ठायें मारती हुई उद्दाम तरंगों को वे क्षुद्र विभूतियां थीं । वेदना उस अमीम अथाह सागरका भयङ्कर गर्जन तुम्हें सुनाई नही पड़ा ?
[ वर्ष ५
तुम्हे तो तनिकमी भी श्राशङ्का न हुई होगी कि उन नन्ह - नन्हे अश्रुकणोंमे तुम्हारे सारे मान-मर्यादा र उच्चपदको रसातल तक बहा लेजानेकी शक्ति अन्तर्हित है ?
देखो ! अब भी अांखे खोल लो ! समय है ! नही तो ?.....
परिणामकी कल्पना मात्र से रोगटे खड़े होजाते हैं !!
भगवान महावीर और उनका हिंसा सिद्धान्त
( लेखक - श्री पं० दरवारीलाल जैन, कोठिया न्यायाचार्य )
जै
न धर्म के अन्तिम तीर्थंकर-धर्मप्रवर्तक भगवान् महावीरका जन्म पच्चीमसौ चालीस वर्ष पूर्व - वि० सं० ५४२ और ईसा सं० ५६८ वर्ष पहिले भारतवर्ष के विहार प्रान्तके कुण्डलपुर नगर में नृप सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीके यहाँ चैत्र शुद्धा १३ सोमवारको हुआ था। नृप सिद्धार्थ उस समय के श्रग्रगण्य राजाओं में प्रमुख एवं गण्यमान नरेश थे । ये ज्ञातिवंश क्षत्रिय थे । श्रेणिक - बिम्बसार के साथ इनका साडू भाईंका सम्बन्ध था । नृप सिद्वार्थका राज्य शासन श्रहिंसाकी भित्ति पर स्थित होने के कारण पूर्णसमृद्ध और श्रादर्श माना जाता था । उनकी राजनीति 'सया शिवा सुन्दरा' थी । श्रतएव उनके राज्यमे कोई भी प्रजाजन दुःखी या असन्तुष्ट नही था । भगवान् महावीर अपने सुयोग्य पिताके सरक्षण में एक राजकुमारकी भाँति लालित और पालित किये गये। 'मोती के जवाहर' जैसे लोकपूत, लोकप्रख्यात, गुणाग्रणी, कर्मण्य और अहिंसा के पूर्ण प्रतिष्ठापक हुये। जो महापुरुष होनेवाले होते हैं वे जन्मने ही स्वभावतः परहितैकतान होते हैं और अनेक विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं । भगवान् महावीर भी ऐसे ही थे । वे घरमें ३० वर्ष ही रहे। उन्होंने न शादी की और न राज्य किया । संसारकी क्षणिकता और जीवनकी
****ॐ
अल्पता देखकर तथा श्रमकल्याण और पर कल्याणमे प्रेरित होकर संमारसे उदासीन होगये । और दि० जैन साधुकी दीक्षा लेकर कठोर तप तपने लगे । तीव्र श्रध्यवसाय और कठोर तपश्चर्या के प्रभाव से १२ वर्ष बाद उन्हें केवल ज्ञान - पूर्ण ज्ञान होगया । श्रब वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहे जाने लगे। इन्द्रों, देव, मनुष्यों, विद्याधरोंने भगवान्का केवलज्ञानो सव मनाया।
धर्मोपदेश के लिये एक विशाल सभा - समवशरणकं । रचना की गई। सबको उनका समान रूपसे धर्मका उपदेश प्राप्त हुआ। जगह २ भ्रमण करके अनेक जीवोंको सन्मार्ग पर लगाया । उनका उपदेश अहिंसा, स्याद्वाद, कर्मवाद, श्रमवाद श्रादि विषयोंपर हुआ करता था । उनके इस उपदेशको 'दिव्यध्वनि' के नामसे कहा जाता था। उनकी यह दिव्यध्वनि सुबह, दोपहर, शाम, अर्धरात्रि इन चार समयो में छह छह घड़ी तक विरा करती थी । इनका अनेक विद्याश्रमं निपुण महापंडित गौतम गोत्री ब्राह्मण कुलापन्न इन्द्रभूति प्रथम गणधर — मुख्य श्रोता था । उन्होंने भगवान्की वाणीको द्वादशाङ्ग श्रुतनिबद्ध किया था । यद्यपि भगवान्की वह द्वादशाङ्ग वाणी हमें आज पूर्णतः प्राप्त नहीं है तथापि अंश प्रत्यंश रूप में वह हमें प्राप्त है ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
भगवान महावीर पर उनका अहिंसा सिद्धान्त
। यों तो जैन धर्म अहिंसाप्रधान है ही भगवान् महावीर हो। जिस प्राधरण या विचारमें अहिंसा नहीं सधती है के पहिले २३ तीर्थकरोने भी हिसाका विश्वको संदेश वह श्राचार सदाचार और विचार सद्विचार नहीं है। दिया। किन्तु भगवान् महावीर के समयमें याज्ञिक हिंसाका भगवान महावीरका संदेश यही था कि जीवनका लक्ष्य अधिक जोर था। वैदिक संस्कृति याज्ञिक हिसायो विधेय शान्ति है और शान्तिका उपाय अहिंसा है, अत: जीवनके बताकर उसका पोषण वैदिको हिसा हिंसा न भवति' लय और उसके साधनको अपनी प्रत्येक दशामें याद कर रही थी। इस लिये भगवान् महावीरको उसके नुकायले रकम्वो। श्राज महारमा गांधी भी भगवान महावीरकी में अहिंसाका सफल प्रचार करना पडा। मह. मा बुद्धने भी अहिंसाके ही पदानुगामी हैं। इसी लिये वे भान हो रहे अहिंसाका प्रचार किया था और याजिक हिंसाका विरोध अनावश्यक एवं अनुचित स्वार्थमय युद्धोंका भी विरोध किया था। किन्तु उन्होंने अपने शिष्योंकी कठिनाइयोको कर रहे हैं। महसूस कर माधु-अहिमाके क्षेत्रमें काफी -ट दे दी थी। जो लोग यह कहते हैं कि 'विषस्य विषमौषधम्"म मभक्षण तक कालेने के लिये उन्होंने अपने शिष्योको विरकी दवा विष ही है-उनका यह कहना सार्वत्रिक और प्राज्ञा दे दी थी। परिणाम यह निकला कि उस समय सार्वकालिक नही है। कुछ समय के लिये भले ही हिंसाजन्य महा'मा बुद्ध के अहिंसाप्रचारकी अपेक्षा भगवान् महावीरका परिणाम श्ररछे निकल पावें। पिछले महायुद्ध के बाद अल्पअहिंसापचार ठोस प्रभावक एवं व्यापक हुना। उन्होने कालिक शान्तिका ही दुनियाने अनुभव किया है। जानकार अहिंसाकी अविछिन्न एक धारा होते हुये भी साधु-अहिंसा लोका तो यही कहना है कि पिछला महायुद्ध इस युन्द्र
और गृहस्थ-अहिंसाके भेदसे उसके पालकोको उपदेश का सूत्रपात था और वह युद्ध श्रागेके युद्धका सूत्रपात दिया. साधु-अहिसाके पालक साधुओं को उनकी कठिनाइयों होगा। क्रोधर्म क्रोध बटता ही है पर क्षमाम्मे उसकी ठीक पर विजय प्राप्त करने के लिये ही उन्हें श्रादेशित किया और और सच्ची शाते होती है। निष्कर्ष यह निकला कि दुनिया विविध पीपहों-कठिनाइयोंगे सहन करनेका मार्ग में जितनी अधिक अहिसाकी प्रतिष्ठा होगी उतनी ही अधिक मुझाय।। सर्वमंगविरत साधुके लिये वोई अपवाद ही शांति होगी। नहीं हो सकता। जो श्रापड़े उने समता भावी के साथ सहन व्यावहारिक, सामाजिक, राजनैतिक . श्राध्यामिक करना ही उसका एकमात्र कर्तव्य है। भगवान् महावीरने सभी जीवनाम और सभी क्षेत्रों में हिसाका उपयोग और साधु अहिंसाके बारे में साफ कहा था कि उनके लिये मोक्ष प्रयोग करना अव्यवहार्य नहीं है। यह तो उपयोक्ता और प्रात करने को साधुपद अन्तिम सोरान है उप अधिकाधिक प्रयोकाके मनोभावोंपर निर्भर है । भगवान् महावीरने निविकार एवं निलित होना चाहिये तथा सम्पूर्ण तरहकी अहिसाके पालनको रसके पालकके मनोभावापर निर्भर कठिनायोको झेलनेकी पूर्ण सामर्थ्यसे युक्त । अतः साधु अहि. बताया है। यही कारण है कि जैन दृष्टिकी अहिंसाका पालन साके पालने में कोई अपवाद यान्ट नहीं है। इस अहिंसा सर्वमंगरत गृहस्थ और सर्वसंगविग्त साधु दोनों कर सकते की पूर्णताके लिये ही सग्य, श्रचोर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह- हैं और दोनों ही उसके प्रशस्य परिणामोको प्राप्त कर सकते त्याग महावनों-अपवादहीन वतीको दिगम्बर साधु धाचरण हैं। श्रतएव अहिंसाकी एक अविच्छिन्न धारा होते हुये भी करते हैं।
पालकों के मनोभावोंकी अपेक्षा उसके अांशिक भेद हो जाते हां, गृहस्थों के लिये दिया गया उनका अहिंसाका हैं। हिंसाके न्यागमेंसे अहिंसा प्रकट होती है। गृहस्थ जब उपदेश सब दशायों और सब परिस्थितियों में पाला हिंसाको छोड़ने के लिये यनशील होता है तब वह समस्त जा सकता है। अहिंसक पाचरण करते हुये हमेशा गृहस्थ हिंसाको चार भागोंमें बांट लेता है:-१ साकल्पिकीकी भी रष्टि अहिंसाकी भोर ही रहनी चाहिये। अनीति- इरादापूर्वक होने वाली हिसा। २-प्रारंभी-रोटी बनाना अन्यायकी उपशान्ति न्याय-नीति के द्वारा ही करें । जैनधर्म धादिमे उपजने वाली हिंसा। ३-उद्योगी कृषि प्रादिसे का ऐसा कोई प्राचार-विचार नहीं है जो अहिंसामूलक न उत्पन्न होनेवाली हिंसा। ४-विरोधी-विरोधसे अर्थात्
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
अनेकान्त
[ वर्ष
नियाज प्रात्मरक्षाके लिये दुश्मनके निमित्ससे होने वाली त्याग दोनों धियों में है। अब रही अन्य तीन प्रकारको हिंसा । इन चार तरहकी हिंसामा पहिले प्रकारकी रथात् हिंसायं. सो दव्यत: प्रारम्भी, उद्योगी हिंसाका निषेध इरादा पूर्वक की जाने वाली हिंसाका तो गृहस्थ द्रव्य और महात्मागांधीजी गृहस्थके लिए कभी नहीं बताते हैं। प्रारंभ भाव दोनों तरहसे त्याग करता है, अन्य हिंसाका त्याग और उद्योग नो गृहस्थ के लिए अनिवार्य और श्रावश्यक भाषसे करता है. क्यों कि द्रव्यतः अन्य हिसाओंको करते बताते हैं स्वयं महात्मागांधी अपने हाथमे रसोई बनाना हुये भी उसकी भावदृष्टि हिंसा करनेकी और नही रहती है सूत कातना प्रादिको पसंद करते हैं। एक बाहेनके शील बल्कि आत्मपोषण और प्रारमरक्षणकी ओर रहती है। रक्षाके प्रश्नपरं गांधीजी कहते हैं कि जिस किसी भी प्रकार यही कारण है कि वह अन्य तीन प्रकारको हिंसानोंको से बने-दांतासे नाखूनमे अपनी रक्षा करनी चाहिये भले ही करता हुश्रा भी पापपङ्कसे कम लिप्त होता है। सम्राट भरत विरोधीका घात हो जाय । वर्तमान युद्ध में उनकी सम्मति छह खण्ड पृथिवीके स्वामी होते हुए भी उसको स्यागते ही न होनेका प्राशय यह है कि ये युद्ध श्रावश्यक और अनुअन्स मुहूर्त में केवलज्ञानी बन गये थे। शर्त यही है कि चित स्वार्थमय होरहे हैं निव्याज श्रामरक्षा का भाव नहीं अहिंसाके पालक गृहस्थकी उपक्त भावष्टि होना चाहिये। हैं । ऐसे युद्धसि तो धागे के लिये उत्तेजना ही मिलेगी। ___लोग कहते हैं कि महाप्मा गांधी भगवान महावीरसे इस तरह हम देखते हैं कि गांधीजीकी दृष्टि भगवान् हिंसाके त्याग-अहिंसामे आगे बढ़ गये हैं। भगवान् महा- महावीरकी दृष्टिकी ही अनुगामी है। यद्यपि गांधीजीकी वीरने तो गृहस्थको संकल्पी हिंसाका ही त्याग बताया था अहिमादृष्टि मानवों तक ही सीमित है। जबकि भगवान पर महामा गांधी सभी हिसाओंका त्याग बताते हैं और महावीरकी दृष्टि समस्त प्राणियों में समन्याप्त है। यही सब क्षेत्रों में पूर्ण अहिंसाका प्रयोग कर रहे हैं। हम समझते उनका अहिंसा-सिद्धान्त है। हमारा कर्शव्य है कि उनके हैं कि अगर भगवान् महावीरकी दृष्टि के साथ गांधीजीकी इस विश्वोपकारक सिद्धान्त को दुनिया में फैला दें और दृष्टिका सूक्ष्म पर्यालोचन किया होता तो यह भेद नज़र सुख-शांतिका साम्राज्य कायम कर दें। तभी सच्ची जयन्ती नहीं पाता । यह तो निर्विवाद है कि संकल्पी हिंसाका कहलायेगी। इतिशम् ।
पन्थीसे
पन्थी ! पथको भूल न जाना ! चलते चलते यदि थक जाओ,
श्रामपाम बन-बगिया पात्रो, मायाके मोहक मुरमुटम, कही बैठ कर टूल न जाना :
पन्थी ! पथको भूल न जाना! निचर जगकी रीत निगली,
स्वार्थभरोंकी प्रोत निराली, मीत समझ कर फूल न जाना फूल ! स्वयं बन धूल न जाना!
पन्थी ! पथको भूल न जाना ! दूर देश, बालक मन तेरा,
कहीं अंधेरा कहीं उजेरा, कहीं निराशाके झोंकोम, जीवनको मत शूल बनाना !
पन्थी ! पथको भूल न जाना !
*
(ले० कुसुम जैन)
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
[ मूललेखक - प्र० ए० चक्रवर्ती MA 1 ES.]
( अनुवादक - पं० सुमेरचंद जैन 'दिवाकर' न्यायतीथ, शाली, B. A. L. L. B )
( चतुर्थ वर्षकी गत १२ वीं किरणसे धागे)
मेरुमंदिरपुरागम् - यह मेरु मंदिर पुराणं तमिल भाषाका एक महान् ग्रन्थ है, यद्यपि इसकी काव्योंकी सूची में गणना नहीं की गई है। यह साहित्यिक शैलीकी उत्तमताकी दृष्टि तामिल भाषा के श्रेष्टतम काव्यसाहित्य के मध्श है । यह मेरु और मंदिर सम्बन्धी पौराणिक कथा के श्राधारपर बनाया गया है। इस क्थाका वर्णन महापुराण में श्राया है । और इसे विमल तीर्थकरके समयकी घटना बतलाया है । इस मेरुमंदिरपुराण के रचयिता वे ही वामन मुनि हैंजो कि नीलकेशीके टीकाकार हैं। वामन मुनि बुक्कराय के समय में १४ वी सदीके लगभग विद्यमान थे । इस ग्रन्थमे भी जैनधर्मके महत्वपूर्ण सिद्धान्तोंके प्रतिपादनके लिये इस कथाका अवलंबन लिया गया है।
vas
इस कथाका सम्बन्ध विदेह क्षेत्रकी गंधमालिनी नगरी की राजधानी बीतशोका पुरीके साथ है। इस देशके शासक नरेशका नाम वैजयन्त था, जिसकी रानी सर्वश्री थी । इस महारानी से उसके संजयंत और जयंत नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। राज्यका उत्तराधिकारी संजयन्त नामके ज्येष्ठ पुत्रका विवाह एक राजकुमारीसे हुआ था, जिससे एक पुत्र हुधा था जो अपने पितामहके नामानुसार वैजयन्त कहलाता था । वृद्ध महाराजाने जिनके सदृश नाम वाला पौत्र था, यह उचित समा कि अपने पुत्रके लिये राज्यका परित्याग करदे, ताकि तापसाश्रममें प्रवेश करके योगीका जीवन बितावें । किन्तु उनके दोनों पुत्रों ने राजकीय वैभवकी धोर तनिक भी इच्छा नहीं व्यक्त की, अतः उन्होंने राज्यका परियाग करके पिताका अनुकरण करमेकी श्रीकांता व्यक्त की। इस प्रकार पौत्र वैजयन्त को राज्याधीश बनाया, और तीनों पिता तथा पुत्रद्वयने मुनिपद अंगीकार किया और योगी का जीवन व्यतीत करने लगे । जब कि तीनों
तपश्चर्या कर रहे थे, तब पिता वैजयन्तने योग में सफलता प्राप्त करने के कारण शीघ्र ही कर्मों की क्षपणा करके सर्वज्ञता प्राप्त की । नियमानुसार इस जीवन्मुक्त प्रभुके चरणोंकी पूजा के लिये संपूर्ण देवता एकत्र हुए। उन देवताओंमें धरन्द्र नामका एक सुन्दर देव था. जो अपने संपूर्ण दिव्य वैभवसे युक्त था । तपश्चर्या में रत छोटे भाई जयन्तमे इस सुन्दरदेवको देखकर धागामी भवमें उसके समान बननेका निदान किया। अपनी श्राकांक्षा के कारण तथा अपूर्ण योगके परिणामस्वरूप वह धरणेन्द्र हो गया । अपने पिताके मुक्त होनेपर भी ज्येष्ठ भाई संजयंत दृढ़तापूर्वक तपस्या करता रहा । जब वह अपनी तपस्या में निमग्न था तब श्राकाशमार्गसे जाते हुये एक विद्याधरकी दृष्टि उसपर पड़ी। उसने यह भी देखा कि मुनिराजको लांघकर उसका विमान नहीं जा सकता था। इससे वह कुछ हो गया। उसने योगी संजयंत भट्टारकको उठा लिया और अपने देशकी ओर ले चला । अपने देशके बाहर उनको छोड़कर उसने अपने देशके विद्याधरोसे कहा कि संजयंत हमारा शत्र है अतः उसके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए । दुष्ट विद्याधर विद्युदन्तके द्वारा भड़काए जाने के कारण अज्ञानतावश इन विद्याधरोंने उन मुनिराजके साथ दुव्यवहार किया । कर व्यवहारके होते हुये भी मुनिराज ध्यान से विचलित नहीं हुये । शत्रुओं के द्वारा दुःख दिये जानेपर भी महान श्राध्यामिक एकाग्रता तथा शान्तिके कारण मुनिराज ने समाधिलाभ किया । इस श्रामीय विजयके कारण उनकी धराधना तथा पूजाके लिये देवताओंका समुदाय उनके पास चाया। इन देवोंके मध्यमें उनके भाई नवीन धरणेन्द्र भी विद्यमान थे। नवीन देव धरणेन्द्र ने देखा कि मेरे जेष्ट भाई के प्रति उन विद्याधर लोगोंने क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया है ।
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
६०
अनेकान्ल
[ वर्ष ५
को अभी तक वहां ठहरे हुये अपने विरोधी संयंत भट्टारक उसके मंत्रीका नाम था श्रीभूति, जो समय-संभाषण तथा की श्राराधना तथा पूजा के लिये एवदितदेवता ईमानदारीक कारण सत्यबोध' के नाम से कहा जाता था। आचार्य दृश्यको देखकर चक्ति थे। इससे उसे बो उस समय अन्यदेशीय भद्रमित्र नामका एक व्यापारी था। श्रागया । इस शरारत के प्रति फलस्वरूप उस देवताका विचार वह अपने जहाज मे माल भरकर रत्नपुर गया और थाकस करके मुझमे फेंक दिया जवाहरात तथा नोंके रूपमे बहुत द्वय श्रर्जन करके जाय, किन्तु सब विद्याथीने स्पष्टतया भूल स्वीकारकर दया वापिस लौटा। लौटते हुये वह सिहपुर ठहर गया । नगरका की याचना की, क्योंके उन्होंने अपने नेता विद्युत के सौन्द्र तथा समृद्धि देखकर एवं राजा था राममंदि राजमंत्रियों के दुष्टता पूर्ण प्रोसाहन के कारण ही वह काम किया था न कि अस्वभावी बनकर उसने सहपुरमे ही रहनेश 'अपनी स्वेच्छा । श्रतः धरणेन्द्र ने सबको क्षमा प्रदान की । निश्चय किया। इस लिये वह अपने देशको जाकर सब परन्तु वह उस दुष्ट विद्युत दिनों वहां लाना चाहता था। इसमें उसने सोचा विद्युद्दन्त दण्ड नहीं जाने देना चाहता था। इससे वह इस एक ही दुष्टको कि मैं समुद्रके व्यापारसं प्राप्त संपूर्ण द्रव्यको सुरक्षित स्थान बाकर सदमें दुबाने की इच्छा गया। उसी समय पर में कही खट्टे । उसका ध्यान मंत्री सत्यघोष के सिवाय वहाँ एकत्र हुए देव आदिदेव नामके एक देवने श्रन्यत्र नही गया । वह उसके पास गया और अपना मंतव्य ऐसा करनेसे धरणेन्द्रको मना किया इसपर धरन्द्र ने कहा प्रगट किया कि मै इस सुन्दर सिहपुर नगर में रहना चाहता मैं अपने भाई के प्रति इस दुष्ट द्वारा किये गये क्रूर व्यवहार मेरी प्रार्थना है कि बहुमुल्य मोठी को कैसे सहन कर सकता हूँ और इस क्षम्य अपराधको अपने पास इसे सोनेर देखने हुये कैसे तुम्हारी सलाह मान सकता हूँ ? किया। रतो वाला एक सड़क मंत्रीक पास रख गया और दयाने उत्तर में कहा- इस आाध्यमिक क्षेत्र में वह भद्रमित्र अपने मित्र लेने के लिये बुराईका बदला बुराई नहीं होना चाहिये । आप अपने अपने देशको गया । इतनेमे सवती मत्री श्रीभूतिने जब भाई के प्रति अत्यधिक बंध व्यक्त करते हैं किन्तु यदि वैश्यशिम द्वारा जमा कराए गए उनको देखा तथ तुमको पूर्व भवावलियों के सम्बन्धका पता हो तो तुम्हे जीवन उसके चित्तमे लोभ समा गया। उसने सोचा कि सबको परम्पराके मध्य होने वाले अनेक सम्बन्धी सूची एक हमकर जाऊं । श्रतः जब वह व्यापारी सिंहपुर लौटा, तब सम्बन्धको महत्व देनेकी अज्ञानताका पता चले। दूसरी बात उसने अपने लिये एक प्रासाद खरीदा। अपने श्रामीय ग्रह है कि श्रागामी भवों के कारणभून राग और द्वेषभाव हैं।
वह छोड़कर वह रनको दापिस लेने के लिये मंत्री के पास पहुंचा, किन्तु भद्रभित्रने सयवोपमें एक दम परिवर्तन पाया । सत्यघोषने उस वशिक के साथ श्रपरिचित व्यक्ति जैसा व्यवहार किया और रनों के संदूक के बारे में पूर्णतया श्रजान कारी व्यक्त की ।
६ बुरा परिणाम निकलता है और प्रेमने मधुर फल प्राप्त होता है । श्रतः मेरी राय तो यही है कि तुम इस दुष्ट विद्याधरविधी बाबत अपनेको नि न को योगीराज संजयंतने भी जिनको इस दुष्ट विद्याधर कृयोंका फल भोगना पड़ा, इसको क्षमा प्रदान की है. कारण इसने अज्ञानतावश ही कार्य किया था। इस लिये इस दुष्ट विद्याधरको देश करने की भावना तुम क्यों अपने आपको कमले बांधते हो ! अपने मित्र आदित्यापदेव इस उपदेश को सुनकर भरने खुलासा रूपमें पूर्व भय पूछे। धरणेन्द्रके कल्याणार्थ श्रादि ययदेवने इस प्रकार कथाको भारम्भ किया कि सिंहपुर में सिंहमेन नामके राजाका राज्य था। रामदत्ता देवी नामकी उनकी महारानी थी।
इससे बेचारे व्यापारी का दिमाग चक्कर खा गया श्रीर वह न्याय के बारे में चिल्लाता हुआ लोगों से सहायता की प्रार्थना करने लगा । सयघोष मंत्री के विरुद्ध बालपर कोई भी नागरिक विश्वास नहीं करता था, कारया वह अपनी सचाई और ईमानदारी के लिये विख्यात था। लोगोंने मनमें समझा कि यह बाहर का व्यापारी पागल है और झूठे तौर पर मंत्रो को धरोहर के अपहरण रूप में
करता है । किन्तु अपनी चिल्लाहट में यह व्यापारी
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
सदा एक सी ही बात कहता था जो बात पागल के साथ इस विरोध के कारण ये दोनों श्रागामी भवों में परस्सर सम्बंधित नही की जा सकती। अत: इस व्यापारी के रोहन शत्र रूपमें उत्पन्न हुए। यह दुष्ट विद्याधर मायवोष नाम की ओर महारानी आकर्षित हुई। उसने पता चलवाया का मंत्री था, जो अपनी बेईमानीके कारण निंदित हुआ था, और उसे जानकर अचरज हुआ कि मंत्री यथार्थ में धूर्त था। और जिने तुम अभी दंडित करना चाहते हो। अनेकबार वहां इस बात का कोई साही तो था नहीं, जिसके समन जन्म-मरण करके राजा सिंहसेन संजयंत के रूप में उत्पन्न हुआ। व्यापारीने अपना सहक जमा कराया हो, किन्तु महारानी अोर उसने हाल ही मुक्ति प्राप्त की है हम सब यहाँ रामदत्ताको उस संदूक के बारेमें निश्चय हो चुका था, अत: संजयंतकी पूजाके लिए एकत्रित हुए हैं, पूर्वभवमें सिंहसेन उसने उस वणिककी तरफ महाराजये मध्यस्थ बनने का। महाराज थे। मैं महारानी रामदत्ताई और अब मैं अनुरोध किया। गजाने जब इस ओर ध्यान नहीं दिया, श्रादिग्यापदेव उत्पन्न हुई है और तुम संजयंतके छोटे भाई तब महारानीने इस बातकी अनुज्ञा चाही कि वह स्वयं इस हो। तुमने देवपदकी कामना की, इससे तुम धरणेन्द्र हुए। मामलेका निर्णय करना चाहती है। राजाने इथे स्वीकार अतः आपके लिए यह उचित है, कि आप इस घृणाका किया।
परिम्याग करके धर्म-मार्गका अनुगमन करें। अपने देवबंधुका रानी रामदत्ताने स यदोष मंत्रीको जुआ खेलनेको उपदेश धरणेन्द्रने ग्रहण किया, घृणा-भावको छोड़ा और बुलाया। पहली ही बार रानीने मंत्रीका यज्ञोपवीत तथा धर्म के बारेमें ध्यान करने लगा। विद्यन्दन्त नामक दुष्ट उसकी मुद्रिका भी जीत ली। मंत्री के इन दो मुख्य चिह्नोंको विद्याधाने जब यह कथा सुनी, तो वह भी अपने अतीतपर जीतन के उपरान्त उसने चुपके से अपनी दासीके हाथ खनाची लजित हुश्रा, और उसने भागे पवित्र जीवन बितानेका के पास उनसे भेजा। उसने दासीको मिग्वा दिया था कि निश्चय किया। वह खजाची दोनों चीजें बताने और राज्यकोरमें मंत्री श्रादिन्यापदेव तथा धरणेन्द्र, जो पहले देवी रामदत्ता द्वागचुपके रकबे गये मंत्री र नोके संदकको ले अावे । जब तथा उसके पुत्र हुए थे, देवपर्यायको समाप्तकर उत्तर मदुरा वह दासी उस संदूकको ले पाई तो राजामी श्राग्वें खुलीं। के शासक अनंनवीर्य नरेशके यहां पुत्र हुए। इस राजाकी उमे मत्री के अपराधका पता चला। अब तो मंत्री भी मेहमालिनी और अनंतमती नामकी दो रानियां थीं। मेरुज्ञात हया कि उसकी कलई महागनी के समक्ष खुल चुकी है मालिनीके यहाँ श्रादियापदेव उपन्न हुश्रा और उसका नाम फिर भी राजाने व्यापारीकी स यताकी परीक्षा करना चाही। मेरु हुश्रा, दुसरी रानी अमृतमतीके यहाँ धरणेन्द्र उत्पन्न उसने इस राशि को राज्यकोषकी अनेक राशियो में रखकर हुआ और उसका नाम मंदर रक्खा गया। उसी समय इन सबको ले जानेको व्यापारी से कहा। व्यापीरीने अपने उत्तर मदुराके उद्यान में धर्मोपदेश देनेके लिए विमल तीयरनोंको छोडकर दुपाको तनिक भी नहीं सर्श किया । उस कर पधारे । मेरु और मंदर नामक युवराज अपने गजराज संदकमें भी कुछ अन्य रन शामिल कर दिए थे। व्यापारीने पर प्रारुढ़ हो तीर्थकर भगवानकी पूजा करने तथा उपदेश अपने ही ग्न लिये और दूसरों को छोड दिया। व्यापारीके सुननेको गए। धर्मोपदेश सुनकर दोनों युवरान उनके इस व्यवहारये राजा तथा गज-सभासद-लोग प्रभावित हुए। शिष्य हो गये-भगवानके मुख्य गणधर बन गए । उन्हेंोंने उन्होंने इस व्यापारीकी सचाईकी प्रशंसा तथा मंत्री के जीवनभर धर्मका उपदेश दे योगाराधन कर निर्वाणपद लोभकी निन्दा की।
प्राप्त किया। ___ राजाने मंत्रीको पृथक किया और अपमानित करके इम महाकाव्यको मेरु और मंदर युवराजोंके नामपर गज्यने निमित कर दिया । वह मंत्री राजा तथा रानीके 'मेरुमंदरपुगणम्' कहते हैं । इसमें ३० अध्याय तथा प्रति द्वेष भाव रखना हुअा बाहर गया और मरकर राज्यकोष १४०५ पद्य हैं । लगभग १० वर्ष पूर्व इस लेग्वकने भूमिका में सर्व हुमा । जब राजाने खजाने में पाँव रखा कि सपने उसे तथा टिप्पण सहित उसे प्रकाशित कराया था, और अभी काटकर उसके प्राण हरण किये।
भी वह पाठकोंको उपलब्ध हो सकता है।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
-
श्रीपुराण-यह श्रीपुराण तामिल जैनों में बहुत है कि यह जैन-ग्रन्थकारकी कृति है । ग्रन्थकारने यह स्वयं प्रचलित है। मैं नहीं समझता कि ऐसा कोई व्यक्ति है, सूचित किया है, कि यह रचना उसी विषयके एक संस्कृतजिसने श्रीपुराणका नाम न सुना हो।। यह तामिल-संस्कृत ग्रन्थके आधार पर है। प्राय. करके यह उस संस्कृत ग्रन्थ मिश्रित मणि-प्रवाल रूपसे आकर्षक गद्यमे लिखा गया है। का अनुवाद है। इस पर एक टीका गुणसागर-रचित है. इसका अाधार जिनसेन स्वामीका महापुराण है और इसे जोकि प्राय: अमृतसागरके समकालीन था। यह ग्रन्थ छन्द 'त्रिषष्ठि शलाका पुरुप पुराण' भी कहते हैं जो ६३ महा शास्त्रका मुख्य ग्रन्थ है छन्दों तथा पद्य रचनायों के बारेमे पुरुषोंके वर्णनको लिये हुए है। इसके रचयिताका नाम यह प्रमाण भूत है और इस रूपमें उत्तरवर्ती लेम्बकोंने अज्ञात है। बहुत सम्भव है कि यह चामुण्डरायचित इसका उपयोग किया है, इसके द्योतक अवतरण तामिल कन्नड विषष्टिशलाकापुरूपपुराणम्' के समान कृति हो, साहिन्यमे पाए जाते हैं। श्रतः इसे जिनमेनके महापुराण और चानुण्डरायके कन्नड या यमकल विरुत्ति--यह भी उन्हीं अमृतसागरपुराण के पश्चातवर्ती कहना चाहिये । इसमें जिन ६३ वीरों रचित तामिल छन्द शास्त्र है। इसकी सुन्दर श्रावृत्ति स्व. का वर्णन है, वे २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती; ६ नारायण, एस० भावनन्दम् पिल्लै द्वारा प्रकाशित हो चुकी है। ६ प्रतिनारायण और बलदेव है। चूलामणिकी कथामें नेमिनाथम्—यह गुणवीरपडित-रचित तामिल व्या हमने पहले यह देग्वा है कि तिविन वासुदेव. विजय करणका ग्रन्थ है। यह नेमिनाथ भगवान के मन्दिर युक्त बलदेव और अश्वग्रीव प्रतिवासुदेव था। इसी प्रकार रामा- मलयपुर में बनाया गया था इस कारण इसके। नेमिनाथम्' यण के विख्यात व्यक्ति राम, लक्ष्मण और रावण, केशव, कहते हैं। इसके रचयिता गुणवीर पंडित कलन्देके वाचानन्द बलदेव, प्रतिवासुदेव के नामसे इस नौके समुदायमे गभित मुनिके शिष्य थे । इस ग्रन्थ निर्माणका ध्येय था छोटे और हैं। इसी प्रकार प्रख्यात महाभारत के श्रीकृष्ण नी वासुदेवा संक्षित रूपमे तामिल व्याकरणका वर्णन करना; क्योकि मेमे एक हैं, उनके भाई बलराम बलदेवोंये हैं और मगध पहले के तामिल अन्ध विशाल और बहुश्रमसाध्य थे। के जरासध नौ प्रतियासुदेवामी हैं। प्रत्येक तीर्थ फरका श्रारम्भके पद्याने यह सप्ट होता है कि जल-प्रवाहके द्वारा वर्णन करते हुए गज्यवंशांकी कथाएँ भी दी गई हैं। इस मलयपुरके जैनमन्दिरके विनाश के पूर्व यह ग्रंथ बनाया गया प्रकार यह श्रीपुराण, जिसमे ६३ महापुम्पोंकी कथाएँ वणित था। अत: यह रचना ईसवी सन के प्रारम्भिक कालकी कही हैं, पौगणिक भण्डार समझा जाता है जिसमेगे अनेक जानी चाहिये। इसमें एनुत्तधिकारम् तथा शोन अधिकारम् स्वतन्त्र लेखकाने जुदी जुदी कथा ली हैं। दुर्भाग्यमे यह नाम के दो अध्याय हैं । यह प्रसिद्ध वेणबाबन्दमे रचित है। अब तक प्रकाशित नही हुआ है। यह अभी तक ताइपत्र मदुगफे तामिल संघम्के अधिका-योंने इसको शेनतामिल की प्रतिके रूपमे ही पड़ा है और यह श्राशासी जाती है नामक तामिल पत्रमें प्रख्यात पुरातन टीका सहित छपाय! कि निकटभविष्यमें यह तामिल भाषाके विद्यार्थियोको था। उपलब्ध हो जायगा।
तामिल व्याकरण पद दूसग ग्रंथ है नन्नूल (मुन्दर ग्रंथ) अब हमे जैन विद्वानों द्वारा रचित छन्द-शास्त्र और है । यह तामिल भाषाका सबसे अधिक प्रचलित व्याकरण न्याकरण के ग्रन्थोंको देखना है।
है। 'तो 'ल्कापियम्' के बाद में मात्र इसीकी प्रतिष्ठा है। यायमङ्गलम्कारिक-तामिल छन्द-शास्त्रपर यह शिय गंग नामक सामंतके अनुरोधपर बाचनंदि मुनिने अन्य अमृत सागर द्वारा रचित है। यद्यपि यह निश्चयसे इसकी रचनाकी थी । लेखक न केवल तो ल्काप्पियम् नहीं कहा जा सकता है कि वह कब हुए, किन्तु यह अगत्तियम्, अधिनयम् नामक तामिल व्याकरण ग्रंथों के ही सष्टतया कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ एक हजार वर्ष प्रवीण थे' किन्तु संस्कृत व्याकरण जैनेन्द्रमै भी, क्योंकि जितना प्राचीन है। इसके मंगलाचरणके एक श्लोकमें वे तामिल और संस्कृत दोनों के महान् विद्वान थे । इस श्ररहंत परमेष्टीको नमस्कार किया गया है। अतः यह स्पष्ट नन्नल व्याकरणकी रचना उसने पिछले तामिल विद्वानों के
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य - लाभार्थ की थी। यह स्कूल और कालेजों के कोर्समे पाट्य गुणभद्र उत्तरपुराण के रचयिता हैं, जो कि जिनसेन स्वामी पुस्तकके रूपमे भरती की गई है, अत: हम बिना कोई के महापुराणका अवशिष्टांश है। इससे यह स्पष्ट है कि यह अतिशयोक्ति के यह कह सकते हैं, कि इस तामेल व्याकरण मंडल पुरुष गुणभद्र के पीछे हुए हैं। वह दो और निघंके परिज्ञान के बिना कोई भी तामिल-छात्र स्कूल और टुओं का भी उल्लेम्ब करता है, जो चूडामणिनिघण्टु के पूर्वकालेजमे उत्तीर्ण नही हो सकता है। इस ग्रंथपर बहुत सी वर्ती होने चाहिये । यह न थ विरुत्तम छन्दमें लिखा गया टीकाएं हैं। इनमें मुख्य टीका जैन-याकरण मैलिनाथकी है और इसमें द्वाःश अध्याय हैं। पहले अध्यायमें देवों के बनाई हई है। मैलैनाथर मलंयपुरके जिनालयके भगवान नाम हैं, दसरेमें मनुष्यों के नाम हैं, तीसरेम रितयंचोंके चौथे नेमिनाथका नाम दृसरा है। इस नन्नलकी बहुत बढ़िया में वृनों तथा पाडोके, पाचवमे स्थानों के छटेमे अनेक पदार्थों प्रावृत्त मैलैनाथीय-टीका-सहित, डा. वी. स्वामिनाथ ऐयरके के, सातवमे धातु तथा काट सटश प्राकृतिक पदार्थोसे बनाए द्वारा प्राप्त हो सकती है। इसके ऐलुत्ताधिकारम् और शोल- गए मानवनिर्मित अनेक कृत्रिम पदार्थोके नाम हैं पाठवमें अधिकारम् नामके दो भाग हैं जो पाँच पाच अध्यायों में सामान्य दृष्टिये वस्नयों के गुणों, नववें और दसवमे स्पष्ट विभक्त हैं।
तथा अस्पष्ट शबोके मान ग्यारहवम उन शब्दोका वर्णन ध्याकरण के इस प्रकरणामें हमें नार कविराज नम्बि- है, जिनकी नुक परस्परमे मिलती है अत: छंदः शास्त्र के रचित गप्पोल बिलकम् ग्रंथको भी नोट करना चाहिये। अंश विशेष सम्बन्धित है और बारहवं अध्यायमै सम्बलेखकका ठीक नाम है लव प्रथवा नाम्ब नैनार । ज्योकि न्धित शब्दों के समूहोका प्रयासक वर्णन है। इस चूडामणि वह चतुर्विध काव्यकलामें निपुण था, अत उसे नारकवि- निघंटुकी हमें जाफनाके स्वयरमुख नावलरं रचित टीका राय' की उपाधि प्रदान की गई थी। वह पोरनपांडिमडल सहित उपयोगी श्रावृत्ति प्राप्त है। इसी प्रकार शिवन पिल्लै नामकी नदी के किनारेपर बसे हुए पुलिपारगुडिका अधि. नामक तामिल पडित रचित पिंगल निवण्टुका एक संस्करण वामी था। यह तोलकाप्पियम्के पोम्लल्लकणम् अध्याय के याधारपर रचा गया है। इसमें भंगार तथा तसंबंधी व्याकरण तथा कोरके बारेमे वर्णन करने के अनन्तर मनोभावोंका वर्णन है।
अब हमें दो एक प्रकीर्णक ग्रंथों के विषयमे भी विचार तामिल कोपसाहित्यके विषयमें भी जैनियोंकी देन करना चाहिये । उल्लेखनीय है । तामिल को काम तीन ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। निमनग्नदि-इसके लेखक प्रविधि श्रालवार हैं। इनके नाम हैं-दिवाकरनिघण्टु पिंगलनिघण्टु चूडामणि- अनदि एक विशेषप्रकारकी रचना है जिसमें पूर्व पद्यका निवण्टु । ये तीनो कोर पद्यमें रचिन हैं जिन्हें विद्वान् लोग, थन्तिम शब्द, दूसरे पद्यका प्रथम नथा मुख्य शब्द होजाता भाषाके महानग्रन्थों के अध्ययनार्थ, कण्ट कर लिया करते है। अंतदिका अर्थ है अंत एवं श्रादि । इसमें पद्योंकी एक हैं। प्रथम ग्रन्थ के रचयिता दिवाकरमुनि हैं, दूसरे के पिंगल कतार शब्द विशेपमे परस्पर संबंधित है, जो पूर्वपद्य में मुनि और तीसरेके मंडल पुस्प । तामिल विद्वानोंका अभि- अन्तिम शब्द होता है और बाद के पद्यमे पहला। तिम्नमत है कि ये तीनों जैन थे। प्रथम दिवाकर निघंटुका रन्तदि अन्य सौ पद्यवाली ऐसी ही रचना है। यह भकिअस्तिष तो इस संग्गारसे प्रायः उट ही गया है, किन्तु शेप रसका ग्रन्थ है जो माइल पुरके नेमिनाथ भगवानको संयोदो ग्रंथ उपलब्ध हैं। इनमें से अन्तिम ग्रंथका खूब प्रचार धित किया गया है। इसके लेखक प्रविरोधी अलवारने है। चूडामणि नघंटु नामक तीसरे ग्रन्थकी भूमिकाके पद्योंये जैनधर्मको धारण किया था। कहते हैं कि एक दिन जब विदित होता है कि लेखक जैनग्राम पेम्मंदुरका निवासी था, वह जिनालयके पासपे जा रहा था, तब उसने मन्दिरके जो दक्षिण अरकाट जिले के निंदिवनम् नालुकाके तिदिवनम् भीतर अपने शियों के लिये मोक्ष तथा मोक्षमार्गका उपदेश स्थानये कुछ मील दूरीपर है। इसके सिवाय लेखकने जिन- करते हुए जैनाचार्य का उपदेश सुना। इस उपदेशसे मेनाचार्य के शिष्य गुणभद्राचार्यका उल्लेख किया है। ये याकर्षित होकर वह मन्दिरके भीतर गया और उसने
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
-
[वर्ष ५
श्राचार्य महाराजका उपदेश सुना । इस संबंधमे विशेष ही सुरक्षित नहीं है, बल्कि उच्च जातीय तामिल समाजमें जाननेकी इछामे उसने प्राचार्य महाराजमे भाषण सुननेकी प्रचलित रिवाज़ो और रहन सहनमे भी इसका पता चलता प्राज्ञा मांगी जो उसे अनायास प्राप्त हो गई। अंतमें उसने है। शैव-पुनरद्वारके बाद जब राजनैतिक कारणोपे दण्डके जैनधर्मको अंगीकार किया और अपने जीवनके इस परिवर्तन बलपर जैनियोंको हिन्दू धर्म अंगीकार करना पडा था तबसे की स्मृति में यह ग्रंथ बनाया जो माइलपुरके नेमिनाथ हिंदू धर्म में परिवर्निक लोग हिन्दु समाजकी उन-उन भगवान्को अर्पित किया गया है। यह भक्ति रसका अत्यन्त जातियों में शामिल हो गये और उन्होंने जैनीकी स्थिति में सुन्दर ग्रन्थ है, जिसमें लेखकके बारेमे कुछ बात वर्णित हैं। पाले जाने वाले ग्विाजों तथा रहन सहनको वहां सुरक्षित यह मदुराके तामिल संघम के द्वारा संचालित शेन तामिल रखा । यद्यपि उन्होंने अपना धर्म बदल दिया किंतु श्राचार पत्रमें टिप्पणी महित छपा है।
नहीं बदले । यह अाश्चर्यकी बात है. कि तामिल भाषामें निरुक्क लम्वगम-यह दूसरा भक्ति रसका ग्रंथ है 'शेवम्' शब्दका पहले शेवधर्मका श्राराधक अर्थ था. जिसके लेखक उदीचिदेव नाम के जैन हैं। वे थोड मंडलं देशके किन्तु ग्राम बाल चानमें शेवम्का अर्थ कट्टर शाकाअन्तर्गत वेलोर ज़िलाके अर्णी के पास अरपगई नामक स्थान हारी है। हिंद वेलालोमे कट्टर शाकाहारीके भोजन के बारेमें के निवासी थे । रूलंवगंबम शब्दका अर्थ है लघु कविताओं कहते हैं कि वह 'शैवम्' का पालन करता है। इसी तरह का ऐसा मिश्रण जिसमें अनेक छंदोंके पद्य हो । उदीचि तामिल देश के ब्राह्मण 'शैवम्' कट्टर शाकाहारी हैं। इस रचयित यह ग्रंथ न केवल भक्तिभाव पूर्ण है, बल्कि सम्बन्धमें भारतके अन्य भागोंके गौड ब्राह्मणों के वर्गान्तर्गत सैद्धान्तिक भी है, जिसमें लेखकने बौद्धधर्म जैसे प्रतिद्वंदी बाह्मणोप तामिल ब्राह्मणको 'द्रविड' ब्राह्मण के रूपमें पृथक धर्मोंका विचार भी किया है। संभवतः यह महान् उन किया जाता है। द्रविद ब्राह्मण जहाँ भी हों कट्टर शाकाहारी जैन दार्शनिक अकलंक देवके बादका है जिन्होंने दक्षिणमें होते हैं जब कि गौड ब्राह्मण मस्य तथा मांस तक भक्षण बोद्धधर्मकी प्रभुताका अंत किया था और जो हिंदू धर्मके करते हैं। बगाली ब्राह्मणांमे आमतौरपर बकरा या भैंसा उद्धारक कुमारिलभट्ट के समकालीन थे।
कालीके पागे बलि किया जाता है, और बाद में वे उसे गणित, ज्योतिष तथा फलित बिद्या-सम्बन्ध ग्रंथोंके काली प्रसाद के नाममे अपने घर ले जाने हैं। ऐसी बात निर्माण में भी जैन लोगोंका खाम हाथ रहा । सम्भवतः दक्षिण (नामिल देश) के किसी भी हिन्दू मन्दिरमें चाहे वह इन विषयों पे सम्बन्धित अनेक ग्रथ नष्ट हो गये । अब शैव हो या वैष्णव कल्पनामे नही पाता। अतः इस कथन प्रत्येक विषयका प्रतिनिधि स्वरूप एक-एक ग्रंथ मौजूद है। में तनिक भी अतिशयोकि नहीं है कि भोजन तथा ऐंवड़ि गणितका प्रचलित ग्रंथ है उसी प्रकार मिनेन्द्रमौल मन्दिर की पूजामें जैनियोंकी अहिंसाका सिद्धान्त भी प्रचलित ज्योतिष ग्रंथ है। जो व्यापारी लोग परम्पराके तामिल भूमिकी हिन्दू समाजमें अाज तक स्वीकृत अनुसार अपना हिसाब-किताब रखने हैं, वे ऐचूवदि नामक तथा पालिन चला पा रहा है। यह ठीक है कि कुछ गणित ग्रंथका अभयास प्रारम्भमे करते हैं । इस भांति ऐसे विकीर्ण स्थान भी हैं जहाँ ग्राम्य देवताओं के आगे पशु तामिल ज्योतिषी जिनेन्द्रमौल के अाधारपर अध्ययन करते बलि की जाती है किन्तु उच्च जातीय तामिल हिन्दुओंको हैं यह उनके 'श्रारूढ़' नामक भविष्य कथनका मूलाधार इस बातका श्रेय प्राप्त है कि उनका इस प्रकारकी ग्राम्य
काली पूजासे कोई सम्बन्ध नहीं है । प्राशाकी जाती है कि इस प्रकार तामिल साहित्यको जैनियोंकी खास देन शिक्षा और सुसंस्कारोंकी वृद्विसे छोटी तामिल समाजे भी सम्बन्धी सरसरी नज़र से लिखा हुआ वह लेख पूर्ण होता इस ग्राम्य तथा मूढ़तापूर्ण पूजाके रूपका परित्याग करेंगी है। पुरातन तामिल भूमिमे जैनधर्मका प्रचार तथा तामिल और अपने श्रापको अधिक पवित्र तथा उज्वल श्राद से लोगों में जैनधर्मकी उपयोगिताकी बात तामिल साहित्यमें पूर्ण उच्च धार्मिक जीवनके योग्य समुन्नत बनावेंगी।
होता है।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
गिरिनगरकी चन्द्रगुफा
( लेखक - प्रो० हीरालाल जैन, एम० ए० )
पखंडागम की टीका धवला के रचयिता वीरसेनाचार्यने
कहा है कि समस्त सिद्धान्त के एक देशज्ञाता धरसेनाचार्य थे जो सोरठ देशके गिरिनगरकी चन्द्रगुफा में ध्यान करते थे । उन्हें सिद्धान्तकं संरक्षणको चिन्ता हुई । अतः महिमा नगरीक तत्कालवर्ती मुनि सम्मेलनको पत्र लिखकर उन्होंने वहाँमे दो मुनियोको बुलाया और उन्हें सिद्धान्त सिखाया। ये ही दो मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि नामाने प्रसिद्ध हुए आर इन्होंने वह समस्त सिद्धान्त पटूखंडागमक सूत्ररूप लिपिबद्ध किया ।
इस उल्लेख यह तो सुस्पष्ट हो जाता है कि धरसेनाचार्य माराष्ट्र (काठियावाड़ - गुजरात) के निवासी थे और गिरिनगर में रहते थे। यह गिरिनगर आधुनिक गिरनार है जो प्राचीन कालमें सांगष्ट्रकी राजधानी था । यहाँ मार्य क्षत्रप और गुप्तकाल के सुप्रसिद्ध शिलालेख पाये गये हैं । बाईसवे तीर्थंकर नेमिनाथने भी यहाँ तपस्या की थी, जिससे यह स्थान जैनियो का एक बड़ा तीर्थक्षेत्र है । आधुनिक कालमें नगरका नाम
तो झूनागढ़ हो गया है और प्राचीन नाम गिरनार उसी समीपवर्ती पहाड़ीका रख दिया गया है जो पहले ऊर्जयन्त पर्वत के नाम से प्रसिद्ध थी । अब प्रश्न यह है कि क्या इस इतिहास - प्रसिद्ध नगर में उस चन्द्रगुफाका पता लग सकता है जहाँ धरसेनाचार्य ध्यान करते थे और जहाँ उनके श्रुतज्ञानका पारायण पुष्पदन्त और भूलि आचार्यको कराया गया था ?
खोज करने से पता चलता है कि झूनागढ़ में बहुत सो प्राचीन गुफाये हैं । एक गुफासमूह नगर के पूर्वीय भाग आधुनिक 'बाबा प्यारा मठ' के समीप है। इन गुफा अध्ययन और वर्णन वर्जज साहबने किया १ पट्खंडागम भाग १, पृ० ६७
है। उन्हें इन गुफाओं में ईसवी पूर्व पहली दूसरी शताब्दि तकके चिन्ह मिले हैं। ये गुफायें तीन पंक्तियोंमें स्थित हैं । प्रथम गुफापंक्ति उत्तरकी श्रोर दक्षिणाभिमुख है। इसोक पूर्व भागने दूसरी गुफापंक्ति प्रारंभ होकर दक्षिण की ओर गई है । यहाँकी चैत्य गुफाकी छत अति प्राचीन प्रणालीकी समतल है और उसके आजू-बाजू उत्तर ओर पूर्वकोनोंमे अन्य सीधीमादी गुफाएँ हैं । इस गुफापंक्तिके पोछेमे तीसरी गुफापंक्ति प्रारम्भ होकर पश्चिमोत्तर की ओर फैली है। यहाँ की छटवी गुफा (F) के पार्श्वभाग में अर्धचन्द्राकार विविक्त स्थान (ipse) है जैसा कि ईस्वी पूर्व प्रथम द्वितीय शताव्दिकी भाजा, कार्ली, वेदसा नामिककी बौद्ध गुफाओं में पाया जाता है। अन्य गुफाएँ बहुतायत मे सम चौकोन या श्रायत चोकोन हैं और उनमें कोई मूर्तियाँ व सजावट नही पाई जाती। कुछ बड़ी बड़ी शालायें भी हैं, जिनमें बरामदे भी हैं । ये सब गुफायें अत्यन्त प्राचीन वास्तुकला के अध्ययनके लिये बहुत उपयोगी हैं । ये सब गुफाएँ उनके निर्माण कालकी अपेक्षा मुख्यतः दो भागों में विभक्त की जा सकती है-एक तो वे चैत्यगुफायें और तत्सम्बन्धी सादी कोठरियाँ जो उन्हें बौद्धों की प्रतीत होती हैं और जिनका काल ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दि अनुमान किया जा सकता है जब कि प्रथमवार बोद्धभिक्षु गुजरात में पहुंचे। दूसरे भागमे वे गुफाएँ व शालागृह हैं जो प्रथम भागकी गुफाओंसे कुछ उन्नत शैलोकी बनी हुई है, तथा जिनमें जैन चिन्ह पाये जाते हैं। ये ईस्त्रीकी दूसरी शताब्दि श्रर्थात क्षत्रप राजाओं के कालकी अनुमान की जाती है ।
x
Burgess: Antiquities of Kutchh and Kathiawar, 1874-75, P.139ff.
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
६६
अनेकान्त
यहाँ हमारे लिये उन्हीं दूसरे भागकी गुफाओंकी ओर ध्यान देना है जिनम जैन चिन्ह पाये जाते हैं । इनमें एक गुफा (K) में स्वस्तिक, भद्रासन, नंदीपद, युगल के चिन्ह खुदे हुए है । ऐसे ही चिन्ह मथुरा के जैनस्नूपकी खुदाईसे प्राप्त श्रायागपटों पर पाये गये हैं । यही नहीं, वहाँ एक शिलालेख भी प्राप्त हुआ है, जिसमें क्षत्रपराजाओं के अतिरिक्त 'केवली' या केवलज्ञानका उल्लेख है । इसपर से उसके जैनत्व में कोई संशय ही नहीं रहता । दुर्भाग्यतः इस अत्यन्त महत्वपूर्ण शिलालेखकी दुर्दशाकी बड़ी करुण कहानी है । उक्त गुफा के सन्मुग्य सन् १८७६ से पूर्व
खुदाई हुई थी उसीमें वह शिलापट्ट हाथ लगा । निकालने में हो उसका एक हिस्मा टूट गया। फिर उसे उठाकर कोई शहर के भीतर राजमहल में ले गया श्री इसी समय उसके एक और कोनेका भारी क्षति पहुंचो । जत्र बर्जेज़ साहब उसका फोटो लेने गये तत्र उसका पता लगना ही कठिन हो गया । अन्ततः वह महलके सामने गोल बरामदे में एक जगह पड़ा हुआ मिला । फिर वह काल तक झूनागढ़ दरबार के छापेखाने में पड़ा रहा। तत्पश्चात् किसी और एक विपत्ति में पड़कर उसके दो टुकड़े हो गये और इस हालत में अब वह वहाँ के अजायबघर में सुरक्षित है ।
यह शिलापट्ट दो फुट लम्बा, चौड़ा और आठ इंच मोटा है। इसके एक पृष्ठ भागपर चार पंक्तियोका लेख है जो १ फुट ६ इंच घोड़ी अं.र ६ इंच ऊंची जगह में है। एक-एक अक्षर लगभग आधा इंच बड़ा है । लेखको क्षति बहुत पहुंची है । बीचकी दो पंक्तियाँ कुछ सुरक्षित हैं, किन्तु प्रथम और चतुर्थ पंक्तिका बहुतसा भाग पष्ट होगया है और पढ़नेमे नहीं श्रता । फिर एक ओर जो शिलापट्ट टूट गया है। उसके साथ इन पंक्तियोका कितना हिस्सा खो गया
१ Smith : Jain Stupa ( Arch. Survey of India X X, Pt. X1 ) Arch: Survey of Western India, Vol. II P. 140.
२
[ वर्ष ५
यह निश्चयतः नहीं कहा जा सकता। बुल्हर साहबके मतसे दूसरी ओर चोथी पंक्तियाँ प्रायः पूरी हैं, केवल कोई दो अक्षरों की ही कमी ह । किन्तु यह अनुमान ही है, निश्चित नहीं । उसी कालके अन्य शिलालेखों परमे निश्चियतः तो इतना ही कहा जा सकता है कि दूसरी और तीसरी पंक्तियोंम जयदामन् नरेशक पुत्र और पत्रिके नामोल्लेख तथा लेखक वर्षका उल्लेख, सम्भवतः अंकों और शब्दों में दोनों प्रकार से अवश्य रहा होगा | लेखको लिपि निश्चयतः क्षत्रपकालकी हूँ । लेख टूटा हुआ होनेसे उसका प्रयोजन स्पष्टतः ज्ञात नही होता । किन्तु जितना कुछ लेख बचा है उससे इतना तो सष्ट हो जाता है कि उसका संबंध जैनधर्म की किसी घटना से है । उसमें 'देवासुरनागयक्षराक्षस' 'केवलिशान' 'जरामरण' जैसे शब्द स्वलित पड़े हुए हैं, जिनमे अनुमान होता है कि उसमे किसी बड़े ज्ञानी आर संयमी जनमुनिके शरीरत्यागका उल्लेख रहा हो और उस अवसरपर देव, असुर, नाग, यक्ष और राक्षसोने उत्सव मनाया हो । यह घटना 'गिरिनगर' (गिरनार ) में ही हुई थी, इसका लेखमें स्पष्ट उल्लेख है । घटनाका काल चैत्र शुक्ल पंचमी दिया है, पर वर्षका उल्लेख टूट गया है। जिस राजाके राज्यकाल में यह घटना हुई थी उस राजाका नाम भी टूट गया है। पर इतना तो स्पष्ट है कि वह राजा क्षेत्रपवंशके चष्टनका प्रपत्र, व जयदामनका पात्र था । इस वंशके अन्य शिलालेखों व सिक्कांपरसे क्षत्रपवंश की प्रस्तुतोपयोगी निम्न परम्पराका पता चल चुका है।
सत्यदामा
घटन 1 जयदामन
रुद्रदाम
दामदजश्री
जीवदामा
रुद्रसिंह
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
गिरिनगरकी चन्द्रगुफा
। अतएव यह अनुमान किया जा सकता है कि शिलालेखपर विचार करते हैं तो अनुमान होता है उक्तलेखमें चष्टनके प्रपौत्र और जयदामनके पोत्रसे कि सम्भवतः झूनागढ़की ये ही 'बाबा प्यारा मठ' के रुद्रदामनके पुत्र दामदजश्री या रुद्रसिंहका ही अभिप्राय पासकी प्राचीन जैन गुफाएँ धरसेनाचार्यका निवासहोगा। चटनका उल्लेख यूनानी लेखक टालमीने अपने स्थल रही हैं । क्षेत्र वही है, फाल भी वही पड़ता है। ग्रंथमें किया है। यह ग्रन्थ सन १३० ईस्वी (शक५२)के धरसेनकी गुफाका नाम चन्द्रगुफा था । यहाँकी एक लगभग लिखा गया था । रुद्रदामनके समयके सुप्रसिद्ध गुफाफा पिछला हिस्सा-चैत्यस्थान-चन्द्राकार है।
समें शक ७२ (मन १५०) का उल्लेख है । रुद्रसिंहक आश्चर्य नहीं जो इमी कारण वही गुफा चन्द्रगुफा शिलालेख व सिक्कोंपर शक १०२ से ११० व ११३ कहलाती रही हो। आश्चर्य नही जो उपयुक्त शिलामे ११८-११९ तकके उल्लेख मिले हैं । शक संवत् लेख उन्ही धरमेनाचार्यकी स्मृतिमेहीअंकित कियागया १०३ का लेख अनेक बातोंमें प्रस्तुत लेखक समान हो। लेखमे ज्ञानका उल्लेख ध्यान देने योग्य है। यदि होनस हमारे लिये बहुत उपयोगी है। जीवदामनके यह लेग्य पूरा मिल गया होता तो जैन इतिहासकी शक ११६ से १०० तकक सिके मिले है । क्षत्रप एक बड़ी भारी घटनापर अच्छा प्रकाश पड़ जाता। गजाअोके राज्यकालकी सीमाएँ अभी भी बहुत कुछ इस शिलालेखकी दुर्दशा इस बातका प्रमाण है कि गड़बड़ोम हैं। इन राजाश्राम यह भी प्रथा थी कि हमारे प्राचीन इतिहासकी सामग्री किस प्रकार आज राज्यपरम्परा एक भाईके पश्चात् उससे छोटे भाईकी भी नष्ट-भ्रष्ट हो रही है। ओर चलती थी और जब सब जीवित भाइयोका यह लेख सर्वप्रथम सन् १८७६ में डा० बुल्हर राज्य समाप्त हो जाय तवनई पीढ़ीकी ओर जाती थी। द्वारा सम्पादित किया गया था और फोटोग्राफ तथा इससे भी कमनिश्चयमे कुछ कठिनाई पड़ती है। अग्रजी अनुवाद महित Archaeologleal Survey नयापि पूक्ति निश्चित उल्लेखो परम हम प्रस्तुतो- of Western India Vol. II में पृष्ठ १४० पयोगी इतनी बात ता विदित हो ही जाती है कि उक्त आदि पर छपा था । यही फिर कुछ साधारण सुधारोके लेख दामदजश्री या रुद्रसिंहके समयका है भार इनका साथ सन् १८६५ में स्याहीक ठप्पेकी प्रतिलिपि व समय शक ७२ से शक ११६ अर्थात् सन् १५० में अनुवाद सहित 'भावनगरकं प्राकृत और संस्कृतके १६७ ईस्वी तकक ४७ वर्षोंक भीतर ही पड़ता है। शिलालेख' के पृ०१७ श्रादिपर छपा। रैपसन साहबने रुमिहक शक १०३ के गुड नामक स्थानसे प्राप्त लेख अपने Catalogue of cons of the को देखनसे अनुमान होता है कि प्रस्तुत लेख भी Andhra Dynasty etc,P.LXI, No. 40 उन्हीक ममयका र उक्तवपके आसपासका हो तो मे इस लेखका संक्षिप्त परिचय कराया है तथा प्रो. आश्चर्य नहीं। अतः प्रत्तत लेखका काल लगभग शक लडर्सने अपनी List of Brahmi Inscri१०३ (मन १८१) अनुमान किया जा सकता है। ptions में नं०६६६ पर इस लेग्बका मंक्षिप्त परिक्षय
हम पखंडागमके प्रथम भागकी प्रस्तावनामें दिया है। यह लिस्ट एपीग्राफीश्रा इंडिका, भाग १० पटूखंडागमक विपयके ज्ञाता धरमनाचार्यक विषयमे सन् १९१२ क परिशिष्टमं प्रकाशित हुई है। इस लेख वता आये है कि उन्होने गिरिनगरकी चद्रगुफामे रहते का अन्तिम सम्पादन व अनुवादादि राखलदास हुए पुष्पदन्त र भूतबलिको सिद्धान्त पढ़ाया था। बनर्जी और विष्णु एस० सुखतंकरने किया है जो जैन पट्टावलियो आदि परसे उनके कालका भी विचार एपीग्राफिया इंडिका भाग १६, के पृ. २३६ आदिपर करके हम इस निर्णयपर पहुंचे थे कि उक्त ग्रन्थकी छपा है और इसीक आधारसे हमने उसका पाठ लिखा रचना शक : (सन् ८७) के पश्चात् हुई थी । अब है। उक्त गुफाओंका मर्वप्रथम वर्णन बर्जेज साहबने हम जब गिरिनगरकी उक्त गुफाओं बार वहाँके उक्त किया है, जो उनकी Antiquities of Kutchh
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
and Kathjawar (1874-75) के पृष्ठ १३६ यहाँ चष्टनके प्रपौत्र, जयदामके पौत्र रुद्रदामके पुत्र
आदि पर छपा है। उनका परिचय हाल हीमें श्रीयुत स्वामी रुद्रसिंहके उस लेग्वको भी यहाँ उद्धृत कर देना एच० डी० सांकलियाने अपनी The Archa- उचित समझते हैं जो ठीक इसी लिपिमें लिखा हुआ nology of Gujrat' (Bombay 1941) नामक गुन्ड नामक स्थानसे प्राप्त हुआ है जो अपने रूपमे पुस्तक में कराया है।
पूरा है और जिसमे १०३ वीं वर्षका स्पष्ट उल्लेख हैप्राप्त लेख इस प्रकार है
गुंडका शिलालेख (पं० १)... 'स्तथा मुरगण [1] [क्षत्रा] णां (पं० १) सिद्धं । राज्ञो महक्षत्र [प] स्य स्वामिप्रथ[म]...............
चष्टनप्रपोत्रस्य राज्ञो क्षत्रपस्य स्वामिजयदामपत्रस्य (पं० २) .. ..."चाटनस्य प्र [पी] त्रस्य राज्ञः (पं० २) गज्ञो महक्षत्रपस्य स्वामिरुद्रदामपुत्रस्य क्ष [त्रप] स्य स्वामिजयदामपे [1] त्रस्य राज्ञो गज्ञो क्षत्रपस्य स्वामिरुद्रम हा] . . .. .. ...
(पं०३) सीहस्य वित्रा युत्तर शते १००३ (पं० ३) .....[] शुक्लम्य दिवसे पंचमे ५ वैशाख शुद्ध पंचमिधत्त्यतिथी गे [हि] णि नक्ष इह गिरिनगरे देवासुरनागय [क्षा राक्षसे . ... ....
(५०४)... थ[पुरमिव ...... कवलि [ज्ञा] न (पं० ४) त्र-मुहर्ते भाभीरेण सेनापति बापकस्य सं....... ना जरामरए[] ....... . ... पुत्रेण सेनापतिरुद्रभूतिना ग्रामे रमीअनुवाद
(पं०५) [प] द्रिये वा [पी] [ख] नि [तो] ...... ..तथा सुरगण " क्षत्रियों में प्रथम · ... [बद्ध] । पितश्च सर्वसत्त्वानां हितसुखार्थमिति । .... " चटनके प्रपौत्रके, राजा क्षत्रप स्वामी जयदामके पौत्र, राजा महा ... ... ... ... चैत्र
अनुवाद शुक्लकी पंचमीको ५ यहां गिरिनगरमे देवासुरनाग
सिद्धं । राजा महाक्षत्रप स्वामिचटनके प्रपौत्र, यक्ष-राक्षस - .........
........" पुरके
राजा क्षत्रपस्वामी जयदामके पौत्र,गजामहाक्षत्रपस्वामी समान...........केवलिबान सं .............. रुद्रदामके पुत्र, राजा क्षत्रपस्वामी रुद्रसिंहके वपे एक सौ जरामरण" . . . ... ..... .. .... .. . तीन वैशाख शुद्ध पंचमी तिथिके रोहिणी नक्षत्रके
मुहर्तमे भाभीर सेनापति बापकके पुत्र सेनापति इस लेखकी राजवंशावलि आदिको समझने तथा रुद्रभूतिने ग्राम रसोपद्रियमे बापी खुदवाई और लेखकी गति-मतिका कुछ आभास देनेके लिये हम बंधवाई सब जीवों के हित और सुखके लिये । इति ।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
वरदत्तकी निर्वाण-भूमि और वराङ्गके निर्वाणपर विचार
(ले०-६० दीपचंद जैन पांड्या) दिगम्बर जैन सम्प्रदायक सैकड़ो तीर्थस्थान है, परन्तु पुरसे वरदत्त, वराग और मागरदत्त श्रादि सादेतीन कोड़ि वे कौन कौनसे है और कहो कहाँ है तथा वे तीर्थस्थान मुनि मोक्ष गये हैं। परन्तु यह किस श्राधारपर लिखा गया कबसे और क्यो माने जाने लगे, इम विषयको स्पष्ट करके है वह अभी अंधकार मे है । हरिवंशपुराण और उत्तरपुराण बतलाने वाली अभी तक ऐमी कोई भी प्रामाणिक मामग्री में भगवान् नेमिनाथके प्रधान गणकर वरदत्तके केवली नही जुटाई गई हैं जिममे तविषयक ममी समस्या और होनेका तो उल्लेख मिलता है पर उनके मुक्ति स्थानका शंकाएँ हल होजायें। श्री पं० नाथुगमजी प्रेमी और प्रो. निर्देश वहो भी नही मिलता । इमलिये यह जिज्ञासा ज्योकी हीरालालजीने 'जैनमिद्धान्त भास्कर' भाग ५ की किरण ४ मे त्यो बनी रहती है कि वरदत्तकी निर्वाण-भूमि कौनसी है ? और "अनेकान्त' वर्ष का किरण ६-७ में इमार तीर्थक्षेत्र' श्रीजटामिहनदि अाचार्यका वरॉगचरित' इम ममस्याके और 'दक्षिणके तीर्थक्षेत्र' शीर्षक लेग्वप्रगट किये हैं, जिनमे हल करनेका स्वास प्राचीन श्राधार कहा जा सकता है; कई क्षेत्रो र ऐतिहामिक विवेचन करके अच्छा प्रकाश डाला क्योंकि इसमें निर्वाणकाण्ड-निर्दिष्ट वग्दत्त और वरॉग है। अस्तु, मैं इम लेखमे वरदनऋषिकी निर्वाण भूमि कोनी आदिकी घटनाओंका विस्तार उल्लेग्व पाया जाता है। परन्तु है और वह कहो है तथा वगेंगगजाका निर्वाण हुआ या कि इस चरितका कथन निर्वाणकाडसे बहुत कुछ भिन्न है। नहीं, इन दोनों विषयोपर यत्किचित्प्रकाश डालना चाहता हूँ। इम संस्कृत ग्रन्थके अनुसार केवल वरदत्तका ही निर्वाण हुश्रा
दिगम्बर जैन मम्प्रदायम तीर्थक्षेत्रोक परिचायक ढो वगेगका नही, तथा वरदत्त की निर्वाणभूमि मणिमान् प्राचीन पाठ उपलब्ध होते है-१ प्राकृत निर्वाणकाण्ड, पर्वत है, नारवर नगर नहीं है। वरॉगचरितके उल्लेख इस २ मंस्कृन निर्वाणभक्ति। इमके सिवाय गणभद्रकी तीर्था- प्रकार हैं:र्चनचंद्रिका' और उदयकीर्तिका नित्यंकरतित्थ' भी उप- .
(१) २१ वे सर्गके २६वे पद्यसे लेकर ३१ तकके पद्यों लब्ध होते हैं । हिंदी भाषामे कविवर भगवतीदामका निर्वाण
मे यह बतलाया गया है कि वरागनरेशने अपनी जन्मभूमि काण्ड भापा नामका पाठ मिलता है। यह भाषा-पाठ
उत्तमपुरको छोड़कर आनर्तपुरको गजधानी बनाया था। सर्वत्र प्रचलित होने के कारण मर्वमाधारणका विषय है।
अाननपुरका उल्लेख इस प्रकार है:इसे एक प्रकारस 'प्राकृन निर्वाणकाड का अनुवाद या
सरस्वती नामनदीविश्रुतामणिप्रभावान्मणिमान्महागिरिः। रूगन्तर कह मकत है । प्राकृत निर्वाणकाडको छोड़कर
तयोर्नदीपवंतयोर्यदन्तरे बभूव चानर्तपुरं पुरातनम् ॥२८॥ इन मभी पाठामे वरदनऋप कहोसे मोक्ष गये, यह कही पुरा
ही पुरा यदुना विहगेन्द्रवाहनो जनार्दनः कालियनागमर्दनः । भी सष्ट उल्लेख नहीं मिलता। प्राकृत नि० काण्डम जी रणे जरासन्धमभीनिहित्य यार्तवार्तपुरं ततोऽभवत् ॥२६॥ इस विषयकी गाथा पाई जाती है और जिममें वगंगके भी अर्थात् सरस्वती नामकी नदी और मणिमान् नामका निर्वाणका उल्लेख है वह इस प्रकार है:
महापर्वत मणियोंके प्रभावसे प्रसिद्ध है। इन नदी और वरदत्तो य वरंगो सायरदत्तो य तारवर नयरे
पर्वत दोनोके मध्य में जो पुराना बानर्तपुर बसा हुआ था वहाँ बाहुट्ठय कोडीनो णिव्वाशगया समो तेसिं ॥शा
पहले गरुडवाहन, कालियनागमदो यदुवंशीय जनार्दनश्रीकृष्ण भाषा निर्वाणकाण्डमे इसका जो रूपान्तर दिया है,
ने जरासन्धको रणमें मारकर निर्भय होकर नृत्य किया था, वह इमप्रकार है :
इसी कारण इस नगरका नाम अानर्तपुर प्रसिद्ध हुआ। वरदत्त राय रु इंद मुनिंद । सायरदत्त भादि गुणद॥ .. (V
(२) २६वें सर्गके ७५ मे ५८ तकके पद्योंसे पाया जाता नगर तारवर मुनि हुटकोहि । वही भावसहित कर जोदि ।। १ यह प्रन्थ प्रो. ए. एन. उपाध्याय द्वारा सुसंपादित होकर
इस परसे यह जाना जाता है कि तारवर-तारपुर-ताग- बम्बईसे माणिकचन्द्र ग्रन्यमालामें प्रकाशित हुआ है।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
है कि मणिमान् पर्वत पर श्रीनमि-जिनेन्द्र के प्रधान गणधर तथैव निर्वाण फलावसानां (न) लोक(क) प्रतिष्ठा (प्रतस्थौ) श्रीवरदत्त केव नी भव्य जीवोंको धर्मोपदेश देते हुए विराज
सुरलोकमूनि ॥' रहे थे। बरागनरेश दीक्षा ग्रहणार्थ श्रानर्तपुरम चलकर २". 'वराङ्गःसर्वार्थ सिद्धिगमनं नाम एकत्रिंशतितमःसर्गः।" यहाँ पाये और वरदत्तके चरणोंकी बन्दना करके बैठे। ३“सो भुनि वरांग सु प्राघु पयत त्यागि प्रान सु देह को।
(३) ३१वे सर्गके ५५ मे ५८ तकक पदाम उल्लिवित सर्वार्थसिद्धि गये तब यह विनत सुरत्रिय नेरु को। है कि वरॉगमुनि नगर-ग्रामादि अनेक प्रदेशोम विहार करके इन उल्लेखमि यह बतलाया गया है कि वराग मुनिने अग्नी आयुकी अन्तिम अवधि निकट जान, मागरवृद्धि मणिमान् पर्वत पर एक मामका ममाधियोग धारण किया
आदि मुनीश्वरोके माथ ममाधिमरगणकी भावनामे उसी और अपनी आयुके अन्तिम समयम वे महात्मा उपशान्त मणिमान् पर्वतपर आये। वहाँ अाकर उन्होंने प्रथम ही श्री माह नामके ११वे गुणस्थानको प्रात हुए। चूं कि सत्ताम बरदनकी निर्वागणभामको प्रदिक्षणा देकर नमस्कार किया, कर्मोका बन्ध अवशेष था इस कारण वे निवृत्तिको प्राप्त
और फिर पंडित मरणको इच्छाम माधुवर्गके माथ प्राया३. नही हुए । विन्तु परम विशुद्ध लेश्यासे शरीरका छोड़कर गमन मंन्यास धारण किया ।
जान-दर्शन-चारित्र-तप रूप अाराधनाके फल को प्राप्त हुए। बरागचरितके इन उल्लेखोमे यह ना स्पष्ट होजाता है जिस प्रकार उस वीर वरागने राज्यको छोड़कर तप और कि वरदनका निर्वाणभूमि निर्वाणकाण्डम बताई गई तार- मंयमका श्रानरण किया उसी प्रकार-उमक फल-स्वरूप वरनगर न होकर 'मागमान् पर्वन' है। माथह। यह भी व स्वर्गलोकक शिखरपर स्थित लोकको-अहमिद्रपदरूप विदिन हो जाता है कि वह पर्वत मरस्वती नदीक और मर्वार्थ मद्विको-गये। वहांसे चयकर एक भव मनुष्यका श्रानतपर नगाके पाम है । दि० जनमाहित्यमे अभी तक धारण करके निर्वाण फलको पायंगे। श्रानर्तपरका वगान मिया बरांगचरित्रवे अन्यत्र कही मी मिद्धान्तका नियम है कि क्षकश्रेणी चदने वाले ही देखने में नहीं पाया । रमा नाद नारवर नगरका ओर बरोग केवलज्ञान प्रान कर सकते हैं, उपशमभेणी चदने वाले की मुक्तिका अन्यत्र कटी उल्लंग्व देवनेका नहीं मिलता। नही। उपशमश्रेणी मॉडने वाले जीव अवश्य गिरते हैं । श्रानतपरका वर्णन महाभारत और नागवतम जरूर पाया अस्तु. यहां यह लिख देना उचित जान पड़ता है कि उक्त है। भागवतके अनुसार द्वारका अानत देशमे थी । निर्वाण- जटिल कविके मुद्रित चरागचरितम प्रो० । एन. उपाध्ये काण्डकी उक्त गाथाका क्या अाधार रहा है यह कुछ ममझ ने मर्ग ३१ के. १०७ पद्यके निव'नि नापदनो' अश पर मे नही आता है।
जो Better प्रापदतो' टिप्पणी दी है. और हिन्दी मार ___ जटिल कवि और भट्टारक बदमानक, मंस्कृत वराग पृ.६६ पर ( वगगने ) अाठ कर्मों का नाश करके मुक्ति चरिती तथा भाषाक अन्य वगग चरिताक. अनुमार वगग प्राप्ति की" तथा विषयानुक्रम पृ. ८८ पर 'वरागस्य राजा मोक्ष न जाकर मार्थ मिाद्वको गये हैं। दम विषयक निर्वाणामि' म्प वगगके मोक्ष गमन-परक उल्लेख किये हैं दो प्रमाण जटामिहनदीक, वगगचरितम ओर एक व मब किमी भूल के परिणाम जान पड़ते हैं। मूल ग्रन्थ परमे कमलनयन कांचक भाषा बगगचरितम, जाक भ० वर्द्धमान उनका ममर्थन नहीं हो सकता है कि प्रो० मायके ध्यानम के परागचरितके आधारपर बना है, नीचे दियं जान हैं:- मम्पादनके ममय निर्वाण काण्डकी उक्त गाथा रही हो और .. . .. . महामुनिर्मासमथा युवास ॥१०॥ इम नरद ग्रन्थका का स्पष्ट उल्लेख अंझल हो गया हो। कृवा कषायोपशमं क्षणेन भ्यानं तथाचं समवाप्य शुक्लम् । करके हम विवेचनपरमे यह स्पष्ट है कि वरोंगयथोपशान्तिप्रभवं महात्मास्थानं समं प्राप वियोगकाले॥१०॥ चरितके अनुमार वरदत्तकी निर्वागणभूमि और वरोगका कर्मावशेषप्रतिबद्ध हेतोःमनिवृतिं नापदतोमहान्मा॥१०७॥ ममाधि-स्थान मणिमान् पर्वत है और वगग मोक्ष न जाकर विमुच्यदेहमुनि(सुवि)खलेश्यःआराधयन्नं(नान्त)भगवाञ्चगाम मर्वार्थमिद्धिको गये हैं। यौववीरः प्रविहाय राज्यं तपत्र मतसंयममाचचार । वीरमेवामंदिर, सरमावा ता. ११-३-१९४२
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंजाबमें उपलब्ध कुछ जैनलेख
(ले-डा० बनारसीदास जैन एम० ए. पी० एच० डी०)
-ofreeramतिहासिक सामग्री में लेखों (शिलालेख, एक दो दो जैन मंदिर विद्यमान है। इनमें सैकड़ों
ताम शासन. प्रशस्ति अदि) का स्थान प्रतिमा हैं, जिनपर लेग्य खुदे हुए हैं। ॐ बड़ा महत्त्वपूर्ण होता है। लेखोमें प्रायः पंजाबका सबसे पहला प्रकाशित लेख नगरकोट अपने समकालीन घटनाओंका उल्लेव रहनेसे उनकी (कांगड़ा) मे उपलब्ध हुअा था, जो वहाँके किलेमें प्रामाणिकनामे मंदेहकी गजाइ! कम रहती है। भगवान ऋषभदेवकी मूर्ति के नीचे पट्टपर खुदा हुआ भारतका प्राचीन इतिहास लिखने में ऐसे लेखोने है। इसका लेग्वनकाल मं० १५२३ है । मुनिजिन
आशातीत महायता को है । जैनधर्म के इतिहासका विजय द्वारा संपादित "विज्ञप्ति-त्रिवेण" मे प्रतीत मंकलन करने में भी ये कुछ कम महत्वके नहीं हैं। होता है कि उस समय कांगड़ा एक प्रसिद्ध ओर मथुराके कंकाली टील से मिले लेखोंने कल्पसूत्रमें प्राचीन जैन नीर्थ था । परन्तु आज कांगड़ेमे न कोई वणित कुल, गण, शाग्वा आदि जन-परंपराको अकाट्य जेनी है और न मूर्तियों के अतिरिक्त उम तीर्थका कोई रीतिम सिद्ध कर दिया है। आर दक्षिण में पाये जाने निशान ही बाकी है, यह कालकी कैम विचित्र गति है। वाले लेम्बोंने जैनधर्म के गारवपर भारी प्रकाश निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि इस नीथका डाला है।
विध्वंस कब और कैसे हुआ । कदाचित मुसलमानांक इनके अतिरिक्त मध्यकालीन तथा व
हाथोंमे अथवा भूकंप आदिम जैमा कि मन १६०५ अनेक लेख में विद्यमान है जो प्रायः पापारण और धातुमयी प्रतिमाओंपर उत्कीर्ण हैं। इनमें प्रतिष्ठाकी
मिहपुर के निकटवर्ती जैन मंदिरके अवरोपांपर तिथी तथा प्रतिष्ठा कराने वाले प्राचार्य और श्रावकके भी लेखांका होना सम्भव है। यह मन्दिर जेहलम गच्छ जानि आदिका उल्लेग्व दिया जाता है । इनपरसे
जिलेमें कटामक पाम था । इसके अवशेष चोया पदावलियांम वर्णित आचार्य-परंपराक अस्तित्वकाल मेंदनशाहके पाम 'मूरती' ग्राममे मिले हैं। चोनी यात्री की पुष्टि होनी है।
हहनचांगने इम मंदिरका उल्लेख करते हुये कहा है कि जैन लेखांको हिन्दी जनताक मंमुख रखनेका
यहाँ एक लेब भा खुदा था जो सूचित करता था कि श्रेय मुनि जनविजय, प्रो० हीगलाल तथा म्ब० बा०
यहाँ भगवान ऋपभदेवने देशना दी थी। यह अवशेष पूर्णचंद नाहरको है। जहाँ तक मुझे मालूम है इन
लाल पत्थरके हैं और अब लाहौरके म्यूजियममें महाशयों के लेख-संग्रहमें तथा अन्यत्र, नगरकोट के
सुरक्षित हैं। इनका विस्तृत वर्णन अभी तक प्रकाशित लेखको छोड़ कर, पंजाब और किमी भी लेखका नहाए समावेश नहीं है।
नाचे कुछ लेख* उद्धृत किये जाते हैं जो मवर्क पंजाबमे भी जैन लेह काफी मंख्यामे मिलते हैं।
सत्र शेताम्बर मंदिरोंमे लिये गये हैं। यद्यपि पंजाबमें क्योकि यहाँ जैनधर्म अति प्राचीनकालमे चला आ बहुतम दि०अर्वाचीन मंदिर हैं तथापि फई एक प्राचीन रहा है। किमी ममय यह धर्म यहाँ बड़ी उन्नतिपर ये लेख मूनिया पर हैं । इनम अधिक मूनिया ना था। कई स्थलोपर इसके प्राचीन अवशेष मिलते हैं। ऐसी है जो बाहर में श्राई प्रतीत होता है। नये मंदिरोमे तो अब भी पंजाब के बड़े बड़े नगरों तथा कस्बा में एक श्रीमद् विजयानंद गरि ने गुजगत भिजाई थी।
----
- माया
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
૭૨
अनेकान्त
[वर्ष ५
भी हैं । सुननेमें आया है कि जींदमें एक मंदिर है जो मुख्यपंचतीर्थी कारापिता श्री पू० श्री गुणसमुद्रसूरीणाअब बंद पड़ा है। नकोदर (जि. जालंधर) के मंदिरमें मुपदेशेन प्रतिष्ठितं विधिना। कई दिगम्बर प्रतिमाएँ हैं।
(पट्टी, धातुप्रतिमा) ___ ये लेब चार नगरोंके मंदिरोंसे लिये गये हैं- (६) संवत १५१५ वर्षे ज्येष्ठ वदि (?) शन। श्री १-अमृतसर, २-पट्टी (जिला लाहौर), ३-जीरा श्रीमालवंस श्रीहीराभा० हीरादे पुत्र सारंग भू श्रावकरण (जिला फीरोजपुर) और ४-नकोदर (जि. जालंधर) भा० पवी पु० समधरयुक्त न श्रीअंचलगच्छश श्री इनमें जैनोंकी अच्छी पुरानी वस्ती है। यद्यपि लेखों सुमतिनाथ बिबं कारितं स्वश्रेयाते प्रतिष्ठितं श्रीसंघेन । को प्रतिमाओंपरसे पं० जगदीशलाल शास्त्री एम० ए०
(जीरा, धातुप्रतिमा) ने बड़ी सावधानीसे उतारा है तथापि कहीं-कहीं लेख (७) सं० १५१५ वर्षे फाल्गुण शुदि ८ शन्नी मद्धम पड़ गये हैं, इससे पाठ संदिग्ध रह गये हैं:- ओसवाल ज्ञातीय लघु-संतानीय सं० मेघा भा०
(२)* संवत ११५६ माघ मदि १४ सके नागल पु० देवा भा० वरगाकेन (?) भा० वनाइ सु० आसीत् प्राग्वाट वंशस्य भूपको विहिलाभिधाः। देधर सहितेनात्मश्रेयसे चतुर्शितिपट्ट कारितं श्रीधर्मपत्नी सलहिका तस्य जिनदत्तः सुतस्तयोः॥१॥ नाथ विंबं कारापितं श्री कोरंटगच्छे नंनाचार्यसंतान भार्या च रोहिणी तस्य पुत्री सागरराहिको। प्रतिष्ठितं श्रीभावदेवसूरिभिः। दुहिता सीहिणी चान्या वधू [] सहजमती तथा ।। (नकोदर धातु प्र० दो प्रतिमाएं इसमें नग्न हैं) संसारासारतां ज्ञात्वा पुत्रैः सर्वैः सुसम्पदा। (८) सं० १५१६ वर्षे माघ शुदि ५ शुक्र श्री कारितो मोक्षलाभाथे चतुर्विशतिपट्टकः ॥शा ओसवाल ज्ञातीय राउल समरसी भा० टहिकू पुरा०
-(जीरा, धातुमयी चतुर्विशति जिनप्रतिमा) नरसिगना भा० नामलदे भ्रातृ रा० घागा मुत रा० (२) संवत १२७० ज्येष्ठ व प्र० श्रीसिद्धसेन सूरिभिः।। लापा दाछा धग सावस्ता रा० लाषा भा० माई सुत
-(नकोदर, धातुप्रतिमा) मूला सुतारमी प्रमुख कुटुम्बयुतेन निजश्रेयसे श्री (३) संवत १५७४ चैत्रवदि १ शनी श्रीश्रीमाल मुनिसुव्रतबिबं कारितं । प्रतिष्ठितं तपापक्षे श्रीसोमशातीय पूर्वश्रेष्ठ सउरा सु०संगम मु० पासवीर भार्या सुन्दरसूरिशिष्य श्रीमुनिमुन्दरसूरिशिष्य श्रीरत्नशेखर रूडीसुत संगवी चउथाकेन भार्या डाही सहितेन आत्म सूरि पट्टालंकरण श्रीलक्ष्मीसागरसूरिभिः*। अयोथं श्री पद्मनाथ बिंबं कारापितं श्री बाह्मणगच्छ
(जीरा, धातुप्रतिमा) श्री वीरमूरिभि प्रतिष्ठितं । -(पट्टी, धातुप्रतिमा) (E) मंचन १५१७ वर्षे वैशाष सुदि ३ सोमे श्री
(४) सं० १४८१ (१) वर्षे वैशाष श्री मृलसंघे श्रीवंश सा० देल्हणदे पु० शिवा भा० सलघु सुत भट्टारक जी श्री जयचंद्र+
लाडणेन पत्नी वमकू पु० माला भ्रातृ भादासहितेन (नकोदर, पाषाणपार्श्वप्रतिमा) स्वश्रेयसे श्रीअंचल गच्छाधिप श्री जयकसरीणामुपदेशेन (५) सं०१४६४ वर्षे माघ शुदि १५ रवौ श्रीमाल श्रीशीतलनाथचतुर्विशतिपट्टः कारितः । प्रतिष्ठितः ज्ञातीय श्र० धारा भार्या छाछ (बाराही वास्तव्य) लटे श्रीमंघेन ।। श्रीभयान ।। सुत साजण श्रेयोर्थ भ्रातृ क्रीकाकेन श्री नमिनाथ
(जीरा, धातुप्रतिमा)
(१०) संवत १५२१ वर्षे जे०शु ४ गुरु श्रीमाल *बाबूराम जैन द्वारा संचत "क्रान्तिकारी जैनाचार्य" जीग,
सन् १६३६ मे चित्र सहित प्रकाशित । इसकी लिपि मे * लक्ष्मीसागर द्वारा प्रतिष्ठित दूसरी प्रतिमाओके लिए 'स', 'श' में मेद नही किया गया।
देखिये--पूर्णचन्द्र नार-जैन लेग्य संग्रह" भाग २। + नकोदर के मंदिर मे पहिले यह प्रतिमा मूलनायक थी। नागौर के लेख ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
पंजाबमें उपलब्ध कुछ जैन-लेख
ज्ञाति सेठिया में कमला भा० कमलसिरि पु० सं० कुरपाल तल्लघुदांपव जैनशासनोत्तति कृ०सं० सोनपाल धोनी भायया (?) मं० गुणराज भा० वांपलदे पुत्र्या भा० सुवर्ष श्री तदां जैन सं० रूपचंद्रेण भार्याद्वययुतेन धणसिरि नाम्न्या म्वश्रेयसे चतुर्विंशति विबानि श्रेयसे सकुटुंबेन शांतिनाथबिंबं कारितं अंचलगच्छे कारयित्वा श्रीमीतलबिबं का० प्र० तपा श्रीलक्ष्मी श्री धमसूरीणा श्रा० श्रीकल्याणसागरसूरि युत्राणामुपसागर सूरिभिः॥ (जोरा, धातुप्रतिमा) देशेन श्रीमंघेन।
(पट्टी, धातुप्रतिमा) (११) श्री संवत् १५२१ वर्षे वैशाख शुदि १२ (१६) सं....१६ श्रीमूलसंघ ब्र० श्री सोपदेशात् बुधे श्री श्रीमालज्ञातीय श्रे० जोगा भा० कडूतया मु० बाई हेममती नित्यं प्रणमति । लांपा धरणा भोजा वीरायुतया आत्मश्रेयसे श्री
__ (नकोदर, धातुप्रतिमा) नमिनाथादि पंचतीर्थी आगमगच्छे श्रीहेमरत्न सूरीणा- (५७) संवत् १७१५ का० शुदि ३ मूलभद्रा देवमुपदेशेन कारिता प्रतिष्ठा च अहम्मदावाद वास्तव्य:श्रीः कीर्तिभिः रतना सुत रही आराद्ध प्रणती। .. ( नकोदर, धातुप्रति०)
(नकोदर, धातुपार्श्वप्रतिमा) (१२) मंवत् १५२१ वर्षे ज्येष्ट वदि १२ गुरु श्री (५८) श्रीमलसंघे भ श्री पं० प्रभाचंद्रस्तत्सिष्य श्रीमाल ज्ञा० सा० वीसा भा० टहिकू सु० हासाकेन श्री धर्मचंद्रस्तदाम्नाये खंडेलवालान्वये गोधागोत्रं वनाश्रेयसे श्री शांतिनाथ बिंबं कापितं प्रति० श्री सा पारस भार्या मौलि.. 'फालरामा''प्रणमति । पूर्णिमा प्रथम श्री श्रीसाधसुन्दरसूरिणामुपदेशेन
(पट्टी, धातुप्रति०) विधिना श्राद्धः। (अमृतसर, धातुप्रतिमा)
(१९) संवत'वर्षे वैशाप दि २ भौमे श्रीमूल(१३) संवत १५२३ वर्षे वै० शु० १३ दिने वृद्ध
संघे भट्रारक श्रीदेवेंद्र कीर्तिदेवाः तच्छिष्य श्रीविद्यानगर वास्तव्य ऊकेश ज्ञातीय स० हसा भा० अमरादे
नंदि देवा तरोरु देशानाहबड़वंशे श्रे गोइंदा भार्या सुन मं देपाल पहिगज डूगर जिनदासाः तेषु सं ।
भर्म (?) तयोः पुत्रास्त्रयः श्री हीर भार्या हर्ष । भहे पहिराजेन भा० मोहणदे मुत देवचन्द्रयुतेन निजमातृ
पर्वत । भा० माकू गोतृनईद भार्या वाऊ अपरा श्रेयसे श्री शंभवबिंबं का०प्र० तपागच्छ नायक श्री
माणिक दे । वाऊ पुत्र राणा भार्या हीरा। लक्ष्कीसागरसूरिभिः। (नकोदर, धातुप्रतिमा)
(अमृतसर, धातुप्रतिमा) (१४)मं०१५२३ वर्षे वंशाखशुक्ल ५बुधे सन० उके
ऊपरके लेखोमेसे अंतके चार तथा नं०४ इस शज्ञा०भ० नागसी भन्नागलदे पु० तोजावेन भा०वरजू भ्रा० वाडा भा० मूजी पु० कीका श्रीरंग श्रीदत्त मोमा
बातफी साक्षी दे रहे हैं कि जिन प्रतिमाओंपर ये लेख
हैं वे दिगम्बर संप्रदायकी होनी चाहिये । नकोदरके लप वधु पद्माई हाई जीवाई पम युतेन निजश्रेयमे श्रीमुमतिबिंब का० प्र० तपा श्री लक्ष्मीसागरसूरिभिः
भाई तो स्वयं कहते है कि हमारे पूर्वज दिगंबर थे
और पहिले वहांक मन्दिरमे लेख नं०४ वाली प्रतिमा श्रीमुधानंदजसूरि श्रीरलमंडनसूरि परिठीतेः।
मूलनायक थी। लाहोरके श्वेताम्बर और दिगम्बर (नकोदर, धातुप्रतिमा)
दोनों मंदिर एक दूसरेसे मिले हुए थे। पहिले दोनो (१५) संवत् १६६३ वर्षे वैशाष शुदि १३ सोम
का एक ही द्वार था और श्वेतांबर मन्दिरमें होकर दिने आगरा नगरे वास्तव्य लोढा गोत्र ओगाणि
जाता था । इससे प्रायः सभी भाई दोनों मंदिरों के शाखायां मं० ऋपभदासः भायर्या रेप श्री पुत्र सं०
रष श्री पुत्र स० दर्शनका लाभ लिया करते थे। अब कुछ समयसे * लोढागोत्रीय ऋषभदास आगरके बड़े प्रसिद्ध श्रावक थे। दोनोंका अपना अपना पृथक द्वार हो गया है।
इनका बनवाया मंदिर अब तक विद्यमान है। वहाँ एक श्वेताम्बर और दिगम्बर लेखों में परंपराके अतिशिलालेख पड़ा है जिसे मैंने "जैनसाहित्य-संशोधक" मे रिक्त शैलीका भी कुछ मेद है, जैसा कि उनके अंतिम प्रकाशित किया था। इनके और बहुतसे लेख मिलते हैं। शब्दोंसे प्रतीत हो रहा है।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
७४
यद्यपि ऊपर के लेख देशके इतिहासपर कोई भारी प्रकाश नहीं डालते, तथापि ये जैन संघकी दशाका स्पष्ट चित्र खीचते हैं। इनसे विदित होता है कि उनके समय में संघ अनेक गच्छों और शाखाओं में विभक्त था, जिनमें से बहुतसी शाखाएँ अब लुप्त हो गई हैं और कई एक नई बन गई हैं। श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देशाईने "जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास” नामक अपने ग्रंथके विभाग ५, प्रकरण ५ में संघकी छिन्नभिन्नताका विस्तृत वर्णन किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनसंघम केंद्रीय सत्ताका
श्री वीर - पञ्चक
ले० पं० हरनाथ द्विवेदी
अनेकान्त
[ वर्ष ५
बिल्कुल अभाव हो गया था। जिस गच्छ या शाम्या का जोर होता वही प्रधान बन जाता । अतः सबमें प्रधान बनने की होड़ सी लगी रहती थी। इस सबका परिणाम यह हुआ कि जो साधु या भट्टारक कुछ बल पकड़ता था, वही अपनी पृथक भक्त मंडली बना लेता था । यही दशा अब तक बराबर चली आ रही है । जैनसंघ किसी ऐसे नेताको अभी तक जन्म नहीं दे सका जो इन भिन्न भिन्न संप्रदायो आम्नायों और टोलोको एक सूत्रमें पिरो सका हो । ऐसे अवतारी पुरुषकी नितान्त आवश्यकता है।
हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! जिसकी प्रवर प्रभासे हम हो धीर वीर गंभीर । ज्ञान प्रभाकरका होवे यॉ पावन परम प्रकाश । अंधकार- अज्ञान - शत्रुका होवे शीघ्र विनाश ॥ अहिसाका न हरण हो चीर । हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! प्रेम-समीरण वह कर हमको करें प्रमोद-प्रदान । दया-शक्ति-सौरभ से पूरित हो भारत उद्यान ॥ न हो हिंमासे भीषण पीर | हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! 'कर्मचन्द मोहन' की मुरलीमं तेरा सन्देश । अविरल गूंज रहा है वो बढ़ा कोश निश्शेष ।।
तुम्ही त्रिभुवनके पावन पीर | हमे दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! तेरी अटल अहिंसा-सरगीपर है निर्भर देश । महापुरुष गांधीका भी यह शुचि निरुपम उद्देश || लगादो भारत-तरणी ती । हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर । मानवकी मानवता जब थी पशुतामे उद्भ्रांत । फूंक अहिंसा-शंख-ध्वनिको किया तुम्हींने शान्त ॥ बनाया यह है नोर-क्षीर । हमे दो वह प्रतिभा श्रीवीर !
* ग्रागमे 'महावीर जयन्ती के अवसरपर पठत ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
बलात्कारके समय क्या करें ?
(लेखक-महात्मा गांधी)
एक बहनने अपने पत्रमे मुझमे नीचे लिग्वे मवाब श्राज शहरोमे रहने वाली प्रत्येक स्त्रीके मामने यह पूछे है
खनग तो है ही, योर हालिये पुरुषोंको इसके सम्बन्धम १-काई दैत्य जमा मनुष्य गर चलनी किमी बहनपर चिन्तित रहना पड़ता है। इसलिए मेरी मलाइ तो यह है हमला करक उम पर बलात्कार करने मफल हो जाये, तो कि डरकर नही, बाल्क सावधानोके विचारमे स्त्रियोको गावों या उम बहनका सतीच भङ्ग हुया माना जायगा? में जाकर बम जाना चाहिये और वहां गायोकी कई तरहमे
२-क्या वह बदन तिरस्कारकी पात्र है, उमका मेवा करनी चाहिए | गावाम खतरेकी कम-से-कम संभावना चाहाकार किया जा मकता है ?
है । यह याद रखना होगा कि गांवोमे धनवान बहनाको
मादमा और गरीबीमे रहना पड़ेगा। अगर वे वहाँ कीमती ३-से मंकटम फैमी हुई स्त्री क्या करे ? जनता
गहने और कपड़े पहनकर अपने धनका प्रदर्शन करेगी तो क्या कर? तिरस्कार नहीं, दयाकी पात्र
एक मंकटमे बचकर दूमाम जा पड़गी और हो मकना है
कि देहातमे उन्हें एकके बदले दो-दो मंकटोका मामना में मानता हूँ कि दरअमल ता इमं मनाय भङ्ग ही करना होगा। लेकिन जिम पर मफल बलात्कार किया जाय
स्त्रियाँ निर्भय बनें। वह ना कमी भी तरह तिरस्कार या वाहाकारको पात्र नहीं, लेकिन अमल चीज नो यह है कि स्त्रियो निर्भय बनना
लेकिन असल चीज नो गा है कि वह नो दयाका पात्र है। उमका गिनती घायलाम दादी मांव जाय। मेग यह दृढ विश्वास है कि जो स्त्री निडर है चाहिये, योर इमालये घायलोकी मेवाकी नग्ह उमकी भी यार जो दृढना पूर्वक यह मानती है कि उसकी पवित्रता ही संवा करनी चाहिये।
उमके मनीत्वकी मोनम ढाल है, उसका शील सर्वथा मच्या मनाव भइती उम स्त्रीका हाता है, जो उमम मुगक्षत है। मी म्बीके ने जमात्रमे पशुपरुप चौधया आयया मम्मत हो जाती है। लेकिन जा विरोध करत हुए भी घायल चार लाजसे मड़ जायगा । Pा जाती है, उसके मम्बन्धमे मनाव-भङ्गकी अपेक्षा यह
इम लेग्वको पढ़ने वाली बहना मेरी सिफारिश है कि अधिक उचित है कि उसपर बलात्कार हुआ। 'मनील-भङ्ग अपने अन्दर हिम्मत पैदा करे । परिणाम इमका यह या व्यभिचार शब्द बदनामी मृचक है। इसलिए वह होगा किव भयस इटकाग पा जायेगी और निर्भयह चलाकारका पर्यायवाची माना जा मकता । जिमका माय मर्कगी। व स्त्रियांम पाई जाने वाली थर थराइट या कम्पन बलात्कार पूर्वक नट किया गया है, उसका किसी भी तरह का न्याग कर दंगी1 यह कोई नियम नही कि हर एक निन्दनीय न माना जाय. ता मा घटनायाका छिपानेका जो मल्जर (मैनिक) पशु बन ही जाना है। बेशरमीकी इम हद रिवाज पड गया है. व मिट जाय। यदि मिट जाय. तो नक जाने वाले मोल्जर कम ही होते हैं। मो में बीम ही मॉप खले दिल मी घटनायांक विरुद्ध उहापोह कर मकंगे। नगले होते हैं और बीममे भी डॅमने वाले तो इने-गिने ही
अगर अग्नबागमे इन पटनाग्रांक खिलाफ टीक-ठीक होल हैं। जब नक कोई छेड़े या मनाये नही, मॉप हमला अावाज उठाई जाय तो मेंनिकाकी छेडग्यानी बहुत कुछ रुक नहीं करना । लेकिन इपोकको इम जानम कोई लाभ नहीं मकनी है और नब उनके सरदार भी उन्हें बहुत हद तक होना। वानी सॉपको देग्यने ही थर-थर काँपने लगता है। गोक सकेंगे।
अतएक जरूरत तो यह है कि एक स्त्री निर्भय बननेकी
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
अनेकान्त
शिक्षा प्राप्त करे। माता पिता और पतियांका काम है कि वे उन्हे यह शिक्षा दें। हम शिक्षाको ग्राम करनेका सबसे सरल उपाय तो ईश्वरमे श्रास्था रखना है । ग्रदृश्य होते हुए भी वह हर एककी रक्षा करने वाला अचूक साथी है जिस में यह भावना उत्पन्न हो चुकी है, वह सब प्रकार के भय से मुक्त है।
[ वर्ष ५
ना' इस मन्त्र के अर्थको इर एक पाठक समझ ले और कण्ठाग्र कर लें ।
दर्शक पुरुष क्या करें ?
यह तो स्त्री धर्मा, लेकिन दर्शक पुरुष क्या करे ? मच पूछो तो इसका जवाब मैं ऊपर दे चुका हूँ, वह दर्शक न रहकर रक्षक बनेगा । वह खडा-वड़ा देखेगा नहीं वह पुलिसको ने नहीं जायगा । वह रेलकी जंजीर खींच कर अपने आपको कृतार्थ नहीं मानेगा। अगर वह हिमा को जानता होगा तो उसका उपयोग करते-करते मर मिटेगा और संकट में फँसी हुई बहनको उबरेगा । ग्रहिमामे नही हिमा द्वारा बहनकी रक्षा करेगा। ग्रहिमा हो या हिंसा, आखिरी चीज त मौत है मेरे सामने टाके कारण अशक्त और बिना दाँतों वाला बूटा अगर ऐसे समय यह कहकर छूटना चाहे कि 'मैं तो कमजोर हू' यहाँ मैं क्या कर सकता हूं? मुझे तो श्रमिक ही रहना है तो उसी क्षण उसका महात्मापन नष्ट हो जायगा और वह मर मिटनेका निश्चय करने और दोनों के बीच जा खड़ा दो तो बहनकी रक्षा तो हो ही जायगी, वह उसके सतीत्व भङ्गका साक्षी भी न रहेगा |
निडरता या श्रास्थाकी यह शिक्षा एक दिनमें नहीं मिल सकती । श्रतएव यह भी समझ लेना चाहिए कि इस दरम्यान क्या किया जा सकता है। जिस स्त्री पर इस तरह का हमला हो, वह हमले के समय हिंसा अदिसाका विचार न करे । उस समय अपनी रक्षा ही उसका परमधर्म है । उस वक्त जो साधन उसे सूझे, ऊसका उपयोग करके वह अपनी और अपने शरीर की रक्षा करें। ईश्वरने ਜੇ दिये हैं, दाँत दिये हैं और ताकत दी है। वह नाम्पून इनका उपयोग करें और करते-करते मर जाय । मौनके भय से मुक्त हर एक पुरुष या स्त्री स्वयं मरके अपनी और
पनकी रक्षा करे । सच तो यह है कि मरना हमे पसन्द नहीं होता। इस लिये आखर हम घुटने टेक देते हैं। कोई मरनेके बदले सलाम करना पसन्द करता है, कोई धन देकर जान छुड़ाता है, कोई मन लेता है और कोई चीटीकी तरह रेगना पहन्द करता है । इसी तरह कोई स्त्री लाचार होकर जूझना छोड़, पुरुषकी पशुताके वश हो जाती है।
ये बाते मैंने तिरस्कार यश नही लिपी, फेवल वस्तु स्थितिका ही जिक्र किया है। मलामीमे लेकर मतीत्व भङ्ग तक की सभी क्रियाएँ एक ही चीजकी सूचक हैं। जीवनका लोभ मनुष्यसे क्या-क्या नहीं कराता ? श्रतएव जो जीवनका लोभ छोड़कर जीता है, वहीं जीवित रहता है । 'तेन त्यक्ते
इन दर्शको के मन्यन्ध मे भी अगर वातावरण ऐसा बन जाय कि हिन्दुस्तान का कोई भी आदमी किसी भी स्त्रीकी लुटते देख नहीं सकता तो पशु वादी भी हिन्दुस्तानी स्त्रीको हाथ लगाना भूल जायगा । किन्तु शर्मके साथ यह कबूल करना पड़ता है कि आज हमारे वातावरण में यह सेज नहीं है। अगर हमारी इस शर्मको मिटाने वाले लोग देश में पैदा होजायें तो बड़ा काम हो ।
- ( हरिजन सेवक से )
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
'यशस्तिलक' का संशोधन
(लेखक-५० दोपचन्द जैन पारड्या)
दिगम्बर जैनसाहित्यम ‘यशस्तिलक' नामका एक वर्ष पूर्व निणयसागर प्रेस वम्बईके अधिपति मेठ
प्रसिद्ध गद्य-पद्यात्मक चम्प ग्रंथ है, जिमे यशोदेव तुकाराम जावजीने अपनी 'काव्यमाला' नामकी ग्रंथके शिष्य अर नमिदेवक शिष्य श्री मोमदेवसरिने मालामे नं०७० पर दो वएडोंमें प्रकाशित किया था। शक संवत -१ (वि०सं०१०१६) में नाकर समाप्त उसी वक्तसे यह ग्रंथ विद्वानोंक विशेष परिचयम किया है। इसमें यशोधर महाराजका चरित्र आठ आया है, जिससे उक्त प्रेसके अधिपति निःसन्देह
आश्वासोमे वर्णित है, जिनकी शोकसंख्या सब मिला धन्यवाद के पात्र है, अ.र यह उनकीकृत-साहित्यके कर आठ हजार है। पिछले तीन आश्वास उपासका- साथ साथ जैन-साहित्यकी भी विशेष सेवा है-और ध्ययन (श्रावकाचार)-विषयक धर्मापदेशको लिये हुए भी कितने ही जनप्रन्थ उन्होने अपनी काव्य-माला हैं, जो ४६ कल्पोंमें और प्रायः दोहजार जितनी शो- मे प्रकाशित किय है। कसंख्या संकलित है। इस ग्रंथपरमे सोमदेवसरिफा
यहॉपर यह बात भी प्रकट कर देने की है कि विशाल अध्ययन नथा साहित्यादि-विपयक प्रकाण्टु
बम्बई का उक्त निर्णयसागर प्रेस अपनी शुद्ध पाईके पाण्डित्य पद पदपर झलकता है, और यह उनकी
लिये मशहर है; परन्नु खेदके साथ लिम्ना पड़ता है अमर रचना ही नही बल्कि समूचे संस्कृत साहित्यम
कि इस ग्रंथ के उत्तरखण्डका टीकाके बादका भाग बहुत एक बेजोड़ रचना है । इस काव्यमाहित्य तथा राजनीतिका एक मालिक अपूर्व ग्रन्थ कहा जा सकता है।
" ही अशुद्ध छपा है, उसमें दो-चार, दम-बीस हो नहीं
किन्तु सैकड़ो अशुद्धियाँ हैं, जो पढ़नेवालोको बहुत ही इमका गदा 'काटम्बरी' की टकरका है और इस समृचे ग्रंथमे 100 से अधिक शब्द मे हैं जो वतेमान को प
चक्करमे डालती है-कितनों होको उनके कारण विषय ग्रंथोमे हूँढे भी नहीं मिलते। यह ग्रंथ विविध विषयों
म्पष्ट नहीं हो पाता और कितने ही उन्हें लेकर अर्थका
अनर्थ कर डालते है ! निर्णयसागर जैसे जिम्मेदार के सुन्दर परिचयक माथ माथ व्यत्पिनिको-प्रनिभाको प्रदान करता है, माथ हो कर्णप्रिय, अर्थ-बहुल तथा
प्रेसमें खुद उमीक मम्पादको द्वारा सम्पादित होकर पे
प्रथम इतनी अधिक अशुद्धियोका होना बहुत ही चित्तम चमत्कार पैदा करनेवाला है, इस दृष्टिम संस्कृ
बटकता है और वह उक्त प्रेमको शोभा नहीं देता। नन्न विद्वानों के लिये मदा ही पठनीय तथा मननीय
हो सकता है कि प्रयत्न करने पर भी प्रेसको उम भाग बना हुआ है, और इस तरह जैनसाहित्यमें एक बड़े
की कोई शुद्ध प्रति न मिली हो, फिर भी महामहोपाही गौरवकी वस्तु है । इम ग्रंथपर श्रुतमागरमूरिकी ध्याय जैम विद्वान सम्पादको द्वाग अपनी ओरम उन्हें एक बहुत ही सरल तथा विस्तृत टीका भी उपलब्ध है। कुछ म्यष्ट करने का प्रयत्न जरूर करना चाहिय था, जो जो ग्रंथ के भावको अच्छा व्यक्त करती है। परन्तु यह
करता हा परन्तु यह नहीं किया गया। जहाँ र्टका समाप्त होती है वहाँ टीका अधूरी है-माढ़े चार आश्वास तक ही पाई जाती है,
उत्तर खण्डके २४४ पृष्ठपर सम्पादकोहाग यह नोट बार इस तरह इस चम्पूक पाँचवे अाश्वासका कुछ भाग तो जहर लगाया गया है कि उत्तरं टिप्पणादातथा अन्नके तीन आश्वाम विना टीकाक ही पड़े हुए हैं। लंक्रतो मलग्रन्थो मुद्रणीयो भविष्यति"-इममे आगे
इस ग्रंथको उक्त टीकाक साथ आजसे कोई ४० का भाग टिप्पणी आदिमे अलंकृत होकर आपेगा।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
किन्तु पृष्ठ २६७ को छोड़कर, जिसपर टिप्पणीके कुछ दर्शन होते हैं, शेष समूचे ग्रन्थ में टिप्पणी आदि नामatest भी दिखाई नही देती । इससे स्पष्ट है कि ग्रंथ के इस उत्तरभागके सम्णदन में जैसा चाहिये था वैसा परिश्रम नहीं किया गया । अस्तु ।
यह ग्रंथ मेरे अध्ययनका स्वाम विषय रहा है और मुझे इसके उक्त संस्करणकी अशुद्धियों और त्रुटियोंसे बहुत ही पाला पड़ा है । साभाग्यका विषय है कि आज से कोई ३-४ वर्ष पूर्व मुझे, दि० जैन बड़ा मंदिर मुहल्ला सरावगी अजमेर के अध्यक्ष भट्टारक श्री हर्षकीर्ति महाराजकी कृपा से इस ग्रंथकी एक अतिशयशुद्ध प्रति मिली, जो कटिन शब्दों को टिप्पणियोस भी अलंकृत है, स्थूलाक्षरों में ४०० पत्रों पर लिखी हुई है और पूर्ण तथा श्री हालत है । यह प्रति विक्रम संवत १८५४ के तपसि माम में गंगाविष्णु नामके किसी विद्वान द्वारा । लिखी गई है; जैसा कि इसकी लेखकप्रशस्तिक निम्न पापरमे प्रकट है :
पंक्ति अशुद्ध पाठ १ विधानामन्त्रेषु १२ सालवलनेषु
वर्षे वेद-शरेभ- शीतगुमिते मासे तपस्याये तिथ्यां तत्विषियत वे जिनाधीशिनाम् । गंगाविष्णुरिति प्रथामधिगतेनाभिख्यया निर्मिता (ग्रन्थस्या) स्य लिपिः समातिमगद् गुर्वक पद्मालिना
पृष्ठ २४४
१३ दुग्रत्व १७ भवदुःख १८ विदन्तोऽपि
२० सहाभिनिवेशस्य २१ वितर्कयतः
शुद्ध पाठ
विधानाऽमंत्रपु शालवलनेषु
दुर्गव
३ दवरु १८ या दर्शय वस १६ धर्मे म्थीयानां मुख्यानि विलोकिठ
[ वर्ष ५
इस ग्रंथप्रतिको देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई मैं उसी समय इसपरसे संशोधन विषयक नोटम ले लिये थे । हालमें, मेरी योजना वीरमेवामन्दिर में होनेपर, जब मैंने सम्पादक 'अनेकान्त' को अपने वे नोट्स दिखलाये तो उन्हें संशोधन बहुत लम्बा चौड़ा होनेपर भी यह उचित जान पड़ा कि उसे 'अनेकान्त' के इस नववर्षाङ्कमे ही प्रकाशित कर दिया जाय, जिस से बहुतोका भला हो र विद्वानोकी उलभी हुई गुत्थियॉ सुलके । अतः सम्पादकजी की सूचनानुसार श्रश्राम क्रम और पृष्ठादि-क्रम से ग्रंथका जो संशोधन तय्यार किया गया है उसे अनेकान्तके विज्ञ पाठकोक सामने नीचे रक्ग्वा जाता है। आशा है विद्वज्जन इम से यथेष्ट लाभ उठाएँगे और अपनी-अपनी ग्रंथप्रतियो को शुद्ध करके पढ़नेका आनन्द लेगे ! इसके सिवाय, उत्तर खण्डका मिलना आउट आफ प्रिस्ट होजानेसे
वैसे भी कटिन हो गया है, उसके दूसरे संस्करण की जरूरत है, जो नई शलीम तुलनात्मक टिप्पणियो तथा उपयोगी परिशिष्टां श्रादिके साथ सुसम्पादिन होकर प्रकाशित होना चाहिये, जिससे ग्रंथका गौरव बढ़ सके। ऐसे नवीन संस्करणके लिये यह संशोधन विशेष उपयोगी सिद्ध होगा, ऐसी दृढ श्राशा है । पांचवाँ आश्वास
पक्ति अशुद्ध पाठ २० म्लुचेन द्वितय
२०
सुपुत २२ चित्रो बन्धः २२ यथा यं
भवदुःख विन्दतोऽपि
पृष्ठ २४५
ग्रहाभिनिवेशम्य इति तर्कयतः
अनेकान्त
रुरु
यादर्शयत् । म राज ( धर्मस्थोयानां मुखानि व्यलो किट
५. परिग्रहीन
न्यास्त वै
60
६ पचितस्ततो ११ तेपु १३ मणिमयूर १५ योगास्थिति
१६ कुचभार
२० बाहुबल २३ विधिलयना
शुद्ध पाठ
म्लुचेनाद्वितीयं
सुप्त चित्रो वध; यथाऽयं च
पृष्ठ २४६
परिगृहीत
न्याश्रवैः
पचितात्तनो
गतेषु
मणिमय
योगस्थिति
कुचुमार
बाहुबलि विविधलयना
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण१-२]
यशस्तिलकका संशोधन
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ पंक्ति अशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ पृष्ठ २४७
। ११ सर्गा दक्षिण मर्गा द्विधाऽऽगमन्य ४ प्रत्यक्षहुताशना प्रत्यक्षहुतहुताशना
मार्गो दक्षिणो ८ फलम्तककपु फलस्तवकेषु
१५ शक्तिविनाशेन शक्ति विनाऽशेन ११-१२ रङ्गलियु रङ्गवल्लिपु १३ देहिनीपु देहलीषु
१ संपश्यत्यात्मानं यः पश्यत्यात्मानं १४ दृपरणश्रवणम दृपणोपश्रवणम्
५ निराश्रवचितो निराम्रवचित्तो २० कुगत्त्रयपने जगत्त्रयपते
६ ऽक्षिणामतःक्षिणामक्ष्णः स्वलक्षणं २० विदं (१) मानायाः विन्दमानायाः
है कशदर्शनाश केशदर्शनाशनविनाश पृष्ठ २४८
१५ हङ्कारिणः मङ्कारिणः १३ विकीर्ग वितीर्ण
१७ भण्डि १४ द्याने यदा तेन याने तदद्याने यदा तेन ।
पृष्ठ ५३ त्रिजगतीः म्य
३ परलोकभावे त्रिजगतोन्नय
परलोकाभावे ५५ वादाविरोधस्य विवादाचिगंधस्य
५ कुलाश्रयै कुशलाश्रय २६ भविष्यन्ति भविान
८ भगवन
भगवान तदनृचान
विपयग्रहाः १७ तदनुचान
विपमग्रहाः २६ कृतापराया प्रयोगा कृतपरापायप्रयोगा
१५ सदोदिते
महोदिते पृष्ट २४६
१६ कष्टाशिष्टता का विशिष्टता २ व्यतीत्य तं व्यतीत्य २५ सवर्गा
सर्वगों ३ काकतालीय काकतालीयक
पृष्ठ २५४ ५ .लिकामालवालिका -लिका माल बालिका ३ प्रीतयेता
प्रतीयता ४५ निकटे कुरटकुलाय- निकटोत्कुटकुलाय
सिद्धोपलब्धिः कोटर निकंटे
पृष्ठ २५५ ७ च कदाचिन चबालभाव कदाचित १५ रथक्षोग्गीयन्ता रथः क्षोणी यन्ता
२२ चतनां शनि चेतनाशक्ति gg:५० १. तत्रच विवादा तत्र विवादा
२४ भोग
भोग्य १० किलवं माह मूरिः किव माहाऽऽमुरिः
पुष्ट ०५६ २४ गतक्रियः गतोऽक्रियः
३ कटकतापिस प्रसंगः कटकृतापि स प्रमंगः २६ श्रीनाः स्रोता: १५ विष्टि
विष्टिः १७ मोहावपरि मोहावहपरि
१५ सचेतनान
सचेतनात २० बोधवद्धानक बहुधानक पृष्ठ २५५
२२ किमपर
किममर १ मिपस्ताविः मिपस्ताविपः
२३ मकर्मभ्यो
तत्कर्मभ्यो १ तपः प्रायशः नपः प्रयासः
२७ प्रत्यामतिहिते प्रत्यात्तिहते ७ कोरका कोगक
पृष्ठ-५७ २० लोकः क्लिश्नाति लोकाः क्लिश्यन्ति ४ खरोऽक्ष्णोः खरोक्ष्णोः ११ दि गर्भस्य भर्गस्य हि
१० स्तन हेतो म्तनहातो
होता
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
पंक्ति अशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ पंकि अशुद्ध पाट
शुद्धपाठ १६ कष्ठा काश १६ विस्मृत्य
विस्मित्य १६ चित्ताचित्त चित्ताच्चित्त
हाट २६३ २० धातवः बुद्धयः १० लेग्वति
लेखपति पृष्ठ २५८
१४ राश्रावि
राश्रावित ३ यथाग्नेस्तामे- यथाऽग्नः स्तामे
१५ नवलनाम्या नवल्भनाभ्या १३ त्रयं समाश्रित्य त्रयमिहाश्रित्य
१७ पापोपयागाभ्या पापोपयोगाभ्या १५ करणम। अमंजानतदर्थ कारणाम । अमंजातसदर्थ १७ पितामही पिता पितामही २२ दृरागम दुरागम
१- म्वयंनिहित स्वयं निहत पृष्ठ २५६
२४ विलयति
विदलति १ किंचिदुष्कृत किं स्विद् दुप्कृत
२६ अत उर्व अध उचं १ भगवन
भगवान ६ प्रयुक्त प्रमुक्त
• तुलां तु तव तुलान्तवत् है अचिरममा नभ अचिग्ममामन्न
५ मामृग्धारव मामृग्वरेव १४ निवेदौ तहत परि निर्वदोद्धतपरि
८ नादात्विकापवापः तादात्विकावापः १७ दकर्माण दलंकर्माण
पद्रवत्सु
पद्रवत्सु महत्सु २५ वनितामु गर्भ वनिता सुगर्भ
२३ शीतलानलो शीतलानिलो पृष्ठ २६०
२३ चन्दनम्पन्दो चन्दनम्यन्दो २ मकारादिपत्रयम्य मकारादित्रयस्य १० यथायथाप्रसिद्धि यथाप्रसिद्धि
पृष्ठ ०६५ १०-११ नरान्मुग्यात्तथैवा- नगन मुख्यान् तथैवा- 3-४ तङ्कमर्मणश्च तङ्ककर्मणश्च न्वतिष्ठत न्वतिष्ठिपन
१० भवेदत्मवः भवेऽनुत्मवः १४ नामनि
नामनी । ११-१२ प्रवृत्त रन्यत्रा
प्रवृत्त वृत्तरन्यत्रा २१ मतिं भर्तृ मति राजपुत्री भर्नु १. विहितमममा विहितमा २२ दंशैर दंशर १५ वत्रागती
वत्रागता समागतो च २४ वलित चलित
१५ मभान्तराम मभान्तरम २६ मुनेरमस्य
१८ शाल्यित
शल्यिन पृष्ठ २६१
२३ दिग्धमूढ दिद मृढ ६ मुकुरुन्दी मकुरुन्दी
२३ बान्धवलोक बान्धव लोक १३ निष्टविचेष्टिनम निष्ट विचेष्टनम
२३-४ श्रय, श्रीमाधव खली श्रयश्रीमाधव, खली २२ नीयेत वमति नीयताऽचमति
२४ मारमुनि
मार मुनि २७ वन्दामहे
वन्दावहे
: ५ देवादवातालोकनेन देवातावलोकनेन पृष्ठ २६२
म्यन्द
२७ स्पन्द - वीरवैरि वीर वैरि २७ सव्यस्य
भव्यम्य ८-६ नेन्दुफान्त निप्पन्द मिन्दुकान्तनिष्यन्द १७ वृत्तान्तानि वृत्तीनि
१८ तामनर्घाम
तामनाम
पृष्ठ०६६
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण१.२]
यशस्तिलकका संशोधन
छठा भाश्वास पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ | पंक्ति अशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ
पृष्ठ २७३ ४ मुनैर्मान्यान् मुनेर्मान्यात्
३ तदा वृत्तिहतौ तदावृतिहतो १२ विजयमूर्तिना विजयिमूर्तिना
१६ ग्वुक(?)बीजादेः रुवृकबीजादेः १४ लंकृतिमत लंकृतिमता
२० समस्तसमसिद्धान्ता समस्तसिद्धान्ता पृष्ठ २६८
२६ विदधाति जवं, जैवी विदधात्याजवजवी १ पटुर्दोदेण्ड पटुदोर्दण्ड
पृष्ठ २७४ २ प्रजोपद्रवद्रत प्रजोपद्रवोद्रत
२ जीवेषु
बीजेषु ६ सूत्रसूत्रप्रवेश सूत्रप्रवेश
२ सिद्धाश्चिन्ता सिद्धश्चिन्ता ६ व्यसनदावा व्यसनवनदावा
४ रसवेधसंबाधा रसवेद्धसंबंधा ११ व्यापनाः व्याक्षेपनाः
५ मनन्मात्र
मननमात्र पृष्ठ २६६ १ सम्यक्त्वभावना सम्यक्त्वं भावना
पृष्ठ २७५ ६ सर्वदेहिनः सर्व वेदिनः
१८ विपत्ती तां विपत्ती स्तां ७ विलानी विलासिनी
पृष्ठ २७६ ७ नोकहो नांकुहो
१८ संप्रति संजातजव मंप्रतिमंजातजन # काय च
२०-२१ तद्भाव
तदभाव १३ कारणा करणा
पृष्ठ २७७ १८ पुरुषो
५ तद्वा न संबंधतः तद्वानसंबंधतः पृष्ठ २७०
१४ श्रुतेः श्रुति श्रुते श्रुति ५. मोक्षः इतिमोक्षा- मोक्षक्षण इति ताथागताः १७ तद्विधत्त्व तद्वत्मविधत्स्व वमरा स्ताथागताः
पृष्ठ २७ १० परे ब्रह्मणि परब्रह्मणि
३ मेयोऽनुमानतः मेये तु मानतः
४ प्रमाणतः प्रमाणता २ युक्ति युक्ति १८ जीवस्य
जीवत्वे २५ श्रद्धां श्रद्धा
२० [वि मानयोः समानयोः २६ जायेत जायते
पृष्ठ २० पृष्ठ २७१
२ रूपाद्धयात्मा रूपाद्यात्मा १५ टङ्कसूना उकसूना
१७ नुवर्तित्वं २१ मुग्वानि दे मुखाग्रनिर्भये
१५ निर्मलम् निर्भरम पृष्ठ २७२ २ सुखप्रायौ सुग्वप्रायः
पृष्ठ २८१ ५ बाधो वा बोधो वा
दाप ६ मिद्धसाध्यं तया मिद्धसाध्यतया १६ निकृत्यते निकृत्यते १५ तथैव तवैव
पृष्ठ १६ च घटेत च न घटेत
१६ ह्यरत्नेन ह्यरत्नेपु
पुरुषयोः
द्विपे
नुवृत्तित्वं
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
अनेकान्त
[वर्ष ५
पंक्ति अशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ
पृष्ठ २८४ १ निश्चये
निचये १ मदपक्षी
मदमषी २ मुख्यपटा मुखपटा ६ तदा वाय
तदावश्य ७ निर्भरं प्रमोला निरर्भप्रमीला ८ प्राणिना
प्राणिनां है स्वः श्रेयसि निमित्तम् श्वःश्रेयसनिमित्तम १० यद्येवं तर्हि यद्येवं सूरेः तर्हि १४ परित्यागेन परिहारेण १४ फलादिपत्तिः फलापादितापत्तिः १५ नार्यमिति नाचर्यमिति १६ कालपणः कालक्षेपक्षणः
पृष्ठ २८५ १ ककू रोत्कीर्णः कर्करोत्कीर्णः ५ जनसमवस्थिति जनस्थिति ५ मनोहर
मनोरहस्य १३-१४ शमथावसथ समथावसथ २३ अष्टाह्रपर्व अष्टाह्रीपर्व २६ चरित्रा
चारित्रा
पृष्ठ २८६ १ पिङ्गल ३ परीक्ष्यावहे परीक्षावहे ६-७ काशकुशा
कुशकुशा ८ मानस
मनस ६ प्रवृद्धवृद्धता प्रवृद्धता १२ चलचमू
चलमूल चक्रवर्तिनो
चक्रचक्रवर्तिनो १३ नामया
नामधेयया २० मवलोहला मलोहला
पृष्ठ २८७ ३ यज्ञे यथा यज्ञैर्यया १० अतस्तत्त्व
अंतस्तत्त्व १६ शोपं शुष्क शोषशुष्क २२ धवलैः
प्रबलैः
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ
पृष्ठ २८८ ७ लोकनकौतुकाय लोकनकृतकोतुकाय १६-२० समासृजत्समाप्तविष्ट समासजत्सकलविष्ट
पनिविष्ट २० चेष्टः । स च चेष्टः सच २० द्रवाद्विपलब्धः द्रवाविप्रलब्धः २३ वरं कंजरं मायामय वरकुंजरं मायामय
__ प्रतिघे (?) स्ताघे प्रतिघेऽस्ताघे २५ मात्रमन्त्र
मात्र २७ व्याघ्रव्यति विघ्नव्यति
पृष्ठ ८६ २ प्रसवाः
प्रभवाः ५ भवदशे
भवशे ६-७ कृतशंकताभ्यां कृतसंकेताभ्यां १२ कार्तिश्चाल्पं कीर्तश्चाल्पं १८ सूत्रसहस्र
सूत्रसर २० प्रबन्धना- प्रबन्धेना२४ वाहनाहुतीकृता वाहुना कृता २७ वर्जितोणितप्रज्ञः वर्जनोर्जितप्रज्ञः
पृष्ण ६० ३ इत्युदाहत्य इत्युदारमुदाय ४ मन्वर्थक
मन्वर्थ ८ प्रदीपदीप्ति प्रदीप्रदीप . लोक्योपटक्य लोक्य ममुपढाक्य १३ त्रापाशिक्षम मयासिपम १३ कथमयं
कमियं १४ निषेकेऽस्मिन निषेक्ये शिक्येऽस्मिन १४-१५ कुण्ठकुएट पठन कुण्ठकण्ठं प्रपठन १५ गमने । न गमनेन १७ एनां साधयामि एतत्साधने २२ तनूद्भवति । निर्विशेष- तनूद्भवनिर्विशेषपोषित
पोषित ! २६ ताशंसनः ताशासनः २६ लयिनि सौमनसव- लयितसोमनसदयिनि
नोदयिनि
पिङ्ग
१२
चक्र
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
यशस्तिलकका संशोधन
रेखादे
हासे
पंकि अशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ
पृष्ठ २६१ १२ धेनु ने धेनुर्वने १३ उच्यते
उचिते २४-२५ मतिरनङ्गमतिः'। मतिः । अनङ्गमतिः
पृष्ठ २६२ ४ किलहृदये
विकलहृदये ८ हास्ये १० भिभवा
भिनवा १२ प्रमाण
प्रथमान १६ स्मरमवलन
सारस्खलन १८ भवना
भुवना १६ पालिन्दी
पालिन्दी २० विद्याधरविनोद विद्याधर विनोद २२ मृतद्रुति मृतति
पृष्ठ २६३ २ मार्गाद्धि प्रतिनिवृत्त मार्गाद्धनिवृत्ति ६ मदमदनेन मदनमदेन १६ गृहीत
सुगृहीत २४ पितरं तां भवन्तं पितरं मातरं च तां
पृष्ठ २६४ ५ संवादि
संवाद ६ आदापवादि प्रदोषवादि ७ येन शक्तःश्रुताशयम यन्न शक्तः श्रुताश्रयम ८ यन्तु
जन्तु १९-२० वसरस्य प्रभोः वसरस्य रोरुकपुरस्य प्रभोः २२ शुणपात्रे
नएणपात्रे
पृष्ठ २६५ २ भावनैकशो भावमनेकशः ४ धिपनादाधीन धिषणाधीनं ५ मालोक्य
मागत्य ६ नियतं तम निपतन्तम ७ श्चरित्रः
श्चरित्र ८ चितोपचार चितोपकार ११ भिद्यात
तिघात
पंकि अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ १३ इत्युपकुष्ठा
इत्युपक्रष्टा १४ रेखा तदे १६ भर्मिभ्रमि भर्मिभ्रम २० यत्त्रिदिवो त्रिदिवो
पृष्ठ २६६ २४ गगनमन
गगनगमना
पृष्ट ६७ १ मन्तिनी
सुमतिसीमन्तिनी ५ ज्ञातोऽस्मि ज्ञातव्योऽस्मि ८ पतिर्जिन
यति-जिन १२ सपक्षासमक्षा सपक्षा समक्षा २७ सर्वस्वसमाः स्वपर सर्वस्व समास्व । पर २७ प्रक्रमासे
प्रक्रमाऽसे आसे।
पृष्ठ २६८ ४ सस्याङ्कर
शष्पाङ्कर ७ पठ्यन्ते
प्रपठ्यन्ते १२ मविकल्प
मविकल्य
पृष्ठ २६६ ५ नस्तदानी
नस्तदिदानी ६ परोक्ष
परीक्ष ७ जिनापर्यङ्क जिनासीनपर्यङ्क १२ रोक्षमाल राक्षमाल १२ योममुद्रा
यागमुद्रा अम्भोगवा अम्भोभवोवा २२ प्रगीता
प्रगीता २३ स्मृत्य विस्मय स्मृत्याऽविस्मय २५ कल्पितमृता कल्पिनामृता २७ जलजटिल जालजटिल २७ प्रभावम, प्रभाप्रभावम,
पृष्ठ ३०० ३ मिति गम्भीर मतिगम्भीर ६ चामरोपचर चामरोपचार १० प्रभवाः
प्रभवः
मन्वग्भृत १३ अनिशवन
अनिमिपवन १४ गोचरो नाभ गोरोचनाम
१३ मन्वग्भूत
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
८४
पंति अशुद्ध पाठ
१५-१६ अवालकपालदल
कलापालवाल
२० सुरवर्म २६ निशम्य ते
२७ वार्ता भद्रा
२ मर्दीति
३ स्वापतेश
७ प्रतिमशेषतः निलम्पा
१४ प्रतिभाताव
१८ विविधप्रकृति
२५ कल्यपरम्परा
२ पादितः
१४ गन्धताम्
१८ नगास्त्र
२० विदूष २४ लिप्ति
२४ करस्य
पृष्ठ ३०१
१ सूर्यो २ कियद्रहन
२५ तलगारा
२६ मद्भुतमद्भुतद्योत
पृष्ठ ३०२
पृष्ठ ३०३
११ ऽस्माद्देवगृहे १२ इत्ययाचतोऽप्र
१३ प्रियतम
१५ यतीश, न
१७ यतीशानाम्
१८ देवप्रह १८ मभ्यर्थकलत्र २७ दुर्वाणीकाः
मर्दी कपर्दीति स्वापतेयेश
प्रतिममशेषतः
शुद्ध पाठ
अवालकपादललालवाल |
सुर
निशम्यन्ते
वार्ताsभद्रा
निलिम्पा
प्रतिभातोऽव
विविधकृति
कल्याणपरम्परा
पादिताः
गन्धिताम्
नङ्गात्र
विदूषक
लित
करसारस्य
तलागारा
मद्भुतद्योत
सूप
किदवसानं गहन
देवगृहे
इत्ययाचत । अप्र
प्रियतमः
यतीशान,
यतीशाम
अनेकान्त
देवगृह
मभ्यर्थ्य कलत्र दुर्वाणिकाः
पंति श्रशुद्ध पाठ
२
३
४ कैरवार्जन
७ नोत्सूर्पे
१३ सद्दर्शनाद्
मायामोह
तेन भावेन
३ विश्रासि
७ व्युर्गावेग
१० समास
१६. विकीर्ण
मानानेक
२३ नरवरः
२४ साधु
१५
२५ कं च भूषा
८ सारास्मृतैः
१६ सानाया
१८ न्यूनानि १६ कृतोदकं
२२ याद्वयात
२५ समाहूयतां
पृष्ठ ३०४
५ सदाचाराखिलैः
१४ लम्बतरुः
विरक्ति
३ लेशयाः
६
६ कुन्तकलापा
तपसः श्री
पृष्ठ ३०५
२०
मानानक
२२ मतिभीती विस्मिता मतिभीत विस्मिता
न्तःकरणः
मायामोष स्तेनभावेन कैवार्जुन
नोत्सपें
पृष्ट ३०६
शुद्ध पाठ
पृष्ठ ३०७
पृष्ठ ३०८
७ पथना
११ मनो नो मुनि
दर्शनाद्
विश्राणयसि
व्युत्सर्गवेष
समास्त
विकीय
सदाचारखिलैः
लम्बनतरुः
विरक्त
कण्ठभूषा
ऽन्तःकरणाः नरवरः सपरिवारः
साधु
सारामृतैः
सादनाया
नूनमनूनानि
कृतोदर्क
याऽश्रद्धात
समाहूयन्तां
[ वर्ष ५
जलेश्याः
तपः श्री
कुन्तलकलापा
पघना
मनोमुनि
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
यशस्तिलकका संशोधन
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ १५ विधिनी
विधिना १८ मासय्य
माशय्य १८ विचित्सा विचिकित्सा २० प्रकामं शकलित प्रकामशकलित
पृष्ठ ३०६ १५ मनवाप्तवती मनवाप्नुवती १७ मस्मन्मय (त)- मस्मन्मनोमथ १८ प्रार्थनं कथं प्रार्थनं १८ मनः परिच्छदच्छात्र मनःपरिच्छदःछात्र २१-२२ सत्त्वनिरूपण सत्त्वस्वरूपनिरूपण २६ सकलाकलाप सकलकलाकलाप २६ ऽवधिपयोधि ऽवधिबोधपयाधि
पृष्ठ ३१० ७ कपटकपिकटमन्मानो फपटपिटक मन्मनो ६ स्वेच्छयेच्छयागच्छ स्वेच्छयागच्छामि
तदागच्छ १० प्रज्ञा भगवनः ज्ञाभगवतः २१ -त्मायसमूहेन -मायसहायसमूहेन २४ महिन्यानुगस्तं महिन्यानुगतस्तं
पष्ट ३११ १ म्लायमानलावण्यः म्लायल्लावण्यः ३ कृतवति सति प्रिय कृतमतिः–'प्रिय ७ विधायिपात्रं, विधायिधामपात्रं पुत्र' ५२ मानन्दितनिरोक्षिता मानन्दनिरीक्षिता २२ कीर्तिन
कीर्तन २४ विरहायश्चरी विहायश्वरी २६ परिणमता परिणता २६ मृलावलय
मूलालवालालय
पृष्ठ ३१२ १ मन्मनो
एतन्मनो ४ प्रियपत्नी
प्रियपुत्री ४ नाम सङ्गा
नामसङ्गा २० नितान्तं तीरिणी नितम्बतीरिणी ११ व्यापदं तस्य व्यापदन्तस्य
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ २१ प्रज्ञावज्ञा
प्रज्ञावज्ञाभ्या २३ दूरिति
दुरित २५ मावसाय
मवसाय २६ चारणऋद्धिद्धिः चारद्धिवृद्धिः
पृष्ट ३१३ ६-७ स तत्र
सत्तत्र २१ स्थानि निलोच स्थानिनि लोच २३ पिरिडते
पण्डित २५ सम्पन्नहीयमी संपन्महीयसी २७ राजा
राजा च तां
पृष्ट ३१४ ५ निवर्य च निवार्य अवधार्यच ७ जडीतः
जहान्तः १५ प्रतिप्रणय
पतिप्रणय १६ मुत्मतु
मुत्मत्त १६ मालप्य
माकलय्य २० द्वित्रिदिन
द्वित्र दिन. २५ समयवित्र्या समयसविच्या
पृष्ठ ३१५ १ द्युतिगतिविद्या गति विद्या २ नाम्बरश्चक्रण नाम्बरचरचक्रेण २-३ भ्युत्थानादि क्रियः भ्युत्थानक्रियः ७ शरफर८ नास्तिमिव
नस्तिमित ६ सम्भूत
सम्भृत १० शयननिचयैः सैन्यानचयः २० विष्टपत्
तिष्ठिपत्
पृष्ठ ३१६ १० संयतात्
मयतान १४-१५ बलिना
लिना बलिना १७ मुनिशती मुनिपञ्चशती १८ महद्धिपुषः महर्द्धिजुषः २१ द्यानोद्योगे द्यावोद्योग २१ संभववि
संभवि
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
८६
अनेकान्त
[वर्ष ५
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ २३-२४ विलक्ष्मीकृत विलक्ष्यीकृत
२७ विरञ्च इवोच्चार विरिश्चरिवोच्चारण पृष्ठ ३१७
२७ वयसि च
वयसि वपुषि च श्राद्धा
पृष्ठ ३२१ १० धिक्यवाचस्पती धिक्यवाक्यवाचस्पती ४ प्रवृत्तिः वृत्तिः' प्रवृत्तिः दत्तिः' १२ कुजद्विजाः कुजाः द्विजाः
६ पूर्वाप्रकृत पूर्वीप्रवृत्त १८ ऽतिवाद्यं नगर ऽतिवाह्य बाह्यनगर ११ बलिना
बले! न पृष्ठ ३१८
१४ विरोध
विरोचन १ धारोद्धारा धरोद्धारा
१४ इव क्रमेणो इवाक्रमणो ५ मायतितः मापतितः १५ सर्वतश्चो
पर्वतस्यो ५ सभाजनकर सभाजनसभाजनकर
१६ वेदिकाय
वेदिकायां सूक्ष्मण
१८ सूक्षण
चेतः मं
चेतसं २५ पद्मास्य पद्मस्य महापद्मस्य
पादारविन्द पादारविन्दः
खलतालता
२१ खलता पृष्ठ ३१६ ४ समन समर्थन
पृष्ठ ३२२ ६ नेफयोधन नेकायोधन
६ हेतुभयात् हेतुतया ८ अभ्यर्णमित्रीण अभ्यमित्रीण
१४ पदार्थेपु वा पदार्थेषु ८-९ बलिनाब्धिमध्ये बलिनाध्वमध्ये
१८ विनाशाविना निशाविना १४ अक (?)
अलकः स्वामिन बलः । २१ तदाधिगमा तदधिगमा १५ विनयाय विनयनाय
पृष्ठ ३२३ १६ चातुर्मसी चातुर्मासी
४ रखवाक्यैः रेकवाक्यः २५ जनोत्कर्ष जन्योत्कर्ष
६ भूपिणं पृष्ठ ३२०
७ भयात्
भवात २ श्रमण श्रवण ८ भीति
भीतिः ७८ भिवमस्थिता मिवात्मस्थिता
११ श्रुतिव्रते १० गुरुनिदेशवृत्ति गुरुनिदेशप्रवृत्ति च
पृष्ठ ३२४ ११ भीति भित्ति
२४ वात्माद्योमव वात्माऽद्योमेव १२ क्षेत्रस्तत्र पात क्षेत्रसूत्रपात्र
किंचितदोष्ण्यं १५ यामकर्ष
२६ किचिदुष्णं तु यामपे १६ णाप्यकम्पित णाप्याफम्पित
पृष्ठ ३२५ १६ असंख्यान
प्रसंख्यान
। ६ पुण्यायाभि पुण्यायापि २२ सहसा सहमे
६ पापायाभि पापाया पि २३ नृपतिमवमत्य नृपति चावगत्य ११ मुखं दुःखविधाता सुखदुःखाविधाता २५ वकाशप्रदीप वकाशः प्रदीप
१६ प्रचारज्ञः
प्रसारज्ञः २५ ध्वनितृतीयेन ध्वनिः तृतीयेन
२० प्रवृत्तिचिति प्रवृत्तिविनि
भूषणं
श्रुते व्रते
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
यशस्तिलकका संशोधन
पृष्ठ ३३४
सातवाँ आश्वास पंक्ति अशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ
पंक्ति श्रशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ - पृष्ठ ३२७
१६ महामत्स्यचेष्टिता हे महामत्स्य चेष्टिता २ कटकचेटक चटक ! वेफट
पृष्ठ ३३३ ३ परक्रमा पराक्रमा
। ३ विनिष्पन्दि विनिष्यन्दि ६ त्यागाः महोडुम्बर- त्यागः सहोदुम्बर पंचकः - याचत भोगवान्। याचत । भगवानपिपंचकाः । १६ चितोऽपि
चित्तोऽपि ७ श्रुतेः
श्रते २५ वश्यकमा वश्यमा
६ मन्त्रापधि मन्त्रौषध २६ विधुरसङ्गतिौं - विधुरधीसङ्गैर्मातङ्ग.
१० सर्वान
सवान रुपबद्धय रुपरुद्धय
मुत्सर्गि काल मुत्सगेकाल पृष्ठ ३२८ ६ विधानः निधानः
पृष्ठ ३३५ २१ मज्जन संजन ४ सिद्धयः
शिम्बयः २२ चेलालोपं चेलकोपं
वाचा परे वाचाऽपरे पृष्ठ ३२६
पृष्ठ ३३६ ३ कस्य वश्यं कस्यवश्यां
१३ कुर्यादयं तु कुर्यादजंतु ४ इत्पाद्य दुत्पाट्य
१६ धीन्द्रिया द्वीन्द्रिया ५ चिरन्नाय (?) चिरत्राय
२३ तथैव .. तत्तथैव २५ पापश्रवा
पापाश्रवा १५ द्वेष्टः पृष्ठ ३३०
१७ मत्र हिंसा मत्राहिंसा २१ वृतिभिः व्रतिभिः
१६ विहारणः विहरणः २२ परत्रेह च परत्र च न २० परिषद्वर्ष
परिपद्वर्य २३ कुतपा कुतुपा २१ मिथ्या
मिथ्यात्व पृष्ठ ३३१
२३ दित (?) दी दितदीर्घ २३ धर्मधिः धर्मधीः
२६ निः सूकाशयवयस्य निःशकाशयवशम्य २६ दितो द्यावेन्दिगमद्यां- दितीद्यावेन्दिरामन्यां- २७ रापत्त्यां
रायत्यां काकान्यां पुरिचार्वाका काकन्यां पुरि श्रावका
पृष्ठ ३३८ पृष्ट ३३२
३ समापतितः समापतति २-२ जाङ्गलि जाङ्गल
४ प्राप्नोपि
न प्राप्नोषि २ निर्वहरणा निबर्हणा
६ कालक्षेप
उकालक्षेप ६ महादेव महादेह ७ कारणं
करणं ७ भूपालो भूपालोऽपि १० असमस्तक
अस्तमस्तक ६-१० निद्रायत्तो निद्रायतो १३ घटेव
घण्टेव १२ निष्कामन्नि निष्क्रामन्तं नि
१८ मध्यानुमोचित निश्चया मध्यानुगमोचिनिश्रयया १२ मंपातनचेतांस्यपि संपातरतचेतांस्यपि २३ विश्वगुणो महा विश्वगुणामहा
किंनु
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
८८
अनेकान्त
[वर्ष ४
पृष्ठ ३४४
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ २५ प्रपालिका प्रपापालिफा
१० क्वोच्चालितो क्वोचलितो पृष्ठ ३३६
१३ रोचिष्यति
रोपियति ५ स्थपतेय स्वापतेय १५ मन्मनो
श्रेष्टिनि मन्मनो १ प्रतिवेश प्रतिनिवेश
२६ चापेन मया च स्थेया वापेन मया च म्थयों ११ परुष परुपवपुष २७ फल्पयतेव
कल्पलतेव १२ जुष्टमा जुपमा
पृष्ठ ३४३ १३ जसूवार जनवार
३ शोकावतस्थे शोकावस्थे मलिनी कलिनी ८ भाजानुजा
भाजा तुजा १६ दुष्पुत्रेणेव दुपुत्रेण्यं
११ ध्वजानामभाजनं ध्वजनामभा १७ 'मैवं 'मुनिगुप्त, मैवं १३ शरप्रती
शरण-प्रती पृष्ठ ३४०
१४ रमारूप
साररूप २ मेतस्मै मतस्य १५ मंसार
संभार ६ भगिनि भगिनी २० प्रापणिक
आपगिक ७ पठोप
पेण्ठोप १३ तमनं तमतं
४ माधन
साधन १३ मुपश्रुत्य मुपश्रत्या श्रित्य च ५ सभजत्
मभजत् १५ सभागिनीकं स-भगिनीक
१३ निवेशेन
निदशेन
सर्व रायि (=धने) १७ मुपहरा
१५ सर्व राज्ञि मुपह्वरगह्वरा २१ स्तनाभि
स्तनीभि २३ बसिभासि वतंसभागि
४-५ सौन्दर्य
सौन्दर्योदार्य २६ अस्येन्दिरा अकरोच्चास्येन्दिरा ६ सुनृता
सूनृता २७ मकरन्दपरित्यक्त त्यक्त
५० भाण्डन
भण्डन पृष्ठ ३४१
१०-११ भरीर
भटीर
निजसनाभि १ पुण्य
१६ निजासनाभि पएय कामदं
कामन्दं = मन्दिरं १६ इति पुण्य श्लोकाः। इति प्रपञ्चः प्रपञ्च
पोतपात्रस्य
२६-२७ पोत्रस्य मकानस्यां मकानसी
२७ यद्भविष्यतया यद्भविष्यत्तया १४ निस्पन्द निःस्पन्द
पृष्ठ ३४६ २३ रूपद
कूपद(जामातृदेयंवस्तु)/ १ क्षपरिण चरम क्षयिणि चरम २४ देवसमक्ष देवमुखसमक्ष
६ जमरणा
जनमरणा २६ मुच्छ्राय मुत्थाय
७ तीवातमन तीवान्तर्मन २७ श्रीमति श्रीमती १४ जवाघात
घवाघ्रात पृष्ठ ३४२
१६ महानुरोधेन मोहावहानुरोधेन २ संकेत संकेतं
श्रीमतेः
श्रीमतः ७ तात तात यथा तात यथा
२२ वेलमेव
वलमेवं
al anant anital india
पृष्ठ ३४५
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण१-२]
यशस्तिलकका संशोधन
पंक्ति अशुद्ध पाठ २४ नाय्यमतिः २५ इवास्ति
शुद्ध पाठ नार्यमतिः इवासितु
खातेयेने
२ मोषमौष
मेष मोष ७ सदनम्
समम ८ त्यत्र चास्येव न्यत्राम्यैव ६ यदि मतदतये यदि च यद्वतये १० परिवर्तार्थ
परिवता १४ नुक्रोशान्नि नुकोशाभिनिवेशानि १४-१५ मन्मनसंधात्रि अम्मन्मनः संवात्रि १६-१७व्याहाराकण्ठपाठ- व्याहाराकुण्ठपाठ
कठोरनालः कठोरकण्ठनालः १६ मेनककुचना मनककुचरा २६ क्रुटि
कुक्कुटि २१ कुट्टिनी
कटुनी __ श्वस्त्येहानि अस्त्येहनि २६ राज्ञाद्भता शामराजा अमृताशी
पृष्ठ ३४८ ४ परिचयानि परिचर्याचरत्नानि ७ चेतसि च चेतसि वचसि च १ स्तिनी
स्तिभी (हृदय) १२ मूमी
सूर्मी १६ तदेवं
तवेद १६ विश्रो वात्या विम्रोवात्यो
ऽनुग्रहोऽनुग्रह ऽनुग्रह २५ प्रदृतानि
प्रहतानि मार्मिकृतकशल माष्टिः कृतकलश
पृष्ठ ३४६ २ कनिष्टः
कनिष्ठः ३ दाहयेऽन्वपाये दाहे येऽन्यवाय ४ प्रधानानिधिः प्रधाननिधिः १५ कंवलश्रुति
केवलिश्रुत
पंक्ति अशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ । २५ ज्ञाते येनै । २६ चरणमंगलस्य मधुपि क्षुण्णशूर्णमंगलस्य पि
पृष्ठ ३५१ १ स्थलोद्दशना स्थलोद्दलना २ परिणीता परिपरिणवा योग्यमिदं
भोग्यमिदं ७ मुपदानं कुलं मुपदानुकूल १. प्रवाल्हीका प्रवहिका २६ वोघ
बोध
पृष्ट ३५२ ५ दण्डस्त्वस्य
दण्डस्तस्य १. जंघारिक
जंघाकरिक १२ द्वारमन्दिरे द्वारपदिरे १२ प्रयुपरिणया प्रयुक्तपरिणया
मद्वाम शालिनि वाला मद्धामशालिनि ज्वाला २. मेकायत
मकायन पृष्ट ३५३
कद्धि ५ प्रसूतिर्वसुमती प्रसूतिवसुमती वसुमती ७ मती व्रतो
सतीव्रतो १५ समाधिगासवे समाधिजिगांसवे १५ चन्द्रमाभ्या चन्द्रमः समाभ्या १६ अन १८ सर्गाधियो मर्गधियो २० मसिवगौरवो मम्भसि गौरवो २४ स्मानमधरधाम मंनि त्मानमात्मानमधरधाम
धानं न मंवयेयम। संनिधानंनसंभावयेयम्। २४ धनान्तो
बन्धनान्तो २६ राज्यभरे
राज्यभारे २७ ममिध
ममिथ
पृष्ठ ३५४ १ मुरगणयुगलं
भूर्णायुयुगलं हव्यवाहन हव्यवाहवाहन ४ मुपसद्याहस्वःमंपाद्य मुपसद्यापाद्यप ४ सुरभ्रमुत्र
मुग्भ्रपुत्र
पृष्ठ ३५०
२७ भवन्मान्या २२ मण्डन
भवेन्मान्या भण्डन
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
पनि अशुद्ध पाठ __ शुद्ध पाट
पृष्ठ ३५८ १४ यज्ञार्थ यज्ञार्थे २१ लभ्यमानाः लभ्यमानान् २५ शास्तांस्तान्हत्वा शास्तांस्तानसत्त्वान हत्वा
पृष्ठ ३५६ १ हव्यकव्यकर्मभिः हव्यकर्मभिः २-३ शोचिः क्लेश शोचिष्केश ६ मुक्त्वा
हित्वा १२ यज्जात्वैव
यज्जात्यैव २१ जल्पवान
जन्मवान् २६ यत्तौ स्ता
यत्तौ न म्तां
पृष्ठ ३६०
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ १-१० निकरम्बमुत्पाद्य निकुरुम्बमुत्पाट्य १४ पदेशः
पदे शदः (गतः) १६ स्मरणपर्याप्त स्मरणः पर्यात २० प्रज्ञः२० वृत्तयो
प्रवृत्तयो २१ शान्तिपौष्टि शान्तिकपौष्टि २३ प्राचार्यनित आचार्यकनिकेत २४ ऽप्यथा
ऽप्यर्था २५ नेदमस्तु कारं नेदमस्तुङ्कार २७ मानयोनिकष मानयोरावयोनिकष
पृष्ठ ३५५ ८ पाद्यबुद्धथा पायबुद्धथा १६ मानेप्सीत माप्सीत् २१ वशेषा
बसेया २२ इत्यात्मान
इत्यात्मनात्मान २६ यथायथंवद यथायथंवद यथायथंवद २६ बदुले
वहले २७ प्रजाप्रजल्प
प्रजल्प
पृष्ठ ३५६ १६ दुराचारे क्षणक्षुभित दुराचारेण क्षुभिन १७ वासौ १६ तान्ध्मातो ताध्मातो १६ यशा
वशा २२ तारो महान्कएठ तारं कण्ठ २२ पुरुहूतोल्वण
पुरुपूत्कृतोल्वण २२-२३ विश्वरद्युष्ठा विस्वरघुष्टा २७ प्रतिष्ठी
प्रतिष्ठा
पृष्ठ ३५७ ५ भवान् सम भवान् षोडन् सम ८ निजरूपा
जिनरूपा 1 समिते १० पिशिफापिस्वापन पिशितकापिशायन १० प्रसादः
प्रासादः १४ शेष धिषणा शेषधिषण
७ मुक्ता १२ वृथायेति १३ पौरे भाग्या २१ अस्यातिचार २६ व्यवहारानुगः
मुक्त्वा वृथाट्य ति पौरोभाग्या अस्यातिचिर व्यवहारानुरागः
पृष्ठ ३६१
वसौ
.८ मतसिद्धि
मतकार्यघटनाऽसिद्धि है धात्री
सन्धात्री धात्री १२ धात्तविध
धात्तथाविध १४ तप्तमवयसोरसयसो तप्तवयसोरयसो १४ संगत्याय
सांगत्याय २० मपरस्त्यबहि मपरस्य बहिः
पृष्ठ ३६२ ४ त्येवत्येव
त्येव ७ वचनै
बच्चत्रै ८ वास्तुभिश्च वास्तुभिर्वस्तुभिश्व १४ येयं
झेयं २३ धान्यधिपा धन्यधिया
पृष्ठ ३६३ ११ स्पन्द
स्यन्द १८ पलम्भ
पलम्मा २१ स्पन्द
स्यन्द
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
यशस्तिलकका संशोधन
पृष्ठ ३६८
पंकि अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ २६ गोपायते गोपाय्यते
६ नीतिविना नीतिर्धावना पृष्ठ ३६४
१३ विलयं
विलीयं ४ तयानुमता हि मता हि तनयानुमताहित
२२ मुपप्रोतव्यम् मुपद्रोतव्यम् ५ वासरेषु बासुरेषु (=पक्षिषु)
पंकि अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ १२ मेखलस्य मेखलस्य प्रालेयाचलम्य २३ सहाजिसं
सहातिसं १३ नि:शेषकुन्त निःशेषशकुन्त
२७ विक्रीणाते विक्रीणीते १७१८ ममानुकण्ठा ममाकुण्ठा २४ तथा दिष्टो तदा दिष्टो
पृष्ठ ३६६ पृष्ठ ३६५
७ प्रवाधावसंदर्शन प्रधावसंदर्शन १० निकृत्ति निकृति
८ विधाय यने विधापयन्ने १२ पाताल पाताला १० युषः
पुषः १३ मवानीयां खट्वायां मवानाखट्वायां १२ मानयामास
मानाययामास १४ बन्धे वन्ध्ये १३ सम्बन्धः
सगन्धः १५ जीविनी जीवनी १३-१४ मपतता
मापतता १६-१७ यक्षिणी पक्षिणी १७ फायमान
स्फायमान १६-२० तद्वयन तदुद्वयेन
१६ शोकमनाय शोकशमनाय २० रुचिरप्रवासो चिरप्रवासो
१६ ततस्त्वय्यप्येताः ततस्त्वयाप्येताः २० पुरो वने पुरोपवने
२० संग्रहीतव्या संगृहीतव्या पृष्ठ ३६६
२१ यात्रणां
यास्तूणे ३ भवानैतिह्यनिकरं भवानेतद्व्यतिकरं
२२ ततोपदेश
तातोपदेश ६ दन्तमाख्यत् गतमुदन्तमाख्यत
२२-२३ मवश्यन्
मवस्यन् ६ मर्पोत्कर्षगतमुस्था मर्षोत्कर्षस्था
२६ पुरोपस्नातायागतः पुरोऽपस्नायाऽऽगतः ८ प्रह्लाद प्रसादन
पृष्ठ ३७० १२ तव हुंकृत न बहुकृत ८ दासी
वासी १३ सतृण
इन्द्रियमस्थानं इन्द्रयमस्थानं 8 निष्पपात
नरकनिबन्धः नरकनिषेकनिबंधः पृष्ठ ३६७ १० न प्राप्ति नाआप्ते
१३ प्रकाम मलोभ प्रकामलोम १६ धनं न यत् धनं नयत्
पृष्ठ ३७१ २५ अथ संघ अघसंघ
८ सांपरायप्रवर्धकात संपरायप्रवर्धनात २५ वर्तवर्तगः वर्तवर्तगम् । १२ सुहृतां
माठवां पाश्वास पृष्ठ ३७२
संभोगाय विशुद्धयर्थ स्नानधर्माय च स्मृतम। ३ सेव्याथ नियमो सेव्यार्थनियमो
धर्माय तद्भवेत्स्नानं यत्रामुत्रोचितो विधिः । १० नित्यस्नान' पद्यसे पूर्व निन्न पद्य छूटा हुआ है।:- १२ संस्पृष्टे
मंमृष्टे
सत्रिण निपपात
१०
सुहत्तां
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
विहत्य
तुष्यति
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्धपाठ
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ २४ विहत्य
६ त्रयस्य पुरः
जयपुरः २६ संप्लुतःस्वान्तः संप्लुतस्वान्तः
१० पचरितो
परचितो पृष्ठ ३७३
२१ गण्यपण्या
गण्यपुण्यपण्या ४ रूधस्य रोधम्यं
२२ पातनमस्काण्ड पातनतमस्काण्ड १३ हेतुधीस्तत्र हेतु/स्तत्र
पृष्ठ ३७७ २३ प्रथम प्रथमान
६ निबंधभय निबंधनाभय २७ चेति चैते
१३ किनीधरम किनीनिदानमेदिनीधरम पृष्ठ ३७४
१४ तरुः कल्पद्रम तपः कल्पद्म
१५ मद्धीमनाः ५ दतिशयविराजित दतिशयविशेषविराजित |
सद्धीधनाः
१६-१७ शमानिशपावनस्य शमातिशयावसानस्य ६ गणप्रमुखमहामुनि गणमहामुनि
प्रगायः ११-१२ प्रवर्धनिकामध्ये- प्रवर्धनकामधेनो.अवीचि २४ प्रणय नीरवीचि
पृष्ठ ३७६
१५ भोक्ष्यति २१ फीचनमदेवा काश्चनमस्मादेवा १७ शास्त्रमनी
शास्तुरवी २१ मखिलबल मखिलमल
२४ मथ रजःप्राप्त मघरजः प्राप्त २२ मसमसहाय मसममसहाय
पृष्ठ ३८० २५ समर्पयन्त ममपर्यन्त
६ धानोर्धयः धानर्धयः २५ मलघुव्यपदेश मलघुगुरुव्यपदेश
८ दधती "रत्नाकरः दद्धता 'रत्नाकरा: २७ भुवमाशिरः
१३ साध्वीकृती
साध्वीकृतीः पृष्ट ३७५
पृष्ट ३८१ ७ उदिगेतोदित उदितोदित
. श्रियेव
श्रिये वः ८ अध्ययनाध्याय अध्यनाध्यापन
५ स्थिलीना स्थितीना है द्विविधात्म द्विविधात्मक
११ देहागमे
देहारम्भे ११ रविन्दनीमिथ्यात्व । रविन्दिनीमिथ्यात्वमहा ६ मपमयचित्तो
मयमपचित्ती १२ शिष्यसंपदा शिष्यप्रशिष्यसंपदा
पृष्ठ ३८२ १८ मार्गण मार्गमार्गरण • यस्मिन्नेष
यम्मिन्नैप २२ प्रीत प्रान्त २४ करोतु
तनोतु २३ व्रतविधा व्रतविद्या
सूप पृष्ठ ३७६
२६ विहितोद्यमः विहतोद्यमः २ प्रवह प्रवाह
पृष्ठ ३८३ २ चरनित चरनरनित
१० कल्पितार्थे कल्पिता ४ कामनचरित्र चरित्र
१६ वोत्माहिनं वोत्साहिना ७ लैहिके सुख
२५ तीरमार्गम्नाना तीरमार्गा स्नाना वधीरित वधारित
पृष्ठ ३८४ है रसि सह रसिरुह
१ भूयः
भुवनशिरः
लैहिकंसुख
भूपः
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
यशस्तिलकका संशोधन
प्रलापो
वदेयं
पंकि अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ १७ प्रलोपो
२६ विदेहि
विधेहि १८ व्यापारगिलसः व्यापारिगलम्
पृष्ठ ३६० २० वादनाद वाद्यनाद
१६ मतिस्थपुसो नाद मतिस्पष्टं सनाद २१ लकीर्ण कुलकीर्ण
पृष्ठ ३६१ पृष्ठ ३८५
६ मम्नातया
मग्नतया १ पादपादपा त्पादपा
११ चित्त... चित्त चित्त ७ तिमुन्त विमुञ्च
१३ ग. ज्योति जगज्योति १५ वमरे वसरं १६ वाक्षमित्व
नाक्षमित्व २३ भक्तया नेत भक्त्यानता
पृष्ठ ३६२ पृष्ठ ३८६
१६ च तथाऽन्यत्र' 'यो- ऽपि तथाऽन्यत्र यथा१४ रयं रियं
विशेत्
विशन् १६ हेतोर्धर्मा हेतो धर्मा
पृष्ठ ३६३ २१ ममे स मे २१ भूमैनो
भ्रमैनो २२ मिथ्यास्तास्तनु मिथ्या स्तान्ननु
पृष्ठ ३६४ पृष्ट ३८७
७ मादशी
माइशां ४ वैदग्धा वैदग्धी
१२ तेषां . 'यत्रा तेषां दिनं यत्रा १० च देयं
| १४ (इत्यपापः।) (इत्यपायः ।) ११ नमस्कुरुते "स्वस्थम न कामं कुरुते स्वस्थम । २४ निष्क्रिय प्रतिपयते निष्क्रिय योगमाचरेत॥ १४ गुणमघहरण चरणप्रवि।गुणगणमघहरचरण, २५ 'प्रक्षीणोभयकर्माणं' इम पाके पूर्वमें छुटा प्रवि
हुश्रा पदा:१७ नाधरङ्ग नाट्यरङ्ग
विलीनाशयसंबन्धः शान्तमारुतमञ्चयः। १६ नख "कान्त नबनक्षत्रकान्त
देहातीतः परंधाम कैवल्यं प्रतिपद्यते ॥ २५ विपति वियति
पृष्ठ ३६७ २६ देव स्य देव कस्य
११ रेक' 'वेषः रेकं परं वेषः पृष्ठ ३८८
पृष्ठ ३६८ ३ तत्वे (?) पु तत्त्वकेयु
१० इदं मंत्रं 'नन्तचेतसः इमं मंत्रं नन्यचेतसः ७ नियमगृहादि निप-गृहादि
१८ संगम
संगमे १० द्विजसूत्र हि सूत्र
पृष्ठ ३६६ १३-१४ स्वांशयति । तमुदि स्वांशपतित-मुदि १५ शिवोर्जः... शिवो जीवः १८ नयनाङ्कित नयनिकेत
... पृष्ठ ४०० २० रहन्ति हरन्ति
है धूमवनिर्वमेत धूमवनिर्वतेत् २४ तस्माद्ब्रवीमि तस्मादवैमि
१४ कराङ्गठे रेखा कराऽ गुष्ठरेखा पृष्ठ ३८६
१५ वुर्युर्ना कुर्यान्ना १२ संस्तुते मंस्तुते
१८ नवाकृतिन"फम्पतिः न खात्कृतिन"कन्पितिः २३ लालालीला
२० केकवदीक्षणम। केकरवीक्षणम्।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष४
पंक्ति अशुद्ध पाठ शुद्ध पाठ
पंक्ति श्रशुद्ध पाठ
शुद्ध पाठ २५ प्रविहारिहारि प्रविहारहार
पृष्ठ ४११ पृष्ठ ४०२
७ निवृत्तो धर्म निवृत्तोऽधर्म १. तन्नरन्तयतिथि... तन्नरन्तर्यमान्तर्य १३ यथा नाड्यं
यथाम्नायं तीर्थनक्षत्रपूर्वकः तिथितीर्थक्षेपूर्वकः १६ चेतोः
चेतः १३ निवृत्ति निरस्त १८ गीयते
गीयते पृष्ठ ४०३
१६ स तुष्यक्ष
मनस्यक्ष ३ द्वे त्याज्ये वसुनीस्मृते द्वौ त्याज्ये वस्तुनि स्मृतौ
पृष्ठ ४१२ १ श्रयाश्रयः श्रयः श्रिया ४ प्राहुर्ननु
प्राहुन तु पृष्ट ४०४
६ प्रवृत्ताख्या
प्रवृत्त्याख्या सर्वः
२१ यः शरीरिणोः यः शरीर शरीरिणोः १५ प्रभृतं प्रमृतं (=जीर्ण)
पृष्ठ ४१३ १६ मन्त्रातीत मन्त्रानीत ७ समुद्देश्य
समुद्देश्या पृष्ठ ४०५
२१ प्राणायामायतेत प्राणाय यतेत ७ विधायने विधापने
पृष्ठ ४१४ १५ रशनादिर्वा रामनादिर्वा
३ वदायुषि
वदायुः १५ एव हि। एष हि । १७ विचारो
ऽविचारो पृष्ठ ४०६
१७ विमाननी विमानना १७ निषेवणैः निषेवने
२२ उत्वान्त्यहं (१) युतो उशन्त्यहंयुतो २१ श्रावकः साधकः
पृष्ठ ४१५ २५ कार्यकर्मसु कायकर्मसु
६ बुध्येन
बुध्येत पृष्ठ ४०८
१२ शास्त्रकरण
शास्त्र करण २ पुण्यार्जन पुण्यार्जने
१४ मात्मा चरित्रा मात्मचरित्रा ७ योग्यार्थी योग्योऽर्थों १८ प्रत्येक
स प्रत्ये २२ जिनेश्वराः मुनीश्वराः
१६ श्वभ्रनाकिनोः श्वभ्रिनाफिनोः पृष्ठ ४०६
पृष्ठ ४१६ ३ साध्वसादि- साध्वमाऽऽधि
७ नाभिःप्रायेण नाभिप्रायेण ४-५ 'मुपासकैः' के बाद और 'आवास' के पूर्व ।
८ विनाशयो महान विनाशयोमहान् छूटी हुई पंक्तियाँ :
१४ भाग्भवेत् भाग्भवन असमाधिर्भवेत्तेषां स्वस्य चाधर्मकर्मता ॥
१६ वृत्तिद्वितीयकः वृत्तिद्धितीयकः
२३ रोगिणो पथ्य सौमनस्यं सदाचर्य, व्याख्यात्रषु पठत्सु च ।
रोगिणोऽपध्य २४ क्रोधलस्य
क्रोधनस्य है हतानन्द हनानन्द
पृष्ठ ४१७ २३ क्लेष्टव्रतेऽखिले क्लेष्टे व्रते खिले १७ श्रावक
श्राविक २४ लवे यस्मान्न लवेऽप्यस्य न
पृष्ठ ४१८ पृष्ठ ४१०
६ भूयः
भूपः १६ अवधिवत अध्यधिव्रत
२३ समुगं(?) समुद्रगं
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
साहित्य-परिचय और समालोचन
(१) पटखण्डागम-(धवलाटीका और उसके हिन्दी लिये एकमे एक तुलनात्मक तरीकेका विधान किया है वह अनुवाद सहित) प्रथमखण्ड जीवट्ठाणका क्षेत्र-स्पर्शन- "One-to-01 Come-pondence"-अनन्ताकालानुगम नामक चतुर्थ अंश, मूल लेखक, भगवान पुष्प- स्मक मूलतम्बों-"Infinite cludinals"-के दन्त भूनबलि । सम्पादक, प्रो. हीरालाल जैन एम. ए. अध्ययन करने के लिये बहुत ही लाभदायक साबित हुश्रा संस्कृमाध्यापक किंगएडवर्ड कालेज अमरावती। प्रकाशक, है। इस विधानको सबसे पहले मालूम करने और प्रयोग श्रीमन्त सेठ लक्ष्मीचन्द सिताबराव जैन साहिन्योहारक फण्ड करनेका श्रेय जैनाचार्योंको है।" डाक्टर माहबका यह निबन्ध कार्यालय, अमरावती। बड़ा साइज पृष्ठसंख्या सब मिला बड़ा ही महवपूर्ण है और वह भारतके प्राचीन गणितके कर ६२८ । मूल्य पजिल्द प्रतिका १०) शास्त्राकारका १२)रु०। सम्बन्धमें बहुत कुछ प्रकाश डालता है। इस निबन्धके
इस चतुर्थभागमें जीवस्थानके क्षेत्र-स्पर्शन और काल- हिन्दी अनुवादको अागेके खण्ड में लगा देनेकी जो सूचना रूप तीनों अनुयोगद्वारोंका कथन किया गया है। लोकादिकी सम्पादकजीने दी है उसमे हिन्दीके अभ्यासी सजन समु.
और तत्सम्बन्धी गणितभागको स्पष्ट करने के लिये चिन लाभ उठा सकेंगे । आशा है कि कोई अधिकारी २० चित्र दिये गए हैं जिनसे उस विषयका बहुत कुछ विद्वान भारतीय गणित-शास्त्रका जैनगणितके साथ खुलामा हो जाता है। लखनऊ विश्वविद्यालयके गणितके तुलनात्मक अध्ययनको लिये हुए ऐसी पुस्तकका निर्माण प्रोफेसर डा. ए. एन. सिंह डी. एस. सी. ने करनेकी कृपा करेंगे जिससे जैनसिद्धान्त-ग्रन्थोंकी गणित १२ पृष्टम धवलाके गणितके सम्बन्धमें एक विस्तृत निबंध सम्बन्धी उलझने दूर हो जाय । लिखा है जिसमें उन्होंने ५ वीं शताब्दीके श्रार्यभटियसे पूर्व प्रस्तावनामें, सिद्धान्तग्रन्थ और उनके अध्ययन के अधिकार' भारतीय गणितका धवलाके जैनसाहित्यपरसे दिग्दर्शन शीर्षक लेखको जो निबद्ध किया गया है वह ऐसे स्थायी कराया है और उसमें बतलाया है कि ईसासे भी पूर्व साहित्यके माथ कुछ अच्छ। मालूम नहीं होता । प्रस्तावनामें भारतके जैनाचार्योंने विश्वक्षेत्र प्रदेश, कालके समय और शंकासमाधानके पश्चात तीनों अनुयोगद्वारोंके विषयका प्रकृतिके अणु तथा जीवा'मायोंग संख्याको बुद्धिगम्य रीतिसे संक्षित परिचय करदिया है और नक्शा द्वारा उनके विषयको निर्धारित करनेके लिये उन्होंने संख्यात असंख्यात स्पष्ट भी कर दिया है । विस्तृत विषय-मूची लगी हुई हैं।
और अनंतकी धारणाओंको जन्म दिया और उन धारणाओ इस भागमें अर्थादिविषयक बहुतसी त्रुटियां पाई जाती को बहुत ही विस्तृत रूपमें पल्लवित किया था। आजकलके है जिनका सुधार होना श्रावश्यक है। ग्रंथके अन्त में ५ वैज्ञानिक कल्पनातीत संख्याओं को निश्चित करने के लिये परिशिष्ट भी लगाए गए हैं जिनसे उन खण्डकी उपयोगिता जिन तीन प्रकारके गणितके विधानोंका प्रयोग करते हैं . और भी अधिक बढ़ गई है। हां, अवतरण-गाथा-मृची १ परिसंख्यान Place-value motation,२ वर्गित नामके दूसरे परिशिष्टमें कुछ गाथाएं ऐसी भी हैं जिन्हें संवर्गित Law of indices (varga-samvarga) टिस्पणीमें सर्वार्थद्धिमें उद्धत बतलाया गया है. परन्तु वे मूल ३ अर्धद Logarithm (Ardha-ccheda) वही में किस ग्रन्थकी हैं इसे नहीं प्रकट किया गया । उदाहरणके प्रयोग विश्वकी बड़ी संख्याओंको निर्धारित करने के लिये लिये पंच संसारविषयक जो गाथाएँ धवलाके इस अंशमे जैनाचार्यों ने किए थे। धवलामें अनन्तका जो वर्गीकरण- पृष्ठ ३३३ पर उद्धृत की गई हैं वे कुन्दकुन्दाचार्यकी वारसद्वारा विवेचन दिया हुआ है वह बहुत ही सुन्दर और अणुवेक्वामें ज्यों की स्यों और कुछ थोडेसे पाठ-भेद तथा व्यापक है। इसके सिवाय, डाक्टर साहबने यह भी कहा शब्द परिवर्तनके साथ २५,२६,२७,२८ नम्बरोंपर उपलब्ध है कि-"धवलामें विश्व तत्वोंकी संख्या निर्धारित करनेके होती है। इन गाथाओंको प्राचार्य पूज्यपादने अपनी
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
तत्वार्थवृत्तिमें और अपराजितसरिने भगवती आराधनाकी किंग एडवर्ड कालेज, श्रमसबती। प्रकाशक, जैनपब्लीकेशन 'टीकामें उद्वत किया है। इसके सिवाय, 'परणुवीसं असणं,' सोसायटी, कारंजा। पृट संख्या ३३४, बड़ा साइज, मूल्य 'बाहिर सूईवग्गों' 'पल्लो सावरसूई' नामकी गाथाएं जम्बू. सजिल्द प्रतिका ६) रुपया। दीपपण्णत्तीमें, १०, ८१, ११, १३६, १३, ४३ नम्बपर प्रस्तुत ग्रंथमें मुनि कनकामरने करकंड राजाके चरित्रका पाई जाती है। मथि अणंताजीवा,' एयणिगोदसरीरे' अच्छा चित्रण किया है। ग्रन्थका कथा भाग बड़ा ही रोचक
सोनों गाया मालाचार और प्राकत पंचसंग्रहमे उप- है और कविने उसे निबद्ध करने में सफलता भी प्राप्त की है लब्ध होती हैं। तथा 'तिरिणसया छत्तीसा' और 'लोया- ग्रंथको एक बार शुरु करके फिर उसे छोड़नेको जी नहीं यासपदेसे' नामकी गाथाएँ पूज्यपादकी तत्त्वार्थवृत्तिमै उद्धृत
चाहता । सम्पादक महोदयने ग्रंथको सर्वाङ्ग सुन्दर बनानेका हैं। इनका उद्धरण भी दे दिया जाता तो अच्छा होता।
प्रयत्न किया है और वे इसमें बहुत कुछ सफल भी हुए हैं। प्रस्तु, इन सब ऋटियों के होते हुएभी ग्रन्थका यह भाग पिछले अंग्रेजीमे ग्रंथका नुवाद भी दे दिया है जिससे प्रेजीके भागों के समान उपयोगी और संग्रहणीय बना है जिसके जानकार विद्वान भी इस ग्रंथसे लाभ उठा सकते हैं। लिये विद्वान सम्पादक धन्यवादके पात्र हैं।
प्रस्तावना बड़ी ही खोजपूर्ण और परिश्रमसे लिखी गई है (२) महावीरवाणी-सम्पादक, पं. वेचरदास दोशी,
उसमें ग्रंथके प्रतिपाद्य विषयका संचिप्त परिचय भी करा प्रकाशक, सस्तामाहित्यमंडल, नई दिल्ली। पृष्ठ संख्या,
दिया गया है। तेरापुरकी गुफाओंके निर्मायादि सम्बन्धमें २०६ । मूल्य प्रजिलद प्रतिका) रु. सजिल्दका)ह ।
पर्याप्त परिश्रमद्वारा अन्वेषण किया गया है। और उनके
चित्रों को भी साथमें दे दिया है जिससे तेरापुरकी गुफामोंका प्रस्तुत पुस्तक एक संग्रहग्रंथ है जिसमे श्वेताम्बरीय
साक्षात परिचय भी पाठकोंको मिल जाता है। इसके सिवाय पागम ग्रन्यों परसे चुने हुए धर्म-सम्बन्धी ३४५ गाथा-सूत्रो का संकलन किया गया है। संकलन बहुत अच्छे ढंगसे
टिप्पणिया भौगोलिक नामोंकी सूची, नोट्स और शब्दकोष
के लगा देनेसे ग्रंथकी उपयोगिता और भी अधिक बढ़ गई हमा है। और उसे शांतिलाल बनमाली सेठ न्यायतीर्थ श्रध्यापक जैनगुरुकुल, व्याधरने किया है। सूत्रोंको एक पेज
है। इस दिशामें प्रोफेसर साहबका प्रयत्न अभिनन्दनीय है। पर रखकर वगलके दूसरे पेजपर उसका हिन्दी अनुवाद
ग्रन्थ पठनीय तथा संग्रह करनेके योग्य है। मुनि अमरचन्द्रकृत दिया गया है। संकलित सूत्रोंको
(४) विभक्ति-संवाद-लेखक, उपाध्याय मुनि श्री अहिंसावि २५ विषयों में बांटा गया है। ग्रंथ सर्वसाधारणको
श्रामाराम । प्रकाशक, ला. सीताराम जैन, प्रो. फर्म ला. भगवान महावीरकी वाणीका रसास्वादन करानेके लिये
मल्लीमल संतलाल जैन लुधियाना। मूल्य, सदुपयोग। प्रस्तुत किया गया है। और इसमें सम्पादक महोदय बहुत
१. पृष्ठकी यह पुस्तिका स्थानकवासी उपाध्याय मुनि
श्री प्रान्मारामजीने लिखी है जो भागम-सूत्रोंके विशिष्ट कुछ सफल हुए जान पड़ते हैं। ग्रन्थके साथ में डा. भगवानदासकी लिखी हुई उपयोगी प्रस्तावना है और इस
अभ्यासी हैं। आपने पागम ग्रन्थोंपरसे प्रथमा द्वितियादि तरह इस ग्रंथको सर्वोपयोगी बनाया गया है। इस ग्रंथमे
विभक्तियोंका जो विस्तृत परिचय मनोरंजक संवादके रूपमे एक टि सबसे अधिक खटकती है वह यह कि संकलित
लिखा है। और टिप्पणियोंमें दिये गए शाकटायनीय व्यासूत्रों के नीचे उन पागम ग्रन्धोंका कोई हवाला नहीं दिया करणके सूत्रोंकी हेमव्याकरण और पाणिनीय व्याकरणके गया है जिनपरसे इन्हें उद्धृत किया गया है। यदि यह
साथ-साय जो तुलना परिशिष्टके रूपमें २८ पृष्टोंमें दी है। कर दिया जाता तो विद्वानों के लिये और भी उपयोगी उससे इस पुस्तककी उपयोगिता अधिक बढ़ गई है। होता। अगले संस्करण में इस मोर जरूर ध्यान दिया जाना उपध्यायजीका यह प्रयत्न अभिनन्दनीय हैं। व्याकरणके चाहिये।
जिज्ञासुओंको उपाध्यायजीकी इस पुस्तकको ऊपरके निर्दिष्ट (३) करकंडचरियउ-मूललेखक. मुनिकनकामर । पतेपर तीन पैसेका पोज भेजकर मंगाकर अवश्य पढ़ना सम्पादक, प्रो. हीरानाखजी जैन एम. ए., संस्कृताध्यापक, चाहिये।
~परमानन्द जैत शास्त्री
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऐ० पन्नालाल दि० जैन-सरस्वतीभवनबम्बईके कुछ लि. ग्रंथोंकी सूची
बम्बईका सरस्वतीभवन, जो सेठ सुखानन्दर्ज की धर्मशाला में स्थित है, आजसे कोई २० वर्ष पहिले ज्येष्ठशुक्ला पंचमी सं० १६७६ विक्रमको स्थापित हुआ था और उस वक्त से बगवर व्यवस्थितरूपसे चल रहा है। इसकी स्थापनामें ऐलक पन्नालालजीका खास हाथ रहा है, और इसलिये यह सरस्वतीभवन ऐलकजीके नामपर ही नामाङ्कित किया गया है। ऐसे ही सरस्वतीभवन अापने झालगपाटन तथा न्यावरमे भी स्थापित कराये है। अापने अनेक स्थानोपर धूम पिरकर पुरानी प्रतियाँ भी इन भवनोमे भिजवाई हैं, नई प्रतियाँ भी कराई है और जनताको आर्थिक सहयोगकी भी प्रेरणा की है। अतः जेनसाहित्यके संग्रह और सुरक्षा के विषयमे यह आपकी खास सेवा है, और जनसमाज इसके लिये आपका चिरऋणी रहेगा । इस भवनमे हस्तलिखित ग्रन्योका अच्छा मंग्रह है, जिसमे दिगम्बर, श्वेताम्बर तथा अजैन सभी प्रकार के ग्रन्थ शामिल हैं और उनके जुदा-जुदा सूची-रजिष्टर बने हुए हैं । हाल मे भवन के प्रधान कार्यकर्ता श्रीमान् पं. रामप्रसादजी शास्त्रीकी कृपा एवं सौजन्यसे मुझे दिगम्बर जैनग्रन्थोकी जो सूची प्राप्त हुई है और जिसके लिये मैं उनका बहुत अाभारी हूँ उससे मालूम होता है कि इस भवन में दिगम्बर जैनप्रन्योकी संख्या ११०० के करीब है, जिनमें ताइपत्रोंपर लिखे हुए ग्रन्थ तथा किसी किसी अन्यकी कई कई प्रतियों भी शामिल हैं। इस सूचीपर से यहाँ सिर्फ उन प्रन्थोंकी सूची पाटकोके सामने रक्खी जाती है जो गत वर्षके अनेकान्तमे प्रकाशित हुई दूसरे भण्डारोकी सूचियोंमें नहीं श्राए हैं, जिससे जैनसाहित्य के विषयमें पाठकोके ज्ञानकी उत्तरोत्तर वृद्धि होसके और उनमें नयेनये साहित्य के अवलोकन, उद्धार और प्रचारकी भावना बलवती हो उठे।
__ -सम्पादक
कम नं.
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
लिपिसंवत्
श्ररुणमणि महाकवि रत्न कवि राजमल्ल जयसागर
संस्कृत कन्नड़ संस्कृत गुजराती संस्कृत
२४५३ शक १४६१ वी.नि. २४४६
UU
२४६१
भ. शुभचन्द्र गुणचन्द्रदेव प्रभाचन्द्राचार्य
अजितपुराण २८१ अजितपुगण
१८७ अध्यात्मकमलमार्तण्ड ख० १२ अनिरुद्धहरण ८१० अन्तःकृतवृत्ति
अम्बिकाकल्प ७७५ अमृतधर्मरास ર૬૭ अमोघवृत्तिन्यास ३२५ अर्थव्यंजन पर्यायनिरुपणा ८६८ अष्टसहस्रीपंजिका ६३८ अर्दत्सूत्रवृत्ति ३६६ अंजनापवनंजयनाटक
श्रादित्यवार-उद्यापन ६०६
श्रादिपुराण (टिप्पण)
श्रादिपुराण सटीक ६६८ श्रादीश्वरफाग ख. १५१ प्राप्तपरीक्षा भाषा ५१०
श्रात्मसंबोधन ७.७ । अात्मसंबोधन
२४४६ २४५. ૨૪૬૪
X
X
X
लघुसमन्तभद्र कुन्दकुन्द (?) अहंददास केशवसेन प्रभाचन्द्राचार्य जिनसेन टी. ललितकीर्ति भ० शानभूषण श्रीलालपाटनी भ. ज्ञानभूषण
| संस्कृत
२४५३ २४६३
८५६
हिन्दी
१९२५ १५२६ १९८६
कवि रइधू
प्राकृत अपभ्रंश
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
अनेकान्त
[वर्ष ५
लिपि संवत्
२४५६ ૨૬ २४५३ २४५३
३१६
१९८१
३२४
२४५० १६२६ २४५१ १६२५
८७५
१६२६ १६६७
क्रम नं. ग्रन्थ-नाम प्रन्थकार-नाम
মম্বা आयज्ञानतिलकसटीक भट्टवोसरि (माघनंदि-शिष्य) | प्राकृत ८०० आयसद्भावप्रकरण मल्लिषण
संस्कृत ६२२ अाराधनाकथाकाष हरिषेण
संस्कृत ६३७ अाराधना कथाकोष भ० सकलकीर्ति श्रास्त्रवत्रिभंगी नेमिचन्द्राचार्य
प्राकृत उत्तरछत्तीसी (गणित) सुमतिकीर्ति
संस्कृत १६६ उत्तरपुराण
महाकवि पुष्पदन्त
अपभ्रंश ७५६ उत्तरपुराण
भ. सकलकीर्ति
संस्कृत गद्य उदयत्रिभंगी
नेमिचन्द्रसिद्धान्तिक प्राकृत उपदेशरत्नमाला
कवि ठक्कुर उपदेशरत्नमाला कवि रइधू
प्रा० अपभ्रंश wa उपदेशरत्नाकरश्रावकाचार भ० विद्याभूषण
संस्कृत उपमर्गहरस्तोत्र
पूर्णचन्द्र ? ५५७
उर्वशीनाममाला सटीक पं०शिरोमणि,टी०६० वंशीधर ८७० | एकाक्षर नाममाला ६४० ऋषभदेवनिर्वाणानन्द नाटक केशवसेन ६२५ ऋषभपुराण
भ. चन्द्रकीति ६४ कथाकोष
श्रीचन्द्र २२० कन्नड़भावकाचार
कन्नड़ २६ कर्मदहनपूजा
भ० चन्द्रकीति
संस्कृत २६३ कर्मप्राभूत
कुमारसेनदेव २६ कर्णामृतपुराण
केशवसेन ख. ४. करकंडुमुनिचरित्र बजिनदास
गुजराती ८२८ करकंदुचरित्र
भ. शुभचन्द्र
संस्कृत ५७६ कलिकंडुपूना
पद्ममनन्दी ३३. कातंत्रविस्तर
कर्णदेवोपाध्याय वर्धमान ? कालज्ञान ? दुर्गदेव
प्राकृत २६६ कालस्वरूप
कन्नड़ी ६१३ केवलज्ञानहोरा
चन्द्रसेन
संस्कृत ख. ३२ कोहलावारसी
मेघराज
गुजराती कौमुदीकथा भुतसागर
संस्कृत ६६२ क्षपणामार
माधवचन्द्र
संस्कृतगद्य ६६१ क्षेत्रणत महावीराचार्य
संस्कृत ४८६ गन्धकुटीपूजा
पं. श्राशाधर ५१४ | गुर्वावली
। नेमिचन्द्र
१६८६
१६७८
२४६०
२५E
२१३ २७५०
२५४ २५४ २४५१ १६२६
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२
ऐलक पन्नालाल दि० जै० भ ह० ग्रंथों की सूची
क्रम नं.
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
लिपि संवत्
१५८०
| संस्कृत
५३
प्राकृत संस्कृत
૨૨
धर्मचन्द्र नोमचन्द्राचार्य भ. श्रीभूषण दामनंदी भ० वज्रर्काति भ० शुभचन्द्र टी.? x भ० शुभचन्द धर्मकीर्ति जसकीर्ति
संस्कृत
MF
.
१
+
७८१
प्राकृत संस्कृत
२४५८ १६४३
४२०
५०४
हिन्दी संस्कृत प्राकृत अपभ्रंश संस्कृत
२४५१ २४५२ १६२५
५३७ | गौतमचरित्र २२६ | चतुर्दशधारा
| चतुर्विशतितार्थकरपूना ४६३
चतुर्विशतिपुराण
चन्दनषष्ठीपूजा ६२३ चन्दनाचरित्र १७८ चन्द्रप्रभकाव्यटीका ६२१ चन्द्रप्रभचरित्र ७७४
चन्द्रप्रभपुराण चन्द्रप्रभपुराण चारित्रशुद्धिविधान
चिक्कममन्तभद्रस्तोत्र ख० १३७ जम्बूस्वामीचरित्र
जम्बूस्वामीचारत्र ४४ जिएंधरचरित्र ५६३
जिनगुणसंपत्ति ३४३ | जिनचतुर्विशतिस्तोत्र १८४ जिनयज्ञफलोदय १६E जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय
जिनेन्द्रपुराण जीवतत्वदीपिका जीवन्धरचरित्र जीवविचार (श्वे.) जैनमहाभिषेकपूजा जैनेन्द्रन्यास जैनेन्द्रव्याकरणभाष्य जैनेन्द्रसूत्रपाठ ज्ञात केवली ? ज्ञानपंचविशतिउद्यापन
ज्ञानलोचनस्तोत्र | ज्ञानसूर्योदयनाटक
तत्वधर्मामृत ३१७ तत्वविचार
८६२ तत्वसार-टीका ख. ७ तत्वार्थसार
दीपचन्द्रवणी पं. जिनराज कवि रइध भ. नरेन्द्रचन्द्र केशवसेन भ० कल्याणकीर्ति अय्यपार्य जैनेन्द्रभूषण केशववर्णी (नैमिचन्द्र ?) शुभचन्द्राचार्य
૨૬૨૬
१६८०
xx
७६२ ६६३ |
२४५४ २४५०
१८६
प्राकृत संस्कृत
पूज्यगद प्रभाचन्द्राचार्य
|xx
अभयनंदी देवनंदी (पूज्यपाद )
६२
१८७३ १८८३ १६७८
म. सुरेन्द्रकीर्ति वादिगजसूरि वादिचन्द्र भ. चन्द्रकीर्ति वसुनन्दी भ. कमलकीर्ति न्यादरमलसुत चेतनदास
प्राकृत
१६८१ २४६३ २६७२
हिन्दी
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
अनेकान्त
[वर्ष
क्रम नं.
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
लिपि संवत्
२४५०
१८८८
संस्कृत
२५५३
२४५३
२४५२
८०३ ८६६
૨૪૫૬ १६०६
१९८६ २४५३ १९८१
२१० | तत्वार्थसुग्वबोधवृत्ति भास्करानन्दी
संस्कृत ६४७ तीर्थाजनचांन्द्रका गुणभद्राचार्य त्रिभंगीसार-टीका सोमदेवसूरि
प्राकृत ५६४ त्रिलाकाजनपूजा
भ. शुभचन्द्र त्रिवर्णशौचाचारांवधि मदनन्तमुनि ६१२ त्रिषष्ठलक्षणमहापुगण मल्लिषण ६२८ वणिकाचार .
नेमिचन्द्र ४३२ दशलक्षणादिकथा
भ• यश:कानि ४८६ दानशामन
वासुपूज्य ३६६ दीतिसुन्दरसंहिता
भ. देवेन्द्र कति द्रव्यममुच्चय
भ. कनकक त धनंजयनाममाला
भ. अमरकनि धर्मशर्माभ्युदय टीका भ० यश:कीर्ति ७६४ धर्मामृतसार
गुणचन्द्रदेव ६१७ धो देशरत्नमाला भ. रत्नभूषण ३१६ ध्यानस्तव
भास्करनन्दी ४१८ नक्षत्रचूडामणि
नवकार नीमपूना अक्षयराम ३४४ नवपदार्थनिश्चय
वादीभमिह नागकुमारचरित्र
धर्मधोर (?) स्व. १४३
व० जिनदाम
गुज. हिन्दी निघंटुममय (?)
नेमिचन्द्राचार्य | सं० कन्नड़लिपी ૨૬૨ निघंटुममय
धनंजयकांव
। मं० कन्नड़लिपी ३४८ निदानमुक्तावलि
। संस्कृत ४४३ नेमिचन्द्रजीवनचरित्र भ० विजयकीर्ति ६०८ नेमिनाथ चरित्र
कवि नरसिंह
संस्कृत म्व. २६ नेमिनाथपूजा
मन्नकवि
हिन्दी नेमिपुगण
पं० भागचंदजी ५०३ | न्यायकुमुदचन्द्रोदय
प्रभाचन्द्राचार्य न्यायमणिदीका
अजितसेन ३४८ न्यायविनिश्चयालंकार (मटीक) मू.अकलंकदेव,टी.वादिराजसूरि .. पदसंग्रह कवि चुन्नीलाल
हिन्दी पद्य VER | पद्मपुराण
सोमसेन ८१५ पद्मनाभपुराण
भ. शुभचन्द्र २८४ | पद्मावतीपुराण
कन्नड़
६१८
१७६४ २६२४ २४५३ ૨૬૨૬
२६१
+
पूज्याद
१६२४ १६२५ २४५३
" १३१
संस्कृत
२५५१ २४५२ १६२५
३५०
६६६
१६४८ २४५२
xx
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
ऐलक पन्नालाल दि० जे० स० भ० १० ग्रंथों की सूची
कम नं.
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
लिपिसंवत्
१८८२
५०
१५२७
५१६
१६२६ १६२४
२४५२
५४०
१६०६ २५१ १९८४ १८७३
७५४
संस्कृत
३२२
१८४६
१८४७
स्व. | पन्द्रहतिथि (पखवाडा) नेमिचन्द्र
(हिन्दी पंचकल्याणकपाठ भ. चन्द्रकीर्ति
संस्कृत पंचमीपोषधोद्यापन हर्षकवि पंचसंग्रह
प्राकृत ६१४ पंचसंग्रह
भ० मदनकीनि
संस्कृत पंचसंधानकाव्य कवि शान्तिराज
संस्कृत ३४६ पाण्डवपुराणमूल
वादिचन्द्र ५०२ पाण्डवपुराण
भ० श्रीभूषण पात्रकेमरीस्तोत्र (सटिप्पण) पात्रकेशरी ४५६ | पार्श्वनाथचरित्र
वादिचन्द्र
संस्कृत ६७८ पार्श्वनाथपुराण
भ०पद्मकीर्ति
प्राकृत १५८ पार्श्वनाथपुराण
भ० चन्द्रकीर्ति
संस्कृत पुण्यारव कवि रइध
प्रा० अपभ्रंश ७४८ पुण्याश्रवकथाकोर जयमित्र हलहरि अपरनामहरिइंद्र ३८८ पुराणमार
भ. सकलकीर्ति पुरुदेवचम्पू
पं० श्रद्दास पुरुषार्थानुशासन पं. गोविद कवि पुष्पाजालपूजा
भ० रत्नचन्द्र ६४ पुष्पाजलिव्रतोद्यान
गंगादास पूज्यपादवैद्यक
पृज्यपादस्वामी ग्व० १४४ पोसहरास
भ० ज्ञानभूषण
हिन्दी पद्य प्रकृति ममत्कीर्तन नेमिचन्द्र
प्राकृत प्रतिष्ठाकल्प वादिकुमुदचन्द्र
मस्कृत ५६७ प्रतिष्ठापाठ
ब्रह्मसूरि ७८३ प्रद्युम्नचरित्र
सिद्धसेन (मिहसेन)
प्राकृत प्रबोधमार भ. यशः कीर्ति
संस्कृत ३८४ प्रमाणनयालंकार ३४६ प्रमेयरत्नमालालंकार चारुकीर्तिपण्डिताचार्य ३१० प्रवचनसरोजभास्कर टी.प्र. माग प्रभाचन्द्राचार्य ४६१ प्राकृतव्याकरण
श्रुतसागर
प्राकृत प्राकृतव्याकरण त्रिविक्रमदेव
संस्कृत प्राकृतव्याकरणसटिप्पण भ० शुभचन्द्र
प्राकृत १२७ बीजकौस्तुभ
| पं० महीराज
संस्कृत बुद्धिरसायण सुमतिसागर
प्राकृत १८३ भगवत्याराधना
| संस्कृत
१८६५ २४५२
YEY
२५५
१६२५
२४५३
२६४
२४५८ १६२४ १६२४ १६१४ २६८१
"
३८१
૧૯૨૪ २४५३
१५५
अमितगति
१६८०
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
क्रम नं०
२७६ | भरतेश्वरपुराण ४४७ भविष्यदत्तचरित्र
७७६
૪૪.
५०७
० १६६
३०६
ग्रन्थ-नाम
८७७
५६६
२००
४४१
२३१ | भावत्रिभंगी
भावशतक
महावीरस्वामीका रास
माघनन्दिश्रावकाचार मूल संपपदावली
भविष्यदंतपंचमीकथा
भव्यकण्ठाभरणपंजिका
भव्यानन्दशास्त्र
मूलाचार
मूलाराधना दर्पण (भग. आ.डी.)
१६८ मुनिसुवन काव्य-सटीक ७८६ मेमेश्वर चरित्र
स्व० १६
स्व० ३६
६११ यत्याचार ४८७ यशोधरचरित्र
६२० यशावरचरित्र
२६६ युरूपानुशासन- सटीक
२१८ योगगारसंग्रह
३५७ योगमार्ग
७६ रत्नत्रय विधि
८०
रत्नश्वानािं
२७ रामचरित
रामरास
रुक्मिणी हरण १६१ लोकविभाग
१८८ लोकानुयोग
१६ लक्ष्मीस्तोत्र
५५८ वरागचरित्र
५५१ विद्यानुशासन (सटीक)
१७
विचानुशासन
६३१ | विमलपुराण
५५१
विषापहार-टीका १२३ वेगम्यमणिमाला
१२३ वैराग्यभार सटीक
x
श्रनेकान्त
ग्रन्थकार - नाथ
श्रीधर
पं० धनपाल
कवि श्रद्दास नं० १ पायामापति
श्रुतमुनि
नागराज
कुमुदचन्द्र
माघनन्दी
X
कुन्दकुन्दाचार्य ? पं० आशाधर
पं० श्रदान,
रहधूकवि
भ० सकलकीर्ति
पचनदी पद्मनाभैया
मू. समन्तभद्र, टी विद्यानन्दी
.
गुरुदास
सोमदेव
पं० आशाघर मल्लिषेण
ब्र० जिनदास
99
म० रत्नभूषणा
सिंहसूर
वृजिनसेनाचार्य
पद्मप्रभदेव
भ• वर्द्धमान
कुमारसेन, टी. चंद्रशेखरशास्त्री मल्लिषेण
म० राजनन्दी
पार्श्वनाथ गोम
म० विशालकीर्ति सुप्रभाचार्यं
कन्नड़
संस्कृत
प्राकृत अपभ्रंश
93
99
प्राकृत
संस्कृत
हिन्दी
कन्नड़
संस्कृत
39
39
संस्कृत
प्रा० अपभ्रंश
संस्कृत
39
39
39
33
39
17
97
""
गु० हि० गुजराती
संस्कृत
39
19
33
=====
भाषा
"
प्रा०
वष ५
लिपसंवत्
१७१६
१६२५
१२८३
१६२५
१६२५
X
१६२६
X
x
१६४२-२४६६
ર૩
X
२४५०
२४५८
२४५३
२४५१
x
X
१६८१
१६२४
X
× × 8
ર
१६८०
x
x
१५८०
१६०५
१८७८
२४५३
१६०५
X
x
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
ऐलक पन्नालाल दि. ० स० भ० ह० ग्रंथों की सूची
क्रम नं.
प्रन्य-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
लिपिसंवत्
संस्कृत
२६२६ २६८१ २४६४
हिन्दी प्राकृत
संस्कृत
२६८६ १६७६
प्राकृत संस्कृत
३१
१५६२
__३२
१६२६
२६२५
गुजराती गु० दि. प्रा० अपभ्रंश संस्कृत प्राकृत
३६
भ० देवेन्द्रकीति सिहनन्दी गोविन्दचन्द्र ऋषभदास गौतम भ० सहजकीनि शाकटायनाचार्य महेन्द्रसूर असगांव भ० श्रीभूषण भ० ज्ञानभूषण कुमुदचन्द्र जयकीर्ति भ० अमरकीति अकलंकभट्ट लक्ष्मीसेनाचार्य मुनिकुन्दकुन्द भ० त्रिभुवनकीति विवुधश्रीधर अजितसेन यतीश्वर पं० पूरणमल्ल भ० अरिष्टनेमि वादिराज? कवि रइधू नेमिदत्त कवि हस्तिमत्व शुभचन्द्र विद्यानन्दी पद्मनन्दी
२४४३
७१२ व्रतकथाकोष ३१४ व्रततिथिनिर्णय
८६६ बलनिर्णय स्व० ४६ व्रतविचार
शकुनावली
शब्दसाधनिका १६७ शाकटायनअमोघवृचि ८४६ शान्तिनाथचरित्र
शान्तिनाथपुगण
शान्तिनाथपुराण ५०६ शात्यालयस्तवन ख० २७ शीनगीन ख० १४२ शीलसुन्दरप्रबन्ध
षट्कर्मोपदेश
श्रावकप्रायश्चिच ६०७ श्रावकाचार
श्रावकाचार श्रुतस्कंधपूजा श्रुतावतार
शृङ्गारमंजरी ७०० श्रीचिचचुडामणि
८५१ श्रीदेववाकल्प ख. ११२ श्रीपाल श्राख्यान
श्रीपालचरित्र ६१६ भीपालचरित्र ३५०
भीपुराण षड्दर्शनप्रमाणप्रमेय
सत्यशासनपगेक्षा ३२० मद्बोधचन्द्रोदय २७३ सप्तज्योति ४८८ समयभूषण ८२६ सम्मत्तगुणनिधान
सम्मेदशिखरपूजा
सम्मेदशिम्वरमाहात्म्य ५७३ | सम्बोरपंचाशिका
संस्कृत
३०
संस्कृत गद्य संस्कृत
३२६
१६७८ २४५० १७५४
२४६१ रचनासं.१७७१
१६८०
गुजराती प्रा० अपभ्रंश संस्कृत
३८३
१६३६ ૨૬૨૪ २६८० १६८१
कन्नड़ संस्कृत प्रा० अपभ्रंश संस्कृत
इन्दनदी कवि रइधू सुरेन्द्र कीर्ति कचि देवदन ब.जिनदास
२४५१ २१E
१९२६
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४
अनेकान्त
[वर्षे ।
क्रम नं0
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकारनाम
भाषा
लिपि संवत्
प्रा० अपभ्रंश संस्कृत
विनश्वग्नन्दी कविरधू विजयकीर्ति श्रईदास धर्मकीर्ति पार्श्वदेव तेजपाल
२४५२ २४५१ २४५६ १६२५
५२
x
૨૪૨
प्रा०
संस्कृत
१८३५ १६२७ १६२५ २४५१ १५७५
५५५ सम्बन्धोद्योत YEE सम्यगुणारोहण ७६५ सरस्वती कल्य ४३६
सरस्वताकल्प
सहस्रगुणिपूजा २८८ सहस्रनाम आराधना ७७८
संगोतसार ६५३ संभवनाथचारत्र १६३ : संशयधामभंजिका २६६ । संशयध्वान्तदीपिका ६१८ संशयवचनविच्छेद
सारचौबीसीचतुर्विशतिका १७२ सारसंग्रह (गणितसंग्रह)
सीताचरित्र ६५२ सुखनिधान १४ | सुदर्शनचरित्र ८४२
सुभद्रानाटिका ६८६
सुभौमचरित्र ६८० सुलोचनाचरित्र ६७६
सूर्यप्रकाश १३८
सिद्धचक्रकथा २४४
सिद्धान्तसार-सटीक ४५० सिद्धान्तसार-टीका ४८२
सिद्धान्तसार-भाष्य ७६७
सिद्धिविनिश्चयालंकारसटीक ख० १०८ हनुमन्तपुराण ख. ३५ हनुमन्तरास
हनुमन्तचरित्र
हरिवंशपुराण २१६ हरिवंशपुराण २०२/ हरिवंशपुराण १७७ हरिवंशपुगण ख १२३ / हरिवंशपुराणछंदोबद्ध
२४५१ २४५१ २४६१ २४५४ ૨૪૪ २४५४
भ• यश:कीर्ति भ. रत्नभूषण विशालकीति भ. सकलकीर्ति महावीराचार्य पं० द्यानतराय | पं. जगन्नाथ
संस्कृत विद्यानन्दो कवि हस्लिमल्ल रलचन्द्रसूरि भ० वादिचन्द्र नेमिचन्द्र भ. शुभचन्द्र प्रभाचन्द्र सुमतिकीर्ति मु.सकलकीति,भाष्यशानभूषण अनन्तवार्य
संस्कृत दयासागर
मराठी ब्र. जिनदास
गुजराती अजिताभ स्वयंभूमुनि
अग्भ्रंश कवि मंगराज
कन्नड़ कवि रइधू
प्रा० अपभ्रंश भ. श्रुतकीर्ति ब. जिनदास
मराठी
कन्नड़
प्रा. सं.
१६२५ २५५६ २४५६ १६४५
संस्कृत
|x xixxxx
बीरसेवामन्दिर, सरसावा जिला सहारनपुर
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तके सहायक
अनुकरणीय
गत १२वी किरणमे प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्त
को द्वितीय-तृतीय मार्गसे ४६॥) की नीचे लिखी सहायता प्राप्त गतवर्ष जिन सजनोंने अनेकान्तकी ठोस मेवानोंके हुई है, जिसके लिये दातार महाशय धन्यवाद के पात्र है:प्रति अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे घाटेकी चिन्ताले १०) लामिग्रसैनजी जैन रिटायई मुन्स रिम, मुज़तपरनगर मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्यमे प्रगति करने और (चार संस्थाओं आदिको अनेकान्त एक वर्ष फ्री अधिकाधिक रूपमे समाजसेवायोमे अग्रसर होनेके लिये भिजवाने के लिये) आपने गत वर्ष भी १०) रु. की सहायताका वचन देकर उसकी सहायक श्रेणी में अपना नाम सहायता प्रदान की थी। लिखाया था, उनमेसे जिन्होने जितनी सहायता भेजकर
११॥)देहली सदर बाजारके एक सजनकी भोर से गुप्त सहायता संचालकों के उत्साहको बढ़ाया है उनके शुभ नाम सहायता
चार सं०कोफ्री और एक विद्यार्थीको अधमूल्यमेवेने के लिये की रकम-सहित इस प्रकार है:
३) बा. मोतीलालजी नाज़िर मिविलकोट, देहरादूनमे
दो विद्यार्थियोंको अनेकान्त अर्धमयमे देनेके लिये। १२५) बा. छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता। १०१) बा. अजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ ।
१०) बा. राजकिशनजी जैन दरियागंज, देहली। १०१) बा. बहादुरसिंहजी सिंघी, कलकत्ता ।
(अपने पुत्र चि० प्रेमचन्द के विवाहकी खुशी में) १००) साह शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर ।
१०) ला. बैजनाथसहायजी, मिजाना जि०मुजफ़्फ़रनगर ।
(अपने दोहिय चि० प्रीतममिहके विवाहकी खुशी में)। १००) बा० शांतिनाथ सुपुत्र बा० नन्दलालजी जैन, कलकत्ता। १०.) सेठ जोग्वीरामजी बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता।
२) ला० मुलेलालजी जैन मुगदाबाद निवासी और ला.
प्यारेलालजी जैन हरयाना निवासी, हाल लोहागद ५५) रा० ब० बा. उलफतरायजी जैन रि० इजीनियर, मेरठ।
(पुत्र-पुत्रीके विवाह पर निकाले गये दानमेमे)। ५०) माह श्रेयांमामादजी जैन लाहौर ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' ४०) बा. लालचन्दजी जैन एडवोकेट, रोहतक ।
वीरमवामन्दिरको महायता ५०) बा. जयभगवानजी वकील आदि जैन पंचानन,पानीपत।
वाग्मेवामन्दिर सम्मावाको निम्न सजनोंकी पोरसे ५०) लादलीरसिंह कागजी और उनकीमार्फत, देहली।
२८) २० की सहायता दास हुई है, जिसके लिये दानी २५) प. नाथूगमजी प्रेमी, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकार, बम्बई ।
महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं:२५) ला० रुटामलजी जैन, शामियाने वाले, सहारनपुर।११) बारात शनी जैन दरियागंज, दहली (पुत्र २५) बा० रघबरदयालजी जैन. एम ए करोलबाग, देहली। चिमचन्द्र के विवाहकी खुशीमे)। २५) पेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर।
११) मेट चिरंजीलालजी जैन, काछवा जि० करनाल । २५) ला. बाबुराम अकलाप्रसादजी जैन, तिस्मा, जिला
३) ला किशनस्वरूपचन्द जैन बकरी बाज़ार, इन्दौर मुजफरनगर।
(अपने पारोन्य-लाभकी खुशीम)। २५) सवाई सिंघई धर्मदास भगवानदासजी जैन, सतना ।
२) ला हरज्ञानासहजी जैन कानपुर और बैंच पं. २५) ला दीपचन्दजी जैन रईस देहरादून । ।
___ जयचन्द्रजी कानपुर (विवाहकी खुशीम)। २५) ला प्रद्युमनकुमारजी जैन रईस, सहारनपुर ।
११) बा. विमलप्रसादजी जैन, सदर बाजार, देहली। १७) मुंशी मुमतप्रसादजी जैन, रि• अमीन, महारनपुर ।
अधिष्ठारावीम्सेवामन्दिर, सरसावा आशा है अनेकान्नके प्रेमी दूसरे मजन भी आपका
विलम्बके लिये क्षमा-प्राथना अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल
सरकारी कामके भा अनुरोध-वश घबकी बार अमेकान्त' वनाने में अपना पूरा सहयोग प्रदान करके यशके भागी बनगे।
को छापकर देने में जो अाशातीत विलम्ब हश्रा है. उसके लिये व्यवस्थापक 'अनेकान्त
हम अनेकान्त के पाटवास क्षम.के प्रार्थी है। वीरमेवामन्दिर, मरमावा (महारनपुर )
-मैनेजर 'श्रीवास्तव प्रेम'
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
Registered No A 731.
वीरसेवामन्दिरको दो योग्य विद्वानोंकी सम्प्राप्ति
पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि श्री बाबू जयभगवानजी जैन बी. ए., एलएल. बी. वकील पानीपतने, जिनकी लेखनीमे अनेकान्तके पाठक परिचित हैं और जो बड़े ही अध्ययनशील तथा सुलझ हुए विद्वान हैं, हालमें वीरसेवामन्दिर मरमावाको अपनी पूरी सेवाएँ अर्पण की हैं। आप अपनी अच्छी चलती वकालत छोड़कर गत १२ मार्चको वीरसेवामन्दिरमें तशरीफ ले श्राप हैं और तबसे बराबर सेवाकार्य कर रहे हैं। इसके लिये श्राप भारी धन्यवाद । के पात्र हैं। आपमें सेवाभाव तथा शोध-खोजकी बड़ी स्पिरिट है, वकालत करते समय उसके लिये आपको यथेष्ट अवकाश नहीं मिलता था और इसलिये सेवाफी बहुतमी भावना आपकी मनही मन में विलीन होजाती थीं, और समाज भी उनमे वचन रह जाता था । अब वीरमेवामन्दिरके द्वारा समाजको आपकी पूरी मेवा प्राप्त होंगी-जो शक्ति पहले वकालत जैमी झंझटोंमें खर्च होती थी वह अब माहित्य और इतिहास में समाज-मंबाक टीम कामि व्यय होगी, यह जानकर किम प्रमत्रता नहीं होगी।
इधर न्यायाचार्य पं० दरवारीलालजी कोठियाने भी जो भाग्नकी प्रसिद्ध विद्या संस्था कीन्सकालिज बनारससे छहों खण्डोम उत्तीर्ण न्यायाचार्य है, और साथ ही सिद्धान्न विषयक भी अच्छ विद्वान हैं, वीरसेवामन्दिरको अपनाया है पर उसे अपनी मंवा अर्पण की हैं। जिनके लिये आप धन्यवादके पात्र है। आपकी इच्छा बहुत दिनोंमे साहित्य पार इतिहासक क्षेत्र में काम करके प्रगति प्राप्त करने की थी, जिसके लिये अापने वीरसंवामन्दिरको चुना है।
आप ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम (जैनगुरुकुल) मथुगको स्तीफा देकर फल प्रातःकाल २४ अप्रेलको उम समय वीरसेवामन्दिर में पधार है जब कि मै 'वीरमेवामन्दिर ट्रस्ट' की योजनाका लिय हुए अपना 'वसीयत नामः' रजिष्ट्री कराने के लिये सहारनपुर जारहा था, पर इससे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। - आशा है इन दोनों ही योग्य विद्वानों के सहयोगसे वीरसेवामन्दिर के कार्योंको प्रगति प्राप्त होगी, और 'जैनलक्षणावली' का हिन्दी तथा अंग्रेजी मार शीघ्र ही तय्यार होकर पहला खण्ड प्रेसमें जाने के लिये प्रस्तुत हो जायगा। माथमें और भी दुसरं कार्य शीघ्र मन्पन्न होकर जल्दी जल्दी बाहर भागे। कई विद्वानोकी और भी योजना हो रही है । वोरसेवामन्दिरक सामने बहुतसे महत्व के कार्य करनेको पड़े हुए हैं, और कई योग्य विद्वानोंकी आवश्यकता है।
जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाना-धीरमेवामन्दिर, सरमावा
-
मुद्रक, प्रकाशक पं. परमानन्दशास्त्री वीरसेवामन्दिर सरसावालिये श्यामसुन्दरलालद्वारा श्रीवास्तव प्रेम, महारनपुरम मद्रित ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
11
मनकाजता
AR
P
विधि-दृष्टि
उभयानुभय-दृष्टि
निषेधाऽनुभय दृष्टि
।
पध-दृष्टि
M
ध्यनुभयष्टि
उभय-दृष्टि (क्रमार्पिना)
-
W
अनुभय-दृष्टि (महार्पिना)
-
-
-
वर्ष ५
विधयं वायं ना. किरण३-
४मदाऽन्यान्याप .
प्र. मई
१६४२
....
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची
, समन्तद्र भारतीके कुछ नमूने
पृष्ठ १०५ १. वादिराजसूरि-[पं० नाथूराम प्रेमी' जैन २ श्वे. तत्वा. और उसके भाष्यकी जाँच-[संपा. १०७ ११ क्षरचूड़ामणि और उसकी सूक्तियों३ साहित्यपरिचय और समालोचन
पं० सुमेरचन्द जैन दिवाकर १४५ ४ भ. महावीरकी झांकी-[बा. जयभगवान वकील १११ १२ मध्यप्रदेश और बरारमे जैनपुरातत्य-[कांतिसागर १६. ५ परीक्षामुखसुत्र और उसका उद्गम
१३ दही-बड़ोंकी डांट [श्रीदौलतराम 'मित्र' १६२ [प० दरबारीलाल ११४ १४ सीतल सेवामन्दिर देहीलीके लिये अपील६ अनकी प्रतीज्ञा-[भगवन जैन ....
परिषद विज्ञप्ति १६४ • संकटका समय (कविता)-[श्री भगवत् जैन १३३ १५ एक माहित्यसेवीपर घोर संक्ट [जुगलकिशोर मुख्तार १६६ ८ सामायिक पाठ-साहित्याचार्य पं० पन्नालाल जैन १३४ १६ समाजके दोगण्य-मान्य सज्जनोंका वियोग १६७ है बासी-फूल (कविता)--[श्री भगवत् जैन १३८ १७ वह मनुष्य नहीं देवता था-[अजितकुमार जैनशास्त्री १६८
श्रीसाहू शान्तिप्रसादजीकी ओर से
लायब्रेरी और फर्नीचरके लिये वीरसेवामन्दिरको १५००) की नई सहायता
श्रीमान् साहू-शान्तिप्रसाद जी जैन डालमियानगर वीर सेवामन्दिर सरसावापर कितनी अनुग्रह दृष्टि रखते हैं और कहाँ तक उसके संरक्षक श्रोर सरपरस्त बने हुये हैं, यह बात अनेकान्तके पाठकोंसे छिपी नहीं है-बराबर उनले सामने आती रही है । हालमें श्रापके उदार विचारोंके फलस्वरूप बान जयभगवानजी वकील पानीपत की योजना वीरसेवामन्दिरमें होजाने से जब श्रापको यह सूचना मिली कि वीरसेवामन्दिरकी लायब्रेरीमें रिसर्चादि-विषयक अंग्रेजी श्रादिके कुछ श्रावश्यक ग्रन्थोंकी कमी है और फर्नीचर भी नाकाफ़ी है तो आपने तुरन्त ही उनकी पूनिके लिये पन्द्रह सौ १५००) रु. की नई सहायता वीरसेवामन्दिरको भेजदी। इस उदारतापूर्ण कृपाके लिये में श्रापका बहुत ही श्राभारी हूँ और इसके लिये श्रापको जितना भी धन्यवाद दिया जाय वह थोड़ा है। संस्थाके प्रति श्रापके ऐसे उदार व्यवहारसे यह दृढ श्राशा होती जाती है कि यह संस्था जरूर ही अपने ध्येयमें सफल होगी । हार्दिक भावना है कि साहुजीका बरद हाथ सदा ही इस संस्थाके सिरपर बना रहे और वे इसे अपनी संरक्षतामें बगबर ही उन्नति शील देखकर प्रसन्नता-लाभ करें।
जुगलकिशोर मुख्तार
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
* ॐ महम् *
वस्तूतत्त्व-सपात
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
वर्ष ५
)
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राथम) सरसावा ज़िला सहारनपुर वैशाख-ज्येष्ठ, वीरनिर्वाण सं० २४६८, विक्रम सं. १६
। ।
अप्रेल-मई १६४२
किरण ३-४
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
श्रीशम्भव-जिन-स्तोत्र
त्वं शम्भवः सम्भवत-रोग: सन्तप्यमानरय जनरय लोके । श्रासीरिहाऽऽकरिमक एव वैद्यो वैद्यो यथाऽनाथरजां प्रशान्त्यै ॥१॥
'(अन्वर्थ संज्ञाके धारक-) हे शम्भव जिन ! सांसारिक तृष्णा-रोगोंसे खूब पीडित जनसमूहके लिये पाप इस लोकमें उसी प्रकार आकस्मिक वैद्य हुए हैं जिस प्रकार कि अनाथोंके-द्रग्यादि सहाय-बिहीनोंके-रोगोंकी शान्तिके लिये कोई चतुर वैद्य अचानक पा जाता है और अपने लिये चिकित्साके फलस्वरूप धनादिकी कोई अपेक्षा न रखकर उन गरीयोंकी चिकित्सा करके उन्हें नीरोग बनानेका पूर्ण प्रयत्न करता है।' * शम्भा इत्पन्वयं रंज्ञा शं सुखं भवत्यसमाहव्याना इति शम्भव: -(जिनसे भव्योको सुम्य होवे वे 'शम्भव')'
-प्रभाचन्द्राचार्य
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०६
अनेकान्त
[वर्ष ५
अनित्यमत्राणमहंक्रियाभिः प्रसक-मिथ्याऽध्यवसायदोषम् ।
इदं जगज्जन्म-जरा-ऽन्तकात निरंजनां शान्तिमजीगमस्त्वं ॥२॥ 'यह (श्यमान) जगत, जो कि अनित्य है, मशरण है, अहंकार-ममकारकी क्रियाओंके द्वारा संलग्न मिथ्या अभिनिवेशके दोषसे दूषित है और जन्म-जरा-मरणसे पीडित है, उसको(हे शंभवजिन !) आपने निरंजना—कर्ममलके उपद्रवसे रहित मुक्तिस्वरूपा-शान्तिकी प्राप्ति कराई है-उसे उस शान्तिके मार्गपर लगाया है जिसके फलस्वरूप वितनों हीने चिरशान्तिकी प्राप्ति की है।'
शतहदोन्मेप-चलं हि मोख्यं, तृष्णाऽऽमयाऽप्यायनमात्रहेतुः।
तृष्णाभिवृद्धिश्च तपन्यजनं तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥ ३॥ 'आपने पीडित जगतको-उसके दु.खका यह निदान बतलाया है कि-इन्द्रिय-विषय-सुख बिजलीवी चमक्के समान चंचल है-क्षणभर भी स्थिर रहने वाला नहीं है-और तृष्णारूपी रोगकी वृद्धि का एक मात्र हेतु है-- इन्द्रियविषयोंके सेवनसे तृप्ति न होकर उलटी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी अभिवृद्धि निरन्तर ताप उत्पन्न करती है और वह ताप जगतको (कृषि-वाणिज्यादि कर्मों में प्रवृत्त कराकर) अनेक दुःखपरम्परासे पीडित करता रहता है।'
बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू वद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्त।
स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्त नैकान्नदृस्वमनोऽमिशास्ता॥४॥ 'बन्ध, मोक्ष, बन्ध और मोदके कारण, बद्ध और मुक्त तथा मुक्तिका फल, इन सब बातोंकी व्यवस्था हे नाथ ! भाप स्याद्वादी-अनेकान्तदृष्टिके मतमे ही ठीक बैठती है. एकान्तदृष्टियों-सर्वथा एकान्तवादियों के माम नहीं। अतएव श्राप ही 'शास्ता'-तत्त्वोपदेष्टा हैं-दूसरे कुछ मतोंमें ये बाते पाई जाती जरूर हैं. परन्तु कथनमात्र हैं, एकान्तसिद्धान्तको स्वीकृत करनेसे उनके यहां बन नहीं सकती, और इसलिये उनके उपदेष्टा ठीक अर्थमें 'शास्ता' नही रह जा सकते।'
शकोऽग्यशतस्तवपुरायकोन: स्तुत्यां प्रवृत्तः कि.मु मादशोऽज्ञः ।
तथाऽपि भक्त्या स्तुन-पाद-पद्मो ममाय देया शिवतानिरुच्चः॥५॥-स्वयंभूरनोत्र 'हे आर्य !-गुणों तथा गुणवानों के द्वारा मेव्य शम्भव जिन | श्राप पुण्यकति हैं-श्रापकी कीति-ख्याति तथा जीवादि पदार्थोंका कीर्तन-प्रतिपादन करनेवाली वाणी पुण्या-प्रशस्ता है-निर्मल है-श्राप म्तिम प्रवृत्त हुधा शवअवधिज्ञानादिकी शक्ति से सम्पन्न इन्द्र-भी अशक्त रहा है-पूर्णरूपमे स्तुति करनेमें समर्थ नहीं हो सका है-, फिर मेरे जैसा अज्ञानी-अवधि श्रादि विशिष्टज्ञानरहित प्राणी-तो कैसे समर्थ हो सकता है ! परन्तु थममर्थ होते हुए भी मेरे द्वारा आपके पदकमल भक्तिपूर्वक —पूर्णअनुरागके साथ-स्तुति किये गये हैं। (श्रतः ) मेरे लिये ऊंचे दर्जेको शिवसन्तति-कल्याणपरम्परा-देय है-मै उसको प्राप्त करनेका पात्र-अधिकारी हू।'
आवश्यक सूचना हमारे पास 'अनेकान्त' के प्रथम वर्षकी कुछ सी फाइले मौजूद है जिनमे पहली किरण नहीं है-शेप सब किरणे हैं। प्रथम वर्पकी पूरी फाइलका मूल्य यद्यपि ४) रु. है परन्तु स्टाक ग्वाली करने के लिये हम इन पहली किरणसे रहित फाइलोंको, लोकहितकी दृष्टिम, १) रु० मूत्र में ही दे देना चाहते हैं, जिसमे प्रथम वपे की फाइलमं जो बहुमूल्य साहित्य संगृहीत है वह लोगों के पढ़नेम आवे और जनता उसमे यथेष्ट लाभ उठावे। अतः जिन्हे आवश्यकता हो वे पोष्टेज व रजिष्टरीक खर्च महित शा) शीघ्र मनीआर्डरम भेजकर मॅगा लेवें। फिर ऐसे लोकोपयोगी उत्तम साहित्यका इस कौडियोके मूल्य में मिलना असंभव होगा।
व्यवस्थापक 'श्रनेकान्त' वीरसवामन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच
[सम्पादकीय
नेनसमाजमें उमास्वाति अथवा उमास्वामीकी कृतिरूपसे किसी प्रकारका विरोध न होना चाहिये। और यदि उनमें
पजिम तत्वार्थमूत्रकी प्रसिद्धि है उसके मुख्य दो पाठ कहीं पर ऐसी असंगति भेद, अथवा विरोध पाया जाता है पाये जाते हैं--एक दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर। तो कहना चाहिए कि वे दोनों एक ही श्राचार्यकी कृति दिगम्बर सूत्रपाठको सर्वार्थसिद्धि-मान्य सूत्रपाठ बतलाया नहीं हैं-उनका वर्ता भिन्न भिन्न है-और इसलिये सूत्र जाता है, जो दिगम्बरसमाजमें सर्वत्र एकरूपसे प्रचलित है, का वह भाप्य 'स्वोपज्ञ' नही कहला सकता। श्वेताम्बरोंके और श्वेताम्बर सूत्रपाठको भाष्यमान्य सूत्रपाट कहा जाता तत्वार्थाधिगमसूत्र और उसके भाष्यमें ऐसी असंगति, भेद है, जो श्वेताम्बर समाजमें प्राय: करके प्रचलित है; परन्तु अथवा विरोध पाया जाता है, जैसा कि नीचे के कुछ नमूनों कही कही उसमें अच्छा उल्लेखनीय भेद भी पाया जाना से प्रकट है:है । भाप्यकी बाबत श्वे. समाजका दावा है कि वह
(७) श्वेताम्बरीय सूत्रपाठमें प्रथम अध्यायका २३ बों 'स्वोपज्ञ' है-स्वयं सूत्रकारका ही रचा हुआ है। साथ ही
सूत्र निम्न प्रकारहैयह भी दावा है कि मूल मूत्र और उसका भाष्य ये दोनों बिल्कुल श्वेताम्बरश्रुतके अनुकूल हैं-श्वेताम्बर भागों के
_ 'यथोक्तनिमित्तः षविकल्पः शेपाणाम ।' थाधारपर ही इनका निर्माण हुया है, और इसलिये इसमें अवधिज्ञानके द्वितीय भेदका नाम 'यथोक्तनिमित्तः' दिया सूत्रकार उमास्वाति श्चताम्बर परम्पराके थे । दावेकी ये है और भाप्यमे 'यथोक्तानिमित्तः क्षयोपशमनिमित्त इत्यर्थः' दोनो बात कहीं तक ठीक हैं-मृल सूत्र, उसके भाष्य ऐसा लिखकर 'यथोकनिमित्त' का अर्थ 'क्षयोपशमनिमित्त' और श्वेताम्बरीय भागमो परसं इनका पूरी तौरपर सम
बतलाया है, परन्तु 'यथोक्त' का अर्थ क्षयोपशम' किपी थंन होता है या कि नहीं, इस विषयकी जाचको पाठकोके
तरह भी नहीं बनता । 'यथोक्त' का सर्वसाधारण अर्थ सामने उपस्थित करना ही इस लेखका मुख्य विषय है।
होता है-'जैसा कि कहा गया', परन्नु पूर्ववर्ती किसी भी
सूत्रमे 'क्षयोपशमनिमित्त' नाम से अवधिज्ञानके भेदका सूत्र और भाष्य-विरोध
कोई उल्लंग्व नहीं है और न कहीं 'क्षयोपशम' शब्दका ही सूत्र और भाष्य जब दोनों एक ही प्राचार्यकी कृति
प्रयोग पाया है, जिससे यथोक्त' के साथ उसकी अनुवृत्ति हो तब उनमे परस्पर असंगनि, अर्थभेद, मतभेद अथवा
लगाई जा सकती। ऐसी हालतमे 'क्षयोपशमनिमित्त'के * देग्यो, 'तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की एक साट पर प्रात' नामका अर्थमे 'यथोकनिमित्त'का प्रयोग सूत्रसंदर्भके साथ असंगत मम्पादकीय लेख, अनेकान्त वर्ष ३ किरण १ (वारशामनाङ्क) जान पड़ता है। इसके सिवाय, 'द्विविधोऽवधिः' इस तथा पं० मुम्बलालोंके तत्त्वार्थ-मत्र-विवेचनकी प्रस्तावना २वं मृत्रके भाग्यमे लिखा है-'भवप्रत्यय: क्षयोपशमका पृष्ट ८४-८५
निमित्तश्च', और इसके द्वारा अवधिज्ञानके दो भेदोंके नाम 'श्वे० ममाजक असाधारण विद्वान पं० सुखलाल जी अग्ने क्रमश: 'भवप्रन्यय' और 'क्षयोपशमनिमित्त' बतलाये हैं। नत्त्वार्थमूत्रके लेखकीय वक्तव्यमे लिग्बते हैं:-"उमाम्बाति २२ व सूत्र 'भवप्रत्ययो नारकंदेवानाम' में अवधिज्ञानके श्वेताम्बर परम्परा के थे और उनका ममाप्य तत्त्वार्थ प्रथम भेदका वर्णन जय भाष्यनिर्दिष्ट नामके साथ किया मचेलपक्षके श्रुत के अाधारपर ही बना है।"
गया है तब २३ वें मूत्रमें उसके द्वितीय भेदका वर्णन भी
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
वर्ष५
भापनिर्दिर नाम साथ होना चाहिये था और तब उस यह कार्य बादकी कृति होनेसे यह नहीं कहा जा सकता कि सूत्रका रूप होता-"क्षयोपशमनिमितः पड्विकल्पः सूत्र और भाप्यमें उक्त प्रसंगति नहीं थी। शेषाणाम्", जैसा कि दिगम्बर सम्प्रदायमें मान्य है। परन्तु यहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि ऐसा नहीं है, अत: उक्त सूत्र और भाष्य की प्रसंगति स्पष्ट श्वेताम्बरीय भागमादि पुरातनग्रन्थों में भी साम्परायिक है और इसलिये यह कहना होगा कि या तो 'ययोक्तनिमित्तः' प्रास्रवके भेदोका निर्देश इन्द्रिय, कषाय, अवत, योग और पदका प्रयोग ही गलत है और या इसका जो अर्थ क्रिया इस सूत्रनिर्दिष्ट क्रमसे ही पाया जाता है; जैसाकि 'पयोपशमनिमित्त' दिया है वह गलत है तथा २१ वे सूत्र उपाध्याय मुनि श्रीवात्मारामजीद्वारा 'तत्वार्थसूत्र-जैनागमके भाष्यमें 'यथोक्तनिमित्त' नामको न देकर उसके समन्वय में उदघृत स्थानांगसूय और नवतावप्रकरण के निम्न स्थानपर 'योपशमनिमित्त' नामका देना भी गलत है। वाक्यासे प्रकट है:दोनों ही प्रकारसे सूत्र और भाष्यकी पारस्परिक असंगति में "पंचिंदिया पएणता 'चत्तारिकसाया पण्णत्ता... कोई अन्तर मालूम नहीं होता।
पंचविरय पएणता पंचवीसा फिरिया एणत्ता।" (२) श्वे. सूत्रपाठके छठे अध्यायका छठा सूत्र है
-स्थानांग स्थान २, उद्देश्य १ सू० ६० (१) " इन्द्रियकषायाऽव्रतक्रियाः पंचचतुःपंचपंच- "इंदियकसायअव्वयजोगा पंच चउपंच तिन्नि कमा ।" विंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः।"
किरियाश्रो पणवीसं इमाओ ताओ अणुकमसो।।" दिगम्बर सूत्रपाठमें इसीवो नं. ५ पर दिया है। यह
-नवतत्त्वप्रकरण
इससे उक्त सुधार वैसे भी समुचित प्रतीत नहीं होता, सूत्र श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रकी टीका और सिद्धसेनगगणी
वह भागमके विरुद्ध पड़ेगा। और इस तरह एक असंगति की रीकामें भी इसी प्रकारसे दिया हुआ है। श्वेताम्बरोंकी
से बचनेके लिये दूसरी असंगतिको धामन्त्रित करना होगा। उस पुरानी सटिप्पण प्रतिमें भी इसका यही रूप है जिसका
(३) चौथे अध्यायका चौथा सूत्र इस प्रकार हैपरिचय अनेकान्तके तृतीय वर्षकी प्रथम किरणमें प्रकाशित हुआ है। इस प्रामाणिक सूत्रपाठके अनुसार भाष्य में पहले
“इन्द्र-मामानिक-त्रायस्त्रिंश-पारिपद्याऽऽत्मरक्ष-लोकइन्द्रियका, तदनन्तर कषायका और फिर अवतका न्याख्यान
पाला-नीक-प्रकीर्णका-ऽभियोग्य-किस्विषिकाकशः।" होना चाहिये था, परन्तु ऐसा न होकर पहले 'अवत' का
इस सूत्रमे पूर्वसूत्र के निर्देशानुसार देवनिकायोंमेऔर प्रवत वाले तृतीय स्थानपर इन्द्रियका ब्याख्यान
नवीय थाना इटियका व्याख्यान देवोंके दश भेदोंका उल्लेख किया है। परन्तु भाप्यमें पाया जाता है। यह भाष्यपद्धतिको देखते हुए सूत्रक्रमोल्लं.
'तद्यथा' शब्दके साथ उन भेदोको जोगिनाया है उसमे दश घन नामकी एक असंगति है, जिसे सिद्धसेनगणीने अन्य के स्थानपर निम्न प्रकारसे ग्यारह भेद दे दिये हैं:प्रकारसे दूर करनेका प्रयग्न किया है, जैसा कि पं.सुखलालजी “तद्यथा, इन्द्राः सामानिकाः त्रायस्त्रिशाः पारिपद्याः के उक्त तत्त्वार्यसूत्रको सूत्रपाठसे सम्बन्ध रखने वाली आत्मरक्षाः लोकपालाः अनीकाधिपतयः अनीकानि निम्न टिप्पणी (पृ. १३२) से भी पाया जाता है :- प्रकीर्णकाः आभियोग्याः फिस्विषियाश्चेति ।" ___"सिद्धसेनको सूत्र और भाष्यकी यह असंगति मालूम इस भाष्यमे 'अनीकाधिपतयः' नामका जो भेद दिया है हुई है और उन्होंने इसको दूर करनेकी कोशिश भी की है।" वह सूत्रसंगत नहीं है। इसीसे सिद्धसेनगणी भी लिखते
परन्तु जान पड़ता है पं. सुखलालजीको सिद्धसेन हैं किका वह प्रयत्न उचित नहीं ऊँचा, और इसलिये उन्होंने मूल- "सूत्रे चानीकान्येवोपात्तानि सरिणा नानीकाधिसूत्र में उस सुधारको इष्ट किया है जो उसे भाष्य के अनुरूप पतयः, भाग्ये पुनरुपन्यस्ताः।" रूप देकर 'अवतकषायेन्द्रियक्रिया:' पदसे प्रारम्भ होनेवाला अर्थात-सत्रमें तो श्राचार्यने अनीकोंका ही ग्रहण बनाता है। इस तरह पर यद्यपि सूत्र और भाष्यको उक्त किया है, अनीकाधिपतियोंका नहीं। भाप्यमें उसका पुन: असंगतिको कहीं कहीं पर सुधारा गया है, परन्तु सुधारका उपन्यास किया गया है।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
इससे सूत्र और भाष्यका जो विरोध भाता है उससे इनकार नहीं किया जा सकता । सिद्धसेनगणीने इस विरोध का कुछ परिमार्जन करनेके लिये जो यह कल्पना की है कि 'आकार और कापियों का विचार करके ऐसा मान्य कर दिया जान पड़ता है यह ठीक मालूम नहीं होगी क्यों और अनाधियों अनी की एकताका वैसा विचार पदे भाष्यकारके ध्यान होगा तो वह अनीको धीर धमीकाधिपतियोंके लिये चलन चल पद प्रयोग करके संख्याभेदको उत्पन्न न करता । भाष्य में तो दोनोंका स्वरूप भी फिर अलग थलग दिया गया है। दो दोनों भिन्नताका छोतन करता है । यों तो देव और देवाधिपति (इन्द्र) यदि एक हों तो फिर 'इन्द्र' वा अलग भेद करना भी व्यर्थ ठहरता है; परन्तु दश भेदों इन्द्रकी थलग गणना की गई है, इससे उक्त वरुपना ठीक मालूम नहीं होती । सिद्धसेन भी पनी इस दल्पना पर हद जालम नहीं होते, इससे उन्होंने आगे चलकर लिख दिया है"अन्यथा वा दशसख्य। भिद्येत" - श्रथवा यदि ऐसा नही है तो दशकी संख्याका विरोध श्राता है।
(४) श्वे० सूत्रपाठ के चौथे अध्यायका २६ व सूत्र निम्न प्रकार है
श्वेतत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच
—
१०६
*"क्तमेवानी कानीकाधिपत्योः परचिन्त भाष्यकारेण ।”
"ब्रह्मलोक परिवृत्याष्टासु दिक्षु अष्टविकल्पा भवन्ति । तद्यथा — "
इससे सूत्र और भाष्यकार है निय और पं० दुखलाल ने भी इस भेदयो स्वीकार किया है; जैसा कि उनके मिश्न क्यों है-वाक्योंसे प्रक्ट
"नवेवमेते नवभेदा भवन्ति भाष्यकृताचाविधा इति मुद्रिताः ।"
'इन दो सूडोके मूल भाष्य मे सोफाक देयों ही भेद बतलाये हैं, नव नहीं ।"
इस विषय मे सिद्धसेन गणी तो यह कहकर छुट्टी पागये हैं कि लोमन्तमें रहने वालों के ये आठ भेद जो भाष्यकार सूरिने थंगीवार वि ये हैं वे रिष्टविमान के प्रस्तार में रहने चालोकी पेक्षा नवभेदरूप होजाते हैं. श्रागम में भी नव भेद कहे हैं, इससे कोई नही
स्वयं सूत्रकारने नव भेदोंपा उल्लेख किया है तब अपने ही भाष्यमे उन्होंने नव भेदोंग उल्लेख न करके श्राठ भेदोका ही उल्लेख क्यों किया है, इसकी वे कोई माकूल वजह नहीं बतला सके। इसीसे शायद पं० सुखजाली
इसमें लोकान्को सारस्वत साहित्य बन्ि ग्ररुण, गर्दतीय, तुषित, श्रन्याबाध, मरुत और अरिष्ट ऐन भेदबताये है, परन्तु भाष्यकारने पूर्व सूत्र के भाग्य में और इस सूत्र के भाध्यमं भी जोकान्तिक देशभेद आठ ही बतलाये हैं और उन्हें पूर्वादि धाठ दिशा-विदिशाओं में स्थित सूचित किया है, निम्न भाष्योंने प्रकट है :
उस "सारलतादित्यचन्हारुण गई तो यतुपिताव्याबाध प्रकार से बहकर छुट्टी पा लेना उचित नहीं ऊँचा, और इम मरुतराव | " लिये उन्होंने भारी बाधा न पढ़ने देने के प्रयास यह वह दिया है दियो मूल में 'मी' पाठ पीछे प्रति हुआ है ।" परन्तु इसके लिये वे कोई प्रमाण उपस्थित नही कर सके । ब प्राचीनमें प्राचीन श्वेताम्बरीय टीका 'मस्ती' पाठ स्वीकृत किया गया है सब उसे यदी दिगम्बर पाठकी बात को लेकर प्रक्षिप्त नहीं कहा जा सकता । (क्रमशः)
"एते सारस्वतादयो ऽविधा देवा ब्रह्मलोकस्य पूर्वतिरादिषु दिक्षु प्रदक्षिणं भवन्ति दधार रुम ।"
यदि तमेव विमानप्रस्तावतिभिर्नवधा भवन्त्यदोषः । श्रागमे तु नद वातइति"
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
साहित्यपरिचय और समालोचन
१जैनसाहित्य और इतिहास-लेखक, पं. भी दे दिया है। और कही कही संस्कृत-गाठोका भावार्थ नाथूगमजी प्रेमी, मालिक हिन्दी ग्रन्थग्नाकर कार्यालय, भी लगाया गया है। प्राक्कथनम बाबू जयभगवानजी वकील हीराबाग पो. गिरगाव, यम्बई । प्रकाशक, हेमचन्द मोदी, ने विवाह-विधिार भी प्रकाश डाला है। इस पुस्तक के मूल बम्बई । पृष्ठ संख्या स्व मिलाएर ६३५ । मूल्य सजिल्द पाटांका संशोधन परिसेवामन्दिरमे कगया गया गया है प्रनिका ३) रुपया।
जिससे इसकी उपयोगिता बढ़ गई है; क्योकि यहुधा संस्कृत पं. नाथूरामजी मी जैनसमाजके साहित्य-मेवी के पाट अशुद्ध पाये जाते थे, परन्तु खेद है कि इस विषयका गण्यमान गिद्वान और खक है। श्रारमे जैनसमाज भली कोई स्पष्ट उल्लेख परतक मे नही किया गया। अस्तु, पुरतक भाति परिचित है। श्राप हिन्दी साहित्यके मुयोग्य सम्पादक अनेक दृष्टियोंमे उपयोगी है और समाजको इमसे लाभ
और प्रकाशक है। श्रापकी हिन्दी ग्रन्धरत्नाकर सीरीम उठाना चाहिये। बहुत उपयोगी साहित्य प्रकाशित दृश्रा है। प्रस्तुन पुस्तक ३ भावना-विवेक-मूल लेखक, पं. चैनसुखदास श्रापके संशोधित तथा परिवर्तित लेग्यांका उत्तम संग्रह है। जैन न्यायती अनुवादक, पं. भंवरलाल जैन न्यायनीर्थ, दि. जनसमाजमें ऐसे गदेपरणात्मक माहित्य और इतिहास- जयपुर । प्रकाशक, पं. श्रीप्रकाश जैन न्याय-काव्यतीर्थ, सब धी लेग्य लिम्बने तथा उसके पठन-पाटनी ओर मन्त्री, सबंध ग्रन्थमाला, मनिदागेका रास्ता, जयपुर । पृष्ट अभिरुचि उत्पन्न वन्ने और जैनाचार्यों व उनके लुमप्राय संख्या २८०, मूल्य १) रुपया । प्रन्योको प्रयाश मे लानेका श्रेय श्रापको और मुख्तार श्री. प्रस्तुत पुस्तकमे ३०६ श्लोको द्वारा तीर्थवर प्रकृति के पं. जुगलीशोरजी सरसागको है । श्राप दाना ही बंधी कारर-भूत दर्शन विशुद्ध यादि पोडरकारए भावनाओं विद्वानोने जैनमादित्यकी अपूर्व सेवा की है और कर रहे हैं। वा विवेचन किया गया है । और अनुवादमे रनवा
इम पुस्तकम ४६ निबन्धाका संग्रह है, जिन्हे प्रेमी नी स्पष्टीकरए भी कर दिया गया है जिमसे स्वाध्याग प्रेमियोको ने बड़े भागे परिश्रमसे तय्यार किया है । मायमे उपयोगी उनके स्वरूपादि मम्भ नेमे कोई कटिनाई नही दो मक्ती। परिशिष्ट भी लगा दिये हैं जिससे प्रस्तुन पुन्तककी उपयोगिता अच्छा होता यदि गलपुरतक हिंदी पद्रोमे ही लिस्ली जाती; अधिक बढ़ गई है, कागज़ छगई मफाई सभी ग्राम पंक क्योंकि लेखक महोदय हिन्दीके भी अच्छे हेखक और कवि है । पुस्तक के मभी मनतव्यों से पूर्णतया सात न होने हुए हैं। इमसे समाजकी शक्ति और समयकी बहुत कुछ बचत भी यह कहना ही होगा कि पुस्तक निहामके द्यिार्थिाके हती। अस्तु, पुस्तक उपयोगी, पटनीय और संग्राय है। लिये बड़े काम की चीज़ है । इसके लिये प्रेमीज.का जितना ४ महर्न-दर्पर -संहकर्ता और अनुवादक, भी अभिनन्दन किया जाय थेड़ा है । श्राशा है अाप अपने पं. नेमिचन्द जैन न्याय-ज्योतिपतीर्थ, श्राग । सम्पादक, शेष लेविका एकदूमरा संग्रह भी शघ्र प्रकाशित वरनेम पं.. भुजबली जैन शास्त्री, अध्यक्ष जैन मिद्धान्तभवन समर्थ होगे। नेवान्त के पाटकोसे निवेदन है कि गे इस भाग । पृष्ठ संख्या ६.|गल्य, पाठ थाना। पुस्तकको मगाकर अवश्य पढ़े।
प्रस्तुन पुस्तकमे मुहृताद विषयक १२१ बातोपर २जैन विवाह विधि-संग्रहकर्ता और प्रमशक, प्रकाश डाला गया है। धार्मिक और लौकिक वायोमेसे ला. सुमेरचन्द जैन, अराइजनवीस, १९३२ छत्ता प्रतापसिह किसी भी कार्यके मुहूर्तको मालूम वरना हो तो इससे सहज देहली। पृष्ठ संख्या रुब मिलाकर ४० मृल्प दो पाना । ही मे मालूम किया जा मकता है। पुस्तक अपने ढंगकी अच्छी
इस पुस्तक में युक्तमान्त और पंजायमे प्रचलित जैन तथा संग्रह करने योग्य है। हिन्द में ऐसी पुस्तककी जरूत विवाह पद्धतिया अच्छे दंगसे रंग्रह किया गया है। विवाह थी, जिसके लिये संग्रहकर्ता शास्त्रीजी धन्यवादके पात्र हैं। विधिमें काम थाने वाली सामग्रियो धादिका संक्षेपमे परिचय
-परमानन्दजैन शारत्री
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीरकी झाँकी
( लेखक-वा० जयभगवान जैन, बी० ए० वकील )
महावीर कौन था ? -
वह यहाँ हरदम तिलमिलाता रहता,-हरदम फड़महावीर कौन था? हमारे हीसमान इन्सानीसाँचे में ढला, फहाता रहता-जरा चैन नहीं। गोया वह अपने बन्धनों हाद मांसका बना एक पुतला-सात हाथ लम्बा करयल को तोड़, पिम्जरेकी तिल्लियोंसे निवल, कहीं और ही जामा कद पाला-देखने में तपे हुये सोनेके समान सुन्दर। चाहता हो, कही और ही रहना चाहता हो। वह यन्दी होते उसके माथेपे मुकुट, कानोंने कुण्डल, गले में ह.र, बगल भी सदा भीतर ही भीतर विधरता रहता-इस भववनके में पटका, भुजाओंमें पाजूबन्द, हाथोंमे कगण, तेडमे तागदी, कोने कोनेको दृढता रहता-इसकी ऊंचाई और नीचाईको और कटि पटकेदार धोती अपार शोभा देते । खुलानेमे इसके कुञ्जों और मरस्थलोको, इसके मार्गों और पगरिहयों वह वीर, महाचोर, सन्मति, वर्धमान नामोसे पुकारा जाता। को, इसकी लताओं और वृक्षोंको इसके फलों और फूलों बतलाने में वह काश्यप गोत्री, इच्चाकू बंशी, लछवि सत्रिय, को निहारता रहता गोया यह यहाँ किसी खोई हुई संपत्ति ज्ञातपुत्र, वैशालिक विशेषणोंसे विख्यात था। कुण्डमामका को पाना चाहता हो। राजा सिद्धार्थ उसका पिता और पशिष्टगोत्रा निशला
वह यहाँ जब अपने विचार-पंखोको खोलता, तो खूप उसकी माता थी । वैशालीका अधिपति चेटक उसका नाना. ही उदत्ता-ऊपर ही ऊपर-दूर ही दूर । १६ इन उदानों मथुराका राजा तिशय उसका पृपा था। मगधसम्राट मे बड़ी बड़ी घुलन्दियोंतो टाप जाता,--बड़ी बड़ी दूरियों बिम्बसार, दशार्णपति दशरथ, वस-नरेश उदयन, कौशाम्बी को लांघ जाता। वह जमीन-पास्मान, नरव-स्वर्ग लोकनृप शतानीक उसके मौसा ( उसके पिताके सा) थे। वह परलोक सब ही को नाप जाता । यह बातकी पातमें इन्हें हमी भृमण्डल में पैदा हुश्रा था---जम्बु महाद्वीपके भरत देश बनाने वाले जीप अजीव प्रादि सम्वोंको, इनमें रहने वाले मे-उसके बिहार प्रान्तके वजी गणराज्यके अन्तर्गत देव दानव, मनुष्य तिर्यञ्चोंको, इनमें वर्तने वाले शुभ-अशुभ कुण्डग्राममे-याजमे कोई २५४० वर्ष पूर्व ।
आदि भावांवो घाखामसे निकाल जाता--गोया बह इन करनेको तो इसी प्रकार उसका और भी बनान किया सबको जीत कर इनसे ऊपर उठना चाहता हो। जा सकता है, पर वास्तवमें यह सब कुछ बखान उसका वह ब्रहलोकका वासी थानही, उसके पश्चभूतोंसे बने शरीरका है-शरीरके नामों
वह इस लोक में रहता हुश्रा भी इस लोकका रहने और रूपांका है-शरीर-सम्बन्धी नातेदारोंका है, शरीरके घाला न था, यह किसी और ही लोकका रहने वाला थाजम्मकाल और क्षेत्रका है। यह सब कुछ बखान उसे बन्दी किसी से लोकया, जो यम लोक्से ऊपर है, पितृ लोकसे बनाने वाले यन्धनोका है। यह स्वयं तो इनमें से कुछ भी ऊपर है. ज्योतिष लोक्से ऊपर है. देवलोव से ऊपर हैन था। वह जो कुछ भी था, इन बन्धनोंके पीछे छुपा या। जहां ऊंच है न नीच, योग है न वियोग, रोग है न शोक रह एक दिव्य सुपर्ण था
व्यथा है न पीड़ा, जवानी है न बुढ़ापा, जन्म है न मरण, फिर वह कौन था? एक दिव्य सुपर्ण,-एक अलौकिक जहाँ सब तरफ समता है, शमता है, मधुरता है, सुन्दरता पक्षी-अनोखे स्वभाव वाला-अनूठे वृत्तान्त वाला- है, अमरता है, अानन्द है। वह वास्तवमें ब्रह्मलोकरा वासी रहा सचेत-बड़ा जागरूक-पर हार मांसके पिञ्जरेमें था। उसीके दृश्य उसकी प्रांखों में झलकते, उसीके राग यन्द एक लाचार बन्दी।
उसके कानों में झंकारते, उसीके भाव उसके दिल में छलकते।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
११२
अनेकान्त
इसी लिये यहांकी कोई बात भी उसके मनको न भाती यहांकी कोई चीज़ भी उसकी श्रांखों में न समाती । यह लोक उसके लिये था ही क्या ! निरा बन्ध, बंध बंध !
वह यहां जिधर निगाह डालता, उसे वहां ही निस्सारता, उदासीनता, भयानकता सी छाई नजर श्रामी । वस्त्राभूषण उसे चलनेमें रुकावट सी महसूस होते, विषयभोग काले काले नागसे लगते, दुनियावी विभूतियां आडम्बर सी मालूम होतीं, मकान महल दम घोटने वाले कटघरेसे जान पड़ते, इठलाती किलकिलाती युवतियां कंकालका ढेर सी लगती, खेलते हँसते युवक मौतका बीना सा सूझ पडते, बड़े बड़े ग्राम और नगर जनपद और राष्ट्र उसे श्मशानकी तरह असते, पूल बन कर उ हुए दिखाई पडते । इतना ही नहीं, यह सारी दुनिया बडी तेजीके साथ सरकती हुई, काल कण्ठमें उतरती हुई, विस्मृतिके अथाह में विशेष होती हुई साचान् नज़र श्राती ।
जब जब यहां के दुःखभरे दृश्य उसके सामने श्राते वह एक दम सहम सा जाता, सिमट और सुकवाकर श्रलगको हो जाता, वह एक गहरी चिन्तामें पड़ जाता, वह इस दुनियाको एक छोरमे दूसरे छोर तक जांच कर निश्रय करता "यह दुनिया श्रनित्य है, जलधाराकी तरह निरन्तर बढने वाली है, यहां किसीको कयाम नहीं, यह अनेक दुःखों से भरी है, जन्म जरासे पीड़ित है, मौतकी घटा इस पर छाई है—यहां जीवन पराधीन है, अशरथ है, असहाय है।"
जय जब वह लोगोंको इस दुनियाकी बीओोंने रंगरलियां करता हुआ पाता, इनके लिये अहंकार ममकार करते हुये सुनता --- इनके लिये लड़ते झगड़ते हुये देखता, तो भीतर मे बहुत ही कुढता और कहता हा ! हा ! हा ! ये लोग कैसे विर है, इन्हें पता नहीं कि वह लोक, विमूढ़ जहां ये रह रहे हैं, इनका लोक नहीं, यह कालका लोक है भूर्तीका लोक है, प्राकृतिक शक्तियोंका लोक है, इन पर किसीका अधिकार नहीं, इनकी यहां जो कुछ परिपालना हो रही है, वह सब कालका ग्रास बननेके लिये ही हो रही है । यह काल बड़ा निष्ठुर है, बड़ा विघातक है, बड़ा प्रपची है—यह जिसकी पालना करता है, उसे यह खुद ही
[ वर्ष ५
अपने हाथों रेखाकीर्ण करके हडप कर जाता है -- यह लोग इस कालसे बिल्कुल बेखबर हैं--इन्हें अपने अन्तका पता नहीं, अपने भले बुरेका पता नहीं, प्रेय और श्रेयका पता नहीं। इनका उद्धार हो तो कैसे ?”
ऐसा लौकिक पुरुष होते हुए भी अचम्भा है कि वह तीस वर्ष तक घर मे कैसे ठहरा रहा ! निस्सन्देह, वह बडा ही अलौकिक था, पर उसके मां बाप, उसके भाई बन्धु, उसके नातेदार तो लौकिक न थे, वे भला यों ही उसका पता कैसे खो देते ही उसे अपने से जुदा कैसे कर देते। वे उसके श्राज्ञाकारी स्वभावका सहारा लेकर तीस वर्ष तक उसके और उसके लक्षके बीचमे खड़े रहे। इस अरसे में इन्होंने बहुत चाहा कि किसी तरह समझा बुझा कर इसे अपना बनाले, विवाहके सूत्रमें बान्ध-जूड कर इसे जगका करलें इसके लिये अनेक षड़यन्त्र रचे गये---कामदेव भी छाया, उसने भी अपने पुष्पको बधानमाया शैतान भी आया, उसने भी अपने मोहजालको विद्या भैरव रुद्र भी आया, उसने भी लाल-पीली आंखोंसे खूब डराया, पर किसीकी भी कुछ न चली ! सब ही योजनायें विफल रहीं और रहती क्यो न ? वह कोई साधारण क्षत्रिय तो था ही नही जो मोह लालसा में श्राजाता किसी डॉट इटसे डरता। वह था महापरिवर महावीर, उच्च विचार वाला, दृढ संकल्प वाला, साहसी और उत्साही, पराक्रमी और पुरुषार्थी । वह था सब ही को विजय करने वाला, सब ही पर शासन करने वाला, सब ही को अपना बनाने वाला फिर वह छोटेसे गृहस्थसे तृप्त कैसे होता ? छोटेसे राज्यसे सन्तुष्ट कैसे होता ? थोडेसे शासनसे खुश कैसे होता ?
शाखिर वह परसे
सीस वर्षकी खीचातानीके बाद निकला ही निकला गिरा कुमार की तरह मासूम, फूलकी तरह प्रफुलित, अमिकी तरह तेजस्वी चन्द्रमा श्रग्निकी समान सौम्य ।
वह विश्वसम्राट् था
--
घरसे बेघर हो अपनी मनोरथसिद्धिके लिये सबसे पहिली योजना जो उसने की, वह परित्याग की थी । "बदी चीज़की पानेके लिये छोटी पीठका याग करना ही होता है" यह सोच कर ही मानों उसने विश्व- शासनके
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४ ]
लिये राजपाका त्याग कर दिया, विश्वकल्याणके लिये कुटुम्ब परिवारका त्याग कर दिया, विश्वविभूतियोंके लिये वस्त्राभूषणोका त्याग कर दिया, अक्षय सुखके लिये दुनियावी सुखोंका त्याग कर दिया।
"जिसको जो कुछ बनना होता है, उसके अनुरूप ही उसे अपना रंग ढंग भी बनाना होता ही है"- यह सोच कर ही मानों उसने विश्वसम्राट बननेके लिये अपना रंग ढंग विश्वमा सरीचा ही बना लिया, बायलयों पर ठहर, अनेक द्वीप और सागरोंसे घिरे पृथ्वीतलको अपना सिंहासन बना लिया ऊंचाई और तारोंसे भरे श्राकाशको अपना छत्रमण्डप बना लिया, दूर तक फैली हुई और किरणों चकाचौन्द दिशाओं को अपना जामा बना लिया, दायें बाये बनी कली कुम्मों खेतीसम को अपना चमर बना लिया; मान उत्तङ्गोको झुकाने वाले दिलोको लुभाने वाले विनयको अपना मुकुट बना लियाशत्रयोंको रुलाने वाले, दोनोंको मिटाने वाले त्रिदण्डको राजदण्ड बना लिया ।
,
फिर पूर्व दिशा की ओर बैठ उसने पूर्व सिद्धों को याद किया, उन जैसा होनेकी भावना कर "मेरी अब किसी पापमें भी प्रवृत्ति न हो", ऐसा दृढ संकल्प किया। फिर शंका, चाचा, स्नेड, ग्लानि, राग, द्वेष, दर्प विषाद, चिन्ता क्लेश श्रादि सब ही विकल्पोंको छोड़ सम्भाव धारण कर लिया ।
भगवान महावीरकी झांकी
"मूहिक जीवनमे विश्वजीवनको और जानेके लिये राज्य और समाज रूटिक मागोंको छोड़ सहजमिद प्राकृतिक मार्गये चलना जरुरी ही है" "विश्वजीवनका भोग करनेके लिये वमनीकी कृत्रिम सीमाओंको उल्लंघ विश्वतों के बीचमें रहना, विश्वजी दिलमिलके बहना जरूरी ही है" - यह जान कर ही मानो, उसने बनका मार्ग लिया । सिंह समान निर्भय, पृथ्वी समान चमाशील, बायुसमान स्वतन्त्र, श्राकाश समान निर्लेप हो वह वन और पर्वतोंके प्राकृतिक स्थलोंमे एकाकी, निस्पृह, निर्मन्थ रहने लगा । वह एक गाढ विचारक था
वह जहां श्रमरसका एक अद्वितीय रसिया था, वहां वह आमतवका एक गाढ़ चिन्तक भी था । वह श्रात्मरस लेते भी हरदम श्रारमचिन्तनमें लगा रहता, हर दम जीवन
की समस्यायोंको सुलझाता रहता। उसकी विचारणा क्या थी ! एक अविरल धारा थी, जो सदा एक छोटेसे तंगतारीक दुःखी जीवनमेंसे निकल एक असीम धनन्त शिवशान्त जीवनकी ओर बहती रहती । यह विश्वार लहरी जब बहना श्रारम्भ करती तो सात तत्वोंमेंसे होकर कुछ इस प्रकार बहती :
११३
१. वह दुनियाषी जीवन क्या है! एक भारी विरोध है । यह सुख चाहते भी दुःखोंसे घिरा है, ज्योति भी अन्धकार का है, पूर्णता चाहते भी पूसा भरा है, अत चाहते भी जन्म पशु और हासे छाया हुआ है, इसका लक्ष्य कुछ और है, इसका भोग कुछ और है। ऐसा जीवन वास्तविक जीवन नहीं हो सकता ।
1
वास्तविक जीवन तो भीतरी भावनाके अनुरूप ही होना चाहिये-सच्चिदानन्द, शिव, शान्त सुन्दर अजर, श्रमर, विभु भीतरी लोकमें ही बसा हुआ - बुद्धि से नहीं, श्रुतिमे ही अनुभव होनेवाला ।
२. जन्म, मरवा, रोग, बुढापा अपूर्णता घोर अन्ध कार, भूख और प्यास, पीस और चक, निद्रा और घाटि ओ भी भाव चाग्माको अचिकर है, आमाको हानिकर हैं. मामे विरोध पैदा करनेवाले है, आत्मा दुःख पैदा करने वाले हैं, आत्मामे असन्तोष पैदा करने वाले हैं वे सब जोवतत्वका स्वभाव नहीं, जीव तत्वका स्वभाव - सब बाहिर में रहने वाले, बुढिये सूमने वाले क्षेत्र से परिमित, काल परिमित धर्म और धर्म से छाये हुये पुद्गलका स्वभाव है। ये सब बनने और बिगड़ने वाले टूटने और जुड़ने वाले, नया और पुराना होने वाले उपतेजित धीर मुस्त होने वाले, पुद्गल पिण्डों का स्वभाव है ।
२. यद्यपि जीवतस्व और अजीवतत्त्व दोनोंमें श्राकाश पातालका अन्तर है एक भीतर में रहने वाला श्रमूर्त, श्रवि - नाशी, चेतन स्वभावी है, दूसरा बाहिरमें रहने वाला, मृर्त, विनाशी, जदस्वभावी है परन्तु जीवनकी योगशक्ति कुछ ऐसी अद्भुत और बहुरूपिणी है कि वह उसके द्वारा अपने और पराये जिस भावको भी अपनाता है, वह उसी
रूप होता है।
1
जीवजिस किस भाव में धात्मधारणा धरता
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
अनेकान्त
[वर्ष ५
यह वैसा ही होने को कामना करता है। यह जिस रूप लोकमें रहता हुश्रा सदा बेकल रहता है, सदा असन्तुष्ट होने की कामना करता है, या वैसा ही संकल्प विफल रहता है। वह सदा इसकी खामियों की शिकायत करता करता है। यह जिस रूप संकल्प विकला करता है, यह रहता है, वह सदा इसमें हेर फेर करने, इसे अपने वैसा ही होने की चेष्टा करता है-यह जिस रूप होनेकी अनुरूप बनाने, इसके उसातीको विज्य करने, इसकी चेष्टा करता है, यह वैसा ही कर्म करने लगता है-यह सीमाओंको उल्लंघने की कोशिश करता रहता है। जिप्त रूप कर्म काने लाता है, या वैया ही अभ्यस्त होना यह सब कुछ होते हुए भी, जीव अपनी भूल-भ्रान्ति चला जाता है-यह जैमा अभ्यसा होता चला जाता है, अज्ञान-अविद्या, मोह-ममताके कारण इस दुनिय.से यह वैसा ही बन जाता है।
ऐसा बन्धा है, कि यह इसकी खामियोंसे ऊपर उठने जब जीव पौद्गलिक भावों में प्रारमश्रद्वा धारण कर
की भावना रखते भी, मूढ मृगके समान इसीके पीछे पीछे लेता है, तो यह पुद्गल-समान ही प्रवर्तने लगता है
चल रहा है, इसी में बार बार चक्कर काट रहा है। उस समान ही सकम होने लगता है, रागद्वेष करता हुआ
५. जीव जैसे अपने मिथ्या विश्वास, मिथ्या ज्ञान, रुचिकर पुद्गलको अपनी ओर ओर श्राधिकरको परे
मिथ्या प्राचारके कारण इस दुनियासे बन्धा है, वैसे ही धकेलने लगता है अपने द्वारा प्रतिसूचम कामणिको, कामीण
यह अपने सम्यक् विश्वास, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् प्राचारद्वारा सूचम तैजसको, तैजलद्वारा सूचनस्थून वायुको वायु
द्वारा इससे ऊपर उठ सकता है। बाहरी पदार्थ न इसके द्वारा स्थूल सूक्ष्म अपद्रव्यो, अपद्वारा स्थून पार्थिव
पकड़े जाने मे कारण हैं, न वे इसके छुटकारेमे सहायक हो दन्यको ग्रहण करने लगता है। इस प्रकार ग्रहण करता
सकते हैं। जीव स्वयं अपने भाग्य का विधाता है, स्वयं हुआ यह पुद्गल के समान ही सपिण्ड होता है।
अपना दोस्त और दुशमन है, स्वयं अपना संहारक और
उद्धारक है। सपिराष्ट्र होनेपर जीव पिण्डसमान ही तुच्छ और सरिमाण हो जाता है, उस समान ही जन्मने और मरने
हम दुःख का अन्त पुद्गल का पीछा करनेसे नहीं
हो सकता, उसका पीछा छोड़नेपे हो सकता है; पौद्गलिक वाला, जवानी ओर बुढ़ापे वाला, सुस्ती और तेजी वाला,
भावाने प्रवृत्ति करनेमे नही हो सकता, उनपे निवृत्ति करने रोग और विकार वाला होता है। उस समान ही श्राकार
से हो सकता है, पौद्गजिक वस्तुओं की इच्छा करने से और स्वभाव वाला बन जाता है, उस समान ही कीट
नही हो सकता, उनका त्याग कानेपे हो सकता है। पतंग, हाथी, घोडा, पशु, नर, छोटा-बड़ा, काला-गोरा,
पौद्गलिक दुनिया के लिये वर्म-कर्म-विधान करनेसे नहीं स्त्री-पुरुष हो जाता है।
हो सकता उसके लिये दण्ड-दण्ड-विधान करनेसे हो ___५. जब जीव पुद्गल-स्वभावो न होते हुए भी पुद्गल सकता है। परिणामी होजाता है, तो यह पद पद पर दुःख उपजाने इस बन्ध दशाका अन्न भूल-भ्रान्तियों में पड़े रहनेमे लगता है। यह दुःख ही जीवन के वैभाविक परिणमनका नही होता, लोके रूढिक मार्गोमे चलनेसे नहीं होता। सबपे यदा सबूत है। जब तक जब पुगत रूप परवस्तुमें इसका अन्त अपनी गलतियोंको निरखने और दूर करनेमे अपनी धारणा बनाये रखना है उनकी बनी हुई दुनियामें होता है, अपनी श्रद्वा अपने में ही जमाने से होता है, भीतर अपनी प्राशायें जमाये रखता है, उसके होने वाले क्रिया- ही भीतर अपनेो देखने और पहिचाननेमे होता है. फलाप में अपनी प्रवर्तना चजाये रखता है, तब तक दुःख पानी प्रवृत्तियोंको बाहिरसे हटा कछुवेकी तरह भीतरकी इसका पीछा नहीं छोड़ता।
और लेजानेसे होता है, इन्द्रियोंका संयम पालने, मनदुःख जीवनका इष्ट नहीं, तो फिर उसका कारणीभूत वचन-कायके त्रियोगोंको वश करने, प्राकृतिक कठिनाईयों वैभाविक परिणमन अथव। पौद्गलिक लोक, जीवनके वो सहन करने, और सब ही भावोंको प्रारमद्वारा संवरण लिये कैसे इष्ट हो सकते हैं ? यही कारण है कि जीव इस करनेसे होता है।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२]
भगवान् महावीरकी नाँकी
६. इस प्रकार जीवनका संवरण करते हुए. रागद्वेष, शक्तिकी विभिन्नता न थी, उनकी अभिव्यक्तिकी विभिन्नताथी, काम, क्रोध, लोभ माया आदि उन अनान भावों को निर्ण उनके स्वभावकी विभिन्नता न थी. उनके विकारकी विभिकरने और उखाड़ फंसने की जरूरत है, जो अनादि अभ्यास सता थी, उनके प्रयोजनकी विभिन्नता न थी, उनके प्रयोग के कारण प्राप्माने अहना घर कर गये हैं, जो आमाका की विभिनता थी, उनके साध्यकी विभिन्नता न थी उनके स्वभाव ही बन गये हैं। इन भावों को नष्ट करने के लिये, साधनीकी विभिन्नता थी, उनके मार्गको विभिकता न थी, सदा इनके प्रति जागरूक रहनेकी जरूरत है, सदा इनके उनकी मजिलोंकी विभिन्नता थी।
लाचना, प्रातक्रमण, प्रायश्चित्तकी ज़रूरत ६. सदा वह जब इस श्रोपरी विभिन्नताके घटाटोपके नीचे. इस इनसे हटकर प्रारमअभ्यासी प्रामध्यानी होनेकी जरूरत है। बाहरी विषमताके जटिल प्रपञ्चके नीचे झांक कर देखता,
७. जब आमा बाहिरसे हट कर अपने प्रा जाता है, तो उसे साक्षात् होता कि-'सबमें एक ही समान जीवन तो वह अपनेको देखता हुश्रा सब कुछ देखता है. उसे कुछ बह रहा है, सबने एक ही समान भावना, एक ही समान देखना बाकी नही रहता, वह कृतकृय होजाता है। जब वेदना, एक ही समान उद्वेगता काम कर रही है।" श्रापमा परभावोरे विमुक्त होजाता है तो वह तुप-विमुक्त "सब ही जीव अमृत के अभिलाषी हैं, सुखके मुतलाशी चावजके समान विशुद्ध हो जाता है, वह अपनी ही सत्तामें है, पूर्णताके इक्छुक हैं, ज्योतेके उ'सुक हैं, माधुर्यके प्यापे स्थिर होजाता है। उसका फिर जन्म-मरण नही होता। हैं, सुन्दाना के दीवाने हैं।" वह अमर होजाता है, अक्षय सुख का स्वामी होजाता है, सब ही जीव मौतसे भयभीत हैं, दुःखमे कायर हैं, परमब्रह्म और परमा मा होजाता है।
अपूर्णतासे व्याकुल है।" वह समदर्शी था
"सब ही जीव मानसे अमृतको श्रोर, दुःखसे मुम्बकी इस प्रकारकी विचारणाके कारण, उसकी रष्टि मान्यता पोर, बुरेसे अच्छकी भोर, घोडेसे घनेकी ओर प्राप्तसे से लबालब भरी थी। वह जब भी अपने पास पास यहां प्राप्तकी ओर, अपूर्ण से पूर्णकी ओर बढ़ने में लगे हैं।" अन्य जीवो देखता, तो वह उन सबमें अपने ही समान "यह सब कुछ होते हुए भी, यहां सब ही जीव अपनी जीवन का सार देखता, अपने ही समान उनमे चिन्मूर्त ब्रह्म भूलोंमे धमे हैं, अज्ञान में सने हैं, मोहसे ठगे हैं-सब ही का दर्शन करना।
अपने स्वरूपमे अपरिचित है, अपने अभीष्टये अपरिचत हैं, उमे, जीवों में दीखनेवाले सब ही भेद विकल्प बहुरू- अपने सिद्धिमार्गमे अपरिचित हैं। इसी कारण रूथ ही इष्ट पियेकी तरह बनाये हुये रूपोंके समान प्रोपरे और चार्जी ढढने भी अनिष्टको अपना रहे हैं, सिद्धि-पथ पर चलते भी महसुस होते । वे अग्निको ढकनेवाले भस्म के समान, मोती असिद्धिकी ओर जा रहे हैं, श्राशासे लखाते भी निराशाापे को मुंदनेवान सीपके समान मिथ्या और निस्मार मालूम टकरा रहे हैं, मुखको चाहते भी दुःस्वाको पा रहे हैं । सब होते. वे सब शरीरमे उदय होनेवाले, शरीरमें रहनेव ले ही जीव दयाके पात्र हैं क्षमाके पात्र हैं।" शरीरमें विलय होने वाले सूझ पदते । वे सब बहुरूपा, "यहा सब को अपने उत्थान के लिये दया, दान, प्रोलाहन प्रकृति के ही प्रपञ्च नज़र पाते।
की जरूरत है, अपनी अभिवृद्धि के लिये सुझाव, सम्बोधन उसके लिये, इन भेदों-विकल्पों में स्वयं कोई भी जीवन रहनुमाईकी जरूरत है; अपने विकासके लिये स्वतन्त्रता, न था वे सब औपाधिक चीज थीं-जीवनी पैदा की हुई, सुभीता सहयोगकी जरूरत है। इस लिये इस लोप में दया उसकी धारणाकी उपज, उसकी कामनाकी कला, उसकी दान ही सबसे उत्तम धर्म है, परोपकार ही स्वोपकार है, जरूरतवी ईजाद, उसकी परिस्थितिकी सृष्टि।
जनमेवा ही ईश-उपासना है।" उसके लिये, यह मारी विभिन्नता, जीवोंके वस्तुसारकी वह सम-व्यवहारी थाविभिन्नता न थी उसकी अवस्थाकी विभिन्नता थी उनकी इस विचारणाके कारण जैसे उसकी दृष्टि साम्यतासे
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
भरी थी, वैसे ही उसकी चर्या भी साम्यतासे भरी थी। को खडा हुश्रा देखता, भोजनकी लालसा लिये हुये किसी जैसे वह सब जीवोंको अपने समान देखता, वैसे ही वह कुत्ता बिल्लीको बैठा हुआ देखता, लोलुपी मविखयोंको वहां सबके साथ अपने जैसा व्यवहार भी करता। वह साक्षात भिनभिनाता हुश्रा देखता, तो यह सोच कर कि कहीं उस विश्वप्रेमकी मूर्ति था, उमड़ता हुश्रा दयाका मागर था। के कारण उन्हें श्राहार मिलनेमे बाधा न हो जाय, वह
वह जब भी बोलता. हित-मित वचन बोलता, मिसरी वहाँमे खिसक श्रागेको हो लेता। सी घोलता हुश्रा बोलता-स्पष्ट और गम्भीर--थोड़ा वह जो भी आहार लेता-छयालीस दोष टालकर ही और सारपूर्ण, स्यावाद और समन्वयरूप, शंकाशृलोंको लेता। मांस, मधु. मदिरा रहित-कन्दमूल, बीज, पुष्प, पत्रचुगता हश्रा, दुःख-सन्तापको हरता हुआ, धैर्य-उत्साहको रहित-सजीवोंके विधातसे खाली-न्यायसे उपार्जित बढ़ाता हुआ, ज्योति-स्फुर्ति फैलाता हुआ, अन्धोंको अांखे किया हुश्रा। निर्बलोंको बल देता हुआ।
इस तरह वह प्रमाद छोड यग्नाचारसे रहता, वह न ___ वह जब भी चलता, बदा सावधान होकर चलता, खुद मन, वचन, कायये दूसरोंका कोई अहित करता, न आँखोमे मार्गको शोधता हुश्रा चलता-दिनके ममय-- दुसरों द्वारा कोई अहित कराता, न द सरों द्वारा किये हुये स्थिर गतिसे-हरितकाय भूमिको छोडता हुआ, नन्हीं अहितकी कोई अनुमोदना करता। नन्हीं सी जानोंको बचाना हुआ, सब हीकी बाधाओंको वह ब्रह्म-विहारी थाखोता हुश्रा। यदि कही मार्गमे उसे चलता हुश्रा कीडीनाल वह जहाँ दूसरोंके प्रति समव्यवहारी था, वह अपने दीख पडता, दाना-दुनका चुगता हुअा पंछी झुण्ड प्रति ब्रह्मविहारी था। यद्यपि बाहिरसे वह हाड मांसका नजर आता तो, इस भावसे कि कही उनको बाधा न हो, बना दीखता, पर वह कभी भी हाड मांसका बनके न रहा। उस मार्गको छोड़ परेके परे अन्य मार्गसे चल देता। वह वास्तवमें ब्रह्म था और ब्रह्म होकर ही शरीरमें रहा।
वह जब भी बैठता या लेटता तो जमीन शोध कर ही वह सदा शरीरको अपना साधन मानता-अपने को बैठता और लेटता, स्थिरकायसे ही बैठता और लेटता, उसका स्वामी जानता। वह प्रमाद छोड़ सदा सारथीकी सबके लिये श्राने जानेका मागं छोड कर ही बैठता और तरह उसमें श्रारूढ रहता । वह कभी भी अपने शरीरको, लेटता। वह बीच बीचमें डावांडोल न होता, बारबार करवट उसके मन, वचन, कायके योगोको, उसकी पञ्चेन्द्रियोंको, न बदलता, इस ख़यालसे कि कही अनजानमें कोई सरकने उनकी श्रादतके अनुसार रूढीक वृत्तियों और वासनाओंमें वाला, कोई फुदकने वाला जानदार ममला न जाय। विचरने न देता-वह बुद्धिपूर्वक उनसे जो काम लेना चाहता __वह जब भी कोई चीज़ उठाता या धरता, तो उसे उसीमे उन्हें प्रवृत्त होने देता। झाड पोंछ कर ही उठाता और धरता। वह जब भी अपना वह सदा शरीरको अपनेसे पृथक जानता, उसके भावो मलमूत्र क्षेपण करता तो निर्जीव, प्रासुक स्थान देखकर ही को अपनेसे पृथक निहारता-पृथक जैसा ही उनके साथ व्ययक्षेपण करता। उसे हरदम खयाल रहता. कि कही कोई हार करता । जब भूख-प्यास, गर्मी, सर्दी चीसचबक, निद्रासूक्ष्म जीव नीचे दबकर न मर जाय ।
तन्द्रा, थकन-आलस्य, शरीरमें व्यापते, नो वह उन्हें भूक___ वह जब भी यसतीमे आहार लेने जाता, तो मधुकर प्याम-रूप ही जानता पर वह उन्हें अपने से भिन्न शरीरका समान ही घूमता हुश्रा जाता, अतिथि समान अनायास ही व्यापार जानता । वह केवल उनका ज्ञाता दृष्टा रहता, वह जाता, बिना निमन्त्रण लिये हुये, बिना सूचना दिये हुये, उनसे ज़रा भी एकमेक न होता--वह उनमें ममत्वबुद्धि धार श्राहारके समय पर बने-बनाये भोजन से कुछ लेनेके लिये, ज़रा भी खेद खिन्न न होता। इस विचारसे कि कहीं उसके कारण गृहस्थियोंको स्वागत जब कौटा कंकर चुभकर पैरमें दर्द करता, कूदा कर्कट की चिन्ता न करनी पड़े, आहारकी तय्यारी न करनी पड़े। पड़कर प्रांखोंमे पीड़ा करता, तो वह उन्हें दूर करनेका कोई
वह जब दातारके घर भिक्षार्थी किसी फकीर याचक भी उपाय न करता । जब कीदा-मकोदा चढकर शरीरमें
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४
भगवान् महावीरकी झांकी
सरसराहट करता, मक्खी मच्छर काटकर देहमें दाह उत्पन्न करती, अपनेको विफल मनोरथ जान खिजकर उसे अनेक करता, तो वह तनको खुजलाकर उसे शान्त करनेका बोई पीडाय देती जब उसे नंगा धडंगा देख गावोंके अनजान भी जतन न करता।
श्रादमी चोर चोर कहकर पुकारते, जब उसे बावला जान जब ध्यानस्थ निश्चल खडे हुये शरीरपर पक्षी प्रा बसतीके बच्चे उससे छेड़ छाड़ करते, उसपर ईंट-पत्थर बैठने, सपं शरीरपर चढ़ जाते, हिरण प्राकर शरीरमे बरसाते । घच करके उसके पीछे कुत्ते लगाते तो वह उन्हें खुजलाते, वह अपनी ठोग और आघातोंसे शरीरमें चोट अज्ञानी जान रनपर जरा भी कुपित न होता-वह अपनी लगाते, तो वह ज़रा भी विचलित न होता, उस समय धुनमे रमा वैसा ही विचरता रहता । वह ऐसा मालूम होता, जैसा पाषाणका बना पुतला ही वह इसी प्रकार प्रकृतिकी शक्तियोसे जूझता हुश्रा, खड़ा हो।
अपने अन्तर देशका बराबर निरीक्षण और नियन्त्रण जब धूल मिट्टी उड़कर देहपर पड़ती, तो वह उन्हें करता रहता। वह इस युद्धके बीच अपनेमे जब कभी ज़रा भी न झाडता । वह रेचन, दमन, स्नान-मर्दन, दन्त- अहंकार-लोभ ममकारकी छायाको देख पाता, राग द्वेषकी धावन द्वारा शरीरका कोई भी संस्कार न करता । वह उस लीलाको देख पाता, क्रोध, मान माया, लोभको तरङ्गोंको धूल भरी देहमे रहता हुआ ऐसा सोहता, जैसे पङ्कमे घसा देख पाता, तो वह उन्हें अपने साम्राज्यका शत्रु जान फौरन हुश्रा कमल ही हो-देह रजमे और प्रारमा अाकाश में। उनका मामना करता, शत्रु समान उनकी बड़ी बालोचना __जब गर्मीकी लू चलती, सर्दीकी तुषार पड़ती, वर्षाकी करता, उन्हें ललकारकर कहताझडी लगती तो वह मोहीकी तरह देहको इधर उधर 'क्या तुम अब भी यहां मौजूद हो? तुमने अनन्तछुपाता न फिरता, वह देहको देह-तत्त्वोके साथ ही अड़ा कालसे हरे हरे बाग दिखा मुझे खूब पागल बनाया है, देता। सर्दीकी ऋतुमे वह बादलोसे घिरा, सुपारसे ढका, नई नई श्राशाय सुझा प्रामद्रोही बनाया है, मेरी सब झंझा वायुसे सटा ऐसा मालूम होता, जैसे हिमाचल ही कुछ सम्पत्ति छीन मुझे रंक और कंगाल बनाया है। खड़ा हो।
तुम्हारी भय कुछ भी न चलेगी, मैं तुम्हें अब खूब पहिजब हफ्तों, परववाड़ों, महीने, दो महीने, छह महीने चानता है, तुम मेरे नही मैं तुम्हारा नहीं, तुम सब प्रकृति तक उपवास करनेके कारण शरीर सृखकर बिल्कुल पतला की सन्तान हो- मेरे शत्र, मेरे विघातक, मेरे राज्यमे पड जाता, खालमें नमोंका जाल चमकने लगता, भीतरमें विद्रोह फैलाने वाले, उत्पात मचाने वाले, मेरे साम्राज्यको हाडमे हाइ बजने लगता, तो वह उठने बैटने, चलने फिरने भंग करने वाले-अब नुम मुझये बच कर कहो जायोगे?" मे सहारेके वास्ते कभी लाठीका प्रयोग न करता।
यों कहते कहने वह गाढ प्रायश्चित्त अमिमे उन्हें वहीं जब इन लम्बे लम्बे उपवासोंके बाद वह थाहार लेने विदग्ध कर देता। नगरीमे जाता, और वहां उसे विधिपूर्वक निर्दोप श्राहार वह केवलजानी थान मिलता, तो वह उससे ज़रा भी अधीर न होता, वह इस प्रकार बारह लम्बे मालों तक दुर्धर तपस्या करते नगरीमे लौट फिर उसी तरह अपनी साधनामे लग जाता। हुये-दृष्टिमे साम्यता, बुद्विम समन्वय, श्राचारमं अहिंसा,
जब निद्राके प्राबल्यके कारण पलकें झपकने लगतीं भावमें महनशीलता करते हुये उसने प्रकृति और उसकी आँग्वे मंदने लगतीं, अंग टूटने लगते, तम सा छाने लगता, मायावी शक्तियोको, इन शक्तियोंके रचे हुये व्यूह और तो वह तमावरणको उघाड फौरन सचेत होजाता, उस षड्यन्त्रोंको श्राग्विर विजय कर ही लिया। समय वह ऐसा जान पड़ता, जैसे प्राचीके बादलोंमे उभरा एक दिन वैशाख मुदी दशमीको, उत्तरा फाल्गुनी हुश्रा बालारुण ही हो।
नक्षत्रमे, संध्याके समय, जब वह ऋजुकला नदीके तट पर जब उसके मुडोल सुन्दर रूपको देख, जंगलके एकान्त कायोग्सर्ग ध्यान लगाये खडा था-उसे सहसा अनुभव का श्राश्रय पा. विषयासक्त नारियों उससे भोगकी वाञ्छा हो पाया कि
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
अनेकान्त
[वर्ष ५
-
"वह तपे हुये सोनेके समान बिरुकुल विशुद्ध है, उस हुआ चला। उसके पास था श्रानन्दरस, वह उसीको हर में अहंकार-ममकार, राग-द्वेष, मोह-मायाका लेशमात्र भी तरफ सरसाता हुश्रा चला, उमगाता हुआ चला। उसके अवशेष नहीं है, वह निरावरण सूर्यकी तरह जाज्वल्यमान पास था ज्ञान रस--वह उसीको हर तरफ छिटकाता हुआ प्रारमस्वरूपको निरख रहा है, वह सब ही सिद्धियोंसे चला, बरसाता हुश्रा चला। वह सब ही को अपने समान भरपूर है, वह सर्वस्व और परिपूर्ण है।"
निष्काम और प्राप्तकाम, वशी और स्वतन्त्र, परब्रह्म और "उसमें हित अहित, इष्ट अनिष्ट सम्बन्धी जो बहुत पुरुषोत्तम बनाता हुश्रा चला। सी कामनायें उठा करती थी, उनमेये आज कोई भी नहीं वह जहाँ भी जाता, विश्वका विश्व उसके साथ जाता। है, वह कृतकृत्य है। उसमें सत्य असत्य, द्वैत अद्वैत सम्बन्धी जो भी उसके सम्पर्क में आता वह निर्भय, निर्मम, निर्दोष जो बहुत सी कल्पनाय बना करती थी, उनमे से श्राज होजाता, सर्प और नेवल. कुत्ता और बिल्ली, सिंह और कोई भी नही है, वह सम है। उसमे साध्य-साधक, व्याघ्र जैसे कर जन्तु अपने वैर-विरोधों भूल शान्त शेय-ज्ञायक सम्बन्धी जो बहुत सी तर्कना जगा करती थीं, होजाते और एक दूसरेसे प्यार करने लगते। उनमेंसे श्राज कोई भी नहीं है, वह शम है।"
एक दिन कार्तिक कृष्ण अमावस्याके प्रातःकाल जब "वह ब्रह्म है न अब्रह्म, मूर्त है न अमूर्त, देव हैन वह पावामें ठहरा हुआ था-बहत्तर वर्षाका बोझ उसके शरीर मनुष्य, श्रमण है न गृहस्थ, साधक है न साध्य, ज्ञायक पर पड़ा था, उसकी शरीरकी सन्धियाँ कुछ ढीली पड़ी, है न ज्ञेय, मैं है न वह-दह ज्ञान ही ज्ञान है, केवल- उसे तनमे बान्धने वाली गांठे कुछ परे सरकी, फिर क्या
था, मुद्दतका मुँदा हुश्रा स्रोत, बन्ध टूटे प्रवाहकी तरह ____ो कुछ भी ज्ञातव्य, द्रष्टव्य, श्रोतव्य, मन्तव्य है, वह सब ओर से बह निकला, वह शरीरमे ठहरा हुश्रा पाताल सब ही कुछ है, जो कुछ भी भूत, भव्य, वर्तमान है, वह और अन्तरिक्ष, जमीन और पासमान, नीचे और ऊपर, सब ही कुछ है, वह सब ही ब्रह्माण्डको अामा समाये हुये है, दायें और याय, सय ही लोवाको व्याप्त कर गया, वह विराट सबही लोक और अलोक, स्वर्ग और नरक, तारे और नक्षत्र, पुरुषाकार होगया। पुनः क्रमश: प्रतर, कपाट, दण्डवत् चौद और सूरज, द्वीप और सागर दरया और पर्वत, राष्ट होता हुआ वह शरीराकार हुआ फिर दीपशिखाके समान और जनपद. ग्राम और नगर उसमे ठहरे हुये हैं। सब ही सीधा उठता हुअा चला गया-सीधा वहीं, नहीं सिद्धिको दशेन चौर विज्ञान, वेद और पुराण, श्रागम और मूत्र प्राप्त हवामें हवा, जोतमें जोत होकर सिद्धदेव रहते हैंउसमें बैठे हुये हैं। सब ही गति और योनि, वर्ण और श्रोखोसे दूर बुद्धिसे दूर, कालसे दूर। जाति, पन्थ और सम्प्रदाय उसमें भरे हुये हैं। सब ही वह विश्वविभूति हैदेव और दैत्य, नर और तिर्यज्ञ पशु और पक्षी, द्रुम और वह यद्यपि पाजसे २६ वी शताब्दी पूर्व में पैदा हुआ, लता उसमे बसे हुये हैं, वह श्राकार पराब है-जीवन- पर वह २६ वीं शताब्दी पूर्वका ही न था, वह भारतमे पैदा
हुश्रा, पर वह मावन कुलका ही न था-वह विश्वविभूति केवलज्ञानकी प्राप्तिके बाद वह तीस वर्ष तक उत्तरीय था, और विश्वविभूति बनके ही रहा-सब ही कालोके लिये, भारत के सब ही देशोंमे घूमा-किसी इछावश नही, सय ही लोगोंके लिये, सय ही जीवो के लिये। किसी जिज्ञासावश नही, स्वभाववश-श्रामप्रदान अथ। उसने अपने गाढ़ चिन्तवन, गाढ तपश्चरण द्वारा जिस जिसके पास जो कुछ होता है वह उसका दान करता ही समस्याको हल किया है, वह वैज्ञानिकों, समाजसुधारकों, है-फूल सुगन्धका, कोयल मीठे स्वरका, हिरण मुश्कका, राष्ट्रीय नेताओंकी समस्यायोंके समान किसी एक युगकी रागी संगीतका, कवि काव्यका । उसके पास था अमृत रस समस्या न थी, एक देशकी समस्या न थी, एक जातिकी लबालब भरा हुआ, छलकता और बहता हुश्रा-वह समस्या न थी। यह थी त्रिकालकी समस्या, विश्वकी उसीको हर तरफ देता हुया चजा-जिवाता और उठाता समस्या, प्राणिमात्रकी समस्या । वह थी दुःख और सुखकी
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
भगवान् महावीरकी झाँकी
१९६
समस्या, लोक और परलोककी समस्या, जीवन और मरख पहीं छोड़े, अपने साथ लिया तो केवल वह जो उमका की समस्या।
अपना था-मात्माराम इस समस्यापरसं उसने दुख मेंसे सुखको, अपूर्णतामें अाज हम भले ही उसे बीर, महावीर, सन्मति, से पूर्णताको, बन्धनमे से मुक्तिको मृत्युमेसे अमृतको पाने वर्धमान नामों से पुकार, निर्मन्य, कायोत्सर्ग, ध्यानारूत का जो मार्ग ढढाधा-जिसे अपने प्रयोगमें लाकर उसने खुद प्रादि रूपोंसे भाराधे, तप, ज्ञान, धर्मप्रवर्तन भादि कामो संसार सागरको उल्लंघा था-वह किसी विशेष देश, विशेष से याद करें, परन्तु भाज वह इन सब ही चीज़ोंसे परे है, जाति, विशेष सम्प्रदाय की सम्पत्ति नहीं है, वह भाज सब प्राज यह सब ही तरह मुक्त है-स्वतन्त्र है और स्वराज्यही की सम्पत्ति है, सब ही उसके अधिकारी हैं, सब ही स्थित है, माज वह अपनी अपनी ही भावुकतामें मग्न है, उसपर चलकर इस पारसे उस पार जा सकते हैं, अपनी ही सुन्दरतामे लीन है. अपनी ही ज्योतिसे ब्याप्त है. उस समाम शुद्ध बुद्ध और निरंजन हो सकते हैं। अपनी ही सत्तामें ठहरा हुभा है। भाज कोई नाम, कोई वह आदर्श है
धाम, कोई काम, कोई प्राकार रूप ऐसा नहीं जो उसकी वह जब यहाँ भाया तो स्वागत करने वाले बहुत सेवा अपार सत्ता, न्यापकता और कृतकृत्यत को अपने करने वाले बहुत, और जब यहाँ से गया तो स्मरण करने समा सके। धाले बहुत, स्तवन करने वाले बहुत, पर उसने इनमे किसी आज वह ऊंचाई और नीचाई की, धूप और छायाकी, पर भी लषय न दिया-वह भाते जाते एक ही समान रहा। परवा और पछषा की, उतार और बढ़ावकी दुनियासे बहुत बसन्तकी तरह जब भाया तो मुस्कराते हुये फूलोंको खिलाते दूर है-बहुत ऊपर है। आज वह भाल-विस्त्रकके समान हुये, दिलोंको हँसाते हुये, और जब गया तो फिर मुडके लोक-तिलक बना है, ध्रुव तारेकी तरह प्रदीप्त पादर्श बना भी न देखा कि क्या है-बिल्कुल निर्मोह, बिल्कुल निर्लेप, है, सब भोर सखाता हुमा, सब ओर सुमाता दुभाबिल्कुल एकाकी । यहाँ के बन्धन यहीं तोदे, यहाँ के पदार्थ "उठो, जागो, अपने को पहिचानो।"
परीक्षामुख सूत्र और उसका उद्गम
(लेखक न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया)
नसाहित्यकी अमर कृतियों में तत्वार्थसूत्र खूब गंभीर, तलस्पर्शी तथा अर्थगौरवको लिये हा है।
की तरह एक न्यायसूत्र भी है, जिसका थोड़में ही बहुतका बोध करा देना-झरोखेमें से - नाम है 'परीक्षामुग्व'-परीक्षाका द्वार, विशाल नगरको दिखला देना-उनकी प्रकृति है अर्थात वह कस.टी जिसके द्वारा खरे-खोटे, सच्चे- और वे बड़ी सुगमता के साथ कण्ठस्थ किये जा सकते झूटे और असली-नकलीकी ठीक जाँच की जाती है, हैं। सूत्र सब गद्यम है; परन्तु उनके आदि और अंत यथार्थताका पूरा पता लगाया जाता है भार इस बात मे एफ एक पद्य भी है। भादिम पधर्म ग्रन्थप्रतिज्ञा का सम्यक निर्णय किया जाता है कि प्रमाणता, न्याय को देते हुए प्रतिपाद्य विषय, उसकी उपयोगिता, अथवा सत्य किधर है। यह अपूर्व ग्रन्थ संस्कृत भाषा प्रमाणता, प्रतिपादनकी अल्पाक्षरमय-सूत्ररूपता और में निबद्ध है, छह परिच्छेदों में विभक्त है और इसकी जिनको लक्ष्य करके प्रतिपादन किया जारहा है उनकी सूत्रसंख्या सब मिलाकर २०७ है। सूत्र देखनेमे बड़े विशेषताका निर्देश बड़े ही सुन्दर ढंगस किया है, ही सरल, सरस तथा नपे-तुले हैं और विचारनेमें जिस देखते ही ग्रन्थ-गौरवका अनुभव होने लगता
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२०
अनेकान्त
[वर्ष ५
है। अन्तिम पद्यमें ग्रन्थका उपसंहार करते हुए इम को अपनी ओर आकर्षित किया है और परीक्षामुखसूत्रको हेयोपादेय तत्त्वोंका आदर्श बत- विद्वानोंने इसके समकक्ष दूसरे सूत्रग्रंथ बनानेकी चेष्टा लाया है-वह दर्पण मूचित किया है जिसमें हेय भी की है परन्तु वे उसमें उतने सफल नहीं हो सके
और उपादेयकी कोटिमें ममा जाने वाले सारे ही इस ग्रंथके शब्द-अर्थका बहुत कुछ अनुसरण एवं तत्त्व साफ साफ झलकते हैं, उनमें यह भ्रम नहीं हो उद्धरण कर लेनेपर भी वे अपने मत्रोंमें वह शब्दपाता कि कौन तत्त्व हेय हैं और कोन उपादेय । साथ मौष्टव और अर्थगौरव तथा अक्षरोंका नपा-तुलापन ही ग्रन्थकारने अपनी लघुताको ऐसी सुन्दरतासे व्यक्त नहीं ला सके हैं जो इस मत्रग्रंथमें पाया जाता है और किया है जिससे ग्रन्थ की गुरुता एवं महत्ता क्म न होने जो वास्तवमें एक मत्रग्रन्थको शोभा देता है। पावे। आपने लिया है कि-'हेयोपादेय तत्त्वों के इस मत्ररचनाके निपुण शिल्पकार आचार्य श्रादर्शरूप इस परीक्षामुग्वमूत्रको, मुझ जैसे बालकने- माणिक्यनन्दीके विषयमें, जिन्हें रत्ननन्दी भी कहते अकलंकादि महाज्ञानियोके समक्ष अपनेको अत्यल्प- हैं, यद्यपि हमे अधिक कुछ भी मालूम नही हैं-उन ज्ञानी अनुभव करने वालेने-हेयोपादेय तत्त्वोंका की एकमात्र यह कति ही उनकी कीर्तिको अमर बनाये सम्यकज्ञान कराने के लिये, परीक्षा-दक्षकी तरहसे रचा हुए है और उनके अन्य सब परिचयको गौण किये है। श्रादि-अन्तके ये दोनो सुन्दर पद्य निम्नप्रकार है- हुए है। फिर भी उनकी इम रचनाके मम्बन्धमे लघु "प्रमाणादर्थ-संसिद्धिस्तदाभासाद्विपययः । अनन्तवीर्य आचार के निम्न वाक्यपरमे इतना जरूर इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म सिद्धमल्यं लधीयसः ॥ १॥" मालूम है कि वह श्रीअलंकदेवके वचनममुद्रको "परीक्षामुखमादर्श हेयोपादेयतत्वयोः। मथ कर निकाला हुश्रा 'न्यायामृत' हैसंविदे मादृशो बालः परीक्षादक्षवद् व्यधाम् ॥२॥" अकलक-बचोऽग्भोधेहधे येन धीमता ।
यह अद्वितीय ग्रन्थ श्राचार्य माणिक्यनन्दीकी न्याय-विद्याऽमृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥२॥ पुण्य कृति है, जिनका समय विक्रमकी ८वी-हवी
-प्रमेयरत्नमाला शताब्दी माना जाता है । और इसलिये आज इस
इस वाक्यपरमे जहाँ यह स्पष्ट है कि आचार्य प्रन्थकी रचनाको हजार वर्षसे भी ऊपर होगये हैं माणिक्यनन्दी अकलंकदेवके बाद हुए हैं वहाँ यह भी और यह बराबर उसी तरह सुदृढ़, सुव्यवस्थित तथा स्पष्ट है कि उन्होंने इस ग्रन्थके निर्माणमें समुद्र मथने आकर्षक बनी हुई है। इस ग्रंथपर अनेक टीकाएँ उप- जैसा भारी काम किया है। समुद्रका मथना और उसे लब्ध हैं, जिनमे प्रधान स्थान प्राचार्य प्रभाचन्द्रके मथकर अमृत निकालना कोई आमान काम नहीं 'प्रमेय-कमल-मातेण्ड' को प्राप्त है, जिसकी संख्या होता-वह भारी परिश्रम और असाधारण वद्धिमत्ता १२ हजार श्लोक जितनी है। इस टीकाको पिछले से सम्बन्ध रखता है। समुद्रको मथकर अमृत निकाटीकाकार 'लघु' अनन्तवीर्य आचायने 'उदारचन्द्रिका' लनेमें इंद्रादिक महाशक्तिशाली देवताओंकी प्रसिद्धि की उपमा दी है और अपनी टीका 'प्रमेय-रत्नमाला' है, उन्हीं जैसा दर्द्ध, दामाध्य और अभनपर्व कार्य को उसके सामने जुगनुके प्रकाशके समान बतलाया माणिक्यनन्दीने अकलंकदेवके वचनसमुद्रको मथकर है*। इससे प्रमेयकमलमार्तण्डका महत्व और प्रमेय- इसमत्र ग्रन्थके निकालनेमें किया है और उनका कमल-मार्तण्ड परसे इस सूत्र ग्रंथका महत्व सहज ही निकाला हा यह न्यायसत्र न्यायका अमृत हैमें अवगत हो सकता है। इस ग्रंथके महत्वने बहुतों अविनाशी सार है। *प्रभेन्दु-वचनोदारचन्द्रिका-प्रसरे सति।
यहाँ अकलंकके वचनोंको समुद्रकी जो उपमा दी माहशाः कनु गण्यन्ते ज्योतिरिङ्गणसन्निभाः॥ ---- प्रमेयकमलमार्तण्डमें श्राचार्य प्रभाचन्द्रने इस सूत्रग्रंथको गम्भीरं निखिलार्थगोचरमलं शिष्यप्रबोधप्रदं 'गंभीर, निखिलार्थगोचर,प्रबोधप्रद और अद्वितीय बतलाया है- यद्व्यक्तं पदमद्वितीयमखिलं माणिक्यनन्दिप्रभोः ।
समुद्रको
अविनश्रा यालने में
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
परीक्षामुख सूत्र और उसका उद्गम
१२१
गई है उसमें कुछ भी अत्युक्ति मालूम नहीं होती। को अकलंकके अर्थका हस्तामलकवत बोध करानेके निःसन्देह अकलंका वाड मय समुद्रकी तरह विस्तृत, लिये कितना अधिक दक्ष है-पर्याप्त है, यह बात गंभीर और दुर्गम ही नहीं किन्तु नाना अर्थोसे समृद्ध प्रभाचन्द्र आचार्य के निम्न प्रस्तावना वाक्यसे भी भले भी है-उसमें न्याय-पदार्थ प्रचुर मात्रामें भरा हुआ प्रकार जानी जाती हैहै। अकलंकदेव न्यायशास्त्रके प्रतिष्ठापक-रूपमे एक "श्रीमदकलकार्थोऽव्युत्पक प्रज्ञैरवगन्तुं न शक्यत बहुत बड़े महर्द्धिक आचार्य होगये हैं-'प्रमाणम- इति नव्युत्पादनाय करतलामलकवत् तदर्थमुद्धृत्य कलंकस्य' और 'अकलंकन्यायात्' जैसे वाक्योद्वारा प्रतिपादाय तुकामस्तत्परिशानाऽनुग्रहेच्छा-प्रोरतस्तउनकी इस विषयमे खास प्रसिद्धि है। उनसे पहले दर्थप्रतिपादनप्रवर्ण प्रकरणांमदमाचार्य: प्राह।" कुछ आत्माभिमानदग्ध मूढ़मति विद्वानों के द्वारा
-प्रमेयकमलमार्तण्ड न्यायशास्त्र मलिन कर दिया गया था, जिसपर उन्हे इमसे श्राचार्य माणिक्यनन्दी र उनके इस बड़ा खेद हुआ और उन्होने भ्रमके चक्करम पड़कर परीक्षामुखसूत्रका महत्व भल प्रकार स्पष्ट हो जाता ह आलित एवं नष्ट होते हुए प्राणियोंपर दयाभाव पार इस विषयम काइ सन्दह नहीं रहता कि इस लाकर उम मलिनताको दृर करनेके लिये भारी प्रयास सूत्रग्रंथका अकलकके वाङ्मयपरसे उद्धार हुआ है किया है-न्यायविनिश्चय, मिद्धिविनिश्चय, प्रमागासंग्रह, श्रार यह अकलकक न्याय-विषयक कुछ प्रकरणोका आदि असाधारण महत्वक ग्रन्थोका प्रणयन किया है
क ग्रन्थोका प्रणयन किया है उत्तम सार है। श्रन्तु । और अष्टशनी तथा राजवार्तिक जमे उच्चकोटिके बहुत दिनोंम मेरी इच्छा यह मालूम करनेकी थी भाव्यप्रन्थ भी लिख है । अपने इस प्रयासका उन्होने कि अकलंकदवक किन किन वाक्योपरस इस मुत्रकुछ ग्रंथामे उल्लव भी किया है, जिसका एक नमूना ग्रन्थका उद्धार हुआ है। परन्तु अफलंकके सब ग्रन्थ न्यायविनिश्चय ग्रन्थका निम्न पद्य है
सामने न होने वह इच्छा पूरी नहीं हो रही थी। बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपार्जितः, कितने ही महत्वपूर्ण ग्रन्थोका तो पहले कुछ पता भी माहात्म्यात्तमसः स्वयं कलिबलात् प्रायो गुणद्वषिभिः। नही था-केवल अष्टशती, राजवार्तिक और लघीयन्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते, वय जैसे ग्रन्थ ही सामने श्रारहे थे । बृहतत्रयका नाम सम्यग्ज्ञानजलर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरः ॥२॥ ही सुना जाता था, जिसके तीन महान ग्रन्थोमें मे
अकलंकका वाड मय कितना गहन गंभीर, गूढार्थक अभी न्यायविनिश्चय और प्रमाणप्रहकी ही खोज तथा अव्युत्पन्न विद्वानोक लिये दुर्गम-दुधि है; और होकर उनका उद्धार हो पाया है शेष सिद्धिविनिश्चय उसके कतिपय न्याय विषयोका जो सार इस मूत्र की टीका तो मिल गई है परन्तु उसपरसे मूलग्रन्थका ग्रंथमें अनुग्रह बुद्धिम ग्वीचा गया है वह उन विद्वानों पूरा उद्धार नहीं होता । यह मुलग्रन्थ और भी अधिक प्रमाणमकलंकस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
और श्राचार्य अन्तवार्य अकलंक-प्रन्योंके कितने समर्थ धनंजयकवेः काव्यं रत्नत्रयमकण्टकम् ।। (धनंजयनाममाला) टीकाकार थे यह यात न्यायविनिश्वयके टीकाकार वादिगजसूरि इस विषयका अच्छा अनुभव अकलंकके सिद्धि विनिश्चय' के निम्नवाक्यसे भले प्रकार जानी जाती है जिसमें वे उक्त जैसे ग्रंथोंके समर्थ टीकाकार श्राचार्य अनन्तवीर्य (महान्) अनन्तवीर्यकी टीकावाणीके विषयमे लिखते हैं कि वह के निम्नवाक्यसे हो जाता है, जिममें वे अपनेको अनन्तवीर्य
अकलंक-वाहमयकी अगाधभूमिम संनिहित गूढ अर्थको होते हुए भी, अकलंकदेवके पदोंको पूर्णतया व्यक्त करनेमे
पद पदपर व्यक्त करने वाली समर्थ दीपशिखा हैअसमर्थ बतलाते है
गूढमर्थमकलंक-वाहमयागाधभूमिनिहितं तदथिनाम् । देवस्याऽनन्तवार्योऽपि पदं व्यक्त तु सर्वतः।
व्यंजयत्यमलमनंन्तवीर्यवाक दीपवतिरनिशं पदे पदे ।। न जानीतेऽकलंकस्य चित्रमेतत्सरं मुवि ।।
-न्यायविनिश्चय टीका
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
अनेकान्त
[वर्ष ५
महत्वका सुना जाता है। हालमें मेरी योजना वीरसेवा- तनिश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत् ॥३॥ मन्दिरमे होजानेसे जब मैंने अपनी उक्त इच्छाको १ सति मुख्य निर्णयात्मके ज्ञाने सकलव्यवहारनियामके मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी-सम्पादक 'अनेकान्त' पर
-लघा०/३० का०६ व्यक्त किया तब उन्होंने उसे बहुत पसन्द किया और २ समारोपव्यवच्छेदाविशेषात् । (ऋष्ट श० का०६) प्रेरणा की कि ऐसा तुलनात्मक लेख जरूर लिखाजाना अनिश्चितोऽपवार्थः॥४॥ चाहिये और यदि वह इसी किरणमे जासके तो बहत १ अनिश्चितनिश्चयात् । (श्रष्ट श० का० १०१) अच्छा हो । तदनुसार ही अकलंकका जो कुछ साहित्य २ अनिर्णीतनिर्णायकत्वात् ।
(अष्ट श०का० १०१) मुझे अभी तक उपलब्ध हया है उस परस परीक्षामख दृष्टाऽपि समारोपत्तिाहक ॥५॥ के सूत्रोंकी तुलना करके मै उन सूत्रोंक उद्गम स्थान १ प्रत्यक्षेऽर्थेऽन्यथारोपन्यवच्छेदप्रसिद्धये। को जितना मालूम कर पाया हैं उसको अनेकान्तके
-न्य य ।व० वा० ४७१ पाठकोंकी जानकारीके लिये नीचे प्रकट करता हैं। २ कथमन्यथा दृष्टे प्रमाणान्तरवृत्ति: कृतस्य करणायोगात् । शेषकी तुनलाका प्रयत्न उस समय फिया जायगा जब
-तघी०व० का० २२ सिद्धिविनिश्चय जैसे ग्रंथ भी अपने पूर्णरूपमें सामने
३ गृहीतस्यापि ताशस्यागृहीतकल्पत्वात । (अष्टश. १४) ३
स्वोन्मुखल्या प्रतिभास स्वस्य व्यवसायः ॥ ६॥ आजायेंगे । तुलनामें परीक्षामुखके सूत्रोंको ऊपर
१ स्वतोऽव्यवसायस्य विकल्पोत्पादनं प्रत्यनङ्गत्वात् । रक्खा गया है और अकलंकके जिन वाक्योंका आधार लेकर वे बने जान पड़ते हैं उन्हें नीचे दूसरे टाइपमें
-लघी० [व० का ६०
२ स्वसंवेद्यं विक्रूपानां विशदार्थावभासनम् । (लघी० २३) दे दिया गया है।
३ यदि च विज्ञानं स्वात्मान न विजानीयादुनरकालमनधिप्रथम परिच्छेद
गतस्वारमविज्ञानः कथं प्रयात् ? ज्ञोऽहमिति । स्वापूवार्थव्यवसायात्मक ज्ञानं प्रमाणम् ॥१॥
-गावा० पृ० ३६
। अध्यक्षमाएमविज्ञानमपरत्रानुमानिकम् । , प्रमाणमविसंवादिज्ञानं अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।।
अन्यथा विषयालोकव्यवहारविलोपतः ॥ (न्या०वि०१३)
-अष्टशती काारका ३६ को वा तत्प्रतिभासिनमर्थमध्यक्षमिच्छंस्तदेव तथा . प्रकृतस्याप न वै प्रमाणत्वं प्रतिषेध्यमानणीत
नेच्छेत् ॥१६॥ निर्णायकस्वात् (श्रष्ट श० का १०१)
प्रसिद्धसिद्धरप्यर्थः सिद्धश्चेदखिलं जगत् । ३ म्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थप्राहकं मतम् ।
सिद्धे तकिमतोज्ञेयं सैव (धी:) किन्नानुपाधिका ॥ ग्रहणं निर्णयस्तेन मुख्यं प्रामाण्यमश्नुते ।।
न्या० वि० का० १८ -लधोयस्त्रय कारि० ६० प्रदीपवत् ॥ १२॥ " ज्ञानं प्रमाणमात्मादेः (लधी का०५२) अनवस्थेति चेन इष्टत्वाखदीपवत् ।" दृष्टो हि प्रदीपो ५ लिगलिङ्गिसम्बन्धज्ञानं प्रमाणमनिश्रित निश्श्रयात् ।
घटादीनां प्रकाशकः स्वस्य च। (गजवातिक पृ०३५)
(अष्टश० का० १०१) तत्प्रामाण्यं स्वन: परतश्च ॥१३॥ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हिप्रमाणं ततो ज्ञानामेव , प्रमाणमर्थसंवादात् । (प्र० मं० का० १०) तत् ॥२॥
२ प्रामाण्यं न्यवहाराद्धि । (लघी० का० ४१) १ हिताहिताप्तिनिर्मुक्तिक्षमम् (न्यायिनिश्चय का० ४) ३ यद्यथैवाविसंवादि प्रमाणं तत्तथामतम् । (लघी का० २२) २ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ। (लधी. विवृ० का०६१) तिमिराद्युपप्लवज्ञानं चन्द्रादावविसंवादिकं प्रमाणं यथा, २ हिताहितप्राप्तिपरिहारसमयं द्वे एव प्रमाणे
तत्संख्यादौ विसंवादिकत्वादप्रमाणं, प्रमाणेतरव्यवस्थायाः -प्रमाणसग्रह विवृति का०२ तलक्षणत्वात् ।
(लघी० वि० का० २२)
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
परीक्षामुख सूत्र और उसका उद्गम
द्वितीय परिच्छेद
अन्वयव्यतिरेकाम्यामर्थ श्रेकारणं विदः ।
__ संशयादिविदुपादः कौतुस्कुत इतीक्ष्यताम् ? " नवधा॥१॥ प्रत्यक्षतरभेदात् ॥२॥
-लघी. का०५४ १ तात्यक्ष परोक्षं च द्विधैव । (लघी० का०६१) २ तामसवगकुलानां तमसि सति रूपदर्शनं मुमूर्षाणो २ तरसमञ्जसं प्रत्यक्ष परोक्षं चेति द्वे एवं प्रमाणे ।
यथासम्भवमर्थ सत्यपि विपरीतप्रतिपत्तिसद्भावात्
-लघी वि. का. २१ नादिय: कारणं ज्ञानस्येतिस्थितम् । (लघा०वि०का०४७) ३ वे एव प्रमाणे इति शास्त्रार्थस्य संग्रहः ।
श्रतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत् ॥८॥
-प्रमा० स० वि० का० २ १ न तज्जन्म न ताप्यं न तख यवसिति. सह । विश६ प्रत्यक्षम् ॥३॥
प्रत्येकं वा भजन्तीह प्रामाण्यं प्रति हेतुताम् । १ प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं ... " (लघी० का ३)
-लघा० का० ५८ २ प्रत्यक्षं विशदज्ञानं .. " (पमा० मं० का० २) २ प्रदीपस्येव घटादिः। (लघी० वि० का०५२) ३ ज्ञानस्यैव विशदनिर्भासिनः प्रत्यक्षत्वम् ।
स्वावरगक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियत-घी० वि० का० ३
मर्थव्यवस्थापयति (प्रत्यक्षमिति शेर.) ॥६॥ ४ प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्ट साकारम असा ।
१ प्रत्यर्थमावरण विच्छेदापेक्षया ज्ञानस्य परिच्छेदकत्वात् । प्रतीत्यन्नराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं
लघी वि० वा०५६ वैशद्यम् ॥ ४॥
२ यथास्वं कर्मक्षयोपशमापेक्षणी करणमनसी निमित्त
विज्ञानस्य न बहिरादयः। (लघी० वि० फा०५७) अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशद्यं मतं बुद्धेः । । (लघी. का०४)
३ मलविद्धमणिन्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः ।
कर्मविद्वाामविज्ञप्तिस्तथानेकप्रकारतः ॥ (लघी का०५७) इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशत:मांव्यवहारिकम् ॥५॥ १ तत्र सांव्यवहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् ।
कारणस्य च परिच्छेद्यत्वेकरणादिना व्यभिचारः॥१०॥
, उत्पन्नस्यापि न कारणे व्यापारः करणादिवत् । -लघी. वि. का. ४
-लघी वि. का.५३ २ यद्देशतोऽर्थज्ञानं तदिन्द्रियाध्यक्षमुच्यते।
२ अयमर्थ इति ज्ञानं विद्यान्नोत्पत्तिमर्थतः। -ज्या. वि. का.४ २
अन्यथा न विवादः स्यात् कुलालादिघटादिवत् ॥ ३ तस्य इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वात्। (लघी वि. का०५२
-लघी का०५३ नार्थालोको कारणं परिच्छद्यत्वात्तमोवत ॥ ६॥ ३ यदि कारणकार्यभावमारमार्थयोविज्ञानं परिच्छिद्यात् न १ नाह तस्परिच्छेद्योऽर्थः तत्कारणतामात्मसारकुर्यात् ।
कश्चिद्विप्रतिपत्तमर्हति कर्तृकरणकर्मसु । -जघा०वि०का. ५२
-लघी०वि० का०५३ २ नार्थ. कारणं विज्ञानस्य । (लघी. वि. का. ५८) सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेपतो ३ अर्थस्य तदकारणत्वात । (लघी व• का० ५२) मुख्यम् ॥ ११॥ ४ श्रालोकोऽपि न कारणं परिच्छेद्यस्वादर्यवत् ।
१ लक्षणं सममेतावान् विशेषोऽशेषगोचरम् ।
-लघी०वि० का० ५५ अक्रमं करणातीतमकलई महीयसाम् ॥ ५ नहि तमः चतुर्ज्ञानप्रतिषेधकम्, तमोविज्ञानाभाव
-~-न्या. वि. का. १६८३, प्रमा० सं० का०६ प्रसङ्गात् ।
(लघी०वि० का०५६) २ परं ज्योतिरनाभासं सर्वतो भासमक्रमम् । ६ तमोवत् । (लघी वि. का. ५६)
--प्रमा० सं० का०८ तदन्वयव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोगडुकशान- ३ सकलज्ञानावरणपरिक्षये तु निराभासं, सामान्यविशेषावन्नक्तंचरज्ञानवच्च ॥७॥
स्मनोऽयुगपयतिभासायोगात्। -प्रमा०सं०वि०का०८
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२४
अनेकान्त
[५ वर्ष
तृतीय-परिच्छेद
मुख्यमतीन्द्रियज्ञानम्। (लघी० वि० का० ४) गोविलक्षणो महिपः ॥ ८॥ इदमस्माद्दरम् ॥ ६ ॥ ५ ज्ञस्यावरण विच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते ।
वृक्षोयमित्यादि ॥१०॥ अप्राप्यकारिणस्तस्मात्सर्वावलोकनम् ॥
१ गौरिव गवयः इति श्रत्वा गवयदर्शिनः तन्नामप्रतिपसि-त्या वि० का० ४६५
वत् गवयोऽयमिति (ज्ञानं ) यथा गवयदर्शिनः, (प्रमासावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवात् ॥१२॥
णान्तरम् ) प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसिद्धेरभावात् (तथा) , कथश्चिस्वप्रदेशेषु स्याकर्मपटलाग्छता ।
वृक्षोऽयमिति ज्ञानं वृक्षदर्शिन: प्रमाणान्तरम् । प्रत्यक्षेपु संसारिणा तु जीवानां यत्र ते चतुरादयः॥
इतरेपु तिर्यक्षु तस्यैव पुनरगवयनिश्चयः किंनाम प्रमाणं ? साक्षाकर्त विरोधः कः सर्वथावरणाग्यये ।
हानोपादानोपेक्षाप्रतिपत्तिफलं नाप्रमाणं भवितुमर्हति । सत्यमर्थ तथा सर्व यथाऽभूदा भविष्यति ॥
-धी. वि. का. १६ -न्या० वि० का० ३६१, ३६२ २ इदमल्पं महदरमामन्नं प्रांशु नैति बा।
व्यपेक्षात: समक्षेऽथे विकल्पः साधनान्तरम् ॥ परोक्षमितरत् ॥१॥
-लघा० का० २१ इतरस्य परोक्षता।
(लघी० वि० का० ३) उपल
उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः ॥११॥ प्रत्यनादिनिमित्तं स्मृतिप्रत्यभिज्ञानतानमा १ सम्भवप्रत्ययस्तर्कः प्रत्यक्षानुपलम्मतः ।
-प्रमा० सं० का० १२ भेदम् ॥२॥
२ समक्ष विकल्पानुस्मरणपरामर्शसम्बन्धाभिनिबोधस्तर्कः १ परोक्षं शेषविज्ञानम् ।
(लवी० का० ३) प्रमाणम् ।
(प्रमा० मं० वि० का० १२) २ ज्ञानमायं मति: संज्ञा चिन्ता चामिनिबोधिकम् ।
३ अविकल्पधिया लिङ्ग, न किचरतीयते।। प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात ॥
-लघी का० १०
नानुमानादसिद्धावात प्रमाणान्तरमाञ्जसम् ॥ ३ अविसंवादस्मृतेः फलस्य हेतुवात् प्रमाणं धारणा।
--लपी० का ११ स्मृति: संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य। संज्ञा चिन्तायाः तर्कस्य ।
४ लिगप्रतिपत्तेः प्रमाणान्तरत्वात्। (लघी वि. का. ११) चिन्ता अभिनिबोधस्य अनुमानादेः। (लघी०वि० का०१०)
५ नहि साकल्येन लिङ्गस्य लिङ्गिना व्याप्त रसिद्धी क्वचित् संस्कारोबोधनिबन्धना तदिन्याकारा रमृतिः ॥३॥
किञ्चिदनुमानं नाम । (नघी वि. का. ११) , प्रमाणमर्थसंवादात् प्रत्यक्षान्वयिनी स्मृतिः।
६ प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यां यदि तत्त्वं प्रतीयते । -प्रमा: स० का०१. अन्यथानुपपन्नत्वमतः किन्न प्रतीयते ॥
-- न्या० वि० का० ३२७ २ स्मृति हेतुर्धारणा संस्कार इति यायत । (लघी०वि०या०६). दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदे
साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् ॥१४॥ वेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तप्रतियोगी.यादि ॥
साधनासाध्यविज्ञानमनुमानम् । (न्या. वि. का. १७०) , संज्ञायाः प्रत्यवमर्शस्य (संज्ञा प्रत्यवमर्शः)।
साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः ॥१५॥
-लघी वि. का.१०१ लिगात्साध्याधिनाभावाभिनियोधैकलक्षणात । २ उपमानं प्रसिद्धार्थसाधारसाध्यसाधनम् ।
-लघी० का० १२ तद्वैधम्यापमाणं किं स्यात् संजिप्रतिपादनम् । २ अन्यथानुपपत्तिमान् हेतुरेव । (न्या० वि० का० १७६)
-लघी० का० १६ ३ साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नम् । ३ प्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा सम्बन्धप्रतिपद्यतः।
___-न्या० वि० २६६, प्रमा० सं० का० २१ तत्प्रमाणं न चेत्सर्वमुपमानं कुतस्तथा ॥ (लघी० का०२०) सहक्रममावनियमोऽविनाभावः ॥१६॥ यथा स एवायं देवदत्तः॥६॥गोसदृशो गवयः॥७॥ साध्याविनाभावे सहक्रमसंयोगलक्षणे। (प्रमा० सं० १६)
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
परीक्षामुख सूत्र और उसका उद्गम
१२५
२ सहदष्टैश्च धमैस्तन विना सस्य संभवः ।
दृष्टान्त: ॥ ५० ॥
-न्या. वि. का० ३३० सम्बन्धो यत्र निर्मात: साध्यसाधनधर्मयोः । सहचारिणोव्याप्यध्यापकयो सहभावः ॥ १७॥ स दृष्टान्त: ...."॥ (न्या. वि. का. ३८०) युगपदायिनामजन्यजनकसहभावनियमः। स हेतु द्वेधोपलब्ध्यनुपलब्धिभेदात् ।। ५७ ।।
-प्रमा मं० वि० का० ३० उपलब्धिविधिप्रतिषेधयोरनुपलब्धिश्च ॥ ५८ ।। तत्तिनिर्णयः ।। १६॥
१ यथा कार्य स्वभावो वाप्यन्यथाऽऽशङ्कायसंभवः । १ सत्यप्यन्वयविज्ञाने स तर्कपरिनिष्ठितः ।
हेतुश्चानुपलम्भोऽयं तथैवेत्यनुगम्यताम् ॥ अविनाभावसम्बन्धः साकल्येनावधार्यते ॥
प्रत्यक्षानुपलम्भश्च विधानप्रतिषेधयोः । सहदृष्टैश्च धमैस्तन्न विना तस्य संभवः ।
अन्तरेणव सम्बन्धमहेतुरिव लक्ष्यते ॥ इति तर्कमपेक्षेत नियमेनैव लैह्निकम् ॥
-न्या. वि. का. ३३५, ३३६ -न्या० वि० का० ३२६, ३३० २ नानुपलब्धिरेव प्रभावसाधनी। (प्रमा०सं०वि०का०३०) २ साकल्येन व्याप्तिः परीक्षातः ।
अविरुद्धोपलब्धिर्विधौ षोढा व्याप्यकार्यकारण-प्रमा० मं० वि० का० ३३ पूर्वोत्तरसहचरभेदात् ॥ ५६ ॥ ३ च्याप्ति साध्येन हेतोः स्फुटयति न विना चिन्तयेकत्र सधवत्तिनिमित्तानि स्वसम्बन्धोपलब्धयः । दृष्टिः साकल्यनैष तर्कोऽनधिगतविषयः ।।
-प्रा० सं० का० २६ -लघी० का० ४६ रसादेकमामग्रथनमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिटमेव ४ परोक्षान्त विना नस्तर्केण सम्बन्धी व्यवतिष्ठत। किञ्चि कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्धकारणान्तरा
-अष्टश० का० ६ वैकल्ये॥६०॥ इष्टमवाधितमसिद्ध साध्यम् ॥ २० ॥
न पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवसाध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धम् ।
धाने तदनुपलब्धः ॥ ६॥ -न्या० वि० का० १७२, प्रमा० सं० का० २० सहचारिणोरपि परस्परपरिहारेणावस्थानात्सहोसंदिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां साध्यत्वं यथा स्यादित्य- त्पादाच्च ॥४॥ सिद्धपदम् ॥२१॥
१ नहि वृक्षादिः छायादेः स्वभावः कार्य वा। न चात्र अव्यपत्तिसंशयविपर्यासविशिष्टोऽर्थः साध्यः । विसंवादोस्ति।
(लघी० वि० का० १२) -प्रमा० म०वि० का०२० २ अन्यथाऽसम्भवो ज्ञातो यत्र तत्र प्रयेण किम् । को वा त्रिधा हेतु मुफ्त्वा समर्थयमानो न पक्षयति ॥३६॥
-प्रमा०सं० का०२६ विलक्षणमभिधाय यदि समर्थयते कथमिव सन्धामतिशेते। ३ भविष्यप्रनिपोत शकट कत्तिकोदयात।
-अष्ट श० का०७ श्व: श्रादित्य उदेतेति ग्रहणं वा भवियिति ॥ एतदद्वयमेवानुमानाङ्गंनोदाहरणम् ।। ३७ ॥
-लघी का० १४ बालव्युत्पत्त्यर्थ तत्त्रयोपगमे शास्त्रपवासो न वादे- ४ नुलोन्नामरसादीनां तुल्यकालतया नहि। ऽनुपयोगात् ॥ ४६॥
नामरूपादिहेतुत्वं तादात्म्यं सहचारतः ॥ सर्वत्रैव न दृष्टान्तोऽनन्वयेनापिसाधनान् ।
-प्रमा० मं० का० ३८ __न्या० वि० का० ३८१ ५ तुलोनामरसादीनां तुल्यकालतया नहि । दृष्टान्नो द्वेधा अन्वयव्यतिरेकभेदात् ॥४७॥ नामरूपादिहेतुवं नच तद्व्यभिचारिता ॥ साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्वय दृष्टान्तः।४। तादात्म्यं तु कथञ्चितस्यात् ततो हिन तुलान्तयोः । साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेक
-न्या० वि० का० ३३८, ३३
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
परिणामी शब्दः कृतकत्वात्, य एवं स एवं दृष्टो कार्यकारणपूर्वोत्तरमहचरानुपलम्भझेदात् ॥७॥ यथा घट:, कृतकवायं तस्मात्परिणामी, यस्तु न तथाऽसद्व्यवहाराय स्वभावानुपलब्धयः । (प्रमा० सं० ३०) परिणामी स न कृतको दृष्टो यथा वन्ध्यास्तनन्धयः, नास्यत्र भूतले घटोऽनुपलब्धेः ॥ ७ ॥ कृतकवायं, तस्मात्परिणामी ॥६५॥
स्वभावानुपलब्धिः-यथा न क्षणक्षयकान्तोऽनुपलब्धेः । , व्याप्यसिद्धिरविशेषेण व्यापकसाधनी । यथा अनित्यं
--प्रमा० सं० का० वि० ३० कृतकत्वात् ।
(पमा० सं० वि० का० ३१) नास्यत्र शिशपा वृक्षानुपलब्धेः ॥२०॥ २ (अविरुद्ध) स्वभावोपलब्धि:-यथा अस्स्यात्मोपलब्धेः। १ व्यापकस्यानुपलब्धिः व्याप्यनिवर्त्तनी । न निरन्वय
-प्रमा० सं० वि० का० २६ विनाशोभावस्य अत्यन्ताभावानुपलब्धे । अस्त्यत्र देहिनि बुद्धिव्याहारादेः ॥ ६६॥
--ग्रमा० सं० वि. का. ३१ (अविरूद्ध) स्वभावकार्योपलब्धि:-अभूदारमा स्मरणात्। २ व्याप्यव्यापकयोरेवं सिद्धयसिद्धी विचारतः ।
-प्रमा० सं० वि. का. २६ सदसद्व्यवहाराय तश्चान्यत्वविवेकतः ।। अस्त्यत्र छाया छत्रात् ॥ ६७॥
- प्रमा० म० का० ३१ , (अविरुद्ध) स्वभावकारणोपलब्धिः-भविष्यति प्रारमा नास्त्यत्राप्रतिबद्धसामोऽग्निधू मानुपलब्धेः ॥ ८१॥ सत्वात् ।
(प्रमा० स० वि० वा. २६) कार्यानुपलब्धि:-अत्र (नास्ति क्षणक्षयकान्त इत्यत्र) २ नहि वृक्षादिः छायादेः स्वभावः कार्य वा। न चात्र कार्याभावात । (प्रमा० सं० वि. का. ३०) विसंवादोऽस्ति ।
(लघी० वि० का० १२) नास्यत्र धृमोऽनग्नेः ॥२॥ उदेप्यति शकटं कृत्तिकोदयात् ॥ ६॥
कारणानुपलब्धिः-अत्रैव (नास्ति क्षणक्षयकान्त इत्यत्रैव) उदगाद्धरणिः प्राक्तत एव ॥ ६६ ॥
कारणाभावात् । (प्रमा० सं० वि. का. ३०) उदेष्यति शकटं उद्गादणि कृत्ति कोदयादिति । नास्यत्र समतुलायामुन्नामो नामानुपलब्धेः ॥८५ ॥
-प्रमा० सं० वि० का० २६ स्वभावसहचरानुपलब्धिः-नात्रात्मा रूपादिविशेषाभावात् । अस्त्यत्र मातुलिङ्गे रूपं रसात् ॥ ७० ॥
--प्रमा० सं० वि० का ३० सहचरोपलब्धिः अस्त्यात्मादिविशेषात् ।
+ + + + -प्रमा० सं०वि० का०२६ प्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः ॥६॥ विरुद्धतदुपलब्धिः प्रतिषेधे नथा ॥ १॥
, प्राप्तवादः स एवायं यत्रार्थाः समवायिनः ।। सवृत्तिप्रतिषेधाय तद्विरुद्धोपलब्धयः ।
प्रमाणमविसंवादात् । (न्या. वि. का. ४६०)
-प्रमा० सं.का.३० २ प्राप्तेन हि वीणदोषेण प्रत्यक्षज्ञानेन प्रणीत भागमो नास्त्यत्र शीतस्पर्श श्रौपायात् ॥ ७२ ।।
भवति।
(राजवा० पृ० ३६) यथा स्वभावविरुद्वोपलब्धिः - नाविचिलतारमा भावः ३ भाप्तोक्तः ।
(न्या. वि. का. २८) परिणामात् । -यमा० मं० वि० का० ३० सहजयोग्यतासङ्केतबशाद्धि शब्दादयो वस्तुप्रतिनास्त्यत्र शीतस्पर्टी धूमात् ।। ७३ ।।
पत्तिहेतवः ॥१०॥ कार्यविरुद्धोपलब्धि:-न लक्षणविज्ञानं प्रमाणं विसंवादात। १ वाचः प्रमाणपूर्वायाः प्रामाण्यं वस्तुसिद्ध ये ।
--प्रमा० सं० वि० का० ३० स्वतः सामर्थ्य विश्लेषात संकेतं हि प्रतीक्षते ॥ नास्मिन् शरीरीण सुखमस्ति हृदयशल्यात् ॥ ४॥
-न्या. वि. का. ४२६ कारणविरूद्धोपलब्धिः-नास्य परीक्षाफल प्रभावकान्त. २ तारशी वाचकः शब्दः सकेतो यत्र वर्तते । न्या०वि०४३२ ग्रहणान् ।
(प्रमा० सं० वि० का० ३०) यथा मेर्वादयः सन्ति ।। १०१॥ अविरुद्धानुपलब्धिः प्रतिषेधे सप्तधा स्वभावव्यापक- प्रमाणं श्रुतमर्थेपु सिद्धं द्वीपान्तरादिषु । (न्या०वि० २६)
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
परीक्षामुख सूत्र और उसका उद्गम
१२७
चतुर्थ परिच्छेद
पंचम परिच्छेद
२ पर्यायः (विशेषः) पृथक्त्वं व्यतिरेकश्च । (लघी० वि०६७)
एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविन: परिणामाः पर्यायाः सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषयः ॥१॥
प्रात्मनि हर्षविषादादिवत् ॥८॥ 1 द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषार्थान्मवेदनम् । (न्या० वि० ३) १ पृथक्त्वं (पर्यायः ) एकत्र द्रव्ये गुणकर्मसामान्य२ तव्यपर्यायारमार्थो बहिरन्तश्चतत्वत: । (लघी० का.७) विशेषाणाम् ।
(लघी० वि० का० ६७) ३ नभेदोऽभेदरूपत्वात् नाऽभेदोभेदरूपतः। अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिसामान्यं च विशेषाश्च तदपोद्धारकल्पनात् ॥ पादिवत् ।।६।।
त्या. वि. का. १८५ न्यतिरेकः सन्तानान्तरगतो विसदृश परिणामः । ४ सामान्यविशेषात्मके वस्तुनि । (प्रमा०म०वि०का०७३)
-लघी० वि० का०६७ ५ समानभावः सामान्यं विशेषोऽन्यव्यपेक्षया ।
न्या. वि. का. ११८ ६ चक्षुरादिज्ञानं सविकल्पकं सामान्य-विशेषामविषयं । अज्ञाननिवृत्तिानोपादानोपेक्षाश्च फलम् ॥१॥
--प्रमा० सं० वि० का० ४ १ प्रमाणस्य फलं तत्त्व निर्णयादानहानधीः । ७ सामान्यविशेषात्मनो युगपयतिभासायोगान् ।
निःश्रेयमं परं वेति केवलस्याप्युपेक्षणम् ॥ -प्रमा० स० वि० का०८
न्या० वि० का० ४७६ अनुवृत्तव्यावृत्तप्रत्ययगोचरत्वात पूर्वोत्तगकारपरि- २ हानोपादानोपेक्षाप्रतिपत्तिफलं ( शान ) भाप्रमाणं हारावातिस्थिनिलक्षणपरिणामेनार्थक्रियोपपत्तश्च ॥२॥ भवितुमर्हति ।
(लघी० वि० का० १६) १ संसों नास्ति विश्लेषान विश्लेषोऽपि न केवलम् ।।
३ तत्फलं हानादिबुद्धयः । (लघी० का० १३) संसर्गात सर्वभावाना तथा संवित्तिसंभवात ॥ ४ अर्थावबोधे प्रीतिदर्शनात ' अर्थनिश्चये प्रीतिरुपजायते
या वि० का १८६ सा फलम् । उपेक्षा ज्ञाननाशोवा। (गजवा०प्र० ३६) २ परापरपर्यायावाप्तिपरिहारस्थितिलक्षणोऽर्थ ।
५ सिद्धप्रयोजनवान् केवलिना सर्वत्रोपेक्षा। --प्रमा०म०वि० का०६७ मन्यादेः साक्षात्फलं स्वार्थव्यामोह विच्छेदः .. . ३ परिणामे क्रियास्थिते। (न्या. वि. का० ३४५)
परम्परया हानोपाटानसंवित्तिः । (अष्टशः का० १०२) सामान्यं द्वधा निर्यगूयताभेदात् ॥३॥
प्रमाणादभिन्न भिन्नं च ॥२॥ द्रव्यमेकान्वयात्मकं । (लघी वि. का.६७). प्रमाणफलयोः क्रमभेदेऽपि तादाम्यमभिन्नविषयावं च महशररिणामस्तिर्यक खगडमगडादिषु गोत्ववत् ॥४॥ प्रत्येयम् ।
(लघी० वि० का०६) १ सदृशपरिणामः सामान्यं (तिर्यक) यमलकवन् । २ करणस्य क्रियायाश्च कथंचिदेकवं प्रदीपतमोविगमवत् ।
--प्रमा० 'मं० वि० का० ११ नानात्वं च परश्वादिवत्। (अपश. का. १०२) २ सहशपरिणामलक्षणसामान्यात्मकत्वादन्वयि (तिर्यक
षष्ठ परिच्छेद सामान्यं)
(लघी० वि० का०६७) परापरविवर्तव्यापिद्रव्यमूर्धतामृदिवस्थासादिषु ।।५॥ ततोऽन्यत्तदाभासम् ।।१।। एकत्वं ( ऊर्ध्वतासामान्य ) तदत परिणामिवान् । तदाभासस्ततोऽन्यथा। (लघी० का० २५)
-लघी० वि० का० ६७ अवैशये प्रत्यक्षं तदाभासं बौद्धस्याकस्माद्धमदर्शनाविशेषश्च ॥ ६॥
द्वह्निविज्ञानवत ॥६॥ पर्यायव्यतिरेक भेदात् ॥ ७॥
वैशधेऽपि परोक्षं तदाभासं मीमांसकस्य करण(न्या०वि० का० ११८) ज्ञानवत् ॥ ७॥
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
अनेकान्त
[वष५
प्रतस्मिंस्तदिति शानं स्मरणाभासं जिनदत्ते स २ व्यभिचारी विपक्षेऽपि । (प्रमा० सं० का० ४६) देवदत्तो यथा ॥८॥
निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दःप्रमेयत्वात् घटवत्।।३।। सदृशे तदेवेदं तस्मिन्नेव तेन सदृशं यमलकवदि- शङ्कितवृत्तिस्तु नास्ति सर्वशोषयतृत्वात् ॥ ३३ ॥ त्यादि प्रत्यभिज्ञानाभासम् ॥ ६॥
१ इत्यनैकान्तिकभेदाः निश्चितसंदिग्धव्यभिचारिणोऽनेकअसम्बद्ध तज्ज्ञानं तर्कामासम् ॥१०॥
प्रकाराः ।
(प्रमा० मं० वि० का० ४२) इदमनुमानाभासम् ॥११॥
२ सर्वज्ञ प्रतिषेधेतु संदिग्धाः वचनादयः । अक्षधीः स्मृतिसंज्ञाभिश्चिन्तयाऽऽभिनिवोधिकैः।
--न्या० वि० का० ३४६ व्यवहाराविसंवादस्तदाभासस्ततोऽन्यथा ॥ (लघी० २५) ३ सर्वज्ञो न वकृत्वा। (प्रमा० स० वि० का० ४२) तत्रानिष्टादिः पक्षामासः (साध्याभासः) ।। १२ ।। सिद्धप्रत्यक्षादिवाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः।।३।। साध्याभासं विरूवादि साधनाविषयत्वतः । (न्या० वि० १७२) मिद्धेऽकिश्चित्करोहेनु: स्वयं माध्यव्यपेक्षया । हेत्वाभासाश्रसिद्धविरुद्धानकान्तिकाकिश्चित्कराः॥२१॥
--प्रमा० सं० का० ४४ विरुवासिद्धसंदिग्धा अकिश्चित्करविम्तराः । (न्या०२६६) विरुद्धोऽकिञ्चित्करो ज्ञातः। (प्रमा० सं० का० ४६) असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्धः ॥ २२॥
दृष्टान्ताभामा अन्वयेऽसिद्धसाध्यसाधनोभयाः॥४०॥ श्रविद्यमानसत्ताकः परिणामी शब्दश्चातुपत्वात् ॥२३॥ तदाभासाः साध्यादिविकलादयः । (न्या० वि० का० ३८०) १ प्रसिद्धश्वासषत्वादिः शब्दानित्यवसाधने ।
विषयामासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम्॥६१॥ अन्यथाऽसंभवाभावभेदात स बहुधा स्मृतः ॥ नान्तर्वहि ; स्वलक्षणं सामान्यलक्षणं वा परस्परानात्मक
--न्या० वि० का० ३६५ प्रमेयं यथा मन्यते परैः। (लधी० वि० का० ७) २ प्रसिद्धः सर्वथाऽत्यात्।। (प्रमा० सं० का० ४८) तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च ।। ६२॥ ३ प्रसिद्धः चाक्षषत्वादिः (प्रमा० मं० का०४३) न केवलं साक्षात्करणमेकान्ते न सम्भवति अपितु । सांख्यं प्रति परिणामी शब्दः कृतकत्वात् ॥२७॥
-लधी० वि० का० ७ तेनाशातत्वात् ॥२८॥
अर्थक्रिया न युज्येत नित्यक्षणिकपक्षयोः । (लधी० का०८) १ अज्ञातःसंशयासिद्ध व्यतिरेकाम्वयादितः (प्रमा०सं०का ०४६) सम्भवदन्यद्विचारणीयम् ।। ७४ ।। २ साध्येऽपि कृतकत्वादिः अज्ञातः साधनाभासः, तदसिद्ध , इष्टं तत्वमपेक्षातो नयानां नयचक्रतः । लक्षणेन अपरो हेत्वाभासः सर्वत्र साध्यार्थासम्भवाभाव
.......... उपायो न्यास इप्यते। (न्या०वि०का०४७७) नियमासिद्धेः अर्थज्ञाननिवृत्तिलक्षणत्वात् ।
२ नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तितोऽर्थपरिग्रहः। -प्रमा० सं० वि० का० ४४
-प्रमा० सं० का.८६, लघी० का०५२ विपरीतनिश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः
निवेदन और आभार कृतकत्वात् । २६ । १ साध्याभावसम्भवनियमनिर्णयकलक्षणोविरुद्धो हेन्वाभासः अन्त में विज्ञजनोंमे निवेदन है कि उपर्युक्त नुलनामें
यथा नित्यः शब्दः सत्वात् । (प्रमा० सं० वि० का० ४०) कहीं भूल जान पड़े तो वे उसे सूचित करने की कृपा करें । २ अन्यथानिश्चितं सत्वं विरुद्धमचलारमनि।। ___ इस लेखकी तैयारीमे मुझे श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी
--प्रमा० सं० का० ४०
मुख्तार ( अधिष्टात बीरसेवामंदिर ) से जो साहाय्य ३ स विरुद्धोऽन्यथाऽभावात् । (प्रमा० सं० का० ४८)
एवं सहयोग प्राप्त हुधा है, उसके लिये मैं आपका अत्यन्त विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः ॥३०॥
आभारी हूँ। १ अनिश्चितविपचन्यावृत्तिरनेकान्तिकः । (प्रमा०सं०का०४०)
वीरसेवामन्दिर, सरसावा।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
अछूतकी प्रतिज्ञा
[लेखक-श्री 'भगवत्' जैन]
[१]
था, शायद अपने प्राणों के बराबर ! उसको साथ पति-शील व्यवसाय तब शायद नही था!
लेकर 'खाना' खाना उसके प्यारकी एक जाहिरा उसकी गति थी-बीमार व्यक्तिकी नाड़ीकी तरह
नज़ोर थी ! जिसदिन खानेके वक्त जागरा न क्षीण ! पर, तब मुख अधिक था, चॉचल्य कम ।
होतो अकेले हो ग्याना पड़ता, उस दिन उसका पेट ही और मवसे बढ़कर जो बात थी, वह यह कि तब '
न भरता ! रुचि जो न रहती खानेकी पोर ! हो लोगोंको सन्तोष था, अधिककी 'लालसा' नही! सकता है, अटूट
हो सकता है, अटूट-दाम्पत्तिक-प्रेम छिपा हो, इसमें ! दुनियाभरकी पूजी मेरे ही घरमें हो, यह ज़िद हॉ, तो उस दिन जागरा आई-चित्तौड़गढ़, नही थी। जिसके पास जितना था, वह उतनम ही वस्त्र बेचने, रोजको तरह ! पर, रारोबकी चीज़ ? खुश था !..
मुश्किल हो मे तो बिकती है ! उसके भाग्यमें जो वह भी गॉवमे रेंगे-वस्त्र लाती और बाजारमें
तिर कार, परेशानी अर चिन्ता लिखी रहती है ! बेचती ! ओर जो लाभ होता वह उसे आनन्दित
सिरपर पोटली रग्वे, वह घूमती-फिरती रहीकरता, क्योंकि उसका मन भी अमन्तोपी न था! म
खरीदारकी तलाशमें ! दसियों दुकानदारोंने वस्त्र वह काली जरूर थी, बदशकल और भोडी भी थी
खलवाए, देखे और फिर या तो-'पसन्द नहीं
खुलवाए, दख अ ही! लेकिन हृदयको मुन्दर थी, साफ थी; भोली थी! आण-कहकर या 'दाम ज्यादह मागता हो !'पर, लोग उससे बचते थे ! इसलिए नहीं कि वह
का लॉछन लगाकर नकारात्मक सिर हिला दिया! गरीब थी, मैले कपड़े पहिने रहती थी, बल्कि इस- तामग प्रहर भी मरकने लगा-धीर-धारे, रात लिए कि वह अछूत थी, नीच थी! उस छना, ऊँरता की तरफ ! जागरा कुछ चिन्तित-सी होने लगी! को बदनाम करना था, अतः पाप था!
आगे बढ़ी!नाम था उसका-जागरा ! चित्तोड़ के पास
सामने सोम्य-प्रकृति धनकुवेरसागरकी दुकान चाण्डालो ने एक गाँव बसा लिया था ! उमीमे रहती
थी! • पोटली उतारी गई, वस्त्र खोले गए ! और थी-बह ! पतिका नाम था-कुरंग ! शरीरका काला
माभाग्य, कि वे पसन्द आगप! दामों में भी सौदा तो वह था ही, पर मन भी उसका सफेद नही था! पट गया ! रात-दिन जोव-हत्या, पाप, छुरी, फल, खून-इन्ही जागराको भूग्व सता रही थी ! आज मुंह-अँधेरे सबमे रहते-रहते वह जो इन्सानसे हैवान बन चुका ही, थोड़ा-सा खाना जो उसने खाया है। फिर कुछ था, अपने आपेको खोकर !
खाया-पिया नहीं ! सुबह भी अगर भर-पेट खाया वह लाख निदयी था सही, फिर भी 'एफके होता, तब भी एक बात थी! खा कहाँ पाई शहर लिए' उमके पाम दया थी ! दया जो सार्वधर्म है, आने की जल्दी में ? और उस पर बोझ रक्व घूमना उससे शून्य रह कैसे सकता है कोई ? और उसकी दिन-भर ! बोझ अकेला पोटलीका होता, तबभी दया-पात्र थी-जागरा ! जागरा को वह प्यार करता गनीमत थी, बेचनेकी चिन्ता जो मिरपर सवार थी,
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
अनेकान्त
[वर्ष ५
पोटलीसे भी भारी!
इनके यहाँ! भूग्य भी आज ऐसी लग रही है कि मुंह सूख रहा था! जीभ तालूम सटी जारही हिसाव नही । घीकी पूड़यां, 'माग, मीठा,.. थी ! उठते-बैठते चक्कर-से आ रहे थे ! बड़ी करुण दहा-बूरा' 'रबड़ी पार न जाने क्या-क्या खानेको हो रही थी वह !
मिलेगा-आज!'माचती-विचारती जागरा रास्ता सागरने कहा-मन दयासे भीगा हुआ था उन खत्म कर दरवाजे तक आई!.. का-'घर न चली जाओ, खाना मॉग लेना गुणपाल किवाड पकड कर दीन और धातर-स्वरमें की माँसे ! कष्ट भाग रही हो, बेकार ! बहुत भूम्बी बोलो-'मॉजी ! खाना मिल जाय ! संठजीने कहा हो न, क्यों ?'
है-घरम ले लेना ! बड़ी भूख लगी है, मॉ! प्राण जागराने कृतज्ञताम आँख भुकाते हुए कहा- निकल जारहे है ! सच कहती है-म.ट-सा दयावान् 'हॉ, आपने ठोक हो पहिचाना! गाँवस सवर हो चली मैंने नही देखा ! मुझ उदास देखा, कि कहने लगे
आई थी, अ.र आज दिन भर घूमते होगया- 'भूखी मत रहो, घरमे खाना मॉग लेना, जाओ !? सेठ जी! माल बिक जाता तो कवको घर पहुंच 'वानको अब ? इस वक्त ? रातमे... ?'गई होती?'
धनमतीने अचरज-भरे स्वर में पूछा-'रातमें नही
खाया करते बटी! भूख हो या प्याम ये तब जोर पकड़ती हैं, जब
जागरा सन्न रह गई ! कि मनमें ग्वानक लिये तय कर लिया जाता है, कि, वह हुआ, जिसकी कि ज़रा भी आशा नही थी! 'चलो अब खाएँ !' जागरा भूरदको भूल रही थी उसकी धारणा थी- 'पहुँची नही कि ग्वाना मिला!' उधरमे चित्त खीच रही थी, तब तमली थी! लेकिन कठोर-उपदेशन उमं, उसकी भूखको तिलमिला अब, जब खाना मिलनेकी आशा जाग उठी है, भूख दिया-कदम। उमे दम नहीं लेने दे रही!
वह बोली-भव जो लग रही है अब, मर जो वन बिक चुके हैं, पर उन्हीं पैसोसे अब कुछ
रही है इस वक्त ! दिन मुझे अब आयेगा ही, इसे कान खरीदना जो बाकी रहा है ! मोचने लगी-सेटजीने
जानता है माँ ?' कह दिया है, खाना तो मिल ही जायेगा ! इधर, दिन में ही अपने काममे निपट ले तो ठीक रहेगा ! फिर
_ 'जोरकी भूख लग रही है, इसीसे ऐसा कह रही रात होगी। अगर कुल मौदा न खरीद मकी, तो
हो ! नही, रात-भर मे कोई भूखा मर थोड़ा सकता
है ! और मर भी जार, तो मरना तो है ही है न, सुबह बाजार खुलने तक ठहरना पड़ेगा । जानेको दोपहर हो जायगा ! थोड़ी देर भूखे रहने की ही बात
एक बार ? चाहे आज मरलो, चाहे कल ! और यों तो है ! जब दिन-भर होगया, तो घण्टे-भर में क्या
रातका खाना छोड़ने पुण्य जो होगा-अतीव ! मरी थोड़े जाती हैं ? निक्रिन्त होकर खानेमें स्वाद
वह जो किसी मुम्बी-घरमें पैदा कर देगा ! जहाँ ग्याने भी मिलेगा कुछ ! और तभी खाकर सो भी रहँगी
__ को बढ़िया भोजन, पहिनने को सुन्दर कपड़े और वही! फिर बाजार न आना पड़ेगा दवारा! थक भी जवर का कमी न होगा।' बहुत गई हूँ आज!'
_ 'माँजी ! ये धर्मकी बातें तो तुम्हीं ऊँची जाति ___ जागरा जब सेटजीके घर पहुँची, तब रात हो वालोंके लिए हैं, हम लोगोंमें तो इनकी चर्चा नक चुकी थी! दिये जल चुके थे, अँधियारी बढ़ती चली नहीं ! हम ठहरे महतर-लोग, नीच, भंगी ! तुम्हारा आ रही थी!
जूठन खाने वाले तुम्हारेसे धरम-करम हममें 'बड़े आदमी हैं, बड़ा अच्छा खाना बनता होगा कहाँ ?”
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
अछूतकी प्रतिज्ञा
___ यही तो तुम लोगोंकी भूल है ! देखो-ऊँच- . 'रातका भोजन न तो धर्ममे ठीक पड़ता है, न नीच सब करनीक फल है । आत्मा किमीका ऊँचा- वैद्यकसे ! और न किसी हेतमे ! सिवा हानिके नीचा नहीं होता, सब बराबर, सब एक हैं ! पर, बात लाभकी कोई बात ही नहीं, इसमे ! सैक्ड़ों रोग, यह है कि तुम्हारे नीच खयालने, नीच-कर्मने उसे हत्यारे इसीसे होती हैं ! छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़ोकी नीच बना रक्खा है ! चाहो तो तम लोग भी ऊँच बात छोड़ो, कभी-कभी बड़े पंचन्द्रिय-जीवों तकको हो सकते हो, मुश्किल नहीं है ! ..
भी अपनी आहुति दे देनी पड़ती है ! अनेकों बार 'कैसे...?'
रात में खाकर लोग मौतक मुहमें समा जाते हैं ! भरको भूलने लगी जागरा !
यह एक बहुत बड़ा पाप है, बेटी!'
हो। रातको न इन्हीं सुनो बातोंकी आलोचनामें डूबी जागग खाकर, दिनमें ही खानम फारिग हो लिया करो। बाहरक बरामदेम एक ओर पड़ रही ! पर, आंखों में क्योकि दिनका खाना आदमियत है, दयाकी मोटी
नीद नहीं थी ! पेटमे भख, मनम तक-वितर्क और पहिचान है ! और धर्म-कथाओको सुनो, उनपर
नई नई विचार-धाग' - नीदकी प्रतिद्वन्दनाक लिए विश्वास रक्ग्वा, आचरण करो। व्रत-नियम करते
मोबन्दी कर रही थीं! कराते रहो! अवश्य अगले-जन्ममें तम लोग ऊँच
देरतक रात्रि-भोजनकी भयानकतापर अपने बन जाओगे-ज़रा भी शक नही! और नीच-जाति छोटे, ऊपरी और हल्के दृष्टिकोणमे विचारती रही। में भी खुदको नीच कर्मों में, पापों में डुबोए रखोगे महमा भयकी प्रबलताने उसकी चित्तनाफाको गतो याद रक्वो, श्रीर भी बड़े नोच बनोगे! करनी मगाना शुरू किया। वह सोचने लगी- शायद मंठानी ही तो ऊँचनीच बनाती है न -नीचताका फल ने मुझे टाल बता दी, देनेम इन्कार केस कर सकती मिलेगा-नरक ! जहॉक दुःखांकी शुमार नही" -म्टने जो कह दिया था ! मोचा होगा-बहाना
धनमती देर तक ममझानी रही सीधे-शब्दों में कादृ', कि गतमें न ग्वाते हैं, न खिलाते । • श्री कल्याणकी बाते । स्वयं विदपी थी-धर्म-शीला! जो स्वभावमे ही कंजूम होती हैं ! खूद न खारें
जागराकी आत्मामें कुछ ज्योति चमक उठी। मना क.न करता है पापम डरती हैं, जान प्यारी है बोली-'मॉजी ! बाते तो तम्हारी बड़े ज्ञानकी है। तो ? मुझ ना दे देती। मुझम क्या रिश्तेदारी.' पर, निभ जायें उसका भला कर सकती हैं ये । या. क्या म्नेह ? जो मुझे यो.....!' सुननसे क्या होता है ?
मोच ही रही थी कि गगापाल आगया ! न जाने निभानेकी गनमें आनेपर, कठिन नही है आदमी कहाँ ग्बलता रहा था इस वन तक ! बच्चा जो टहरा के लिए कुछ ! क्या तम गतका भोजन छोड़कर भावप्याचन्तास मुक्त । जी नही सकती ? मै तो कहती है-रातका भोजन मॉने पहले डॉट बताई-हल्कं -मी, फिर पलंग कितना बुरा है, यह जान लेनेपर कोई रातको खा पर सो रहनको कहा ! प्यारम सिरपर हाथ फरते ही नहीं सकता, चाहे प्राण चले जाये !'-धनमतीन हुए। कहा !
वह बोला-'माँ भूख लगी है ?' वह बोली-'हां, है तो रातका खाना बहुत जागरा अवाक रह गई-- जब उसने मना कि बुरा । मुझे तो अब मबसे बड़ा पाप यही मालम माँका ममतामयी-हृदय बच्चेका मा सो रहना देता है ! ज़रूर इसीलिए हम नीच है, दुग्वी हैं कि बर्दाश्त कर रहा है, लेकिन रातमं खिलानका पाप हमारे यहाँ रातमें भोजन होता है !
नहीं!
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३२
अनेकान्त
[वर्ष ५
तक?........
उसके मनकी शल्य-भीतरका सन्देह निकल 'देखलिया सब ! कहाँमे लगा लाई भूत यह गया! वह उठ बैठी! न जानें शरोरमे कमी सिंह- अपने सिर ? एक रात रही बाजारमे कि बन आईरन-सो हान लगी थी, रोम-रोम तन उठा था! बननी ! अपने बुलकी मर्याद तोड़ती हे बे-शउर !
वाली-'मॉ! बच्चा है नासमझ ! खान सोने पुरखो तकन रातक खान कभी ऐव नहीं निकाला, दो उसे ! बड़े होनेपर धर्म-पालन कर लेगा! तेरे लिये आज पाप ह उस !-क्यो ? अरे, यह धनमती हसी!
ता सब ऊँच जातमे चलता है, हम चाण्डालामें फिर समझाया--'बेटी ! धर्म हमेशाकी वस्त
कभी नही चला-समझी ?'-कुरंगने जैसे बड़ी उसके लिए वक्त मुफ़रिर नहीं करना चाहिए ! क्या
समझदारी के साथ कहा! अलबत्ता स्वर जरा तीव्र पता, गई सॉस वापस लाटे, न लाटे ? मात, जिन्दगी ।
हो श्राश था! को दुश्मन है, उम्रकी नही!'
___ 'च अपने कर्मोमे ही तो बनते है। पाप करते जागराको जीवन-धारा बदलने लगी ! मनमें
रहोगे, तो कभा ऊँच नहीं बन सकोगे-मालिक ! उजला-सा आता मालूम देने लगा उसे !--अन्धेरा
हमारे कोन हम नच बनाया है मही, पर आत्मा हटता जा रहा हो क्षण-क्षण !
हमारी नीची नही है ! हम भी ऊँच बन सकते है ! र जब मुबह वह लाटी, तब मुस्वादु-पकवानो
कुरंग झल्लाया! से कवल पेट ही नहीं भरा था, उसका ! बल्कि एक
विरोधी विचारोस कोई खुश भी हुआ है आज पावन-प्रतिज्ञा भी उनके साथ थी ! ...कि प्राण रहते रातमें खाना न खाएगी वह !
उत्तर न दे सकनमें क्रोध बढ़ पाया था शायद उसे ! साक्षात पिशाचका रूप रखकर बोला-ऊँच
बनेगी, चुडैल !-क्यों ? बोल खाती है, कि नहीं?' दूसरी रातको !...
जागराम अभय आ चुका था, प्रण-पालनकी 'नहीं, मुझ भूग्य नहीं है, जरा भी नहीं ! तुम
दृढ़तान उमं साहस दे दिया था ! गम्भीर हेवर
हता खायो ! देखो न, कितना पेट भरा है?'
बोली--'नही!' 'मैं ..-मै अकेला खाऊँ, क्यों? कभी खाया कुरंगक लम्बे-च. शरीरको, मजबूत हाथोंको है कि आज ही ..? चल,चल;'आ बैठ इधर ! नखरे अ.र उसकी रातमी-प्रवृत्तिको चैलेंज जो था यह ! नहीं किया करते-हाँ!' ।
और वह भी उसके द्वारा जो उसकी दासी है, अत्रला 'मै न खाऊँगी !'-जागराने दृढ़तासे कहा है, उसकी कृपाकी मुह ताज है ! श्ररत-और मर्दको स्वर कॉप रहा था-उसका !
बात न माने, कैसे बदरित कर सकता था, वह ? श्रापे 'क्यों ..?'
से बाहर गया! 'भूख जो नहीं है।'
बोला-'नहीं. १ नहीं, सायेगी, बोल ? तुझे 'अच्छा तो एक कौर, बस एक-तुझे मेरी ही न खिलाया तो खिलाया विमे ? मुंह न दिखाऊँ कसम !' कुरंगने स्वभाविक-कर्कस-स्वरको यथा- अपना !" हरामखोर सुअरकी बच्ची !' साध्य नरम करते हुए कहा!
आँखें लाल, मुह भयानक, स्वर तीव्र और 'एक दाना भी नहीं ! जरा भी नहीं! देवता! कठोर हो रहा था उसका! हाथमें रोटोका टुकड़ा ले, तुम भी न खाया करो, रातमें! बड़ा पाप है, रातमें बढ़ा जागरा की ओर !... खानेका ! देखो''''
पर, वह जो मुँह बन्द फिए हुए थी ! प्रास
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४ ]
हमें न जा सका ! दन्त-पंक्तिने जो उसकी सहायताका वचन दे रखा था !
संकट का समय
कुरंगी कुझलाहट सीमा पार कर गई। रोटी पटक, लगा बेदर्दीक साथ जागराको मारने-पीटने ! वह अल !
सहतो रही सारे प्रहार ! स्त्री जो ठहरी, पुरुषको
दासी !
चोटी पकड़कर, धक्के, मुक्के, घूँसे, चाँटे, देर तक यही होता रहा ! सहज ही कोई न हारा ! कुरंग अपनी जिद पर था, और जागरा अपने प्रण परजान देने तक पर तुली हुई !
कुरंग चाण्डाल था, लेकिन इस वक्त होरहा थानारकी । मुँह धारावाहिक गालियाँ बरसा रहा था !
संकट का समय
[ श्री 'भगवत्' जैन ]
'प्रारण ही क्यों न ले लो - मालिक ! पर, रातमें न खाऊँगी मै ! प्रतिज्ञा ले चुकी हूँ, उसे छोडूंगी नहीं ! कभी नही, हरगिज नही !'
घी ठंडा था, पर आग और भी धधक उटी ! छुरी निकाल दुष्ट ने जागरा के पेट में घुसेड़ दी !!!
खून मे जमीन नहा गई ! लाश तड़प कर टन्डी
होगई ! खूनी रो उठा-'हाय ! यह क्या हुआ ?
X
X
X
X
कुछ दिन बाद !
धनमती ने एक कन्या प्रसूतकी ! नाम रक्खा गया— 'नागश्री !' बड़ी सुन्दर, बड़ी मोहक बड़ी गुणवती !!
तपाधन ऋषि ने बतलाया - नाग श्री पहले जन्म मे 'जागरा' थी !
घोर संकटका समय है !
पुण्य पद-पद हारना है. पापको होती विजय है ! घोर संकEET समय है !!
पनपता है नरक, दुनिया सानवोंकी याज फीकी ! हो नहीं पानी जग-सी बात भी सोची किसीकी !!
मानसिक अनुभूतियों पर हो चुकी ऐसी प्रलय है ! घोर संकटका समय है !
शोक ! अपनेपर नहीं बाकी रहा अधिकार अपना ! फिर किसे अपना कहें, फिर किसे हम प्यार अपना ??
१३३
आज अपनी श्रात्मासे ही नहीं मिलता अभय है ! घार-संकट का समय है !
पतन, जीवन वन चुका उत्थानकी श्राशा निरोहित ! मि का भूला, हलाहल पर हुआ है चित्त मोहित !!
है नहीं पोषण कहीं पर घूमना सर्वत्र क्षय है ! घोर संकट का समय है ! बेखबर अपने श्रहिनसे, छोरहा है मूह मानव ! कौन जानें, पायगा स्वातंत्रमय चैतन्यता कब ?
आज तो परतंत्रता का विश्व भर में अभ्युदय है !! घोर संकटका समय है !!
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
सामायिक पाठः (लेखक:- पन्नालालोजैन:, 'बमन्तः साहित्याचार्यः )
( इन्द्रवत्रा) कालादनम्तागमता समन्ताद्दुःखातिभारं भवता भवेऽस्मिन् । सौभाग्यभागोदयतो मयैतन् सामायिक सौख्यकरं सुलब्धम् ॥३॥ सर्वज्ञ । सर्वत्र विरोधशन्य । चाचदयासागर । हे जिनेन्द्र ! कायेन वाचा मनमा मया यत् पापं कृतं दत्तजनातितापम् ॥ २॥ भृत्वा पुरस्ताद्भवतो विनीत: सर्व तदंतन्निगदामि नाथ । कारुरायबुद्ध या भरितो भवाश्च मिथ्या तदंहो विदधातु धान ॥३॥
(युग्मम् ) क्रोधेन मानेन मदेन मायाभावेन लोभेन मनोभवेन । मोहेन मात्मर्यकलापकेनाऽशर्मप्रदं कर्म कृतं सदा हा ! ॥ ४ ॥
(उपजाति;) प्रमादमाद्यन्मनमा मयते हो केन्द्रियाद्या भविनो भ्रमन्तः। निपीडिता हन्त विराधिताश्च संरोधिताः क्वापि निमीलिताश्च ॥ ५॥ बाल्ये मया बोधममुज्झितेन कुज्ञानचेष्टानिरतेन नूनम् । अभक्ष्यसंभक्षणकादिक हा ! पापं विचित्रं चितं न किम् किम् ॥६॥ तारुण्यभावे कमनीयकान्ता. कण्ठाग्रहाश्लेषसमुद्भवन । स्तोकेन मोदेन विलोभितेन कृतान्यनर्थानि बहूनि हन्त ! ।। ७ ।।
बाला युवानो विधवाश्च भार्या जरच्छरीराः सरलाः पुमांसः । स्वार्थस्य सिद्धौ निरतेन नित्यं प्रतारिता हन्त ! मया प्रमोहात ॥८॥ कृप्यादिकार्येषु सदाभिरक्तश्रारम्भवाणिज्यसमूहसक्तः । विवेकवार्तानिचयेन मुक्त- - श्वकार पापं किमहं न चित्रम् ॥ ६ ॥ न्यालालये हन्त विनिर्णयार्थ गतेन हा हन्त मया :मोहान । चित्रोक्तिचातुर्यचितेन चारसन्यस्य कण्ठं निहतं सदैव ॥ १० ॥ व्यापाद्य लोकान रहमि प्रसुप्तान लोभाभिभूतो दयया व्यतीतः । जीवस्य जीवोपमवित्तजातं जहार हा। हारिमुहारमुख्यम् ।।११।। लावण्यलीला विजितेन्द्रभायां भार्याः परेषां सहसा विलोक्य । वसन्तहेमन्तमुम्बर्तुमध्ये कन्दर्पचेष्टाकुलितो बभूव ॥ १२ ॥ लोभानिलोफीलितधैर्यकील. कार्पण्यपण्यस्य निकेतनाभः । सगाभिषङ्गेऽभिनिष्क्त चित्त - श्कार चित्राणि न चेष्टितानि ? ॥१३॥ पापेन पापं वचनीयरूपं मया कृत यजनताप्रभो । तत् । वाचा न वाच्यं मयका कथञ्चित समस्तवेदी तु भवान् विवेद ॥ १४ ॥ स्वयाज्जनाद्या विहिता अपापा: संप्रापिताः सौख्यसुधासमूहम् ।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण २४]
समापि
तत्पापचयः
समस्ती
ध्वस्तः सदा स्याद्भवतः प्रसादात् ॥१५॥ समास्ति दोषांत स्वभावोभवरस्वभावस्तु तदापहारः । यद्यस्य कार्य स करोतु तत्तन वार्यते कस्यचन स्वभावः ||१६||
(अनुष्टुप )
तां कुर्यात्सामायिकोद्यतः ।
पठञ्छ्लांकतति चाय पर कर्मणा मध्ये प्रतिक्रमणकम् ॥ १७ ॥ ॐ इति प्रतिक्रमण विधिः *
( उपजातिः ) प्रमादतो ये बहवोऽपराधा हिंसाभिमुख्या विहिता मयैते । ते स्वत्प्रसादाद्विफला भवन्तु भवन्तु दुःखस्य यतो विनाशाः ॥ १८ ॥ पापाभिविसेन द्वियोकितेन
दयाव्यतीतेन महाराउन 1 होनेन बुद्धचा विहितानि यानि
कृत्यानि हा ! हन्त मया प्रमादान ॥१६॥ संवेगवातज्वलितेन तापा
सामायिक पाठ:
नलेन तान्यद्य निहन्तु मीहे । निन्दामि गर्हे च विरूपरूप - मात्मस्वभावं बहुशो विभो हे | ॥२०॥ ( युग्मम् )
सुदुर्लभं मर्त्यभवं पवित्रं गांव धर्म महापचित्रम् । लब्ध्वापि हा ? मृढतमेन मान्य ! जीवा वराका निहता मयैते ॥२१॥ वेन्द्रियाम्पटमानसेना
ऽज्ञेनेव नूनं निहताः समन्तात ।
एकेन्द्रियाद्या भवतः प्रसादान्, पातो भवेद स मेऽपराधः ॥ २२ ॥ श्रालोचनायां कुटिलाश्व दोषाः कृता मया ये विपुलाश्च भीमाः । भवन्तु भी नाथ! भवपाभिमृषा वृषाराधितपादपद्म ! ॥ २३ ॥
१३५
( आर्या )
साधुः
एवं भूयो भूयोनिन्दित्वात्मानमुग्रकर्माढ्यम् । संविदधीत प्रत्याख्यानाभिधं कर्म ॥ २४ ॥ * इति प्रत्याख्यानय
( शालिनी )
जीवे जीवे सन्ति मे साम्यभावाः सर्वे जीवाः सन्तु मे साम्य युक्ताः । यातं रौद्र ध्यानयुग्मं विहाय कुर्वे सम्यग्भावनां साम्यरूपाम् । २५ । पृथ्वी तोयं वह्निवायू च वृक्षोयुग्माक्षाद्याः सन्ति ये जीवभेदाः । नेमेस शान्तिका भवन्तु तान्या तुल्यं नास्ति रत्नं यदत्र | २६ | दुःखे सौख्ये, बन्धुवर्गे रिपौ वा स्वर्णे तार्णे वा गृहे प्रेतवासे । मृत्यूत्परयोर्वा समन्ताजिनेन्दो मध्यस्थं मे मानसं साम्प्रतं स्यात् । २७। माता तातः पुत्रमित्राणि बन्धुर्भार्या श्याल स्वामिनः सेवकाद्याः । सर्वे भिन्नाश्चिच्चमस्कार मात्रादस्मद्रूपाश्चिचमत्कारशुन्य १२८ मोहध्वान्तध्वस्तसद्बोधचक्षुः स्वात्माकारं न स्म पश्यामि जातु । श्रद्योद्भिन्नज्योतिरस्मि प्रजातः स्वात्माकारं तेन पश्यामि सम्यक् ॥ २६ ॥ ( आयो )
एवं साम्यसुधाभर तृप्त-स्वान्तः समन्तत साधुः । सामायिक तृतीय कुर्यात्कर्म सन्मान्यम् ।। ३० ।। * इति सामायिकं कर्म
( शार्दूलविक्रीडितम् ) यद्गर्भस्थ महोत्सवे सुरचयैराकाशसंपातितैर्नानावर्णधरै विचित्रमणिभि. संद्वादितं भूतलम् । शुम्भद्रूपधरैस्तदीयमुगु रेजे यथा लान्छितं
तं वन्दे नृपमं नृपाचित मनया सदा सौख्यदम् 1३11 प्रोत गिरिराजरम्प शिखिरे चीरोदधेराहतेश्वञ्चन्द्रकलाकलाप तुलितैरम्भोभिरानन्दिताः ।
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३६
अनेकान्त
[वर्ष ५
माउपना
जातं यं मुदिताः सुरा रतिधरा संक्षिप्त वातः स्वयं सत्वं भो वरणासुधा लनिधे ! वात्सल्यपाथोनिधे !
तं वन्दे यजितेश्वरं जिनवर सत्वीतिर.कापतिम् ॥३२॥ है श्रेयन । भवषर्दमे निपतितं कि मां हहोपेक्षसे ॥४१॥ नो नित्यं जगतीतले किमपि हा हा विद्यते कुत्रचित कामलीमुख चार पक्रानिचयप्रोहीतदावानलं
सर्व कालकरालकण्ठकलितं सर्वत्र संदृश्यते । बुद्धिश्रीसकीर्तिकान्तिविलसत्सद्ररत्नरत्नालयम् । इत्थं भोगशरीरशून्यहृदयो यः काननेप्वापत् । लोकानन्दथुसागरोपिछतिकरं रावानिशाबल्लभ
तं वन्दे खलु शंभवं भवहरं ससौख्यसम्पत्करम् ॥३३॥ वन्देऽहं वसुपूज्य जिनपति मोक्षार्गलोद्घाटकम्॥४२॥ यस्य ज्ञानदिवाकरेण दलितं भवान्तं ततं सर्वतो
तीराम्भोनिधिफेनपुञ्जविलसद्यत्वातिसंघट्टतो. नो लेभे वसुधातले क्वचिदपि स्थानं भ्रममन्ततम् ।
राहुनीलगिरिः पयोदसहितं खं नीलनीरेभवं । लोकालोकपदार्थयोधनकरं सद्देशनातत्पर
भृङ्गा मत्तमतङ्गजाश्च जगतो लुप्ता बभूवुस्तरी तं वन्दे यभिनन्दननं जनचयानन्दस्य संवर्धनम्॥३४॥
तं वन्दे विमलं मलोम्भिततम श्रीतीर्थनाथाधिपम् । ४३॥ शुक्लध्यानकृपाणखण्डितरिपुः स्वाधीनता प्राप्नुवन् । सम्यग्दर्शनबोधवृत्तसुतपः क्षान्त्यादयो यद्गुणा
स्वच्छाकाशनिकाशचेतनगुणं चासाद्य य: स्वात्मनः । अन्तं नो छ पयान्ति देवगुरुणा संवर्ण्यमानाचिरम् । लेभेऽनन्तमनश्वरं सुखबरं स्वामोद्रवं स्वात्मनि । श्रीमन्तं सुरराजपूजितपदं कल्याणमालास्पद
तं वन्दे सुमति सदाशुभमनि कल्याणमालाश्रितम्॥३५॥ वन्देऽनन्तजिनेश्वरं भयहरं तं कीर्तिसम्पाद्धरम् ।।४। यत्कीर्या धवलीकृते धवलया लोके सलोको हलि:
यः सज्ज्ञानविभूषितः सुरचयाः पूजन्ति यं सन्ततंपाथोधि पयसां हरो हरगिरि हंसश्च हंसी तथा। ध्वस्तो येन मनोभवो बुधानो यस्मै सदा तिष्ठते । शक्रः शक्रकरेणुकं मृगयते राहुश्च राहुद्विषं
यस्मान्मोहपरम्परा विगलिता यस्यास्ति दासो जगद्तं वन्दे कमलापति शिवपतिं पनप्रभं मप्रभम् ॥३६॥ ___ यस्मिल्लीनतमो विकल्पनिचयस्तं धर्मनाथं भजे ॥५॥ लोकानन्दपयोधिवर्धनपरो योऽपूर्वताराधिपो
चित्तक्षोभकरेण येन नितरां चक्रेण संतापिता मिथ्याबोधनिशाविनाशनकरो यो वासराधीशिता। योद्वारः प्रतिपक्षिपक्षसहिता राज्यस्य काले सदा । संसाराधिनिमग्नजन्तुतरणियों ज्ञानवाराकर
ध्यानाहून भयङ्करेण सुतरा चक्रण कामादयोस्तंवन्दे भवपाशनाशनका श्रीमत्सुपाश्वं प्रभुम्॥३७॥ वीराश्चापि हताः समाधिसमये शान्ति स शान्ति क्रियात्।४६ शास्त्र-क्षीरपयोधिमन्यनकरो यो ऽमन्यो मन्दर
यस्य शान्तिदयाभिधानयमुनाभागीरथीसंगमे सवृत्तादिसुरत्नपोषणपणे यो रोहणो भूधर. स्नावा यान्ति जनाः शरीरनिचयं त्यक्त्वा शिवं सुंदरम् । यो लोकबृजपापतापहरणे साम्भाः पदम्मोधर
कुन्थ्वाद्या अपि जन्तवो निजकृपाभारेण संरक्षितास्तं वन्दे किल चन्द्रसन्निभरुचि चन्द्रप्रभ भास्वरम्॥३८॥ येनानन्दभृतं भजामि सततं तं कुन्थुनाथं जिनम् ॥४७॥ सत्कारुण्यमहोदधि गुणनिधि सम्प्रीतिपाथोनिधि
शुक्ल ध्यानकृपाण मत्र सुसरामादाय येन क्षिती सद्वोधाहिमरश्मिलोक्तिजगत्काष्टावधि सद्विधिम् ।
मोहाद्या रिपवो इता वसुमिता लोकाहिता विग्रहे। पादाब्जानतदेवराजशिरसं सवीतिमन्तं प्रभु
प्राप्ता मुक्ति.वधूर्ववृत्तमशिरोभूता च येन स्वयं वन्देऽहं विपदन्तकारकममु श्रीपुष्पदन्तं जिनम्॥३६॥ वन्देऽरं भगधन्त भुजमति तीर्थेश्वरं चेतसा ।५८) यस्य ज्ञानदिवेन्द्रदिन्यविपुलालोकेऽखिलालोव ने
यस्य ज्ञानमहोदधौ जगदिदं बुद्बुदनिभं भासते नानाशैलशिखामणिःसुरमणे:क्रीडाकदम्बोछित । यद्गाम्भीर्यगुणस्य हन्तः पुरतः सिन्धुः स तुच्छो भवत । आक्रान्तत्रिजगत्तलोऽचलपतिौर: स कीट,यते
यद्धैर्येण तिरस्कृतो रतिपति ने न कुत्रोद्गतवन्दे तं जिनशीतलं शुभतमं भव्य स्मनो सौख्यदम् ॥४०॥ स्तं वन्दे मुनिनाथमल्लिजिनपं श्रीतीर्थनाथाधिपम् ।४६ येनामन्दकृपाभरेण नितां पारं भवाब्धेः पर
पचन्द्रमरीचिसलिभरुधिर्विद्वन्मरालाश्रिता तीवांहापरिषनिमग्नमनसः संप्रापिता: पूरुषाः।
यस्योद्वोधमहोमिमाल्पमिलिता सनीतिमन्दाकिनी।
चित्तशाम
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण३-४]
सामायिक पाठः
१३७
लोकातापतिं सदा तितितले लोपं नयन्ती बभौ
तं वन्दे मुनिराजपूजितपदं श्रीसुक्त सुव्रतम् ॥१०॥ यद्वक्त्रप्रभया पराजिततमो राकाशशी प्रत्यहं
काश्य याति शरीरभाभरजितं के च भास्वदलम् । लज/तापचयापहारमनसा मग्नं जले निग्यश--
स्तं वन्दे नमिनाथमुन्नतमात श्रीतीर्थनाथेश्वरम् ॥५॥ कष्ट भो क्षणभंगुरं लघुतरं दुःखान्तमन्तात्मक
राज्यं लब्धुमहो न हन्त! कुरुते मायांन कां को जनः । इत्थं येन विचारितं नुरिपोर्ट ट्वामहामायितां
बाल्ये चैवडियोज्य ज्यतभवाने में नमामो हि तम्॥५२॥ येन ध्यानगुण गुना रिपुकृता सोडा वितिने
येन ध्यानहुताशने तिपातेनीतः समिद पताम् । यद्वाण्या शुभया जितो मधुरिमा पीयूषपिण्डस्य तं
वन्दे स्वाभाविभासितांदशा पाच हि पावभजे॥५३॥ दृष्ट्वा येन भवस्थ दुःस्वपरणि राज्यादिकं प्रोम्मत
बाल्य चैव पराजितो हरिमुतो येन क्षिती तेजसा । यं ध्यायन्ति मनीषिणः प्रतिदिनं मोक्षस्य संप्राप्तये तं सिद्धार्थनरेन्द्रनन्दनमहं भवायाभजे सन्ततम् ॥५४॥
(आर्या) इथं श्लोककलापं, निपठन् साधुः समाहितः सम्यक् । विदर्धात कर्म तुयं बुधजनवन्यं स्तुतियानम् ॥५॥
- इति स्तुतिकर्म *
(बसन्ततिलका) हे वीर ! हे गुणनिधे । निशलातनूज ! मजन्तमत्र भववारिनिधी दयालो! दत्त्वावलम्बनमतः कुरु मां विदूर मुवा भवन्तमिहकं शरणं ब्रजामि ॥५६॥ पापप्रचण्डवनवहिशमं नदीप्णं सच्चातकावलितृषापरिहारदक्षम् । सन्मानसस्यपरिवृद्धिकरं समन्तात् तं वीरवारिदमहं विनमामि सम्यक् ॥ ५६ ॥ प्रानन्दमन्दिरममन्दमनिन्धमाद्यं पन्दारुवन्दपरिवन्धपदारविन्दम् । कुन्दातिसुन्दरयशो विजितेन्दुविम्ब बन्दे मुदा जिनपतिं वरवीरनाथम् ॥ ५७ ।।
गन्धर्वगीतगुणगौरवशोभमानं सद्बोधदिन्यमहसा महता सुयुक्तम् । बन्दे जिनं जितभवं खलु बईमान संबधमानमहिमानमुद रमोदात् ॥ ८ ॥ नीहारहार हरहास सहासकाशसंकाशकीर्ति मतिवीर मुदारबोधम् । देवेन्द्रवृन्दपरिवन्दित पादपन चन्दे विभु जिनपतिं त्रिशला तनूजम् ॥५६॥
(द्रतविलम्बितम) इति विनम्य महामुनिसन्मति जिनपति सरलाकृतिमन्तिमम् । सुविदधातु यतिवर बन्दनाभिधमिदं यतिकर्म च पञ्चमम् ।।
* इति वन्दनाकर्म
(रथोद्धता) शुक्रशोणितसमूहसंभवं श्लेष्ममूत्रमलपुअसंचितम् । नश्वरं विविधतरोगसंगतं कायमेव बहुदुःखद सताम् ॥६॥ कायबन्धनगृहे समन्ततो. चेष्टितेकरमरक्षकवजैः । हन्त हन्त बहुदुःखसंचयं याति जीव इ सन्ततं भ्रमन् ।६२॥ पोषणे न वपुषः सुखं भवे
छोषणे न नितरां भवेत्त मत् । तेन कायपरिहाणिरेव हि श्रेयसे बुधऊनाभिसंमता ।। इन्द्र-काल-धननाथपाशिनां दिर यास्ति जिनमन्दिरावलिः । तां नमामि घरभक्तिभावत: पापपुजपरिहारहेतवे ।। मानते शिरसि पाणिकुमलं संनिधाय विदधे शिरोनतिम् । कायचित्तवञ्चसांच शुद्धये वो करोमि सकतक्रियाततिम् ।।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
सन्ति ये भुवनमध्यसंगताः कृत्रिमास्तदितरे जिनालयाः । तेषु याश्व जिननाथभूर्तयस्ता नमामि सकलाः कलाचिताः । ६६ । यो विदेहभुवि विद्यते सदा
तीर्थनाथ निचय: सूपूजितः । ज्ञानसूर्य विदिता खिलावनि-स्तं नमामि वसुकर्महानये ॥ ६७ ॥ यत्र यत्र खलु ये महर्षयः सन्ति संयमधरायतीश्वराः । तानमामि हृदयेन सन्ततं प्राप्तये सकल संयमावलेः ॥ ६८ ॥ नास्ति नास्तिभुवनत्रये कचित् साम्यभावसदृशं सुखप्रदम् । साम्यमेव विनिहन्ति वैरितां
बासी - फूल
[ श्री 'भगवत्' जैन ]
अनेकान्त
[ वर्ष ५
साम्यमेव विदधाति बन्धुताम् ॥ ६६ ॥ ( बसन्ततिलका ) पापं विलुम्पति नृणां मुदमादधाति वैरं निहन्ति सकलं विदधाति मैत्रीम् । दुष्टेन्द्रियाश्वविजयं वितनोति सम्यक् किं किं न सौख्य निचयं विदधाति साम्यम् ॥ ७० ॥ ( शालिनी )
एवं पप्ष्टं कर्मकृग्वा सुभक्त्या
का
सौख्यदं साधुसंधैः । श्रात्मध्यानालीनचेतोविकल्पैः संध्या संध्यां क्रियतां साम्तभावः ॥७१॥
* इति कायो सर्गकर्म *
पन्नालाल कृतः सामायिक पाठः सुखप्रदः । भूयात्साधु मनोध्वान्त ध्वंस ने तिग्मदीधितिः ॥७२॥
कल मेरी इस सुन्दरता पर फूले नहीं समाते थे ! देख देख प्रमुदित होते थे, श्रादर से अपनाते थे !! लेकिन आज वही निर्दय हो, निष्ठुरता दिखलाते हैं ! अपनाना तो दूर रहा, उलटा मुझको ठुकराते हैं !!
रहने दे, मत छेद, धूलमें मुझको अब दुनिया को उसके दुलारका सच्चा रूप
कल सङ्घर्ष वे लालायित थे, अपने गले लगाने को । आज वही हैं बुरा कह रहे, अरे दैव ! कुछ ही घंटो मे तिरस्कार की चट्टानों पर
छूने और छुयाने को !! क्या परिवर्तन कर डाला ! पटक दिया जीवन प्याला !!
अगर यही दुख देना था तो क्यों सन्मान दिलाया था ? पद-रज क्यों रहने न दिया, क्यों मुझको फूल बनाया था ? नहीं जानता क्या ? गिरने से मिलती है दारुण पीड़ा ! फिर क्यों, मेरे स्वाभिमान के साथ कर रहा तू क्रीड़ा ?
छिप जाने दे ! दिलाने दे !!
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
* वादिराजसूरि *
[लेखक-श्री पं० नाथूराम प्रेमी]
परिचय और कीर्तन
इन जुदा जुदा धर्म-गुरुकि एकीभूतप्रतिनिधिमे जान
पड़ते है। दिगम्बर सम्प्रदायम जो बड़े बड़े तार्किक हुए मालपण-प्रशस्ति में उनकी और भी अधिक हे, वादिराजसूरि उन्हीम से एक है। वे प्रमय
प्रशमा की गई है और उन्हें महान वादी, विजेता भार कमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्रादिके कत्ताप्रभाचन्द्राचाय कवि प्रकट किया गया है। के समकालीन है भार उन्हीक समान भट्टाफलंकदेवक एक न्याय-ग्रन्थके टोकाकार भी।
४ सदमि यदकलङ्कः कीतने धर्मकीर्ति
चमि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः। तार्किक होकर भी वे उच्चकोटिक कवि थे और
हात ममयगुरूणामकत: सगताना इस दृष्टिमे उनकी तुलना सोमदेवसूरिसे की जा सकती
प्रतिनिधिवि देवो रात वादिगजः ॥ इ० न० ३६ है जिनकी बुद्धिरूप गउने जीवन-भर शुष्क तकरूप
५ यह प्रशस्ति श० सं० १०५० (वि० स० ११८५) की घास खाकर काव्यदुग्ध सहृदयजनोको तृप्त किया था।
उकाणं की हुई है। वादिराज मिल या द्राविड़ संघके थे। इस संघमे भी एक नन्दिमंघ' था, जिसकी अरुंगल शाखाक ये
६ लाक्यदीपका वाणी द्वाभ्यामेगोदगादिह । श्राचार्य थे। अरुंगल किमी स्थान या ग्रामका नाम
जिनगजत एक स्मादेकस्माद्वाविंग जतःः ॥ ४० ॥
श्रारुद्वाम्बामिन्दुबिम्बराचतोत्सुक्य मदा यद्यशथा, जहॉकी मुनिपरम्परा अरुंगलान्वय कहलाती थी।
श्छत्रंबाकुनमगजगजरुनयोऽभ्यर्ण च यत्कर्णयोः । षट्नर्कपण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेक
मव्यः मिहममर्त्य रीठावभाः मर्वप्रवादिप्रजा-- मल्लवादिर उनकी उपाधियाँ थी । एकीभावस्तोत्रक
दनोच्चैजयकारमारमाहमाश्रीवादगमो विदाम ॥४१॥ अन्तमें एक श्लोक है जिसका अर्थ है कि सारेशाब्दिक
यदोयगुणगोचरोऽयं वचनविलामप्रमर: कवीनाम्(वैयाकरण ) तार्षिक और भव्यसहायक वादिराज
श्रीमचौलुक्य नश्वर जयकटके वाग्यधूजन्मभूमी, से पीछे है, अर्थात उनकी बराबरी कोई नहीं कर
निष्काण्डं डिण्डिमः पर्यटति पटुम्टो वादिगजस्य जिणोः। सकता | एक शिलालेग्बमें कहा है कि सभामे वे अक
माद्यवाददो जहीह गमकता गर्वभूमा जहाहि, लक देव (जैन), धर्मकीर्ति (बौद्ध),वृहम्पनि (चार्वाक),
व्यवहारयों नहीहि स्फुट-मृदुमधुर-श्रव्यकाव्यावले ॥४२॥ और गोतम (नैयायिक) के तुल्य हैं और इस तरह वे
पाताले व्यालगजो वसात सुविदितं यस्य जिह्वामहलं, १ देग्यो 'यापनीय माहित्यकी खोज।' अनेकान्त वर्ष ३ पृ०६७ निर्गन्ता स्वर्गतोऽमौन भवति धिषणो वज्रभृद्यस्य शिष्यः । २ षट्तकपणमुख स्याद्वादविद्यापतिगलु जगदेवमल्लवादिगलु जीवेतान्नावदेतो निलयबलवशाद्वादिन: केत्र नान्ये,
एनिमिद श्रीवादिराजदेवरूम् ।'-मि. राईसद्वारामम्पादिन ग निमुच्य मर्व जयिनमिन-सभेवादिराजं नमन्ति ||४|| नगर ताल्लुकाके इन्स्क्रप्शन्स नं. ३६ ।
वाग्देवीसुचिम्प्रयोगसुदृढप्रेमाणमायादग३ वादिराजमनु शान्दिकलाको वादिराजमनु तार्किकमिहः। दादत्ते मम पार्यतोऽयमधुना श्रीनादिराजी मुनिः। वादिराजमनुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहाय: ।- भो भो पश्यत पश्यतेप यामना कि धर्म इत्युच्चकै
-एकीभावस्तोत्र , रब्रह्मण्यागः पुगतनमुने वृत्तयः पान्तु वः ॥४४॥
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
अनेकान्त
श्रीपाल देव प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य और रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरणको टीका) के कर्ता दापाल मुनि सतीर्थ या गुरुभाई थे । वादिराज यह एक तरहको पदवी या विशेषण है जो अधिक प्रचलित होनेके कारण नाम ही बन गया जान पड़ता हूँ, परन्तु वास्तव नाम कुछ और ही होगा, जिस तरह वादी सिंह का असल नाम श्रजितमेन' था । समकालीन राजा
चालुक्यनरेश जयसिंह देवर्क. राजसभा में इनका बड़ा सम्मान था और ये प्रख्यातवादी गिने जाते थे । मल्लिषेण प्रशस्ति के अनुसार जयसिंहद्वारा ये पूजित भी थे - 'सिंहममर्च्य पीठविभवः ।'
जयसिंह (प्रथम) दक्षिण के स. लंकी वंशके प्रसिद्ध महाराजा थे। पृथ्वी वल्लभ महाराजाविराज, परमेश्वर, चालुक्यचक्रेश्र, परमभट्टारक, जगदेकमल्ल आदि उनका उपाधियाँ थी। इनके राज्यकालके तीससे उपर शिलालेख दानपत्र आदि मिल चुके हैं जिनमे पहला
० सं० ६३८ वा है और श० सं० ६६४ का । कमसे कम ६३८ से ६६४ तक तो उनका राज्यकाल निर्विवाद है । उनके प.पवदी द्वितीया श० सं० ६४५ के एक लेख उन्हें भोजन कमलके लिये चन्द्र, राजेन्द्रच. ल (परकेसरीवर्मा) रूप हाथी के लिये सिंह, मालवेको सम्मिलित सेनाको पराजित करने वाला ओर चेर-चोल राजाओ को दण्ड देने वाला लिखा है।
वादिराजते अपना पार्श्वनाथचरित सिंहचक्रेश्वर या चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंहदेवकी राजधानीमे ही निवास करते हुये श० सं० १४७ की कार्तिक सुदी ३ ७ हितपिया यस्य नृणामुदात्तवाचा निबद्धा हिनरूपसिद्धिः । बन्द्रो दयापालमुनिः स वा वा सिद्धस्सताम्मूर्द्धनि यः प्रभायैः ॥ ८ सकलभुवनपालानम्रमूढविद्ध
[ वर्ष ५
को बनाया था । यह जयसिह का ही राज्य काल है । यह राजधानी लक्ष्मीका निवास थी और सरस्वती देवी (बाग्वधू) की जन्मभूमि थी ।
यशोधरचरितके तीसरे सर्गक अन्तिम ८५ पद्म में और च सर्गक उपान्त्य पद्म में कविने चतुराईम महाराजा जयसिंहका उल्लेख किया है । इसमें मालूम होता है कि यशोधरचरितकी रचना भी जयसिह समयम हुई है ।
राजधानी
स्फुरितमुकुटचूडालीढपादारविन्दाः | मदवदखिनवादीभेन्द्रकुंभप्रभेदी
गणभृजित सेनो भानि वादीभसिंहः ||५७॥ म० प्र० ६ वादिराज की पदवी 'नगदेकमल्ल बादि' है । क्या आश्चर्य जो उसका अर्थ 'जगदेकमल्ल (जयसिह) का वादि' ही हो।
चालुक्य जयसिहकी राजधानी वहाँ थी, इस्का अभी तक ठीक ठीक पता नही लगा है । परन्तु पार्श्वनाथ चरित्रको प्रशस्तिके छठे श्लोकसे ऐसा मालूम होता है कि वह 'कट्टगेरी' नामक स्थानम होगी, जो इस समय मद्रास सदर्न मराठा रेल्वे की गदग होटगी शाखा र एक साधारण सा गांव है और जो बदामी १२ मील उत्तर की अर है। यह पुराना शहर है और इसके चारो ओर अब भी शहर पनाह चिह्न मौजूद हैं । उक्त श्लोकका पूर्वार्द्ध मुद्रित प्रतिसे इस प्रकार है :
लक्ष्मी वासे वसति कटके कट्टगातीरभूमौ कामावातिप्रमदसुभगे सिहचक्रेश्वरस्य । इसमे सिंहचक्रेश्वर अर्थात् जयसिंहदेवकी राजधानी (कफ) का वर्णन है जहां रहते हुये ग्रन्थकर्त्ताने पार्श्वनाथ चरितकी रचना की थी । इसमें राजधानीका नाम अवश्य होना चाहिये; परन्तु उक्त पाठ उसका पता नही चलता । सिर्फ इतना मालूम होता है कि वहां लक्ष्मीका निवास था, और वह कट्टगानदीके तीर की भूमिपर थी। हमारा अनुमान है कि शुद्धपाठ 'कट्टगेरीतिभूमौ' होगा, जो उत्तरभारत के श्रर्द्धदग्ध लेखकों की कृपासे 'कट्टगातीरभूमौ' बन गया है । उन्हें क्या पता कि 'कट्टगेरी' जैसा अड़बड़ नाम भी किसी राजधानीका हो सकता है ?
जयसिंह पुत्र सोमेश्वर या हवमल्लने 'कल्याण' नामक नगरी बसाई और वहाँ अपनी राजधानी १०व्यातन्वज्जयसिहता रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम् । ११रणमुखजयसिहोराजलक्ष्मी बभार ॥
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
वादिराजसरि
स्थापित की। इसका उल्लेख विल्हणने अपने (विक्रमांक- वादिराज की गुरु-शिष्य-परम्परा मटाधीशोकी परम्परा देवचरित' में किया है।१२ कल्याण का नाम इसके थी, जिसमें दान लिया भी जाता था और दिया भी पहले के किसी भी शिलालेख या ताम्रपत्रमें उपलब्ध जाता था । वे स्वयं जैनमन्दिर बनवाते थे, उनका नही हुआ है, अतएव इसके पहले चौलुक्योकी राज- जीर्णोद्धार कराते थे भार अन्य मुनियों के आहार-दान धानी 'कट्टगेरी' में ही रही होगी । इस स्थानमे की भी व्यवस्था करते थे। उनका 'भव्यसहाय' विशेषण चालुक्य विक्रमादित्य (द्वि०) का ई० स० १०६ का भी इमी दानरूप सहायताको ओर संकेत करता है। कनड़ी शिलालेख भी मिला है जिससे उसका चालुक्य इसके सिवाय वे राजाश्रो के दरबारमे उपस्थित होते राज्यके अन्तर्गत होना स्पष्ट होता है। कट्टगा नामकी थे श्रर वहाँ वाद-विवाद करके वादियोंपर विजय कोई नदी उस तरफ नहीं है।
प्राप्त करते थे। मठाधीश
देवमेनरिक दर्शनमारके अनुसार द्राविड़ के
मुनि कक्छ, खेत, वसति (मन्दिर) और वाणिज्य करके पार्श्वनाथचरितकी प्रशस्तिमे वादिराजसूरिने
जीविका करते थे । और शीतल जलसे स्नान करते अपने दादागुरु श्रीपालदेवको 'सिहपुरैकमुख्य' लिखा
थे । मन्दिर बनाने की बात तो उ.पर आ चुकी है, है और न्यायविनिवय-विवरणकी प्रशस्तिमें अपने
रही खत-बारी, सो जब जारी थी तब ६६ हे ती ही आपको भी 'सिंहपुरेश्वर' लिखा है। इन दोनो शब्दों
होगी और श्रानुषङ्गिकरूपमे वाणिज्य भी। इसलिये का अर्थ यही मालूम होता है कि वे सिंहपुर नामक
शायद दर्शनसारमें द्राविड़ संघको जैनभास पहा स्थानक स्वामी थे, अर्थात सिंहपुर उन्हें जागीरमें
गया है। मिला हुआ था और शायद वही पर उनका मठ था। श्रवणवेल्गोलके ४६३ नम्बरके शिलालेखमें जो
कुष्ठरोगकी कथा श०सं०१०४७ का उत्कीर्ण किया हुआ है-वादिराज वादिगजसूरिके विषय में एक चमत्कारकारिणी की ही शिप्यपरम्पराके श्रीपाल विद्यदेवको होयसल- कथा प्रचलित है कि उन्हे बुष्ठरोग हो गया था। एक नरेश विजयवर्द्धन पोयसलदेवके द्वारा जिनमन्दिरोके बार गजाके दरबारमे इसकी चर्चा हुई तो उनके जीर्णोद्धार और ऋपियोको आहार-दानके हेतु शल्य
एक अनन्य भक्तने अपने गरके अपवादकं भयमे झूठ नामक गांवको दानस्वरूप देनेका वणन है और.४६५ ही कह दिया कि "उन्हे के ई रग नही है।' इसपर नम्बर के शिलालेखमें-जो श० सं० ११२२ क बहस छिड़ गई और श्राखिर गजाने कहा कि "मैं के लगभग का उत्कीरण किया हुआ है-लिखा है कि स्वयं इसकी जॉच करूंगा।" भक्त घबड़ाया हुआ गुरु षड्दर्शनके अध्येता श्रीपालदेवके स्वर्गवास होने पर जीके पास गया और बोला "मेरी लाज अब आपके उनके शिष्य वादिराज' (द्वितीय) ने 'परवादिमल्ल ही हाथ है, मैं तो वह आया ।" इसपर गुरुजीने जिनालय' नामका मन्दिर निर्माण कराया और उसके
दिलासा दी पर कहा, "धर्मक प्रसादसे सब ठीक होगा, पूजन तथा मुनियोके आहार-दानके लिये कुछ भमिका चिन्ता मत करो।" इम्क बाद उन्होने कीभावस्तोत्र दान किया।
की रचना की और उसके प्रभावसे उनका कुष्ठ दूर ___ इन मब बातोंसे साफ समझमें आता है कि हो गया। १२ मर्ग २ श्नाक १
एकीभावकी चन्द्रकीर्ति भट्टारककृत संस्कृत टीकामें १३ इस मुनिपरम्पराम वादिगज और श्रीपालदेव नामके कई यह पूरी कथा तो नहीं दी है परन्तु चौथे श्लोककी
श्राचार्य हो गये हैं । ये वादिगज दूसरे हैं। ये गंगनरेश टीका करते हुए लिखा है कि "मेरे अन्तःकरणमें जब राचमल्ल चतुर्थ या सत्यवाक्य के गुरु थे।
आप प्रतिष्ठित हैं तब मेरा यह कुष्ठरोगाकान्त शरीर
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४२
अनेकान्त
वर्ष ५
यदि सुवर्ण हो जाय तो क्या आश्चर्य है ४?" अर्थात् मय कर दिया था, तब ध्यानके द्वारा मेरे अन्तरमें चन्द्रकीर्तिजी उक्त कथासे परिचित थे। परन्तु जहाँ प्रवेश करके यदि आप मेरे इस शरीरको सुवर्णमय कर तक हम जानते है यह कथा बहुत पुरानी नही है और दे तो कोई आश्चर्य नही है। यह एक भक्त कविकी उन लोगों द्वारा गढ़ी गई है जो ऐसे चमत्कारोसे ही सुन्दर और अनूठी उत्प्रेक्षा है, जिसमें वह अपनेको श्राचार्यों श्रार भट्टारकों की प्रतिष्ठाका माप किया करते कर्मोकी मलिनतामे रहित सुवर्ण या उज्ज्वल बनाना थे। अमावसके दिन पूनों के चन्द्रमाका उदय कर देना, चाहता है।। आगे ५, ६, ७ वे पद्योंमें भी इसी तरह चवालीस या अड़तालीस बेडियोको तोड़कर कैदमे से के भाव हैं:जब आप मेरी चित्तशय्यापर विश्राम करेगे, बाहर निकल आना, सॉपक काटे हुए पुत्रका तो मेरे ल शोको कैस सहन करेंगे? आपकी स्याद्वादजीवित हो जाना आदि, इस तरहकी बार भी अनेक वापिकाम स्नान करने में मेरे दुःख-सन्ताप क्यों न चमत्कारपूर्ण कथाएँ पिछले भट्टारकों की गढ़ी हुई दूर होगे ? जब आपके चरण रखनेस तीनो लोक प्रचलित है जा असंभव और अप्राकृतिक तो हैं ही* पवित्र हो जाते है तब सर्वाङ्गरूपस आपको स्पर्श जैनमुनियोक चरित्रको और उनके वास्तविक महत्व करने वाला मेरा मन क्यो कल्याणभागी न होगा? को भी नीचे गिराती हैं।
आदि। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि सच्चे मुनि सम्राट हर्षवर्धनकै समयक विषयमे भी जो अपने भक्तके भी मिथ्या भाषणका समर्थन नही करते महाकवि वाणके सुसर और सूर्यशतक नामक स्तोत्रक और न अपने रोगको छपानेकी ही कोशिश करते हैं। कर्ता हैं एक ऐसी ही कथा प्रसिद्ध है । मम्मटकृत
यदि यह घटना सत्य होती नो मल्लिपेण- काव्यप्रकाशक टीकाकार जयरामने लिखा है कि प्रशस्ति (श० सं० १०५०) तथा दमरे शिलालेखोंमें मयूर१५ कवि सौ श्लोकोसे सूर्यका स्तवन करके कुष्ठ जिनमें वादिराजमूरिकी बेहद प्रशंसा की गई है, इमका रोगसे मुक्त हो गया। सुधासागर नामक दुसरे टीकाउल्लेख अवश्य होता । परन्तु जान पड़ता है तब तक कारने लिखा है कि मयूर कवि यह निश्चय परक कि इस कथाका आविर्भाव ही न हुआ था।
या तो कुष्ठसे मुक्त हो जाऊँगा या प्राण ही छोड़ दूंगा - इसके सिवाय एकीभावके जिस चौथे पद्यका हरिद्वार गया और गंगा-तटक एक बहुत ऊँचे झाड़की श्राश्रय लेकर यह कथा गढ़ी गई है उसमें ऐसी कोई शाखापर सौ रस्सियो वाले छीकम बैठ गया और बात ही नही है जिससे उक्त घटनाकी कल्पना की सूर्यदेवकी स्तुति करने लगा। एक एक पद्यको कहकर जाय । उसमे कहा है कि जब स्वर्गलोकसे माताके वह बीकेकी एक एक रस्सी काटता जाता था । इस गर्भ में आनेके पहले ही आपने पृथ्वी मंडलको सुवर्ण- तरह करते करते सूर्य देव सन्तुष्ट हुए और उन्होंने १४ हे जिन, मम स्वान्तगेहं ममान्तःकरणमन्दिरं त्व प्रतिष्ठः।
. उसका शरीर उसी समय निरोग और सुन्दर कर सन् यत इदं मदीय कुष्ठरोगाक्रान्तं वपुः शरीरं सुवर्णी
दिया१६ । काव्यप्रकाशके तीसरे टीकाकार जगन्नाथने करोपि, नकि चित्रं तकिमाश्चर्य न किमपि आश्चर्यमित्यर्थः। १५"मयूग्नामा कवि: शतश्लोकन श्रादित्यं स्तुत्वा कुष्ठान्नि*विद्वान ले वकका यह दावा कहाँ तक ठीक है इम पर स्तीर्णः इति प्रमिद्धिः।। दूसरे विद्वानोको योग शक्ति और मंत्रशक्ति के गहरे १६पुरा किल मयूरशर्मा कुष्ठी कविः क्लेशममहिष्णुः सूर्यप्रसाअनुसंधानको मामने रखकर गंभीर नाके साथ विचार देन कुठान्निस्तराम प्राणान्वा त्यजाम इात निश्चित्य करना चाहिये । सापके डसे हुए तो अाजकल भी हरद्वारं गत्वा गंगातटे अत्युच्चशाखावलम्बी शतरज्जुमंत्रादिकके प्रभावसे अच्छे होते हुए देखे जाते हैं, इस शिवय अधिरूढः सूर्यमस्तौषीत । अकरोच्चै केकपद्यान्ते में असंभाता अप्राकृतिकता कुछ भी नहीं है।
एकैकरज्जुविच्छेदं । एवं क्रियमाणे काव्यतुष्टं। रविः सद्य एव -सम्पादक निरोगा रमणीया च तत्तनुं अकार्षांत । प्रसिद्धं तन्मयूर
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
वादिराजसूरि
१४३
भी लगभग यही बात कही है। हमारा अनुमान है इसका उल्लेख किया गया है। कि इसी सूयंशतकस्तवनको कथाके अनुक्रणपर २ यशोधरचरित-यह एक चार सर्गका ओटावादिराजमूरिक एकीभावम्तोत्रकी क्था गढ़ी गई है।
सा खण्डकाव्य है, जिसमें सब मिलाकर २६६ पद्य हैं। हिन्दुओंके देवता तो 'कन्तु मकन्तु मन्यथाकतु इसे तंजोरके स्व० टी० एस० कुप्पूस्वामी शास्त्रीने बहुत समर्थ' होते है, इमलिये उनके विषयमें इस तरहकी
समय पहले प्रकाशित किया था जो अब अनुपलभ्य कथायें कुछ अर्थ भी रखती हैं परन्तु जिन भगवान न है। इसकी रचना पार्श्वनाथचरितके बाद हुई थी। तो स्तुतियों स प्रसन्न होते हैं और न उनमें यह क्योंकि इसमें उन्होने अपने को पार्श्वनाथचरितका मामर्थ्य है कि किमी के भयंकर रोग को बात की बात
या मे दूर करदें। अतएव जैनधर्मक विश्वासों के साथ कथाओका कोई सामञ्जस्य नहीं बैठता है।*
३ एकीभावस्तोत्र-यह एक छोटा-मा २५ पद्यों ग्रन्थ-रचना
का अतिशय सुन्दर स्तोत्र है और 'एकीभावंगत वादिराजसूरिक अभी तक नीचे लिखे पाँच ग्रन्थ
इवमया' से प्रारम्भ होने के कारण एकीभाव नामसे उपलब्ध हुए हैं -
प्रसिद्ध है। १ पार्श्वनाथ रत-यह एक - मर्गका महा
४ न्यायविनश्चयविवरण--यह भट्टाकलंकदेवके काव्य है आर माणिचन्द्र जैनग्रन्थमालामे प्रकाशित हो 'न्यायविनश्चय' का भाष्य है और जैन न्याय के प्रसिद्ध चुका है। इसकी बहुत ही सुन्दर मरम और प्रौढ़ ग्रन्थों में इसकी गणना है। इसकी श्लोकसंख्या २०,००० रचना है। 'पार्श्वनाथकाकुत्स्थचरित'५८ नाममे भी है। अभी तक यह प्रकाशित नहीं हुआ है। शतक मूर्यशनका पर्यायमिति ।"
५ प्रमाणनिर्णय-प्रमाण शास्त्रका यह छोटा-सा १७श्रीमन्मयूरभट्टः पूर्व जन्मदुष्टहेतुकलितकुष्ठजुष्टो " इत्यादि। म्वतन्त्र ग्रन्थ है, जिसमें प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष और * यहो जा निकर्ष निकाला गया है वह जेनमिद्धान्तकी आगम नामके चार अध्याय हैं। माणिकचन्द्र-जैनग्रन्थहाटसे ममुचित प्रर्तन नहीं होता। इसके लिये मैं लेम्बक माला में प्रकाशित हो चुका है। महोदयका ध्यान उम तच्चकी ओर आकर्षित करना
अध्यात्माएक-यह भी एक छोटा-सा पाठ पद्यों चाहता हूँ जो स्वामी समन्तभद्र के निम्न वाक्यम
का ग्रन्थ और माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामे प्रकाशित हो मंनिहिन है
चुका है। पर यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता सुहृत्त्वयि श्री-सुभगवश्नुते द्विषत्वयि प्रत्ययवधलीयते।
कि इमक कर्त्ता ये ही वादिगज हैं। भवानुदासीनतमस्तयोरपि प्रभो परं चित्रमिदं तवे हितम् ।
(स्वयंभूस्तोत्र)
त्रैलोक्यदीपिका-इसनामका ग्रंथ भी वादिराज
-सम्पादक सूरिका होना चाहिए, जिसका संकेत ऊपर टिप्पणीमे १८ श्रीपार्श्वनाथकाकुत्स्थ चरितं येन कोनितम् ।
उद्धृत किये हुए "त्रैलोक्यदीपिका वाणी" श्रादि पटामें नेन श्रीवा। दराजेन रब्धा गाशोधरी कथा ॥१-५॥ यशोधरच० मिलता है। स्व० मट माणिकचन्द्रजीने अपने यहाँके
पहले मैंने मनमे श्रीपार्श्वनाशकाकायचरित' पदसे ग्रन्थ-संग्रहकी प्रशस्तियोका जो जिम्टर बनवाया था पार्श्वनाथचरित और काकुत्स्थ चरिन नामके दो ग्रन्थ उससे मालूम होता है कि उक्तसंग्रहमें त्रैलोक्यदीपिका' समझ लिये थे । मेरी हम भूल को मेरे बादक लेखकाने भी नामका एक अपूर्ण ग्रन्थ है जिसमें श्रादि के दम और दुहराया है । परन्तु ये दो ग्रन्थ होते तो द्विवचनान्त पद अन्तके ५८ वें पत्रमे आगेके पत्र नहीं हैं। सम्भव है होना चाहिए था, जो नहीं है । 'काकुत्स्थ' पार्श्वनाथके, यह वादिराजसूरिकी ही रचना हो । इसे करणानुयोग वंशका परिचायक है।
का ग्रन्थ लिखा है।
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४४
अनेकान्त
[वष५
पाश्वनाथचरितकी प्रशस्ति न्यायविनिश्चयविवरणको प्रशस्ति श्रीजेंनसारस्वतपुण्यतार्थनित्यावगाहामलबुद्धिसत्वैः ।। श्रीमन्न्यायविनिश्चयस्तनुभृतां चेतोदगुवानलः । प्रसिद्धभागी मुनिपुङ्गवेन्द्र: श्रीनदिसंघाऽस्तिनिवहिताहाः।
सन्मार्ग प्रतिबोधयन्नपि नि: यसप्रापराम। तस्मिन्नभूदुद्यतसंयमश्रीस्त्रविद्यविद्याधरगीतफीतिः।
येनायं जगदेकवत्सलधिया लोकोत्तरं निर्मितोसुरिःस्वयं सिंहपुरैफमुख्यः श्रीपाल देवा नयवर्मशाली।। देवस्ताफिकलोकमस्तकमाणभूयात्स :श्रयसे ॥१॥ तस्याभवद्भब्यसरोरुहाणां तमोपहानित्यमहोदयश्रीः।
विद्यानन्दमनन्तवीयसुखदं श्रीपूज्यपादं दया
पालं सन्मतिसागरं कनकसेनाराध्यमभ्युद्यमी । निषेधदुर्मार्गनयप्रभावः शिष्योत्तमः श्रीमतिसागराख्यः।३।
शुद्धयन्नोतिनरेन्द्रसेनमकलंक वादिराजं सदा तत्पादपद्मभ्रमरेण भूम्ना निश्रेयसश्र रतिले लुपेन।
श्रीमत्स्वामिसमन्तभद्रमतुलं वन्दे जिनेन्द्र मुदा ।। श्रीवादिराजेन कथानिबद्धानी स्वटु द्ध यमनियापि ।४'
भूयो भेदनयावगाहगहनं देवस्य यद्वाड मयं शाकाब्दे नगवार्धिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने कस्तद्विस्तरतो विविध्य वदितु मन्दः प्रभुर्मादृशः । मामे कार्तिकनाम्निबुद्धिमाहिते शुद्ध तृतीयादिने । स्थूलः कोऽपि न यस्तदुक्तिविषयो व्यक्तीकृतोऽयं मया सिंहे पाति जयादिके वसुमति जैनी कथेयं मया स्थ्याच्चेतसि धीमतां मतिमलप्रक्षालनकक्षमः ॥३॥ निष्पत्ति गमिता सती भवतु वः कल्याण निष्पत्तये।। __व्याख्यानरत्नमालेयं प्रस्फुरन्नयनीधितिः । लक्ष्मीवासे वसतिकटके कट्टगातीरभूमौ
क्रियतां हृदि विद्भिस्तुदनी मानसं तमः॥४॥ कामावाप्तिप्रमदसुभगे सिंहचक्रेश्वरस्य ।
श्रीमतसिंहमहीपतेः परिपदि प्रख्यातवादोन्नतिनिष्पन्नोऽयं नवरससुधास्पन्दसिन्धुप्रबंधो
स्तर्कन्यायतमोपहोदयगिरिः सारस्वतः श्रीनिधिः। जीयादच्चैजिनपतिभवप्रक्रमकान्तपुण्यः ॥६॥ शिष्यः श्रीमतिमागरस्य विदुपां पत्युस्तपः श्रीभृतां अन्यश्रीजिनदेवजन्मविभवव्यावर्णनाहारिणः
भर्तुः सिहपुरेश्वरो विजयते स्याहाविद्यापतिः॥११॥ श्रोता यः प्रसरत्प्रमोदसुभगो व्याख्यानकारी च यः। इति स्यादाविद्यापतिविरचितायां न्यायविनियसोऽयं मुक्तिवधूनिसर्गसुभगो जायेत कि कशः
तात्पर्यावद्यातिन्यां व्याख्यानरत्नमालायां सर्गात ऽप्युपयाति वाङमयलमल्लक्ष्मीपद श्रीपदम् ।।
तृतीयः प्रस्तावः समाप्तः । समाप्तमिदं पार्श्वनाथचरितम ।
समाप्तं च शास्त्रमिदम् ।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियाँ
[ले०-पं० सुमेरुचंद जैन 'दिवाकर' न्यायतीर्थ, शास्त्री 13 A L L.13]
माहेण्यके गद्य और पद्य नामके विभागों में अधिकांश के एकमात्र केन्द्र शिशुके संरक्षणार्थ महाराजने पहलेसे
"कवि ऐसे पाये जाते हैं जो एक-एक क्षेत्र में ही वायुयानके समान एक श्राकाश में उढने वाला मयूरयन्त्र अपना प्रभु'व रखते हैं। कालिदास, भारवि, भवभूति भी बनवा रखा था और उसमे युद्धकी विकट स्थितिके श्रादि कविजन पद्यके क्षेत्रमें विख्यात हैं, तब गद्यके समय महारानीको बैठाकर उद्दवा दिया था। अवसरकी क्षेत्रमें वाण श्रादिका सम्मानपूर्ण स्थान है। यह सौभाग्य बात है कि वायान श्मशान भूमिमे पहुंचा और वहाँ बिरलोशे ही प्राप्त होता है कि गद्यके समान पद्यके क्षेत्र में महारानीके एक तेजस्वी पुत्ररत्न उत्पन्न हुश्रा । महारानी भी यशस्वी होवें । अंग्रेजी साहित्यमें भी यही बात पाई तो तपस्वयोंके एक श्राश्रममे रहकर अपना समय काटने जाती है गद्य लेखकाम लेम्बुस्काट, डा. जानमन. मेकाले लगी, और एक अत्यन्त समृद्ध वणिक शिरोमणि श्रेष्ठि श्रादिका नाम प्रसिद्ध है, किन्तु वे पद्य लेखकामे अपना घर गधोतटके यहा बालकका पालन-पोषण हुश्श्रा । बालक कोई उल्लेग्वनीय स्थान नहीं बना सके। इसी प्रकार उच्च जीवंधरने पायनंदी नामके महान् श्राचार्य के द्वारा अनेक कोटिके पद्यकागोम मिल्टन, टेनीमन, शैली, वाउनिग श्रादि विद्याओंमें विदग्धता प्राप्त की। तरुण होनेपर कुमारखो का नाम लिया जाता है, किन्तु गद्य संसारमे उनकी उस ज्ञात हुया कि मैं क्षत्रियपुत्र है, मेरे राज्यका अधिकारी प्रकारकी कोई ख्याति नहीं है। उच्च गद्यलेखक और काष्ठागार बन बैठा है। कुछ समयके अनन्तर जन-धन पद्यकार होनेका सौभाग्य जैन महाकवि वादीसिहको प्राप्त प्रादि सब प्रकारों के बलोंये सुजित होकर वीरशिरोमणि है। इनके गचितामणिके पारायणसे 'वाणोरिछष्ट मिदं जीवधरने काटागारको मारकर अपने गज्यको प्राप्त किया। जगत्' की उक्ति अत्युक्तिपूर्ण प्रतीत होती है। इनका काफी समय तक वैभव-विभूतिका श्रानन्द लेकर स्थायी क्षेत्र चूडामणि ग्रन्थ काव्य-जगतका निष्कलंक दीप्तिमान शान्तिके लिए महागज जीवंधरने अपने पुत्र सत्यंधरको नक्षत्र है। इस गंथमें महाकवि वादीभसिंहने क्षत्रियोंके राज्य-भार मापकर जैनी दीक्षा धारण की और महावीर चूडामणि महागज जीवंधरके मनोहर चरित्रका अन्यन्त भगवानके शरणमे रहकर अपनी श्रामशुद्धि की तथा परम प्राकर्षण ढंगसे वर्णन किया है।
मुक्ति प्राप्त की। कथाका सार
यह कथा श्री गुणभद्राचार्य के उत्त पुराणाले भावको जीवंधरकी कथाका संक्षिप्त सार इस प्रकार है लेकर लिग्बी गई है। और भी अनेक कविडामणियोंने कि हेमांगद देशकी राजधानी राजपुरीमें जैन जीवंधर कुमारके चरित्रको वर्णन करने में अपनी लेखनीको धर्मावलम्बी महाराज सत्यधर राज्य करते थे । उन्होंने सफल किया है जिनमें महाकवि हरिचन्द्रका जीवंधरचम्पू' अपनी महारानी विजयामें प्रत्यासक्त होनेके कारण मन्त्री तथा कन्नड भाषाके ग्रंथकार तिरक्कदेवका जीवकचितामणि' काष्ठांगारके हाथमे राज्यका भार सौंप दिया। कृतघ्न काष्टां. खास तौरसे उल्लेख-योग्य हैं। गारने राज्यतृष्णाके वशीभूत होकर राज्यपर अपना कम्जा क्षयचूडामणि के रचयिताका असली नाम 'श्रोडयदेव'x कर लिया। उस समय छात्रधर्मको पालन करते हुए युद्ध- था, 'वादीभसिह' उनकी उपाध थी। उनका समय लगभूमिमें महाराज सत्यंधरका शरीरान्त हो गया। महाराजकी भग नवमी शताब्दीका अनुमान किया जाता है। रानी विजया गर्भिणी थी, अतएव सनिय राजबंशकी भाशा x देखो गद्यचितामाण १ लेक ६-७
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
साहित्यके विषयमें एक विद्वान्ने लिखा है - दृश्य उपस्थित करती है। सभाषितोंके लिखनेमें गहरे
It is the record of best thoughts अनुभव, अध्ययन तथा लोकोत्तर योग्यताकी आवश्यकता Its function is the cultivation of पडती है। यह विदग्धता तो विरलोंको ही प्राप्त होती है, sympathics and Imagination, the कि जिनके लिखे गये चार शब्दोंको सुनकर हृदय आनंदित refinement of feelings and the en- हो जाता है और लोग उन शब्दोंको कंठाभरण बना लिया largement of the moral Vision
करते हैं। टकसालमें छपे हुए सच्चे सिक्केकी किसीके "यह सर्वोच भावोंका भण्डार है। यह सहानुभूति एषं
राज्यमें जैसी इज्जत होती है, उससे अधिक सम्मान विश्वके कल्पनाशक्तिको समुन्नत करता है। इसके द्वारा भावनाएँ
साम्राज्यमे महाकवियोंकी सजीव उक्तियोंका हुश्रा करता परिशुद्ध होती हैं तथा नैतिक दृष्टि विशाल होती है।" यह
है। यही कारण है कि सुभाषितका माहात्म्य एक कवि इन बात क्षत्रचूडामणिके विषयमें पूर्णरूपमे चरितार्थ होती
शब्दोमे संकीर्तित करता है :हैं, क्योंकि ग्रंथमें सर्वत्र पवित्र विचार धाराएँ बहती हैं
सुभाषितेन गीतेन युवतीनां च लीलया । जिनमे भावनाएँ मिर्मल होती हैं और नैतिक दृष्टिकोण भी
मनोन भिद्यते यस्य स योगी ह्यथवा पशुः॥ काफी परिमार्जित तथा परिवर्धित होता है।
अर्थात्-सुभाषित, गायन तथा तरुणियोंकी विलासप्राचार्य वादीभसिंह ने एसे श्रमूल्य तथा आवनाशा युक्त चेष्ठात्रों से जिमका हृदय प्रभावित नहीं होता है वह सग्यका अपनी इस रचनामें प्रतिपादन किया है, जिसके
या तो योगी है अथवा पशु है। कारण उनकी रचना अमर हो गई है। वह देश और काल
एक कवि तो सुभाषितके उससे मुग्ध होकर यहां तक की परिधिसे परिच्छिन्न न होकर विश्वव्यापिनी कहता है(universal) हो गई है। यह कृति विद्यतके समान
द्राक्षा म्लानमुखी जाना शर्कग चाश्मतां गता। क्षणभर चमक दिग्बाकर विस्मृतिके गर्भमे लीन होनेवाली
सुभापित-रसम्याग्रे, सुधा भीता दिवं गता ॥ नहीं है, बल्कि महासागरके समान व्यापक और मेरके
अर्थात-मुभाषितके रसके श्रागे द्राक्षाका मुख मलिन समान स्थिर साहित्यकी श्रीवृद्धि करती रहेगी।
हो गया, शर्करा (शक्कर-बालूरेत.) अश्मपने (पापाणपने) सकी भाषा क्लिष्टताके द्वारा जटिल नहीं बनाई गई को प्राप्त हई.
को प्राप्त हुई और तो और अमृतको डरकर स्वर्गमें भागना है। यह सरल सरस तथा प्रसाद-गुण समन्वित काव्य पदा वैदर्भी रीतिमें लिखा गया है। इसका अलंकार सादगी है, इस ग्रन्थमें प्राय: वीर और शान्तरसका वर्णन है, स्वाभाविकता है। कृत्रिम भाषाके श्राडम्बरमें उज्ज्वल किन्तु करुण-रसकी भी पर्याप्त सामग्री पाई जाती है। भावोंको छिपाकर दुरूह बनाने की यहां चेष्टा नहीं की गई, स्वयं ग्रंथकारने इस चरित्रको अत्यन्त करुणाजनक बताया सरल, सरस, सजीव और सुरुचिपूर्ण सामग्री समन्वित है।' थोडे शब्दों में बहुत भावोको प्रदर्शित करते हुए यह ग्रंथ 'द्राक्षा' के समान छोटे बड़े सबको पालादनक है। अपनी रचनाको आकर्षक बनानेमें प्राचार्य महाराज पूर्ण ग्रंथकी खास विशेषता
सफल हुए हैं । ग्रंथको हाथमे लेनेपर पूर्ण किए बिना इस ग्रंथकी एक खास विशेषता यह है छोइनेवो जी नहीं चाहता। कि आचार्यश्रीने प्रायः प्रत्येक श्लोकके उत्तरार्धमें महाराज जीवंधरका चरित्र बड़ा ही सुन्दर चित्रित गम्भीर, मार्मिक तथा मंजुल उक्तियोंसे अमूल्य किया गया है । जीवंधरकुमारके चरित्रमें धार्मिकता, वीरता, शिक्षाएं दी हैं। वैसे तो भारवि आदि अनेक कवियोंने जितेन्द्रियता, दीनदयालुता, विश्वोपकारिता, साधुता, भी अनेक शिक्षाप्रद सूक्तियोंसे अपनी-अपनी रचनाओं को साम्राज्य-संरक्षण-पटुता, नीतिज्ञता श्रादि अनेक गुणोंका सुशोभित किया है किन्तु श्राचार्य वादीभसिंहकी इस १ श्रुतशालिन् महाभाग भूयतामिह कस्यचित् । चरनामें उक्तियोंकी विपुलता तथा गम्भीरता कुछ अपूर्व ही चरितं चरितार्थेन यदत्यर्थ दयावहम् ॥२-६
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियाँ
१४७
हम निष्कलंक समन्वय पाते हैं । कुमार के गुणों के कारण क्षण-नश्वर-मैश्वर्यमित्यर्थ सर्वथा जनः मुदर्शन यक्षने उनका नाम 'पवित्रकुमार' भी खा था। निरगषीदिमा दृष्ट्वा दृष्टान्ते हिस्सुटा मतिः॥८६॥ उनकी धार्मिकता तथा जिनेन्द्रभक्ति के कारण प्रास्तिक्या अर्थात-पूर्व में जीवोंके पापकर्मोदयकी विचित्रताका चूडामणि' के रूपमें उनका स्मरण किया गया है। कुमार वर्णन शास्त्रोंमें सुनने वाले व्यक्ति इस समय देखे कि जो के चरित्रसे इस बातका स्पष्टीकरण हो जाता है कि श्रादर्श महारानी लक्ष्मीके तुल्य थी, वही अब ऐसी हो गई है कि जैन क्षत्रियका किस प्रकार उज्वल रूप रहता है। वे रणशूर उसके पास कुछ भी नहीं बचा है। तथा धर्मवीर हुआ करते थे।
इसको देख कर लोगोंको इस बातका निर्णय कर लेना कुमारके प्रतिद्वन्दी काष्ठांगारका चरित्र अत्यन्त मलिना चाहिए कि ऐश्वर्य क्षणभरमें विनाशशील है, क्योंकि कोयलेमे भी काला बताया गया है, जिसमे काष्टांगारका उदाहरणके देखनेस बुद्धि स्पष्ट हो जाती है। पतन और पराभव देखनेकी श्राकाक्षा पाठकोंके हृदयमें अत्यन्त मृदुल शय्यापर पुष्पीके डंठल जिस महारानी शुरूप ही उत्पन्न होती है, और जिसकी पूर्ति वीरशिरोमणि को पूर्वमे संतापजनक थे अब 'दर्भशय्याप्यरोचन'-डाभ कुमारने उस दुष्टकी जिन्दगीका अंत करके की है । काष्टांगार की शैया भी अच्छी लगती है। अब अपने हाथमे काट अपनी कृतघ्नता के कारण हेमलेटमे वणित क्लाडियस' के कर लाया हुश्रा अनाज (नीवार) ही महारानीका आहार है।" ममान हीनचरित्र प्रतीत होता है, यद्यपि काष्टांगार शेक्स- वास्तवमे किसी पदार्थको मुग्वदायक या दुःखप्रद मानना पियरके क्लाडियसके समान व्यभिचारी नहीं है। इस प्राणीको मनोभावना पर निर्भर है, यही कारण है कि
जीवंधर स्वामी के पिता होने के कारण महाराज सत्यंधर अकिंचना होते हुए भी विजयादेवी अपने दुःस्वके दिन के प्रति हमारे हृदयमें सन्मानका भाव उदित होता है, बराबर काट रही थी, इसी कारण शेक्सपीयरने लिखा हैकिन्तु उनकी भोग-निमग्नता बहुत बुरी मालूम पड़ती है। There is nothing good or bad, but यह अवश्य है कि विषयोमे मग्न होते हुए भी उनमें thinking makes it so ( Hamlet क्षत्रियोचित तेजस्विता काफी मात्रामें मौजूद पाई जती है। ACT II, Scene || ) कोई चीज बुरी अथवा भली उनकी महत्ता और जीवंधरकुमार जैसे चरमशरीरी पुण्या- नहीं है, किन्तु वह हमारे विचारके द्वारा उस प्रकारकी बुरी रमाके पूज्य पिता होनेकी विशेषता हमारे अंत:करणमे तब या भली बन जाती है। अंकित होती है जब वे काष्टागारकी सेनासे युद्ध करते हुए महारानी विजयाकी अाकस्मिक धापत्ति देख कर हमें 'मुधा प्रारिणवधन किम' सोचते हुए समतापूर्वक मचे सीतादेवीके बनोवासका दृश्य स्मरण हो पाता है, जब उस वीके रूपमें मृत्युका स्वागत करते हैं और ज्ञान एवं वैराग्य सतीको कृतान्तवक्र सेनापनिने भयानक बनमे असहाय के रसम मग्न होकर अपना उद्धार कर लेते हैं। ऐसी छोद दिया था, इतना अंतर अवश्य है कि सीताके परित्याग अवस्थामें महाराज सायंधर अपनी अमिट महत्ता हृदय में मे कारण रामचन्द्रजीकी बुद्धिपूर्वक दी गई श्राज्ञा थी अंकित कर जाते हैं।
और विजयादेवीके सम्बन्धमे उसका दैव ही रूठा था, ___ महारानी विजयाको देखकर हृदयमें करुणाका सागर
जिसने भयंकर विषमपरिस्थिति उत्पन्न करदी थी । भाग्यउद्वेलित होने लगता है। कहां साम्राज्ञीके अनुरूप संपूर्ण
चक्र बदलता रहता है, उसीके अनुसार विजयादेवीके सौभाग्यकी सामग्रीका उपभोग और कहां श्मशानभूमिमें दिन भी फिरे. और जीवंधरकुमारको साम्राज्य-लाभ होने गिरना और पुत्रकी प्रमूति होना ऐसी करुण स्थितिका थोडे ।
पर विजयादेवी पुन राजप्रासादमे आकर राजमाताके किन्तु मार्मिक शब्दोंमें महाकविने इस प्रकार चित्रण किया है
अादरणीय पदपर विराजमान हुई, और कुछ समयके जीवानां पाप-वैचित्रीं श्रुतवन्तः श्रनी पुग
पश्चात साध्वीके शान्तिमय मार्गमें लग गई। पश्येयरधनानीव श्रीकल्पाभूदकिचना शारीमा
॥शा श्रेष्टि गंधोकट माता सुनंदा, नंदाढय, गंधर्वदत्ता १ देवो 'गद्यनिन्तामणि' काव्य
आदि रानियां, पद्मास्य श्रादि मित्रोंक चरित्रपर प्रकाश
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
अनेकान्त
[वर्ष ५
डालनेकी न तो विशेष आवश्यकता ही है और न स्थान विवेकपूर्वक करना चाहिये, क्यों कि वे प्रथा (dependही । अस्तु, यग्न करनेपर भी हम अदम्य साहसी स्पष्ट- 11) पुरुषके जीवनका उपाय खोजते हैं किन्तु अपना वादिताकी जीवेतमूर्ति धर्मदत्त सचिवकी निर्भीक सलाहको तिरस्कार करने वाले व्यक्तियोंका विनाश भी कर डालते हैं।' नहीं भुला सकते, जो उसने काष्टांगारको प्राणोंकी बाजी नरेशों के प्रबल प्रभाव तथा सामर्थ्यकी ओर ध्यान खेलते हुए भी दी थी, कि राजद्रोह करने में तुम्हारा कल्याण दिलाते हुए कविवर लिखते हैं किनहीं है। इसी प्रकार काष्ठांगारका साला मथन भी अपनी अकुतोभीतिता भूमे पानामाझयान्यथा। दुष्टतापूर्ण अमन चेष्टाओं के कारण ठोक धर्मदत्तका विपरीत आस्तामन्यत्सुवृत्तानां वृतांच नहि सुस्थितम॥३-४२ रूप प्रतीत होता है। यदि धर्मदत्त प्रकाशरूप कहा जाय, अर्थात्-राजाकी प्राज्ञाके अनुसार प्रवृत्ति करनेमे तो मथनको अंधकारकी उपमा देना बहुत उपयुक्त होगा। किसी प्रकारका भय नही होता, किन्तु उनके प्रतिकूल
अब हम पाठकोंका ध्यान ग्रंथकी मार्मिक बातोंकी ओर प्रवृत्ति करनेसे और तो क्या बड़े बड़े सदाचारियों तकका घाकर्षित करेंगे।
___ चारित्र ठिकाने नहीं रह सकता। धर्म और अर्थ
अपने शासनको सफलतापूर्वक चलानेके लिए एक समय था जब लोग धर्मका अधिक
राजयोंको बहुमुखी नीतियोंका अवलम्बन लेना पड़ता है।
इसका कारण यह है कि उनको विलक्षण प्रकृतिके मानर्वोमे आदर किया करते थे किन्नु आजकल धर्मके स्थान को अर्थने ग्रहण कर लिया है। उसी अर्थ समस्याके ही
काम पढ़ता रहता है अतएव बन्ने विवेक और चतुरताके परिणाम फैसिज्म, मोशलिज्म, इम्पीरियलिज्म, आदि
साथ कार्य करते रहनेपर वे सफल शामक हो पाते हैं।
महाकवि शासकके लिए यह बात बताते हैं, कि उसे नवीन नवीन वाद उठ खड़े हुए हैं। जीवनकी प्रवृत्तिको
सहमा अपने हृदयका भी विश्वास नही करना चाहिये । देखते हुए ज्ञात होता है कि लोग अधिकतर किसी भी
देखिए वे क्या कहते हैंउपायसे अपनी भोग-लिप्साको पूर्ण करने में संलग्न
हृदयं च न विश्वास्यं राजभिः किं पगे नरः। नजर आते हैं। ऐसी धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ सम्बन्धी
किन्तु विश्वस्तवदृश्यो नटायन्ते हि भभुजः१-१५ विषम परिस्थितिक विषयमे श्राचार्य वादीभ सहने संघर्ष
श्रत-राजाओंको (सहसा) अपने हृदयपर भी निवारणकी एक सुन्दर बात कही है
विश्वास नही करना चाहिए, अन्य पुरुषकी तो बात ही परस्पराविरोधेन त्रिवर्गा यदि मेव्यते
दूसरी है, किन्तु विश्वस्तके समान अपनेको दिखाना अनर्गलमतः माख्यमपवर्गाऽप्यनुकमात् ॥१-१६ चाहिये । राजाओंका भाचरण नरके समान होता है। अर्थात-परस्पर अवि रूप यदि धर्म, अर्थ और काम- राजाके लिए यह भी उचित है कि वह पनी यात्वो रूप त्रिवर्गका सेवन किया जाय, तो निष्कंटक सुख मिलता गोप्य रखे तथा जब तक इ कार्य की सिद्धि नहीं होती है. है, तथा क्रमसे मुक्ति भी प्राप्त होती है।
तब तक शत्रुकी भी आराधना करे।। इसका कारण महाकवि हरिचंद्रने यह बताया कि काम
"श्रा समीहितनिप्पोगराध्याः म्बलु वैरिण :"||१०-२२ पुरुषार्थका मूलकारण धर्म और अर्थ पुरुषार्थ है। संपत्ति
इसी नीतिका अवलंबन जीबंधर स्वामीके मामा की प्राप्तिके लिए धर्मका पालन होना भी जरूरी है। जिन
महाराज गोविन्दराजने दिया था, यद्यपि वे पापी काष्टांगार को एकान्तरूपसे धर्मप्रिय है उनके लिए महाकविने तपोवन
का विनाश हृदयसे चाहते थे, फिर भी अनुकूल समयकी की ओर जानेकी सलाह दी 'वनमेव सेव्यताम्' (धर्मशर्मा
प्रतीक्षा करते हुए उन्होंने काष्टांगारके साथ जाहिरा तौर भ्युदय)। राजनीति
अपना स्नेहभाव प्रदर्शनमें किसी प्रकार कमी न की। राजनीतिक विषपमें विचार करते हुए अधिना जीवनोपायमपायं चाभिमाावनाम् । प्राचार्य लिखते हैं कि राजाओंकी आराधना अभिके समान कुर्वन्तः खलु राजान: सेव्या इव्यवहा यथा ॥ १०-५ ॥
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १-२
चूड़ामणि और उसकी सुकियाँ
जिसके प्राणों के वे प्यासे थे, उसके ही पास उन्होंने भेट भेजकर बाह्य रूपसे सम्मानका भाव प्रदर्शित किया था।' मुद्राराक्षसमें राजनीतिकी विचित्रताका इन शब्दोंमे वर्णन किया गया है
मुह दयोदा मुरधिगमाभावगहना मुह मंत्री मुहरतिकृशा कार्यशतः । मुहश्यामुपापितले
यो चित्राकारा नियतिरिव नी तिर्नयविदः ।।५-३।। अर्थात कमी उसका स्पस्ट प्रतीत होता है, कभी वह गहन हो जाती है और उसका ज्ञान नहीं हो पाता, प्रयोअन कभी संयुक्त होती है और कभी न सूक्ष्म हो जाती है, कभी तो उसका बीज ही विनष्ट प्रतीत होता है और कभी वह बहुत फलवाली हा जाती है। यो ! नीतिजकी नीति के सहरा विचित्र आकार वाली होती है ।
कोष के कारण नरेशोंका विवेक-चक्षु श्रंधा बन जाता हैं, इस कारण वे अपने विद्वेदीका यथाशक्ति नाश करते हुए, उनमे सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियोंका भी संहार करनेसे नही चूका करते । महाकवि वादीभसिंहने जीवंधर कुमारको इस दुर्बलतासे दूर बताया है । काष्ठांगार जैसे पापीका संहार करने के श्रनंतर महाराज जीवंधरने काष्टांगार के कुटुम्बीनी के प्रति शनिक भी निरसा वा नृशंसनाका निष्ठुरता बर्ताव नही किया, प्रत्युत श्रपनी उदारताका परिचय देते हुए उनने काष्टांगारकी पत्नी श्रादिकोंको सान्वनारूप वाक्य कहे। इस प्रसंग आचार्य एक सुंदर नीति कहते हैं न म्यानपि रुद् सताम् 'सजनीका कोच अयोग्य ठिकानेपर नहीं होता ( १०-५५) । सचमुचमे ऐसी ही विवेकयुक्त नीतिके कारण शासक अपनी प्रजाके हृदयका सच्चा अधिपति बन जाया करता है।
इस प्रसंगका जीवंधर चम्पू महाकवि हरिचन्द्र ने भी बड़ा हृदयग्राही वर्णन किया है जिसका आशय यह है-
“उस समय पीड़ाके कारण भागे हुए शत्रु समूहको करुणाके स्थान कुरुवंशके वीर जीवंधरकुमारने अभय घोषणा कराई और उनके दीन बंधुजनको बुलाकर उस प्रतिस्प्रापात् स्वाभिमातुलः ॥
- १०२२
१४६
समयके लिए उचित संभाषण आदिके द्वारा उनको सान्वना प्रदानकी- इसके मंतर शोकके दुःखसे दोन अंतःपुरषासिनियोंको समीपमें बुला कर उस समय कुररी पक्षीके समान आक्रन्दन करती हुई काष्टांगारकी महारानी तथा उनके पुत्रोंको देखकर करगामी तरंगदुक सामना कला प्रवीण कुरबीर जीवंधर कुमारने अमृतके समान मधुर और अनेक प्रकारकी बातोंमे आश्वासन दिया ।" "
अनीतिपूर्ण आचरण करनेका परिणाम बुरा होता है, इस बार निश्रय इससे होता है कि राजधा चाला काष्टांगार जीवंधर महाराजके द्वारा मारा गया। इस पर श्राचार्य कहते हैं 'स्वयं नाशी हि नाशकः ( १०-५० ) -- धन्यका विनाश करनेपालेका स्वयं वाश होता है। शेक्सपियरने भी इसी भावको इस प्रकार प्रकट किया है।" "To have the engineer hoist with his own petard"
वादसिंह सूरिका कथन है कि इस पृथ्वीका शासन तथा उपभोग दुर्बल व्यक्तियों द्वारा नही हो सकता। यह वसुन्धरा वीरोंके द्वारा भोगने योग्य है " वीरेण हि मही भोज्या ” ( 1०-३०)।
अत्याचारी काष्टांगारने प्रजाके उत्पीडनमें कसर नहीं की थी। उसने जबरदस्त करके द्वारा प्रजाका खून चूस लिया था, इस कारण महाराज धरने राज्यका शा जीवंधरने शासनसूत्र हाथमें लेते ही एक दम १२ वर्षके लिए पृथ्वीको कररहित कर दिया था इसका कारण कविवर यह बताते हैंमैसोंके द्वारा मंदा किया गया पानी अदी निर्मल नहीं होता । २"
श्नदानी मंत्रासपलायमानं शान्चलवलोक्य, कुरुवीर : करुणाकरादाय तबा माहूय तत्कालोचित भाषणादिभिः परिणाम | ततः कुरुवीरः शोक संत्रासदीनमनःपरिकाजनं समीपमानीय नव कुसीमितकदन्ती काठागारी तलवा चावलोक्य कृपानरंगिनः परिमान्वनकलाप्रवीण: पी मधुभिर्विचित्र मिगिरा परंामि ममाश्याममानिन्ये । १० १२२१२३) द्वारा पथम हि सद्यः प्रमदति ॥। ११०-५७ ॥
२०करोत् भामी वर्षा महिषैः क्षुभितं तायं न
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
ग्रंथकार तप और राज्यमे समानता बताते हुण्लिखते हैं- प्रकार निन्दनीय है जैसे मरस केला और अत्यन्त मधुर क्षीर तपसा हि सम राज्यं योगक्षेमप्रपंचतः।
श्रादिके उपचारसे पालन किए गए उस तोतेके बच्चेकी प्रमादमत्यधःपातादन्यथा च महादयात ।।११-८॥ जिन्दगी जो पिजरे मे बन्द है। कन्तु-अपने बलके वैभवसे
अर्थात्-योग और क्षमका विस्तार करनेके कारण प्राप्त मृगोके इन्द्रपद में प्रतिष्टित गजेन्द्रोके गंडस्थलके तपके समान राज्य भी है, क्योंकि प्रमादके होनेपर महान विदारण करने में प्रवीण तीक्ष्ण नस्व वाले सिहके जीवनके उदयपूर्ण अवस्थासे अधःपात हो जाता है।
समान स्वतन्त्रतापूर्ण जीवन निन्दाविहीन अभिनन्दनके अहिंसा धर्मके पालक जैन क्षत्रिय लोग जब संग्राम योग्य, निर्दोष और अत्यन्त हृदयहारी है। स्थलमै अपरिमित प्राणियोंका वध तक करते हैं, तब भला एक बात अवश्य ध्यान देने की है कि उपरोक्त स्वावे कही व्रती हो सकते हैं इस शंकाका प्राचार्य महाराजके धीनताका गुणगान यदि पापी काष्ठांगारके मुखये न हुअा इस वाक्यमे समाधान हो जाता है
होता, तो वह अधिक शोभनीय मालूम पड़ता। यह वर्णन 'मुधा वधादिभीन्या हि क्षत्रिया बनिनो मताः' काष्टांगारके मुखसे सुनकर एसा ही बेतुकासा मालूम पड़ता
अर्थत-अनावश्यक हिंसा श्रादिमे भय रखने के कारण है जैसा कि पापकर्ममे प्रवृत्ति करने वाली वेश्याके मुखसे क्षत्रिय व्रती माने गये हैं (१०-३८)।
ब्रह्मचर्यका गुणवर्णन । धार्मिक नरेश सफलता प्राप्त करने के अनंतर सफलता
गुरु और शिष्य:के मूलकारण वीतराग परमात्माके चरणोकी अाराधनाको
श्राचार्य महाराजने गुरु और शिष्यका पद विशेष नहीं भूलते हैं, इसी बातको बतानेके लिए ग्रंथकारने
महत्त्वपूर्ण बताया है। गुरुको श्राप रग्नत्रयमे विशुद्ध, जीवंधरस्वामीके द्वारा युद्धमे विजय होनेके पश्चात राजपुरी
सत्पात्रका अनुरागी, परोपकारी, धर्मा चरण में राजधानीमे जाकर जिन भगवानके अभिषेक करनेका वर्णन
रत और संसारके समुद्रसे तारने वाला बताते हैं। किया है। क्योंकि भगवानकी दिव्य समीपता होने पर
शिष्य के लिए भी यह आवश्यक है कि वह गुरुभक्त, सिद्धिा बिना वाधाके हो जाती हैं
संमारसे विरक्क, नम्र, धामिक, शान्तहृदय, प्रमादहीन, शिष्ट "भगवद्दिव्यसानिध्य निप्प्रत्यूहा हि सिद्धयः"(१०-४६)
तथा बुद्धिमान हो।
[२-३०, ३१]
शिक्षा:स्वाधीनता
विद्याराधनके विषयमे श्राचार्य महाराज उरच स्वाधीनताके प्रति महाकविकी उक्किबहत महत्वास्पद है। शिक्षणका समर्थन करते हैं क्योकि "अपुरकलाहि वे स्वाधीनताको जिन्दगी और पारतंच्या मृत्यु बतात:- विद्या स्यात अवजैकफला क्वचित-"पूर्ण ज्ञानका एकमात्र जीविनात पराधीनात जीवानां मरणं वरम। फल तिरस्कार ही है।
[३-४४] मृगेन्द्रम्य मृगेन्द्रत्वं वितीर्ग केन कानने ॥१-४० ..
इसी कारण अंग्रेजीमे भी यह कहावत प्रचलित है.---
"A little knowledge is a dangerous इस प्रसंगमें महाकवि हरिचंद्रने लिखा है
thing". "लोके पगधीनं जीवितं परमोत्कृष्ट पदवीमवाप्त- निर्दोष विद्याका सर्वत्र प्रादर होता हैमपिसरममाचाफलनीचेतरमधुरक्षीगापचारपरिपालित "अनवद्या हि विद्या स्यात लोकद्वयप लावहा" पंजरवद्धशुकशावकजीवनमिव विनिन्दितम, निजवल- अर्थात्-निर्दोष ज्ञान इस लोक और परलोक्में विभवसमाजिनमृगेन्द्रपदमम्भावितस्य कुभीन्द्रकुम्भ फलदायी है। स्थलपाटनपटुतरवग्नरवरस्य मृगन्द्रम्यव स्वतत्रजावन यदि भेदविज्ञान न हुश्रा, तो शास्त्रके विषयमे किया मविनिन्दितभिनंदितमनवदामनिहदाम, इति ।" गया परिश्रम कार्यकारी है
(जीवंधरचम्पू पृष्ठ १५) 'हेयोपादेयविज्ञानं नो चेत् व्यर्थः श्रमःश्रुती' अर्थात्-परमोत्कृष्ट पदको प्राप्त भी पराधीन जीवन इस
[२-४४]
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४ ]
ग्रंथकार विज्ञानको स्वयं देने के योग्य बनाते हुए कहते हैं— स्वयंदेया सती विद्या प्रार्थनाचा तु किं पुनः " [ ७–७४ ] अर्थात् समीचीन ज्ञानको स्वयं देना चाहिए, यदि उसे कोई प्रार्थना मोगे तो क्या कहना, उसे तो अवश्य दान करना ही चाहिए।
क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सूक्तियाँ
4
नीतिकारोने बताया है कि मनुष्य में जैसा जैसा ज्ञान बढ़ता जाय जैसा वैसा उसे अधिक विनीत और निरभिमान बनते जाना चाहिए। लेकिन इस नियम के अपवाद
सरूप द्याचार्य महाराज एक खास बात बताते है कि मुवतिविग्याना युक्त हि वलकोने नम् ॥८-४७ - सायन्त निपुण के प्रति अपने बलका वर्णन करना उचित है। इसका कारण यह है किसुविनिया न हि युक्तिवित किरणः-४८
'मूह पुरुष तो जो सुन लेते हैं उसे ही निश्चय करते हैं, वे लोग कुछ तर्क-वितर्क नही करते हैं।'
दुर्जन और सज्जन
दुर्जनीका वर्णन करते हुए कवीश्वरने यह लिखा हैमनत्यन्यवचस्यन्नकर्मण्यन्यद्धि पापिनाम ।। १-४३ मन, वचन और काम में भिन्न प्रवृत्तिका होना पाया स्वरूप है। अन्याभ्युदयन्नित्वं तद्धि दोर्जन्यलक्षणम् ॥ ३-४८ श्रन्यका श्रभ्युदय देखकर दुखी होना दुर्जनताकालक्षण है । नीचत्वं नाम किं न स्यादयति दगुरागिता || नु
यदि गुणों अनुराग है तो फिर नीता प्रकृत्या स्याकृत्ये श्री शिक्षायां तु
[ ५-५ ] क्या रही ? कि पुनः ।। [ ३-५० ] यदि इन्टी
स्वभावतः वृद्धि की
शिक्षा भी मिल जाये तो क्या कहना है ?
3
इस कारण यह जरूरी है कि प्रयत्नपूर्वक बुद्धिको ठीक रास्तेपर लगाते रहना चाहिये ।
ग्रंथकार कहते हैं कि जो नम्रता पुरुषों के लिए शौतिका कारण होती है, वही के लिए गर्व का कारण होती हैमतां हि प्रहृता शान्त्य खलानां दर्पकारणं ॥५- १२|| सचमुच ही यदि सामर्थ्य है, तो बिना दंडनीतिके
है,
१५१
दुष्टोकी वृद्धि ठिकाने नहीं लगाई जा सकती।
दुर्जनको न तो स्वयं नम्रता पसंद है और न दुर्जनों की नम्रता हितकारी है
मतां हि विनम्रत्वं धनुपामिव भीषणम् ||१०-१४।।
कर्दमे
धनुताके समान होता भयंकर होती है । उचित तो यह है कि दुर्जनों के साथ सम्बन्ध ही न रखें क्योंकि उनके प्रति किया गया सद्व्यवहार भी कीचढ़ में गिरे हुए जल के समान होता हैहि दुर्जना सौजन्यं कदम पतितं पयः ||१०-२४३ प्राय देखा जाता है कि बुरी बातोंका जितना जल्दी और सरलनामे प्रचार हो जाता है उतनी शीघ्रतासे अच्छी बातोंका प्रचार नही हो पाता। इस विषय में महाकचि चादीभसिंह एक महत्त्वपूर्ण बात बनाते हैं--- खलः कुर्यान बलं लोकम अन्यमन्यो न कंचन | न हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशयन ॥४६॥
दर्जन पुरुषको दुष्ट बना देता है, सम्पुरुष लोकको सज्जन नहीं बना सकता। क्योंकि जिस प्रकार पदार्थों का विनाश सम्भव हैं, उस प्रकार उनका बनना सम्भव नहीं है । तात्पर्य यह है कि बनाना कठिन है. बिगाड़ना बिल्कुल सरल है।
मनोवृपिरोपकारके लिये होती है, चाहे श्रोता नव्य हो या भव्य -- भव्य वा स्यान्ना ना पराये हि मतां मनः॥६- १०१ वृत्तिका आचार्य वर्णन करते हुए बताते हैंपापां समभावा हि सज्जनाः
परे तु प्रसन्ना विपन्नात्र निसर्गतः ॥ ३८ ॥ अर्थात-सत्पुरुष अपनी संपत्ति तथा आपत्ति समभाव रखते हैं अर्थात हर्ष एवं विषाद नहीं करते । किन्तु स्वभाव धन्य संपतिये धानंदिन और विपण व्यथित होते हैं ।
थाचार्य महाराज सज्जनोंके विषयमें कहते हैंस्वापदं न हि पश्यन्ति सन्तः पाग तत्पराः ॥४-३३
परोपकार में तत्पर सत्पुरुष अपनी आपत्तिका ख्याल नहीं करते हैं। अर्थात् दूसरे पुरुषोके कोके निवारण करने की धुन में मग्न रहनेके कारण उनका अपने कष्टकी थोर ध्यान ही नही जाता है।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२
अनेकान्त
वादीले एक महत्वपूर्ण बातपर इन शब्दों प्रकाश डालते हैं:
देशाः किं चला धीरेव वाधिका । श्रवहितो धर्मे स्यादवधानं हि सचमुच देश, काल और दुर्जनों उनके द्वारा चंचल की गई बुद्धि ही लिए धर्ममें सावधान होना चाहिये, मुफिके लिए कारण होता है।
यहां पाने सूक्ष्मपर्यालोचन करते हुए बाह्य निमित्त गौण बनाते हुए आत्मपतनमें कारण अपनी ही दूषित मनो को बताया है।
महाकवि वादीभसिंह कहते हैं कि वस्तुका यथार्थ 'धन्तवन करने के लिए यह श्रावश्यक है कि व्यक्तिका तिःकरण मत्सरभावरूप विकारोंपे मलिन न होनत्राणां हि नोदेति वस्तुयाथात्म्य चिन्तनम् ||१०-३५।। सम्पतिः -
मुक्तये ॥२-५४ ।। क्या होता है ? बाधाकारी है। इस क्योंकि उपयोग ही
जिस प्रकार संसारकी अन्य वामनाएँस प्राणी के अंत:करणको अन्धा बना दिया करती हैं, उसी प्रकार सम्पत्तिका मद भी बहुधा विवेक चतुओं को नष्ट कर दिया करता है । इसी कारण धनान्ध पुरुषोंका श्राचरण धनुषा- अन्धों को मात करता है। इस विषय में श्राचार्य महाराज बड़े मार्मिक शब्द प्रकाश डालते हैनवति न युध्यन्ति न प्रयान्ति च सत्यधम । प्रयान्तोपि न कार्यान्तं धनान्ध इति चिन्त्यताम ।।२-५६ अयं धनान्य पुरुष न सुनते हैं (यद्यपि उनके कान मौजूद हैं हाँ मतलवकी बातको तरकाल ग्रहण करते हैं) न समझते हैं ( कारण सच्चे हितकी शिक्षा के विषय में वे उपयोग ही नहीं लगाते हैं), न कल्याणप्रद मार्ग में प्रवृत्ति करते हैं (कदाचित उपयोगी कथनको सुनले तथा समय भी ले तो), प्रवृत्ति करते हुए भी कार्य के परिणाम तक नहीं जाते।
साधारणतया लोगोकी धारणा है कि जैसे जैसे संपत्ति अधिक होती जाती है वैसे वैसे धानन्द तथा शांतिकी वृद्धि भी होती जाती है। इस विषय में भ्रमनिवारण करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं ।
धनार्जनादपि क्षेमे क्षेमादपि च तत्क्षये । उत्तरोत्तरवृद्धा हि पीड़ा नृणामनंतशः ।। २-६७ ।।
वष ५
अयं संपलिका अर्जन करनेमें जितनी पीड़ा होती है, उससे अनंतगुणी पीडा उस द्रव्यके रक्षण करनेमें होती है, इसी प्रकार संपत्तिके चयमे अनंतगुणा दुःख होता है । इस भांति उत्तरोत्तर अनंतगुणी पीड़ा बढ़ती जाती है।
तात्पर्य यह है कि संपके कमानेसे उसके विनाश तक सब अवस्थाओं मे अधिक ही अधिकता सताती है, जिस से वास्तविक शान्तिका दर्शन भी दुर्लभ हो जाता है ।
धन अनेक बाधा विद्यमान हैं किन्तु ऐसे वीतराग विरले प्रार्थी है जिनने पनकी लालसा व्यागी है इसी लिए एक कविने कहा है
कनक- कामिनी विषय बस दीखे सब संसार | त्यागी वैरागी महा साधु सुगन भंडार ॥
धनकी लालसा साधारणतया सभी प्राणियों के अंत:करण में रहा करती है इस सम्बन्ध ग्रंथकार कहते हैं धनाशा कस्य नो भवेत (३-२) - धनकी श्राकांक्षा सिके नहीं होती पैतृक विपुल इव्य होते हुए भी मनुष्य शातिपूर्वक उसका उपभोग नहीं करता ।
।
अस्तु पैतृक मस्तकं वस्तु किं तेन वस्तुना । रोचते न हि शीगाव परपंरादिदीनता ||३-४॥ पनि यदि महान भी हो, किन्तु वह किस कामकी ? उद्योगी पुरुष श्रन्यके द्रव्यकी दीनताको पसंद नहीं करते ।
निर्धनता
है
दरिद्रताके विषय में श्राचार्य बडे मार्मिक शब्दोंमें दर्शन करते हैं के सचमुच प्रालिए दरिद्रता मौतके समान है, यद्यपि इसमें यह विशेषता है कि यह प्राणोंके रहने हुए अत्यन्त मरणं प्राचैः प्राणिनां हि दरिद्रता ॥३-६॥ जहाँ संपत्तिशाली पुरुष 'धनैर्निष्कुलीना कुलीना भवंति - कुलहीन होते हुए भी कुलीन माने जाते हैं, मंदज्ञानी होते हुए भी विद्वान् माने जाते हैं। श्रदर्शनीय और गुसहीन होते हुए भी सुंदर तथा गुणसम्पन्न माने जाते हैं वहाँ गरीबीमें विद्यमान गुणोंको भी नहीं पूछा जाता । इस कारण श्राचार्य लिखते हैंरिक्तम् हि न जागर्ति कीर्तिनीयो थिलो गुगाः । हन्त किं तेन विद्यापि विद्यमाना न शोभते ॥ ३-७॥
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
क्षत्रचूड़ामणि और उसकी सुक्तियाँ
१५३
अर्थात्-निर्धनके प्रशंसनीय संपूर्ण गुण जागृत नहीं होते, रमणियोंकी स्वाभाविक चेष्टाएँ हृदयको सम्मोहित करने और तो क्या विद्यमान ज्ञान भी शोभाको नहीं प्राप्त होता। वाली होती हैं। इस कारण ग्रंथकार उच्च तथा निर्मल
प्रसिद्ध अंग्रेज कवि ही. ग्रे ने अपनी अमर रचना चरित्र वाले पुरुषों के लिए स्त्री-सम्बन्धये बचनेका उपदेश 'एलेजी (Elegy) में निर्धनताकी तीव ठंडपे तुलनाकी देते हुए कहते हैंहै और लिखा है कि इसके द्वारा प्रामाका सुन्दर निझर अंगारमहशी नारी नवनीत-ममा नराः। वर्फके समान जम जाता है ।*
तत्तत्मानिध्यमात्रेण द्रवेत्युसा हि मानसम ७-४१॥x नारी-निरक्षण:
मलापवामहामादि तदज्यं पापभीरु।। गुणवती नारियोंके विषयमे प्राचार्य के बालया वृद्धया मात्रा दुहित्रा वा व्रतस्थया ।।5-४२॥ महत्त्वपूर्ण उद्गार क्या हैं इसका पता इसमे
अर्थात-नारी अंगारके तुल्य है और पुरुष मक्खनके चल सकता है कि उनमें जीबंधरकुमारकी माता विजयाका समान ह इस कारण नाराका समापतास पुरुषका श्रतःकरण वर्णन करते हुए लिखा है कि वह महागज सायंधरके द्रवीभूत होता है। राज्यासनके श्राधे भागमे पाकर बैठी थी। इसी प्रकार
श्रत: पापसे डरने वाले व्यक्ति को बालिका, वृद्धा, सूरिकल्प श्राशाधरने भी गणसम्पन्न महिलाओंकी गौरव माता, पुत्री तथा वतस्थाके साथ (एकान्तमे) वचनालाप, पूर्ण अवस्था बताई है:
हंसी श्रादि छोडना चाहिये। धर्मश्रीशर्म कीत्येक केतनं हि पतिव्रताः
स्त्रियोंकी रूचिका वर्णन इस प्रकार करते है(मागारधर्मामृत)
अप्राप्त हि रुचिः स्रगां न तु प्राप्ते कदाचन ।७-३५॥ धर्म, संपत्ति, सुख तथा कीर्तिकी एकमात्र ध्वजा
उपलब्ध वस्तुमे सियोंकी रुचि कभी नहीं होती, पतिव्रता स्त्रियां हैं । इसी प्रकार अन्य जैन ग्रंथकाने किन्तु अप्राप्त वस्तुमे उनका अनुराग रहता है। महिला-महिमाका वर्णन किया है, किन्तु नारी जाति-मुलभ
पुरुषवर्ग उतनी जल्दी श्रन्यके मनोभावोंको चेष्टानोंसे दोनीका वर्णन करनेमे ग्रंथकारने किसी प्रकार कमी नहीं नही मिनी नहीं पहिचान पाता, जितने शीघ्र स्त्री समझ लेती है।
निमर्गादिङ्गितज्ञानमगनास हि जायते । ७-४४। स्त्रियोमें ईप्योकी प्रचुरताको देखकर श्राचार्य लिखते हैं- स्वभावसे अभिप्रायोको व्यक्त करने वाली शरीरादि ईर्ष्या स्त्री-ममुद्भवा'
सम्बन्धी चेष्टाओंका परिज्ञान स्त्रियों में पाया जाता है। ईर्ष्याकी उत्पत्ति स्त्रीसे हुई।
स्त्रियों के सम्बन्धमें शेक्सपियरने भी लिखा हैस्त्रियोंकी माया कषायके विषयमें कहते है कि
Frailty thy name is wonian (Hamlet) मायामयी हि नारीणां मनोबत्तिनमर्गतः ॥७-४ा 'चंचलता तेरा नाम ही तो स्त्री है!' 'स्वभावमे स्त्रियों की मनोवृत्ति मायापर्ण होती है।'
स्त्रियों में ममताका भाव अधिक मात्रामे पाया जाता है। प्रतारणा विधी त्रीणां बह द्वारा हि दुर्मतिः ७-४५॥
अपनी संततिके लिए वे अपने प्राणोंकी भी चिन्ता नहीं बंचना काने में स्त्रियोंको दुबुद्वि अनेक द्वार वाली होती है। करती। मुनिगज श्रीमान नंग ने बताया है कि हरिणी नाग महिला अपने शिशुकी रक्षाके लिए सिंह तकका मुकाबला करनेका
- अति साहम कर लेती है। इस कारण थोडे शब्दों में But knowlerige to their ryes her
. महाकवि वादीभसिंह वर्णन करते हैं किample page Rich with the spoils of time dil meer roll: chill penury x मृनानार शास्त्र नथा नुस्मृतिम भी इस प्रकार के भाव repressed their noble rage and froze व्यक्त किए गए हैं। the general current of the soul.
अर्धासननिदिष्ट यम अभाषिष्ट च भूभुनः ॥१-२२ Greys Elegy * देखो भक्तामरस्तोत्र श्लोक ५
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५४
अनेकान्त
[वर्ष ५
सुत प्राणा हि मातरः ।।८-५४ ।।
लुटा दी जाती है तब माम्राज्यका त्याग कोई बड़ी बात नहीं "माताके प्राण उनके पुत्र होते हैं।"
है। इसी कारण प्राचार्यने यह अमर सत्य बात बताई इसीसे अपनी संततिके प्रति माताओंका स्नेह अप्रतिम 'किं न मुचन्ति रागिणः' । ऐसी स्थितिमे तार्किक चूडा. रहता है और अपने प्राण रूप संततिके संरक्षण के निमित्त मणि महाकवि श्री सोमदेवकी उज्वल शिक्षा हृदय पटल वे उपरी प्राणां तककी परवाह नही करती।
पर अंकित किए जाने योग्य है:जिप नारी जातिका बहुलताकी अपेक्षा कुछ ऊपर एतदेव द्वयं तस्मात्कार्यं स्त्रीपु हितपिभिः । दिग्दर्शन कराया गया है, वह एक तत्त्वदर्शी महामाकी आहारवत्प्रवृत्तिा निवृत्तिरथवा परा ।। दृष्टिका वर्णन है। ब्रह्मचर्यकी उच्च श्रेणीपर समारूढ
(यशस्तिलक चम्पू उत्तरार्ध पृ०६०) महामा लोग ऐसे ही विचारोंके द्वारा अपनी प्रारमाको अर्थात-अपनी भलाई चाहने वालोंको ये दो बातें पतिन दुगचारके मार्गसे बचाते है तथा दिव्य सिद्वियां करना चाहिये। या तो श्राहारकी भांति (मयांदा पूर्वक) प्राप्त करते हैं। किन्तु गगी, भोगी तथा विनामी पुरुषोकी स्त्रियोंने प्रवृत्ति करनी चाहिये, अथवा निहारके समान उनसे कथा और भावना निगली रहती है।
निवृत्ति करनी चाहिये ।। विषयासक्तिका दुष्परिणाम
स्त्रियांके विषयमें जो लोग सुख समझते हैं उसके इस विषयाप कमें मग्न होकर लोग बडे बडे अनर्थ सम्बन्धमे प्राचार्य महाराज कहते हैंकरनेमे विमुग्व नहीं होते । महाराज सन्यंधरकी
अविचारितरम्यं हि गमामंपर्कजं सुग्वम ।१-७४ विषयासक्ति और उसका दुष्परिणाम राज्य त्याग श्रादिको अर्थात-ग्मणीक संबधये उत्पन्न होनेवाला सुग्ब तब ध्यानमें रखकर प्राचार्य श्री बादीमिह लिखते हैं- तक ही रमणीय है जब तक कि उसके सम्बन्ध विचार
अधिविगगः करोयं गज्यं प्राज्यममूनपि । नहीं किया जाना ताविक दृष्टिमै विचार करनेपर वह त्वद्वंचिता हि मुश्चन्ति किन मुञ्चन्ति गगिगा:।१-७.1 दुखरूप है और अामाके स्वरूप लाभमें जबरदस्त
अर्थात्--स्त्रीविषयक अनुगग बडा कठोर है, उसके अंतराय है। कारण ठगाए गए मनुष्य विशाल साम्राज्य तथा अपने
जिग्न प्रकार उपरोक्त विचार परणिसे पुरुष अपने प्राण तकको भी छोड़ देते हैं। ऐसी कौनसी चीज है जिसे उज्वल चरित्रकी रक्षा करता हुथा ब्रह्मचर्यव्रत पालन करने से विलासी पुरुष नही छोड़ देते है।
विचलित नहीं होता, उसी प्रकार पुरुषोके विषयमे तथा महाराज सत्यंधरके सिवाय ग्रंथोने अनेक विलामी
विषय जन्य सुखकी निस्यारताका विचार करते राजाओं तथा अन्य पुरुषांकी म्रियों के प्रति श्रामक्तिके हुए महिला भा दुराचारा तथा
हुए महिलां भी दुराचारी तथा पापी पुरुषों के आक्रमण से दर्दशाका खासा चियगा किया गया कि
अपने शील रत्न की रक्षा किया करती है। अधिपति अत्यन्त तेजस्ती रावण की विश्वव्यापी अर्काति
वेगग्य तथा महान दुर्गनिका कारण भी स्वीके प्रति अनुचित
युद्ध भूमिमें शरीर त्याग करनेके कुछ क्षण पूर्व थासक्ति था। दर जानेकी कोई जरूरत नहीं है जब हम महाराज सायंधरके हृदय में जो विगगता उत्पन्न हुई अपने ही युगमे कई ऐसे विलासी नरेशोंको भी देखते है
थी, उस समयके मनोभावांका ग्रंथकारने बड़े मार्मिक शब्दों
था, उस समयक मनाभावाका जिनको बनिता-विलासके कारण अपने राज्यको भी छोडना में
यीन में विवेचन किया है । सत्यंधर सोचते हैंपड़ा। इसी प्रकार पूर्वके सम्राट अष्टम एडवर्ड और भाजके * या मिर्जन्मानविदाप । यद्यपि स्त्रियः। व्य क ाफ विंडसरने अपनी द्विपति-परिग्यका प्रेयसीके तथापेकान्ततस्तामा विद्यते नाद्य सभवः ।। प्रति अन्यायक्तिवश जबरदस्त साम्राज्य को छोड दिया, मतीत्वेग महत्वन वृत्नेन विनयेन च । किन्तु अपने रागभावको नहीं छोड़ा। इससे यह भाव विवेकेन स्त्रिय काश्चिद् भूषयन्ति धग लम् ।। स्पष्ट होजाता है कि जब अपनी जीवननिधि भोगाक्तिवश
ज्ञानार्गव पृष्ठ १५१-१५२
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
शत्रचूडामा और उसकीकियां
किरण ३-४ |
त्रिषया मंग दोषोयं त्वयैव विषयी कृतः । साप्रतं वा विपयेमुचात्मन विपये स्पृहाम्॥६६॥ हे भ्रमन् विषयोंसे नेकपाम
तूने ही अनुभव कर लिया है। अब तो विपके समान विषयों में लालमाका त्याग कर | महाराज यह भी विचारते है
हे आत्मन् ' यह सब सामग्री तेरे द्वारा पूर्वम भोगी जा चुकी है। इस कारण से ही उच्छिम (जठे) राज्य का त्याग करदे। इस प्राणी के भव तो अनंत होते है ।'
वे यह भी चितन करने है-
अवश्यं यदि नश्यति स्थित्वापि विपयाचिग्म । स्वयं तथाहि स्थान मुक्तिः मंविग्न्यथा ॥६८॥ यदि बहुत समय तक ठहरनेके अनंतर भी विषय विनाशको प्राप्त होते हैं, तब तो उनको स्वयं छोड़ देना चाहिये | इसमे श्रामाकी दुःखोंसे मुक्ति हो जायगी । afari नष्ट होकर स्वयं छोड़ दिया, तो
संसार ही रहेगा ।
त्यागके समर्थन ग्रंथकार एक बड़ी अपूर्व तथा गंभीर बान लिखते है—
त्यज्यते रज्यमानेन राज्येनान्येन वा जनः । भायते यचमानेन तस्यागस्तु विवेकिनाम ॥ ६६ ॥ जिम राज्य के प्रति यह प्राणी श्रमति धारण करता है उसमे तो यह जीव छोड दिया जाता है, किन्तु जिन राज्यादिक पदार्थोंका यह त्याग करता है, वे विभूतियां इस की सेवा किया करती है। इससे विवेकी पुरुषोको त्याग करना चाहिये ।
इस विषयका खुलासा छायाके उदाहरणमे भली प्रकार हो जाता है । जब मनुष्य अपनी छायाको पकड़ने जाता है तो वह उसमें दूर भागती है, किन्तु वह जब उस खायाको छोड़ कर जाना है, तब वही छाया इसका पीछा करती है ।
हमारी प्राणी जिन विभूतियाँकी दिन-रात कामना करने फिरने में वे उनको नहीं प्राप्त होती है, किन्तु तीर्थंकर भगवान जब राज्यावस्थाकी अनुपम तथा श्रमूल्य विभूतिका त्याग कर ईनेश्वरी दीक्षा लेते हैं, तो वही विभूति अत्यंत समुन्नत होक उनके चरणोंकी श्राराधना करती है, यद्यपि वे उस समरयाकी विलोकातिशायिनी विभूतिसे
१५५
·
भी चार गुण ऊंचे रहते है इसमे ज्ञात होता है कि स्थानके द्वारा ही अपूर्व पति दोग है।
इसी भावको हृदयमें रखकर एक कवि लिखता हैभारती फिरनी थी दुनिया जब तलय करते थे हम । अब जो नफान हमने की. वो देवगर की है ।। आत्म-निरीक्षण
ग्रंथकारने धामोहार के लिए ग्राम-निरीक्षण Introspection) को श्रावश्यक बताया है। अन्यदीयमात्मीयमपि दीप प्रपश्यता ।
कः ममः युतः कार्यन चेदपि ।। १८४ ॥ दसरेके दोषोंके समान अपने दोनेवाले पुरुष के समान कौन है यह तो शहित होते हुए भी (एक प्रकार) मुफ है
1
विपत्ति और उसका प्रतिकार
इम
यह प्रवृत्ति ग्राम तौर पर देखो जाती है कि विपतिके थानंपर बडे २ व्यक्ति घबडा जाया करते है, सम्बन्ध ज्ञानी वासुकिहते हैविपदः परिहाराय फिंकल्प नृणाम | पावके नहि पातः स्थान, श्रातप-क्लेश- शान्तये ॥१-३० विपणिके निवारण के लिए मनुष्योको क्या शाक उचित है? मंगा-मित की शान लिए वी नही ता ततो व्यापत्प्रकारं धर्ममेव विनिधितु प्रदीपदीपिते देशेन ह्यस्ति तमसो गतिः ।। १-३१ ।।
कोई
इस कारण सीवनका इलाज धर्मको निश्चय क 1 दीपक के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अँधकारका गमन नही होता । विपदस्तु प्रतीकारो निर्भयत्व न शोषिता ॥ ३- १७॥
'संकट दूर करने उपाय निर्भीकता है, शोक नहीं मृढ पुरुष उपरोक्त सत्यको भूल जाते है इसमें उनका कष्ट दूर नहीं होता।
विपदपति दानां हन्त बाधिका ।
'विचि तथा उसका भय भी मृढ पुरुषोंको पीडा देता है। हमसे अंग्रेजी भाषाके एक कांचने यह लिखा है
Cowards die many a time before their deaths valiant taste of death but once
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५६
अनेकान्त
अर्थात् भीरु पुरुष अपनी पानेके पूर्व अनेकवार मृत्यु मरण करते हैं, किन्तु वीर पुरुष मृत्युका स्वाद केवल एक बार चखते हैं
इसी बात को हृदयमें रखकर मजबूत अंतः करण वाले भयंकर से भी भयंकर पीड़ा आने पर अपने पुरुषार्थमे विमुख नहीं होने
सत्यामप्यभिपंगाती जागव हि पीरूपम् । १२८
संक्ट में निर्भयता धारणकर पुरुषार्थ करनेका जो परिणाम होता है उसकी ओर श्राचार्य इन शब्दों में प्रकाश डालते हैं-
'सत्यापि हि जायेत प्राणिनां प्राणरक्षणम् । ३-१० श्रर्थात् श्रायु कर्म के बाकी रहनेपर प्राणियों के प्राणों की रक्षा होजाती है ।
यदि संकटमें तवज्ञान-निधि विद्यमान हैं, तो वह सुमीत बढी विभूतिके रूपमें परिणत हो जाती है इस बातको बतलाते हुए श्राचार्य महाराज लिखते हैदुःखापि सुख्यार्थी हिने मति ३-२१ अर्थात् -- तत्वज्ञान-धनके पास रहनेपर दुःखकी सामग्री सुखका कारण हो जाती है।
|
शेक्सपियर ने भी As you like it नामक नाटक में लिखा है कि Sweat are the uses of adversity ।
'कष्टका परिणाम मधुर होता है (यदि विवेक जागृत रहे। यदि मनुष्य पवित्र कार्योंको करता हुआ। पुण्य संपादन करले, तो उसके पास आपति कभी भी नहीं था। इस कारयण आचार्य कहते हैं
[ वर्ष ५
विचित्रताका सुंदरभाव कविवर भूधरदासकी इन पंक्तियोंमें निहित है---
का घर पुत्र जायो, काके वियोग भयो, काहू रागरंग, काहू रोधरोई करी है। ऐसी जगरीतिको न देख भय-भीत होन हाहा नर मूढ तेरी बुद्धि कौन हरी है मानुष जनम पाय सोवत विहाय जाय, खोवत करोरनकी एक एक घरी है।
इस भावको महाकवि वादीभसिंह इन शब्दों में समझाते है:
न हि वेद्यो विपत्रः । ३-१३ ।
इसका तात्पर्य यह है कि किस समय विपत्ति श्राजाय, यह नहीं कहा जा सकता। सचमुच में यह कौन जानता था कि रूस के सम्राट जारके दिन जो अत्यन्त चैनमे बीत रहे थे, उनका अचानक अन्त श्राजायगा तथा उसे नारकीय यातनाओं के साथ अपने जीवन की अन्तिम घड़ियां गिननी पड़ेगी ।
भाग्ये जागृति का व्यथा (१-१८)
भाग्य यदि जागृत है तो फिर क्या कष्ट हो सकता है ? श्मशान मे जिस प्रकार क्षणिक वैराग्य उत्पन्न हो जाता है, उस प्रकार दु:खकी चिता भी क्षणभर रहती है । दुःख के दूर होते ही, या उसके मंद होनेपर लोग उसे भूल जाते हैं और अपने कल्याणकारी उपायमे विमुख हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में श्राचार्य कहते हैं
'दुःख चिंता हि तत्क्षणे ' । १-३२
-
इस प्राणी के भाग्यचक्रकी गति यदी निराली है भरमें राजासे रंक अथवा रंकसे राजा बन जाता है। इस
-
अविवेकी व्यक्तियोंकी श्रादत रहती है कि वे सत्पुरुषों की बातों पर पूर्व विश्वास नहीं करते हैं, किन्तु ठोकरें खाने के बाद उनको अक्ल श्राया करती है । श्राचार्य महाराज कहते हैं :--
विपाके हि सतां वाक्यं विश्वमन्पविवेकिनः ।। १-३५।। महाकाल कृता वांद्रा संपुष्णाति समीहितम् |
किं पुष्पावयः शक्या फल काले समागते ॥१-३६।। 'अविवेकी लोग सरुपुषोंके वाक्योंपर उनके फलित होने पर विश्वास करते हैं ।'
'समयमें की गई अभिलाषा मनोकामनाको पूर्ण नहीं करती है । भला फलके समय श्राजाने पर क्या पुष्पोंका संग्रह संभव हो सकता है ?'
आत्मोद्धार
महाकवि
इस बातका कारण बताते है कि अनेक उपाय करनेपर भी बहुतसे व्यक्तियोंका ध्यान कल्याणके मार्गकी ओर श्राकर्षित नहीं होता । देखिये वे क्या कहते हैं :
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
क्षत्रचूडामणि और उसकी सूक्तियां
१५७
शिक्षायचः सहनी क्षीण पुण्ये न धर्मधाः । अपनी रक्षा करनेके लिये साधारण मनुष्यको विशेष नीति पात्र त फायते तम्मान, आत्मैव गस्गत्मनः ॥२-५५ से काम लेना पड़ता है। इस विषयमें ग्रंथकार लिखते हैं:
'पुण्य .ण होने पर शिक्षाकी रजारों वाहों के द्वारा भी संमृती व्यवहारग्तु नहि माया-विवर्जितः ॥३-२७॥ धर्म में बुद्धि नहीं उत्पन्न होती। ये ही शिक्षाप्रद व.तं यदि संसारमे मायारहित न्ययहार नही पाया जाता। पात्र में पहुँचती हैं, तो वे वृद्धिको प्राप्त होती है। इस कारण प्राचार्य सोमदेवने यशस्तिलक (उत्तरार्ध पृ. १४५) धामाका गुरु बारमाही है।'
में इस सम्बन्धमे और भी अधिक सुलासा किया है :बात वास्तव मे यह है कि यदि मनुष्य पात्र है-पुण्यवान् धुर्तेषु मायादिपु दुर्जनेषु स्वार्थकनिष्ठेषु विमानितेषु । है तो कल्याणप्रद बात उसपर असर करती है और यदि वर्तत यः साधुतया सलोक प्रतायते मुग्बमतिने केन ।१४५ व्यक्ति पुण्यहीन अपात्र है, तो वे ही अमूल्य उपदेश कार्य- अर्थात्-जोमोजामनुष्य धूलों, २ पटियों दुष्टो, स्वाथियों काली नही होते । इस का.ण श्राम के उद्वार वरनेमें बझ और अपमानितोंके साथ साधुतापूर्ण व्यवहार करता पदार्थोके स थ ने श्रारमशक्ति या सामर्थका विशेष स्थान है, व; किसके द्वारा नहीं ठगा जाता ? है । यदि तरंग पात्रता है, तो निमित्त कार्यवाती है, इसी बात समर्थन भारवि कविने अपने किरातार्जुनीय अन्यथा वह निष्फल सरीखा है।
मे निम्न प्रका से किया है :यात्मीयताम अनुराग
व्रजन्ति ते मृदाधियःभभवन्ति मायाविषये नमायिनः मनुष्यको यात्मीयता(अपनापन) से अधिक प्रेम रहता चे मूटमात अपमानको प्रात करते है. जो मायावी व्यक्ति है। संसारकी सारी समृद्धि भी यदि पास हो तो भी के साथ मायावी नही बनते हैं। अपने विनाशकी चिन्ताकालयी रह हृदयमे चभा करती है- दुनियामे परस्पर स्वरमा संघर्ष होता रहता है और पत्रमित्रानवाटो, सत्यामपि च संपदि।
जो बलवान या अधिक योन्य होता है वही जीवित रहता आत्मीयामाय-शंका हि शंक प्राणभृतां हृदि ॥१-२४॥ है। Swurval of the fittest वाली बात सभी
'पुत्र मित्र, त्रीश्रादि तथा संपत्तिक होने पर भी गह चरितार्थ हो पाई जाती है । इसके सिवाय जिसकी अपने बिनाशकी आशंवा जीवधारियोंके हृदयमें शल्यके लाठी उसकी भय' वाली वृत्ति भी प्राय: देख्नेमे पाती है। समान पीडा देती है।'
यह दुःन्दकी बात है कि लोग स्वार्थवश न्यायका श्रादर न करके यह मामीयता यदि किसी कार्यके सम्बन्धमें भी हो अपनेसे पमको यो कष्ट दिया करते है । इस विषयमें जाती है तो उसकी सफलता तकमे यह प्राणी यानन्दका प्राचार्य रहते हैअनुभव करने लगता है। इस बातको लेकर प्राचार्य महाराज दुबला हि बलिप्टेन बाध्यन्ते हन्त संसृती-११.३४ कहते हैं:
'दुःख है कि संसारमें दुबल प्राणी बलवानों के द्वारा श्रात्मकृतमकृत्यं च सफल प्रीतये नृणाम ||२-॥ पीड़ित किए जाते हैं।' 'अपने द्वारा किया गया अयोग्य वार्य यादे सफल हो
बाह्य निमित्तका प्रभाव जाता है, तो लोगों को वह प्रीतिका कारण होता है।'
फभी २ यह देखा जाता है कि लोग अपनी कमजोरियों एक दूसरा कवि भी इस बाराका समर्थन करता है:- को छिपाने के लिये यह कहते हुए देखे जाते हैं कि बाह्य कामयावी हो गई, तो बेवकूफी पर भी नाज़। वातोंमें क्या रखा है, अंतरंगकी श्रावश्यकता है। इसी विषय नाकामयाबी जो हई, तो अक्ल भी शर्मिन्दा है। में यदि गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय, तो ज्ञात होगा __ व्यवहार नीति
कि या निमित्त अंतरंग भावोंको उत्पन्न करने में काफी इस जगत में सजन और दुर्जनोंका समुदाय सहायक होते हैं। महाकवि वादीमसिंहने बताया है कि पाया जाता है । दुष्ट पुरुष अपनी अयोग्य चेटायों जब महारानी विग्याने अपने में ही संसारखी विचिनताका से साधुचरित्र व्यक्तियोंको पीडा पहुंचाया करते हैं इस लिये दर्शन करके विरक्त भावपूर्ण प्रार्यिकाकी दीक्षा धारण की,
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
तब माता सुनंदाने भी उनका अनुकरण किया। इस कारण इसका कारण यह है कि ग्रासक्तिवश यह जीव पुरातन ग्रंथकार कहते हैं :--
इष्ट सामग्रीका जब स्मरण करता है, तब उनका प्रभाव पाक हि पुण्य-पापानां भवेत बाहाच कारण म॥११-१४|| इसे भयंकर दुःख देता है, और कालकेद्वारा इसके हृदयके
पुण्य पाप के विपाक होनेमे बाह्य पदार्थ कारण होते हैं। जो घाव सूखम्मे जाते हैं, वे पुनः हरे हो जाया करते हैं और
चित्तवृत्तिकी विचित्र दशा है. योगियों के चित्त तक में पुनः पीड़ा उत्पन्न करना शुरु कर देते हैं। कभी २ चंचलता उत्पन्न हो जाता है । बदे उदात्तचरित्र इस विषय में महाकवि शेक्सपियरने अपनी Memory व्यक्तियों के अंत:करणमे रागद्वेष उत्पन्न होकर विकृति नामक कवितामे इन भावपूर्ण शब्दो द्वारा प्रकाश डाला हैउत्पन्न कर देते हैं। फिर भी साधारण लोगोंकी अपेक्षा "when to the seasonut sweet stone thought
_I summon up Temitmlrs of thingsast उनमें विशेषता क्यों रहती है इसका कारण यह है- I high the lot of mein uttons I ourint
Then can I dron e 125ed to flow यदि रत्नपि मालिन्य नहि तन कृकशोधनम ||११-२०॥ For prestisfiends hid in death d.itelery night".
यदि रत्नमे मलिनता उत्पन्न होती है, तो उसके शद्ध बड़े बड़े दुःखोगे भी यह मानव भूल जाता है. यदि करने में कठिनता नही पड़ती-प्रधान सरलतापूर्वक रत्नमें थोड़ी भी नवीन सुखकी प्राक्षि हो जाय । से मलिनता दूर की जा सकती है।
विस्मृतं हि चिरं मुन दुःख म्यात सुख-लाभतः ।।-११ इसी प्रकार महान् श्रा.मात्रामसे विकार भी सरलतामे
रागभाव दूर किया जा सकता है।
__ मोह और ममताके कारण यह थारमा अपने त्वरूपको विषयासक्त व्यक्ति अपने इष्ट पदार्थ प्राप्त करनेमें समझ नदी पाता और इससे अपनी दुर्गतिकी साधनदीनवृत्ति धारण कर लिया करते हैं, किन्तु जितेन्द्रिय पुरष सामग्रीको एकत्रित किया करता है। इस कारण तवज्ञानी की स्थिति निराली होती है
प्राचार्य महाराज बहुत गहरे अनुभवकी यह चिरस्मरणीय वांश्रिताप कानय वशिनां नहि दृश्यते ॥ --५३॥ शिक्षा देते हैं :
श्रथ त्-जितेन्द्रिय पुरुष अपने मनोवांछित पदार्थ तक तीरस्थाः खलु जीवन्ति, न हि रागाब्धिगाहिनः । -१ में दीनभाव नही धारण करते।
थात्-रागरूप समुद्र के तटपर रहने वाले तो कौन नहीं जानता कि संसारमै स्नेहका बन्धन सबसे जीवित रहते हैं, किन्तु उस समुद्र में प्रवेश करने वाले नहीं। ज़बरदस्त होता है। इसी कारण जिनेन्द्र भगवानको वीत. कदाचित् पोई यह सोच कि रागादिके द्वारा ही मैं राग शब्दमे संबोधित करते हैं, जिसमे उनकी महत्ता हृदय संसारके परिभ्रमण तथा दुःखाका नाश करूँगा, तो इसके पटल पर अंकेत हो जाती है।
समाधानमें ग्रंथकार कहते हैं___ स्ने-बंधन के विषयमे महायवि लिखते हैं
ग्रंथानुबंधी संसारस्तंनैव न परिक्षयी। स्नेह-पाशो हि जीवानामासमारं न मुचति ।।८-२२॥ रक्त न दूपितं वत्र न हि रक्त न शुध्यति ।। ६-१७
'प्रेमका यन्धन जीवोंगो संसारपर्यन्त नही छोड़ता है। रागादि दोषों तथा बाध परिग्रहों के सम्बन्धमे तो यह
इसी स्नेहके कारण बलभद्र जैसे महानुभाव नारायण के संसार है, उस परिग्रहके द्वारा इसका विनाश नही होगा। प्राणहीन शीरयो जीवित समझकर बहत समय तक लिए. खूनसे मलिन कपड़ा खूनमे शुद्ध नहीं होता। लिए फिरते हैं। बड़े २ ज्ञानियों तकको यह प्रेमका बन्धन * जब मं मधुर तथा प्रशान विचारका बैठकोंमें प.तन मोह जालमे फंसा देता है। और उस इष्ट पदार्थ के वियुक्त पदार्थोकी स्मृतियोको अामात्रा करना है, तब मैं उन होने पर उसकी स्मृति अत्यन्त संतापजनक होती है- अनेक वस्तुग्राम अभाव मे दु:भरी माम छोड़ता हूं, ध्यातेपि पुरा दुःखे भृशं दुःखायते जनः ।। ८-१३॥ निनको मैं रोप था। तब में मृत्युकी अमर्या.दन रात्रि
इसका भाव यह है कि पूर्वदुःखका ध्यान करने मात्र में छुरे हुए अमूल्य मित्रोक लिए श्रमपात करने में से यह प्राणी तीव्र पीदाका अनुभव करता है।
अभ्यस्त अपने नेत्रको सार्द्र कर सकता हूँ।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
क्षत्रचूड़ामणि पार उसकी सूक्तियाँ
१५६
जिस प्रकार विही बर्षमे करता तथा कुटिलता पयंय- वाधकं हि चिरक्तये ॥ १-१॥ जनित होती है, वह उसका निसर्गग धर्ममा है, उसी मक्षिकापवतं.प्रच्छ मांमान्छादनचर्मणि । प्रकार भोगादिवम इस प्राणीकी बिना सिखाए ही प्रवृत्ति लावण्यं भ्रान्तिरित्यतन्मूढ यो पक्ति वाधकम ।।-१२॥ होती है। माहारादक सिखाने के लिए कोई स्कूली 'मक्खी के पखंस भी पतले मासके दाने वाले उमदे में शिक्षाको आवश्यकता नही पड़नी बल्कि अपने आप ही लावण्यकी कल्पना भ्रम है, यह बात बुढ़ापा मूढजनोंको जीवकी उस घोर प्रवृत्ति होती है। इससे प्राचाय कहते हैं:- बतलाता है।' समारविपये मद्यः स्वतो हि मनसागतिः ।। --- हन्त ल को वयस्यन्ते किमन्यैरपि मातरम ।
'संसारक विषयों में शीघ्र ही अपने आप मनकी प्रवृत्ति मन्यते न तृणायापि मृतिः श्लाघ्या हि बाधकान।-१४ होती है।
'दुःश्वकी बात है कि लोग अपनी माता तकयो बुढ़ापा स्वप्न-विज्ञान
मानाने पर निनके बगबर भी नहीं सम ने अन्य की तो महर्षि जिनसेनने अपने प्रादपुराणमें बताया है कि बात ही क्या ? अतः बुटापेमे तो मृाही प्रशसनीय है।' जो स्वप्न वातादि दोपके बिना रात्रिके अन्तिम प्रहम्मे वृद्धावस्था में क्या करना चाहिये इस विषय में ग्रंथवार दिखाई देते हैं, वे फलवान होते है। इसी प्रकार महाकवि कहते हैं :बादीभसिंह भी लिखते है
वयस्यन्तपि वा दीक्षा प्रेक्षाद्रपेदयताम । अस्मानपूर्व हि जोवानां नहि जानु शुभाशुभम ॥
भन्मने ग्लहारीयं पहिनहिनते ॥ ११-१८ ।। 'प्राणियों के शुभ-अशुभ बिनास्वप्न के नही पाए जाते।' बुढापेमे भी विवेकी पुको दीक्षा लेना चाहिये। उदारता
विद्वान् पुरुष रनके हारको गखके लिए दग्ध नही करते । संमारके लोगो आनंद अपनी तृष्णाके पूर्ण होने में
पात्रता प्रात हुया करता है, किन्तु महान प्रामाओं को पदार्थों के इस विषयमे ग्राचार्य महाराज कहते हैघाग काने शाते मिना करती है। प्राच यं कहने हैं- पात्रतां नीतमात्मानं स्वयं यांति हि संपदः। नादान किन्नु दाने हि सतां तुष्यति मानमम ॥७-३०॥ जो अपनी प्राग्माको पात्र बना लेता है उसके समीप
'स गुरुपोंका अंत:करण दान देनमे प्रानंदित होता है, में सपत्तिा स्वयमेव पाती है।' संग्रह करनेमे नहीं।'
___तापर्य यह है कि योग्यता लाभ करने वालोंको बिना प्रतिटिन पुरुष यदि गरीयोंको कुछ द्रव्य न देकर प्राकाहाके ही मनोवांछित वस्तुका लाभ होता है। केवल प्रेत (र्ण वचनालाप कर लेते हैं तो यह छोटे व्यक्तियों प्राचार्य महाराज लिखते हैं कि मुग्यके देखनेसे अंतरंग के लिए राज्याभिषेक के नुल्य होता है
हृदयकी बातोंका पता चल जाता है।मुग्वदानं हि मुख्यानां लघूनामभिरेचनम ॥ ७-६॥ वक्त्रं वक्ति हिमानमम । चतुर पुषों के लिए ग्रंथकार यह शिक्षा देने हैं:
इस प्रकार पूर्ण ग्रंथका पर्यालोचन करनेपर अत्यंत चतुराणां स्वकार्याक्तिःस्त्रमुग्वान्नाहि वर्तते ॥८-२३॥ उपयोगी एवं कल्याणकारी सूफियाका भडार पाया जाता
'चतुर लोग अपनी कृतिका वर्णन अपने मुखसे नहीं है। प्रत्येक विचारशील व्यक्ति ग्रंथके अध्ययनके अनंतर इस किया करते।'
सायका हृदयमे समर्थन करेगा कि, चूडामणि संस्कृत वृद्धावस्था
साहिपकी एक अनूठी रचना है। जिस बुढापेमें मनुष्यही तृष्णा अधिक बढ़ती जाती है महृदय विद्वानोंका वर्तव्य है, कि इस रचनाका अध्ययन और अंगप्रत्यंग शिथिल होते हैं उसके विषयमें प्राचार्य करें, और विश्वविद्यालयोंके पठनक्रममें रखकर इसके महाराज बताते हैं कि-बुढ़ापा तो विरक्तिके लिए है।' प्रचारको व्यापक बनावे ।
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
मध्यप्रदेश और बरारमें जैनपुरातत्व
( लेखक - मुनि फांतिसागर )
AXAA
या एक कला-प्रधान देश है, क्योंकि तो दूर रही, उनपर ध्यान तक भी नही दिया जाता । की
अवस्थामें कई शिल्प स्थापत्य यो ही नष्ट हो गये । जो कुछ भी शेष रहे हैं उनकी भी रक्षा न होगी तो न मालूम भविष्य मे क्या होगा ?
पुरातन काल से ही कलाको इस देशमें बहुत महत्व दिया जाता रहा है । इस देशने अनेक क्लाविदों को उत्पन्नर कलाको विस्तृत किया है। भारतकी प्राचीन सर्वोत्कृष्ट फलाएँ आज भी समस्त विश्वक आति कर रही है। आज अभारतीय जिनने देश कला-कौशल्य का दावा करते हैं वे संभवतः भारतीय कलाका मुफाबिला किसी हालत में भी नही कर सकते । यहाँ के निवासी कलाविद्वारा निर्मित साहित्य में कलाका विशेष रूपसे प्रतिपादन किया गया है । भर्तृहरिने तो यहाँ तक लिखा है कि 'कलाविहीन मानव-जीवन पशु तुल्य है।' इमी फलाफी] सर्वव्यापकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। यहां पर यह न भूलना चाहिये कि कला नाना प्रकारकी होती है । जसे कि ग्रंथ निर्माण कला, शिल्प स्थापत्य कला, गृह-निर्माणकला आदि भिन्न भिन्न प्रकार की कलाओं के विवेचन वरदेवा यह स्थान नहीं है । इसके लिये तो स्वतन्त्र निबन्धकी यता है ।
भारतीय प्राचीन शिल्प-स्थापत्य के इतिहास में जैन शिल्प स्थापत्यका एक विशेष स्थान है। उसमे भी मध्य फालीन गुर्जर-शिल्प स्थापत्य कला जितनी जैनियों में पाई जाती है उतनी अन्यत्र उपलब्ध नहीं होती। भारतीय शिल्प स्थापत्य के इतिहास मे जैन-शिल्पस्थापत्यका हिस्सा सर्वोत्कृष्ट है । यों तो जैनियोषी शिल्प स्थापत्य कला समस्त भारतमे फैली हुई है, जिनमें से कईके विवरण भी प्रकाशित हो चुके हैं। सी०पी० और बरार प्रान्तमे जैनियोंका काफी प्रभुत्व है । अतः यहाँ भी कुछ स्थापत्य कला के नमूने पाये जाते हैं। पर जैनी लोगों द्वारा अपनी संस्कृतिक गौरवको बढ़ाने वाले उन प्राचीन शिल्प स्थापत्योकी रक्षा करनी
हम यहाँ पर इस प्रातमें पाये जाने वाले कतिपय जैन-शिल्प-स्थापत्य का मेक्षित परिचय पराते हैं । जो अभी तक शायद श्रप्रकाशित है। आशा है, यह पापों को चिर एवं पुत्रोको पथ-प्रदेश क सिद्ध होगा ।
रोहण - पूर्वकालमें यह नगर पूरा नितिके शिखरपर पहुंचा था ऐसा तत्र स्थित भग्नावशेषो से ज्ञात होता है । पुरातन काल मे रोहाबाद नामसे उक्त शहर मशहूर था। आलमगीर (औरंगजेब) का एक सूत्रा भी वहां रहता था। वहां के बालाजीके मन्दिर के सामने वाले खेतमे परीब ३|| फीट लम्मी और २ फीट चौड़ी पद्मासनस्थ प्राचीन अखंडित वेताम्बर जैनमृति पड़ी हुई है । यद्यपि मूर्त्तिपर लेख उत्पीर्णित नहीं है, पापा पर से जाना जाता है कि यह मृति ६०० साल पूर्व की होनी चाहिये । मूर्ति बहुत ही सुन्दर एवं मनोज्ञ है। बगल मे ही तीन फीट लम्बा और दो फीट चौड़ा स्तंभाकार रूप बना हुआ है । जिसमें चारों ओर श्वेताम्बर मूर्त्तियाँ खुदी हुई हैं। तथा वहाँ पर शिव मन्दिर में चक्रेश्वरी एवं त्रिदेवीकी वलापूर्ण मृतिये बहुत ही दुरावस्था में वर्तमान है । इनके अतिरिक्त और बहुतसे जैनंतर देव-देवियांची मृतिये वहाँ पर पड़ी हुई है । यदि कोई उक्त मूर्तियाँ ले जाने वाला होवे तो कोई प्रकार भी रोक टोक नहीं है ।
कारंजा - दहाँसे सात कोरूपर अवलिया बाबाका एक स्थान है जहाँपर आजू बाजूक ग्रामीण लोग विश्राम करते हैं । वहाँ एक सुन्दर स्तम्भपर चारों ओर दिगम्बर जैनमृतियां उल्लिखित हैं । ६०० साल पूर्व
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
मध्यप्रदेश और बरारमें जैनपुरातत्व
को त्रास होतो हैं। वही चहानांपर और भी जैन- ऐतिहासिक दृष्टिले यह नगरी काकी प्राचीन है। खास मूर्तियां खुदी हुई है। अफसोस इस बातका है कि कर यहांपर बाद्धवर्मको विशेपता रही है । एवं पाश्चाउक्त स्तम्भ जीनमें लगा दिया गया है । कारंजा लाड़ त्य शंषमतावलम्बियोकी संख्या अधिक रही हो ऐसा जैनियोका केन्द्र है। सोलहवी शताविम यहाँके एक तत्रस्थित अवशेपोसे ज्ञात होता है। फिर भी वहांपर जैनश्रावकने बहुतसे जिनमन्दिर एवं ज्ञानभंटाकी जनमूर्तियां भी उपलब्ध होती हैं। कितनी ही मूर्तियां भिन्न भिन्न नगरामें स्थापना की थी ऐसा मेरे संग्रहके जैन मन्दिर के पाछेक भागम एक देवाके मन्दिरमे एक महत्वपूर्ण प्रतिमा-लेखमे जाना जाता है । हम पड़ी हुई है। संभवतः ५०० वर्ष पूर्व की होनी चाहिये। वहांके नगरनिवासियोसे उसकी सुरक्षाके लिये आशा वहांमे डेढ़ मील दूरी पर एक विजासनकी गुफामें रग्वे क्या ?
तीन विशालकाय मूर्तियां उत्कीणित हैं। कहा जाता है आर्वी-यहाँके सैतवालके मन्दिर में एक सन्दर
कि ये मूर्तियाँ जैन धर्म की हैं। हमारे खयालमें यह धातकी मनि पड़ी हुई है। यह मति उत्तर भारतीय मूतियाँ जनियोकी न होकर बौद्धधापी है । क्योकि कलाको
शरीरपर वस्त्र पड़ा हुआ है और विजासनका संबंध चाहिये ।। लेग्य नही है । अपरिचित व्यक्तियोको
बौद्धधर्मस है न कि जनधर्नस । यहांका पूर्ण इतिहास ऐसा प्रतीत होता है कि यह मूर्ति भगवान बुद्धदेवकी वर्तमानमें हम लिख रहे है। होनी चाहिये और इसीसे वे लोग इस मूर्तिको पूजा सिंधी-मिंधी ग्राम केलसरसे करीब ७ मील पर श्रचनामें नहीं लाते । पहिले लाते थे।
है। वहाके दिगम्बर जैनमन्दिरमें बहुत सी पुरातन मेलमर-यह गांव वामे नागपुर जाते हये २०
जैनमूतियाँ है। वहीं मन्दिरमे ३६ इञ्च ऊँची पद्मावती वे मीनपर है। वहांक प्राचीन जीर्ण दुर्गके खंडहरों
देवीकी कलापूर्णबड़ी मनोज्ञ प्राचीन प्रतिमा श्रवमें किरते फिरते निम्नोक्त दो मूर्तियां देखने में आई स्थित है। मस्तकपराज
स्थित है। मस्तकपर जिन भगवानकी मूर्ति रखी हुई है। थीं । दगके ऊपर के गणपति मन्दिरके पीछेके भागमें
मूर्तिक आभूपणास ज्ञात होता है कि करीब १३ वी एक पुरातन वापिकामे करीब एक फलङ्गि दर दो
शताब्दिकी होनी चाहिये । यह मृति शिल्पकलाफी फीट चौड़ी और चार फीट लम्बी दिगम्बर जैनमति हाष्टम महत्वपूर्ण हा
दृष्टिम महत्वपूर्ण ही नहीं अद्वितीय है। हपका विषय वंडित अवस्थामें विद्यमान है। मालूम होता है इस
है कि प्रतिमा बिल्कुल अवंटित है। मतिको किमीने बुद्धिपूर्वक खंडित किया है। कलाकी नागपुर-यह नगर मध्यप्रान्तम व्यापारका केन्द्र दृष्टि में इस मूर्तिका कोई खास महत्व नहीं है । आगे होनेके कारण तथा अन्य कारणों के सबब बहुत चलकर एक दृसरी मूवी वापिका-के पास जो घने महत्वपूर्ण समझा जाता है। यहां के अजायब घरमें खंडहरोमें है-तीन फीट चट्टानपर श्वेताम्बर पद्मा- श्वेताम्बर एवं दिगम्बर मूर्तियां काफी संख्या में विद्यसनत्य खुदी हुई है। उपरोक्त मूर्तियोसे पता मान है। वहां के कुछ लेख भी मैंने लिये हैं। चलता है कि यहांपर जैनियोंकी संस्था विशेष परि- सिवनी-यहांक दिगम्बर जैनमन्दिर मध्यभारत मागमें रही होगी । कहा जाता है पुरातन काल में में प्रसिद्ध है। इन मंदिरोम सात मूर्तियां इतनी यह स्थान इतना ऊँचा था जमा कि आज नागपुर है। प्राचीन है जा क्रमशः तेरहवीं और पन्द्रहवी शताब्दि आज भी वर्षा कालमें वहांपर बहुतमी चीजें उपलब्ध की हैं। ये मूर्तियां घुनसरसे लाई गई हैं। होती हैं। संभवतः यह दुर्ग भासलोने बनवाया होगा। छपारा यहांक पंचायती मन्दिरमें एक मूत्ति ___ भद्रावती-मध्यप्रदेशके इतिहासमें भद्रावती श्याम पापाणकी रखी हुई है जो घुनसौरमे लाई गई यह शुभ नाम बड़े ही गौरवके साथ लिखा जाता है। थी। इस मूर्ति के दोनों ओर खड़ी मूर्तियाँ खुदी हुई
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________ अनेकान्त [वर्ष 5 हैं। मूर्तिके कर्ण के दोनों ओर देवियों की मूर्तियाँ और केन्द्र रहा हो / जबलपुरमें भी बहुतसी ऐसी पुरातन उसके नीचेके अर्धशरीरमें देवियोकी मार्तयां उत्की- जैनमूर्तियां पाई जाती है जो भारतीय मूर्तिनिर्माण र्णित है। पीछेका सिंहासन खंक्ति है। निम्नस्थान कलाम अत्यन्त महत्व रखती हैं। सभी मूर्तियोंका में दोनों ओर ग्रास बने हुये हैं। बताया जाता है संक्षिप्त परिचय यथावकाश कराया जावेगा। कि इस मूर्तिकी जोड़ी घुनसौरमं विद्यमान है। यह उपरोक्त विवरणसे स्पष्ट हो जाता है कि सी०पी० मूर्ति दसवीं शताब्दिक करीवकी होनी चाहिये। और बरार प्रान्तम बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री छिपी न यहाँ एक कायस्थके घरपर कुछ हुई है। सच पूछा जाय तो मध्यप्रान्तक इतिहासका दिगम्बर जैनमूर्तियां रखी हैं। नगरके बाहिर एक टीला है जो शान्तिनाथ टोरिया नामसे प्रसिद्ध है। हुआ, तो फिर जैनइतिहासके प्रति लोगोकी उपेक्षा रहे इसमे पता चलता है कि यहाँपर पहिले जैनियोंका इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। मध्यप्रान्तमे घूमते समय काफी प्रभुत्व रहा होगा। यहाँसे एक मड़क घुनसारको जितना पुरातत्व हमे मिला उसका संग्रह यहॉपर कर जाती है। उसे तो जैनमूर्तियोंका केन्द्र बताया जाता दिया गया है। आशा है कि प्रान्तीय धनीमानी व्यक्ति है। यहाँ वतमान अवस्थामें भी बहुतसी ऐसी वस्तुएँ उपरोक्त संग्रहणीय वस्तुओंका संग्रह एवं सुरक्षा करने मिलती हैं जो मध्यप्रान्तीय संस्कृतिक गौरवकी अभि- का श्रेय प्राप्त करेंगे / ऐसी ही आशास लेख पूर्ण किया वृद्धि करती हैं / घुनसौर भी शायद पहिले जैनियोका जाता है। दही-बड़ोंकी डाँट ( लेखक-श्री. दौलतराम 'मित्र' ) बड़े-हाँ, आज आपसे दो-दो बाते करना है। बाबू ज्ञानचंद्र बड़ा बननेकी फिक्रमें हैं, बहुत ज्ञानचंद्र-तो, कहिये। कुछ प्रयत्न भी करते हैं, परंतु अभी तक बड़ा बन बड़े-आप लोगोंने हमारे साथ अभी तक नहीं पाये। जबानी (रसिक) व्यवहार किया है, परंतु क्या कभी वे एक दिन कहींसे थके-थकाये घर आ रहे थे। हमारे साथ हार्दिक (विचारफ) व्यवहार भी किया है रास्ते में हलवाईकी दुकान पड़ी। आवाज आई कि हम बड़ा कैसे बन पाये हैं ?-ज्ञानूबाबू, हम आप "दही बड़ोंकी चाद, ले लो दो पैसे में आठ !"-मन को अच्छी तरह जानते हैं, आप भी बड़ा बननेकी चल गया ! दही बड़े लेकर घर आये। बड़ोंका दोना बड़ी फिक्रमें हो। परंतु जिस तरीकेसे श्राप बड़ा सामने रखकर तकियेके सहारे लेट गये। बनना चाहते हो, उस तरीकेसे बड़ा नहीं बना जाता। यदि बड़ा बनना है बड़ा, तो तरीका हमसे सीखो ! स्वप्नमें वे देखने लगे-दही बड़े कुछ बड़बड़ा देखो बड़ा बनने के लिये परिषहे जय करना होती रहे हैं हैं। सुनो, हम तुम्हें अपनी बीती सुनाते हैं कि हम ज्ञानचंद्र-महाशय, क्या कुछ कहना चाहते हैं ? उर्ध्व (उड़द) जाति के धान्य बड़े कैसे बन पाये / हम
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
दही बड़ोंकी डांट
घटीमें दलकर दो दो टुकड़े किये गये, रात भर पानी "क्या कहते हो, यह कि शत्र कोई न हमारा? मे डाले गये, मसल मसलकर हमारी खाल उतारी छि:जिसने कर्तव्य-माग पर गमन विचारागई, सिला-लोढ़ीसे रगड़ रगड़ कर पीसे गये, नमक- जो वीरो की भाँति माग पाक्रमणित करतामिर्च-मसाले के साथ घोटे गये, तेलमे तले गये, फिर है, अवश्य ही वह बन जाता शत्रु-विधाता ॥ पानी में डाले गये, निचोड़ निचोड़ कर दहीम पटक दुश्मन कोई है नहीं, तो तुम कर्म अपात्र हो। गये,-इतनी परिषद जय की तब कही जाकर बड़े अथवा कहने दीजिये, कर्म-क्षेत्र के छात्र हो । बन पाये हैं जनाब ! बड़ा बननक उम्मेदवार धोके बाजों की न कमर यदि तुमने तोड़ी। ज्ञानूबा , अब आप बतलाइये कि क्या इस प्रकार कुपथ-गामियो की न अगर वह-टोली फोड़ी ।। की परिपह आपने कभी जय की है ?-हमतो तुम्हे एक तो फिर तुमने भ्रात, किया क्या हमें दिखाओ ? लम्बे अर्मेमे देख रहे है, तुम्हारी दृष्टि(लक्ष) अभी युद्ध-क्षेत्र में भीरु बने, क्यो हमे लुभात्रो ! शुद्ध नहीं है। उसमें दोप हैं
नाम कमाना चाहते, तजो आज ही भीरुता। १ तुम शंङ्कित (भयभीत) भी हो।
शुद्ध भाव से मित्रवर, ग्रहण करो कर्तव्यता ।।*" २ तुम कांक्षित (इदियविषय-भोगाभिलापी) ज्ञानचन्द्र-(सिर भु.काकर) तथास्तु।-आप भी हो।
धन्य हो, आपके सदुपदेशसे मेरी आत्मा आज ३ तुम दीन-हीन जनांसे ग्लानि भी करते हो। अंधकारीसे प्रकाशमें आगई, इसके लिये मै आपका मद भी करते हो।
अत्यन्त आभारी हूँ। ४-५ तुम भय, आशा, प्रीति और लोभके वश असत्यमार्गियोकी प्रशंमा तथा संस्तव भी करते हो।
आँख खुली तो ज्ञानचन्द्रने देखा-दही बड़े मौजूद और इस तरह दृढता छोड़ लोक-हितकी उपेक्षा कर
है और वे सभी चुप चाप अपनी अपनी जगह बैठे हैं। जाते हो।
परन्तु उनके अपने हृदयमें आन्दोलन शुरू है। विकार दही बड़े-क्यो हैं न ये दोष? बाबू , हम
और विचार दोनोकी गुत्थमगुत्था होरही है। अंतमें मानते हैं कि तुम उदार हो, पर-सेवक हो, भद्र
विकार हारा, विचारकी विजय हुई। दही-बड़ोंकी परिणामी हो, परंतु इतनेसे ही अगर अपनेको बड़ा
डाट असर कर गई। मान बैठो तो भूल करते हो, ज्ञानू! यह मागे बड़ा टेढ़ा है । देखो हम तुम्हें कुछ सलाहें बतला देते हैं, ज्ञानचन्द्रकी दृष्टि (लक्ष) अब शुद्ध है। उनमें उन पर ध्यान रखते हा चलोगे, घबड़ाओगे नही, आत्म-विश्वास और दृढ़ता (चारित्र) नजर आती है। तो ठीक ठिकाने पहुंच जाओगे, और दसरों के लिये अब तो वे जनमतकी नहीं, जनहित की पर्वाह करते हैं। मार्गदर्शक भी बन जाओगे
You have no enemies, you say? "अगर तुम्हारा निश्चय है यह, तुम्हे बड़ा ही बनना है। Alasl my friend, the boast is poorतो परजन का त्याग भरोसा, आत्म-श्रद्धा करना है। He who has mingled in the pray लोगों की पर्वाह करो मत मनमें तुम दृढ़ता धारो।
of duty, that the brave endure ढीले पड़कर जन-मन-रंजन की चिन्ता को भी टारो॥"*
Must have made foes! If you have none
Small in the work you have done, “When you have resolved to be
You've hitno trator on the bap great abide by yourself and do not
You've never turned the wrong to tight weaking try to reconcile yourself
You've been a coward in the fight with the world." (Emerson)
(Charles Mackay)
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
श्रनेकान्त
जैनधम भूषण, धमदिवाकर
स्व० ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजीका स्मारक
सीतल सेवामन्दिर, देहली के लिये ५००००) रु० की अपील
>
[ वर्ष ५
प्यारे जैन बन्धुओ ! स्त्र० प्र० सीतलप्रसादजीने अपने जीवन काल में जो स्वाये उन मजकी की हैं वह किसी से डिपी नही है । उनका समस्त जीवन परोपकारमे ही व्यतीत हुआ। काल करालने उन्हें हमसे छीन लिया। ऐसे परोपकारी महान व्यक्तित्वा भौतिक शरीर भले ही नष्ट हो गया परन्तु उनका यशस्वी शरीर सदैव बना रहेगा | ब्र० जीने ४० वर्ष तक देशक कौने २ में घूमकर जैनधर्मका प्रचार किया, युवकों को समाज सेवा के लिये तैयार किया । धनिकवर्ग से खूब दान कराया, जगह बोर्डिंग और अनेक जैनस्स्थाएं स्थापित कराई गरीब छात्रोंके लिये छात्रवृत्तियोका प्रबन्ध कराया । सरल भाषामे करीब १०० ग्रन्थ लिखे । अर्जेन विद्वानाम जैनधर्मका प्रचार करके उनके हृदय पर जैनधर्मका सिक्का जमाया, तीर्थोंका प्रबन्ध कराय, बहुत से जैनको जिनकी श्रद्धा जैनवमे से हट गई थी उन्हें पक्का जैन बनाया । व्र० जीने एक नहीं, सैक्ड़ो उपकार जैनसमाजपर किये है। जो जैन इतिहास मे स्वर्णाक्षरोम लिखे जायेंगे और जैनसमाज सदैव उनका ऋणी रहूंगा।
भा० दि० जैन परिषद् के वह केवल संस्थापक ही नहीं थे बल्कि इसके प्रारण थे । यद्यपि परिषद् उनके प्रति कृतत्रताके ऋण को चुकाने में असमर्थ है तथापि श्रद्धावे पुष्प के रूप में परिषदने अपनी २०-३-१६४२ की मीटिंग में स्व० व्र० जीके स्मारकके रूप में देहलीमे मीनल सेवा मन्दिर बनवाने का प्रस्ताव पास किया है और निश्चया किया है कि एक आदर्श बत्ती बनाई जावे । जिसमें अनुसंधान मन्दिर, लाइब्रेरी, परीक्षा बोर्ड, प्रकाशन कार्यालय, शिक्षामन्दिर, सेवाश्रम, ज्योगशाला आदि धार्मिक और सामाजिक संस्थाये स्थान पाये । इस योजनाको चालू करनेके लिये परिपने फिलहाल ५००००) का फण्ड इकट्ठा करने की घोषणा की है। परिपद् कार्यकारिणी समितिका विचार है कि आगरेकी दयाल बाग़ सरीखी आदर्श संस्था ब्रह्मचारीजी की पुण्य स्मृति में जैनममाज के सामने उपस्थित की जावे ।
वैसे तो स्व० ब्र० जी द्वारा समस्त जैनसमाजका किसी न किसी रूपमें उपकार हुवा है । परन्तु शिक्षित भाईयों का जो उपकार उनके द्वारा हुवा है वह किसीमें छिपा नही है । जैन शिक्षित भाइयोंमें जो कुछ भी धर्म प्रेम और समाज सेवाका भाव आज पाया जाता है उसका श्रेय ब्र०जीको ही है ।
श्रतः हम जैन समाज के समस्त भाईयो से सादर निवेदन करते है कि वह ५०००० ) हजारके पण्डकी पूर्ति शीघ्र से शीघ्र करके इसके संयोजको की हिम्मत और साहस बढ़ायें । स्वयं इसमें अच्छी रकम प्रदान करें तथा अपने मित्रों से सहायता दिलवायें । तन, मन, धनसे जैसे भी बन सके इस प्रयोजनाको सफल बनाकर सुयशके भागी बनें | इस संकट तथा भयानक समयमे लक्ष्मीका सदुपयोग कर लेना ही बुद्धिमत्ता है ।
सहायताका तमाम रुपया सैन्ट्रल बैंक आफ इण्डिया, देहलीमे भा० दि० जैन परिषद् के खाते में जमा
किया जावेगा ।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४ ]
सीतल-सेवामंदिर, देहलीके लिये अपील
१-सैट्रल बैंक आफ इण्डिया, देहली
सहायता भेजने के पतेः २ - बा० रतनलालजी Ex ML.C., B. Sc. LL. B बिजनौर ३ - बा०चन्दूलालजीजैन 'अख्तर' B.A., वकील, कोषाध्यक्ष, दरीबा कलां, देहली निवेदक:
१ - साहू शान्तिप्रसादजी डालमियानगर
२ - चम्पतरायजी जैन, बार एट. लॉ०
३ - साहू श्रीयामप्रसाद जैन, डायरेक्टर भा०बीमा कं०, लाहौर ४ - लालचन्द जैन Advocate, राहतक ५ - राजेन्द्रकुमार जैन, डा० इञ्चार्ज भा०बी०कं०, लाहौर ६- लालचन्द जैन बीड़ी वाले, देहली
७ रनलाल जैन Ex MLC महामंत्री, बिजनौर बालचन्द कौलल्ल (सभापति परिषद्), सागर
६ - उग्रसैन जैन, MALL.B. मधुरा
१० - सिंघई श्रीनन्दनलाल, बीना इटावा
११ - राज्यवैद्य कन्हैयालाल जैन, कानपुर
१२- जमुनाप्रसाद जैन सबजज
१३ - जुगलकिशोर जैन, मग्मावा
२०- निर्मलकुमार जैन श्राश
२१- कामताप्रसाद जैन श्रा० मजिस्ट्रेट, अलीगंज २२ - मूलचन्द किशनदास कापल्या, सूरत २३- बलवीरचन्द जैन श्रा० मजिस्ट्रेट, मुफ्फ़रनगर २४ - राजकिशन जैन बैंकर्स, देहली २५-जयभगवान जैन, B.A.L.L.B. पानीपत २६-बरातीलाल जैन, बैकर्स, लखनऊ २७-कबूलचन्द मित्तल, एडवोकेट, लाहौर २८ - प्रा० हीरालाल जैन M A, अमरावती २६ – राजमल गुलाबचन्द बैंकर्स, भेलसा
३० - मिघई डालचन्द, सागर
३१ - (रा.सा.) देवीमहाय अकाउंटेट जनरल, बड़वानी
३२- भगवानदास जैन, सागर
१४- मेट लक्ष्मीचन्द, भेलसा
३३ - खुवीरसिंह जैन सर्राफ, प्रकाशक वीर, देहली
१५ - ननसुरवराय जैन, डायरेक्टर तिलक बीमा कं०, न्यू देहली ३४ - सिंघई कस्तूरचन्द जैन B.A.LL. B दमोह १६ - उग्रसेन जैन Principal, मेरठ ३५ - मथुरादास जैन समैया, सागर १७–चन्दूलालजैन अख्तर’B A LL.B कोषा परिषद्, देहली ३६ - T. L, Junankar, Subjudge, खुरई १८ - लेखवती जैन Ex. M.L.C, अम्बाला ३७-रायबहादुर नोदमल, अजमेर १६-महेन्द्र सम्पादक, श्रागरा पंच, आगरा ३८ - उग्रमैन जैन बड़ौत
"हमें पता नही कि प्रकृतिके दरबार में उन भयंकर समझे जाने वाले प्राणियोंका स्थान कहाँ है ? परंतु हिमा-द्वारा हम प्रकृति के कानूनोंको कभी न समझ सकेंगे । ऐसे पुरुषोंके वर्णन हमारे पास मौजूद हैं जिनकी दया मनुष्यों को व्याप्त कर उसे लांघ गई थी, और जो भयंकर हिंस्र पशुओ के बीच रहते थे । समस्त जीवन - सृष्टिमें कोई ऐसा अतिरिक्त संबंध जरूर है कि शेर, सिंह, बाघ और सांपोंने उन मनुष्यों को कोई उपद्रव नही पहुँचाया जो निर्भय होकर उन पशुओं के मित्र बनकर उनके पास गये थे ।"
"अगर साधर्म सच्चा धर्म है तो हर तरह
१६५
व्यवहारमें उसका आचरण करना भूल नहीं बल्कि कर्तव्य है । व्यवहार और धर्मके बीच विरोध नही होना चाहिये । धर्मका विरोधी व्यवहार छोड़ देने योग्य है । "सब समय सब जगह संपूर्ण अहिंसा संभव नही" यों कहकर अहिंसा को एक ओर रख देना, हिंसा है, मोह है, ज्ञान है। सच्चा पुरुषार्थ तो इसमें कि हमारा आचरण सदा अहिंसा के अनुसार हो । इस तरह आचरण करने वाला मनुष्य अंतमें परम पद प्राप्त करेगा। क्योंकि वह संपूर्णतया अहिंसाका पालन करने योग्य बनेगा । और यों तो देहधारीके लिये संपूर्ण हिंसा बीज रूप ही रहेगी।"
है
- 'विचारपुष्पोद्यान भाग २'
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक साहित्य-सेवी पर घोर संकट
ऐसा कौन जैनी अथवा हिन्दी-साहित्यका प्रेमी होगा का देन', कि एकाएक बर ईमे बम-गोलोंकी श्राशंकासे जो हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय हीराबाग, बम्बई के भगदड़ मची ! शान्तिभंगके खयालसे भापने भी अन्यत्र मालिक श्रीयुत पं. नाथूरामजी 'प्रेमी' के नामको न जानता जाना उचित समझा और तदनुसार चालीसगावमे डेरा हो । पाप जैनसमाज और हिन्दी-संसार में वर्षोंमे साहित्य- जमाया । अभी कुटुम्बीजनोंके साथ अपने कार्यालयका सेवाका कार्य कर रहे हैं। आपके द्वार सैकड़ों अच्छे-अच्छे श्राधा सामान भी श्राप वहाँ भेज न पाये थे, सामानके ग्रन्थ प्रकाशमें श्राए हैं और हजारों-लाखो व्यक्तियोंने बण्डल भी पूरी तौरसे खुलने न पाये थे कि चालीसगाँवमें उनसे लाभ उठाया है। श्रापका सारा जीवन साहित्य-सेवा जो दुर्घटना घटी उसे लिखते हुए हृदय काँपता और लेखनी में ही व्यतीत हाहै। साहित्य मेवाकी आपको अनुपम थर्गती है ! आपकी आशाओका केन्द्र, आँखोका नूर, लगन है, इसीसे माणिकचंद्र ग्रन्थमालाके संचालकाने शुरू बुढ़ापेका सहारा, इकलीता पुत्र चि० हेमचन्द मोदी से ही आपको अपनी ग्रंथमालाका मंत्री चुन रक्खा है। अचानक टाइफाइड फीवरसे बीमार हो गया। समाचार
उत्तम प्रकाशक ही नहीं किन्त श्रेष्ठ लेखक और पाते ही आप वहाँ दौड़े गये, चिकित्साके लिये बहुत कुछ सम्पादक भी हैं। आपके सम्पादकग्वमे कितने ही वो दौड़-धूप की, कितने ही डाक्टरको जुटाया, परन्तु किसीकी तक 'जैनहितैषी' पत्र भी निकलता रहा है, जिसने जैन
एक न चली। और हेमचन्द १५ दिनकी बीमारीमें ही समाजकी भारी सेवा की है। आपका हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर
१६ मईको रातके १२ बजे परलोक सिधार गया !! इससे कार्यालय हिन्दी में उत्तमोत्तम ग्रंथोके प्रकाशनके लिए
प्रेमीजीका कुलदीपक बुझ गया, उनकी श्रोखोके भागे प्रसिद्ध है, जिसकी कीर्ति देश-विदेश में व्याप्त है और अच्छे
अँधेरा छागया । और उन्हें समझ नहीं पड़ रहा है कि अच्छे विद्वान आपके द्वारा प्रकाशित साहित्यके प्रशंसक हैं,
अब क्या करे और कहाँ जाएँ। हमकी युवती स्त्रीका धापको अच्छे ठोम एवं लोक-हितकारी साहित्यको प्रकाशन
श्राक्रन्दन और दो छोटे छोटे बोका रोदन उन्हें और भी करनेकी खाम धुन और लगन है-थर्डक्लास साहित्यको
बंचन किये देता है। इस घोर संकटके समय आपने किसी अपने कार्यलयले काशित करना उचित नही अभागे पिताके रूपमे जो दर्दभरा पत्र पं० परमेष्टिदासको समझते । यदि अन्य कितने ही प्रकाशकोंकी तरह आपने लिखा है और जो जनमित्र' में प्रकाशित हुआ है उसे प घर्डक्लाम साहित्य प्रकाशित किया होता तो आप कभीके
कर रोना पाता है और प्रेमीजीकी वर्तमान मन.स्थिति एवं लखपती बन गये होते. परन्तु यह श्रापको कभी इष्ट नहीं मनोव्यथाका साफ चित्र धोखोंके सामने खिंच जाता है। हुश्रा । आप उस प्रकारके साहित्य-प्रकाशनको देश, धर्म और निःसन्देह, प्रेमीजी पर यह भारी बमगोला गिरा है और समाजकी सच्ची सेवा नही समझते, इसीसे प्रकाशकोंमे श्राप इससे उनपर जो घोर संकट उपस्थित हुया है उसका को ऊँचा स्थान प्राप्त है और आप गौरवकी दृष्टिसे देखे वर्णन नहीं हो सकता । हेमचन्द्र इकलौता पुत्र ही नही जाते है। स्वभाव भी आपका बडाही प्रेममय सौम्य, उदार, था किन्तु अतिशय संयमी, उदार, सुशील और ३२ वर्ष सरस, कोमल तथा दयालु प्रकृतिका बना हुआ है। आप की अवस्थाको प्राप्त एक प्रतिभाशाली विद्वान पुत्र थासमय-समयपर कितने ही विद्यार्थियोंको स्कालशिप श्रादिके अनेक भाषाओंका पंडित और लेखक था। प्रेमीजीके शब्दों द्वारा उनके अध्ययनमे सहायता भी पहुंचाते रहे हैं। इस मे "जिसको जन्म देना हर एक पिताके लिए गौरवका तरह समाज आपके ऋणसे बहुत कुछ ऋणी है। कारण है।" प्रेमीजीने जसे सब योग्य बनाया था और वह
साहित्यसेवामें मग्न हुए श्राप अानन्दके साथ अपना उनके कार्यालयके सारे भारको सँभालता हुअा उन्हें बहुत जीवन व्यतीत कर रहे थे-'न ऊधोका लेन और न माधो कुछ निश्चिन्त कर रहा था। योगका भी उसने अच्छा अभ्यास
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ३-४]
समाजके दो गण्यमान्य सज्जनोंका वियोग
किया था। उसके योग-विषयक दो एक लेखोंका रसास्वादन वह अटल है-किसी तरह भी टाला नही टल सकता। 'अनेकान्त' के पाठक भी कर चुके हैं। ऐसे सुयोग्य जवान ऐसे घोर संकटके समय में अपने मित्र को किन शब्दोंमें पुत्र का बुढापेमे उठ जाना सचमुच बूढ़ेके कॉपने हुए सान्त्वना दूं यह कुछ भी समझ नहीं पड़ता। संसारमें हाथोंसे लाठीका गिर जाना है, जिसे फिर कोई पकड़ाने होने वाली ऐसी निन्यकी घटनाओका साक्षात् अनुभव ही वाला नहीं है। एक समय था जब हेमचन्द छोटा बच्चा था उन्हें इस दुःख-संकटसे पार लॅघा सकता है, धैर्य बधा
और प्रेमीजी बहुत अस्वस्थ होगये थे-उन्हें अपने जीनेकी सकता है और उनकी प्रात्माम विवेकको जागृत करके श्राशा नही रही थी। उस समय उन्होंने एक वसीयतनामा उन्ह कल्याणक मार्गपर लगा सकता है। ऐसे अवसर पर लिखा था, जिसमे हेमचन्दकी शिक्षा-दीक्षाका भार मेरे किसी ऋषि-मुनिका निम्न वाक्य बड़ा काम देता हैऊपर रखा गया था। उनका वह संकटका समय उस वक्त दुखी दुःखाधिकानपश्येत् सुखी पश्य सुखाधिकान् । टल गया था और वे स्वयं ही अपने मनोनुकूल हेमचन्द यात्मान हर्ष-शोका-या शत्र यामव नार्पयत् ॥ की शिक्षा-दीक्षा करने और उसे सब योग्य नाने में समर्थ
दुखित हृदय-- होगये थे, परन्तु आज जो संकट उनपर उपस्थित हुआ है
जुगलकिशोर मुख्तार
समाजके दो गण्यमान्य सज्जनोंका वियोग
(१) श्रीजिनवाणी-भक्त ला० मुसद्दीलालजोअमृतसर बापने पत्रो द्वारा भी अनेक व्यक्तियोपर व्यक्त किया था। जैन पमाज के पफ मान्य उदारदानी महानुभाव थे। अापने प्रायः (२) वैरिएर चम्पतरायजी जैनसमाजके उन प्रसिद्ध सभी जैन संस्थानोको आर्थिक सहायता प्रदान की है। कार्यकर्ताप्रोममे हैं जिन्होंने अपने जीवनको समाज और इतना ही नहीं, किन्तु अनेक विद्यार्थियोको स्कालशिप साहित्यसेवामे लगाया है। आपने विदेशों में जैनधर्मके देकर उन्हें विद्याध्ययन करनेमे पूर्ण सहयोग व सहायता प्रचारका बडा कार्य किया है और गिरिराज सम्मेद शिखर पहुंचाई है। इसके सिवाय अापने हजारो रुपयोंके जैन के केमको संचालन करनेमे बडी ही तत्परतासे कार्य किया ग्रन्थ भारतीय जैन संस्थाप्रोके अतिरिक्त नैपाल, रगृन,
ल, रगृन, है। अखिल भारतवर्षीय दि. जैन परिपके कायम करनेमें
। यूरुप, अमेरिका, आष्टेलिया, अफ्रीका और जापान श्रादि
भी आपका पुग-पूरा हाथ रहा है। भा० दि. जैन महादेशोंको ११६ पार्सलों द्वारा भिजवाए हैं। इससे आपकी
सभाके भी श्राप सभापति रह चुके हैं। इस तरह आपकी जिनवाणी भक्तिका अच्छा परिचय मिल जाता है । ग्वेद है
समाज-मेवाएं प्रशंसनीय है । खेद है कि श्रापका ता. २जून कि आपका ना० २४ अप्रैलको ८४ वर्षकी अवस्था में
सन् १६४२ को करांची दुपहरके समय स्वर्गवास होगया स्वर्गवास हो गया है। आप कुछ अर्सेसे बीमार चल रहे
है। आपके वियोगमे दि. जैनसमाजको भारी हानि पहुंची थे । आपने अपने जीवनकालमें अपनी सारी सम्पत्तिका
है जिसकी पूर्ति होना बहुत मुश्किल है । मुना है कि मृत्यु वसीयत द्वारा ट्रस्ट करा दिया था, जिसमे अब आगे भी आपकी श्रोरसे बराबर जैनसाहित्यादिकी सेवा होती
से पहले श्राप अपनी सब सम्पत्तिका विदेशीम जैनधर्मके रहेगी। आप जैसे सच्चे सेवकके उठ जानेये निःसन्देह
प्रचारार्थ दृष्ट कर गए हैं, जिसका विशेष विवरण अभी तक जैन समाजको भारी धक्का पहुंचा है। हार्दिक भावना है
प्रकाशित नहीं हुआ है। हम स्वर्गीय श्रामाके लिए
परलोकमें शान्तिकी भावना करते हुए कुटुम्बीजनोके इस कि आपके आत्माको परलोकमे सुखशान्तिकी प्राप्ति हो और
दुःखमे समवेदना प्रकट करते हैं। आपकी विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर केवलियों श्रुतकेवलियों के चरण-शरणमें रहनेकी वह अन्तिम इच्छा पूर्ण हो जिसे
-जुगलकिशोर मुख्तार
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
वह मनुष्य नहीं देवता था
मुलतानवासी दिगम्बरजैन-ओसवालोके नररत्न था। सामाजिक सुधारमें अग्रसर होकर कुछ निधन श्रीमान ला० जिनदासजी संघवी द्वि० ज्येष्ठ वदी भाइयों के विवाह केवल २५) पच्चीस रुपयेके खर्च में १३ गुरुवार ता० ११जून १६४२ को सायं साढ़ेतीन बजे करा दिये, जिनमें समस्त रीति रिवाज भी कराये । अपनी ऐहिक लीला समाधिपूर्वक समेट कर देवपुरी मुलतानमें बाहर आने वाले भाइयोका आतिथ्य को चल बसे हैं, यह जानकर किसे खेद नही होगा! सत्कार मुख्य रूपमे जिनदासजी ही करते थे। वे
ला० जिनदासजी मानवाकारमे एक देव थे, अपनी दुकानके निकाले हुए धर्मादेसे भी अधिक मूर्तिमान परोपकार और सेवाकी मूति थे, सच्चरित्रके एवं उपयोगी गुप्त दान किया करते थे। जो कोईभी
आदर्श थे, नगरमान्य न्यायाधीश थे, शरीरम कृश आड़ा मामला आता जिनदासजी अपनी प्रखरबुद्धिसे किन्तु श्रात्मवल-मनोबलके धनी, अनुपम साहसी एवं उमे झट सुलझा देते थे। विकट अवसर पर भी उन्हें धैर्यकी प्रतिमा थे तथा अतिथ्यसेवाक प्रमुख पाठक तत्काल समुचित उपाय सूझ पाता था। एक बार एक थे। उनकी चतुमुखी प्रतिभा साधारण शिक्षा पानपर बरातमें बन्नूम लौटते ममय कारणवश वे डेरा भी प्रत्येक विषयमें श्रागे दौड़ती थी, उनकी रसनामें इस्माइलखानम पीछे अकेले रह गये। दरियाखांके अद्भत वाणीरस था-मानो सरस्वतीने अपने हाथोस उस स्टेशन पर पैदल पहुँचते समय रात्रिक प्रारम्भ समय परत्र लिख दिया हो। साथ ही सफल व्यापारीथे,सतत् में दो लुटेरे पठान उन्हे आ मिले । सीमाप्रान्तमे उन उद्योगी और उत्साही थे, अच्छे समाज सुधारक थे, दिनों कांग्रेसी मंत्रिमंडल था, जिनदासजीने जेबसे धर्मके आश्रय थे, निरभिमानी आर निरीह सेवक थे, कागज पैसिल निकालते हुए कहा 'हम गांधी पुलिस सादा रहन-सहनके प्रेमी थे, विश्व मैत्री-गुणिप्रमोद- हैं, तुम रातको घर से बाहर क्यों निफले, अपने नाम दयालुता उनमें साकार विद्यमान थी, और इन्हीं बताओ' यह सुन डरकर वे लुटेरे पठान भाग गये। सब गुणोंसे वे सर्वप्रिय थे।
धर्माचारमें, सदाचारमे, नैतिक व्यवहारमें वे सौटंच योंतो आपकी आयु ५० वर्षसे भी अधिक संख्या सोने के समान खरे थे, और मुलतान जैनसमाजके पार कर चुकी थी किन्तु आपका मानसिक उत्साह युवा स्तम्भ थे। उनके दृष्टिम ओझल होजाने पर आज पुरुषोंको भी लज्जित करता था ।रुग्ण-शय्या पर लेटे हए यहां अन्धकार होगया है !!
आपने कई दिन जो मृत्युक साथ वीरतापूर्ण युद्ध आप अपने पीछे तीन सुयोग्य पुत्र, पौत्र, दौहित्र किया वह दर्शनीय था। यद्यपि उममें अंतिम विजय आदि बडा परिवार छोड गये हैं. आपने अपनी आपको न मिली किन्तु श्रापकी वीरता प्रशंसनीय रही। सावचेत दशामें अपने हाथ लिखकर दान किया है।
ला० जिनदामजी जीवन भर परोपकारमे लगे रुग्ण-शय्यापर पड़े आपको आध्यात्मिकचचोंके सिवाय रहे। किसीका कष्ट निवारण करनेके लिये वे अपनी और कोई बात न सुहातीथी, तदनुकूल ही यथासम्भव भूख,प्यास,थकावट तथाव्यापार आदिको भी भूल जाते प्रबन्ध कर दिया गया था। आध्यात्मिक ग्समें लीन रह थे, अनाथ विधवाओं, दरिद्रोंको गुप्त महायता दिया कर आपने शरीर-पीड़ासे कभी प्राह तक न की। करते थे जिसका परिचय उनके पुत्रोंको भी नहीं होता यदि ला०जिनदासजी सरीखे महात्मा सज्जन नरथा । अपने जीवनमें उन्होंने मैकड़ों दीवानी फैसले तय रत्न प्रत्येक नगरमें मिल सके तो निःसंदेह यह पृथ्वीकरके सैकड़ों परिवारोंको बरबादीसे बचाया है। अभी तल स्वर्ग बन जावे हमें आपके वियोगसे बहुत दुःख है। चारपाई पर पड़े पड़े भी दो झगडोका फैसला किया मुलतान ]
-अजितकुमार जैन शास्त्री
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तके सहाय
ब तक न सनीने अनेकान्तको दोस संवार्थ के प्रति प्रसन्नता व्यक्त करते हुये, उसे पाटेकी चिन्तास मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्य मे प्रगति करने और अधिकाधिक रूपसे समाजमा अमर होनेके लिये महायताका वचन देकर उसकी सहायक श्रेणीमे अपना नाम लिया है उनके शुभ नाम सहायताकी रकम साइत इस प्रकार हैं :
२२५०जी जैन ईम, कलकत्ता | १०१) बा० श्रजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ। १०१) वा० बहादुर सिहजी मिधी, कलकत्ता । १००) साहू शान्तिप्रसादजी बन, डाला मयानगर । (१००) बा० शातिनाथ सुपुत्र बा० नन्दलाल जी, कलकत्ता । १००) सेट जोखीरामजी बेजनाथजी सरावगी, कलकत्ता । १००) माहादजी जैन, लाहौर १०) बालचन्द
क १००) बा० जयभगवानजी पल आदि जैन पंचानन पानी १०० ला रात्री जैन, न्यू देली
५१) ग० च० बा० उलफतरायजी जैन रि० इजीनियर, मेरठ। ५०) ना० दलीपसिह कागज और उनकी मार्फत देहली। २५) पं० नामी प्रेमी, हिन्दी अन् नाकर बई। २५) ला० सहामली जन, शामियाने वाले महाग्नपर । २५) बा० रघुवर दयालजी जैन एम०ए० करोलबाग़ देहली। २५ सेठी जैन टोम्पा, इन्दौर। ਜਨ २५) ना० बाबूराम
प्रसादजी जन, हिस्सा जला
मुजफ्फरनगर ।
२५ सवाई सिप धर्मदगी जैन सतना २५) १० दीपचंदजी जैन रईस, देहरादून ।
२५) ला० प्रयुमनकुमार जी जेन रईस, सहारनपुर । २५) मशी सुमनप्रसाद जी जैन रि० अमीन, सहारनपुर ।
आशा है अनेकान्त के प्रेमी दूसरे सज्जन भी आपका अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्वीमको सफल मनाने अपना पूरा सहयोग प्रदान करके यशके माम बनेगे ।
व्यवस्थापक 'श्रनेकान्त' करमेयामन्दिर, सरसाया (सहारनपुर)
दिगम्बर जैन प्रथसूचीके लिये १२५०) रु० की सहायता
श्रीमान् ला जुगल किशोरजी जैन मालिक फर्म मीमल धर्मदास कामतो पायी बाजार रेहलीने अपनी पूज्य माता श्रीमती फूलवती देवी धर्मपत्नी स्वर्गीय ला० सरदारीमल की ओरसे दिगम्बर जैन के लिये ग्रन्थसूची वीरसेवामन्दिर सरमावाको १२५०) २००१] सहायता वचन दिया है, जिसमे से श्राधेसे ऊपरकी सहायता कागज श्रादिके रूपमें आपकी फर्मसे प्राप्त भी हो चुकी है। ग्रन्थ सूची जैसे समपयोगी श्रावश्यक कार्यके लिये आपकी इस सहायताका बड़ा मूल्य है। मैं आपके इस सद्विचार और उदारभावका हृदय से श्रभिनन्दन करता हुआ श्रापको और माताजीको हार्दिक धन्यवाद भेंट करता हूँ । श्राशा है दूसरे समान भी दि०जैनग्रन्थोंकी मुकम्मल सूची कैसे कार्यके महत्वको समझकर उसे अपना पूरा सहयोग प्रदान करेंगे । जुगलकिशोर मुख्तार
धाता वीसवमान्दर
अनेकान्तको सहायता
किरण में प्रकाशित सहायता के बाद श्रनेकान्तका द्वितीय-तृतीयमार्ग ४७) रु० की नीचे लिखी सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महाशय धन्यवाद के पात्र है२५) गुप्त सहायता सदरबाजार देहलीके एक महानुभावकी
श्रोरसं, जिन्होंने अपना नाम पत्र में प्रकट करनेसे मना किया है। आपकी फोरसे विद्वान धनेकान्त
जयगा ।
(१०) उदयराम जिनेश्वरदास जैन बज्ञाज़, सहारनपुर (चार निर्दिष्ट सस्था श्रनेकान्त एक वर्ष तक फ्री भिज. वानेके लिये)
५) जा०राम
भोलानाथ, शाहाबाद देहली
ला० कुअलाल कुंदनलाल जैन श्रादती नयाबाज़ार देहली (पुत्रविवाहकी खुशी में)
५) ला० किशोरीलाल एण्ड सन्स, लाहौर मार्फत ला० छोटेलाल इंछाराम उन बस्ती टैंकोंवाली, फीरोजपुर छावनी (पुत्री विवाहक
२) ० रेशमलाल मेडिया परवाल जैन, इन्दौर, मार्फत भाई दौलतराम मिश्र इन्दौर (पुत्रके विवाह की खुशी में) -व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
Registered No. A-731.
वीर-शासन-जयन्ती
अर्थात् श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाकी पुण्य-तिथि । यह तिथि इतिहासमें अपना खास महत्व रखती है और एक ऐसे 'सर्वोदय' तीर्थकी जन्मतिथि है, जिसका लक्ष्य ' सर्वप्राणहित' है।
र अहिंसाके अवतार श्री सन्मति-वर्द्धमान महावीर आदि नामोंसे नामाडित वीर भगवानका तीर्थ प्रवर्तित हुश्रा, उनका शासन शुरू हुआ, उनकी दिव्यध्वनि वाणी पहलेपहल खिरी, जिसके द्वारा सब राजीवोंको उनके हितका वह सन्देश सुनाया गया जिसने उन्हें दुःखोंसे छूटनेका मार्ग बताया, दुःखकी कारणीभूत
भूलें सुझाई, वहमोंको दूर किया, यह स्पष्ट करके बतलाया कि सच्चा सुख अहिंसा ओर अनेकान्तदृष्टिको अपनाने में है, समताको अपने जीवनका अङ्ग बनाने में है, अथवा बन्धनसे-परतन्त्रतासे-विभावपरिणतिसे टनेमें है। साथ ही, सब यात्मायोको समान बतलाते हुए, आत्मविकासका सीधा तथा सरल उपाय सुझाया
और यह स्पष्ट घोषित किया कि अपना उत्थान और पतन अपने हाथमें है, उसके लिये नितान्त दूसरों पर स माधार रखना, सर्वथा परावलम्बी होना अथवा दूसरोंका दोष देना भारी भूल है।
इपी दिन--पीड़ित, पतित और मागेच्युत जनताको यह आश्वासन मिला कि उसका उद्धार हो सकता है। Rs पद पुण्य-दिवस-- उन कर बलिदानों के सातिशय रोकका दिवस है जिनके द्वारा जोवित प्राणी निर्दयतापूर्वक छुरीके घाट उतारे जाते थे अथवा होमके बहाने जलती हुई आगमें फेंक दिये जाते थे।
इसी दिन-- लोगोंका उनके अत्याचारोंकी यथार्थ परिभाषा समझाई गई और हिंसा-अहिंसा तथा धर्म अधर्मका तत्व पूर्णरूपसे बतलाया गया।
मी मिनी-- स्त्रीजाति तथा शूद्रों पर होनेवाले तत्कालीन अत्याचारों में भारी रुकावट पैदा हुई और वे सभी जन यथेष्ट रूपसे विद्या पढ़ने तथा धर्मसाधन करने आदिके अधिकारी ठहराये गये।
Tirit.in भारतवर्ष में पहले वर्षका प्रारम्भ हुआ करता था, जिसका पता हालमें उपलब्ध हुए कुछ अतिप्राचीन ग्रंथलग्योम-तिलोयपएणत्ती' तथा 'धवल' आदि सिद्धान्तग्रंथों परसे-चला है । सावनीभाषाढ़ीक विभागरूप फसली साल भी उसी प्राचीन प्रथाका सूचक जान पड़ता है, जिसकी संख्या आजकल गलत प्रचलित हो रही है।
इस तरह यह तिथि-.जिस दिन वीरशासनकी जयन्ती (ध्वजा ) लोकशिखर पर फहराई, संसारके हित तथा सर्वसाधारण के उत्थान और कल्याण के साथ अपना सीधा एवं खास सम्बंध रखती है और इसलिये सभोके धारा उत्सबके साथ मनाये जाने के योग्य है । इसीलिये इसकी यादगारमे कई वर्षसे वीरसेवामन्दिर सरसावा में 'वीरशासनजयन्ती के मनानेका आयोजन किया जाता है। अन्य स्थानों पर भी किया जारहा है।
इस वर्ष- यह पावन तिथि २८ जुलाई सन १६४२ को मंगलवारके दिन अवतरित हुई है । इस दिन on पिछले वर्षोंस भी अधिक उत्साह के साथ बीरसंवामन्दिरम वीरशासनजयन्ती मनाई जायगी और जलसा २६ सर ता० तक रहेगा । अन्य स्थानोके भाईयोंको भी इस सर्वातिशायी पावन पर्वको मनानेके लिये अभीसे सावधान - होजाना चाहिये और अपने स्थानोंपर उसे मनानेका पूर्ण आयोजन करके कर्तव्यका पालन करना चाहिये।
निवेदकजुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'बीरसेवामन्दिर' सरसावा, जि. सहारनपुर
DarindiansamacmaraSecvecasecsICSSARSANSARAMETHeroyengeroveragerageRAPARTMrajaogengargarera
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
पापक्षा
THE
अनेका
वर्ष ५ किरा ५
(७)
अनेकान्ना
निषेधाऽनुभय दृष्टि
विध्यनुभयदृष्ट
(4)
उभयानुभय-दृष्टि
the
त
(१)
अनुभय
स्यात्
22+--
Kamval
A.
1727
QU नी
निषेध-दृष्टि
उभय-दृष्टि (क्रमार्पिता )
अपेक्षयादिनी
ति
धियं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषे प्रत्येकं नियमविपर्ययाऽपरिभत । योऽन्या सकलभुवनज्येष्ठगुरुणा त्वया गीतं तत्वं बहुनय-विवत्तेतरवतात ॥ सम्पादक- जुगल किशोर मुख्तार
2018
जून १९४२
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची १ समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने " पृष्ठ १६६/१० एक मुनिभक्त (पद्यकहानी) श्री भगवत्' जैन २०२ २ श्वे. तत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जाँच संपादक १७३११ जीवन इसका नाम नहीं है (कविता) [श्री 'भगवत् २०३ ३ शान्ति-भावना (कविता)[पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित'१८११२ प्रश्नोत्तरी-[बा. जयभगवान वकील २०४ ४ वह देवता नहीं, मनुष्य था [ दौलतराम 'मित्र' १८२१३ जीवस्वरूप-जिज्ञासा (पश्नावली)-[जुगलकिशोर मु० २०५ ५ रान० अमोघवर्षकी जैनदीक्षा [प्रो० हीरालाल एम.ए.१८३ १४ अनेकान्तबहिर्लापिका-[पं० धरणीधर शास्त्री २०६ ६ वीरशासन और उसका महत्व-[पं० दरबारीलाल जैन१८८१५ सेठ भागचंदजीके भाषण के कुछ अंश ७ श्रमणसंस्कृति और भाषा-[पं० महेन्द्रकुमार न्या. १६३९६ भट्टारकभण्डार मूडविद्रीके कुछ लि० ग्रंथोकी सूची २०६ ८ जैनशास्त्र सोनीपतमें मेरे पाँचदिन माईदयालबीए.१९८१७ पंचायती मंदिर सोनीपत के कुछ लि० ग्रन्थोंकी सूची २११ ६ आबू-अान्दोलन-[बा. जयभगवान वकील
२०७
अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग
१-२५), ५०) १००) या इससे अधिक रकम देकर | बराबर ख़याल रखना और उसे अच्छी सहायता भेजना सहायकोंकी चार श्रेणियोर्मिसे किसी में अपना नाम लिखाना। तथा भिजवाना जिससे अनेकान्त अपने अच्छे विशेषाङ्क
२-अपनी ओरसे असमर्थोंको तथा अजैन संस्थानों निकाल सके, उपहार ग्रंथोंकी योजनाकर सके और उत्तम को अनेकान्त फ्री बिना मूल्य या अधमूल्यमें भिजवाना लेखीपर पुरस्कार भी देसके। स्वतः अपनी पोरसे उपहार
और इस तरह दूसरोंको अनेकान्तके पढनेकी सविशेष प्रेरणा ग्रंथोंकी योजना भी इस मदमें शामिल होगी। करना । (इस मदमें सहायता देने वालोंकी ओरसे प्रत्येक --अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसगेको बनाना और दस रुपयेकी सहायताके पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा | अनेकान्तके लिये अच्छे २ लेख लिखकर भेजना, लेखोंकी पाठको अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा।
| सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकाशित होने के लिये उपयोगी ३-उत्सव-विवाहादि दानके अवसरोंपर अनेकान्तका चित्रोंकी योजना करना, कराना ।-व्यवस्थापक श्रनेकान्त'
प्रार्थनाएँ 'अनेकान्त" किसी स्वार्थ -बुद्धिसे प्रेरित होकर अथवा चाहिये और हो सके तो युक्ति-पुरस्सर संयतभाषामें लेखक आर्थिक उद्देश्यको लेकर नहीं निकाला जाता है, किन्तु को उसकी भूल सुझानी चाहिये। पीरसेवामन्दिरके महान् उद्देश्योको सफल बनाते हुए लोक
"अनेकान्त" की नीति और उद्देश्यके अनुसार लेख हितको साधना तथा सच्ची सेवा बजाना ही इस पत्रका एक लिखकर भेजने के लिये देश तथा समाजके सभी सुलेख्यकों मात्र ध्येय है। अत: राभी सज्जनोंको इसकी उन्नतिमे को श्रामन्त्रमा है। सहायक होना चाहिये । सहायताके चार मार्गोंपर ख़ास तौर
"अनेकान्त" को भेजे जाने वाले लेखादिक कागज़की से ध्यान देना चाहिए।
| एक और हाशिया छोड़कर सुवाच्य अक्षरों में लिखे होने जिन सज्जनोंको अनेकान्तके जो लेख पसन्द आएँ,
चाहिये । लेखोंको घटाने, बढ़ाने, प्रकाशित करने न करने, उन्हें चाहिये कि वे जितने भी अधिक भाइयोंको उनका
लौटाने न लौटानेका, सम्पूर्ण अधिकार सम्पादकको है। परिचय करासकें जरूर कराएँ।
अस्वीकृत लेख वापिस मँगाने के लिये पोष्टेज खर्च भेजना __ यदि कोई लेख अथवा लेखका अंश ठीक मालूम न
आवश्यक है। लेख निम्न पते से भेजने चाहियें :-- हो, अथवा धर्मविरुद्ध दिखाई दे, तो महज उसीकी वजह से किसीको लेखक या सम्पादकसे द्वेषभाव न धारण करना
सम्पादक 'अनेकान्त' चाहिये, किन्तु अनेकान्त-नीतिकी उदारतासे काम लेना |
वीरसेवामन्दिर, सरसावा, जि. सहारनपुर
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
*-১3
वर्ष ५ किरा ५
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
* ॐ अर्हम् *
न क
अ
| नीतिविरोधी लोकव्यवहारवर्तकः सम्पन् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वस्तु तत्त्व-संघातक
वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर द्वितीय - ज्येष्ट, वीरनिर्वाण सं० २४६८, विक्रम सं० १६६६
समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने
[ % ] श्रीअभिनन्दन-जिन स्तोत्र
गुणाभिनन्दादभिनन्दनो भवान्, दयाषधं क्षान्तिसखीम- शिश्रियत् । समाधिनं त्रस्त दुपोपपत्तये, इयेन नैर्ग्रन्थ्यगुणेन वायुजन् ॥ १ ॥
*-->>
अचेतने तत्कृतबन्धजेऽपि च ममेदमित्याभिनिवेशिक प्रहात् ।
प्रभंगुरे स्थावरनिश्चयेन च क्षनं जगत्तत्त्वमजियहद्भवान् ॥ २ ॥
ज़न
१६४२
' ( हे अभिनन्दन जिन 1) गुणांकी अभिवृद्धि - श्राप के जन्म लेते ही लोक में सुख-सम्पत्यादिक गुंके बट जानेमे -- ग्राप 'अभिनन्दन' इस सार्थक मंजाको प्राप्त हुए हैं । श्रापने क्षमामखी वाली दयावधूकी अपने श्राश्रयमे लिया हैदया और क्षमा दोनोंको अपनाया है और समाधिवे-शुक्लध्यानचे - लक्ष्य को लेकर उसकी मिद्धिके लिये श्राप उभय प्रकारके निर्ग्रन्थत्व के गुरमे युक्त हुए हैं - श्रापने बाह्याभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहका त्याग किया है ।'
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
१७०
अनेकान्त
[वर्ष ५
'अचेतन-शररीमें और शरीर-सम्बन्धसै अथवा शरीरके माय किया गया श्रात्मा को जो कर्मवश बन्ध है उससे उत्पन्न होने वाले सुख-दुःखादिक तथा स्त्री पुत्रादिकमे 'यह मेरा है-मैं इसका हूँ' इस प्रकार के अभिनिवेश (मिथ्याऽभिप्राय) को लिये हुए होनेसे तथा क्षणभंगुर पदाथोंमे स्थायित्वका निश्चय कर लेनेके कारण जो जगत नष्ट हो रहा है-श्रात्महित-साधनसे विमुग्व होकर अपना अकल्याण कर रहा है-उसे (हे अभिनन्दन जिन !) अापने तत्त्वका ग्रहण कराया हैजीवादितत्त्वोके यथार्थ स्वरूपको बतलाकर सन्मार्ग पर लगाया है।'
तुधादिदुःखप्रतिकारतः स्थितिन चेन्द्रियार्थप्रभवाल्पसौख्यतः ।
ततो गुणो नास्ति च देहदेहिनोरितीदमित्थं भगवानव्यजिशपत् ॥ ३ ॥ 'क्षुधादि-दु:खांके प्रतिकारसे-भूख-ग्यास प्रादिकी वेदनाको मिटाने के लिये भोजन-पानादिका सेवन करनेसेऔर इन्द्रियविषय-जनित स्वल्ल सुखके अनुभवनसे देह और देहधारीका सुखपूर्वक मदा अवस्थान नहीं बनता-थोड़ी ही देरकी तृप्तिके बाद भूख-ग्यासादिककी वेदना फिर उत्पन्न हो जाती है और इन्द्रिय-विषयोके सेवनकी लालमा अग्निमें
धन के समान तीव्रतर होकर पीड़ा उत्पन्न करने लगती है- ऐमी हालत में सुधादिदुःखोके इम क्षणस्थायी प्रतीकार और इन्द्रिय-विषयजन्य स्वल्य सुखके सेवनसे न तो वास्तवमे इस शरीरका कोई उपकार बनता है और न शरीरधारी अात्माका ही कुछ भला होता है; इस प्रकारकी विज्ञापना हे भगवन् अापने (भ्रमके चक्कर में पड़े हुए) इस जगतको की है-उसे तत्वका ग्रहण कराते हुए रहस्यकी यह सब बात समझाई है, जिससे ग्रासक्ति छुट कर परम कल्याणकारी अनासक्त-योगकी प्रवृत्ति हो सके।
जनोऽतिलोलोऽप्यनुवन्धदोपतो भयादकार्येप्विह न प्रवर्तते ।
इहाऽप्यमुत्राऽप्यनुबन्धदोपवित्कथं सुखे संसजतीति चाब्रवीत ॥४॥ 'अापने जगतको यह भी बतलाया है कि अनुबन्धदोषसे-पग्मासक्तिके वश-विषयसवनम अति लोलुपी हुया भी मनुष्य इस लोकम राजदण्डादिका भय उपस्थित होने पर अकार्योम-परस्त्रीसवनादि-जेंस कुकर्मोम-प्रवृत्त नही दोता , फिर जो मनुष्य इस लोक तथा परलोकम होने वाले विषयासक्ति के दायोको-भयंकर परिणामोको-मलेप्रकार जानता है वह कैसे विषय-सुग्वमे श्रामक्त हो सकता है ? नही हो सकता।--अत्याक्ति के इम लोक और पग्लीक. सम्बन्धी भयंकर परिणामोका स्पष्ट अनुभव न होना ही विषय-मुग्वमे अामक्तिका कारण है । अत: अनुवन्धके दोपको जानना चाहिये।
स चानुबन्धोऽस्य जनस्य तापमृत्तृपोऽभिवृद्धिः सुखतो न च स्थितिः । इति प्रभो लोकहितं यतो मतं ततो भवानेव गतिः सतां मतः ॥ ५ ॥
-स्वयम्भूस्तोत्र 'वह अनुबन्ध-श्रामक्तपन-और ( विषयसेवनसे उत्पन्न होने वाली) तृष्णाकी अभिवृद्धि-उत्तरोत्तर विषयसेवनकी श्राकाक्षा-इस लोलुपी प्राणीके लिये तापकारी ( कष्टप्रद ) है-इच्छित वस्तु के न मिलने पर उसकी प्राप्ति के लिये और मिल जानेपर उसके संरक्षणादिके अर्थ संतापकी परम्परा बगबर चालू रहती है-दुःखकी जननी चिन्ताएँअाकुलताएँ सदा घेरे रहती हैं । संताप-परम्पराके बराबर चालू रहनेसे प्रास हुए थोड़ेसे इन्द्रिय-विषय-सुखसे इस प्राणीकी स्थिति सुखपूर्वक नहीं बनती। इस प्रकार लोकहितके प्रतिपादनको लिए हुए चुकि अापका मत है-शासन है-इस लिये हे अभिनन्दन प्रभु ! श्राप ही जगतके शरणभूत हैं, ऐमा सत्पुरुषोंने-मुक्तिके अर्थी विवेकी जनोने-माना है।
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
श्रीसमन्तभद्रभारती के कुछ नमूने
१७१
श्रीसुमति-जिन-स्तोत्र अन्वर्थसंश: सुमतिम निस्त्वं स्वयं मतं येन सुयुक्तिनीतम् ।
यतश्च शेषेषु मतेषु नाति सर्वक्रियाकारकतत्त्वसिद्धिः॥ १ ॥ 'हे सुमति मुनि ! श्रापकी 'सुमति' (प्रेष-सुशोभन-मति) यह मंजा अन्वर्थक है-श्राप यथानाम तथागुण हैंक्योकि एक तो आपने स्वयं ही-बिना किसीके उपदेशके-मुयुक्तिनीत तत्त्वको माना है-उस अनेकान्तात्मक वस्तुतत्त्वको अंगीकार किया है जो अकाट्य युक्तियाके द्वारा प्रणीत और प्रतिापत है-; दूसरे अापके (अनेकान्त) मतसे भिन्न जो शेष एकान्त मत हैं उनमे संपूर्ण क्रियाश्री तथा कर्ता, कर्म, करण श्रादि कारकोके तत्त्वकी सिद्धि-उनके स्वरूपकी उत्पत्ति अथवा शनि-नहीं बनती। (कैसे नहीं बनती, यह बात 'सुयुक्तिनीततत्व' को स्पष्ट करते हुए अगली कारिकायोमें बतलाई गई है)।
अनेकमेकं च तदेव तत्त्वं भेदाऽन्वयज्ञानमिदं हि सत्यम् ।
मृपोपचारोऽन्यतरस्य लोपे नच्छेपलोपोऽपि ततोऽनुपाख्यम् ॥ २॥ 'वह सुयुक्तिनीत वस्तुनत्त्व भेदाऽभेद-जानका विषय है और अनेक तथा एकरूप है-भेदज्ञानकी-पर्यायकी दृष्ठिसे अनेकरूप है तो वही अभेदज्ञानकी-द्रव्यकी दृष्टि से एकरूप है--और यह वस्तुको भेद-अभेदरूपसे ग्रहण करने वाला ज्ञान ही सत्य है-प्रमाण है। जो लोग इनमेमे एकको ही सत्य मानकर दूसरमे उपचारका व्यवहार करते हैं वह मिथ्या है; क्यों कि दोनोमसे एकका अभाव मानने पर दूमरेका भी अभाव हो जाता है कारण कि दोनोका (द्रव्यपर्यायका) परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध है। दोनोंका अभाव हो जानेमे वस्तुतत्व अनुपाख्य-नि:स्वभाव हो जाता है
और तब उसे न तो एकरूप कह सकते हैं और न अनेकरूप-यह अनिर्वचनीय टहता है, जिससे संपूर्ण व्यवहारका ही लोप होता है।
सतः कथंचित्तदसत्वशक्तिः खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम्।
सर्वस्वभावच्युतमप्रमाणं स्ववाग्विरुद्धं तव हितोऽन्यत् ॥ ३ ॥ 'जो सत् है-स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावसे विद्यमान है-उसके कथंचित् असत्वशक्ति भी होती है-परद्रव्य-क्षेत्र काल-भावकी अपेक्षा वह असत् है-, जैसे पुष्प वृक्षों पर तो अस्तित्वको लिये हुए प्रसिद्ध है परन्तु श्राकाश पर उसका अस्तित्व नहीं है, अाकाशकी अपेक्षा वह असत्-रूप है-यदि पुष्प वस्तु सर्वथा मत्रूप हो तो अाकाशके भी पुष्प मानना होगा और यदि सर्वथा असत्रूप हो तो वृक्षो पर भी उमका अभाव कहना होगा । परन्तु यह मानना और कहना दोनों ही प्रनीति के विरुद्ध होनेसे टोक नहीं हैं। इस परमे यह फलित होता है कि वस्तुतत्त्व कथंचित् सत्रूप और कथंचित् असता है-स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा जहाँ वह सत्रूप है वहीं पर-द्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा अमत्-रूप भी है । किसी भी वस्तुके स्वरूपको प्रतिष्ठा उस वक्त तक नही बन मकती जब तक कि उममेंसे पररूपका निषेध न किया जाय। अाम्रफलको श्रानार, सन्तग या अंगूर क्यों नही कहते ? इमी लिये न कि उसमें श्रानारपन, सन्तरापन तथा अंगूपन नहीं है-~-वह अपनेमे उनके स्वरूपका प्रतिषेधक है । जो अपनेमे पररूपका प्रतिषेधक नही वह स्वरूपका प्रस्थापक भी नहीं हो सकता। इमीस प्रत्येक वस्तुमे अस्तित्व और नास्तित्वके दोनों धर्म होते हैं और वे परस्पर अविनाभावी होते हैं-एक के बिना दूमरेका अस्तित्व बन नही सकता ।
यदि वस्तुतत्वको सर्वथा स्वभावच्युत माना जाय-उसमे अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्य, अनेकत्व आदि धर्मोका सर्वथा अभाव स्वीकार किया जाय-तो वह अप्रमाण टहरता है-उस तत्वका तब कोई व्यवस्थापक नहीं रहता। इसीसे (हे मुमति जिन !) अापकी दृष्टि से अन्य-जीवादि तत्व कथंचित् मत्-असत्रूप अनेकान्तात्मक है इस मतसे भिन्न-दूसरा सत्त्वाद्वैतलक्षण अथवा शून्यतैकान्तस्वभावरूप जो एकान्त तत्त्व है-मत है वह स्ववचनविरुद्ध है
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७२
अनेकान्त
[वर्ष ५
उमकी प्रमाणता बतलानेमे प्रमाण की मत्ता स्वीकार करनेसे उस मनके प्रतिपादकोंके 'मेरी माँ बाँझ' की तरहका स्ववचन विरोध आता है, अर्थात् मत्वा द्वैतवादियोके द्वैतात्ति होकर उनकी अद्वैतता भंग हो जाती है और शून्यतैकान्तवादियोंके प्रमाणका अस्तित्व होकर सर्वशून्यता बनी नहीं रहती-विघट जाती है। और प्रमाणका अस्तित्व स्वीकार न करनेसे स्वपक्षका साधन और परपक्षका दूषण बन नही सकता-वह निराधार टहरता है।'
न सर्वथा नित्यमुदेन्यपैति, न च क्रिया-कारकमत्र युक्तम् ।।
नैवाऽसतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तमः पुदगलभावतोऽस्ति ॥४॥ 'यदि वस्तु सर्वथा-द्रव्य और पर्याय दोनों रूपसे--नित्य हो तो वह उदय-अस्तको प्रात नही हो सकतीउसमें उनराकारके स्वीकाररूप उत्पाद और पूर्याकारके परिहाररूप व्यय नहीं बन सकता । और न उसमे क्रिया-कारककी ही योजना बन मकती हैयह न तो चलने-ठहग्ने जीर्ण होने आदि किसी भी क्रियारूप परिणमन कर सकती है और न कर्ता-कर्मादिरूपसे किमीका कोई कारक ही बन सकती है--उम मदा मर्वथा अटल-अपरिवर्तनीय एकरूप रहना होगा, जो असंभव है। (इसी तरह) जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नही दाना और जो मर्वया मत् है उमका कभी नाश नहीं होता । (यदि यह कहा जाय कि विद्यमान दीपकका-दीपप्रकाशका-तो बुभने पर अभाव हो जाता है, फिर यह कैंस कदा जाय कि सत्का नाश नही होता ?' इसका उत्तर यह है कि) दीपक भी बुझने पर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय श्रन्धकाररूप पुद्गल-पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है-प्रकाश और अन्धकार दोनी पद्गलकी पर्याय हैं, एक पर्याय के अभावम दूसरी पर्यायकी स्थिति बनी रहती है, वस्तुका सर्वथा अभाव नहीं होता।
विधिनिषेधश्च कथंचिदियो, विवक्षया मुख्य गुण-व्यवस्था । इति प्रणीतिः सुमतेस्तवेयं मतेः प्रवेकः स्तुवतोऽस्तु नाथ ॥ ५ ॥
-स्वयम्भूस्तोत्र '(वास्तवमें) विधि और निषेध-अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों कथंचित् इष्ट हैं-सर्वथा रूपसे मान्य नही। विवक्षासे उनमे मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है- उदाहरण के तौरपर द्रव्यदृष्टिम जब नित्यत्व प्रधान होता है तो पर्यायष्टिका विषय अनित्यत्व गौण होता है और पर्यायदृष्टि-मूलक अनित्यत्व जब मुख्य होता है तब द्रव्यदृष्टिका विषय नित्यत्व गौण हो जाता है।
इस प्रकारसे हे सुमति जिन ! आपका यह तत्व-प्रणयन है। इस तत्त्वप्रणयनकी और इसके द्वाग श्रापकी स्तुति करने वाले मुझ स्तोता (उपासक) की मनिका उत्कर्ष होवे-उसका पूर्ण विकास होवे ।
भावार्थ-यहाँ स्वामी समन्तभद्रने सुमतिदेवका उनके मतिप्रवेकको लक्ष्य में रखकर, स्तवन करके यह भावना की है कि उस प्रकारके मनिप्रवेकका-ज्ञानोत्कर्षका-मेरे अात्माम भी आविर्भाव होवे । सो ठीक ही है, जो जैसा बनना चाहता है वह तद्गुणविशिष्टकी उपासना किया करता है, और उपासनामे यह शक्ति है कि वह भव्य उपासकको तद्रप बना देती है; जैसे तेलसे भीगी हुई बत्ती जब दीपककी उपासना करती है-तद्रप होनेके लिये जब पूर्ण तन्मयताके साथ दीपकका श्रालिङ्गन करती है तो वह भिन्न होते हुए भी तद्रप होजाती है-स्वयं वैसी ही दीपशिखा बन जाती है । * इसी भावको श्रीपूज्यपाद श्राचार्यने अपने 'समाधितंत्र'की निम्न कारिकामे व्यक्त किया है
भिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृशः । वर्तिदीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी ॥१७॥
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच
[ सम्पादकीय ]
(गत किरणसे आगे)
सत्त्वार्थशास्त्रको अपने ही वचनके पक्षपातसे मलिन अनुदार मा तथा भाष्यके इन चार नमूनों और उनके विवेचन कुत्तोके समूहोंद्वारा ग्रहीप्यमान-जैसा जान कर-- यह देख
परसे स्पष्ट है कि सूत्र और भाष्य दोनों एक ही कर कि ऐसी कुत्ता-प्रकृतिके विद्वान लोग इसे अपना अथवा प्राचार्यकी कृति नहीं हैं, और इसलिये श्चे० भाग्यको अपने सम्प्रदायका बनाने वाले हैं-पहले ही इस शास्त्रकी 'स्वोपज्ञ' नहीं कहा जा सकता।
मूल-चूल' सहित रक्षा की है-इसे ज्योंका त्यों श्वेताम्रयहाँपर मैं इतना और भी बतलादेना चाहता हूँ कि सम्प्रदायके उमास्वातिकी कृतिरूपमे ही कायम रक्खा है-वह तत्त्वार्थसूत्रपर श्वेताम्बरोंका एक पुराना टिप्पण है, जिस (अज्ञातनामा) भाष्यकार चिरंजीव होवे-चिरकाल तक जय का परिचय अनेकान्तके वीरशासनाङ्क (वर्ष ३ कि. १ पृ. को प्राप्त होवे-ऐसा हम टिप्पणकार-जैसे लेखकोंका उस १२१-१२८) में प्रकाशित हो चुका है। इस टिप्पणके निर्मलग्रन्थके रक्षक तथा प्राचीन-वचनोंकी चोरीमें आसकर्ता रत्नसिंहमूरि बहुत ही कट्टर साम्प्रदायिक थे और उन मर्थके प्रति आशीर्वाद है।' के सामने भाष्य ही नही किन्तु सिमेनकी भाष्यानुसारिणी यहाँ भाष्यकारका नाम न देकर उसके लिये 'सकश्चित्' टीका भी थी, जिन दोनोंका टिप्पणमें उपयोग किया गया (वह कोई) शब्दोंका प्रयोग किया है. जब कि मूल सूग्रकार है, परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी उन्होंने भाष्यको का नाम 'उमास्वाति' कई स्थानोपर स्पष्ट रूपसे दिया है। स्वोपज्ञ' नही बतलाया । टिप्पणके अन्तमे 'दुर्वादा
इससे सात ध्वनित होता है कि टिप्पणकारको भाष्यकारका पहार' रूपसे जो सात पद्य दिये हैं उनमेसे प्रथम पद्य और
नाम मालूम नहीं था और वह उसे मूल सूत्रकारसे भिन्न उसके टिप्पणमें, साम्प्रदायिक-कट्टरताका कुछ प्रदर्शन करते
समझता था। भाष्यकारका 'निर्मलग्रन्थरक्षकाय' विशेषण हुए, उन्होंने भाष्यकारका जिन शब्दोंमें स्मरण किया है वे
के साथ 'प्राग्वचन-चारिकायामशक्याय' विशेषण भी निम्न प्रकार हैं:
इसी बातको सचित करता है। इसके 'प्राग्वचन' का वाच्य "प्रागेवैतदक्षिण-भपण-गणादास्यमानमिति मत्वा ।
तत्त्वार्थसत्र जान पड़ता है-जिसे प्रथम विशेषणमें 'निर्मलत्रातं समूल-चूलं स भाष्यकारश्चिरं जीयात ॥१॥
ग्रंथ' कहा गया है, भाष्यकारने उसे चुराकर अपना नहीं ___टिप्पण-"दक्षिणे सग्लोदागवति हेमः अद
बनाया-वह अपनी मन.परिणतिके कारण ऐसा करनेके क्षिणा असरलाः स्ववचनस्यैव पक्षपातलिना इति
लिये असमर्थ था-यही श्राशय यहाँ व्यक किया गया है। यावत्त एव भषणाः कुर्कुरास्तेषां गणरादास्यमानं पहि
अन्यथा, उमास्वातिके लिये इस विशेषणकी कोई जरूरत प्यमानं स्वायत्तीकरिप्यमानमिति यावत्तथाभूतमित
नहीं थी-यह उनके लिये किसी तरह भी ठीक नहीं तत्वार्थशास्त्र प्रागेवं पूर्वमेव मत्वा ज्ञात्वा येति शेपः।
बैठता । साथ ही, 'अपने ही वचनके पक्षपातमे मलिन सहमूलचूलाभ्यामिति समूलचूलं जातं रक्षितं स कश्चिद्
धनुदार कुत्तोंके समूहोंद्वारा ग्रहीप्यमान-जैसा जानकर' भाष्यकारो भाष्यकर्ता चिरं दीर्घ जीयाञ्जय गम्यादि- . त्याशीर्वचोऽस्माकं लेखकानां निर्मलग्रन्थरक्षकाय १ 'चल' का अभिप्राय श्रादि अन्तकी कारिकायोमे जान पड़ता प्राग्वचनं चौरिकायामशक्यायेति ।"
है, जिन्हें माथमे लेकर और मूलमूत्रका अंग मानकर ही इन शब्दोंका भावार्थ यह है कि-'जिसने इस टिपण लिखा गया है।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वष ५
-
ऐसा जो कहा गया है उससे यह भी ध्वनित होता है कि तीन कारणोंका दर्शन, ज्ञान, चारित्रके क्रमसे निर्देश है। भाष्यकी रचना उस समय हुई है जब कि तत्त्वार्थसत्रपर जैमा कि निम्न सबसे प्रकट है'सर्वार्थसिद्धि' आदि कुछ प्राचीन दिगम्बर टीकाएँ बन सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥ १॥ चुकी थीं और उनके द्वारा दिगम्बर समाजमे तत्वार्थसत्रका अत: यह सत्र श्वेताम्बर आगमके साथ पूर्णतया अच्छा प्रचार प्रारंभ हो गया था। इस प्रचारको देख कर संगत नहीं है। वस्तुत: यह दिगम्बरसत्र है और इसके द्वारा ही किसी श्वेताम्बर विद्वानको भाष्यके रचनेकी प्रेरणा मोक्षमार्गके कथनकी उस दिगम्बर शैलीको अपनाया गया मिली है और उसकेद्वारा तत्त्वार्थसत्रको श्वेताम्बर बनाने है जो श्रीकुन्दकुन्दादिके ग्रंथामे सर्वत्र पाई जाती है। की चेष्टा की गई है, ऐसा प्रतीत होता है। ऐसी हालत में (२) श्वेताम्बरीय सत्रपाठके प्रथम अध्यायका चौथा भाष्यको स्वयं मूल सूत्रकार उमास्वातिकी कृति बतलाना सत्र इस प्रकार हैऔर भी असंगत जान पडता है।
जीवाऽजीवाम्रवबन्धसवरनिर्जरामोक्षास्तत्वम । सूत्र और भाष्यका आगमसे विरोध
इसमे जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा
और मोक्ष, ऐसे सात तन्वोका निर्देश है। भाप्यमे भी सत्र और भाष्य दोनोंका निर्माण यदि श्वेताम्बर
“जीवा अजीवा आम्रवा बन्धः संवरो निर्जग मोक्ष आगोंके आधारपर ही हुआ हो, जैसा कि दावा है, तो
इत्यप सप्तविधार्थतत्वम एते बा सप्तपदार्थास्तत्वानि" श्वे. आगमोंके साथ उनमेंसे किसीका जरा भी मतभेद,
इन वाक्योके द्वारा निर्देश्य तत्वोंके नामोके साथ उनकी असंगतपन अथवा विरोध न होना चाहिये। यदि इनमेसे
संग्ख्या सात बतलाई गई है, और तन्व तथा पदार्थको एक किसी में भी कहींपर ऐसा मतभेद, असंगतपन अथवा
सचित किया है। परन्तु श्वेताम्बर श्रागममे तत्त्व अथवा विरोध पाया जाता है तो कहना होगा कि उसके निर्माण
पदार्थ नव बतलाए हैं; जैसा कि 'स्थानांग' आगमके का अाधार पूर्णतः श्वेताम्बर अागम नहीं है, और इस
निम्न सूत्रमे प्रकट हैलिये दावा मिथ्या है। श्वेताम्बरीय सम्रपाठ और उसके
"नव सम्भावपयत्था पण्णत्त । तं जहा-जीवा भाष्यमें ऐसे अनेक स्थल हैं जो श्वे. श्रागोंके साथ
अजीवा पुण्णं पावो श्रामवा संवरो निज्जरा बंधो मतभेदादिको लिये हुए हैं। नीचे उनके कुछ नमूने प्रकट
ट मोकग्वो।" (म्थान : मू०६६५) किये जाते हैं:
सात तत्वोंके कथनकी शैली श्वेताम्बर श्रागममि है (१) श्वेताम्बरीय भागममें मोक्षमार्गका वर्णन करने
' ही नही, इसीसे उपाध्याय मुनि श्रात्मारामजीने तन्वार्थसूत्र हुए उसके चार कारण बतलाये हैं और उनका ज्ञान, दर्शन,
का श्वे. आगमके साथ जो समन्वय उपस्थित किया है चारित्र, तप, इस क्रमसे निर्देश किया है, जैसाकि उत्तरा
उसमे वे स्थानांगके उक्त सत्रको उद्धत करनेके सिवाय ध्ययन सत्रके २८ वै अध्ययनकी निम्न गाथाओंसे प्रकट है
श्रागमका कोई भी दुसरा वाक्य ऐसा नही बतला सके मोक्खमग्गगई तच्च सुणेह जिणभासियं। जिसमे सात तत्त्वांकी कथनशैलीका स्पष्ट निर्देश पाया चउकारणमंजुत्तं नाणदंसणलक्खणं ॥१॥ जाता हो । सात तत्त्वोके कथनकी यह शैली दिगम्बर हैनाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा। दिगम्बर सम्प्रदायमें साततत्वों और नव पदार्थोका अलग एस मग्गुत्ति परुणत्तो जिणेहि वरदसहि ॥ २॥ अलग रूपसे निर्देश किया है। दिगम्बर-सत्रपाठमें यह नाणं च दंसणं चेव, चरिच तवो तहा। सत्र भी इसी रूपसे स्थित है। अत: इस चौथे सत्रका एयं मग्गमुप्पत्ता, जीवा गच्छंति सोग्गई ।।३।। आधार दिगम्बरश्रत जान पडता है-श्वेताम्बरश्रुत नहीं। नाणेण जाणई भावे दसणेण य सद्दहे। चरित्तण निगिरहाइ तवेण परिसुज्झई ॥३५॥ *सव्वविरो वि भावहि णवयपयत्थाहं सत्तसच्चाई। परन्तु श्वेताम्बर-सूत्रपाठमें, दिगम्बर सूत्रपाठकी तरह,
-भावनामृत ६५
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५ ]
(३) प्रथम अध्यायका आठवाँ सूत्र इस प्रकार हैसत्संख्या क्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावात्पबहुत्वैश्च । इसमे सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुव इन श्रा श्रनुयोगद्वारोंके द्वारा विस्तार से अधिगम होना बतलाया है; जैसा कि भाष्य के निम्न श्रंश से भी प्रकट है
श्० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांज
"सत् संख्या क्षेत्रं स्पर्शनं कालः अन्तरं भावः अल्पबहुत्वमित्येतैश्च सद्भूतपदप्ररूपणादिभिरप्राभिरनुयोगद्वारः सर्वभावानां (तत्त्वानां ) विकल्पशो विस्तराधिगमो भवति ।"
परन्तु श्वेताम्बर श्रागममे सत् यदि श्रनुयोगद्वारोंकी संख्या नव मानी है— भाग' नामका एक अनुयोगद्वा उसमे और है; जैसा कि श्रनुयोगद्वारसूत्र के निम्न वाक्यसे प्रकट है, जिसे उपाध्याय मुनि श्रात्मारामजीने भी अपने उक्त 'तत्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय' में उद्धृत किया है"संकित गमे ? नवविहे पत्त े । तं जहासंतपय परुवण्या १ पमाणं च २ वित्त ३ फुमरा य ४ कालो य ५ अंतरं ६ भाग ७ भाव ८ अप्पाचहुं ६ चैत्र ।" (अनु० सूत्र ८०)
इससे स्पष्ट है कि उक्त सूत्र और भाष्यका कथन श्वेताम्बर श्रागमके साथ संगत नहीं हैं। वास्तवमे यह दिगम्बरसूत्र है, दिगम्बरसूत्र पाठ भी इसी तरहसे स्थित है और इसका श्राधार षट्खण्डागम के प्रथमखण्ड जीवहाणके निम्न तीन सूत्र हैं
"एदेसि चोदसहं जीवसमासां परुवदाए तत्थ इमाणि श्रट्ट अणियोगद्दाराणि गायत्र्वाणि भवति || ५ || तंजहा ॥ ६ ॥
संतपरुवणा दव्यपमारगागमो वेणुगमो फोसणागमो कालागमो अंतरागमो भावानुगमो अप्पा बहुगागमो चेदि ॥ ७ ॥
षट्खण्डागममे और भी ऐसे अनेक सूत्र है जिनमे इन सत् श्रादि श्राठ अनुयोगद्वारोका समर्थन होता है ।
(४) श्वे० सूत्रपाठके द्वितीय अध्याय मे 'निर्वृत्युपकरणे द्रव्येन्द्रियम्' नामका जो १७ वां सूत्र है उसके भाष्य में 'उपकरणं वाह्याभ्यन्तरं च' इस वाक्यके द्वारा उपकरण के बाह्य और अभ्यन्तर ऐसे दो भेद किये गये हैं;
१७५
परन्तु श्वे० श्रागममें उपकरण के ये दो भेद नहीं माने गये हैं । इसी सिद्धसेन गणी अपनी टीकामें लिखते हैं
"आगमे तु नास्ति कश्चिदन्तर्बहिर्भेद उपकरणस्येयाचार्यस्यैव कुतोऽपि सम्प्रदाय इति । "
अर्थात् श्रागममें तो उपकरणका कोई अन्तर - बाह्यभेद नही है । श्राचार्यका ही यह कहीसे भी कोई सम्प्रदाय है— भापकारने ही किसी सम्प्रदाय विशेषकी मान्यतापरसे इसे अंगीकार किया है ।
इससे दो बातें स्पष्ट हैं—एक तो यह कि भाष्यका उक्त वाक्य श्वे० श्रागमके साथ संगत नहीं है, और दूसरी यह कि भाष्यकारने दूसरे सम्प्रदायकी बातको अपनाया है । वह दूसरा (श्वेताम्बरभिन्न) सम्प्रदाय दिगम्बर हो सकता हैं । दिगम्बर सम्प्रदायमे सर्वत्र उपकरण के दो भेद माने भी गये हैं ।
(५) चौथे अध्याय में लोकान्तिक देवोंका निवासस्थान 'ब्रह्मलोक' नामका पाँचवों स्वर्ग बतलाया गया है। और 'ब्रह्मलां कालया लोकान्तिकाः' इस २५ वें सूत्रके निम्न भाग्यमे यह स्पष्ट निर्देश किया गया है कि ब्रह्मलोक में रहने वाले ही लोकान्तिक होते हैं— अन्य स्वर्गो में या उनसे परे मैवेयकादिमं लोकान्तिक नहीं होते
"ब्रह्मलोकालया एव लोकान्तिका भवन्ति नान्यकल्पेषु नापि परतः ।"
ब्रह्मलोकमे रहने वाले देवोंकी उत्कृष्ट स्थिति दस सागरकी और जघन्य स्थिति सातसागरमे कुछ अधिककी बतलाई गई, जैसा कि सूत्र नं० ३७ और ४२ श्रौर उनके निम्न भाष्यांशोंसे प्रकट है
"ब्रह्मलोके त्रिभिरधिकानि सप्तदशेत्यर्थः ।" "माहेन्द्र परा स्थितिर्विशेषाधिकानि सप्त सागरोपमाणि सा ब्रह्मलोक जघन्या भवति । ब्रह्मलोके दशमागमाणि परा स्थितिः सा लान्तके जघन्या ।"
इससे स्पष्ट है कि सूत्र तथा भाप्यके अनुसार लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट श्रायु दस सागरकी और जघन्य आयु मान सागरमे कुछ अधिककी होती है, क्यों कि लोकान्तिक देवकी श्रायुका श्रलग निर्देश करने वाला कोई विशेष सूत्र भी श्वे० सूत्रपाठ नहीं है । परन्तु श्वे० आगममें लोकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट और जघन्य दोनों ही प्रकारकी श्रायु
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
की स्थिति पाठ सागरकी बतलाई है जैसाकि 'स्थानांग' "अजहण्णमाक्कोसा तेत्तीस सागरोपमा । और 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' के निम्न सत्रसे प्रकट है
महाविमाणे सव्व ठिई एसा वियाहिया ||२४|| "लोगंतिकदेवाणं जहएणमुक्कोसेणं अट्टसागरोव
-उत्तराध्ययनसूत्र अ०३६ माइंटिती पएणत्ता।"
और इमलिये यह स्पष्ट है कि भाष्यका 'एवमा सर्वार्थ- -स्था० स्थान सू०६२३ व्या, श०६ उ०५ मिद्धादिति' वाक्य श्वे. श्रागमके विरूद्ध है। सिद्धसेनगणी
ऐसी हालतमें सूत्र और भाष्य दोनोंका कथन श्वे. ने भी इसे महसूस किया है और इसलिये वे अपनी टीका भागमके साथ संगत न होकर स्पष्ट विरोधको लिये हुए में लिखते हैंहै। दिगम्बर आगमके साथ भी उसका कोई मेल नहीं है; "तत्र विजयादिप चतर्ष जघन्येनैकत्रिशदत्कण क्यों कि दिगम्बर सम्प्रदायमें भी लौकान्तिक देवोंकी उत्कृष्ट द्वात्रिशत सर्वार्थसिद्ध त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यजघन्यो
और जघन्य स्थिति आठ सागरकी मानी है और इसीसे स्कमा स्थितिः। भाष्यकारेण तु सर्वार्थसिद्धेऽपि जघन्या दिगम्बर सूत्रपाठमें "लोकान्तिकानामष्टी सागरोपमाणि हाकिमयपीता नवटा मा मपाम" यह एक विशेषसूत्र लोकान्तिक देवोंकी प्रायुके प्रायेण । आगमस्तावदयम-" स्पष्ट निर्देशको लिये हुए है।
अर्थात्-विजयादिक चार विमानोमे जघन्य स्थिति (६) चौथ अध्यायम, देवाकी जघन्य स्थितिका वर्णन इकत्तीम सागरकी-उत्कृष्ट स्थिति बत्तीय सागरकी है और करते हुए, जो ४२ वा सूत्र दिया है वह अपने भाष्य-
सर्वार्थमिद में अजघन्योकृष्ट स्थिति तेतीस सागरकी है। परंतु
जा सहित इस प्रकार है
भाष्यकारने तो सर्वार्थ सिद्ध में जघन्यस्थिति बत्तीम सागरकी "परतः परतः पूर्वा पूर्वानन्तरा ॥४२॥"
बतलाई है ,हमे नहीं मालूम किस अभिप्रायसे उन्होंने ऐसा कथन भाज्य-"माहेन्द्रात्परतः पूर्वा पराप्नन्तरा जयन्या किया है। श्रागम तो यह है-(इसके बाद प्रज्ञापनासूत्र स्थितिर्भवति । तद्यथा । माहेन्द्र परा स्थितिविशेषाधि- का वह वाक्य दिया है जो ऊपर उद्धृत किया गया है)। कानि सप्तसागरोपमाणि सा ब्रह्मलोके जघन्या भवति ।
(७) छटे अध्यायमे तीर्थकर प्रकृति नामकर्मके ब्रह्मलोके दशसागरोपमाणि परा स्थितिः सा लान्तके
श्रास्रव-कारणोंको बतलाते हुए जो सूत्र दिया है वह इस जघन्या । एवमासर्वार्थसिद्धादिति ।"
प्रकार हैयहाँ माहेन्द्र स्वर्गसे बादके वैमानिक देवीकी स्थिति "दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलवतेप्वनतिका वर्णन करते हुए यह नियम दिया है कि अगले अगले चारोभीक्षणं ज्ञानोपयोगमंवेगो शक्तितम्त्याग-तपसी विमानों में वह स्थिति जघन्य है, जो पूर्व पूर्वके विमानों में संघसाधुममाधियावृत्यकरणमहदाचार्य - बहश्रत-प्रवउत्कृष्ट कही गई है, और इस नियमको सर्वार्थसिद्ध विमान. चनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्गिप्रभावना प्रवचनवत्सपर्यन्त लगानेका श्रादेश दिया गया है। इस नियम और लत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २३॥" श्रादेशके अनुसार सर्वार्थसिद्ध विमानके देवोंकी जघन्य- यह सूत्र दिगम्बर सूत्रपाटके बिल्कुल समकक्ष हैस्थिति बत्तीस सागरकी और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर मात्रसाधुसमाधिसे पहले यहाँ 'संघ' शब्द बढ़ा हुआ की ठहरती है । परन्तु श्रागममे सर्वार्थसिद्ध के देवोंकी स्थिति है, जिससे अर्थमे कोई विशेष भेद उत्पन्न नहीं होता। एक ही प्रकारकी बतलाई है-उसमें जघन्य उत्कृष्टका कोई दि. सूत्रपाठमें इसका नम्बर २४ है। इसमें सोलह कारणों भेद नहीं है, और वह स्थिति तेतीस सागरकी ही है, जैसा का निर्देश है और वे हैं- दर्शनविशुद्धि, २ विनयकि श्वे. आगमके निम्न वाक्योंसे प्रकट है
सम्पन्नता, ३ शीलवतानतिचार, ४ अभीषण ज्ञानोपयोग, "सव्वसिद्धदेवाणं भते ! केवतियं कालं ठिई ५ अभीषणसंवेग, ६ यथाशक्ति त्याग, ७ यथाशक्ति तप, पएणता ? गोयमा! अजहएणुक्कोसेणं तित्तीसं साग- ८ संघसाधुसमाधि, १ वैयावृत्यकरण, १० अर्हद्भक्ति, रोक्माई ठिई पण्णत्ता।" -प्रज्ञा०प०४ सू० १०२ ११ प्राचार्यभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति,
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच
१४ अावश्यकापरिहाणि, १५ मार्गप्रभावना, १६ प्रवचन- विलक्षण लक्षण करके, इसके द्वारा उक्त बीस कारणों से वत्सलव।
कुछ छूटे हुए कारणोंका संग्रह करना चाहा है: परन्तु फिर परन्तु श्वेताम्बर आगममें तीर्थकरस्वकी प्राप्तिके बीस* भी वे सबका संग्रह नहीं कर सके-सिद्धवत्सलता और कारण बतलाये हैं-सोलह नहीं और वे हैं-१ अहद्वत्स- क्षणलवसमाधि जैसे कुछ कारण रह ही गये और कई लता, रसिद्धव-सलता, ३प्रवचनवासलता, गुरुवत्सलता, भिश्च कारणोंका भी संग्रह कर गये हैं। इस विषयमें ५स्थविरवत्सलता, ६बहुश्रतवत्सलता, तपस्विवत्मलना, सिद्धसेनगणी लिखते हैंअभीषणज्ञानोपयोग, दर्शननिरतिचारता १०विनयनिरति- विंशतः कारणानां सत्रकारेण किंचितसत्रे किंचिदचारता, १ श्रावश्यकनिरतिचारता, १२शील नि तिचारता, भाप्ये किंचित आदिग्रहणात् सिद्धपूजा-क्षणलवध्यान१३६त नरतिचारता, १४क्षणलवसमाधि, १५तपःसमाधि, भावनाख्यमपात्तम उपयज्य च प्रवकूत्रा व्याख्येयम्।" १६'यागममाधि, १७ वैश्यावृश्यसमाधि, १८अपूर्वज्ञानग्रहण,
अर्थात-बीस कारणोंमेंसे सूत्रकारमे कुछका सूत्रमें १६ श्रतभक्ति, २० प्रवचनप्रभावना, जैसाकि ज्ञाताधर्म
कुछका भाप्यमें और कुछका-सिद्धपूजा पण लव भ्यानकथाग' नामक श्वेताम्बर भागमकी निम्न गाथाओंसे
भावनाका-'आदि शब्दके ग्रहणद्वारा संग्रह किया है, प्रकट है:
वक्ताको ऐसी ही व्याख्या करनी चाहिये। अरिहंत-सिद्ध-पबयण-गुरु थेयर-बहुमुए तवस्सीसु। वच्छलया य एमि अभिक्खनाणोवोगे अ॥शा
इस तरह पागमके साथ सूत्रकी असंगतिको दूर करने दसणविणा आवस्सए अ सीलव्वए निरइचारो।
का कुछ प्रयत्न किया गया है, परन्तु इस तरह असंगति
दूर नहीं हो सकती-सिद्धसेनके कथनमे इतना तो स्पष्ट ही खणलवतवचियाए वेयावच्चे ममाही या
है कि सूत्र में बीयों कारणोंका उल्लेख नहीं है। और इस अपुचणाणगहणे सयभत्ती पवयणे पहावणया।
लिये उक्तसूत्रका अाधार श्वेताम्बर श्रुत नहीं है, । वास्तवमें पाहि कारणहिं तित्थयर लहइ जीवो ॥३॥ इनमें से सिद्धवमलता, गुरुवम्सलता, स्थविरवत्सलता,
इस मूत्रका प्रधान प्राधार दिगभ्वर श्रुत है, दिगम्बर सूत्रतपस्वि-व-सलता, क्षणलबसमाधि और श्रपूर्व-ज्ञानग्रहण
पाठके यह बिलकुल समकक्ष है इतना ही नहीं बल्कि नामके छह कारण तो ऐसे हैं जो उक्त सूत्रमे पाये ही नहीं
दिगम्बर प्रान्नायमें आमतौर पर जिन सोलह कारणोंकी जाते, शेपमेसे कुछ पूरे और कुछ अधूरे मिलते जुलते हैं।
मान्यता है उन्हींका इसमें निर्देश है। दिगम्बर खटखण्डा इसके सिवाय, उक्त सूत्रमें अभीषण संवेग, साधुसमाधि
गमके निम्नसूनसे भी इसका भले प्रकार समर्थन होता हैऔर प्राचार्यभक्ति नामके तीन कारण ऐसे हैं जिनकी "दंमाविमुज्झदाए विण्यसंपगणदाए सीलवदेस गणना इन भागमकथित बीस कारणों में नहीं की गई है। रिणरदिचारदाप प्रवासामु अपरिहीणदाए खरणलवऐमी हा नतमें उक्त मूत्रका एकमात्र आधार श्वेताम्बर श्रुत परिबुज्मरणदाए लद्धिसंवेगमएएगदाए यथा थामे तथा (भागम) कैसे हो सकता है ? इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ तवे साहणं पासुअपरिचागदाएसाहरणं समाहिमधारणाय सकते हैं।
माहणं वेज्जावञ्चजोगजुत्तदाए अरहंतभत्तीप. बहुसुदयहाँपर मैं इतना और भी बतला देना चाहता है कि भत्तीए पवयणभत्तीप पवयणवन्छलदाए पवयणप्पभाष्यकारने प्रवचनवसलवका "अच्छासनानुष्ठायिनां भावणाए अभिक्खरणं णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि श्रुतधराणां बाल-वृद्ध-तपस्वि-शैक्ष-ग्लानादीनां च संग्र- मोलमेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोदकम्म होपग्रहानुग्रहकारित्वं प्रवचनवत्सलत्वमिति" ऐसा बंधंति ।" * पढम चरमेहि पुट्ठा जिणहेऊ वीस ते इमे-
श्रुतधारी और बाल-वृद्ध-नरस्त्रि-शैक्ष तथा ग्लानादि जातिके
-मत्तरिसयठाणाद्वार १० मुनियोका जो संग्रह-उपग्रह-अनुग्रह करना है उसका नाम +अर्थात्--अईन्तदेवके शासनका अनुष्ठान करने वाले प्रवचनवत्सलता है।'
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
इस विषयका विशेष ऊहापोह पं० फूले चंदजी शास्त्रीने भिन्नः सूत्रकारेण ? आप तु गुणत्रतानि क्रमेणादिश्य अपने 'तत्वार्थसूत्रका अन्तःपरीक्षण' नामक लेखमे किया शिक्षाव्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण त्वन्यथा।" है, जो चौथे वर्षके अनेकान्तकी किरण ११-१२ (पृष्ठ ५८३. ___ इसकेबाद प्रश्न के उत्तररूपमें इस असंगतिको दूर ५८८) में मुद्रित हुया है। इसीसे यहाँ अधिक लिखनेकी करने अथवा उस पर कुछ पर्दा डालनेका यान किया गया जरूरत नहीं समझी गई।
है, और वह इस प्रकार है(6) सातवें अध्यायका १६ वौँ सूत्र इस प्रकार है:-- "तत्रायमभिप्रायः-पूर्वतो योजनशतपरिमितं
"दिग्देशानर्थदण्डविरतिमामायिकपीपधोपवासोप- गमनमभिगृहीतम । न चाम्ति सम्भवो यत्प्रतिदिवमं भोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च।” तावती दिगवगाह्या, ततस्तदनन्तरमेवोपदिष्टं देशत्रत____ इस सूत्र में तीन गुणव्रती और चार शिक्षावतोंके मिति देशे-भागेवस्थानं प्रतिदिनं प्रतिप्रहरं प्रतिक्षाभेदवाले सात उत्तरव्रतोंका निर्देश है, जिन्हें शीलवत भी मिति मुग्धावबोधार्थमन्यथा क्रमः।" कहते हैं। गुणवतोंका निर्देश पहले और शिक्षाव्रताका इसमें अन्यथाक्रमका यह अभिप्राय बतलाया है किनिर्देश बादमें होता है, इस दृष्टिसे इस सूत्र में प्रथम निर्दिष्ट 'पहलेसे किसीने १०० योजन परिमाण दिशागमनकी हुए दिग्नत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत, ये तीन तो गुण मर्यादा ली परन्तु प्रतिदिन उतनी दिशाके अवगाहनका वत हैं, शेष सामायिक, पौषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरि- संभव नहीं है, इसलिये उसके बाद ही देशव्रतका उपदेश माण और अतिथिमविभाग, ये चार शिक्षाबत हैं। परन्तु दिया है। इससे प्रतिदिन, प्रतिप्रहर और प्रतिक्षण पूर्वश्वेताम्बर आगममे देशव्रतको गुणवतोंमे न लेकर शिक्षा
गृहीत मर्यादाके एक देशमें-एक भागमें श्रवस्थान होता वाम लिया है और इसी तरह उपभोगपरिभोगपरिमाणवत है। अत: सुखबोधार्थ-सरलतासे समझानेके लिये यह का ग्रहण शिक्षायतोमें न करके गुणवतोंमे किया है। जैसा अन्यथाक्रम स्वीकार किया गया है।' कि श्वे. भागमके निम्न सूत्रसे प्रकट है--
यह उत्तर बच्चोंको बहकाने जैसा है। समझमें नही "श्रागारधम्म दुवालसविहं आइक्वइ, तंजहा- पाता कि दंशबनको सामायिकके बाद रखकर उसका पंचअणुव्वयाई तिरिण गुणव्ययाई चत्तारि सिक्वा- स्वरूप वहां बतला देनेमे उसके सुखबोधार्थ में कौनसी वयाई । तिरिण गुग्गव्ययाई, तंजहा-अणत्थदंडबर- अड़चन पद्धती अथवा कठिनता उपस्थित होती थी और मणं, दिमिव्ययं, उपभोगपरिभोगपरिमारगं । चत्तारि वह अड़चन अथवा कठिनता श्रागमकारको क्यों नही सिक्खावयाई, तं जहा-सामाइयं, देसावगामियं, सम पडी ? क्या श्रागमकारका लक्ष्य मुम्बबोधार्थ नही था ? पोसहोपवास, अतिहिमविभागे।"
श्रागमकारने तो अधिक शब्दोमे अच्छी तरह समझाकर-- -औपपातिक श्रीवीरदेशना मूत्र ५७ भेदोपभेदको बतलाकर लिया है। परन्तु बात वास्तवम ___ इससे तत्वार्थशास्त्रका उक्त सूत्र श्वेताम्बर श्रागमके सुग्वबोधार्थ अथवा माग क्रमभेदकी नहीं है, क्रमभेद तो साथ संगत नहीं, यह स्पष्ट है। इस असंगतिको सिद्धसेन- दुसरा भी पाया जाता है-श्रागममे अनर्थदण्डवतको दिग्वत गणीने भी अनुभव किया है और अपनी टीकामें यह बत- से पहले दिया है, जिसकी सिद्धसैन गणीने कोई चर्चा लाते हुए कि 'पार्ष (श्रागम ) मे तो गुणवतोका क्रमसे नहीं की है। परन्तु वह क्रमभेद गुणवत-गुणवतका है, आदेश करके शिक्षाव्रतोंका उपदेश दिया है, किन्तु सूत्र. जिसका विशेष महत्व नहीं; यहां तो उस क्रमभेदकी बात कारने अन्यथा किया है, यह प्रश्न उठाया है कि सूत्रकारने है जिससे एक गुणव्रत शिक्षाव्रत और एक शिक्षावत गुणपरमश्रार्ष वचनका किमलिये उल्लंघन किया है ? जैसा कि प्रत हो जाता है। और इस लिये इस प्रकारकी असंगति निम्न टीका वाक्यसे प्रकट है
सुखबोधार्थ कहदेने मात्रसे दूर नहीं हो सकती। अतः ___ "सम्प्रति कमनिर्दिष्टं देशव्रतमुच्यते । अत्राह- स्पष्ट कहना होगा कि इसके द्वारा दूसरे शासनभेदको वक्ष्यति भवान देशवतं । पारमार्पवचनकमः कैमाद्- अपनाया गया है। प्राचार्यो-श्राचार्योमे इस विषयमे कितना ही
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
श्वेतत्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच
मतभेद रहा है। इसके लिये लेखकका 'जैनाचार्योका लेकर मतिज्ञानके भेदोकी परिगणना की गई है तथा संज्ञी. शासनभेद' ग्रन्थ देखना चाहिये।
असंजीके भेदोंको भी प्राधान्य दिया गया है ? इन प्रश्नोंका (E) आठवें अध्यायमे 'गति जाति' श्रादिरूपसे नाम- कोई समुचित समाधान नहीं बैठता, और इसलिये कहना कर्मकी प्रकृतियोका जो सूत्र है उसमें पर्याप्ति' नामका भी होगा कि यह भाष्यकारका श्रागमनिरपेक्ष अपना मत है, एक कर्म है । भाप्यमे इस 'पर्याप्ति के पांच भेद निम्नप्रकार जिये किसी कारण विशेषके वश होकर उसने स्वीकार स बतलाए हैं
किया है। अन्यथा, इन्द्रियपर्याप्तिका स्वरूप देते हुए वह "पर्याप्तिः पचविधा । तद्यथा-आहारपर्याप्तिः इसका स्पष्ठी करण जरूर कर देता। परन्तु नही किया शरीरपर्याप्तिः इन्द्रियपर्याप्तिः प्राणापानपर्याप्तिः भापा- गया, जैसाकि "त्वगादीन्द्रियनिर्वर्तक्रियापरिसमाप्तिपर्यापिरिति।"
रिन्द्रियपर्यानिः" इस इन्द्रियपर्याप्तिके लक्षणसे प्रकट है। ___ परन्तु दिगम्बर अागमकी तरह श्वेताम्बर श्रागममे अत: श्वताम्बर भागमके साथ इस भाष्यवाक्यकी संगति भी पर्याप्तिके छह भेद माने गये है। -छठा भेद मन'- बिठलानेका प्रयत्न निष्फल है। पयोप्तिका है, जिसका उक्त भाष्यमे कोई उल्लेख नहीं है । (१०) नवम अध्यायका अन्तिम सूत्र इस प्रकार है-- और इस लिये भाष्यका उक्त कथन पूर्णत: श्वेताम्बर "मयम-श्रत - प्रतिमेवना - तीर्थ-लिङ्ग-लेश्योपपातश्रागमके अनुकूल नहीं है । इस असंगतिको मिद्धसेन स्थानविकल्पतः साध्याः।" गणीने भी अनुभव किया है और अपनी टीकामे यह प्रश्न इसमें पुलाकादिक पंचप्रकार के निर्ग्रन्थ मुनि संयम, श्रत, उठाया है कि 'परमार्पवचन (आगम) में तो षट् पर्याप्तियों प्रतिसेवना श्रादि पाठ अनुयोगद्वारोंके द्वारा भेदरूप सिद्ध प्रसिद्ध हैं, फिर यह पर्याप्तियोंकी पांच संग्ख्या कैसी?'; किये जाते हैं, ऐसा उल्लेख है। भाज्यमें उस भेदको स्पष्ट जैसा कि टीकाके निम्न वाक्यमे प्रकट है--
करके बतलाया गया है, परन्तु उस बतलाने में कितने ही "ननु च पट पयातयः पारमापवचनसिद्धाः कथं स्थानोंपर श्वेताम्बर श्रागमके साथ भाष्यकारका मतभेद पंचसंख्याका ? इति"।
है, जिसे सिद्धसेन गणोने अपनी टीकामें 'श्रागमस्त्वन्यथा बादको इसके भी समाधानका वैसा ही प्रयत्न किया व्यवस्थितः', 'अत्रैवान्यथैवागमः', 'अवाप्यागमोऽन्यगया है जो किसी तरह भी हृदय-ग्राह्य नहीं है । गणीजी थाऽतिदेशकारी जैसे वाक्योके साथ भागमवाक्योंको उद्धृत लिखते हैं---"इन्द्रियपर्याप्तिग्रहणादिह मनःपर्याप्तरपि करके व्यक्त किया है। यहाँ उनमंसे सिर्फ़ एक नमूना दे देना ग्रहणमवमयम।" अर्थान इन्द्रियपर्याप्तिके ग्रहणसे यहाँ ही पर्याप्त होगा-भाष्यकार 'श्रत' की अपेक्षा जैन मुनियोंके मनःपर्याप्तिका भी ग्रहण समझ लेना चाहिये। परन्तु भेदको बतलाते हुए लिखते हैं-- इन्द्रियपर्याप्तिमे यदि मनःपर्याप्तिका भी समावेश है और "श्रतम । पुलाफ-बकुश-प्रतिसेवनाकुशीला उत्कृष्टमनःपर्याप्ति इन्द्रियपर्याप्तिसे कोई अलग चीज़ नही है नाऽभिन्नाक्षरदशपूर्वधराः । कपायकुशील-
निन्थी तो भागममें मन'पर्याप्तिका अलग निर्देश क्यों किया गया चनुदेशपूर्वधगे । जघन्येन पुलाकस्य श्रुतमाचारवस्तु, है और सुत्रमे क्यो इन्द्रियों सथा मनको अलग अलग बकुश-कुशील-निग्रन्थानां श्रतमपी प्रवचनमातरः।
- - श्रुतापगतः केवली स्नातक इति।" *पाहार मगरे दियपजत्ती श्राणपाण-भाष-मणे ।
अर्थात्-श्रतकी अपेक्षा पुलाक, बकुश और प्रतिसेवना चउ पंच पंच छप्पिय इग-विगलाऽमणिगण-मएगीणं ।। कुशील मुनि ज्यादासे ज्यादा अलि माक्षर (एक भी अत्तरकी
-नवतत्वकरण, गा०६ कमीसे रहित) दशपूर्वके धारी होते हैं । कगायकुशील और अहार-सरीरं दिय-ऊमाम-वो-मणोऽहि निव्वती। निर्ग्रन्थ मुनि चौदह पूर्वके धारी होते हैं। पुलाक मुनिका होइ जनो दलियारो करणं एमाउ पजनी ।। कमसे कम श्रुताचार वस्तु है। बकुश, कुशील और निम्र
-सिद्धमेनं या टीकामे उद्धृत पृ० १६० थमुनियोंका कमसे कम श्रृत पाठ प्रवचनमात्रा तक सीमित
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८०
अनेकान्त
[ वर्ष५
है। और स्नातक मुनि श्रुतसे रहित केवली होते हैं। रात्रिक्यस्तिस्रः' इस भाष्यांशको भागमके साथ प्रसंगत,
इस विषयमें आगमकी जिस अन्यथा व्यवस्थाका प्रार्षविसंवादि और प्रमत्तगीत तक बतलाते हुए उल्लेख सिद्धसेनने किया है वह इस प्रकार है
लिखते हैं:"पुलाए णं भंते केवतियं सुयं अहिजि (ज्जे ?) "सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिक्यस्तित्र इति नेदं ज्जा ? गोयमा ! जहरणेणं णवमस्त पुवस्स तत्तियं पारमर्पवचनानुसारि भाष्यं; कि तर्हि प्रमत्तगीतमेतत। आयारवत्थु, उक्कोसेणं नव पुयाहं पुएगाई। वाचक हि पूर्ववित कथमेवं विधमार्पविसंवादि निबवउम-पडिसेवणा-कुसीला जहण्णणं अट्ठपवयः- धीयात ? सूत्रानववोधादुपजातभ्रान्तिना केनापि मायाश्रो, उक्कोसेणं चोदसपुवाई अहिज्जिज्जा। रचितमेतद्वचनकम । दोच्चा सत्तराईदिया तइया फसायकुसील-निग्गंथा जहएणणं अट्ठपवयणमायाओ, सत्तराईदिया-द्विर्त या सप्तरात्रिकी तृतीया सप्तरात्रिउक्कोसेणं चौदसपुव्वाइं अहिज्जिज्जा।"
कीति सूत्रनिर्भेदः । सप्तरात्रे त्रीणीति सप्तरात्रीति इसमें जघन्य श्रुतकी जो व्यवस्था है वह तो भाष्यके सूत्रनिर्भदं कृत्वा पठितमझेन सप्तचतुर्दशैकविंशतिरात्रिसाथ मिलती जुलती है, परन्तु उत्कृष्ट श्रुतकी व्यवस्थामें क्यस्तित्र इति ।" भाध्यके साथ बहत कुछ अन्तर है। यहाँ पुलाक मुनियोंके अर्थात्-'सप्तचतुर्दशैकविंशतिराविषयस्तिस्रः' यह उत्कृष्ट श्रतज्ञान नवपूर्व तक बतलाया है, जब कि भाप्यमें भाष्य परममार्षवचन (आगम) के अनुकूल नहीं हैं। फिर दसपूर्व तकका स्पष्ट निर्देश है। इसी तरह बकुश और क्या है ? यह प्रमत्तगीत है-पागलों जैसी बरड है अथवा प्रतिसेवनाकुशील मुनियोंका श्रुतज्ञान यहाँ चौदहपूर्व तक किसी पागलका कहा हुआ है। वाचक (उमास्वाति) पूर्वके सीमित किया गया है, जब कि भाप्यमें उसकी चरमसीमा ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका पार्षविसंवादि वचन निबद्ध दसपूर्व तक ही कही गई है। अत: श्रागमके साथ इस कर सकते थे? श्रागमसूत्रकी अनभिज्ञतासे उत्पन्न हुई प्रकारके मतभेदोंकी मौजूदगी में जिनकी संगति बिठलानेका भ्रान्तिके कारण किसीने इस वचनकी रचना की है। सिद्धसेन गणीने कोई प्रयान भी नहीं किया, यह नही 'दोच्चा सत्तराइ दिया तइया मत्तराइंदिया-द्वितीया कहा जा सकता कि उक्त सूत्रके भाष्यका प्राधार पूर्ण नया सप्तरात्रिकी तृतीया सप्तरात्रिकी ऐमा श्रागमसूत्रका निर्देश श्वेताम्बर श्रागम है।
है. इसे 'देसप्तराने त्रीणिति सप्तरात्राणीति' ऐसा मूत्रनिभेंट (11) नवमे अध्यायमें उत्तमतमादि-दशधर्म-विषयक जो
करके किसी अज्ञानीने पढ़ा है और उसीका फल 'सप्तचतुसूत्र है उसके तपोधर्म-सम्बन्धी भाष्यका अन्तिम अंश ।
दंशैकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः' यह भाष्य बना है। इस प्रकार है:
"तया द्वादश भेन प्रतिमाः मामिक्यादयः श्रा- सिद्धसेनको इस टीकापरसे ऐसा मालूम होता है कि सप्तमासिक्यः सप्त, सप्तचतुर्दशकविंशतिरात्रिक्यस्तिस्रः सिद्धसेनके समयमें इस विवादापन भाष्यका कोई दूसरा अहोरात्रिकी, एकरात्रिकी चेति ।"
पागम संगतरूप उपलब्ध नहीं था, उपलब्ध होता तो इसमें भिक्षोंकी बारह प्रतिमाओंका निर्देश है, जिनमे वह सिद्धसेन-जैसे ख्यातिप्राप्त और साधनसम्पन्न प्राचार्यको सात प्रतिमाएं तो एकमामिकीसे लेकर सप्तमासिकी तक जरूर प्राप्त होता, और प्राप्त होनेपर वे उसे ही भाष्यके बतलाई है, तीन प्रतिमाएँ सप्तरात्रिकी, चतुर्दशरात्रिकी रूपमें निबद्ध करते-आपत्तिजनक पाठ न देते, अथवा और एकविंशतिरात्रिकी कही है, शेष दो प्रतिमाएँ अहो. दोनों पाठोंको देकर उनके सत्याऽसत्यकी पालोचना करते। रात्रिकी और एकरात्रिकी नामकी हैं।
दूसरी बात यह मालूम होती है कि सिद्धसेन कि पहलेसे सिद्धसेन गणीने उक्त भाष्यकी टीका लिखते हुए भागम भाष्यको मूल सूत्रकारकी स्वोपज्ञकृति स्वीकार कर चुके थे के अनुसार सप्तरात्रिकी प्रतिमाएं तीन बतलाई है-चतुर्दश- और सूत्रकारको पूर्ववित् भी मान चुके थे, ऐसी हालतमें रात्रिकी और एकविंशतिरात्रिकी प्रतिमाओंको भागम-सम्मत जिस तत्कालीन श्वे. आगमके वे कट्टर पक्षपाती थे उसके नहीं माना है, और इसलिये भाप 'सप्तचतुर्दशेकविंशति- विरुद्ध ऐसा कथन मानेपर वे एकदम विचलित हो उठे हैं
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५ ]
और उन्होंने यह कल्पना कर डाली है कि किसीने यह श्रन्यथा कथन भाष्यमें मिला दिया है, यही कारण है कि वे उन भाष्यवाक्य के कर्ताको अज्ञानी और उस भाष्यवाक्यको 'प्रमत्तगीत' तक कहने के लिए उतारू होगये हैं। परन्तु स्वयं यह नहीं बतल/ सके कि उस भाष्यवाक्यको किसने मिलाया, किसके स्थानपर मिलाया क्यों मिलाया कब मिलाया और इस मिलावटके निर्णयका श्राधार क्या है ? यदि उन्होंने भाष्यकारको स्वयं मृलसूत्रकार और पूर्ववित न माना होता तो वे शायद वैसा लिखनेका कभी साहस न करते । उनका यह तर्क कि वाचक उमास्वाति पूर्वके ज्ञाता थे, वे कैसे इस प्रकारका श्राविसंवादि वचन निबद्ध कर सकते थे।' कुछ भी महत्व नहीं रखता जब अन्य कितने ही स्थानोंपर भी श्रागमके साथ भाग्यका स्पष्ट विशेष पाया जाना है और जिसके कितने ही नमुने ऊपर बतलाये जा चुके हैं। पिछले ( नं० १०) नमूनेमे प्रदर्शित भाष्य के विषय में जब सिद्धसेन गणी स्वयं यह लिखते हैं कि " श्रागमस्त्वन्यथा व्यवस्थितः "आगमकी व्यवस्था इसके प्रतिफल है, और उसकी संगति बिटलानेका भी कोई प्रयत्न नही करते, तब वहीं भाष्यकारका पूर्ववित होना कहीं चला गया ? श्रथवा पूर्वबित होते हुए भी उन्होंने वहाँ 'श्रार्षविसंवादि' वचन क्यो निबद्ध किया ? इसका कोई उत्तर सिद्धसेनकी टीका परमे नही मिल रहा है और इसलिये जब तक इसके विरुद्ध सिद्ध न किया जाय तब तक यह कहना होगा कि
श्वे० तत्त्वार्थसूत्र और उसके भाष्यकी जांच
9
[ १ ] आज प्रलयकी आँधी आई, पाप घटा है सिर पर छाई ; पुण्य देवके प्राण टूटते धर्म माँगता सोन बिदाई ! क्रान्ति, शान्तिको चली हड़पनेपर, उसका ही नाम मिटेगा ! विश्वशान्तिका शंख बजेगा ||
भाष्यका उक्त वाक्य श्वे० श्रागमके विरुद्ध है और वह किसीके द्वारा प्रक्षिप्त न होकर भाष्यकारका निजी मत है । और ऐसे स्पष्ट विरोधोंकी हालत में यह नहीं कहा जा सकता कि भाय्यादिका एकमात्र श्राधार श्वेताम्बर श्रुत है । उपसंहार
मैं समझता हूँ ये सब प्रमाण, जो ऊपर दो भागों में संकलित किये गये हैं, इस बातको बतलाने के लिए पर्याप्त है कि श्वेताम्बरीय तस्वार्थसूत्र और उसका भाग्य दोनों एक ही पाकी कृते नहीं है और न दोनोंकी रचना सर्वथा श्वेताम्बर श्रागमोंके श्राधारपर अवलम्बित है, उस में दिगम्बर श्रागमोंका भी बहुत बड़ा हाथ है और कुछ मन्तव्य ऐसे भी है जो दोनों सम्प्रदाय से भिन्न किसी तीसरे ही सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखते हैं अथवा सूत्रकार तथा भाष्यकारके निजी मतभेद हैं। और इसलिये उक्त दोनों दावे तथ्यहीन होने से मिथ्या हैं । श्राशा है विद्वजन इस विषयपर गहरा विचार करके अपने-अपने अनुभवोंको प्रकट करेंगे। जरूरत होनेपर जच पडतालकी विशेष बातों को फिर किसी समय पाठकोंके सामने रक्खा जायगा । ता० १८-७-११४२ ] वीर - सेवा मन्दिर, सरसावा
१८१
* इस विषयकी विशेष जानकारी प्राप्त करनेके लिये पीजीको नामका वह निबन्ध देखना चाहिए जो चतुर्थ वर्षक 'अनेकान्त' की प्रथम किरणम प्रकाशित हुआ है ।
शान्ति-भावना
[ २ ]
ढोग और पाखण्ड बढ़े हैं, हेपदम्भ खम ठोक संडे हैं! न्याय-नीतिका गला घोटनेहिंसाके जहाद पड़े है ! जगकी नस-नस में वीरोंकारक्त, अहिंसा भाव भरेगा ! विश्वशान्तिका शंख बजेगा !!
[ श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' ]
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
वह देवता नहीं, मनुष्य था !
(श्री दौलतराम 'मित्र') "हमने माना हो फरिश्ते शेखजी! परन्तु उसका उन्होंने कभी विरोध नहीं किया। जैसे नित्य आदमी होना बहुत दुश्वार है !!" देवपूजा। x x
सुधारक भी वे पूरे थे । यह बात उनके लेखोसे बाबू सूरजमलजी जैन ता०७ जुलाई १६४२ को इन्दौर स्पष्ट ज़ाहिर होती है। में ५३ वर्षकी आयु पार करके उस पार चले गये।
राजपुरुषोंका चित्त हरण कर लेनेका कठिन काम है. म. गांधीके कथनानुसार मृतकका तो गुणगान ही उसे भी वे साध लेते थे । और उसका उपयोग वे असहाय करना चाहिये । बाबूजीने मनुष्यत्व प्राप्त किया था, वे मनुष्य लोगोके बिगड़े काम बनाना तथा जैनधर्मके प्रचारमे करते थे। फिर भी मुझे यह कह देनेमे जरा भी संकोच नही थे। जनहितके लिये वे राजपुरुषोसे विरोध भी कर बैठते होरहा है कि उनमें मनुष्योचित कमजोरियां भी थी। थे। एक बार एसे विरोध करनेके कारण उन्हे इन्दौरसे
यह मूरत सौम्य और प्रतिभाशाली थी। इस प्रतिमामे बाहर होना पड़ा था। प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और श्रास्तिक्य गुण झलकते थे। बाबूजी कितने कर्मठ और प्रतिभाशाली व्यक्ति थे,
शरीर रोगी था और आर्थिक स्थिति खराब पी फिर इस बातका पता यों लग जाता है कि वे किसी समय एक भी परोपकारके लिये वे आपत्तियोंका खयाल न करते थे।x साथ २१ पारमा
ना साथ २१ पारमार्थिक संस्थानोका नेतृत्व करते थे। द्विजेन्द्रलालरायने अपने 'उसपार' नाटकमे ऐसे बुद्धिमत्ता उनमे इतनी थी कि उनके साधारण(बाबूजी जैसे) एक व्यक्तिकी कल्पना की है, जिसका नाम स्वाभाविक-नैसर्गिक ज्ञानके आगे विशेष ज्ञानीजनोको भोलानाथ है। प्राशा लेकर आये हुए गरीबके सामने
भैप जाना पड़ता था। अपनी आर्थिक स्थितिका खयाल छोडकर इनका हाथ आगे
उनका जैनधर्मपर श्वद्वान एक आकस्मिक घटनाबढ़ ही जाता था। इनके पास गया हश्रा व्यक्ति, कभी कुलधमके रूप में नहीं था, किन्तु परीक्षा प्रधानताके रूपमें निराश होकर लौटता किसीने नहीं देखा।
था। जैनधर्म प्रचार के लिये जो अष्टनिमित्त बतलाये गये बाबूजीने अपना तन, मन, धन सबके लिये खुला हैं उनमेसे बहुतसे निमित्तोके जरिये उन्होंने जैनधर्मका रख छोड़ा था, जिसका जी चाहता उपयोग कर लेता। प्रचार किया है। इस परसे यह कहना अत्युक्ति नहीं होगा लोगोने दुरुपयोग भी किया पर उन्होंने किसीकी शिकायत कि वे मुक्तिके अधिकारी हैं। नहीं की। वे खुद या दोस्तोकेद्वारा यह ज्ञात हो जानेपर
वे सबके थे, पर मेरी समझमें मेरे ज्यादा थे। एक कि दूसरा उनका दुरुपयोग कर रहा है, वे उसे दुरुपयोग
वक्त हम दोनों सुख-दुखकी बात कर रहे थे कि मैं अपने करने देते। यह बात उन्हें प्यारी थी।
अश्रु विन्दुओंमे उनका पाद-प्रक्षालन करने लगा तो उन्होंने सैकड़ों छात्रीको पदाईसे तथा सैकडो गृहस्थोंको रोजी भी मेरा मस्तकाभिषेक कर डाला। वे मुझे एक चीज़ से लगानेमें उन्होंने अपनी सारी शक्ति खपा डाली। दे गये हैं-मैंने उनसे कुछ सीखा है। मैं उनका कृतज्ञहे.
मतभेदी तो क्या मतद्वेषी लोगोसे भी वे प्रेम करते थे। मैं जानता हूं, बाबूजीके निंदक भी हैं। उसका कारण हैबाबूजी प्राचीन संस्कृतिके काफी हिमायती थे। भले
प नि कामायनीजले "द्विपंति मंदाश्चरितं महात्मनाम।” (कालीदास) ही संस्कृतिके किसी अंश या अंगको वे न अपना सके ही निमित्तटधा प्रोक्तं नमोभिर्जनरजकैः ।। * “जो फरिश्ते कर सकते हैं, कर सकता इंसान भी। धर्मोपदेशनैरन्यवादि दर्पतिशातनैः ॥
पर फरिश्तेसे न हो, जो काम है इंसानका।” (जौक) नृपचेनोहरै श्रव्यैः काव्यैः शब्दार्थसुदरैः। x पुमागत्यंत मेधावी चतुश्वकं समश्नुते । सद्भिः शौर्येण तत्कार्य शाशनस्य प्रकाशनं ।। अल्पायुरनपत्यो दरिद्रो वा रुमान्वितः ॥"
रुचिप्रवर्तने यस्य जैनशाशनभासने । "स्वापदं नहि पश्यंनि सन्तः पारार्थ्यनलराः।" क्ष.चू. हस्ते तस्य स्थिता मुक्तिरिति सूत्रे निगद्यते ॥ (उत्तर पुराण)
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
राष्ट्रकूट-नरेश अमोघवर्षकी जैनदीक्षा
[ले०–श्री प्रो० हीरालाल जैन एम० ए०, एल० एल० बी०]
राष्ट्रकूटवंशके राजा अमोघवर्ष (प्रथम) इतिहास- all the Rashtrakuta princes Amoप्रसिद्ध हैं। इन्हींने मान्यखट राजधानी बसाई, जो ghararsha was the greatest patron अपने वैभव और सौन्दर्यमें इन्द्रपुरीसे भी बढ़ गई of the Digambara Jainas; and the थी। इनके राज्यकालकी प्रशस्तियां शक संवत् ७३८ statement that he adopted the Jain से SEE तककी मिली हैं। उनसे पूर्व के राजागोविन्द- faith seems to the true." राज (तृतीय) का एक ताम्रपत्र शक ७३५ (सन् ८१३) अर्थात्-उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह प्रतीत होता है का पाया जाता है, तथा अमोघवर्पका एक लेख शक कि समस्त राष्ट्रकूट राजाओमेंसे अमोघवर्ष सबसे GE का उनके राज्यकालके ५२वें वर्पका है । इन बड़ा दिगम्बर जैनियोका संरक्षक था; और उसके जैन उल्लेखोंपरसे उनके राज्यका प्रारम्भ सन ८१४-८१५ धर्म स्वीकार करनेकी बात भी यथार्थ प्रतीत होती है। सिद्ध किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि अमोघ- उसी प्रकार विश्वेश्वरनाथजी रेऊने भी कहा है वर्पने सन ८१५ से ७७ तक ६२-६३ वर्ष अवश्य कि "इससे ज्ञात होता है कि यह राजा दिगम्बर जैनराज्य किया।
मतका अनुयायी और जिनसेनका शिष्य था।...... ____ अमोघवर्प नरेश किस धर्मके अनुयायी थे, इस इससे प्रतीत होता है कि अपनी वृद्धावस्थामें इस प्रश्नका उत्तर भी उनके सम्बन्धके अनेक ताम्रपत्र, राजाने राज्यका भार अपने पुत्रोंको सौंपकर शेष जीवन शिलालेख व साहित्यिक उल्लेखोंसे चल जाता है। धर्मचिन्तनमें बिताया था। उसी प्रकार डाक्टर एक कुशल नीतिज्ञ राजा फिसी धमे विशेपका पक्ष- अल्तेकरने स्वीकार किया है किपाती या विरोधी नही हो सकता । तदनुसार अमोघ- "In religion Anioghavarsha had वपके हिन्दुधर्म व जैनधर्मके प्रति सत्कार के अनेक great leaning towards Jainism" उल्लेख मिलते हैं। तो भी हिन्दूधर्म सम्बन्धी उल्लेख अर्थात "धर्मके सम्बन्धमें अमोघवर्षका भारी होनेपर भी इतिहासकारोंने यह स्वीकार कर लिया है मुकाव जैनधर्मकी ओर था।" कि अमोघवर्पकी यथार्थ चित्तवृत्ति जैनधर्मकी ओर जिन उल्लेखोंपर से उक्त इतिहासकारोने अमोघथी। इस सम्बन्धक प्राप्त उल्लेखोंका परिचय कराकर वर्पके जैनधर्मके अनुयायी या जैनधर्मकी ओर विशेप सर रामकृष्णगोपाल भंडारकरने अपने दक्षिणके आकर्पित होनेकी बात स्वीकार की है, वे संक्षेपतः इस इतिहासमें लिखा है--
प्रकार हैं:From all this it appears that of (१) वीरसेनाचार्यने अपनी धवलाटीका इन्हीं के १ रेउ: भारत के प्राचीन राजवंश, भाग ३, पृष्ठ ३६ आदि।
कालमें शक ७३८ में समाप्त की थी, तथा उनके शिष्य R Altekar: The Rashtra Kuta and
जिनसेनाचार्य ने अपने पार्वाभ्युदय काव्यकी अन्तिम their times. P. 71.
४ रेउः भारत के प्राचीन राजवंश, भाग ३, पृष्ठ ४४-४५ ३ Bhandarkar; The early History of ५ Altekar : The Rastrakutas and the Deccan P. 95.
their times. P. 88.
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८४
प्रशस्ति में इनको सदा राज्य करते रहनेका आशीर्वाद दिया है । इसी पार्श्वभ्युदय काव्यकी सर्गान्त पुष्पिकाओं में जिनसेनाचार्य अमोघवर्ष नरेश के 'परमगुरु' कहे गये हैं ।
(२) जिनसेनाचार्य के शिष्य गुणभद्रने उत्तरपुराण में कहा है कि अमोघवर्ष नृपति जिनसेनाचार्य को प्रणाम करने से अपनेको पवित्र समझता था। 3
अनेकान्त
(३) 'प्रश्नोत्तर - रत्नमालिका' नामक एक छोटासा सुन्दर सुभाषित काव्य है । यह काव्य इतना लोकप्रिय हुआ कि श्वेताम्बर जैनियोंने उसे अपनाकर विमल सूरिकृत प्रकट किया है और हिन्दुओंने शंकराचार्य कृत मानकर उसका आदर किया है। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय इसे अमोघवर्षकृत ही माना है और इस का समर्थन एक तिब्बती अनुवाद से भी होगया है ।" इस काव्य आदि में कर्ताने वर्धमान तीर्थंकर को नमस्कार किया है ।" और अन्त के पद्यमें कहा गया है कि "यह विद्वानोंको सुन्दर अलंकाररूप रत्नमालिका राजा अमोघवर्षकी बनाई हुई है, जिन्होंने विवेकसे राज्यका त्याग कर दिया।
इन उल्लेखों परसे ज्ञात होता है कि अमोघवर्ष नरेशने न केवल जैनधर्म की ओर झुकाव ही दिखाया था, किन्तु जैनगुरुयोंकी वे बड़ी भक्ति करते थे । १ 'भुवनभवतु देवः सर्वदामोघवर्पः '
२ इत्यपरमेश्वरपरमगुरू श्री जिनसेनाचार्यविरचिते मेत्रभगवत्कैवल्यवर्णनं दूतवेष्ठिते पार्श्वभ्युदये चतुर्थः सर्गः ।
नाम
३ शुनखाशुजालविमरद्वारान्नराविर्भवत्पादाम्भोजन: पिशङ्गमुकुटमत्युग्ररत्नद्युतिः । संस्मर्ता स्वममोघवनृपतिः पूतोऽहमद्येत्यलं स श्रीमान् जिनमेनपूज्य भगवलादो जगन्मङ्गलम् ॥ History
४ Bhandarkar : Early
the Decean, P. 95.
५ प्रणिपत्य वर्धमानं, प्रश्नोत्तर रत्नमालिका वक्ष्ये । नागनरामरवंद्यं देवं देवाधिपं वीरम् ॥
६ विवेकाच्यक्तराज्येन राज्ञेयं रत्नमालिका । रचित मोघवर्षेण सुधिया सरलंकृतिः ॥
[ वर्ष ५
अन्तिम उल्लेखसे तो ज्ञात होता है कि अन्ततः वैराग्य से उन्होंने राजपाट त्याग ही कर दिया था । किन्तु राज्य त्यागकर उन्होंने क्या किया, इस विषय पर उक्त इतिहासज्ञोंने अपना भिन्न भिन्न मत प्रकट किया है। सर भंडारकरने तो अपने इतिहास में इतना ही कहा है कि "उनका जैन धर्म स्वीकार करना ठीक प्रतीत होता है !" रेऊजीका कहना है कि - " इसमे प्रतीत होता है कि अपनी वृद्धावस्था में इस राजाने राज्यका भार अपने पुत्रको सौपकर शेप जीवन धर्मचिन्तन में बिताया था।" डा० अल्टेकरने बतलाया है कि अमोघवर्षके राज्य त्याग के सम्बन्धका उल्लेख एक ताम्रपत्र में भी पाया जाता है । यह ताम्रपत्र अमोघवर्ष के ५२वें राज्यवर्षका, शक का लिखा हुआ हूँ । किन्तु उस उल्लेखसे ज्ञात होता है कि उन्होंने एक नही अनेक बार राज्य त्याग किया था । इस परसे डा० अत्तेकरका मत है कि
of
It would seem that he was often
putting his Yuvaraj or the ministry in charge of the administration, in order to pass some days in retirement and contemplation in the company of his Jaina gurus. This again shows the pious monarch trying to put into practice the teachings boh of Hinduism and Jainism which require a pious person to retire from life of the advent of old age in order to realise the highest ideals of human lite"
अर्थात् पूर्वोक्त उल्लेखपर से ऐसा मालूम होता है कि अमोघवर्ष कई बार अपने युवराजको या मंत्रिResort राज्यभार सौंपकर कुछ दिन एकान्तवास और ध्यान के लिये अपने जैनगुरुओं के साथ बिताया करते थे । इससे भी यही ज्ञात होता है कि ये धर्मात्मा नरेश हिन्दू और जैन के उन उपदेशो को अपने आचरण में उतारनेका प्रयत्न करते थे, जिनके अनुसार धर्मिष्ठ
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५)
राष्ट्रकूट-नरेश अमोघवर्षकी जैन दीक्षा
मनुष्यको अपनी वृद्धावस्थामें संसारके झंझटोंसे एक और बड़ा प्रमाण उपलब्ध है, जिसकी ओर अभी अलग होकर जीवन के उच्चतम आदर्शको प्राप्त करना तक इतिहासज्ञोंका पूर्ण ध्यान नहीं गया । अमोघवर्ष चाहिये।
नृपका उल्लेख महावीराचार्य ने भी अपने गणितसारतब क्या प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकामें अमोघवर्षके
संग्रहमे किया है और इस उल्लेखकी सूचना उपर्युक्त किसी ऐसे ही एक अल्पकालीन राज्यत्यागका उल्लेख
समस्त इतिहासज्ञोंक लेखोंम पाई जाती है । किन्तु है और उमी अल्पकालमें वह रचना करके वे पुनः
गणितसारसंग्रहके पूरे उल्लेखका किसीने अभी तक सिंहासन पर श्राठे होगे? यह बात तो सच है कि गंभीर अध्ययन नही किया, श्रीर इमीलिये उसमे उपजब शक ७८८ के लग्बमें उनके गज्यत्यागका उल्लेख यक्त विपयपर जो प्रकाश पड़ना चाहिये था वह अभी है, तब किसी अल्पकालीन त्यागका ही वहां अभिप्राय तक नही पड सका । अब हम यहां महावीराचार्य द्वारा हो सकता है; क्योकि उसके पश्चात शक ७८६ व गरिगतसारमंग्रहमें दी हुई अमोघवर्षकी प्रशस्तिका शक ७E के भी उनके लेख पाये गये हैं। किन्तु परिचय कराते हैं। जिस राज्य-त्यागका उल्लेख 'प्रश्नोत्तर-रत्न-मालिका' में
गणि सारसंग्रहके प्रारंभमे मंगलाचरण है जिसके पाया जाता है, वह त्याग ऐमा अल्पकालीन प्रतीत
प्रथमपद्यम अलंध्य, त्रिजगत्मार, अतन्तचतुष्टयक धारी नही होता । उस ग्रन्थक भीतर जो भाव भर है, व महावीर जिनेन्द्रको नमस्कार किया गया है। दूसरे पद्य लेखकक स्थायी वैराग्यके परिचायक हैं और अन्तमें
मे उन महाकान्तिधारी जैनेन्द्रको प्रणाम किया गया है,
- TEE 'विवेकात्यक्तराज्येन' विशेषण लगाया गया है । उसमे जिन्होंने संख्याक ज्ञानरूपी प्रदीपसे समस्त तो यही जान पड़ता है कि राजाका इस बारका त्याग जगतको प्रकाशित कर दिया है। तीसरम आठवे पद्य क्षणिक नही, स्थायी था, उन्होंने विवेकपूर्वक यह तक अमोघवर्पकी प्रशस्ति है, जो इस प्रकार हैत्याग किया था। पर राज्य छोड़कर उन्होंने किया क्या, यह फिर भी अनिश्चित ही रहा । क्या वे गृहस्थ
प्रीणिनः प्राणिमस्याघो निरीतिनिरवग्रहः । रहकर एकान्तमे धर्मचिन्तन करते रहे, या हिन्द
श्रीमतामोघवर्षेण येन म्वेष्टहितैपिणा ॥१॥ संन्यासी या जैनमुनि बन गये ? पं० नाथूरामजी
पापरूपाः परा यस्य चिनवृनिहविर्भुजि । प्रेमीका मत है कि
भस्ममाद्भावमीयस्तेऽवन्ध्यकोपोऽभवत्ततः ॥२॥ "यह बात अभी विवादापन्न ही है कि अमोधवर्ष वशीकुर्वन् जगन्मवै स्वयं नानवशः परः। ने राज्यको छोड़कर मुनि-दीक्षा ले ली थी या कवल नाभिभूत: प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः॥३॥ उदासीनता धारण करके श्रावककी कोई उत्कृष्ट प्रतिमा यो विक्रमक्रमाक्रांतचकिचक्रकृतक्रियः । का चरित्र ग्रहण कर लिया था। हमारी समझमें यदि चक्रिकामञ्जनो नाम्ना चक्रिकाभानोऽञ्जसा ||४|| उन्होंने मुनि-दीक्षा ली होती, तो प्रश्नोत्तर-रत्नमाला
यो विद्यानद्यधिष्टानो मर्यादावज्रवेदिकः । में वे अपना नाम 'अमोघवर्ष' न लिग्बकर मुनि अव
रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिर्महान् ॥ ५ ॥ स्थामें धारण किया हुआ नाम लिखते । इसके सिवाय
विध्वस्तैकानपक्षम्य स्याद्वादन्यायवादिनः । राज्यका त्याग करनेके समय उनकी अवस्था लगभग देवस्य नृपतुङ्गस्य वर्धतां तस्य शासनम् ॥६॥ ८० वर्षकी थी, इसलिये भी उनका कटिन मुनिलिंग इस प्रशस्तिपर विचार करनेमें स्पष्ट ज्ञात होता धारण करना संभव प्रतीत नहीं होता।"
है कि लखकन यहाँ अमोघवर्षकी राजवृत्तिके साथउपर्युक्त उपलब्ध प्रमाणोंपरस यह निष्कर्ष निका- साथ वचक विशेषणोंद्वारा उनकी मुनिवृत्तिका लना सयुक्तिक ही है। पर इस विपयके निर्णयके लिये वर्गात किर
नण्यक लिय वर्णन किया है। यही नहीं, किन्तु अंत तक जाते-जाते ५ विद्वद्रत्नमाला, पृ० ८४ ।
राजवृत्ति-वर्णन बहुत गौण और मुनिवृत्तिवर्णन ही
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८६
अनेकान्त
[ वर्ष ५
प्रधान होगया है। प्रथमपद्यमें अमोघवर्ष प्राणीरूपी करनेका स्पष्ट उल्लेख है। ऐसे नृपतङ्गदेवक शासन सस्यसमूहको संतुष्ट व निरीति और निरवग्रह करने-' अर्थात धर्मशासनकी वृद्धिकी श्राशा की गई है। वाले और स्वेष्टहितपी कहे गये है। यहाँ राजाके ईति- इस प्रकार इम प्रशस्तिसे कोई संदेह नहीं रहता निवारण और अनावृष्टिकी विपत्तिके निवारणके कि राष्ट्रकूट-नरेश नृपतुङ्ग अमोघवर्षने राज्य त्यागकर साथ साथ सब प्राणियोकी ओर अभय और रागदेष- मुनिदीक्षा धारण कर ली थी और उन्होंने अपनी रहित वृतिका उल्लेख है। इस प्रकार वे आत्मकल्याण- चित्तवृत्तिको विशुद्ध और निर्मल बनाने में कुछ उठा परायण होगये थे, यह "स्वेष्टहितैषिणा” विशेषण से नही रखा था ! स्पष्ट है। दूसरे पद्यमें उनके पापरूपी शोका उनकी अब रह जाती है प्रेमीजीकी यह शंका कि यदि चित्तवशिरूपी नपोज्वालामें भस्म होनेका उल्लेख है। उन्होंने मुनि-दीक्षा धारण कर ली थी, तो राजा अपने शत्रोंको अपने क्रोधकी अग्निम भस्म फिर उन्होंने अपना नाम क्यों नहीं बदला ? पर यह कर डालता है। इन्होंने कामक्रोधादि अंतरंग शत्रुओ आवश्यक नहीं है कि मुनि-दीक्षा लेने पर नाम अवश्य को कपायरहित चित्तवृत्तिस नष्ट कर दिया था । वे ही बदलना चाहिये । विशेषतः जब इतना बड़ा सम्राट अबध्यकोप होगये थे, उनके क्रोधकपायका बंध नहीं दीक्षा लेता है, तो उसके पूर्व नाम के साथ जो यश रहा था। तीसरे पदाम उनके समस्त जगतको वशीभूत र कीर्ति सम्बद्ध रहती है, उसकी रक्षाय लोग उसके करने, किन्तु स्वयं किमीके वशीभूत न हानेस उन्ह उसी नामको कायम रखना पसंद करेंगे हो । इसी "अपूर्व मकरध्वज" कहा है। यहाँ भी उनके चक्रवर्ति- कारण मौर्य नरेश चंद्रगुतका नाम उनके मुनि हो जान त्वकी अपेक्षा उनके समस्त इन्द्रियों व सांसारिक भाव- पर भी चन्द्रगुप्त ही कायम रहा पाया जाता है । अत नाश्रोको जीतकर वीतरागत्व प्राप्त कर लेनेकी ओर एव प्रश्नोत्तर-रत्नमालिकामं उसके लेखकका राज्यत्याग विशेष लक्ष्य है। चौथे पद्यमे उनकी एक 'चक्रिका और दीक्षाधारण के पश्चात भी यदि अमोघवर्ष नाम भज्जन' पदवीकी सार्थकता सिद्ध की है। राजमंडलको उल्लिखित किया गया है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। वश फरनेके अतिरिक्त यहां स्पष्टतः उनके क्रमशः अमोघवर्पक वृद्धत्वक कारण उनके दीक्षाग्रहण तपस्या-वृद्धि-द्वारा संसारचक्र-परिभ्रमणका क्षय करने करनेकी असंभावना भी प्रबल नही है। राज छोड़नेक का उल्लेख है । पांचवें पद्यमें उनकी विद्याप्राप्ति समय अमोघवर्ष वृद्ध तो थे, पर ८० वर्ष के नहीं। और मर्यादाओंकी वनवेदिका द्वारा उनकी ज्ञानवृद्धि उनके शक ७८८ के ताम्रपत्रमें उल्लेग्य है कि उनक और महाव्रतोके परिपालनका उल्लेख किया गया है पिता गोविन्दराज जब अपनी उत्तरभारतकी विजय 'रत्नगर्भ' विशेषणसे स्पष्टतः उनके दर्शन, ज्ञान और पूर्ण कर चुके थे, तब अमोघवर्षका जन्म हुआ था। चारित्ररूपी रत्नत्रयके धारणका भाव प्रगट किया गया गोविंदराजकी उत्तरभारतकी विजयका काल सन ८०६ है। उनके 'यथाख्यात चारित्रके जलधि' विशेपणमं से ८०८ तक सिद्ध होता है । अतएव जब वे सन् तो निःसंशयरूपसे उनके पूर्णमुनि और उत्कृष्टध्यानी ८१४-८१५ में सिंहासनारूढ़ हुए, तब उनकी अवस्था होनेका वर्णन है । 'यथाख्यातचारित्र' जैनसिद्धांतकी केवल ६ वर्षकी' और जब सन् ८७७ के लगभग एक विशेषसंज्ञा है जो मुनिसकलचारित्रको धारण उन्होंने राज त्यागा, तब उनकी आयु ७० वर्ष से कुछ करके भावोंकी विशद्धिद्वारा समस्त कषायोंको शांत या कम की ही सिद्ध होती है । इस समय तक जिनक्षीण कर देता है उसे ही यथाख्यात चारित्रका धारी सेनाचार्य और संभवतः उनके शिष्य गुणभद्रका स्वर्गकरते हैं। इस पद्यमें तो अमोघवर्षके मुनित्वके वर्णन वास हो चुका था, इसीसे उनकी किन्ही भी प्रशस्तियों होने में कोई संदेह ही नहीं रहता । अंतिम पद्यमें उनके १ Altekar: The Rashtra Kutos and एकांत छोड़कर अनेकान्तस्याद्वादन्यायका अवलंबन thier times. P.71-72.
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५ ]
राष्ट्रकूट-नरेश अमोघवर्षकी जैनदीक्षा
में उनके मुनि होने का उल्लेख नहीं आ सका। द्वारा या और किसीके द्वारा जोड़ी गई होंगी।" गणितमहावीराचार्य ने अपना गणितसारसंग्रह अमोघवर्षके सारसंग्रहमें उसके कर्ता-द्वारा ग्रन्थका रचनाकाल नहीं दीक्षा ग्रहण कर लेनेके और उनके जीवनक.लके भीतर दिया गया, इससे यह निश्चयतः नही कहा जा सकता कि ही किसी ममय लिखा होगा।
वहां उल्लिखित अमोघवर्पसे उपर्युक्त नरेशका ही तात्पर्य श्रीयुक्त एम० गोविन्द पैने अपने एक लेखमें है; क्योंकि "अमोघवर्ष नृपतुङ्ग उपाधियोंसे युक्त नरेश प्रकट किया है कि अमोघवर्पके जैनधर्म स्वीकार करने बहुत से होगये हैं। अथवा यह वही राजा माना जाय सम्बन्धी सभी श्राधार निर्मूल मालूम पड़ते हैं। इस तो भी उक्त उल्लेखमे उसका जैनधर्मका स्वीकार सम्बन्ध में उनका प्रथम आक्षेप यह है कि उक्त नरेशके करना सिद्ध नही होता । प्रश्नोत्तररत्नमालिकाकी जो "५२ वें वर्पके शासन में ‘स वोऽव्यात्' इस प्रकारका अमोघवर्षके राज्यत्यागका उल्लेग्य करने वाली अन्तिम हरिहर-स्तुति सम्बन्धी शिरोलेख रहनेमे तब तक उनने पुष्पिका है वह शेष काव्यक छंदसे भिन्न छंदमें होने के जैनधर्मको ग्रहगा नही किया था, ऐसा कहने में कोई कारण काव्यका मालिक अंश न होकर पीछस जोड़ा आक्षेप नहीं दीखता।" किन्तु एक तो इस उल्लेग्वपर हश्रा छंद हो सकता है।" इत्यादि । पैजीक ये सब से उक्त नरेशके ५० वें वर्पके पश्चात जैन दीक्षा ग्रहण आक्षेप तभी कुछ सार्थकता रखते हैं जब पहले से ही करनेमे कोई बाधा उपस्थित नहीं होती । और दूसरे यह निश्चय कर लिया जाय कि अमोघवर ने कभी शासन शिगेलेख आदि राज्य कर्मचारियों द्वारा प्रायः जैनधर्म ग्रहण नहीं किया था । यदि एकाध ही उल्लेख राज्य-विभागकी परंपरानुमार लिखे जाते हैं, वे मदैव अमोघवर्प के जैनत्वक संबन्धका होता तो भी उक्त किमी गजाकी निजी धार्मिक मनोवृत्तिके सच्चे प्रकारकी आपत्ति कुछ मूल्यवान हो सकती थी । पर परिचायक नहीं कहे जा सकते। पै जी का दूसरा आक्षेप अनेक ग्रन्थोक उल्लेखांको उक्त प्रकार बिना किसी यह है कि उत्तरपुगगगमे जो अमोघवर्प के जिनमेनकी आधारके, केवल शक पदसे ही अप्रमाण ठहराना वन्दनाका उल्लेख है वह "जिनमेन और अमोघवर्षके उचित नहीं जंचता । अगोघवर्पक जैनत्वकी मान्यताकी बीचमे एक समय परस्पर भटका वात मालूम पड़ता प्रचीनता और मौलिकताको प्रसिद्ध गारनेम कोई प्रबल है, इसमें ज्यादा अर्थ उसमे अनुमान करना ठीक नही दलील पैजीक ले बम नहीं पाई जाती । अमोघवर्षमालूम होता।” पार्वाभ्युदयकी जिन सर्गान्त पुष्पिकाओं मम्बन्धी समस्त उल्लग्बोंपरसे उनके जैनत्व स्वीकार में जिनसनको अमोघवर्ष गजाका परमगुरु कहा है, करनेमे कोई ऐतिहासिक विसंगति उत्पन्न नहीं होती। वे पुप्पिकार उनके मतम जिनसेनकी स्वयं रचना न होकर "उस काव्यक टीकाकार योगिगट पंडिनाचार्य *जैनमिद्धान्तभास्कर की दालकी किरण (भाग ६ कि१) १. नृानुगका मन विचार, अनेकान्त, वर्ष ३, पृ.५७ श्रादि में उद्धृत ।
जरूरी सूचना गत किरणमे पृष्ठ १०६ पर जो 'अावश्यक सूचना' अनेकान्तके प्रथम वर्षकी ११ किरणोवाली फाइल के लिये निकाली गई थी उसमे पोष्टेजके ग्यारह पाने महित एक रुपया ग्यारह याने १) की जगह गलती मे १||1) छप गये, इससे फाइल मँगाने वालो को जो चार पाने अधिक भेजने पड़े, उसके बदलेमे उन्हे 'बनारसी-नाममाला' भेज दी गई। अत: अागे को जो सज्जन उक्त फाइल मगाएँ उन्हें एक रुपया ग्यारह अाने शीघ्र मनीभाईरसे भेजने चाहिये । फिर फाइले नही मिल सकेगी-थोड़ी ही अवशिष्ट रह गई हैं।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर-शासन और उसका महत्त्व
[ले०-५० दरबारीलाल जैन, न्यायाचार्य ]
अन्तिम तीर्थकर भगवान् वीरने अाजमे २४६८ वर्ष प्रधानी प्रसिद्ध जैन आचार्य थे और जो आजसे लगभग
पूर्व बिहार प्रान्तके विपुलाचल पर्वतपर स्थित होकर १६०० वर्ष पूर्व हो चुके हैं, भगवान् महावीर और उनके श्रावण कृष्णा प्रतिपदाकी पुण्यवेलामें, जब सूर्यका उदय शासनकी खूब परीक्षा एवं जांच की है-'युक्तिमवचन' प्राचीसे हो रहा था, संसारके संतप्त प्राणियोंके संतापको दूर अथवा 'युक्तिशास्त्राविरोधिवचन' और 'निर्दोषता' की कसौटी कर उन्हें परमशान्ति प्रदान करने वाला धर्मोपदेश दिया पर उन्हें और उनके शासनको खूब कसा है। जब उनकी था। उनके धर्मोपदेशका यह प्रथम दिन था। इसके बाद परीक्षामे भगवान् महावर और उनका शासन सौटंची भी लगातार उन्होंने तीस वर्ष तक अनेक देश-देशान्तरोंमे स्वर्णकी तरह ठीक साबित हये तभी उन्हें अपनाया है, विहार करके पथभ्रष्टोको सत्पथका प्रदर्शन कगया था, उन्हें इतना ही नहीं किन्तु भगवान वीर और उनके शासनकी सन्मार्ग पर लगाया था। उस समय जो महान् प्रज्ञान- परीक्षा करनेके लिये अन्य परीक्षकों तथा विचारकोंको तम मर्वत्र फैला हुआ था, उसे अपने अमृत-मय उपदेशों धामन्त्रित किया है-निप्पक्ष विचारके लिये खुला चैलेज द्वारा दूर किया था, लोगोंकी भूलोको अपनी दिव्य वाणीने दिया है। समन्तभद् स्वामीके ऐसे कुछ परीक्षा-वाक्य थोडे बताकर उन्हें तत्त्वपथ ग्रहण कराया था, सम्यकदृष्टि बनाया से ऊहापोह के साथ नीचे सानुवाद दिये जाते हैं:था। उनके उपदेश हमेशा दया एवं अहिंसासे श्रोत-प्रोत दवागमनभोयानचामरादिविभूतयः। हुआ करते थे। यही कारण था कि उस समयकी हिंसामय मायाविपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान ॥२॥ स्थिति अहिंसा परिणत होगई थी और यही वजह थी
-आप्तमीमांसा कि इन्द्रभूति जैसे कट्टर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् भी, जिन्हें
'हे वीर देवोंका पाना, आकाशमे चलना, चमर, बादको भगवान् वीरके उपदेशोंके संकलनकर्ता-मुग्थ्य गण- छत्र, सिंहासन प्रादि विभूतियोंका होना तो मायावियोंधर तकके पदका गौरव प्राप्त हुआ है, उनके उपाश्रयमे इन्द्रजालियों में भी देखा जाता है, इस वजहसे श्राप हमारे
आये और अन्तमे उन्होंने मुक्तिको प्राप्त किया । इस महान्-पूज्य नहीं हो सकते। और न इन बातोंमे आपकी तरह भगवान् वीरने अपने अवशिष्ट तीस वर्षके जीवन में संख्या- कोई महत्ता या बडाई है। तीत प्राणियोंका उद्धार किया है और जगतको परम हित- समन्तभद्र स्वामीने ऐसे अनेक परीक्षा-वाक्यों द्वारा कारक सच्चे धर्मका उपदेश दिया है। वीरका यह सब दिव्य उनकी और उनके शासनकी परीक्षा की है, जिनका कथन उपदेश ही 'वीरशासन' या 'वीरनीर्थ' है और इस तीर्थको सूत्ररूपये श्राप्त-मीमांसा दिया हुआ है। परीक्षा करनेके चलाने-प्रवृत्त करनेके कारण ही वे 'तीर्थकर' कहे जाते हैं। बाद उन्हें उनमे महत्तायी जो बात मिली है और जिसके वर्तमानमे उन्हींका शासन तीर्थ चल रहा है, परन्तु वीर-शासन कारण भगवान् वीरको 'महान्' तथा उनके शासनको क्या है ? उसके महत्त्वपूर्ण सिद्वान्त कौनसे हैं ? और उस 'अद्वितीय' माना है, वे ये है:में क्या-क्या उल्लेखनीय विशेषतायें हैं ? इन बातोंसे बहत त्वं शुद्धि शक्तयोरुदयस्य काष्ठां, कम सज्जन अवगत हैं । अस्तु, यहां इन्ही बातोंपर संक्षेपमें तुलाव्यतीतां जिन शान्तिरूपां। कुछ विचार किया जाता है। आशा है पाठकोंको यह रचि- अवापिथ ब्रह्मपथस्य नेता कर और कुछ लाभप्रद ज़रूर होगा।
महानितीयत्प्रतियक्त मीशाः॥ (युक्त यनुशामन) समन्तभद्र स्वामीने, जो महान् तार्किक एवं परीक्षा- * देखो युक्तयनुशासन का०६३
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
वीर शासन और उसका महत्व
१८६
हे जिन ! आपने शुद्धिके-ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म उनका अभाय नहीं होता । किन्तु एवान्तवादियोंका आगमके क्षयसे उत्पन्न प्रात्मीय ज्ञान-दर्शनके–तथा शक्तिके- वाक्य अथवा शासन परस्पर निरपेक्ष होनेसे सब धर्मों वीर्यान्तराय कर्मके क्षयमे उत्पन्न प्रान्मबलके-परम प्रकर्ष वाला नहीं है उनके यहां धर्मोमे परस्परमें अपेक्षा न को प्राप्त किया है-श्राप अनन्नदर्शन, अनन्तज्ञान और होनेसे दूसरे धर्मोंका अभाव होजाता है और उनके श्रभाव अनन्तवीयके धनी हुए हैं--पाथ ही अनुपम एवं हो जाने पर उस अविनाभावी अभिप्रेतधर्मका भी अभाव अपरिमेय शान्तिरूपताको--अनन्तसुखको-भी प्राप्त कर हो जाता है। इस तरह एकान्तमे न वाच्यतत्व ही बनता है लिया है, इसीये श्राप 'ब्रह्मपथ' के--मोक्षमार्गके--नेता हैं और न वाचकतत्व ही। और इसलिये हे वीर जिनेन्द्र !
और इसीलिए आप महान् हैं--पूज्य हैं। ऐसा हम परस्परकी अपेक्षा रखने के कारण-अनेकान्तमय होनेके कहने-सिद्ध करने के लिए समर्थ हैं।'
कारण-श्रापका ही तीर्थ-शासन सम्पूर्ण श्रापदानोंका अंत __समन्तभद्र वीरशासनको अद्वितीय बतलाते हुए करने वाला है और स्वय निरंत है-अंतरहित अविनाशी लिखते हैं:
है तथा सर्वोदयरूप है--समस्त अभ्युदयों - अात्मिक दया-दम-त्याग-समाधि-निष्टं
और भारतक विभूतियोंका कारण है। तथा सर्व प्राणियों के नयप्रमाणप्रकृताञ्जमार्थम ।
अभ्युदय-अभ्युग्थानका हेतु है। समन्तभद्रके इन वाक्योंमे अधृष्यमन्यैरविलेः प्रवादे
यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुनः 'वीर जिन त्वदीयं मतमद्वितीयम ॥ (युक्तचनुशासन) शासन' ही सर्वोदय तीर्थ कहलाने के योग्य है। उसमे वे
हे वीर जिन ' आपका मत-शासन नय और प्रमाणोके विशेषताय एवं महत्ताये हैं जो अाज विश्वके लिये द्वारा वस्तुतत्त्वको बिल्कुल स्पष्ट करने वाला है और अन्य वीरशासनकी देन कही जाती हैं या कही जा सकती हैं। समस्त एकान्तवादियोंसे वाध्य है - अखडनीय है, साथ वे विशेषताये कुछ निम्न प्रकार हैंमें दया अहिंसा, दम-इन्द्रियनिग्रहरूपसंयम, त्याग-दान १ अहिंसावाद, २ साम्यवाद, ३ स्याद्वाद और अथवा समस्त परिग्रहका परित्याग और समाधि-प्रशस्त ४ कर्मवाद । इनके अलावा वीरशासनमे और भी वाद हैंध्यान इन चारोंकी तत्परताको लिये हुये है, इसलिए वह श्रा'मवाद, ज्ञानवाद, चारित्रबाट, दर्शनवाद, प्रमाणवाद, 'अद्वितीय है।
नयवाद, परिग्रहपरिमाणवाद, प्रमेयवाद आदि, किन्तु दयाके बिना दम-संयम नहीं बन सकता और संयमके
उन सबका उल्लिखित चार वादों में ही प्रायः अन्तर्भाव होजाता बिना ग्याग नही और त्यागके बिना समाधि-प्रशस्त ध्यान
है। प्रमाणवाद और नयवाद ये ज्ञानवादके ही नामान्तर हैं नहीं हो सकता, इमीसे वीरशासनमें दया-हिमाको प्रधान
और इनका तथा प्रमेयवादका स्याद्वादके साथ सम्बन्ध स्थान प्राप्त है। 'चीर-शासन' की इस महत्ताको बतलानेके बाद
होनेये स्याद्वादमें, और बाकीका अहिंसावाद तथा साम्यवादमे समन्तभद्ग उसे 'सर्वोदयतीर्थ' भी बतलाते हुए लिखते हैं
अन्तर्भाव हो जाता है। सर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्पं
-अहिसावाद-'स्वयं जियो और जीने दो' की सर्वान्तशन्यं च मिथोऽनपेक्षम्।।
शिक्षा भगवान महावीरने इस अहिंसावाद द्वारा दी थी। सर्वापदामन्तकरं निरन्तम
जो परम अामा, परमब्रह्म, परममुस्त्री होना चाहता है उसे सर्वादयं तीथमिदं तवैव ॥ आइसाका उपासना करना चाहिय-उप अपन समान हा -युक्त यनुशासन
सबको देखना चाहिये-अपना अहिंसक श्राचरण बनाना है वीर ! श्रापका तीर्थ-शासन अथवा परमागम- चाहिये । मनुष्यमें जब तक हिंसक वृत्ति रहती है तब तक द्वादशागत-समस्त धर्मों वाला है और मुख्य, गौणकी आत्मगुणोंका विकास नहीं हो पाता-वह दुःखी, अशान्त अपेक्षा करके समस्तधर्मोकी व्यवस्थासे युक्त है-- एक धर्मके बना रहता है। अहिंसकका जीवमात्र मित्र बन जाता हैप्रधान होने पर अन्य बाकी धर्म गौण मात्र हो जाते हैं- सर्व वैरका त्याग करके जातिविरोधी जीव भी उसके उपा
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६०
अनेकान्त
[ ५
हुआ चलेगा, दिन-मित वचन बोलेगा ज्यादा बकबाद नहीं करेगा। गरज़ यह कि जैनसा अपनी तमाम प्रवृत्ति सावधानीसे करता है यह सब अहिंसा के लिये हिंसा की उपासना के लिये 'परमब्रह्मको प्राप्त करने के लिये ' ' अहिंसा भूतानां जगत विदितं ब्रह्मपरमं' इस समन्तभद्रोक
1
को हासिल करने के लिये। इस तरह जैनसाधु अपने जीवनको पूर्ण श्रहिसामय बनाता हुआ, श्रहिंसाकी साधना करता हुआ, जीवनको अहिंसाजन्य अनुपम शांति प्रदान करता हुआ, विकारी पुङ्गलमे अपना नाता तोडता हुआ, कर्मबन्धन काटता हुआ चहियाने ही परमझमें टीशाश्वतानन्दमें डी- निम होजाता है— जीन होजाता हैसदा के लिये हमेशा के लिये नतकाल के लिये फिर उसे संसारका चक्कर नहीं लगाना पड़ता। यह अजर, अमर, व्यविनाशी होजाता है। सिद्ध एव कृकृय बन जाता है यह सब अहिंशाके द्वारा ही शान नियाद-। वीर-शासनकी जड - श्रधार र विकास अहिंसा ही है । वर्तमानमे हमारा जैनमाज इस अहिंसा-तब को कुछ भूल या गया है इसी लिये जैनेतर लोग उसके वाह्याचारको देखकर जैनी श्रहिंसा' 'वीर श्रहिंसा पर कायरताका कलंक मढते हुये पाये जाते हैं। क्या ही अच्छा हो, जैनी लोग अपने व्यवहारये चहिंसाको व्यावहारिक धर्म बनाये रखनेमे सच्चे प्रथम 'जैनी' बनें, श्रात्मबल पुष्ट करें, साहसी, बीर बनें जितेन्द्रिय होवे उनकी अहिंसा केव चिवटी - खटमल, जे यादि की रक्षा तक ही सीमित न हो, जिससे दूसरे लोग हमारे दम्भपूर्ण व्यवहार-निरा अहिंसा के व्यवहारको देखकर वीर प्रभुकी महती देन अहिंसापर कलंक न मढ सके 1
1
में आपस में हिलमिल जाते हैं। क्रोध दम्भ, द्वेष गर्व लोभ आदि ये सब हिंसाकी वृतियां है ये सच्चे हिंसक के पास नहीं फटकती हैं अहिंसको कमी भय नहीं होता, यह निर्भीकता के साथ उपस्थित परिस्थितिका सामना करता है, कायरता कभी पलायन नहीं करता। अहिंसा कायका धर्म नही है वह तो वीरोंका धर्म है । कायरता का हिंसाके साथ और वीरताका अहिंसाके साथ सम्बन्ध 售 1 शारीरिक बलका नाम वीरता नही, आत्मबलका नाम वीरता है । जिसका जितना अधिक श्रात्मबल विकसित होगा वह उतना ही अधिक वीर और अहिंसक होगा । शारीरिक बल कदाचित ही सफल होता देखा गया है. लेकिन सूखी हड्डियों वाला भी आभवल हमेशा विजयी और अमोघ रहा है ।
श्रतः श्रहिसा पर कायरताका लांछन लगाना निराधार है। भगवान् महावर ने वह अहिसा दो प्रकारको वर्णित की है- १ गृहस्थकी श्रहिंसा, २ साधुकी हिंसा ।
(1) गृहस्थ चहिया गृहस्थ चार तरह की हिंसाथीआरम्भी, उद्योगी, विरोधी और संकल्पीमें केवल संकल्पी हिंसाका त्यागी होता है, बाफीकी तीन सरहकी तीन तरहको हिंसाका लागी वह नहीं होता । इसका मतलब यह नहीं है कि वह इन तीन तरहकी हिंसाओं में सावधान बन कर प्रवृत्त रहता है । नहीं, आत्मरक्षा, जीवननिर्वाह यादिके लिये जितनी अनिवार्य हिंसा होगी वह उसे करनी पड़ती है, फिर भी वह अपनी प्रवृत्ति हमेशा सावधानी से करेगा। उसका व्यवहार हमेशा नैतिक होगा। यही गृहस्थधर्म है, अन्य क्रियाएँ श्राचरण तो इसीके पालनके दृष्टिविन्दु हैं ।
२- साधु हिंसा—सब प्रकारकी हिंसाओंके स्यागमें से उदय होती है, उसकी श्रहिंसामें कोई विकल्प नहीं होता । वह अपने जीवनको सुवर्णके समान निर्मल बनानेके लिये उपद्रव, उपसर्गों को सहनशीलता के साथ महन करता है। निन्दा करने वालोंपर रूट नहीं होता और स्तुति करने बालोंपर प्रसन्न नहीं होता । वह सब पर साम्यवृत्ति रखता है। अपने को पूर्णसावधान रखता है। तामसी और राजसी वृत्तियोंसे अपने आपको बचाये रखता है। मार्ग चलेगा तो चार कदम ज़मीन देखकर चलेगा, जीव-जन्तुओं को बचाता
--
-
२ साम्यवाद -- यह अहिंसाका ही अवान्तर सिद्धान्त है, लेकिन इस सिद्धान्तकी हमारे जीवन में श्रहिंसाकी ही भाँति अपनाये जानेकी आवश्यकता होनेसे 'श्रहिंसावाद' के समकक्ष इसकी गणना करना उपयुक्त है; क्योंकि भगवान् वीरके शासनमें सबके साथ साम्य-भाव- सद्भावना के साथ व्यवहार करनेका उपदेश है, अनुचित राग और द्वेष का त्यागना, दूसरोके साथ अन्याय तथा अत्याचारका बर्ताव नहीं करना; न्यायपूर्वक ही अपनी जीविका सम्पादित करना, दूसरोंके अधिकारोंको रूप नहीं करना
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५ ]
दूसरोंकी आजीविका पर नुकसान नहीं पहुँचाना, उनको अपने जैसा स्वतन्त्र और सुखी रहनेका अधिकारी समझकर उनके साथ 'वसुधैव कुटुम्बकम्' यथायोग्य भाईचारे का व्यवहार करना, उनके उत्कर्षमें सहायक होना, उनका कभी अपकर्ष नही सोचना, जीवनोपयोगी सामग्रीको स्वयं उचित और श्रावश्यक रखना और दूसरोंको रखने देना संग्रहानेकी वृत्तिका परित्याग करना ही 'साम्यवाद' का लक्ष्य है— साम्यवादकी शिक्षाका मुख्य उद्देश्य है । यदि आज विश्वमे वीरप्रभुकी यह साम्यवाद की शिक्षा प्रसृत हो जाये तो सारा विश्व सुखी और शांतिपूर्ण होजाय ।
प्राप्त
1
३ स्याद्वाद अथवा श्रनेकान्तवाद - इसको जन्म देनेका महान् श्रेय वीरशासनको ही है । प्रत्येक वस्तुके खरे और खोटेकी अनेकान्त दृष्टि- स्याद्वाद की कसोटीपर ही की जाती है। चकि वस्तु स्वयं अनेकान्तात्मक है उसको वैसा माननेमें ही वस्तुतश्व की व्यवस्था होती है । स्याद्वाद के प्रभावसे वस्तुके स्वरूप निर्णय में पूरा २ प्रकाश होता है और सकल दुर्नयो एवं मिथ्या एकान्तोंका अंत हो जाता है तथा समन्ययका एक महानतम प्रशस्त मार्ग मिल जाता है। कुछ जैनेतर विचारकोंने स्याद्वादको ठीक तरह से नही समझा। इसीसे उन्होंने स्याद्वाद के खंडन के लिये कुछ दुषण दिये हैं। शंकराचार्य एकस्मिन्हारा एक जगह दो विरोधी धर्म नही बन सकते हैं। यह कहकर स्याद्वाद में विरोध दूषण दिया है। दिन्ही विद्वानोने इसे संशयवाद, छलवाद कह दिया है, किन्तु विचारनेपर उसमे इस प्रकारके कोई भी दूषण नही आते हैं । स्याद्वाद का प्रयोजन है यथावत वस्तुतत्वका ज्ञान कराना, उसकी ठीक तरहमे व्यवस्था करना, सब ओरसे देखना और स्याद्वादका अर्थ है क्यंचिनवाद रहियाद अपेक्षवाद, सर्वथा एकान्तका त्याग, भिन्न भिन्न पहलुओमे स्वरूप का निरूपण, मुख्य और मीराकी दृष्टिये पदार्थका विचार स्याद्वाद मे जो स्थान शब्द है उसका अर्थ ही यही है कि किसी एक अपेक्षा—सब प्रकार से नहीं - एक दृष्टिमे― है ।
+ देखा ग्राप्तभीमासा का० १०४ देखो नमीमासा का० १०३
वीरशासन और उसका महत्त्व
"
१६१
'स्यात्' शब्दका अर्थ 'शायद नही है जैसा कि 'भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास' के लेखक विद्वान् ने भी समझा है। वे अपनी इस पुस्तकमे लिखते हैं कि "स्याद्वादका वाध्यार्थ है 'शायदवाद' अंग्रेजीमें इसे 'प्रोबेबिल्ज़िम' कह सकते हैं। अपने अतिरंजित रूपसे स्वाहा संदेहवादका भाई है।" इसपर और चागे पीछे के जैनदर्शन सम्बन्धी उनके निबन्ध पर आलोचनात्मक स्वतंत्र लेख ही लिखा जाना योग्य है । यहां तो केवल स्वाद्वादको 'संवाद' का भाई समझने के विचारका चिंतन किया जायगा। उक्त लेखक यदि किसी जैन विद्वानसे 'स्याद्वाद' के 'स्यात' शब्द के अर्थको निबन्ध लिखने के पहिले अवगत कर लेते तो इतनी स्थूल गलती उन जैयभरतीयदर्शनशास्त्रका अपनेकी अधिकारी विज्ञान समझने वालोंसे न होती । जैनविचारकोंने स्थान' शब्दका अर्थ जो मैं ऊपर कर श्राया है, वह बताया है। देवराज व्यक्ति में अनेक सम्बन्ध विद्यमान है— किसीका मामा है तो किसी का भानजा, किसीका पिता है तो किसीका पुत्र, इस तरह उससे कई सम्बन्ध मौजूद हैं मामा अपने भानजेकी अपेक्षा पिता अपने पुत्रकी अपेक्षा भानजा अपने मामाकी अपेक्षा, पुत्र अपने पिताकी अपेक्षा है; इस प्रकार देवराजमें पितृत्व, पुत्रव, मातुलत्व स्वस्त्रीयत्व श्रादि धर्म निश्चित रूप ही है—संदिग्ध नहीं हैं और वे हर समय विद्यमान हैं । 'पिता' कहे जानेके समय पुत्रपना उनमेसे भाग नही जाता है-- सिर्फ गौण होकर रहता है । इसी तरह जब उन का भानजा उन्हें 'मामा-मामा' कहता है उस समय वे अपने मामाकी अपेक्षा भानजे नही मिट जाते' उस समय भानजा • पना उनमें गौणमात्र होकर रहता है । स्याद्वाद इस तरह से वस्तुधर्मोकी गुन्थियोंको सुलझाता है उनका यथावत निश्चय कराता है। -- स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल भावकी अपेक्षासे ही वस्तु 'मत' अस्तित्ववान है और परद्रव्य क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा ही वस्तु 'सत्' - नास्तित्ववान है श्रादि सात भट्ठों द्वारा ग्रहण करने योग्य और छोडने योग्य ( गौण कर देने योग्य) पदार्थोका स्याद्वाद हस्तामलकवत् निर्णय करा देता है। सदेह या भ्रमको वह पैदा नहीं
● देखा, भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास' पृ० १२५ देखो ग्राप्तमीमासा का० १५
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६२
श्रनेकान्त
करता है। बल्कि स्याद्वादका श्राश्रय लिये बिना वस्तुतश्व का यथातथ्य निर्णय हो ही नहीं सकता है । अतः स्याद्वाद को संदेहवाद समझना नितांत श्रसाधारण भूल है । भिन्न दो अपेक्षाश्रमे विरोधी सरीखे दीख रहे (विरोधी नहीं) दो धर्मो के एक जगह रहनेमें कुछ भी विरोध नहीं है । जहा पुस्तक अपनी अपेक्षा श्रस्तिस्वधर्म वाली है वहां अन्य पदार्थों की अपेक्षा नास्तित्व धर्मवाली भी है, पर
नहीं हो सकता
निषेधके बिना स्वस्वरूपास्तिय प्रति है । श्रुत: यह स्पष्ट है कि स्याद्वाद में न विरोध है और न अन्य कोई दूषण, वह तो वस्तुनिर्णयका - तत्वज्ञानका श्रद्वितीय श्रमोघ शस्त्र है, सबल साधन है । वस्तु चूंकि अनेक धर्मात्मक है और उसका व्यवस्थापक स्याद्वाद है इसलिये स्याद्वादको ही अनेकान्तवाद भी कहते हैं। किन्तु 'अनेकान्त' और 'स्याद्वाद में वाच्य-वाचकसंबंध है ।
[ वर्ष ५
।
कर्मबंध करता है इन सभी बातों का चिंतन किया गया है। कर्मवाद हमे शिक्षा मिलती है कि हम स्वयं जैसे उड सकते हैं और स्वयं ही नीचे गिर सकते हैं ।
1
४] कर्मवाद है है उसका जीवके साथ अनादिकासिक सम्बन्ध है की बह ही जीव पराधीन और सुखदुखका अनुभव कर्ता है। कर्मसे श्रनेक पर्यायोंको धारण करके चतुर्गति संसार में घूमता है । कभी ऊंचा बन जाता है तो कभी नीचा, दरिद्र होता है तो कभी श्रमीर, मूर्ख होता है तो कभी विद्वान् अंधा होता है तो कभी बहिरा, लंगड़ा होता है तो कभी बीना, इस तरह शुभाशुभ कर्मों की बदौलत दुनियाके रंगमंच पर नटकी तरह अनेक भेषीको धारण करता है— श्रनगिनत पर्यायों में उपजता और मरता है। यह सब कर्म की बिडम्बना कर्म की प्रपञ्चना है। वीरशासनमे कर्मके मूल और उत्तरभेद और उनके भी भेदका बहुत ही सुन्दर, सूक्ष्म, विशद विवेचन किया गया है। बंध, बंधक, बन्ध्य और बन्धनीय तत्वों पर "हरा विचार किया गया है। जीव कैसे और कब
शासन जीवादि सात तत्वों, सम्यकदर्शन, सम्यज्ञान सम्पातिरूप मोहमार्ग और प्रमाण, नय, निक्षेप श्रादि उपायतत्वों का भी बहुत ही सम्बद्ध एवं संगत, विशद व्याख्यान किया गया है। प्रमाणके दो भेद करके उन्हींमें अन्य सब प्रमाणों के अन्तर्भावकी विभावना कितने सुन्दर एवं युक्तिपूर्ण ढंग की गई है। वह एक निष्पक्ष विचारक को आकर्षित किये बिना नही रहती है । नयवाद तो जैनदर्शनकी श्रन्यतम महत्वपूर्ण दैन है । चस्तुके श्रशज्ञानको नव कहते हैं ये नए अनेक हैं, वस्तुके भिन्न भिन्न अंशोंको ग्रहण करने वाले नय ही हैं। ज्ञाताकी हमेशा प्रमाण- दृष्टि नहीं रहती है कभी उसका वस्तुके किसी ग्वाम धर्मको ही जाननेका अभिप्राय होता है उस समय उसकी नय-दृष्टि होती है और इसीलिये जाता मियां भी दर्शन
नय माना है। चूंकि वक्ताको वचन प्रवृत्ति भी क्रमशः होती है -- वचनाद्वारा वह एक एक अंशका ही प्रतिवचन कर सकता है इसलिये बक्ताके वचन व्यवहारको भी जैनदर्शन में 'नय' माना है । श्रतएव ज्ञानात्मक और वचनात्मकरूप से अथवा ज्ञाननय और शब्दनयके भेदसे नय वर्णित हैं । इस तरह वीरशासन अधिक वैज्ञानिक एवं तात्त्विक है । उसके अहिंसा, स्पाहार जैसे पश्यत्रिय सिद्धान्तों उसकी उपयोगिता एवं आवश्यकता भी अधिक बढ़ जाती है।
वीरशासन के अनुयायी हम जैनोंका परम कर्तव्य है कि भगवान् वीरके द्वारा उपदेशित उनके 'सर्वोदय तीर्थ' को विश्व में चमकृत करें और उनके पवित्र सिद्धान्तोका हम स्वयं ठीक तरह पालन करें तथा दूसरोंको पालन करावे, और उनके शासनका प्रसार करें।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमण-संस्कृति और भाषा
[ लग्बक-५० महेन्द्रकुमार जैन, न्यायाचार्य ]
श्रमण-संस्कृतिका आधार
भ० पार्श्वनाथके जमानेसे कहते हैं। और उनका यह स्पष्ट हम भारतीय संस्कृतियोंको मुख्यरूपसे तीन स्थूल मत है कि अहिसा, जो श्रमण संस्कृतिका मूल प्राधार है, भागों में बाँट सकते हैं । पहिला विभाग तो वह जिसमें वेद पार्श्वनाथके समयये प्राविभूत हुई है। जैनियोंकी अहिसा. को प्रमाण मानने वालों का वर्ग अाता है, जिसे हम 'चैदिक- जिसमे मनुष्योंके साथ ही साथ पशु-पक्षी, यहां तक कि संस्कृति' कहेंगे । यहाँ यह विचार प्रस्तुत नहीं है कि वेद वृक्ष श्रादि उद्विज जन्तुओंके संरक्षण पर पर्याप्त भार दिया ईश्वरने बनाया है अथवा यह स्वयं सिद्ध अपौरुषेय है; गया है, बहुत पुरानी है। इसका एक इतिहाम्प-पुराण-सिद्ध किन्तु धर्मके विषयमे वेदका निर्बाध अधिकार मानना ही उदाहरण यह है कि भ० नेमिनाथने, जो जैनियोंके २२वे इस संस्कृतिकी असाधारण विशेषता है। दूसरे विभागमे तीर्थकर थे तथा कर्मवीर कृष्णके चचेरे भाई थे, अपनी वेदकी प्रमाणताका खंडन करनेके माथ ही साथ परलोक बगनमें पाए हुए क्षत्रियकुमारोके भोजन के लिए होने वाले अामा श्रादि अतीन्द्रिय पदार्थोकी सत्ताका लोप करने वाले पशुवधकी श्राशकासे विवाह ही नहीं कराया था। और वे भौतिक जीवनवादी चार्वाक तथा तत्त्वोपप्लववादी पाते हैं। पशुओंको मुन कर योगसाधन करने गिरनार पर्वतपर चले ये लोग वैदिक-अग्निहोत्र श्रादि क्रियाकाण्डोको हिजोकी गये थे। अस्तु । श्राजीविकाके साधनसे अधिक कुछ नहीं मानते । इसे हम श्रमण-संस्कृति और वैदिकसंस्कृनिका महत्त्वका मतभेद पाणिनीयकी परिभाषाके अनुसार 'नास्तिकसस्कृनि'या भौतिक- यह था कि धर्म तथा धर्मके साधनोके विषयमे वेदको संस्कृति' कह सकते हैं। तीसरी संस्कृति वह है जो लोक आखिरी प्रमाण मानना या अपने साक्षात्कार-अनुभवको ? परलोक, भृतीसे भिन्न स्वतन्त्र जीवनतत्व, निर्वाग्ग श्रादि वैदिक संस्कृतिका स्पष्ट मत था कि धर्म और उसके नियमों अतीन्द्रिय पदार्थोको स्वीकार करके भी वेदकी प्रमाणताका तथा का साक्षाकार या अनुभव किसी भी प्राणीको नही हो वैदिक याज्ञिक क्रियाकाण्डोका तात्त्विक और व्यावहारिक सकता । धर्मके विषयमें तो जो वेदमे लिग्खा गया है वही विरोध करती है। यह तीसरी सस्कृति है 'श्रमण-सस्कृति'। अन्तिम सत्य है। और इसी श्राधारसे वैदिक यज्ञोका, इसमें जैन और बौद्ध, समानरूपसे सम्मिलित हैं। यद्यपि जिनम गोमेध, अश्वमेध और नरमेध जैसे अतिहिमक यज्ञ जैन-सस्कृति ऋषभदेवके समयसे या उससे भी पूर्वसे बरा- भी शामिल थे, वेदके वचनोंये प्रचार किया जाता था। बर चली आती है ऐसी जैन शास्त्रोकी मान्यता है और बौद्ध. इनके मतसे कोई भी मनुष्य पूर्णज्ञानी और वीतरागी नही ग्रन्थों में बौद्धसंस्कृतिको भी इसी तरह अनादि स्वीकार हो सकता, अतीन्द्रिय धर्म आदि पदार्थोंका माताकार किया गया है पर हम यहा पर जैनसंस्कृतिका भ० महावीर किसी भी महर्षिको नहीं हो सकता । अतः धर्म आदि के समयमे तथा बौद्धसंस्कृतिका भ०बुद्धके समयमे ही अतीन्द्रिय पदार्थोकी व्यवस्थाके लिए वेदकी आज्ञा अन्तिम विचार करेंगे। इन संस्कृतियोंका जो कुछ रूप श्राज जैन है। इसी प्राशयये वादरायण साबर श्रादि ऋषियोंने वाङ्मय या बौद्ध पिटकोंमें मिलता है उसका सीधा स्रोत लिखा है कि-"चोदनालक्षणोऽर्थः धर्मः" "धर्मे चोदनैव महावीर और कुद्धसे निकलता है। भ. महावीरके २५० प्रमाणम्" अर्थात् वेदप्रणीन ही धर्म है, तथा धर्ममें वेद वर्ष पहले जैनियोके २३वें तीथंकर भ. पार्श्वनाथ हुए थे। ही प्रमाण हैं। उसमें तर्ककी कोई श्रावश्यकता नहीं है। प्राचार्य धर्मानन्द कोसाम्बी श्रमण संस्कृतिका आदिस्रोत "तर्काप्रतिष्ठानान्" यह ब्रह्मसूत्र तर्ककी अप्रतिष्ठा स्पष्ट शब्दों
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६४
अनेकान
मेघोषित कर रहा है। वेदको भी भी इन्हें इसीलिये मानना पड़ा कि ये पुरुषके अन्तिम ज्ञानविकास और बीत रागताको असम्भव ही मानते हैं।
परन्तु श्रमण-संस्कृति इस वेदकी दुहाई देकर धर्म के नाम पर होने वाले हिंसाकाण्ड तथा अन्य ऐसे ही क्रियाकाडोंसे ऊब रही थी। इसे मनुष्यकी बुद्धि पर वेदका ताला लगाना श्रसह्य हो उठा । वह इस वैदिक याज्ञिक हिंसाका न केवल व्यावहारिक ही विरोध करना चाहती थी किन्तु उसे इसका तात्त्विक विरोध करना भी इष्ट था । इसीलिए श्रमणसंस्कृतिके सन्देशवाहक महावीर और बुद्ध ने धर्मके विषय में वेदाशाका विरोध किया और बताया कि मनुष्य अपनी साधनाके द्वारा धर्मका और धर्मके नियमों का साक्षात्कार कर सकता है। देशकाल श्रादिकी परिस्थिति के अनुसार अपने अनुभवके श्राधार पर उनमें हेर-फेर कर सकता है। अमुक वेदमे ऐसा लिखा है इसीलिये अपने अनुभवकी हत्या नही की जा सकती। मनुष्य अपनी साधनासे अपने ज्ञानका चरम विकास कर सकता है और उससे धर्म जैसे श्रतीन्द्रिय पदार्थोका साक्षात्कार कर सकता है । वह पूर्ण वीतरागी भी हो सकता है। इसीलिए महावीर और बुद्धने प्रथम ही अपनी तपःसाधना से कैवल्य या बोधिको प्राप्त किया। पीछे अपने द्वारा अनुभूत धर्ममार्गको जनता हिसके लिए प्रकाशित किया। उन्होंने स्पष्ट शब्दों मे कहा कि
"परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्यं मद्वचो नत्वादरात्" अर्थात्-मि हमारे प्रति आदर और अदाका भाव होनेके कारण ही हमारे वचनोंको श्रख मूंदकर नहीं मानना, किन्तु उनकी बन्दी तरह परीक्षा करके ही उन्हें ग्रहण करना। इस तरह जहां वैदिक संस्कृतिवेदा प्राधान्य था वहां श्रमण-संस्कृतिने धर्म और उसके नियमों के विषयमे मनुष्यके अनुभवको प्रधान माना । इस संस्कृति मे 'बाबाचा प्रमाणाम्' जैसे अन्धश्रद्धाको बढ़ाने वाले नियमों का सख्त विरोध किया गया और बताया गया कि प्रत्येक मनुष्य अपनी साधनासे अपना इतना विकास कर सकता है कि उसे धर्मका साक्षात्कार भी हो सकता है । इन संस्कृतियो मौलिक मतभेद ईसाकी सातवी शताब्दीके वि भट्टकुमारिल और धर्मकीर्तिके वाक्यों में
[ वर्ष ५
अत्यन्त स्पष्टतासे उत्तर आया हैवैदिक विद्वान् कुमारिल कहते हैं किम जो सर्वशता का निषेध कर रहे हैं उसका तात्पर्य यह है कि कोई भी मनुष्य धर्मज्ञ नही हो सकता । धर्ममें तो वेद ही अन्तिम प्रमाण है । धर्मके अतिरिक्त यदि वह संसारके अन्य समस्त कीड़े मकौडे श्रादि पदार्थोंको जानना चाहता है तो खुशीसे जाने, पर धर्ममें तो वेदको ही प्रमाण मानना होगा, वह धर्मका मात्रात् अनुभव नही कर सकता ।
श्रमण विद्वान् धर्मकीति ठीक इससे विपरीत कहते हैं कि मनुष्य संसार के समस्त पदार्थो को जानता है या नही यह कोई महत्त्वकी बात नहीं है। हमे तो यह सिद्ध करना है कि वह अपने इष्ट तत्व-धर्म का साक्षात्कार कर सकता है या नहीं ? दुनियाभर के कीड़े-मकौड़े श्रादिको संख्याके ज्ञानका भला जीवनमें क्या उपयोग हो सकता है ? हमे तो यह देखना है कि वह अपने अनुष्य धर्मका साक्षात अनुभव कर रहा है या नही ? उसका धर्म अनुभव के आधार ही निकलना चाहिए। वह द्रव्य-क्षेत्र काल-भाव की परिस्थिति के अनुसार श्रात्मसंशोधनके नियमोको स्वयं साक्षात्कार कर सकता है । अतः हम तो मनुष्यको धर्मज्ञ बनाना चाहते हैं । धर्म जैसी जीवनकी महत्त्वपूर्ण वस्तुको वेदके सुपुर्द नही किया जा सकता । श्रादि । यही कारण है कि भ्रमणसंस्कृतिके अने अपने जीवन उत्तरे हुए अपने द्वारा अनुभूत श्रात्मशोधन के नियमोंका जनताको उपदेश दिया है। उन्होने हिंसा श्रादि तत्वोंको किसी पुस्तकमे नही पढ़ा किन्तु अपने जीवनमे पढ़ा। इनका जीवन अहिसा इतना तादात्म्य हो गया था कि इन्हें चिरकालीन वैदिक परम्पराका स्पष्ट विरोध करना पड़ा। उस समय इन्हे नास्तिक कहा गया और न जाने क्या २ इनके साथ व्यवहार हुआ । श्रस्तु । अब मैं इस संक्षिप्त भूमिका के बाद भाषाके प्रश्न पर श्रमण संस्कृतिका दृष्टिकोण उपस्थित करता है।
१ "धर्मजत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते ।
समानस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥” (तसंग्रह में उन २ "सर्व पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्ट ं तु पश्यतु । कीट संख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ तस्मादनुष्ठयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् ॥” (प्रमाणवार्तिक)
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५ ]
श्रमण-संस्कृति और भाषा
भापाष्टि
"तस्मादेषा संस्कृता वागुद्यत" इसलिये संस्कृत वाणी श्रमणसंस्कृतिके अग्रदूत महावीर और बुद्धने जिम बोलनी चाहिये, यह लिखकर संस्कृत भाषाको ही साधु. समय मगधभूमिको अपने पुण्यजन्मसे पूत किया था उस शब्दवाली कहा है । पात जल महाभाष्य " शाबरभाष्य" समय न केवल वहां यज्ञहिंसामूलक क्रियाकाण्डोंका ही वाक्यपदीय श्रादिमे स्पष्ट लिखा है कि-गी आदि संस्कृत प्रचार था, किन्तु भाषाके विषयमें भी विचित्र रूढि प्रचलित शब्द ही साधु हैं नथा गौशब्दके गावी गौणी गोता गोपोथी। याज्ञिक द्विज वैदिक मंत्रोंके स्वरसाधनपूर्वक पाठ कर तलिका आदि प्राकृतरूप अपभ्रंश हैं, असाधु हैं, न्याकरण लेने मानसे धर्म मानते थे, क्योंकि उस समय वैदिक मंत्रों से सिद्ध न होने के कारण दुष्टशब्द हैं । इनका उच्चारण की अर्थपरम्परा लुप्तप्राय हो गई थी। यास्काचार्य अपने बज्र बनकर बोलने वालेका नाश कर देता है. श्रादि । निरुक्त मे वैदिक मन्त्रोका स्पष्ट अर्थ नही करके मान शब्दोंके साधुत्व असाधुत्वके इस दुविचारने उस समय तद्विषयक विविध मत-मतान्तरोका उल्लेख करके ही चुप धर्मको मात्रशब्दोके अन्दर ही कैद कर रखा था। संस्कृत हो जाते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि उस समय वैदिक भाषामे कुछ भी कह दीजिये वह धर्मवाक्य हो जाता था। मन्त्रीकी अर्थ परम्परा प्रायः टूट चुकी थी और इसका यह उत्तरकालीन ब्राह्मण थाचार्योंने तो यहां तक लिख दिया स्वाभाविक परिणाम था क मात्रअमुक प्रकारसे स्वर- है कि जो ब्राह्मण अपभ्रंश शब्दोंका उच्चारण करता है साधनापूर्वक वैदिक मन्त्रोके उच्चारण मात्रसे धर्म माना उसे प्रायश्चित करके शुद्ध होना चाहिये। शब्द शास्त्रियोंने जाय।
इसीलिये संस्कृतशब्दों में ही वाक्यशक्ति मानी है, प्राकृत वैदिकमन्त्र वैदिक्मंस्कृतमे रचे गये हैं । उसी वैदिक- और अपभ्रश शब्दों में नही। जहां व्यवहारमै प्राकृत शब्दों संस्कृतका ही विकसितरूप लौकिक संस्कृत है। भारतवर्षके से अर्थबोध होता है वही यह अम्मङ्गत कल्पना की गई कि धर्मोंका पुश्तैनी ठेका प्राचीन कालसे ही धर्मजीवी ब्राह्मण “प्राकृत शब्दोंको सुनकर प्रथम ही संस्कृत शब्दोंका स्मरण वर्गने ले रक्खा था। यही कारण है कि धर्मजीवी बाहाण प्राता है फिर उनसे अर्थबोध होता है।" वर्गने धार्मिक कार्यों के सिवाय लौकिक व्यवहारमे भी संस्कृत इस तरह जब सस्कृत बोलीका यह दुरभिमान अपनी भाषाके प्रयोगको ही साधु और पुण्य साधक होनेका फ़तवा पराकाष्ठाको प्राप्त हो रहा था और प्राकत या मागधी भाषा दे दिया। उस समय मगध देशकी श्रामफहम जनभाषा को स्त्री, शूद्र तथा जनसाधारणकी बोली कहकर तिरस्कार मागधी थी । मागधी प्राकृत भाषाका ही एक प्रकार है। की दृष्टि से देखा जाता था उस समय भगवान् महावीरने प्राकृत भाषाको, जो उस समयकी जनसाधारणकी बोली थी, अपनी तप-साधना करके कैवल्य प्राप्त किया। इस अहिंसा धर्मजीवी ब्राह्मणवर्गने मात्र अनादर और सिरस्कारकी दृष्टि की तेजोमूर्तिने अपना उपदेश कर्मकाण्डजीवी ब्राह्मणवर्ग से ही नहीं देखा बल्कि उसका उरचारण करना तक पाप- की तरह सस्कृतभाषामें न देकर सर्वजनहिताय सर्वान्त:रूप घोषित किया । इसी पुराने प्राकृत भाषाद्वेषके उद्गार सुखाय अर्धमागधी भाषामे दिया । उन्हें कुछ इने-गिने पातञ्जल-महाभाष्य आदिमे पाये जाते हैं। भाष्यकार' संस्कृतभाषियोके साथ भाषाविनोद नहीं करना था, उस लिखते हैं कि "तस्माद् ब्राह्मणेन म्लेच्छित वै नाप- दिव्य अहिंसकका तो लक्ष्य था संसारकी समस्त कषायभापित वै म्लेच्छो हवा एप यदपशब्दः । ब्राह्मणको ज्वालासे सन्तप्त प्राणियोंको शान्ति और अहिंसाके अपशब्द या म्लेच्छ शब्दोंका उच्चारण नहीं करना चाहिये। उपदेश देनेका। जितने अपभ्रंश हैं वे सब म्लेच्छ शब्द हैं। वाक्यपदीय हरिभद्र सूरिने दशवकालिक टीकामें एक प्राचीन श्लोक में एक पुराना ऋषिवाक्य पाया जाता है कि “साधूनां उद्धत कर स्पष्ट लिखा है किसाधुभिस्तस्माद् वाच्यमभ्युदयार्थिभिः"--धर्मार्थी साधु- "बालस्त्रीमन्दमूम्बाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । पुरुषोंको साधुशब्द बोलना चाहिये। तैत्तिरीय संहिता में अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः उपदेश: प्राकृतः कृतः ॥" १. पस्पशा श्राहिक । २. वाक्यपदीय १११४१। ३.६।४।७। ४. पस्पश्राह्निक। ५. शश२८। ६. १।१४६ ।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वप ५
अर्थात् अपने चारित्रकी उन्नते चाहने वाले बालक, लिये, उन्हें शब्दजालसे हटाकर धर्मके प्राण की सीधी स्त्री तथा मूर्खसे मूर्ख लोगोंके उपकार के लिये भगवानका अनुभूति करानेके लिये सबकी बोली अर्धमागधीमे उपदेश उपदेश सबकी बोली प्राकृत भाषामे होता था। प्राचार दिया। दिनकर में भी-थीबालवायणथं पाइयमुइयं जिणवरेहि" प्राचार्य प्रभाचन्द्र क्रियाकलापकी टीकामे तथा श्रुतसागर. स्त्री और बालक जैसे अल्पज्ञानयोंके समझनेके लिये जिन- सूरि दशनमाभृत (गा० ३५) की टीकामे 'अर्धमागधी'का अर्थ वरने प्राकृत भाषामें उपदेश दिया" इस आशय की प्राचीन लिखते हैं कि "धं भगवद्भापायां मगधदेशभाषामकम्, गाथा उद्धृत है।
अर्धच सर्वभाषामकम्" अर्थात भगवानकी भाषामे श्राधे अर्धमागधी भाषा उस समय प्राधे मगध देशकी जन
शब्द तो मगधदेशकी भाषाके हैं तथा प्राधे सभी भाषाओं साधारण की बोली थी। भगवान् महावीरका विहारक्षेत्र
के। यह युक्तिसंगत भी है क्यों कि मगधदेशमें उत्पन्न भी मगधदेश, सूरपेन तथा विहारके पास-पासका भाग रहा
न होने के कारण भगवानकी मातृभाषा मागधी तो थी ही, है, इसलिये यह समुचित ही था कि वहांकी जनताकी इसके साथ ही साथ अपनी आवाज सभी भार बोलीमें ही भगवानका उपदेश हो। महावीरकी तरह बद्धने तक पहुचानी थी। श्रन' उसमें उस समयकी अन्य सभी भी अपने उपदेश मागधी भाषामे ही दिये हैं। इसी
भापायीके शब्दोका थाना भी लाजिमी था। इसी लिए तो
श्राज महामा गान्धीकी हिन्दी अर्धगुजगती होकर भी मागधी भापाको पाली भाषा कहते हैं । विपिटिकोंकी भाषा तो मागधी ही है। पाली संज्ञ। तो मागधी भाषाके
हिन्दुस्तानीके रूपमे विकसित हो रही है। त्रिपिटिक वाक्योकी है।
युगप्रधान श्राचार्य समन्तभद्र श्रादिने भगवानकी
चाणीको मर्वभाषास्वभाव' कहा है। यतिवृषभ आचार्य बुद्धने स्पष्ट कहा है कि “अनुजानामि भिक्खवे बिलोकप्रज्ञप्तिमें लिखते हैं२ कि भगवानकी दिव्यवाणी सकाय-निरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितु"-भिक्षश्रो ! १८ महाभाषा और ७०० लघुभापायोंये समृद्ध थी। अनुमति देता है अपनी भाषामें बुद्धवचन सीखनेकी" भाषाके इन विशेषणांमे उसका रवरूप साफ साफ ज्ञात (चुल्लवम्ग)। महावीर और बुद्धकी इस भाषा क्रातिको हो जाता है कि वह भाषामे किमी खास भाषाके शब्दोंमे रूढिवादी विप्रवर्गने अपने लिये चुनौती समझा। इसीका कैद नहीं थी उसमे तो संसारकी सभी महाभापानी और यह अवश्यम्भावी परिणाम हुआ कि प्राकृत भाषाको नीची लघभाषाओंके प्रचलित शब्द विद्यमान थे तभी तो उनका की भाषा कहा गया, नास्तिकों की बोलीके नामसे पुकारा उपदेश सब तक पहुंचता था। श्रा० हेमचन्द तो स्पष्ट ही गया। उत्तरकालमें कालिदास याटिके नाटकोमे स्त्री और उसे सर्वभाषापरिणत' कहते हैं। मेरे विचारमे भगवान्की शूद्वपात्रों द्वारा प्राकृत भाषाका ही प्रयोग कराया गया है। वाणीका 'निरक्षरी' विशेषण भी 'सर्वभापात्मक' अर्थम
भ. महावीर विश्वकी विभूति थे। वे अपने और लगाया जा सकता है। 'निशेषारिस अक्षगणि यस्यां या' भव्य श्रोताओं के बीच भाषाकी कल्पित दीवालको कैसे रख - सकते थे। उनकी दयामय श्रामा तो प्राणिमात्रके दुःख
१"तव वागभृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम् ।”-बृहत्स्वयम्भूम्तोत्र
श्लो०६६ । न्यायकुमुदचन्द्र पृ०२ टि०३। दूर करने के लिये उनसे तादात्म्य करना चाहती थी, वह .
२'अटरममहाभामा खुल्ल यभासा य सत्तमयसंग्वा । भाषाके इस कल्पित, अहङ्कारपोषक बन्धनको कैसे बरदास्त
अकबरअणखरप्पयमण्णी जीवाग मयलभाषायो । कर सकती थी। यही कारण है कि इस अहिंसक विभूतिने लोकापवादकी जरा भी परवाह नहीं करके प्राणिमात्रके
एदासि भामागं तालुवदंतोटकण्ठवावार ।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजग्गाणंदकरभासी ॥" हितके लिए, उन तक अपना पवित्र सन्देश पहुंचाने के
त्रिलोकप्रशनि गा०६१-६२ *देखो भिक्षु जगदीश काश्या एम० ए० लिखित "पालि- ३"सर्वभाषापरिणता जैनी वाचमुपास्महे ।" महाव्याकरण" की प्रस्तावना ।
-काव्यानुशासन श्लोक १ ।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५ ]
श्रमण-संस्कृति और भाषा
ऐमी व्युत्पत्तिमे निशेष अर्थात् सभी हैं अक्षर जिसमें एमा इस तरह युगप्रवर्तक भगवान् महावीरने लोकापवाद अर्थ ध्वनित होता है जो संभवत: उसकी सर्वभाषामकता की उपेक्षा करके अपने दिव्य सन्देशोको सबकी बोली का सूचन करता है। श्रस्तु।।
अर्धमागधीमें ही कहा । भाषा तो भावोंकी न्यञ्जनाका __ धन्य अनेक श्राचार्योंने भगवानकी वाणीके विषयमे साधन है। उनकी इस भाषाक्रान्तिने जगत्के प्राणियोंको बडी श्रद्धासे अनेक प्रकारका विवेचन किया है। इस समय अपनी ही बोलीमे धर्म समझकर उन्हें अपूर्व शान्ति दी, छोटे लेखमे उनके विवंचनका अवसर नहीं है। यहाँ तो इससे भाषाके नाम पर होने वाली धर्मकी दुकानदारी बन्द वह परिस्थति तथा उस प्रेरणाके बीजका दिग्दर्शन कराना हुई । यद्यपि हमारा दुर्भाग्य है कि भगवानकी उस अर्धही इष्ट है जिस प्रेरणाने उस समयकी लब्धप्रतिष्ट भाषाके मागधी भापाके पुनीत उपदेश अाज ठीक उम रूपमें उपखिलाफ जबर्दस्त बगावत कराई और भगवानका उपदेश लब्ध नहीं हैं । पर यह भी कम सौभाग्यकी बात नही है सर्वजनमुखाय स की बोली में दिलाया।
कि उन उपदेशे। मूलधारा उत्तरकालीन प्राचार्यों के इस तरह जब महावार और वुद्ध जैसे युगान्तरकारी
असीम पुरुषार्थ से हम उपलब्ध है और वह भगवान्के महापु पो द्वारा अर्धमागधी भापाको तत्त्वज्ञोंकी भाषा होने
उपदेशोक मूलतत्वकी यथार्थ झलक हमें करा ही देती है। का सम्मान मिला और विश्वर्गक द्वारा प्राकृत भाषाका
यह भाषाक्रान्ति हम प्रेरणा देती है कि हम अाजकल की तिरस्कार भी धीरे-धीरे कम हुआ तव प्राकृतभाषाकी
लोभापामे भगवान्के अहिंसामय उपदेशोंको सर्वजनउत्पत्ति के विषयमे कहा जाने लगा कि प्राकृत भाषा तो
हिनार्थ जनसाधारण तक पहुंचाव।। संस्कृतसे ही उत्पन्न हुई है।
यही कारण है कि मध्यकालीन श्राचार्याने उस समय
की लोकभापाम ग्रन्थ बनानेकी पद्धति चालू रखी। अप. नाट्यशास्त्र, प्राकृतसम्ब, प्राकृतचन्द्रिका, षड़भाषा
भ्रंश भाषा जो निर्विादरूपमे अाजकी हिन्दीकी जननी चन्द्रिका, प्राकृतसग्रह, त्रिविक्रमकृत प्राकृत व्याकरण श्रादि
है, जनाचार्योंके साहित्यभंडारसे गौरवान्वित हुई है। अपसभी प्राकृत व्याकरणाम "प्रकृतिः संस्कृतं तत श्रागत
भ्रंश कालके बाद जब गुजराती, मराठी, कनदी, तामिन प्राकृतम् प्रकृति अर्थात संस्कृतसे उत्पन्न हुई भाषा प्राकृत"
आदि प्रान्तीय भाषाएँ अपने-अपने रूपमे विकसित हुई। यही न्युत्पत्ति की गई है । हमचन्द्राचार्य भी इसी प्रवाहमे
तब तत्तत्प्रान्तवामी श्राचार्योने गुजराती, कनही श्रादि बहे हैं। पर इसका स्पष्ट विरोध प्रभाचन्द्राचार्यने न्याय
प्रान्तीय भाषाओं में भी अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचनाएँ कुमुदचन्द्र में दिया है। । व लिखते हैं कि प्रकृतिरेव
की हैं । कनड़ी और तामिलका उच्चकोटिके साहित्यकोष प्राकृतम्' अर्थात् जनसाधारण की बोलचालकी स्वाभाविक
जैनाचार्योकी पर्याप्त पूजी है। बनारसीदाम, भगवतीदास, भाषा ही प्राकृतभाषा है। यही जब व्याकरण के नियमों
भूधरदास आदि कवियोंने अपनी रचनाश्रीसे हिन्दीभाषा द्वारा संस्कारको प्राप्त होती है तब मस्कन कहलाती है।
को समृद्ध करने में पूरा पूरा भाग लिया है। अस्तु । प्राक्त और संस्कृत शब्द ही प्राकतकी स्वाभाविकता
श्रमण-संस्कृतिकी बुनियाद अहिंसाके ऊपर होनेके अनादिता तथा संस्कृतकी श्रादिमत्ताको द्योतन करते हैं।
कारण उमकी उदार तथा संग्राहकदृष्टिमे भाषाकी सङ्कीर्णता मेघसे बरसे हुए जलकी तरह प्राकृत भाषा स्वाभाविक
कैसे टिक सकती थी। बह भाषाको भाव व्यक्त करनेका तथा एकरूप होती है । वह सभी बाल-बच्चों नियों
माधन मानती है साध्य नही। माधन तो सुविधानुसार मादिकी अपनी बोली है। रुद्रटकृत काव्याल कारके टीका
द्रव्यक्षेत्रकाल आदि की परिस्थितिके अनुसार अनुभवसे कार श्री नमिसाधुने भी "प्राक्कृतं प्राकृतम्' अर्थात सबसे
बदले जाते हैं तथा कालकी अव्याहन गतिमे जमाने के पहिले प्रमुक होने वाली भाषा श्रादि लिखकर प्राकृतको
अनुसार स्वयं बदलते रहते हैं। बिना इनके बदले लक्ष्य अनादि तथा स्वाभाविक सिद्ध किया है।
की सिद्धि होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य ही है। * न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भा० पृ० ७५६ से।
यदि हम इसी अहिंसक तथा सर्वसंग्राहक उदारदृष्टिसे
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६८
अनेकान्त
विचार करें तो महात्मा गांधी तथा कांग्रेसका 'हिन्दुस्थानी' भाषाका सिद्धान्त उपयोगी उचित और श्रावश्यक प्रतीत हुए बिना न रहेगा। उनकी राष्ट्रीय श्रहिंसक भावनाका यह सहज फल है । जब जान या श्रनजानमें हमारे खाने-पीने पहिनने, चलने श्रादिके साधनोंमे लहरोंकी तरह अनेकों परिवर्तन हो रहे हैं और हमारी बोलचाल में स्टेशन, रेल, पोस्टग्राफिस आदि विदेशी शब्द भी पूरी तरह घुलमिल गए हैं तथा हमारी हिन्दीभाषा भी जब अनेक प्रान्तीय भाषाओं तथा उर्दू अरबीके शब्दोंको हमेशा से पचाती आई है तब 'हिन्दुस्थानी' के नामपर ही न जाने क्यो इस प्रकारका हायतोबा किया जाता है ।
[ वर्ष ५
कोई भी संस्था जिसका श्राधार और विकास श्रहिंसा सिद्धारसे होगा उसे सबकी बोली बोलना होगा सबक उद्वारकी चेष्टा करनी ही होगी । यही कारण है कि श्रमण-संस्कृति सदासे लोकभाषा के द्वारा ही सर्वजन - हिताय सर्वजन सुखाय जनताजनार्दनको अहिसक मार्ग दिखाती श्राई है और उसकी इस सार्वजनीन भावनामे ही उसकी प्राण प्रतिष्ठा है । यह संस्कृति साधनों के विषय में श्रहङ्कारको बढ़ाने वाले ऐकान्तिक आग्रहको स्वीकार ही नही कर सकती। इसका तो मुख्य लक्ष्य है सबकी बोली में सबके हिनके लिए सब तक श्रहिसाकी पुण्य विचारधारा पहुंचाना ।
जैनशास्त्र - भण्डार सोनीपत में मेरे पाँच दिन
[ ले ०. १० - बा० माईदयाल जैन, बी० ए० ( श्रानर्स) बी० टी० ]
---
सोनीपत मेरा दूसरा निवास-स्थान है । यह देहली
२८ मील उत्तरकी तरफ देहली- अम्बाला-कालकारेलवे पर स्थित पुराना प्रसिद्ध नगर है। यहाँ चार जैनमन्दिर और दो चैत्यालय हैं। पंचायती मन्दिर विशाल है, इतना बड़ा मन्दिर दूर-दूर तक देखने मे नही आया । जैनियो की बस्ती होने के साथ-साथ यह नगर जैनपंडितोक लिये भी प्रसिद्ध है । स्वर्गीय पं० मथुरादास, पं० मेहरचन्द, पं० मुसद्दीलाल, पं० उमरावसह और मुन्शी श्रमनसिंह जैसे विद्वान यहीं पर हुए है, जिन्होंने अपने-अपने समय में जनसमाजकी खूब सेवा की है और धर्मके मार्गको कायम रक्खा है । आज भी पं० निरंजनदासजी हर प्रकार से अपना समय देकर हर रोज शास्त्र पढ़ते और समाजकी निःस्वार्थ भाव से धार्मिक सेवा करते हैं । परन्तु वेद है कि यहां के समग्र समाजमें अब आगेको कोई ऐसा व्यक्ति नजर नही आता जो इस काममे पंडितजीको सहयोग दे सके अथवा उनके बाद इस धर्म -कार्य को बालू रख सके ।
मुझे इन गर्मियो की छुट्टियो मे निजी कार्य से सोनीपत जाना पड़ा कुछ अवकाश होनेके कारण यह इरादा किया कि यदि सुयोग लग गया तो जैनशात्रभण्डार सोनीपत के हस्तलिखित ग्रन्थोकी सूची बना कर श्रद्धेय पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार, अधिष्ठाता वीरसेवा मन्दिर सरसावाको भेजूंगा, जिसे वे उपयोग में ला सके और जिसमे से कुछ आवश्यक ग्रन्थो को उस बृहत दिगम्बर जैन ग्रंथ-सूची मे भी शामिल कर सके जो गतवर्ष से वहां तैयार हो रही है । मुझे तथा सोनीपत जैनसमाजको अत्यन्त हर्प होगा, यदि इस परिश्रम के फलस्वरूप एक भी उपयोगी ग्रन्थ प्रकाशम आगया । मेरा विश्वास है कि ४०-५० ग्रंथ इस सूची में ऐसे है जो अभी तक प्रकाशमे नही आए है ।
इस शास्त्र भण्डारमे ४०० हस्तलिखित ओर ६०० मुद्रित ग्रन्थ है और उनमें कुछ वृद्धि होती ही रहती है ।
यद्यपि मै अपने ही घर गया था, तथापि मै इसे अपनी एक साहित्यिक यात्रा ही समझता हूँ । इसलिए
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
जैन-शास्त्र भण्डार सोनीपतमें मेरे पांच दिन
यह स्वाभाविक था कि मेरे हृदयमे प्रारम्भसे लेकर उनके आदेशोका सर्वत्र प्रचार किया जाय । परन्तु कार्य-समाप्ति पर्यन्त जैन साहित्य सम्बन्धी विचार आज कौन नहीं जानता कि जैनियोने अपने प्राचार्यो उठते रहे।
की इस आज्ञाकी बहुत कुछ उपेक्षा की है और उनकी जनसमाजकी सबसे बड़ी निधि, कोप अथवा इस लापरवाहीके कारण अधिकांश जैनग्रन्थ तंगसम्पत्ति जैनशास्त्र है। इनसे जैनसमाजको जीवन तारीक गीली कोठड़ियोमे पड़े दीमकों तथा चूहो के मिला है, संसारके मनुष्योंको सुख-शान्ति तथा भोजन बने रहे । वर्षों तक वे बिना धूप देखे सड़ते
आध्यात्मिकताका उपदेश मिला है और गिरते हुए रहे, जीर्ण-शीर्ण होते रहे और आखिरको रदीमे प्राणियोको उटने में सहारा मिला है। जनसमाजका बेचे गये या फेक दिए गये। न वे हमारे काम प्रा ममस्त वैभव, समस्त धन-सम्पत्ति भी इसपर न्योछा- सके और न दृसरोके । लक्ष्मीक लोलुप भार झूठी वर कर दी जाय, तो भी कुछ नहीं। हमारे ऋपियो, प्रभावनाक इच्छुक जनसमाजने हाथी, घोड़ों, रथों, मुनियों और प्राचार्योको हमको तथा संसारको यह धर्मशालाओं तथा बिम्बप्रतिष्ठानों पर तो अपना सबसे बड़ी देन है। इन शास्त्रोंम उनकी वपकी गहन नामवरीके वास्ते रुपया पानीकी तरह बहाया, किन्तु तपस्या महान साधना और गहरे चिन्तनका फल अपने शास्त्रोकी रक्षा तथा प्रचार के लिए कुछ भी न संनिहित है। कौनसा विपय है, जिसपर उन्होंने फिया । पचासो वर्षकी जागृति के इस दौर भी, क्या अपने अमूल्य विचार प्रकट नहीं किए ? साहित्यका कोई कह सकता है कि जनसमाजने अपन शास्त्रोकी कौनमा अङ्ग है जिसकी पूर्तिक लिए उन्होंने जीवन रक्षा तथा प्रचार के लिए उस धनका सावाँ भाग भी नही लगाया ? भारतवपकी प्राकृत, संस्कृत, अध- खर्च किया जो उसने मन्दिर-मतियो, धर्मशालाओ, मागधी, गुजराती, अपभ्रंग, मराठी, तामिल, कनडी, प्रतिष्ठाओं, अंपवालया और धर्म के नाम पर की हिंदी आदि कोनमी भाषा है जिसमें उन्होंने ग्रंथ-रचना जाने वाला मुकदमबाजी पर खर्च किया है ? किया नहीं की ? ग्रन्थोके लेखन-कार्यम लेखफोकी पीठ भुक भी कैम जाता ? जबकि जैनममाजको ज्ञान-विज्ञान के गई, गरदन मुड़ गई, दृष्टि स्थिर होगई, मुग्व नीचा साथ सच्चा प्रेम न हो और उसके सिर पर झूठी पड़ गया और उन्होंने ये ग्रन्थ सैकड़ों वर सहकर भी नामवरीका भूत मवार हो ! विनयक नामपर इन लिखे । उनका आदश था कि इनका पुत्रांक समान
शाम्रोंकी कितनी अविनय हुई है, इमे आज कौन नही पालन किया जाय।'
जानता ' हमने जैनधर्मके जीवन प्रांतोंको सूबने किन्तु हमने उनके महान ऋणका बदला जिस और सड़ने दिया । इमका जो फल होना चाहिये था, कृतघ्नतास चुकाया उसको लिग्यते कलम कांपती है, वही हा जैनधर्म. उसके उन सिद्धान्तों पर जैन बदनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं और ऑखोम ऑसू संस्कतिको न हम समझ पाए और न दसरे । जैनधर्म आ जाते हैं । उनको कभी स्वप्न में भी यह विचार और उसके इतिहासके बारमें हम ही नही किन्तु न आया होगा कि जिन ग्रन्थोको वर्षोक अध्ययन, अन्य विद्वान भी अपरिचित रह गए और खूब भ्रम साधन, अनुभव तथा चितनके बाद वे लिख रहे है, फैले। सच पूछिये तो इसकी तमाम जिम्मेवारी वे ऐसे आदमियोके हाथो में पहुँच जायगे जो उनकी हमारे ऊपर ही है। क्या हम आज भी अपनी भूल रक्षा करने, उनको समझने तथा उनके द्वारा दूसराको सुधार सकते हैं क्या जैन समाज जैन साहित्यक मक्तिका मार्ग दिखाने में असमर्थ होगे । उनकी आज्ञा उद्धार तथा प्रचारके लिए दस-बीस ट्रस्ट बना सकता तो यह थी कि जैन ग्रन्थोकी पूर्णतया रक्षा करते हुए है ? आजमे बीस वर्ष पहले मैने हिन्दी जैनगजटमें १ भग्नपृष्ठि-कटि-ग्रीवा स्तब्धदृष्टिरधोमुखम्
एक लेख द्वारा जैनसमाजका ध्यान इस ओर आककष्टेन लिखितं शास्त्रं पुढेन प्रतिपालयेत् ।
र्षित किया था। आज मै फिर ये शब्द लिख रहा हूँ।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
२००
अनेकान्त
[ वर्ष ५
मेरी तजबीजें निम्नलिखित हैं:
बच्चोंको विद्यालयों में पढ़ने के लिए न भेजेगा। इस (१) जैन साहित्यके तमाम ग्रंथोंको शीघ्रसे शीघ्र मामलेमे समाजको वणिक-बुद्धिको छोड़कर क्षत्रियमागि कचन्द्र ग्रन्थमालाकी तरह मूलरूपमें प्रकाशित उदारतामे काम लेना चाहिए। किा जाय।
उपरोक्त उद्गारोंको लिखने के बाद अब मै जैन (२) उच्चकोटि के जैनग्रन्छोंका मातृभाषा हिन्दीमें शास्त्रभण्डार सोनीपतके अपने कुछ अनुभव लिखता अनुवाद किया जाय । र उसके प्रकाशनार्थ सस्ता है, ताकि उनसे और भी परिचित हो जाएँ। साहित्य-मण्डल के ढगकी संस्था कायम की जाय ।
मैन वहां ५ दिन घंटे प्रतिदिनके हिमाबम (३) भिन्न-भिन्न प्रान्तीय भापाश्रोमें जेनग्रन्थोक काम किया । पहिले दिन काम बहुत कम हुश्रा और अनुवाद प्रकाशित करने के लिए कुछ सुव्यवस्थित सहायक भी केवल दोपहरके बाद ही मिले । कुल ट्रस्ट क़ायम किये जाये।
तीम ग्रन्थोका विवरण लिख सका । कुछ निराशा हुई (४) जगह जगह जैन पुस्तकालय और केन्द्रोमे और काम लम्बा नजर आया। अगले दिन एक-दो केन्द्रीय सिद्धान्त भवन स्थापित किये जाये, जहां और सहायक मिल गए और काममें प्रगति याने समस्त ग्रंथोका संग्रह रहे।
लगी। इस प्रकार जिम कामक लिये प्रारम्भमे एक (५) जैन शास्त्रों के अच्छे आलं चनात्मक, सस्ते भी सहायक न था, उसके लिए बादमे काफी सहायक तथा सुसम्पादित संस्करण निकाल जाये।
होगा। सोनीपनमें जैन जनताके दृष्टिकोगामे अब (६) तमाम शास्त्रोकी प्रशस्तियों को संग्रह करके बहत परिवर्तन पाया और सब इस कार्यकी आवश्यउन्हें बहुतसे भागोमें प्रकाशित किया जाय।
कना तथा महत्वको ममझने लगे है। जिनने प्रन्थ (७) प्रत्येक आचार्य के ग्रन्थोको सुसम्पादित पं. उमरावमिहकी प्रेग्गामे मंबन १६५०-६० के रूपमे उनकी जीवनी के साथ प्रकाशित किया जाय। बीच भण्डारम आप, इतने कभी नही आये । उस
(८) जनसाहित्य में पारगामी विद्वान तयार जमानेमे लोगोंकी अवस्था भी अच्छी थी और था करने के लिये संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, पाली, कन्नड लोगोम उत्साह । उम उत्माहका पंडितजीने खूब उप
आदि भाषाओक एम0 0०, शास्त्रियों तथा आचार्यों योग किया । हम्नलिखित ग्रंथोकी लिपिम इतना अन्तर को विशेष छात्रवृत्ति देकर दो-दो साल साहित्यिक है और इतना परिवर्तन होता रहा है, कि एक ही खोजमे ट्रेनिग दी जाय । ऐसे विद्वानोको वीरसंवा भण्डारके ग्रंथ देवनागरी अक्षगक विकास या भिन्नता मन्दिर मरमावा, भण्डारकरइन्स्टीटपट पूना, स्याद्वाद को खव प्रकट करते है। लेखकोमें शुद्ध तथा सुन्दर महाविद्यालय काशीमे भेजा जाय तथा प्रोफमर हीग- लेखनका खूब रिवाज था । आज सुन्दर लेग्बनकी लालजी और डाक्टर ए०एन० उपाध्यायके पास तरफ न अध्यापकोंका ध्यान है और न विद्यार्थियो छोड़ा जाय ताकि वे उनके काममे सहायता भी दे का। इमकी तरफ जनताको ध्यान देनेकी जरूरत है। सके और ट्रनिंग भी पा सके।
भण्डारोंसे शास्त्र देने और वापिस लेनेकी मुव्यवस्था (2) जैन विद्यालयोंके धर्म-न्याय आदिके होनी चाहिए, यह नहीं कि जो शास्त्र जाय उसके अध्यापको और जेन विद्वानोके वेतनका स्टैडर्ड वापिस आनेकी चिता ही न रहे। बहुतमे शास्त्र इसी इतना ऊँचा किया जाय कि संवाके अलावा बतौर तरह गुम होते है। स्वाध्याय करनेके पश्चात शास्त्रके आजीविकाके यह काम आकर्षक बन जाय । इसको पृष्ठ क्रमवार लगाने चाहिए। इस मामले में लगभग सम्मानका काम बनाया जाय। बाजार के कम्पीटीशन ५० प्रतिशत ग्रन्थोंमें गड़बड़ पाई गई। जितने शास्त्र की चीजे पंडितोंको न बनाया जाय । २५),३०)रु० की क्रमस लगे रहेगे, उतनी ही आसानी रहेगी और मासिक वृत्तिके लिए कोई भी स्वाभिमानी जैन अपने समय कम लगेगा । जहां तक हो एक वेष्टनमें एक ही
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५ ]
अन्य रखा जाय । वेष्टनपर बाहर ग्रंथनामकी चिटपरचो तथा नम्बरका कार्ड लगना चाहिए । सूचीरजिस्टर वेष्टन नम्बर तथा अनुक्रम नम्बर से तैयार रहने चाहिए, जिसमें शोध पता लग सके । जीर्ण ग्रन्थोकी दूसरी प्रतियां तैयार करानी चाहिएँ जो शास्त्र फटनेको हो उनकी पारदर्शक कागज मे मरम्मत करानी चाहिए। वर्ष में एक बार भंडारकी
र
आन्दोलन
आबू आन्दोलन
सिरोही राज्यका आवृ पर्वत अपनी प्राकृतिक सुन्द"रता और शुभवातावरण के कारण न केवल आज ही भारतका एक प्रसिद्ध ग्रीष्म-प्रवास बना हुआ है, बल्कि यह हमेशा ने यहांके ऋषि-मुनियोंका एक तपोवन र धर्म ध्यान के साधक भव्य भारतीयांका एक तीर्थस्थान बना रहा है। इसी का यहां पर करोड़ो की विल सम्पत्ति लगाकर देलवाड़ा, अचलगढ़, अधरदेवा, गुरु वशिष्ठ और गुरु शिखरजी इत्यादि अनेक अनुपम, ऐतिहासिक जैन आर अर्जन मन्दिर बने हुए है । इन मन्दिर्गक दर्शनों अपने जावनको पवित्र करने के लिए हर साल हजारों हिन्दू यात्री भारत के सब ही देशोसे चलकर यहां आते है।
परन्तु कितना घोर अन्याय है कि दूरदराजम क उटाक आने वाले इन यात्रियों पर मिराही सरकारने यात्री टैक्स लगाया हुआ हूँ । इस टेक्सका अन्याय केवल इस बात से ही प्रगट नहीं है कि यह यात्रियाकी धर्म-साधना में अड़चन डालने के कारण उनके धार्मिक स्वतन्त्रताके जन्मसिद्ध अधिकारको छीनने वाला है, बल्कि इसलिये भी कि यह टैक्स अंग्रेज, एङ्गलो इण्डियन आदि अन्य लोगोंसे न लिया जाकर केवल मन्दिरोंके दर्शनार्थ आने वाले हिन्दू यात्रियोंसे ही लिया जाता है। इस पर ग़जब यह है कि यह टैक्स न तो यात्रियोंको किसी प्रकार की रक्षा व सुभीता पहुॅचाने के काम आता न दीन
२०१
पड़ताल, संभाल तथा व्यवस्था जरूर होजानी चाहिए । दूसरे भण्डारामं प्रतियाँ गानका क्रम जारी रखना चाहिए तथा हर जगह एक-दो लेखकोको प्रेरणा देकर तैयार रखना चाहिए । और पंचोंको शास्त्राक देने में व्यर्थ की अड़चने न डालनी चाहिए । इन बातोंपर अनल होनेसे भंडार सुव्यवस्थित र उपयोगा बन सकते है ।
दुखी लोगोके दुःखहरणके काम आता है, न यह मन्दिकी दुरुस्ती -मरम्मत, न मूर्तियांकी पूजाआरती, न पुजारियांक भोजन-वस्त्र के किसी काम में लाया जाता है। इस टैक्स लगाने में यदि कोई नीति है तो यह कि सिरोही सरकार हिन्दू यात्रियोंकी धर्मपरायणता में अपनी धन- लालमाको पूरा करना चाहता है। यह टेक्म सरासर पाप और अन्याय पर अवलम्बित है ।
इस टंक्सके विरोध में कर्मवीर ला० तनमुखराय जी जैनकी अध्यक्षता मे जो आन्दोलन मुद्दतमे चल रहा है, वह सर्वथा सराहनीय है । लालाजी और उनके अन्य साथियोंके अटूट परिश्रम के कारण आज इस आन्दोलनने भारतको तमाम हिन्दु जनता का ध्यान और सद्भाव अपनी ओर खींच लिया है। अत्र यह आन्दोलन बिना सफलमनोरथ हुए किसी प्रकार भी शान्त होने वाला नहीं है। इसके लिये लालाजी और उनके साथी बड़े ही धन्यवादक पात्र है ।
हमें पूर्ण विश्वास है कि सिरोही महाराज अपनी उदारता और विचारशीलताको काम में लाकर इस आन्दोलनको सत्याग्रहको सामा तक न बढ़ने देंगे, वह हिन्दू जनताकी पुकार में प्रभावित होकर शीघ्र ही इस टैक्सको हटा देंगे और यात्रियोंको सब ही प्रकारकी सुविधाएँ पहुँचाने में अपनी धर्मपरायणताकापूरापूग सबूत देंगे। वीर-सेवा-मन्दिर ]
— जयभगवान जैन वकील
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद्य-कहानी
एक मुनि-भक्त
[ लेखक-श्री 'भगवत्' जैन ]
कोढ फूट निकला था तनमे, गिरता था श्रामिष गलगल! गुरु का नन नीरोग नहीं है, देग्वेगा नृप-गर्वीला ! इतनी थी दुर्गन्ध कि जिसमे, पूरित था सारा जंगल !! निश्चय ही तब हो जाएगा, उमका बदन लाल-पीला !! सड़े व्रणो मे से बहता था-रक्त, पसेव, पीव क्षण-क्षण! मुझे न अपने प्राणो का भय, चाहे जब उनको ले ले! इन सब के अतिरिक्त और था-दुष्ट मक्खियों का पीइन !! फिक मुझे है, मेरे कारण मुनि-नन कष्ट नही झेले !! उफ़! कितनी पीटा थी फिर भी थे प्रमन्न-मन योगीश्वर ! मनि-निन्दाके भयमे मैंने, किया श्रमत्य-चन व्यवहार! मोच रहे थे 'मझको क्या है, मैं हैं वह हूँ अजर-अमर !!' लेकिन अब मनि-मंकट का लगता है मुझको पाप-अपार !!' धर्म-क्रियायोमे सतर्क थे, योग-माधनामे तत्पर ! घबराई 'मनि-भक्त'----"टकी; भागा वह असहाय वहाँ ! शारीरिक-रोगों पर उनकी, पडती फिर किस तरह नजर? दुखिया, दुग्वको भूल, शान्तिमय पाते हैं मन्नरोप जहाँ !!
x x x x अस्ताचल की श्रोर ना रहा था उदाम-मुग्यसे दिनकर ! जलने वालों की दुनिया में, यमी नही है रही कमी! हल-बाइक भी लौट रहे थे, ले-लेकर हल अपने घर !! कुछ दुष्टोने महागज मे, कहदी यह दास्तान सभी!! सेठ चला-विव्हल-मा, घवगया-मा योगीश्वरके पास ! बोले ना-काढ़ी गुरु हैं क्या', मेठ मामने हुए जभी! बोला मविनय भक्तिपूर्ण, लेकर ठंडी-मी एक उमाम !! मनमे भीरु, मशंक बाणकवर, दृढ होकर बोले फिर भी !! गुरुने पहले ही मोचा--'यो अाज सेठ जी इतने वक्त'मिथ्या-भाषी है वह मानव, जिमने दिया घृणित-संबाद ! पाए हैं', अवश्य है कारण, रह न मकेगा जो अव्यक्त !!' निश्चय बुरी भावना द्वारा, खड़ा किया है नया-विपाद !! 'योगीश्वर ! मैं मन्ध्या को, इमलिये श्राज फिर श्राया हूँ ! गुरु का तन तो परम दीप्तिमय, जिममे नही वामना-श्राग! एक धर्म-संकटका मैं संबाद माथमे लाया हूँ !! भाग्यवान वह हृदय, पनाता मेवा का जिममे अनुराग !!' कल नरेश दर्शनका मिस ले, अाएँगे करने अपमान ! एक मभामद बोल उठा नब, उसी समय अवसर पाकर !- अविनय दोनेके पहले ही, श्रतः कीजिए प्रभु ! प्रस्थान !!" 'सत्य-भूट का निर्णय खुद ही, कर न लीजिएगा जाकर !!' बोले वादिराज-गुरु-'शाबिर यह मब क्या है, समझायो ! बोले-'ठीक, स्वयं दी कल इम, सत्य- झूठ को परखेगे! जो कुछ हुशा उसे थिरता से, धीरे-धीरे कह जायो !!" झूठ बोलने वाले की हिम्मत कितनी है ?-देखेंगे !!' x x x x धन-कुबेर तब मौन, सोचमे डूबे, अपने घर अाए! सुनकर बोले मुनि नायक तब,-'भक्त !न इतना घबरायो ! एक मानमिक व्यथा, एक चिन्ता का बोझ साथ लाए !! होने दो प्रभात, तुम निर्भय होकर अपने घर जायो !!" लगे खोजने बैठ सदनमे, विकट समस्याओं का हल !- मेठ निरुत्तर, खड़े रहे, जैसे लकवे ने ही मारे ! भूख-प्यास भूले बैठे हैं, हृदय होरहा है चंचल !!- बरम पड़े हों आममानमे या मस्तक पर अंगारे !! 'सौ-सौ टुकड़े हो सकते हो, तो वह बेशक हो जाएँ! योगिराज मुमका कर बोले-'चिन्तायो को ठुकगो ! 'गुरु कोढ़ी हैं !' निंद्य-शब्द यह कैसे जिह्वा पर श्राएँ ? प्रभु का लेते हुए नाम तुम, हर्षित दो वापम जाअो !!" मुनि-निन्दाके महापाप को, किस प्रकार मैं अपनानू ? लौटे सेट अभय होकर पर, थी मनमे फिर भी हलचल !जिनकी स्तुति करता आया, क्या उनकी निन्दा कर डालूँ? 'मुझे अभय कर देनेसे ही, क्या बाधा जाएगी टल ?
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५
जीवन इसका नाम नहीं है
२०३
अभय-दान जब योगीश्वरके श्रीमुखसे मैंने पाया ! देवो यह उँगलीम जैसा कोढ़ अभी भी है सुस्थित ! फिर क्या शंका? अटल-गिग जब,गिर-मीमाथ-साथ लाया!!
इसी तरहका सब शरीर था, गलित, घृणित या दुर्गन्धित !!
मुाननिन्दासे मलिन न हो जाए उनका पवित्र-जीवन ! ___ x x x x
साधु-सुभक्त वणिकने इस ही लिए किया मिथ्या-भाषण !! जैसे-तैसे रात बिता कर. राज-भवनकी ओर चले! मुझे नही तनकी चिन्ता थी, रहे रोग अथवा जाए? फिर नरेश के साथ तनिधिके दर्शन करने निकले!! थी इसकी चिन्ता कि धर्मका नाम कही न डूब जाए !!" सेठ देख कर दंग रह गए, मुनिवरकी निगेग-काया! बोले-नृा और बणिक साथ ही-कैसे प्रभुवर रोग गया? अचरज!-यह क्या इन्द्र जालने फैलादी अपनी माया ?? राज-रोगसे मुक्त हुए, किम तरह मिला यह स्वास्थ्य नया ??? सौन-सा अतिदीम, गंगसे शून्य, तपोबलसे जगमग! माधु-शिरामणि बाले-'प्रभुकी अटल-भक्तिको क्या मुश्किल? गुरुका देख शरीर, संठ २६ गए बड़े कुछ दूर अलग !! लेकिन इतना है कि चाहिए, अात्मशक्ति इसके काबिल !! मत्ताधीश क्रोधमे डूबे, सोच उठे अपने भीतर-! रत्न-राशिमय 'पुर' हो जाता, जिम पुरम प्रभुवर आते ! 'मुझमे भी जा झूठ बोलना, है वह कितना घानक नर? 'उर' म श्राए हुश्रा स्वर्ण-तन, यह सुन क्या विस्मय लाते ? मृत्यु-दण्ड दूंगा मैं उनको, हे बेशक संगीन-कुसूर ! चमत्तार यह देख उपस्थित-जन अानन्द-विभोर हुए ! साधु-अचशा कर, करडाली उसने मानवता चकचर !!' मुनिनिन्दक भी लजित दोकर, भक्ति-मार्ग की अोर हुए !! भागांकी भाषा पढ कर गुरु, कहने लगे दया-वचन !- साधु-भक्त वह मेठ और साधना-मुग्ध पृथ्वी-पालक ! क्रोध-कालिमाक द्वारा क्या करते अपना मेलामन? देखा-दोनो मनि-चरणों मे. झुका रहे अपने मस्तक !! कहने वाले ने पृथ्वीपति ! कुछ भी मिथ्या कहा नहीं ! जय-धोष से गगन-हृदयको जनता चारे देती थी! लेकिन यह जरूर है तनमे, रोग श्राज है रहा नहीं। भगवत्'-धर्मात्थान मुदित लम्ब, लोकोत्तम-सुख लेनी थी !!
* जीवन इसका नाम नहीं है ! *
[ श्री भगवत्' जैन ] चिथड़ो से शरीर को ढक कर,
खेल-कूद, खाने-पीने का, सह जाता मरदी की बाधा !
नहीं व्यवस्थित-श्रयमर पाया! कभी कभी भृग्वा सो रहता,
मदा प्रामुत्रोका जल लेकर, भग्ता उदर किसी दिन आधा !!
अपना अन्तर्दाइ बुझाया !! इतना होने पर, सोने का कोई एक मुकाम नहीं है !! जीते रहनेका भा शायद, दुनिया मे कुछ काम नहीं है! 'जीवन' इसका नाम नहीं है !!
'जीवन' इसका नाम नहीं है !! कड़ी-ठोकरोमे भी, मुर्दा
निर्धनताने कुचल दिए हैं, स्वाभिमान सोता रहता है!
दिलके सब अरमान हठीले ! मिर्फ गुनामीको लेकर दी,
सूख नहीं पाते यह श्रॉसूअत्याचाराको सहता है !!
रहते पलक हमेशा गीले !! दुग्व-दी-दुखमे डूबा रहता, पाता कुछ अाराम नही है! क्षीण-काय, जर्जर-शरीर पर, चिकना-चुपड़ा चाम नही है ! 'जीवन' इसका नाम नहीं है !!
'जीवन' इसका नाम नही है !! लिए दीनता को फिरता है, मानवता की याद भुलाए ! मृत्यु-गोदमे सो रहनेको, घड़ी - घड़ी मनमें ललचाए !! किन्तु मृत्यु वह पाए कैसे ? जबकि जेबमे दाम नही है !
'जीवन' इसका नाम नही है !!
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रश्नोत्तरी [लेखक-श्री बा० जयभगवान जैन, बी०ए० वकील 1
प्रश्न-आर्य कौन है?
विकल्पोमे मौन धरने वाला है. मदा निष्काम उत्तर--नो श्राचार विचारमें श्रेष्ठ है, माहम और सहिष्णुता होकर बर्तने वाला है, जो अपना और दूसरोका
में श्रेष्ठ है; जो जीवनको एक यज्ञ समझता है, उद्धार करने वाला है। अपने और दूसरोको सुखी जो सारी दुनियाको एक यज्ञ समझता है, जो
बनाने वाला है। आत्मोकर्पके लिये दोषों की बलि देनेमे संकोच प्रश्न-मुसलमान कौन है ? नहीं करता, जो लोक उपकारक लिये स्वार्थीको उत्तर-जो अल्लाह की राकनामे ईमान ग्वता है, जो मब आहुति देनेमे ढील नही करता, जो प्राणो
ओर अल्लाह ही अल्लाहको देखना है, जो सबको निछावर करके भी सदा विश्वहित के लिये अग्रसर
अल्लाहमे ठग हया देखता है, सबको अल्लाहमे रहता है।
ढका हुआ देखता है जो सबको अल्लाह के बन्दे प्रश्न-सनातन कौन है ?
समझता है, जो सब हीके माथ भाईयो-जैमा उत्तर-जी जीवन और जगनके पुरुष और प्रकृति, ब्रह्म
व्यवहार करता है, प्रेम और वात्सल्य का बर्ताव
करता है। और मायारूा मनातन तत्त्वांका जानता है, जो
प्रश्न-ईमाई कौन है ? मायामें फँसे ब्रह्म के सनातन विकास-मार्गको समझता है, जो अपनी श्रद्धाको शाधना हुआ,
उत्तर-जो ईश्नरको प्रेम पूर्ण रिता समान जानता है,
अपनेको ईश्वर का पत्र मानता है, लोकको शानको निर्विकल्प बना हुअा अाचारको विश्व
ईश्वरका कुटम्ब समझता है । जो लोककी रक्षा व्यापि करता हुआ मदा अागेको बढ़ता रहता है,
पालना करता हुश्रा अपने पिताके गौरवको बढाता जो आगे बढ़ता हुआ, मदा दुसराको बढ़ने के लिये
है। जो सबके साथ मत्य का व्यवहार करना है। स्वतन्त्रता और सुभता देना हता है मुझाव और
अपने दोषो की क्षमा मागता हुआ दूमर्गक दोषा सहयाग देता रहता है।
को क्षमा करता है जो खुद किमीम बेर नहीं प्रश्न-जैन कौन है ?
करता, जो अपने बैरियों से प्रेम करता है, विरोधियों उत्तर-जो "जिन"के समान यात्म-शत्रयांको जीतने वाला
के लिये प्रार्थना करता है, गाली का जवाब है, राग द्वेष कषायोको जानने वाला है, इन्द्रिय
श्राशीर्वादमे देना है, बुगई का बदला भलाईसे विषय-वासनाअोको जीतने वाला है, मन-वचन
देता है। जो मन-सेवा को ईश-उआमना समझता काय योगोको वश करने वाला है, जो द्वन्द भरी
है, जो दुनया के पाप धोने के लिये, लाकके दुःख दुनिया में निर्द्वन्द रहने वाला है, जा जड़ भरी
दूर करने के लिये सदा अपनी कुरबानी देने को दुनिया में जागरुक रहने वाला है, जो पदगल भरी
तय्यार रहता है। दुनियामे चैतन्यरूा रहने वाला है जो सब तथ्यों प्रश्न-मिक्ख कौन है? का समन्वय करने वाला है, मबको ज्ञान और उत्तर-जो सन्त परुषांका शिष्य है, मन्नोंकी संगतिमे श्रानन्द देने वाला है, सब अोर दया और अहिसा
रहने वाला है, मन्नोंकी आज्ञाको मानने वाला है, फैलाने वाला है।
सन के मार्ग पर चलने वाला है । सन्नों के समान प्रश्न-बौद्ध कौन है ?
दुःख-सुखकी परवाह नहीं करता, लाभ अलाभकी उत्तर-जो 'बुद्ध' के समान सर्वव्यापी बोधि रग्बने वाला है.
परवाह नहीं करता, निन्दा-स्तुति की परवाह नही जो चार आर्य सत्योम विश्वास रखने वाला है, करता। जो सदा लाक हितार्थ कामो के लिये उद्यत जो इच्छाओंको दुःखका मूल समझने वाला है, रहता है. लोक उद्धारके लिये सीस चढ़ानेको तय्यार जो इच्छाश्रीका निरोध करने वाला है; सब ही रहता है,
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीव-स्वरूप-जिज्ञासा
प्रश्नावली
[बहुत अर्सेसे मेरी यह प्रश्नावली पडी हुई है। कुछ विद्वानोंके सामने इसे पहले रणखा भी था, परन्तु पूरा सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिल सका। अतः कई मित्रोंके अनुरोधसे अाज इसे प्रकाशित करके सभी विद्वानोंके सामने रक्खा जाता है। प्राशा है चिट्ठजन यथेष्ट समाधान करनेकी ज़रूर कृपा करेंगे।]
(१) चैतन्यगुणविशिष्ट सक्षणतिरक्ष्म अखण्ड पुद्गल-
पिण्ड (काय) को यदि 'जीव' कहा जाय तो इसमें
क्या हानि है-युक्तिसे कौनसी बाधा आती है ? (२) जीव यदि पोद्गलिक नई है तो उममे सौम्य स्यौ
ल्य अथवा मंकोच-विस्तार, क्रिया और प्रदेश-रि
स्पन्द कैसे बन सकता है ? (३) जीवके अपोद्गलिक होनेपर अात्मामे पदार्थो का प्रति
विमित होना-दर्पगतलवत् झलकना-भी केमे बन सकता है ? क्योकि प्रतिबिम्बका ग्राहक पुद्गल ही होता है.----उमीम प्रतिबिम्बग्रहणकी अथवा छाया
को अपनेम अंकित करनेकी योग्यता पाई जाती है। (४) तत्त्वार्थमूत्रादिमे सौदम्य-स्थौल्यको पदुगलकी पर्याय
माना गया है और जीवम मंकोच-विस्तार होनेमे मौम्य-स्थौल्प स्पष्ट है, तथा 'अात्मप्रवाद' पूर्व में जीव का नाम 'पद्गल' भी दिया है, जैसा कि उक्त पूर्व का वर्णन करते हुए 'धवला' मिद्वान्नटीकाके प्रथम खण्डम 'उक्तं च' रूपसे जो दो गाथाएँ दी है उनके निम्न अंश तथा वहीं 'पोग्गल' शब्दके प्राकृतम
ही दिये हुए निम्न अर्थसे प्रकट है :"जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो।" "बिहमंठाणं बहुविहदेहेहि पूरदि गलदित्ति पोग्गलो।"
श्वेताम्बरीके भगवतीसूत्रम भी जीवको पुद्गल नाम दिया है; कोशोमे भी "देहे चात्मनि पुद्गलः” रूपसे पगल का श्रात्मा अर्थ भी दिया है । बौद्धोंके यहाँ तो आमतौरपर पद्गल नामका प्रयोग पाया जाता है । तब जीवको पौद्गलिक क्यो न माना जाय? * देखो, अनेकान्त वर्ष १ पृ० ३६३ ।
(५) जीवको परंज्योति' तथा ज्योतिस्वरूप' कहा गया है
और ध्यानद्वारा उमका अनुभव भी 'प्रकाशमय' बतलाया गया है-अन्तःकरण के द्वारा वह प्रत्यक्ष भी होता है। ये सब बातें भी उसके पौद्गलिक होने को सूचित करती हैं-उद्योत और प्रकाश पद्गलका ही गुण माना गया है । ऐसी हालतमें भी जीवको
पौद्गलिक क्यों न माना जाय ? (६) अमूनिकका लक्षण पंचाध्यायीके "मूर्त स्यादिन्द्रिय
ग्राह्य तदग्राह्यममूनिमत्” (२-७) इम वाक्यके अनुमार यदि यही माना जाय कि जो इन्द्रियगोचर न हो वह श्रमूर्तिक, तो जीवके गौद्गलिक होते हुए भी उसके अमूर्तिक होने में कोई बाधा नही पानी । असंख्य पद्गलोक प्रचयरूप होकर भी कार्माणवर्गणा जसे इंद्रियगोचर नहीं है और इसलिये श्रमूर्तिक है, ऐसा कहा जामकता है। इसमे क्या बाधा याती है? यदि निराकार होना ही अमूर्तिकका लक्षण हो तो
उसे वरविषाणवत् अवस्तु क्यों न समझा जाय ? (७) पुद्गलके यदि दो भेद किये जॉय-एक चैतन्य
गुणविशिष्ट और दूसग चैतन्य-गुगारहित, चैतन्यगुण विशिष्ट पुद्गलोको केवल 'वर्णवन्तः' वह भी 'चक्षुरगोचरवर्णवन्तः' माना जाय और दूसराको 'स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः' माना जाय और उन्दीमें रूगादिकी रसादिके साथ व्याप्ति स्वीकार कीजायतो इसमें क्या हानि है ? ऐसा होनेपर प्रथम भेदरूप जीवाको तत्वार्थसारके कथनानुसार (८-३२) 'उर्ध्वगौरवधर्माणः' और द्वितीय भेदरूप पुद्गलोको 'अधोगौरवधर्माणः' कहना भी तब निरापद् हो सकता है। अन्यथा, अपौद्गलिकमें गौरवका होना नहीं
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०६
अनेकान्त
बनता । गुरुता - लघुता यह पुद्गलका ही परिणाम है । (८) यदि पुद्गलमात्रको स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण इन चार गुणांवाला माना जाय - उसीको मूर्तिक कहा जाय और जीव वर्ण गुण भी न मानकर उसे श्रमूर्तिक स्वीकार किया जाय तो ऐसे मौद्गलिक और भूतिक जीवात्माका पौद्गलिक तथा मूर्तिक कर्मोके साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? इस प्रकारके बन्धका कोई भी दृष्टान्त उपलब्ध नहीं है। और इसलिये ऐसा कथन ( अनुमान) श्रनिदर्शन होनेसे ( श्राप्तपरीक्षा की 'ज्ञानशक्तचैव निःशेषकार्योत्पत्तौ प्रभुः किल । सदेश्वर इति ख्यातेऽनुमानमनिदर्शनम्' इस आपत्ति के अनुसार ) श्रग्राह्य ठहरता है - सुवर्ण और पाषाणके अनादि बन्धका जो दृष्टान्त दिया जाता है वह विषम दृष्टान्त है श्रौर एक प्रकारसे सुवर्ण- स्थानीय जीव के पौद्गलिक होने को ही सूचित करता है-यदि ऐसा कहा जाय तो इसपर क्या श्रापत्ति खड़ी होती है ?
[ वर्ष ५
मूर्तिक कर्मोंके साथ बद्ध होकर विकारी होने में कोई बाधा नही आती । वह सजातीय-विजातीय-पुद्गलां का ही बन्ध ठहरता है। यदि ऐसा कहा जाय तो वह क्योंकर श्रापत्ति योग्य हो सकता है ? (१०) रागादिकको 'पौद्गलिक' बतलाया गया है (अन्ये तु रागाद्याः हेयाः पौद्गलिका श्रमी', (पंचाo २-४५७) और रागादिक जीवके श्रशुद्ध परिणाम है— बिना जाव के उनका अस्तित्व नहीं । यदि जीव पौद्गलिक नहीं तो रागादिक पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेगे ? रागादिकका अस्तित्व क्या जीवसे अलग सिद्ध किया जा सकता है ? इसके सिवाय पोद् गलिक जीवात्मा कृष्ण-नीलादि लेश्याऍ भी कैसे बन सकती है ? नोट -- सम्पूर्ण प्रश्नो और उनके सम्पूर्ण अवयवोका श्रच्छा समाधानकारक उत्तर विशदरूपसे युक्तिपुरस्सर दिया जाना चाहिये, जिससे इस विषयपर गहरा विचार होकर जिज्ञासाकी तृमि हो सके । प्रस्तुत विषयकी जो बाते ठोक जान पडे, उन्हे निरापद् बतलाते हुए उन की पुष्टि और जो कोई अच्छी बात कही जा सकती श्रथवा युक्ति दी जा सकती हो उसे भी कृपया साथ मे उल्लेखित कर देना चाहिये। इस सब कृपा के लिये मैं बहुत आभारी हूँगा | वीरसेवामन्दिर, सरसावा जि. सहारनपुर
1} जुगलकिशोर मुख्तार
(६) स्पर्श - रस- गन्ध-वर्णमे से कोई भी गुण जिसमे हो उसे मूर्तिक माननेपर ('स्पर्शा रसश्च गन्धश्च वर्णोऽमी मूर्तिसंज्ञकाः' आदि पचाध्यायी २-६) श्रौर जीवको वर्णगुणविशिष्ट स्वीकार करनेपर (जिसका कुछ प्रभास 'शुक्लध्यान' शब्द के प्रयोग से भी मिलता है) जीव भी मूर्तिक ठहरता है और तब मूर्तिक जीवका
-X
अनेकान्त बहिर्लापिका
संधिः कः पवनस्य, मित्र ! वद ते चेच्छन्दशास्त्रशता । केन स्त्रीपुरुषा भवन्ति वशगा वित्तेश्वराणां क्षितौ ॥ नक्षत्राणि विभान्ति कुत्र े, मनसो हर्दः कुतो योषिताम् । मत्प्रश्नोत्तरमध्यमाक्षरगतं पत्रं सदा वर्द्धताम् ॥
Y
— धरणीधर शास्त्री काव्यतीर्थ १ पो नं २ धनेन, ३ श्राकाशे, ४ - - कान्ततः ५ मध्याक्षरंनम " श्रनेकान्त”
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
सेठ भागचन्दजी सोनीके भाषण के कुछ अंश
OXKO
:
[श्रीमान् रा० ब० सेठ भागचन्दजी सोनी अजमेरने ता० १६ जून १६४२ को 'श्री ऐलकपन्नालाल दि० जैन सरस्वतीभवन व्यावर' के वार्षिकोत्सव पर सभापति पद से जो भाषण दिया है उसके कुछ खास श्रंश अनेकान्तके पाठकों को जानने के लिये नीचे प्रकट किये जाते हैं। —सम्पादक ] हिन्दी में जितने भी राष्ट्रीय और साहित्यिक पत्र या पत्रिकाएँ निकलती हैं, उन सबमें 'कल्याण' अधिक संख्या में प्रकाशित होता है, जिससे हम अन्दाजा लगा सकते हैं कि अगर शुद्ध धर्म श्र धार्मिकों के सम्बन्धमें बोलने वाला कोई पत्र निकाला जाय, तो पाठकोंका अभाव न रहेगा; श्रवश्य ही इसके लिए यह जरूरी है कि उस पत्र में किसी भी तरह की आपसी वैमनस्यकी चर्चा या वाद-विवाद वगैरह कुछ भी न छपना चाहिए । इसके बिना न तो समाजमें कल्याणकी श्रभिरुचि ही पैदा की जा सकती है धौर न मौजूदा पत्र-पत्रिकाओं के बेढंगे ढंगमें किसी तरह का शुभ परिवर्तन ही लाया जा सकता है। यह काम कुछ चुने हुए मन्दकषाय, शान्तबुद्धि और स्व-पर-विवेकी बुधजनोंके द्वारा ही सुसम्पन्न या सफल हो सकता है। और इस बातका हमें शुरू से ही पूरा-पूरा ध्यान रखना होगा; नहीं तो पूरी कीमत चुकाकर भी हम उस चीज़ से बंचित रह जायंगे जिसके लिये हमने दाम चुकाये थे ।
"अगर हमारे समस्त सरस्वती-भवन मिलकर संगठिन रूपसे वीतराग वाणीकी श्रमृतधारा बहाना शुरू करदेंभारत मे सर्वत्र ऐसी 'प्याऊ' का रथ चलादे जो हमारी मृगतृष्णाको दूरकर हमे स्वस्थचित्त करके सुपथपर बढ़ने के लिए नवीन उत्साह और अटूट श्राशा दे, तो हमारी सेवा सर्वाङ्गीण पूर्ण हो जाय और हमारा यह मनुष्य जीवन सार्थक हो जाय ।
उपाय और साधन
इसके लिए श्रवश्य ही हमें उपाय-चिन्तन करना होगा, जिनमे से कुछ उपाय ये हो सकते हैं, जिनका हम नीचे उल्लेख कर रहे हैं :
(१) ऐसे एक मासिक पत्रकी योजना की जाय, जिसमें किसी भी तरहका वाद-विवाद न छिड़कर केवल धर्म और धार्मिको के सम्बन्ध में तात्त्विक और व्यावहारिक प्रकाश फैलाने वाली रचनाएँ प्रकाशित हुआ करें, यानी — एक जीव-तत्त्वको ( श्रथवा यों कहिये कि अपनेको) केन्द्र बनाकर, श्रत्यन्त सरलता और स्पष्टताके साथ, श्राजकी पद्धति और श्राजकी भाषामें ऐसी तात्त्विक और साथ ही व्यवहारिक थालोचना और उपदेशना हुश्रा करे, जिससे अनुकूल, प्रतिकूल और तटस्थ तीनों ही प्रकृति के पाठक और श्रोताओको नपी-तुली भाषा म 'सुलभी ओर छनी हुई यथावत् चीज मिला करे ताकि वे उसे अपनी बुद्धि और रुचि के अनुसार श्रात्मकल्याणका मार्ग तय कर सकें, और चाहें तो उसपर चलने के लिये श्रागे कदम भी बढ़ा सकें ।
दृष्टान्तके तौरपर हिन्दू-समाजके 'कल्याण' मासिक पत्रका नाम लिया जा सकता है, जिसका एकमात्र यही ध्येय है कि अपने पाठकोंमें धार्मिक अभिरुचि पैदा की जाय । यहाँ प्रसंगवश इतना कह देना बेजा न होगा कि
दूसरा काम - सरस्वती भवनों का यह होना चाहिए, और समाजको भी उससे लाभ उठाना चाहिए कि जो भी ग्रन्थ लिखाये जायँ, उनका शुद्ध प्रतियोंसे अच्छी तरह मिलान करा लिया जाय ताकि अल्पज्ञानी और कहीं-कहीं या प्राय: करके विपरीत - ज्ञानी शास्त्र लेखकों (प्रतिलिपि करनेवालों) से कीगई भूलोंसे हमारे ज्ञानमें कोई फर्क न थावे । इस कामको हमारे सरस्वती-भवन बदी आसानी से कर सकते हैं। इससे हमारे श्रुत या शास्त्रोंकी सुरक्षाके साथ-साथ उनकी विशुद्धिकी रक्षा होती रहेगी।
इस दिशा में, मुद्रित ग्रन्थोंकी तरफसे भी हमें निश्चिन्त नहीं रहना चाहिये-बल्कि उसमें तो एक साथ हजारों प्रन्थो में एक सी ग़लतियाँ रह सकती हैं और अकसर रहा करती हैं—और जब कि इस कालमें मुद्रित ग्रन्थोंका पठन
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
२०८
अनेकान्त
[व: ५
पाठन करने वालोंकी संख्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है कर उसे किसी ऐसे केन्द्र-स्थानमे स्थापित करनेकी बायोतब हमारा यह.मी एक कर्तव्य हो जाता है कि उनकी. जना कर जहाँसे निशक्ति एक होकर बडे दायरेमें बड़ा काम शुद्धा शुद्धिक विषयमें समाजको परित्याग कराया जाय, और कर सके, तो मैं समझता हूँ-इससे कम खर्च में ज्यादा प्रेरणा की जाय कि अमुक-अमुक ग्रन्थोंमें अमुक-अमुक लाम हो सकता है। प्राशा है इस बातपर भवनके स्थायी अशुद्धियों हैं, जिन्हें हर एक पाठक सुधार कर पढ़ें। दूसरे अध्यक्ष महोदय और प्रबन्ध-समितिके सदस्यगण विचार इस तरह मुद्रित ग्रन्थोको प्रामाणिकताका भी पता लगता करेंगे। मुझे बड़ी खुशी होगी, अगर आप इस विचारको रहेगा। इसके लिये यह जरूरी है कि मरस्वती-भवनोंके किसी दिन कार्य-रूपमै परिणत करनेकी ठान लें। पुस्तकाध्यक्ष निरन्तर इन सब बातोंकी देख-भाल करते रहें। इस दिशामें ग्रन्थागारों के ग्रन्थाध्यक्षोंका भी बहुत-कुछ
तीसरा काम-यह है कि हिन्दी अंग्रेजी श्रादि सार्व- कर्तव्य है। साधारणत: पुस्तकालय या ग्रन्थालय यही जनिक पत्र-पत्रिकाओं में जैनधर्म, जैनसमाज और हमारे कहते पाये जाते हैं कि हमारे पास ग्रन्थ-सूची है, उठाकर पुराण-पुरुषोंके सम्बन्धमैं जो भाये-दिन कुछ-न-कुछ ऊटपटांग स्वयं देख लो और अपने कामकी चीज हूँढ ली।' मगर बातें छप जाया करती हैं, सरस्वती-भवनकी तरफसे उनका हम देखेंगे कि इस तरहकी मनोवृत्ति में भामंत्रण यात्रुलावा उचित-रीत्या निराकरण हुश्रा करे।
नहीं है, पाठकके मनको अपने नज़दीक खीचनेकी थान्तरिक चौथा काम-यह होना चाहिये कि ऐसे अजैन विद्वान् भावना नही है, और साथ ही ग्रन्थ-सूचीमें भी ऐसा कोई जो जैनधर्मके सम्बन्धमें कुछ जानकारी हासिल करना स्पष्ट परिचय नही जिससे आकृष्ट होकर लोग स्वयं उसके चाहते हों उन्हें भवनोंकी तरफसे ज्ञानमामग्री दी जाय, और पास पहुंच जाय । जिस ग्रन्थागारमे उसकी प्राभ्यन्तरिक साथ ही अगर वे विद्वान् लेखक या सम्पादक हो तो हर विभूतिका परिचय और परिचयमे पाठकके चितको खीचने तरहसे उन्हें प्रोत्साहन देकर उनसे जैनधर्मके सम्बन्धमे की प्रान्तरिक भावना नहीं है, और साथ है। ग्रन्थ-सूची में लेखादि लिखाये और प्रकाशित किये जायें। इस विषयमें भी ऐसा कोई स्पष्ट परिचय नहीं जिससे धाकृष्ट होकर हमें बौद्धोंकी ओर दृष्टि डालनी चाहिए, जिनके प्रचारका लोग स्वयं उसके पास पहुंच जायें। जिस ग्रन्थागारमे सबसे बड़ा साधन ही यही है, जिसका मैं उपर जिकर कर उसकी श्रा-यन्तरिक विभूतिका परिचय और परिवयम चकाई । यह काम स्वर्गीय पं. पन्नालालजी बाकलीवाल पाठकके चित्तको खीचनेका अाग्रह होगा, वह स्वयं धागे ने अपने जीवनकालमें बड़ी खूबीके साथ किया था। उनका बढ़कर जिज्ञासुश्रीको अपने घर बुला लेगा। इसे हम हमें अनुकरण करना चाहिये।
ग्रन्थागारकी दानशीलता या उदारता कह सकते हैं, जो पाँचवाँ काम-रिसर्च या अनुसन्धान और शोधका
उसकी जाग्रत जीवनी-शक्तिका परिचायक है। प्रन्थागारकी है। इसकी भी बड़ी-भारी जरूरत है, क्योंकि इसके बिना
तरफसे ऐसी प्रकृनिगत महानता और दानशीलताका परिन हम जैनेतर विद्वानोंको जैनधर्मकी ओर आकर्षित ही कर
चय प्रन्याध्यक्ष ही दे सकते हैं, और इस तरह वे अच्छे सकते हैं और न हम खुद ही वास्तविकतासे स्पष्टतया
पाठकोंकी संख्या बढ़ाकर समाजमें अच्छे ज्ञानी पैदा कर वाकिफ हो सकते हैं। ये सब काम ऐसे हैं जिन्हें सरस्वती
सकते हैं। इसके लिए यह ज़रूरी है कि ग्रन्याध्यक्षभवनोंकी सहायतासे अच्छी तरह किया जा सकता है।
सरस्वती-भवनकी अल्मारियों में अस्छी तरह मिलसिलेवार कहनेका मतलब यह कि हमारे सरस्वती भवनोंके
ग्रन्थ सजाने और उनका हिसाब रखने के साथ-साथ अपने द्वारा-संग्रह, रक्षा श्रीर सदुपयोग ये तीनों काम एक
यहाँके ग्रन्थ या शास्त्रोंका सुलझा हुश्रा विशद ज्ञान भी साथ होने चाहिए, क्योंकि इन तीनोंका परस्पर ऐसा
प्राप्त करलें; ताकि वे सुलझे हुए तरीकेसे प्राजकी भाषामें श्रृंखला-सम्बन्ध है कि इनमें से एक कदी टूटते ही सर्वत्र
पाटकोंको उसका कल्याणकारी परिचय करा सकें। मतलब शिथिलता आ जाती है।
यह कि ग्रन्थाध्यक्ष केवल ग्रन्थ-भण्डारका भण्डारी ही न अगर हम अपने तोनों सरस्वती-भवनोको एकत्र मिला (शेषांश टाइटलके तीसरे पृष्ठ कालम २ पर)
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीचारुकीर्ति भट्टारक-भण्डार मूडबिद्रीके कुछ हस्त लि० ग्रन्थोंकी सूची
मूडबिद्री जि. साउथकनारामें अनेक शास्त्रमण्डार हैं, जिनमें भट्टारक श्रीचारकीर्तिजीका भण्डार अन्य भण्डारोंसे अच्छा बड़ा है । इस भण्डारके हस्तलिखित ग्रन्थों की एक सूची अपने को ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बईके अध्यक्ष पं. रामप्रसादजीकी मार्फत प्राप्त हुई है, जिसके लिये मैं आपका बहुत प्रभारी हूँ। सूची में ग्रन्थ प्रतियोंकी संख्या १६३६ दर्ज है, जिनमे एक एक ग्रन्थकी कई कई प्रतियाँ भी शामिल हैं। ग्रन्थ-संख्या ८०० के करीब होगी। अधिकांश ग्रन्थ या तो मूलतः कनडी भाषामें हैं और या कन्नडभाषाके अनुवाद तथा टीका-टिप्पण को लिये हुए हैं । ग्रन्थसूची किमी अरछे जानकार विद्वानके द्वारा तय्यार की गई मालूम नहीं होती-वह बहुत कुछ असावधान हाथोंसे बनाई गई है, और ऐसी मोटी मोटी त्रुटियोये भी परिपूर्ण है जिन्हें देखकर आश्चर्य तथा खेद होता है ! और यह खयाल पाता है कि भट्टारकी जैसी संस्थामें, जहाँ थोडेसे इशारेपर अच्छे विद्वान काम करने वाले मिल सकते हैं, ऐसी ग़लत सूची क्यों तय्यार करके रकखी जाती है ? और क्यों ऐसी मुकम्मल सूची तय्यार नहीं कराई जाती जो अपने भण्डारके ग्रन्थों के नाम, कर्ता, विषय, भाषा, श्लोकसंख्या और रचना नथा लिपि-कालादि-सम्बन्धी अभ्रान्त यथार्थ परिचय दे सके, ऐसा करना इस प्रकारकी संस्थाओंका स्वास कर्तव्य है और वह साहित्यसेवाका प्रधान अंग है। इस विषयमे उपेक्षा धारण करना और लापर्वाही वर्तना किमी तरह भी उचित नहीं कहा जा सकता । अस्तु, उक्त मूचीपर से यहाँ सिर्फ उन ग्रन्थों की ही कुछ सूची दी जाती है जो अनेकान्तकी गत किरणोंमे प्रकाशित सूचियोमें नहीं थाए हैं। इस सूचीके तय्यार करनेमे जहाँ तक अपनी पहुँचके भीतर हो सका उक सूचीकी मोटी मोटी भृलोको दूर करनेका यत्न किया गया है, फिर भी ग्रन्थ-प्रतियों सामने न होनेसे पहुंचसे बाहरकी कुछ भूलोका रह जाना संभव है, जिनका सुधार बादको हो सकेगा। भट्टारकजीये सादर अनुरोध है कि वे मूलग्रन्थ-प्रतियोंपरसे इस सूची को ऊंचवाएँ और यदि कहीं भूल मालूम पडे तो उससे शीघ्र ही मूचित करने की कृपा करे । साथ ही, जिन ग्रन्थोंका रचना-काल उन ग्रन्थोंपरमे उपलब्ध होता हो उसे भी लिखकर भिजवाने की कृपा करें और जो ग्रन्थ इनमें अजैन हो उसके विषयमें स्पष्ट लिख देव कि यह अजैन है । आशा है दि. जैनग्रन्थसूचीके निर्माण विषयके इस सत्कार्य में आपका इतना सहयोग वीरसेवामन्दिरको ज़रूर प्राप्त होगा। और इस कृपाके लिये मैं श्रापका बहुत श्राभरी हूंगा।
सम्पादक
भंानं
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
पत्र-संख्या
श्रानुमानिक श्लोक संख्या
विषय
केशवण्ण
कन्नड़
प्रथमानुयोग
कवि श्रादिनाथ
३५४ अण्णालचरिते
अण्णालचरित्र
अनन्तनोहिचरित्र १७३ अनन्तनोहिपूजाविधान
अनुप्रेक्षा
अपराजितशतक ८०५ अभिधानकोष (अपूर्ण) १७६ अमृतनंद्यलंकार
" पूजा भावना द्रव्यानुयोग
सोमदेव कविरत्नाकर नागवर्म 1 अमृतनन्दि
ow" 10 V
कोष
25
। अलंकार
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१०
नं०
१६३
१३३
ग्रन्थ-नाम
अमृताशीति (टीका)
विहार (अपूर्ण)
अनाथाएक
अहिंसाचरित्र
३१२
२६६
३८६
४०६
&X
५४२
६०७
२३६
११४
६०४
६७४
६५२
३१
०४८
३२
५६५
४५६
३०६
२४२
११४
१५६
कृष्णचरित
१४६ क्रियाकलाप
३१२
कलाकाराड
२३३
क्रियाकालिका
३८१
क्रियापाठ
२४ कर्मप्रकृति
२६६ कर्मप्राभूत
२०६
१७४
७२५
३५४
२५२
श्रागमसार
श्रागमसार टीका
आभावबोधन
श्रादिनाथपुराण
आप्तस्वरूप
घालोचनामूल
धारोग्य चिन्तामणि
आरोग्यस्तवन
श्रात्रवसंतति
इष्टोपदेश
इष्टोपदेश
उणादिवृति
एकसप्तति टीकासहित
ऋषिमंडल स्तव
पिमंडलस्ती
कन्नदभारत (जैन)
कल्याण कारक
कुमुदचन्द्रसंहिता
गणितशास्त्र
गणितशास्त्र
गद्यर्थितामणि
गुणरत्नमालाचरित्र
गैलिशकुन
ग्रन्थकार नाम
नागचन्द्र
पायण्ण
बीरचन्द्र
पद्मनन्दि
पचनदि
कविता (1)
पद्मनन्दि
दामोदर
शुभकीर्ति
योगीन्द्रदेव, टी० बालचन्द्र संस्कृत कन्नड २३ कौमारसेन
संस्कृत
६१
कन्नड़
संस्कृत
प्रभाचन्द्र
केशव
अनेकान्त
मेघचन्द्र यतीश्वर
दुर्गसिंह
पद्मनन्दि, टी०
मद्विषेा
प्रभाचन्द्र
वेदव्यास संन्यासी
पूज्यपाद (?) वादीभकुमुदचन्द्र
बंधुवर्मा
बालचन्द्र
पद्मनन्दि
बंधुव
कनकनन्दि
श्रेष्ठिचन्द्र
श्रीधर
वादीभसिंह
वोम्मणरस
मल्लिषेण
भाषा
"
"
कन्नड
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
"
सं०, कन्नड़
23
"
"
,
י
"
ور
"
प्राकृत
33
संस्कृत
===
"
"
95
कलय
पत्र संख्या
44
१०
st
६
१०४
२०
३
३७
हैं
४५
१५
२
अनुमानिक लोकसंख्या
७२४
३०६२
८
४००
२५३
५००
६०००
३३
१३६२
६०
४ ०
५४
१०५
१०००
७१
८
३३४२
६४०
३३
६३
८४ ३६०७
१३८
४६००
१५
२०३
७००
[ वर्ष 2
५
विषय
*
स्तोत्र
प्रतिष्ठा
स्तोत्र
प्रथमानुयोग
पुराण
वैराक
स्तोत्र
E
व्याकरण
स्त्रोत्र
स्तोत्र
५२
१
१७
३५
६
३७
१४
१५६
३०
१६८
३८
२३५०
33
७ (?) ३०० (?) काव्य
पॉडवकथा
वैद्यक
संहिता प्रथमानुयोग
इम्यानुयोग
गणित
१२६
प्रथमानुयोग
३५ शकुनशास्त्र
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
श्रीचारुकीर्ति भट्टारक-भण्डार मूडबिद्रीके कुछ हस्त लि० ग्रन्थोंकी सूची
२११
भंडार
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
प्रानुमानिक श्लोक-संख्या
विषय
नं.
..HMK पत्र संख्या
२०
प्रथमानुयोग द्रव्यानुयोग प्रथमानुयोग
اس
مو
..
سم
EM. 1
x
चदुरचन्द्र केशवरण भुजबलिमुनि माणिक्यदेव पूज्यपाद ब्रह्मकवि जयदेव समन्तभद्र (?) सोमदेव जगन्नाथकवि प्रभुराज प्रभुराज
WAM
ام
काव्य प्रथमानुयोग अलंकार न्याकरण स्तवन
.
MGmmmm
Wm G Emmx m NKWKG Nm WK 0 0 1 GM MCK KIMmm x 2
३६६५
MMM.
x
::
प्रथमानुयोग शिल्पशास्त्र प्रथमानुयोग
कन्नड
५३५ ३८०
संस्कृत
"
"
कन्नड
प्रथमानुयोग
गोम्मटस्वामिचरित्र गोमट्टसारटीका गोमटेश्वरस्वामिचरित्र चन्द्रनाथाष्टक चन्द्रप्रभस्वामिगद्य चन्द्रप्रभचरित्र चन्द्रलोकालंकार चिन्तामणिटीका
चिन्तामणिस्तवन १४५ जगन्नाथ विनयचरित्र
जयकुमारषट्पद जयकुमारचरित्र जिनबिम्बलक्षण जीबंधरचरित्र (अपूर्ण) जीवंधरचरित्र जीवंधरषट्पद ज्ञानचन्द्रषट्पद तत्वनिश्चय तवरत्नप्रदीपिका | तन्वार्थवृत्ति (अपूर्ण) ६४ तम्वार्थसूत्र लघुवृत्ति ? ४५६ त्रिपदाशीति
त्रिभंगी-टीका त्रिलोक प्रज्ञप्तिसार त्रिलोकसार-व्याख्यान
त्रिष्टिमहापुराण २८५ त्रैलोक्यरक्षामणि
दानपंचाशत् १८० दानसार
देशवतोद्योतन
द्रव्यसंग्रह-लघुवृत्ति (अपूर्ण) २१ द्वादशानुप्रेक्षा १२१ धर्मनाथपुराण ८८ धर्मपरीक्षा
सस्कत
.
११४
८८०५
कन्नड
२६(१)
:
संस्कत
३५२
वसवण्य ब्रह्मय्य भास्कर कल्याणकीर्ति प्रवरकीर्ति बालचन्द्र माघनन्दी दिवारकभट्टारक पभनन्दि देवसूर्य रामचन्द्र अभयचन्द्र मल्लिषेण नागेन्द्र पद्मनन्दी प्रमाचन्द्रदेव पत्रनन्दी बालचन्द्र विजयण बाहुबलीव्रती वृत्तविनास
. . 00 m
द्रव्यानुयोग
प्राकत
३१२
. . . . .:::.:
२२५० ५०३६ २०..
..MAM
१४७
संस्कृत
K००
AM. M . WK K
कसड
१४७
संस्कृत
.
चरणानुयोग प्रथमानुयोग
१२००
.
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१२
अनेकान्त
[ वर्ष ५
भंडार
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
पत्रसंख्या
श्रानुमानिक श्लोक सं०
विषय
नं०
कन्नड़ संस्कृत
० ०
० Gax
० ०
० ० ०
३६६
m
१००
३४०
ध्यान
कमड़ संस्कृत कमह संस्कृत कन्नड़ संस्कृत
०
२२५
प्रथमानुयोग
६८३ २५२
x
वैद्यक
कन्नड
nx .wwwxmmm KM
संस्कृत
०
० ६०.K
०
० m ० K
३२१
कन्नड
संस्कत
.NEW
कन्नड
धर्मामृतकथा
नयसेन धर्मरायनीति २३६ धर्मोपदेशामृत मूल पद्मनन्दी ५६४ ध्यानलक्षण ध्यानस्तव
भास्करनन्दी ३३६ ध्यानस्वरूप ध्यानामृत
अभयचन्द्र नागकुमारचरित्र
बाहुबलीकृत नागकुमारचरित
रत्नयोगीन्द्र नाडीपरीक्षा
पूज्यपाद ५३ नानाथरत्नाकर
नागवर्म ४३२ नानाथसंग्रह
रामचन्द्र नन्दीश्वर चरित्र
चन्द्रय्य उपाध्याय नोदिमंगल नित्यपचाशतक
नन्दिगुरू नीतिरसायन
शुभचन्द्र १२२ । नेमिनाथपुराण
कर्णपार्य १६६ न्यायदीपावली (विवेकव्याख्यान अमृतनं दि ४६८ पदार्थमार
माघनन्दी ३२२ पदार्थसार (अपूर्ण) ३६८ | पदार्थसार टीका (अपूर्ण) टी. नेमिचन्द्र पदार्थसार
याचरण परमागममार
पार्श्वकीर्ति परमात्मप्रकाश-टीका बालचंद्र परीषहजय
मुकन्दक पंचगुरुमोक्षपदलक्षण बालेन्दु ३११ पंचपरमेष्ठिबोल
बालचन्द्र ३७१ पंचपरमेष्ठिव्याख्यान माघनं दि पंचपरूवणा
कनकनंदी ७०८ पंचसंसार
नेमिचन्द्र पंचास्तिकाय-टीका
पद्मप्रभमलधारी पंपरामायण सटीक कविपंप, टी०भ० सहस्रकीर्ति १६ | पार्श्वनाथाष्टक (अपूर्ण) माणिक्यदेव ३२१ | पार्श्वनाथपुराण, पार्श्वनाथ
पुराण
संस्कृत
६००० १००८? २७३० २५५६
प्राकत
WW
संस्कत
m K
. Ww.G CMW WCWCी
G . 6
२३
प्राकृत
कनड़
.
३७ ? १०४० १०५० द्रव्यानुयोग ६५६३ | प्रथमानुयोग
८?
स
.
कन्नड़
८२
१००
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
श्रीचारुकीर्ति भट्टारक-भण्डार मूडबिद्रीके कुछ हस्त लि० ग्रन्थोंकी सूची
२१३
भंडार नंबर
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्धकार-नाम
पत्र-संख्या
अनुमानिक श्लोक-संख्या
विषय
।
३.
स्तवन
इन्द्रनंदी जिनसेन नागराज
काव्य
०
प्रथमानुयोग
८०..
२६२ ३४५२ १०३
.
१२३
संस्कृत
प्रतिष्ठा प्रथमानुयोग
०
कत
१५१२
३२७ १५१७
गुणवर्म
कन्नड बाहूबली
प्राकृत प्रभाचन्द्र कुमुदचन्द्र मंगरस
कन्नड यशोधर महासेन महामेन (?) समन्तभद्र चिसुग्वमुनि मल्लिषेण बालचन्द्र विमलकवि बालचन्द्र
ब्रह्मसरे | पूज्यपाद, नेमीचन्द्र. पद्मनंदी
१६६
२००० ७६.?
३६१
०
क
ho
पार्श्वनाथस्तोत्र २०२ | पाभ्युिदय काव्य
पुण्याश्रव (अपूर्ण) ४४४ पुरुदेवचरित्र (अपूर्ण)
पुष्पदन्तपुराण
पूर्वानुप्रेक्षा २३८ प्रतिक्रमणत्रय ३०२ । प्रतिष्टाकल्प
प्रभंजनगुरुचरित्र ६६८ प्रभंजनगुरुचरित्र (अपूर्ण) ४१८ प्रद्युम्नचरित्र
प्रमाण निर्णय ७३१ प्रमाणपदार्थ (अपूर्ण)
प्रमाणमानातात्पर्य
प्रवचनपरीक्षा ५६३ प्रवचनसारटीका ३५३ प्रश्नोत्तरमालिका १७५ बंधूपदेश २८० ब्रह्मपरिसंहिता
व्याधिचिकित्सा ४४८ भरतेश्वरपुराण
भव्वजनकंठरलाभरण भावनापंचक भावसंग्रह भाषाभूषण भुजबलीकल्याण मल्लिनाथपुराण महापुराण टिप्पण महाभिषेक मोक्षप्राभृत-टीका
यशोधरचरित्र २२५ | यशोधरचरित्र ६८६ यशोधरचरित्र २४१ । यशोधरचरित्र-टीका
४१८
५०
वैद्यक
११५० चिकित्सा
कन्नड़
संस्कृत
प्राकृत
३२०० ४०..? करणानुयोग १०. व्याकरण
संस्कत
प्रथमानुयोग
. 2G MM xnx M० ०
अभयचन्द्र मुकुन्द्र कनकनंदी नागवर्मा पद्मनन्दी नागचन्द्र गुणभद्र गुणभद्र बालचन्द्र जानकी (?) चन्दनवर्णी प्रभंजन
३५४२ ८५१० २०००
कन्नड
द्रव्यानुयोग प्रथमानुयोग
संस्कृत कन्नड
३५००
लक्षमण
४२१३२०
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
भडार नम्बर
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
अनुमानिक श्लोक-सख्या
विषय
: पत्र संख्या
२६०
कन्नड़
प्राकत
.
ann
कन्नड़ संस्कृत
५
२६००
२३० ३५७०
०
कमड़ प्राकृत संस्कृत
०
१७०० ४३४३
कन्नड
६३० ७३५
संस्कत
m
9mxam ०
कवीन्दु (कविचन्द्र) प्रभाकर देवेन्द्र हंसराज अरलश्रेष्ठि समन्तभद्र अभिनवगुप्त चन्द्रकवि मेग्नंदि पद्मकवि वाणिवल्लभ केशव सनत्कुमारमुनि देवेन्द्र हस्तिमल्ल पध्रप्रम हस्तिमल्ल पुष्पसेन विमल नागवर्मा मू० शाकटयन ब्रह्मदेव अग्गलकवि माणिक्यदेव विद्यानंदि केशवर हस्तिमल्ल
मंत्रशास्त्र
प्राकत
योगरत्न कर २०८ योगीन्द्रगाथा
योगीन्द्रगाथा (हे) २०६ रखाकरशतक
राघनपांडवीयंकाव्यं-टीका ४३१ लिंगानुशासन (अपूर्ण)
लोकलोचनालंकार (अपूर्ण) लोकस्वरूप लोकस्वरूप वर्धमानकाव्य वर्धमानपुराण वर्धमानपुराण (अपूर्ण) वास्तुशास्त्र (अपूर्ण)
विदग्धतार्किक ७४३ विद्यानुवादांग
विंशतिप्ररूपणा ६०४ वृषभनाथगद्य २३८ वृषभनाथगद्य
व्रतस्वरूप
शब्दसम्पत्तिशास्त्र २६६ शब्दानुशासनं ७०३ शांतिनाथपुराण (अपूर्ण)
शास्त्रसारसमुच्चय (अपूर्ण) १६ शीलगुणवर्णन (अपूर्ण) ४५२ श्रावकाचार १५८ श्रीपालचरित्र
श्रीपुराण ५२१ श्रुतकीर्तिमुनिचरित्र
| शृंगारसुधाब्धि
षट्कारकाणि ३१५ षटदर्णनप्रमाण
सकलागमसार २२८ सत्यशासनपरीक्षा ६५८ | समयपरीक्षा
666m 6.
WK GK on 11 WMAK.द.mG ME GKWKx Mom GK 0 ० x 400 G०G
K COMSINMomnm 14
संस्कृत
. GM WWG: No 1
४४७
०
०
WWm Co
०
०
प्रथमानुयोग
६३०
2.
०
M
संस्कृत कन्नड संस्कृत
प्रथमानुयोग
संस्कृत
१२ १०००
३५० १५८० १९७३
S
मंगरस विनश्वरनंदि शुभचन्द्र
संस्कृत संस्कृत संस्कत
न्याय
विद्यानंदि ब्रह्मदेव
W MM
१७४० २४७३ ६०३
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ५]
पंचायती मन्दिर सोनीपत के कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची
भंडार
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
श्लोकसंख्या
विषय
.
. . . पत्र संख्या
संस्कृत
२०२
१०० १५३०
. л с
е м
л KNNo. xn"00
л с е д н с
१३०
योगीन्द्र
समयसार
अमृतनंदि ७४१ समवशरणस्तोत्र
हस्तिमल्ल समाधिशतक
पननंदि समाधि-टीका
पारस ५ । सरस्वतीसमय
गौतमस्वामी | सहजारमप्रकाशिका
कनकचन्द्र सहजातत्मप्रकाशिका ४७२ मिरसगद्य
शांतिकीति सिद्धान्तसार
भवसेन , सिद्धान्तप्रकृति (अपूर्ण) गौतम २८५ सिंह योपगमन
केशवएण ३७१ सुवर्णभद्राचार्यचरित्र कविपद्मनाभ २८१ स्याद्वादभूषण
अभयचन्द्र ६६३ स्वरूपसंबोधन-टीका केशवसेन ३१ स्वरूपसंबोधनपंचविंशतिका । पद्मनन्दि
६००
1
७०० १०००
-
१५
२६२ १४१३
८८ 6
वीरमेवामन्दिर, सरसावा
पंचायती मन्दिर सोनीपतके कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची
सोनीपत जि० करनाल के पंचायती मन्दिरमे जैनशास्त्रोका एक अच्छा भण्डार है । हाल में बाबू माईदयालजी जेन बी०ए०, डिप्टीगंज, देहलीने अपने पांच दिन इम भण्डारको देखने और उसकी नई सूची बनाने में खर्च किये हैं, जैसा कि उनके लेग्य जनशास्त्रभण्डार सोनीपन म मर पांच दिन' शीर्षकमे प्रकट है, जो इसी किरणम अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है। बाबू साहबने इस शाम्भारकी सूची तय्यार करके भेजने का जो परिश्रम उठाया है उसके लिये मै उनका बहुत आभारी हूँ । इसी तरह दूसरे विद्वान भी यदि थोड़ा थोड़ा परिश्रम उठाएँ तो बृहत् सूचीका काम बहुत कुछ मरल तथा प्रमाणिक हो सकता है । इस महत्वके काम में सभी विद्वानोंके योग देनेकी ज़रूरत है और उन्हें ऐसा करना अपना कर्तव्य समझना चाहिये । अस्तु; बाबू साहबने जो सूची तय्यार करके भेजी है, उसमें ३७२ ग्रन्थ हैं। इनमम जिन ग्रन्थांकी एकमे अधिक प्रतियाँ हैं उनका नोट सूची के कैफियत (विशेप विवरण ) के खानमें किया हुआ है । इसम हस्तलिखित ग्रंथोकी संख्या प्रायः इतनी हो समझनी चाहिये । इस सूची परसे नीचे उन ग्रन्थोंकी ही सूची दी जाती है, जो अनेकान्तकी गत किरणोंमें अब तककी प्रकाशित सूचियोंमें नहीं आए हैं । बाबृ साहबने यह भी सूचित किया है कि इस भण्डार के किसी ग्रंथकी यदि कोई कापी कराना चाहे तो कराई जा सकती है, यह बड़ी अच्छी बाब है। सोनीपतके भाइयोंकी इस उदारतासे साहित्यप्रेमी जन यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं।
संपादक
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१६
अनेकान्त
[वर्ष ५
वेष्टन नं०
ग्रंन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भापा
पत्रसंख्या रचनासं लिपिसंवत
हिन्दी
८०३
रायमल खुशालचंद्र
१७६५
संस्कृत
१२७
१३३ ३५६ ३२४ १३७ २२
२३७
१६०० १७२३
गुणकीर्ति भारमल्ल जवाहरलाल हेमचंद्र रायमल पं० टोडरमल (?) भ० सकलकीर्ति प्रभाकरसेन जिनचंद्र
१३० ५०६
१८२३
१००
१६२ २८८ १२७
१६६०
प्राकृत
आदिपुराण उत्तरपुराण कविप्रबन्ध कायबल चौपाई चारुदत्तचरित्र त्रैलोक्यसार नेमिनाथपुराण पद्मपुराण पंचास्तिकायटीका पार्श्वनाथचरित्र | प्रतिष्ठापाठ प्रझम्नचरित्र प्राकृतकोप प्राकृतव्याकरण भद्रबाहुचरित्र भवनभाव मित्रविलास मृगावती चौपाई मृत्युमहोत्सव लघुमामायिक वर्तमानपुराण बीसविहरमानपूजा श्रीपालचरित्र सम्यक्त्वकौमुदी सुकुमालचरित्र (जीर्ण) सूत्रपंचर्या (?) हरिवंशपुराण
हिन्दी
१६५० १७८३
३
११२ १३४ ३०१
६०५
संस्कृत
प्राचार्य श्रीचंद्र किसनसिंह हरजसराय घीसामल कर्मचंद्र अकलंक भविराज नवलशाह अमरचंद्र रामदास कासीदास आचार्य वीरनंदी
२६५%
१८६५
४२
१६२५
१७० ११५ १५६
प्राकृत
१६८५
२१३ १२०
११६
पं० लखमीदास
हिन्दी
२०८
१८२४
वीरसेवामन्दिर, सरसावा।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तके सहायक
वीरसेवामन्दिरको फुटकर सहायता
'भनेकान्त' की किरण १.२ में प्रकाशित सहायताके अब तक जिन सजाने अनेकान्तकी ठोस सेवाओं के बाद वीरसेवामन्दिर सरसावाको ५६). फुटकर पनि
सहायता निम्न सजनोंकी भोरसे प्राप्त हुई है, जिसके लिए मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्यमें प्रगति करने दातार महानुभाव धन्यवादके पात्र हैं:श्रीर अधिकाधिक रूपसे समाजसेवाओंमें अग्रसर होने २५) ला० कुन्थदासजी जैन, वाराबंकी (पिता श्री गुलाबलिये सहायताका वचन देकर उसकी सहायकश्रेणीमें अपना
रायजीके स्वर्गवासके अवसरपर निकाले हुए दानमेंसे) नाम लिखाया है उनके शुभ नाम सहायताकी रकम-सहित
२१)ला. मक्खनलालजी ठेकेदार, दरियागंज, देहली। इस प्रकार हैं:
५) बा. पक्षालालजी जैन अग्रवाल व ला० रतनलालनी २२५) बा. छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता।
जैन कपडे वाले (पुत्र-पुत्रीके विवाहकी खुशी में)। १०१) बा. अजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ।
ला. बाबूरामजी जैन, मालिक फर्म बाबूराम मूलचंद १०१) बा. बहादुरसिंहजी सिंघी, कलकत्ता।
मोरगंन, सहारनपुर (लायब्रेरीमें कोई जैनग्रन्थ १००) साहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर ।
मँगानेके लिये) अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' १००) बा० शांतिनाथ सुपुत्र बा० नन्दलाल जी, कलकत्ता। 'अनेकान्तं को सहायता १००) सेठ जोखीरामजी बैजनाय जी सरावगी, कलकत्ता। गत किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्तको १००) साहू श्रेयाँसप्रसादजी जैन, लाहौर ।
द्वितीयमार्गसे १७॥) रु. की जो सहायता प्राप्त हुई है १००) बा० लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक । वह निम्नप्रकार है और इसके लिए दातार महाशय १००) वा. जयभगवानजी वकील आदि जैनपंचान, पानीपत धन्यवाद के पात्र है:१००) ला० तनसुखरायजी जैन, न्यू देहली।
१०) गुप्त सहायता, सदरबाज़ार देहलीके उन्हीं परोपकारी ५१)रा-ब-बा- उलफतरायजी जैन रि०. इजीनियर, मेरठ महानुभावकी ओरसे जो इससे पहले इसी मदमें ५०) ला० दलीपसिंह काग़ज़ी और उनकी मार्फत, देहली।
३६॥) की सहायता भेज चुके हैं और जिन्होंने २५) ५० नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई।
अपना नाम पत्रमें प्रकट करनेसे मना किया है। २५) ला० रूढामलजी जैन शामियाने वाले सहारनपुर ।
(४ विद्वानोंको और 'अनेकान्त' फ्री भेजनेके लिए)। २५)बा० रघुबरदयालजी जैन एम०ए०करोलबाग देहली।७॥) लालचमीचन्दजी जैन सेठी, केकड़ी जि. अजमेर २५) सेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर ।
(पांच संस्थाओं तथा व्यक्तियों को 'अनेकान्त' एक २५) ला. बाबूराम अकलङ्कप्रसादजी जैन, तिस्सा जिला
वर्ष तक अर्धमूल्यमें देनेके लिये)।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' मुजफ्फरनगर।
(पृष्ठ २०८ का शेष) २५) सवाई सिंघई धर्मदास भगवानदासजी जैन, सतना।
बनकर उनके स्वयं ज्ञानी बनें और समाजको ज्ञानी बनामेका २५) ला. दीपचन्दजी जैन रईस, देहरादून । २५) चा० प्रद्युम्नकुमारजी जैन रईस, सहारनपुर ।
सतत प्रयत्न करते रहें । मैं मानता हूं कि ये सब बाते
महसे कह देना श्रासान है, किन्तु करना कठिन है, क्योंकि २५) मुंशी सुमतप्रसादजी जैन रि० अमीन, सहारनपुर । भाशा अनेकान्तके प्रेमी दूसरे सजन भी आपका
इसके लिये दानियोंमें भी सुलझी हुई सदिच्छा होना
आवश्यक है। जब तक उनकी समझमें यह बात भलीभाँति अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल
नहीं बैठ जाती जब तक ग्रन्थागार या ग्रन्थाध्यक्ष इस दिशा बनानेमें अपना पूरा सहयोग प्रदान करके यशके भागी
में एक कदम भी भागे नहीं बढ़ सकते । निस्सन्देह दानियों बनेंगे।
की सदिच्छासे ही ऐसा साधक बुधजनोंका संग्रह हो सकता व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
है, इसलिये उनका ध्यान तो इस ओर सबसे पहिले जाना वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) चाहिये।"
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
Registered No. A- 731.
अनेकान्तके प्रेमी सज्जन
1
अनेकान्तसे प्रेम रखने वाले सज्जन सात प्रकारके हैं
एक प्रेमी वेजो 'अनेकान्त' पत्रको प्रेमके साथ मँगाते हैं, पढ़ते हैं और दूसरोंको पढ़ने के लिये देते हैं; ये प्रेमी ग्राहक सज्जन हैं ।
दूसरे प्रेमी व जो 'अनेकान्त' पत्रको स्वयं मँगाते ही नहीं किन्तु दूसरोंको मँगानेकी प्रेरणा करते हैं और उन्हें ग्राहक बनाते हैं तथा अनेकान्त के लेखोंका परिचय देते हैं; ये प्रेमी प्रचारक सज्जन हैं ।
नोसरे प्रेमी व जो यह चाहते हैं कि 'अनेकान्त' पत्र बराबर चालू रहकर समाजकी ठोस सेवा करता रहे। सेवाके लिये उसे अधिकाधिक प्रोत्साहन मिले तथा घाटेके कारण उसके बन्द होनेकी नौबत आवे, और इसलिये जो पच्चीस, पचास, सौ या सौसे अधिक रुपयोंकी एकमुश्त सहायता प्रदान करके उसके सहायकोंकी चार श्रेणियों में से किसीमें अपना नाम लिखाते हैं; ये प्रेमी सहायक सज्जन हैं।
ale प्रेमी व जो 'अनेकान्त' की सेवाओंसे प्रसन्न होकर विवाह शादी यादि दानके अवसरों पर अनेकान्तका बराबर ख़याल रखते हैं और उसे स्वयं सहायता भेजते तथा दूसरोंसे भिजवाते हैं, ये प्रेमी अनुसहायक सज्जन हैं ।
पाँचव प्रेमी - जो 'अनेकान्त' के लिये उपहार या पुरस्कारकी योजना करते हैं, उसके ग्राहकोंको उपयोगी ग्रन्थ उपहार में देते - दिलाते हैं तथा लेखकोंको उत्तम लेखोंके लिखनेकी प्रेरणा के लिये पुरस्कार निकालते हैं, अनेकान्त में प्रकाशित ऐसे लेखोंपर पुरस्कार देते हैं या उन्हें पुस्तकाकार में अलग प्रकाशित करके वितरण करते हैं, और इस तरह अनेकान्तके प्रचार में सहायक बनते हैं; ये प्रेमी प्रचार-सहायक सज्जन हैं ।
ad मी * जो 'अनेकान्त में लिखना अधिक पसन्द करते हैं, उसके योग्य लेखोंके लिये बराबर परिश्रम करते हैं और अपने लेखोंसे उसे ऊँचा उठाना तथा समृद्ध बनाना जिन्हें सदा इष्ट रहता है; ये प्रेमी सुलेखक सज्जन हैं।
सातव प्रेमी के जो 'अनेकान्त' के लेखोंसे प्रभावित होकर यह चाहते हैं कि अनेकान्त-साहित्यसे जो लाभ हम उठा रहे हैं उसे वे दूसरे विचारक लोग भी उठाएँ जो अनेकान्तसे बिल्कुल अपरिचित हैं, उसके मंगाने की प्रेरणा से रहित हैं अथवा मँगानेके लिये थोड़े बहुत असमर्थ हैं, और इसलिये जो अपनी ओर से उन्हें अथवा जैन- जैनेतर संस्थाओं को अनेकान्त बिना मूल्य या अर्ध मूल्यमें भिजवाते है; ये प्रेमी परोपकारक सज्जन हैं। ऐसे परोपकारियोंके परोपकार कार्यमें अनेकान्त कार्यालय भी कुछ हाथ
है, अर्थात चारको यदि अनेकान्त बिना मूल्य भिजवाना चाहते हैं तो उनसे १२) रु०के स्थानपर १०) रु० ही लेता है ।
अनकान्नके ऐसे सभी प्रेमियों के बढ़नेकी इस समय नितान्त आवश्यकता है, जिससे अनेकान्त पत्रको इच्छानुसार ऊँचा उठाया जासके और इसके जिस साहित्य के सृजन में इतना अधिक परिश्रम किया जाता है वह लोक अधिकाधिकरूपसे प्रचार पासके जनता उससे समुचित लाभ उठासके ।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ज़ि० सहारनपुर ।
प्रकाशक, मुद्रक पं० परमानंद शास्त्री वीरसेवामंदिर सरसावाके जिये श्यामसुन्दरलालद्वारा श्रीवास्तवप्रेस, सहारनपुर में मुद्रित
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
Saraswation SUPERSONICATIHAR
H
RAUMANHEREDISepal
कानता
एकनाकर्षन्ती लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरंग । अन्तेन जयति जैनी नीतिमंन्धाननेत्रमिव गोपी॥
AAS
DEE
SHARE
विधय
उभयानुभय तत्व
तत्व
TRIES
HERE
A
अनकान्तात्मक
निपध्यानुपर तत्व
वस्तुतत्त्व
qalprete
REINS
उभयतत्व
वधयानुभ
तत्व AUTAMOUSA
FORSERata
अनुभय fra
वर्ष ५
कि,६-७
|विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि नहिशेषः प्रत्येक नियमविषयचाऽपरिमितः । सदाऽन्योऽन्यापेतः सकलभुवनज्येष्ठगुरुगा वया गीतं नत्वं चहुनय-विवन्ननग्वशात् ।।
सम्पादक- जगल किटोव पूरलार -
फुलाई १६४२
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची . समन्तभद्र भारतीके कुछ नमूने-[सम्पादक पृष्ट २९ अपभ्रंश भाषाका शांतिनाथ चरित्र-पं. परमानंद १५३ २ तत्त्वार्यसूत्रका मंगलाचरण-[पं०दरबारीलाल जैन २२१/१० चूनडी ग्रन्थ-[पं० दीपचन्द पाण्ख्या २५७ ३ श्री दादीजी (चित्र)-जुगलकिशोर मुख्तार २३७११ वीर-शासन-जयन्ती (कविता)-[श्रीमोमप्रकाश शर्मा २६ ४ अभिनन्दनपत्र-वीर सेवकसंघ म्यू देहली २३६१२चामुण्डराय और उनके समकालीनप्राचार्य नाथूराम २६२ ५ वा. जिनेश्वरदास संघवी (मचित्र)-सम्पादक २४०५३ वीरसेवा में वीरशासनजयंती उत्सवपिंदरबारीलाब २६२ ६ गो० का दर्शन और श्र० संस्मरण[.सुमेरचंद २०१४ पथिक (कविता)-[श्री बद्द लाल जैन
२६७ • भादमी, जानवर, या बेकार ? (कहानी)-श्रीभगवन् २४८१५ बुद्धिवाद-विषयक कुछ विचार-दौलतराम मित्र २६८ ८ रत्नाकर और रत्नाकराधीश्वर शतक [पं० भुजबली २५११६ श्रवणबेलगोल और इन्दौरके हलि. ग्रंथों की सूची २६॥
अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग 1-२५),५०)१००) या इससे अधिक रक्रम देकर बराबर ख़याल रखना और उसे अच्छी सहायता भेजना सहायकोंकी चार श्रेणियों में से किसी में अपना नाम लिखाषा तथा भिजवाना जिससे अनेकान्त अपने अच्छे विशेषाङ्क
२-अपनी भोरसे असमर्थों को तथा प्रजैन संस्थानों निकाल सके, उपहार ग्रंथोंकी योजनाकर सके और उत्तम को भनेकान्त फ्री बिना मूल्य या अर्धमूल्यमें भिजवाना। लेम्बों पर पुरस्कार भी देसके । स्वत: अपनी पोरमे उपहार
और इस तरह दूसरोंको अनेकान्तके पढ़नेकी सविशेष प्ररणा ग्रंथोंकी योजना भी इस मदमें शामिल होगी। करना। (इस मदमें सहायता देने वालोंकी ओरसे प्रत्येक ४--अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना और दस रुपयेकी सहायताके पीछे भनेकान्त चारको फ्री अथवा अनेकान्तके लिये अच्छे २ लेख लिख कर भेजना, लेखोंकी माठको मर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा।
। सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकाशित होनेके लिये उपयोगी ३--उत्सव-विवाहादि दानके प्रवपरीपर अनेकान्नका चित्रांकी योजना करना, कराना ।--'व्यवस्थापक अनेकान्त'
प्रार्थनाएँ
"अनेकान्त" किसी स्वार्थ-बुडिसे प्रेरित होकर अथवा । चाहिये और हो सके तो युक-पुरस्सर संयतभाषाम लेखक प्राधिक उद्देश्यको लेकर नहीं निकला जाता है, किन्तु
| को उसकी भूल सुभानी चाहिये। वीरमेवामन्दिरके महान् उद्देश्योंको सफल बनाते हुए लोक । 'भनेकान्य" की नीति और उद्देश्यके अनुमार लेन हितकी साधना तथा सभी सेवा बजाना ही इस पत्रका एक लिखकर भेजने के लिये देश नथा समाजके सभी सुलेखको माघ ध्येय है। अतः सभी सजनी को इसकी उमति में | को श्रामन्त्रण है। महायक होना चाहिये । सहायनाके चार मार्गोपर खास तौर __"अनेकान्त" को भेजे जाने वाले लेखादिक कागज़की से ध्यान देना चाहिए।
एक ओर हाशिया छोड़कर सुवाध्य अक्षरोमें विखे होने जिन सजनों को अनेकान्तके जो लेख पसन्द मार्ग,
चाहियं । लेखोंको घटाने, बढ़ाने, प्रकाशित करने न करने, उन्हें चाहिये कि वे जितने भी अधिक भाइयों को उनका लौटाने न लौटानेका सम्पूर्ण अधिकार सम्पादकको है। परिचय करासकें ज़रूर कराएं।
अस्वीकृत लेख वापिस मंगानेके लिये पोस्टेज खर्च भेजना यदि कोई लेब अथवा लेखका अंश ठीक मालूम न श्रावश्यक है। लेख निम्न पतेसे भेजने चाहिय :-- हो, अथवा धर्मविरुद्ध दिम्बाई दे, तो महज़ उमाकी वजह के किसीको लेखक या सम्पादकम्मे द्वषभाव न धारण करना
मम्पादक 'अनेकान्त' चाहिये, किन्तु अनेकान्त-नीतिकी उदारनामे काम लेना
वीरसेवामन्दिर, सरसाषा, लि. महारनपुर अनेकान्तका मूल्य-वार्षिक छह मासका २) एक किरणका - आना
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
*
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
अ
वर्ष ५ करण ६-७
* ॐ अर्हम् *
न का
| नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर पाद-श्रावण वीरनिर्वाण सं० २४६८, विक्रम सं० १६६६
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
[ ६ ]
श्रीपद्मप्रभ-जिन स्तोत्र
--
तत्त्व-संघोतक
पद्मप्रभः पद्मपलाशलेश्यः पद्मालयाऽऽलिगितचारुमूर्तिः ।
वो भवान भव्यपयोरुहाणां पद्माकराणामिव पद्मत्रन्धुः ॥ १ ॥
*-9929098
जुलाई-अगस्त १६४२
'पद्म-पत्रके समान द्रव्यलेश्याके— रक्तवर्णाभ-शरीरके—धारक ( और इसलिये श्रन्वर्थसंज्ञक ) हे पद्मप्रभजिन ! पकी ( आत्मस्वरूप तथा शरीररूप ) सुन्दरमूर्ति पद्मालया - लक्ष्मी प्रालिंगित रही है- श्रात्मस्वरूप मूर्तिका अनन्तज्ञानादि-लक्ष्मी ने तथा शरीररूपमूर्तिका निःस्वेदतादि-लक्ष्मीने दृढ आलिंगन किया है, और इस तरह आपकी उभय प्रकारकी मूर्ति उभय प्रकारकी लक्ष्मीकेशोभाके साथ तन्मयताको प्राप्त हुई है । और आप भव्यरूप कमलोंको विकसित करनेके लिये उनका श्रामविकास सिद्ध करनेके लिये - उसी तरह भासमान हुए हैं जिस तरह कि पद्मबन्धु-सूर्य पद्माकरोंका - कमलसमूहका — विकास करता हुआ सुशोभित होता है।'
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
२१८
अनेकान्त
[वर्ष ५
बभार पद्मा च सरस्वती च भवान् पुरस्तात्प्रतिमुक्तिलक्ष्म्याः ।
सरस्वतीमेव समग्रशोभां सर्वमलक्ष्मी-ज्वलितां विमुक्तः ॥२॥ 'आपने प्रतिमुक्ति-लक्ष्मीकी प्राप्तिके पूर्व-अर्हन्त अवस्थासे पहले लक्ष्मी और सरस्वती दोनों को धारण किया है-उस समय गृहस्थावस्थामें श्राप यथेच्छ धन-सम्पत्तिके स्वामी थे, अापके यहां लक्ष्मीके अटूट भण्डार भरेथे, साथ ही अवधि-ज्ञानादि-लक्ष्मीसे भी विभूषितथे और सरस्वती अापके कण्ठमे स्थित थी। बादको विमुक्त होने पर-जीवनमुक्त (अर्हन्त) अवस्थाको प्राप्त करने पर-श्रापने उस पूर्णशोभा वाली सरस्वतीको-दिव्य वाणीको-ही धारण किया है जो सर्वज्ञ-लक्ष्मीसे प्रदीप्त थी-उस समय आपके पास दिव्यवाणीरूप सरस्वतीकी ही प्रधानता थी, जिसकेद्वारा जगतके जीवोंको उनके कल्याणका मार्ग सुझाया गया है।'
शरीर-रश्मि-प्रसरः प्रभोस्ते बालार्क-रश्मिच्छविरालिलेप ।
नराऽमराकीणे-समां प्रभा वा शैलस्य पद्माभमणेः स्वसानुम ।। ३॥ ___ 'हे प्रभो ! प्रात:कालीन सूर्य-किरणोंकी छविके समान--रक्तवर्ण श्राभाको लिये हुए आपके शरीरकी किरणोके प्रसार (फैलाव) ने मनुष्यों तथा देवताओंसे भरी हुई समवसरण-सभाको इस तरह प्रालिप्त (व्याप्त) किया है जिस तरह कि पद्माभमणि-पर्वतकी प्रभा अपने पार्श्वभागको प्रालिप्त करती है।
नभस्तलं पल्लवयन्निव त्वं सहस्रपत्राम्बुजगर्भचारैः। .
पादाम्बुजैः पानितमारदो भूमौ प्रजानां विजहार्थ भूत्यैः ।। ४॥ (हे पद्मप्रभ जिन !) आपने कामदेवके दर्प (मद) को चूर चूर किया है और सहस्रदल कमलोंके मध्यभाग पर चलने वाले अपने चरण-कमलोके द्वारा नभस्तलको पल्लवोसे व्याप्त-जैया करते हुए, प्रजाकी विभृति के लिये-उसमे हेयोपादेयके विवेकको जागृत करनेके लिये-भूतल पर विहार किया है।'
गुणाम्बुधेविप्रपमायजम्य नारखंडलः स्तोतुमलं नवः।
प्रागेव मादकिमुताऽतिभक्तिी बालमालापयतीमित्थम ।। ५ ॥ 'हे ऋषिवर श्राप अज हैं-पुनर्जन्मसे रहित हैं-, श्रापके गुण समुद्र के लवमात्रकी भी स्तुति करनेके लिये जब इन्द्र पहले ही समर्थ नहीं हुआ है, तो फिर अब मेरे जैमा असमर्थ प्राणी कैसे समर्थ हो सकता है। यह आपके प्रति मेरी अति भनि ही है जो मुझ बालकसे-स्तुति-विषयमे अनभिज्ञमे-इस प्रकारका यह स्तवन कराती है।'
किया है और यह
थापादेयके विवेकको जाक द्वारा नभस्तलको पल
सुपार्श्व-जिन-स्तोत्र स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेप पुंसां स्वार्थो न भोगः परिभंगगत्मा।
तृपोनुषंगान्न च तापशान्तिरितीदमारख्यद्भगवान्सुपार्श्वः ॥ १ ॥ 'यह जो श्रात्यन्सिक स्वास्थ्य है-विभाव-परिणतिसे रहित अपने अनन्तज्ञानादि स्वाम-स्वरूपमै अविनश्वरी स्थिति है-वही पुरुषो का-जीवात्माओंका-स्वार्थ है-निजी प्रयोजन है, नणभंगुर भोग-इदिय-विषय-सुखका अनुभव-स्थार्थ नहीं है, क्योंकि इद्रिय-विषय-सुखके सेवनसे उत्तरोत्तर तृष्णाकी-भोगावांक्षाकी-वृद्धि होती है और उससे तापकी-शारीरिक तथा मानसिक दुःखकी-शान्ति नही होने पाती । यह स्वार्थ अस्वार्थका स्वरूप शोभन पार्थोंशरीरांगोके धारक (और इमलिये अन्वर्थ-संज्ञक) भगवान सुपाचंने बतलाया है।'
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७ ]
समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने
अजंगमं जंगमनेययंत्रं यथा तथा जीवतं शरीरं ।
श्रीमत्सु पूर्ति क्षयि तापकं च स्नेहो वृथाऽत्रेति हितं त्वमाख्यः ।। २ ।
' जिस प्रकार जंगम ( जड़ ) यंत्र स्वयं अपने कार्यमें प्रवृत्त न होकर जंगम पुरुषके द्वारा चलाया जाता है उसी प्रकार जीवके द्वारा धारण किया हुआ यह शरीर अजंगम है-बुद्धिपूर्वक परिस्पन्दव्यापार से रहित है—और एक यंत्रकी तरह चैतन्य पुरुषके द्वारा स्वस्यापार प्रवृत्त किया जाता है साथ ही बी हैपृात्मक है, पुति है-दुर्गन्ध युक्त है, यि है - नाशवान है—और तापक है - श्रात्मा के दुखोंका कारण है। इस प्रकारके शरीर में स्नेह रखना-प्रतिअनुराग बढ़ाना - वृथा है--उससे कुछ भी आत्मकल्याण नही संघ सकता, यह हितकी बात हे सुपार्श्वजिन ! आपने बतलाई है।'
अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्य लिंगा ।
अनीश्वरो जन्तुरकियार्तः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥ ३ ॥
'आपने यह भी ठीक कहा है कि हेतुद्वय के — श्रन्नरंग और बाह्म अथवा उपादान और निमित्त दोनों कारणोके अनिवार्य संयोग द्वारा उत्पन्न होने वाला काही जिनका लगा है ऐसी यह भविता (समुचित समर्थ उपदेश मिलने पर भी किसी की हित में प्रवृत्ति नही होने देती शक्ति है-किसी तरह भी टाली नही ती अहंकार पीडित हुआ भवितव्यतानिरपेच [संसारी प्राणी ( यन्त्र-मन्त्र-तन्त्रादि ) अनेक सहकारी कारथोकी मिलाकर भी सुम्पादिक कार्योंके सम्पन्न करनेमे मम नहीं होगा।
1
२१६
विभेति मूल्योने ततोऽस्ति मोक्षो नित्यं शिवं वांति नाऽम्य लाभः । तथाऽपि बालो भय-कान वश्या स्वयं तप्यत इत्यवादीः ॥ ४ ॥ आपने यह भी बतलाया है कि संसारी प्रति मेरता है परन्तु (अध्यकि भविकलाश उस मृत्यु छुटकारा नहीं मिय ही कल्याण अथवा निर्वाण चाहता है परन्तु (भावीकी उसी अध्यशक्तिवश उसका लाभ नही होता । फिर भी यह मूड प्राणी भय और इच्छाके वशीभूत हुआ स्वयं ही वृथा तप्ताममान होता है । डरने तथा इच्छा करने मात्र बनता तो कुछ भी नहीं, उलटा दुःख संताप उठाना पडता है ।'
सर्वस्य तत्त्वस्य भवान प्रमाता मातेव गुणावलोकस्य जनस्य नेता मया
वालम्य हितानुशास्ता ।
क्या परिनेव्य ॥ ४ ॥
'( सुपरजिन) आप सहजीवाद विश्व माना है—शादिरहित ज्ञाता हैं. माता जिस प्रकार बालकको हितकी-उसके भलेकी शिक्षा देती है उसी प्रकार श्राप हेयोपादेयके ज्ञानसे रहित बालकतुल्य जनसमूहको हितका - निःश्रेयस (मोक्ष) तथा उसके कारण सम्यग्दर्शनादिका -- उपदेश देने वाले हैं, और जो गुणावलोकीजन है--गुणोकी तलाश में रहने वाला भव्यजीव है-उसके आप नेता हैं-- स्वयं बाधक कारणको हटाकर
मी अनन्तदर्शनादि गुणोको प्राप्त करलेने के कारण उसे उन गुणोकी प्राप्तिका मार्ग दिखाने वाले हैं। इसीसे में भी इस समय भक्ति पूर्वक आपकी स्मृतिम प्रवृत्त हुआ हूं—मेरे भी आप नेता हैं, मुझे भी आपके सदृश, सनके प्रतापसे मामी गुणांकी प्राप्तिका मार्ग सूझ पडा है ।'
[ - ] श्रीचन्द्रप्रभ-जिन स्तोत्र
चंद्रप्रभं चन्द्र मरीचि-गीरं चन्द्र' द्वितीयं जगतीय कान्तम् । वन्देऽभवन्महतामृषीन्द्र जिन जितस्वान्त-कपाय-बन्धम ||१||
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ वर्ष ५
'मैं उन श्रीचन्द्रप्रभ-जिनको वन्दना करता हूँ, जो चन्द्रकिरण-सम-गौरवर्णये युक्त जगतमें द्वितीय चन्द्रमाकी समान दीप्तिमान् (और इस लिये ''इस सार्थक संज्ञा के धारक) हुए हैं, जिन्होंने अपने अन्तःकरण कानको जीता है-सम्पूर्ण क्रोधादिकषायक नाशकर अकपायपद एवं जनपद प्राप्त किया है और (इसी लिये) जो ऋद्विपारी मुनियों-गणधारिकों के स्वामी तथा महामाचोके द्वारा बन्दनीय हुए हैं।'
-
२२०
अनेकान्त
यस्याङ्ग- लक्ष्मी-परिवेप-भिन्नं तमस्तमोरेरिव रश्मिभिन्नम् । ननाश बा यह मानसं च ध्यानप्रदीपातिशयेन भिन्नम् ॥ २ ॥
'जिनके शरीरके दिव्यप्रभामण्डलले बाह्य अन्धकार और ध्यान- प्रदीप के अतिशय से परम शुल्कध्यानके तेल द्वारा — प्रचुर मानस अन्धकार - ज्ञानावरणादि कर्मजन्य श्रात्माका समस्त श्रज्ञानान्धकार उसी प्रकार नाशको प्राप्त हुन जिस प्रकार कि सूर्य की किरणोमे (लोकमे फैला हुआ ) अन्धकार भिन्न- विदीर्ण होकर नष्ट हो जाता है ।'
स्वपक्ष-सीस्थित्य मदाज्वलिता बासिंहनादैर्विमदा बभूवुः ।
प्रवादिनो यस्य मा गण्डा गजा यथा केशरिणो निनादैः ॥ ३ ॥
'जिनके प्रवचनरूप सिंहनाद को सुनकर अपने मत पक्षकी सुस्थितिका घमण्ड रखने वाले उसे ही निर्वाध एवं काव्य समझकर मदोन्मत्त हुए- प्रवादिजन (परवादी) उसी प्रकारसे निर्मद हुए हैं जिस प्रकार कि मदकरते हुए मस्त हाथी केसरीसिंह की गर्जनाश्रीको सुनकर निर्मंद हो जाते हैं।'
यः सर्वलोके परमेष्ठितायाः पदं बभूवाद्भुतकर्मतेजाः । अनन्तधामाऽक्षर-विश्वचक्षुः समन्तदुःखच्यशासन ॥ ४ ॥
'जो श्रद्भुत कर्मतेज थे-अपने योगबल से जिन्होंने पर्वत समान कठोर कर्म पटलोका छेदनकर सदाके लिए अपने धामासे उनका सम्बन्ध विच्छेद किया था अथवा शुक्लध्यानामिके द्वारा उन्हें भस्मीभूत किया था— (ऐसा करके) अनन्त तेजरूप अविनश्वर विश्वको जिन्होंने प्राप्त किया था केवलज्ञान केवलदर्शनके द्वारा जो विश्व तचक ज्ञाता-दृष्टा थे, श्रौर जो सब ओरसे दुःखोंके पूर्णक्षयरूप मोक्षके शास्ता - उपदेष्टा थे— जगत्को जिन्होंने मोक्षमार्ग का यथार्थ उपदेश दिया था, और इस तरह (इन्हीं गुणों के कारण ) जो सम्पूर्ण लोकमे — त्रिभुनमे - परमेष्टिताके - परमप्राप्तताके पदको प्राप्त हुए थे ।'
स चन्द्रमा भव्य कुमुदनीनां विपनदोषा-लव-लेपः ।
व्याकोश- चाङ न्याय मयूख मालः पूयात्पवित्रो भगवान्मनो मे ॥ ५ ॥
स्वयम्भूतंत्र
'वे दोपा = रात्रि, श्रभ्र = मेघ और कलंक = मृगछालादिके लेपसे रहित अथवा रागादिक दोषरूप अभ्र-कलंकके श्रावरण से वर्जित और सुस्पष्ट वचनोंके प्रणयनरूप - स्याद्वादन्यायरूप - किरण मालासे युक्त, भव्य कुमुदनियोंके लिए चन्द्रमा ऐसे पवित्र भगवान् श्रीचन्द्रप्रभजिन मेरे मनको पत्र करो उनके बन्दन कीर्तन, पूजन, भजन, स्मरण और अनुसरणरूप सम्यक् श्राराधनसे मेरा मन पवित्र होवे ।'
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया )
श्राचार्य उमास्वाति या उमास्वामीका 'तत्वार्थसूत्र' शास्त्रीजीके निर्णयका मुख्य आधार अग्विल जैनसमाजका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसे तत्त्वार्थाधि
और उमको जाँच गममूत्र, तत्त्वार्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र भी कहते हैं । इस सूत्रग्रन्थकी श्रादिमे मूलकारका कोई मंगलाचरण है या कि
पं. महेन्द्रकुमारजी शास्त्रीने, जिन्हें इस लेखमें आगे नही, और यदि है तो वह कौनसा पद-वाक्य है, यह बात
___ 'शास्त्री' पदसे उल्लेखित किया जाय, अपने निर्णयका अर्से से विवादापन्न चली पाती है। कुछ विद्वानोका
मुख्य प्राधार विद्यानन्दकी प्राप्तपरीक्षाके 'श्रीमत्तत्त्वार्थकथन है कि इस ग्रन्थके शुरूमे-'सम्यग्दर्शनज्ञान
शास्त्रातमलिलानधेः' इत्यादि पद्य और अष्टसहस्रीके
'शाम्बावनाग्रचित-स्तुति-गोचगप्तमीमांमितं' इत्यादि चारित्राणि मोक्षमार्गः' इस प्रथमसूत्रसे पहिले--प्राप्तस्तुति
मंगलश्लोकपर रक्खा है। इसीसे श्राप अपने लेखके शुरुमे ही श्रादिके रूपमे--कोई मंगलाचरण नही है, परन्तु दूसरे विद्वानोंका यह स्पष्ट मत है कि इस ग्रन्थकी आदिम
इन पद्योंका उल्लेख करते हुए लिखते हैं :मंगलाचरण-पद्य ज़रूर है और वह निम्न प्रकार है--
___“यह (उपर्युक.) श्लोक सर्वार्थ सिद्धि के मङ्गलश्लोकके मोक्षमार्गस्य नेतारं भत्तारं कर्मभूभृताम ।
रूपमें उपलब्ध है। प्राचार्य विद्यानन्दने अपनी प्राप्तपरीक्षा
इसी श्लोकमे वर्णित प्राप्तस्वरूपके परीक्षण के लिये बनाई जाना विश्वतत्त्वानां वन्दे तदगुणलब्धये ॥११ जिन विद्वानोंकी यह मान्यता है कि तत्त्वार्थसूत्रकी
है। प्राप्तपरीक्षाके अन्तमे स्वय लिखते हैं :श्रादिमे कोई मगलाचरण नहीं है वे इस मंगल पद्यको
श्रीमत्तत्वार्थशास्त्राद्भुतलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवम्य । तत्त्वार्थमनकी टीका 'समिद्धि' का बतलाते हैं. जो प्रात्थानारम्भकाले मकलमलभिदे शास्त्रकारीः कृतं यन।। श्रीपूज्यपाद-रचित है. क्योंकि सर्वार्थमिन्द्विके शुरूमें भी यह स्तोत्रं तीर्थापमानं पृथिनप्रथुपथं स्वामि मीमांसितं तन । मगलश्लोक विना किसी टाका-टिप्पणक पाया जाता है। इस विद्यानंदःम्वशक्त्या कथमपि कथितं मन्यवाक्यार्थसिद्धय मतको पुष्ट करने के लिये हालमे एक लेख श्रीमान न्यायाचार्य अर्थात-जो दीप्तरग्नोंके उद्भवका स्थान है. उस अदभुन प. महेन्द्र कुमार जी शास्त्री काशीका, जैनसिन्द्वान्तभास्कर समुद्र के समान तर गर्थशास्त्रक प्रोन्यानारम्भकाल--उत्पत्ति मे, 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इस शीर्षकके साथ प्रकट हुश्रा है का निमित बताते समय या प्रोत्थान-भृमिका बोधनेके और वह मैमूर राज्यके थास्थान विद्वान् प. शान्तिराजजी प्रारम्भकालमे शास्त्रकारने जो स्तोत्र रचा और जिस स्तोत्रमें शास्त्रीके जैनबोधक' में प्रकाशित किमयं तत्त्वार्थसूत्र- णित प्राप्तकी स्वामी (ममन्तमद्राचार्य) ने मीमांसाकी, ग्रन्थस्य मंगलश्लोक.' इस शीर्षक संस्कृतलेखको लक्ष्य करके उसकी मैं यथाशनि परीक्षा कर रहा है। लिखा गया गया है, जैसा कि लेखके श्रादि-अन्तमे दिये अष्टयहस्रीक मङ्गललाम्मे भी प्राचार्य विद्यानन्द यही हुए दोनो फुटनोटोसे प्रकट है । अस्तु, पं. महेन्द्रकुमारजी बात लिखते हैं :-- शास्त्रीने अपने लेखमे जो युक्तियां दी हैं उनमें कितना बल 'शास्त्रावताररचिनस्तुतिगचगातहै. वे उनके अभिमतको सिद्ध करने के लिये समर्थ हैं याकि मीमांसितं कृतिग्लंक्रियतं मयास्य। नही और उक्त मंगल-पद्य वास्तवमै उमास्वातिकृत है, या अर्थात शास्त्र-तत्त्वार्थशास्त्र के अवतार-अवतरणका. पूज्यपादकृत, इन सब बातोंको स्पष्ट करके बतला देना ही भूमिकाके समय रची गई स्नुतिम वर्णित श्राप्ती मीमाम्म। श्राजके मेरे इस लेखका विषय है।
करने वाले प्राप्तमीमासा नामक ग्रन्थका व्याख्यान दिया
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२२
अनेकान्त
[वर्ष ५
जाता है। यहाँ 'शास्त्रावतार' शब्द प्राप्तपरीक्षाके गहरा विचार किया है और न उन्हे निद्यानन्दके दूसरे 'प्रोत्थानारम्भकाल' का समानार्थक है । विद्यानन्दके इन वाक्योंकी स्पष्ट रोशनीमे ही पढ़ा है। और इस लिये वे उल्लेखोंमे निम्नलिम्बित बाताका स्पष्ट सूचन होता है- अपनी किसी गलत धारणाके वश उक्त पोंमे प्रयुक्त हुए
१--प्राप्तपरीक्षा और अष्टसहस्री ग्रन्थ 'मोक्षमार्गस्य 'प्रोत्थानारम्भकाल' और 'शास्त्रावताररचितस्तुति' नेतारम्' श्लोकमे वर्णित प्राप्तको परीक्षाके लिये लिये पदांका गलत अर्थ करनेमे प्रवृत्त हुए हैं । 'शास्त्रावतारजारहे हैं।
रचितस्तुति' का सीधा और सरल अर्थ होता है--'शास्त्रके २--इसी श्लोकमें वर्णित प्राप्तकी मीमांसा स्वामी अव
अवतार-रचनारम्भके समय रची गई स्तुति'-अर्थात तत्त्वार्थ समन्तभद्राचार्यने अपनी प्राप्त मीमांसा की है।
शास्त्र (सूत्र) की श्रादिम रचा गया वह मंगल स्तोत्र जिसके
विषयभूत प्राप्तकी स्वामी समन्तभन्द्र ने मीमांसा की है और ३--यह 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक तत्त्वार्थशास्त्रकी
जिस श्रात मीमांसाकी अलंकृत रूपसे असहस्री टीका उत्पत्तिका निमित्त बताते समय या उसकी अवतरणिका
लिखनेकी विद्यानन्द आचार्य अपने ८१ वाक्यमे प्रतिज्ञा कर भूमिका बाधते समय शास्त्रकारने बनाया है।
रहे हैं । स्वयं विद्यानन्द के निम्नवाक्य में भी इसकी पुष्टि होती तीसरी बात से यह स्पष्ट होजाता है कि जिस शास्त्रकार है, जो उनकी श्राप्तपरीक्षाका समाहिमूचक अन्तिम पद्य है ने तत्वार्थशास्त्रकी उत्पत्तिका निमित्त बताया या उसकी और जिसमें 'तत्त्वार्थशास्त्रादी-तत्त्वार्थसूत्रकी श्रादिम-- उत्थानिका-भूमिका या अवतरणिका बांधी, उसी शास्त्रकार इस पदके प्रयोगद्वारा उक्त 'मोक्षमार्गम्य नेतारं' मंगलने उस भूमिकाके प्रारम्भमे इस मङ्गलमय-स्त्रोत्रको रचा श्लोकको तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण सूचित किया गया हैहै । यहाँ यदि यह तत्त्वार्थ शास्त्र-तत्त्वार्थसूत्र है, तो उसकी
इति तत्वार्थशास्त्रादी मुनीन्द्रम्तोत्रगोचरा । उत्पत्तिका निमित्त बताने वाले या भूमिका अवतरणिका
प्रणीताप्तपरोक्षयं कुविवानिवृत्तये ॥ १२४ ॥ बॉधने वाले श्राचार्य पूज्यपाद हैं। इन्होंने सविर्थसिद्धिके
ऐसी हालतमे विद्यानन्द के 'शास्त्राद' और 'शास्त्राप्रारम्भमे ही तत्त्वार्थसूत्रका निमित्त बताया है और उसी
वतार' शब्दोंका जो वाच्य तवार्थसूत्रका प्रारम्भ' है वही भूमिकाके प्रारम्भमे इस जैनवाड़मयके श्रमर र नरूप मङ्गल
वाच्य उनके उस 'प्रात्थानारम्भकाले' पदका भी है, जो श्लोकको रचा है।
प्राप्त परीक्षाके उक्त अन्तिम पद्यसे ठीक पूर्ववर्ती पद्य इस तरह विद्यानन्दके उक्त उल्लेख हमे हम स्पष्ट श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्र में पाया जाता है । ग्रथसंदर्भको परिणामपर पहुचा देते हैं कि उक्त मङ्गलश्लोक प्राचार्य देखते हुए दूसरा कोई भी भिन्न श्रर्थ उसका नहीं हो सकता। पूज्यपादके द्वारा तत्त्वार्थशास्त्रकी भूमिकाको बाधते समय 'उत्थान' शब्दका अर्थ उद्यम (यान) और उद्गम सर्वार्थसिद्धि के मंगलरूपमे रचा गया है।
(उत्पत्ति) भी है। इन दोनोमेसे कोई सा भी अर्थ लेने वस्तुतः यह मंगलश्लोक प्राचार्य पूज्यपादने ही पर 'प्रेन्थानारम्भकाले' पदके अर्थवी संगति 'शास्त्रावतार' बनाया है।"
और 'शास्त्रादी' जैसे पदोके अर्थके साथ ठीक बैठ जाती है, शास्त्रीजीने श्रीविद्यानन्दाचार्यके उक्त दोनों उल्लेखोपर * जेमाकि निम्न कोषवाक्याम प्रकट है :से स्पष्ट सूचनको जो तीसरी बात कही है और उसका पुन. (१) उत्थानमुदगमे तो यु यमे दर्पण र गो . (विश्रलोचन) स्पष्टीकरण करते हुए जो निष्कर्ष निकाला है उसे देखकर बहा (२) उत्थानं उद्यमे तंत्र रूप पस्त के रण । ही आश्चर्य होता है और यह जान पडता है कि शास्त्रीजीने प्राङ्गणोद्गमदपु"" ( मंदिनी ) उक्त मंगलश्लोकके सम्बन्धमें प्राचार्य विद्यानन्दके अभिमत (३) उत्थानं पोरुपे तंत्र मंनिविष्टोद्गमेऽपि च । (अमर) को ठीक तौरसे समझने के लिये पूरा प्रयत्न नहीं किया-न (४) Rise, ougin, effort, uctivity (V. S. तो उन्होंने उक्त दोनों पद्यो के अर्थपर गंभीरताके साथ Apte)
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
२२३
और वह तत्वार्थसूत्रकी रचनाके प्रयत्नारम्भ समयको ही रह जाती है। दूसरे, ३२ अक्षरोके उक्त अनुष्टुप् छंदमे अथवा उसकी उत्पत्तिके श्रारम्भ कालको सूचित करने भी उक्त भावको व्यन करनेके लिए काफी गुंजाइश थी-वे लगता है। परन्तु शास्त्रीजीने 'प्रोन्थान का अर्थ जो 'शास्त्र अधिक नही तो 'तत्वार्थशास्त्रादी' पदके स्थान पर की उत्पत्तिका निमित्त बतलाना' तथा 'भूमिका बांधना 'नत्वार्थवृत्यादी पद बनाकर ही उसे व्यक्त कर सकते थे, किया है उसकी उपलब्धि कहीं भी नहीं होती, और क्योकि सर्वार्थ सिद्धिको कस्वार्थवृत्ति' भी कहते हैं और इसलिये वह उनकी निजी कल्पना ही जान पडती है। यह बात उसके श्रन्तके पद्योपे भी जानी जाती है । इसी कल्पनाको लेकर शास्त्रीजीने 'शास्त्रावतार' का अर्थ परन्तु श्रीविद्यानन्द श्राचार्य को शास्त्रीजीका उक्त प्राशय "तत्वार्थशास्त्रके अवतार-अवतरणका-भूमिकाके समय” अभिप्रेत नही था, जैसा कि आगे चलकर और भी स्पष्ट ऐसा किया है और लेग्बके पिछले हिस्संमें प्राप्तपरीक्षा के किया जायगा, और इसी लिए उन्होंने अपने अभिप्रेताअन्तिम श्लोकको उद्धृत काके उसमें आए हुए 'तत्वाथे- नुसार 'तत्वाथशावादा' पदका सम्यक प्रयोग किया शास्त्रादा पदके विषयमे यह अनुरोध किया है कि उसका है जो उनके 'प्रोत्थानारम्भकाले 'जैसे दूसरे पदों पर अर्थ भी 'तत्वार्थशास्त्रको भूमिका के प्रारम्भ में' यही भी अच्छा प्रकाश डालता है। अतः शास्त्रीजीके उन सुभाव करना चाहिये । साथ ही उस भूमिका को वह भूमिका और तर्कमे कुछ भी मार मालूम नही होना, वह व्यर्थवी बतलाया है जो श्रीपूज्यपादाचार्यको सामिाद्ध' टीकाके खीचातानी पर अवलम्बित जान पड़ता है और श्रीविद्यानं:शुरूमे पाई जाती है। यह सब क्थन श्रापका प्रा. विद्या- के उन तीनो पद्या परमे किसी तरह भी फलित नही होता, नन्दकं उक्त ग्रथोके साथ कुछ भी संगन मालूम नही होता। जिन्हें शास्त्रीजीने अपने लेखमे प्रमाण वाक्य के तारपर एक विलक्षण बात अापने और भी कही है और वह यह उद्धत क्यिा है। कि 'प्रोत्थानारम्भकाले' पदका जो अर्थ उन्होंने 'तत्वार्थ
प्राचार्य विद्यानन्दका अभिमत सूत्रकी उत्पत्तिका निमित्त बतलाने वाली सापांढकी भूमिका' सुझाया है उसी प्रथमे उक. 'तत्वार्थशास्त्रादी'
अब मै श्रीविद्यानन्दाचार्य के कुछ दूसरे वाक्याद्वारा पद प्रयुक हुअा है।' इसप यदि कोई कह कि उक्त पद
इतना और भी स्पष्ट कर देना चाहता कि वे तत्त्वार्थकी शब्दरचनापरसे तो ऐमा श्राशय नही झलकता, प्रत
मृत्रकी श्रादिमे मगलाचरण मानते थे और वह मंगलाचरण इसके 'तन्वार्थमूत्रकी श्रादिम ऐसा प्राशय स्पष्ट झलक रहा
उनकी दृष्टि में 'मोक्षमागम्य नेतार इयादि लोकके है, तो ऐसे प्रश्नकतांकी बातको हैदयमे धारण करके
सिवाय और दूसरा कुछ नही था:शास्त्रीजी लिखते हैं--"३२ अक्षर वाले इस छोटस
(५) शास्त्रकी श्रादिमे परमेरिके गुणस्तोत्ररूप शाकम अधिकका गुडजाइश ही नहीं है।" इस पर
श्राध्यानकी आवश्यकताका प्रतिपादन करते हुए श्रीविद्याशास्त्रीजीसे सहज हीम यह पूछा जा सकता है कि 'अधिक
नन्दाचार्य अपने लंकवातिक-न्याख्यानके शुरूम ही की गुजाइश नहीं' इसका क्या मतलब ? क्या विद्यानन्द
(पृ. २ पर) लिखते हैं - श्राचार्यको अपना अन्तिम वक्तव्य उस ३२ अक्षर वाले
"कयं पुनम्तत्त्वार्थः शास्त्रं नम्य श्लोकवार्तिकं वा तद अनुष्टुप छन्दमे देनेके लिये कोई मजबूरी थी, जिसमें वे ।
व्याख्यानं वा यन नदारंभ परमेष्टिनामाध्यान विधीअपने श्राशयको पूरी तौर पर व्यक्त भी न कर सके ? यदि
यते इति चन तल्लक्षणयागत्वात ।" तच्च नत्वार्थस्य नही तो फिर श्राचार्य महोदयका यदि चैमा श्राशय था तो दशाध्यायीरूपस्यास्तीति शास्त्रं तत्त्वाथः। प्रमिच क्या वे उसे व्यक्त करनेके लिये दुसरे अधिक अक्षरोवाले * मा मिद्धिर्मित मनिपातनाम', बडे छंद का प्रयोग नहीं कर सकते थे १ कर सकते थे
नोनवार्थवृनिगनशं मनमा प्रधार ।। १ ।। 'अधिक की गुंजाइश नहीं' ऐसी स्थिति पैदा ही नही तत्वार्थवृत्तिमदिता विदितार्थतन्त्राः, होती और न ऐसा कहने में किसी श्रीचियकी गुंजाइश शृण्वन्ति ये परिपटनिच धमभक्तया' · || २ ||
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
अनेकान्त
[वर्ष ५
तत्त्वार्थस्य शास्त्रत्वे तद्वार्तिकस्य शास्त्रत्वं मिद्धमेव संस्तुत मासके लिये उन्हीं तीन विशेषणों का उल्लेख किया नदर्थत्वत..... 'तदनेन तव्याख्यानस्य शास्त्रत्वं है जिनका उल्लेख 'मोक्षमार्गस्य मेतारम्' इस मंगललोकनिवेदितम् ।.... 'ततनदारंभे युक्त परापरगुरु- में किया गया है। 'मुनीन्द्र' से विद्यानन्दका अभिप्राय प्रवाहस्याध्यानम।"
'उमास्वाति' से ही है, जिन्हें आगे भी 'इतियुक्त मुनीन्द्रायहां यह शंका उठई गई है कि तत्त्वार्थसूत्रके तत्वार्थ- सामादिसूत्रप्रवर्तनम' (वा० २४८) जैसे वाक्योंके द्वारा सत्रो श्लो रूपमें वार्मिक तथा वार्तिकके व्याख्यानको अदिम सूत्र 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमा शास्त्रत्व में प्राप्त है, जिससे उनके प्रारंभमें परमेष्टिके या- का प्रवर्तक लिखा है। और यह बात श्लोककीर्तिकके पानका विधान किया जाता है फिर इस शंकाका समाधान पूर्वापर-सम्बन्धको मिलानेमे विचारशील पाठकोंको भले करते हुए लिखा है कि 'शास्त्रका लक्षण पाये जाने ये सब प्रकार अवगत हो सकती है। पूज्यपाद प्राचार्यको उक्त शास्त्र हैं। शास्त्रका अमुक लक्षण है और वह दशाध्यायरूप सूत्रका प्रवर्तक नहीं कहा जामाता-वे उसके मात्र तत्वार्थसूत्रके साथ घटित होता है, इसलिये तत्त्वार्थसूत्र शास्त्र व्याख्याकार अथवा वृत्तिकार थे। है।" 'तस्वार्थसूत्रके शास्त्र सिद्ध होने पर उसके वार्तिक (३) विगानन्दकी अपमहल के निम्म यापीय भी हमको के श स्त्रपना मित्रहीहै कोकि वह तन्वार्थमूत्रका अर्थ पष्टि होती है, निनम उस शास्त्रको निःश्रेयमशास्त्र ( मोक्षहै।'' और इसी तरह व तिकके व्याख्यानवो भी शास्त्र शास्त्र ) बतलाते हुए उनकी श्रादिमे स्तुत ग्रामके लिये कहा गया है । अत:--शास्त्र होनेसे- उनके प्रारम्भमे उन्ही विशेषणोका उमी क्रममे और भी स्पष्ट उल्लेख किया परापर-गुरुषवारका श्राध्यान युक्त है।'
है जिनका जिम क्रममे उहाँम्ब उक्त मंगल श्लोक में पाया हममे स्पष्ट है कि यदि दशाध्यायरूप प्रकृत तस्यार्थ
जाना हैसूत्रके प्रारम्भ में मंगलाचरण न किया गया होता तो
(क) "नदेनेदं नियमशामाभ्यादौ तन्निबन्धनतया मंगविद्यानन्द उसके श्रारम्भमे (नदारम्भे) मंगलके किये जाने
लार्यतया च मनिभिः मंस्तुतेन निरतिशयगणेन भगवका उल्लेख न करते और न तत्वार्थके मंगल तथा शास्त्रम्बके
ना तेन श्रेयोमार्गमात्मनितमिलना मम्यग्मिथ्योपदेशायाधार पर अपने द्वारा श्लोकवार्तिक में किये गये मंगलकी
र्थ-विशेषप्रतिपत्त्यर्थमासीमामा विदधाना: " स्वामिपुष्टि करने । श्रतः नवार्थ सूत्रकी श्रादिमे मंगलाचरण जरूर
ममन्तभद्राचार्यः प्राहः।" ( पृष्ठ ३ । किया गया है।
(ब) "शाम्राराभेमिनस्य मन्नार्गतृतया, कर्मभ(२) अब वह मंगलाचरण कौनसा है ? इसकी भृगतृतया, विश्वनत्वाना ज्ञातृनगा न भगवत्मर्वजन्यपर्यालोचना करते हुए विद्यानन्दके श्लोकवार्तिकान्तर्गत वान्यय गव्यवच्छेदेन व्यवस्थापनाग पर क्षेयं विहिता।" निम्न उल्लेखोंपे भी यह जाना जाता है कि वह मंगलाचरण
(पृष्ठ २६४) • मोक्षमार्गम्य नेतारम' इत्यादि मंगलश्लोक ही है- (४) श्रीविद्यानन्दके प्राप्त परीक्षागत वाक्योये इस
प्रवृद्वाशेपतत्त्वायें साक्षात्प्रक्षीगणकल्मषे। विषयकी और भी अधिक पुष्टि होती है । यथा:मिद्धे मुनीदमन्नत्ये मोक्षमार्गम्य नेतीर ॥ २॥ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः। सत्यां तन्प्रतिपित्सायामुपयोगात्मकात्मनः। इत्याहस्तद्गुणम्तोत्रं शान्त्रादी मुनिपुङ्गवाः ॥२॥ श्रेयसा योक्ष्यमाणम्य प्रवृत्त सूरमादिमम ॥३॥
इसमें 'मोक्षमार्गकी ससिद्धि परमेष्टिके प्रसादसे होती
है इस लिए 'मुनिपुङ्गव शास्त्रकी आदिमें उनके गुणोंका यहां विद्यानन्दने, तत्त्वार्थशास्त्र (सूत्र)के श्रादिमें सूत्र
स्तोत्र करते हैं' यह बतलाया गया है। और 'मुनिपुङ्गव' की उपपत्ति बतलाते हुए मुनीन्द्र (उमास्वति) के हाग
पदके लिए स्वोपज्ञ टीकामे 'सून कारदियः' पदका प्रयोग * ननु च तत्वार्थशास्त्रस्पादसूत्रं नावदनुपपन्नं · · । करके यह स्पष्ट किया गया गया है कि मुनिपुङ्गव' शब्दका
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
फिरण ६-७
तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
२२५
बाच्य यहाँपर प्रधानतः 'सूत्रकार है और ये सत्रकार तत्वार्थ- (कारादिभिरुमास्वामि(ति)प्रभृतिभिः प्रतिपाद्यते।" सूत्रके कर्ता वे ही उमास्वाति प्राचार्य हैं जिनके सूत्रवाक्यको
(पृ० ६४) इसी द्वितीयश्लोककी टीकामें "स गप्तिममितिधर्मानुप्रेक्षा- यः प्रणेतास एवं विश्वतत्त्वज्ञताश्रयस्तत्वार्थसूत्रकार परीषहजयचारित्रेभ्यो भवतीति सूत्रकारमतम' वाक्यके-- साथ उद्धत किया है। और आगे भी 'कायवाड मनः
तल्लक्षणे ब्रीति' (पृ०८३ )-श्लोकवार्तिक कमयोगः इति सूत्रकारवचनात (पृ०६०) जैसे वाक्योंके (ट) तथोक्त सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य इति मूत्रकारैः (पृ०२८१) साथ उद्धृत किया है । श्लोकवार्तिकादिमे भी सूत्रकारनाम- (च) मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकवलानिज्ञानं, तत्प्रमाणे, इति से सूत्रवाक्यों अथवा सूत्रकारके मतका उल्लेख पाया सूत्रकारवचनात् (पृ० २८१)-प्रष्टमहत्री
सुद्रित प्रतिम 'सूत्रकार: ऐसा पाठ है जो अशुद्ध जान उक्त श्लोकके अनन्तर ही प्राप्तपरीक्षामें परमेष्ठिका पड़ता है, उसके स्थानपर 'सूत्रकारादिभि:' होना चाहिये। जो गुणस्तोत्र उद्धत किया है और जिसे टीकामें प्रस्तावना- क्योंकि विद्यानन्दने अन्य के द्वितीय पद्यम श्राए हुए 'मुनिवाक्य द्वारा शास्त्रकी (तस्वार्थसूत्रकी) आदिमें सूत्रकार पुङ्गा:' पद के लिये स्वोपज्ञ टीकाम 'सूत्रकारादयः' पदका (उमास्वाति) द्वारा कहा हुआ बतलाया है तथा जिसपर ही
प्रयोग किया है और उपसंहारमे वही बात कही गई है जो स्वोपज्ञ टीका सहित प्राप्तपरीक्षा रची गई है वह अपने शुरूमे प्रस्तुत की गई थी। इसमें विद्यानन्द के पूर्वापर प्रस्तावना-वाक्य-सहित इस प्रकार है
कथनकी संगति भी ठीक बैट जाती है । इसके सिवाय, "किं पुनस्तत्परमेट्रिनो गणस्तोत्रं शास्त्रादी सूत्रकारा अष्ठमहस्सीम भी उन्दाने 'माक्षात्प्रबुद्वाशेषतत्वाथेन च प्राहुरितिनिगद्यते
मुनिभिः सूत्रकारादिभिरभिष्ट्रयते' इम वाक्यमे - सूत्रकारामाक्षमार्गस्य नेतारं भेतारं कर्मभूभताम् ।
दिभिः' पदका स्पष्ट प्रयोग किया है। मुद्रित तथा हस्तज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥३॥
लिग्विन प्रतियोम की इस प्रकार की अशुद्धिका होना कोई इससे स्पष्ट है कि यह मंगलश्लोक, जिसे लेखकेशुस्में
अमाधारण बात नहीं है। ऐमी स्पष्ट पकड़ी जाने वाली उद्धृत किया गया है, विद्यानन्दकी दृष्टिमं सूत्रकार उमास्वाति
अशुहिया अम्मर देग्यनेमे पाती हैं । प्राप्तपरीक्षा-टीका की कृति है और उनके शास्त्र तत्वार्थसूत्रकी आदिमे कहा
की उक्त पंक्तियोंसे १० पंक्तियोके अनन्तर ही मंद्रित प्रति
के उर्स। ६४ वे पृष्ठपर टीकाका एक पद तत्वार्थविद्यानंहुश्रा मंगलाचरण है। आप्तपरीक्षाकी टीकामें इस मंगलश्लोककी व्याख्याका उपहार करते हुए विद्यानन्दने इस
महोदयालंकारपु” इम रूपमे छपा है जो साफ तौर पर मंगलश्लोक्के लिये साफ तौरपर सूत्रकारके साथ उमास्वाति
अशुद्ध जान पड़ता है । क्यो क एक तो इसम विद्यानंदका (स्वामी) का नाम भी दे दिया है, जैसाकि उसकी निम्न
'द' अक्षर छूट गया है और दूसरे 'लंकारेषु' के पहले या पंक्तियों से प्रकट है
तो 'द्य' अक्षर छूटा हुया मालूम होता है, जिससे 'श्रादि'
शब्द के द्वारा अन्य ग्रन्थ अथवा ग्रंथोका भी ममावेश हो “माक्षान्मोक्षमार्गस्य मकलबाधकप्रमागरहितस्य
मके । अथवा 'देवागम' अलंकारका नाम छूटा दृश्रा * जैसाकि नीच लिखे कुछ नमूनोसे प्रकट है
है अन्यथा, तत्वार्थालंकार और विद्यानन्दमहोदया(क) सूत्रकारण तु परमतव्यवच्छेदेन प्रमाणार्पणात् 'गुण- लंकार इन दो ग्रन्योंके लिये बहुवचनका प्रयोग नहीं हो
पर्ययवद् द्रव्यमिति' सूत्रितम् । (पृ० ११२ ) सकता था । बहुवचनका प्रयंग तीसरे ग्रन्थके नाम श्रथवा (ख) यस्माद्-श्राद्ये पराक्ष मत्याह सूत्रकार: ( पृ० १८२) मंकेतको जरूर माँगता है । साथ ही विद्यानन्दमहोदय' (ग) इत्यशेषविवादाना निरासायाह सूत्रकृत्-'जीवाजीवा- के साथ मे 'अलंकार' शब्द भी कुछ खटकता हुअा जान स्रयबन्धनिर्जरामोक्षास्तत्वं ।' (पृ०६१)
पड़ता है; क्याकि अभी तक इस ग्रन्यके लिये अन्यत्र (घ) तथा मूत्रकारोऽत्र 'तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं, इति कहीं भी 'अलंकार' शब्द का प्रयोग देखने में नहीं आता।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२६
अनेकान्त
[वर्ष ५
इस उल्लेखपरसे इस विषयमें कोई सन्देह नहीं रहता लेखन-शैलीका ध्यानसे समीक्षण करते हैं तब यह उलझन कि उक्त श्लोकको शास्त्रकी-आदिमें मंगलरूप में प्रथम प्रयुक्त सुलझ जाती है, प्राचार्य विद्यानन्दकी शैलीकी यह विशेषता करने वाले प्राचार्य उमास्वाति है, और इस लिये यह है कि वे अपने पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको सूत्रकार और उन्हींकी कृति हैं। दूसरे प्राचार्य जिन्होंने इस श्लोकको पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थको सूत्र लिखते हैं। उदाहरणार्थअथवा इसमें प्रयुक्त हुये प्राप्तके विशेषणोंको अपनाया है तत्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १८४) में वे अकलकदेवका वे 'पादि' तथा 'प्रभृति' शब्दों के बाक्य उत्तरवर्ती श्राचार्य सूत्रकार शब्दमे तथा राजवार्तिकका सूत्र शब्दसे उल्लेख है। उन्हीं में पूज्यपाद प्राचार्यका समावेश है, जिन्होंने करते हैं - तेनेन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं अपनी स्वार्थ सिद्धि में इस श्लोकको अपनाया है। यदि यह साकारग्रहरणम इत्येतत् सूत्रोपात्तमुक्त भवति । ततः श्लोक पूज्यपाद प्राचार्यकी कृति होता तो विद्यानन्द अपने प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः सष्टं साकारमजसा । द्रव्यपर्याय, उक्त वाक्यमें उमास्वाति' के स्थानपर उन्हींका नामोल्लेख सामान्यविशेषार्थात्मवेदनम ॥ सूत्रकारा इतिज्ञेयमाकरते और 'उमास्वाति' का नाम कदापि न देते। कलंकावबोधने।" इस अवतरणमें इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष' श्रीविद्यानन्दके ग्रन्थोंकी इस सारी परिस्थितिके सामने
वाक्य राजवार्तिक (पृ. ३८) का है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं' मौजूद होते हुए यह कहना कि 'उक्त मंगलश्लोक विद्यानन्द
श्लोकन्यायविनिश्चय (पृ. ३) का है। प्राप्तपरीक्षा (पृ. के मतानुसार प्राचार्य उमास्वातिकी कृतिरूप तत्वार्थशास्त्र
६४) मे ही वे "तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमास्वामिप्रभृतिभिः" का मंगलाचरण नहीं है किन्तु उसकी टीका सर्वार्थ सिद्वि के
शब्द लिखकर न केवल उमास्वामीको ही सूत्रकार लिखते हैं। प्रारम्भमे प्रन्थोत्पत्ति-विषयक भूमिका बाँधते समय स्वयं
अपि तु प्रभृतशब्दसे अन्य पूज्यपाद भाचार्योंका भी सूत्रकार पूज्यपादने उसे रच है' और यहाँ तक दावा बांधना कि
होना सूचित करते हैं। अत: मात्र सूत्रकारके नाम 'मोक्षमार्गस्य "वस्तुत: यह मंगलश्लोक आचार्य पूज्यपादने ही बनाया।
नेतारं' श्लोकको उद्धृत करने के कारण विद्यानन्दका झुकाव है," "इस मंगलश्लोकको उमास्वातिकृत किसी भी तरह
उसे उमास्वातिकृत माननेकी ओर है, यह नहीं कहा जा नहीं माना जा सकता," मुझे तो अतीव भ्रममूलक जान
सकता । जो विद्यानन्द राजवातिकको सूत्र तथा अकलङ्कको पड़ता है। मैं समझता है कोई भी सहृदय एवं विचारवान्
भी सूत्रकार लिख सकते हैं, वे यदि साधसिद्धिकारको विद्वान्, जिसके सामने विद्यानन्दके ग्रन्थोकी उक्त सारी
सूत्रकार लिखते हैं, तो कोई अनहोनी या पाश्चर्यकी बात नहीं है। परिस्थिति हो, ऐसा कहने अथवा दावा करने के लिये तय्यार ।
क्योकि सर्वार्थसिद्धि तो राजवार्तिक या श्लोकवार्तिक के लिये नहीं होगा । मालूम होता है किसी ग़लत फहमीकी वजहसे
आधारभूत सूचनाकारिणी होनेसे सूत्रकल्प ही रही है।" शास्त्रीजीकी गलत धारणा बन गई है और उसीका यह
इससे मालूम होता है कि शास्त्रीजी को जब यह जान सब परिणाम है।
पड़ा कि विद्यानन्द तो स्वयं अपनी प्राप्तपरीक्षामे इस
मंगलश्लोकको सुत्रकार-नामके साथ उद्धृत करते हैंविद्यानन्दकी दृष्टिमें सूत्र और सूत्रकार
सुत्रकारकृत बतलाते हैं और 'सूत्रकार' शब्द आमतौर पर एक दूसरी भारी गलतफहमी शास्त्रीजीने और भी तत्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वातिके लिये प्रसिद्ध है तब आपने प्रदर्शित की है, जिसे देखकर बड़ा ही विस्मय होता है ! प्राप्तपरीक्षाकी टीकामें प्रयुक्त हुये 'सूत्रकार' शब्दके वाच्य आप अपने लेखके मध्यभागमे लिखते हैं :--
पर पर्दा डालनेके लिये विद्यानन्दकी लेखन-शैलीकी 'परन्तु विद्यानन्द प्राचार्य ही प्राप्तपरीक्षा (पृ. ३) के अनोखी कल्पना करके यह सुझानेके चेष्टा की है कि-"वे प्रारम्भमें इसी श्लोकको सूत्रकारकृत लिखते हैं-'किं (विद्यानन्द) अपने पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको पुनस्तपरमेष्ठिनो गुणस्तोत्रं शास्त्रादौ सूत्रकाराः प्राहुरिति सूत्रकार आर पूर्ववर्ती किसी भी ग्रंथको सूत्र लिखते निगद्यते मोक्षमार्गस्य .. ..." इस पंक्तिमे यही श्लोक हैं।" साथ में एक असंगत उदाहरण भी दे डाला है, और सूत्रकारकृत कहा गया है। पर जब हम विद्यानन्दकी इस तरह अपने पाठकोंको यह मान लेनेके लिये बाध्य
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
२२७
करने का प्रयत्न किया है कि विद्यानन्दने उक्त 'सूत्रकार' कारस्य दर्शनस्य, व्यभिचारिणो ज्ञानस्य च व्युदासः शब्दके प्रयोग द्वारा पूज्यपादका ही वहां उल्लेख किया है कृतो भवति ।" और उक्तमंगलश्लोकको पूज्यपादका ही बतलाया है। परन्तु
इसमें वार्तिकगत लक्षणको उक्त सनके साथ संगत शास्त्रीजीका यह सब लिखना, सुझाना और बतलाना
बतलाते हुए जो स्पष्टीकरण किया गया है वह यह है किग़लत है, भ्रममूलक है और भारी ग़लतफ़हमीपर अव
'प्रत्यक्ष ज्ञान कि अक्षके प्रति नियत है-एकमात्र प्रारमाके लम्बित है। नीचे इसीको स्पष्ट करके बतलाया जाता है :
ही माश्रित है-इस लिये प्रत्यक्ष कहनेमे परापेक्षकी___ श्लोकवातिकका जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है उसमे
इन्द्रियाऽनिन्द्रियकी अपेक्षाकी--निवृत्ति हो जाती है, और 'सूत्र' और 'सूत्रकार' शब्द जरूर पाये जाते हैं, परन्तु वे
ज्ञान तथा सम्यक्का अधिकार होनेसे अनाकाररूप दर्शनकी 'राजवातिक' और 'अकलंकदेव' के लिये प्रयुक्त नहीं हुए और विभंगरूप व्यभिचारी ज्ञानकी भी निवृत्ति हो जाती हैं उनका स्पष्ट प्रयोग क्रमश: 'तत्वार्थसूत्र' और उसके है और इस तरह वार्तिकगत तीनों बातोंकी मूमसूत्रके कर्ता उमास्वाति' के लिये हुश्रा है, जिसका खुलासा इस साथ संगति ठीक बैठ जाती है।' प्रकार है
उक्त शंका तथा राजवार्तिकगत समाधानको लेकर 'श्रादो परोक्षम' यह तत्वार्थसूत्र के प्रथम अध्यायका
और अकलंकके न्यायविनिश्चयगत दूसरे भी प्रत्यक्ष-लक्षण ११ वां सूत्र है, जिसमें परोक्षका लक्षण 'श्रादिके दो मति को सामने रखकर और उसे भी सूत्रसंगत बतलाते हुए, और अति-ज्ञान परोक्ष हैं' ऐसा बतलाया है । इसके विद्यानन्दने अपने श्लोकवार्तिकमें जो समाधान प्रस्तुत किया
तर ही 'प्रत्यक्षमन्यत्' यह १२ वां सूत्र है, जिसम है उसीका एक अंश-अगले-पिछले अंशोंको छोडकरप्रमाणके दूसरे भेद प्रत्यक्षका लक्षण 'शेष तीन--अवधि, शास्त्रीजीने अपने उक्त उदाहरणमें उरत किया है। मनः पर्यय और केवल-ज्ञान प्रत्यक्ष हैं' ऐसा प्रतिपादन यहाँ वरपरा समाधानको प्रशिक्षिका को किया है । राजवार्तिककार-कलंकदेवने इसी सूत्रोपात्त करानेके लिये, नीचे दिया जाता हैलक्षणको इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारंसाकार
"ज्ञानग्रहणसम्बन्धात्केवलावधिदर्शने। ग्रहणं प्रत्यक्षम' इस वार्तिकद्वारा प्रतिपादित किया है।
व्युदस्येते प्रमाणाभिसम्बन्धादप्रमाणता ॥२॥ इसपर यह शंका उठाई गई है कि 'इस वार्तिकमें प्रत्यक्षका जो लक्षण किया गया है वह सूत्रके लक्षण के साथ संगत
सम्यगित्यधिकाराच विभंगज्ञानवर्जनं । मालूम नहीं होता । वार्तिकगत प्रत्यक्षके लक्षण इन्द्रिय
प्रत्यक्षमिति शब्दाच परापेक्षानिवर्तनम् ॥ ३ ॥ अनिन्द्रियकी अनपेक्षा, व्यभिचाररहितता और साकार- न ह्यक्षमात्मानमेवाश्रितं परमिन्द्रियमनिन्द्रियं ग्रहण व इन तीन बातोंका उल्लेख है, जो सूत्रोपात्त (सूत्र- वापेक्षते यतः प्रत्यक्षशब्दादेव परापेक्षानिवृत्तिन भवेत। कथित) प्रत्यक्षके लक्षण में नहीं पाई जातीं। अतः सूत्र और तेन्द्रियानिन्द्रियानपंक्षमतीतव्यभिचा साकारग्रहरण'वार्तिकमे विरोध है।' इस शकाका जो समाधान स्वयं मित्येतत् (वातिक) सत्रोपात्तमुक्तं भवति । तत:अवलंकदेवने अपने राजवार्तिकमे किया है वह शंकासहित प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमंजसा । इस प्रकार है
द्रव्यपर्यायसामान्यविशेपार्थात्मवेदनम ।। ४॥ "किंगतमेतदियता सत्रेण ? आहोस्विदेवं वक्त- सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलं कावबोधने । व्यमिति, गतं प्रतिपन्नं, कमिति चेदुच्यते--
प्रधानगुणभावेन लक्षणस्याभिधानतः ।। ५॥ अक्षं प्रतिनियतमिति परापेक्षानिवृत्तिः ।। वार्तिक २।। यदा प्रधानभावेन द्रव्यात्मवेदनं प्रत्यक्षलक्षणं अधिकारादनाकार-व्यभिचारव्युदासः ।। वा०३॥ तदा स्पष्टमित्यनेन मनिश्रुतमिन्द्रियानिन्द्रियापेक्षं व्यु
अधिकृतमेतत्ज्ञानं, सम्यक् इति च, ततोऽना- दस्यते, तस्य साकल्येनास्पष्ट वान् । यदा तु गुणभावेन
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
२२८
अनेकान्त
[वर्ष ५
तदा प्रादेशिकप्रत्यक्षवर्जनं तदपाक्रियते, व्यवहारा- के लिए सूत्रकार' शब्दका प्रयोग नहीं किया है। सूत्रोपात' श्रयणात । साकारमिति वचनानिराकारदर्शनव्युदासः। और 'सत्र-वार्तिकाऽविरोधः' इन दो पदोंमें 'सत्र' शब्दका अंजसेति विशेषणाद्विभंगज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्षा- जो प्रयोग है वह उमास्वातिकृत तत्वार्थसत्रके उस १२ में भासमुत्सारितं । तच्च विधं द्रव्यादिगोचरमेव नान्य- 'त्यक्षमन्यत्' सूत्रके लिए है जिसके साथ इन्द्रियानिन्द्रियानदिति विषयविशेषवचनादर्शितं । ततःस्त्र-वार्तिकाऽवि. पेक्ष' इत्यादि प्रकलंक-बार्तिकके विरोधका परिहार किया रोधः सिद्धो भवति।"
गया है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहः' इत्यादि अकलंक-कारिका
की भी संगति बिठलाई गई है। विद्यानन्दने अकलंककी इसमें बतलाया है कि-ज्ञानग्रहणके सम्बन्धसे
इस न्याय विनिश्चय-गन कारिकाको अपना वार्तिक बनाया शामका अधिकार होनेसे--केवलदर्शन और अवधिदर्शनरूप
है, इसमे 'प्राहुः' क्रियाका जो कर्ता अव्याहृत था उसे निराकारग्रहणका निराकरण होजाता है, ज्ञान के साथ प्रमाण
अगले पद्यवार्तिकमे 'मत्रकाराः' पदके द्वारा व्यक्त किया का सम्बन्ध होनेसे अप्रमाणता चली जाती है, सम्यकका
है और यह 'सूत्रकाराः' पद उन सूत्रकार प्राचार्य उमास्वाति अधिकार होनेसे विभंगज्ञानका परिहार हो जाता है और
के लिए ही प्रयुक्त किया है जिनके उक्त १२ वैसूत्रके साथ 'प्रत्यक्ष' शब्दमे परापेक्षाकी-- इन्द्रियानिन्द्रियसहकारिताकी
अकलक-वार्तिकके विरोधका परिहार किया गया तथा निवृत्ति हो जाती है। कि प्रत्यक्ष एकमात्र अक्षके-आत्मा
अकलंक-कारिकाकी भी संगति बिठलाई गई है । स्वयं के-ही पाश्रित होता है, परकी-इन्द्रिय और अनिन्द्रिय
अकलंकदेवने, राजवार्तिकम, अपने उक्त वार्तिकको उक्त (मन) की--अपेक्षा नहीं रखता, इसलिये 'प्रत्यक्ष' शब्दमे
१२ वे सूत्र के साथ संगत सिद्ध किया है, जैसा कि ऊपर परापेक्षाकी निवृत्ति नहीं होती, ऐना नहीं कहा जा सकता।
दिए गए उसके अवतरणसे प्रकट है, और कारिकामे जिन और इसलिये " इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं
स्पष्ट, साकारं अंजसा विशेषणोंका प्रयोग किया है वे क्रमश: साकाग्ग्रहणं" ( प्रत्यक्षम् ) यह जो 'प्रत्यक्षमन्यत' सूत्रका
वातिकगत इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष, साकारग्रहणं, अतीतव्यवार्तिक है वह सत्रोपात्तरूपसे उक्त हुश्रा है-सूत्रोक
भिचारं पदोंके ही वाचक हैं, इसलिये अकलंकके ध्यानमे विषयका ही प्रतिपादक है । और इसलिये 'द्रव्य-पर्याय
'प्राहुः' क्रियाका कर्ता उन सूत्रकारसे भिन्न नहीं हो सकता सामान्य-विशेषरूप अर्थ एवं श्रात्माके-स्व-परके-स्पष्ट,
जिनके सूत्रके साथ अकलंकदेवने गजवार्तिकमें अपने साकार और प्रांजप्स ( सम्यक् ) ज्ञानको सूत्रकार प्रत्यक्षका
वार्तिककी संगति बिठलाई है । स्वयं कलंकदेव तो उस लक्षण कहते हैं यह बात अकलंकके ज्ञानमे रही है
'प्राहुः' क्रियाके कर्ता किसी तरह भी नही हो सकते । ऐसी उनके वार्तिकादि ग्रंथोंका ऐसा प्राशय है-यह जानना
हालतमें शास्त्रीजीने उक्त अवतरण में आए हुए 'सूत्र' और चाहिये, क्यों के प्रधान और गीणभावसे लक्षणका कथन
'मूत्रकार' शब्दोंका जो वाच्य क्रमश: 'राजवातिक' और किया गया है। इसके बाद प्रधान और गौण लक्षणके
'अकलंकदेव' बतलाया है वह बिलकुल ही भ्रममूलक तथा स्पष्टीकरणके साथ ज्ञानके स्पष्ट, साकार और अंजसा
वस्तुस्थिति के विरुद्ध है। विशेषणोंकी सार्थकता बतलाते हुए उनकी संगति उन विशेषणोंके साथ बिटलाई है जो राजवातिकके
मालूम होता है श्लोक वार्तिक्के उक्त अवतरण मे सूत्र' उक्त वार्तिकमें पाये जाते हैं । और अन्तमें
और 'सयकार' शब्दोंको अकलंकवाक्योंके अनन्तर प्रयुक्त नतीजा निकालते हुए लिखा है कि-'इससे मत्र और
हुए देखकर शास्त्रीजी, अपनी इष्टसिद्ध समझते हुए एक वातिकका अविरोध सिद्ध होता है' अर्थात् सूत्र और दम हर्षाफल हो उठे हैं और उस हर्षावेशमे उनकी दृष्टि वार्तिकमें कोई विरोध नहीं है।
नीचेके 'ततः मत्र-वार्निका विरोध: सिद्धो भवति' इस इस सारी वस्तुस्थिति परसे स्पष्ट है कि विद्यानन्दने यहाँ वाक्यपर भी नहीं गई, और न उन्हें यह समझ पड़ा है कहीं भी राजवार्तिकके लिये 'सूत्र' शब्दका और अकलंकदेत कि यहां 'सत्र' और 'सत्रकार' शब्द उस सत्र तथा उसके
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
तत्वाथसूत्रका मंगलाचरण
२२६
कर्ता उमास्वाति के लिये हुए हैं जिनके जिस सत्रकथनके ११-कुमारनन्दिनचाहुदिन्यायविचक्षणः । पृ० २८० साथ अकलङ्कवातिकके विरोधका परिहार किया है। अन्यथा, १२-द्विप्रकारं जगी जल्पं श्रीदत्तो जल्पनिर्णयेपृ०२८० उक्क अवतरणके गहरे अध्ययनका अथवा शास्त्रीजीके ही १३-तत्रेहताविके वादेऽकलंकैः कथितो जयः ।पृ०२८१ शब्दोंमे ध्यानसे समीक्षणका' परिणाम ऐसी मोटी गलती १४-जातिरकलंकोक्तलक्षणा! (पृ० ३०१) जातिकदापि नहीं हो सकता था। शायद इसी अवतरणमें पाए लक्षणमकलङ्कप्रणीतमस्तु किमपरेण । पृ० ३१० हुए सत्र' और सूत्रकार' शब्दोको राजवार्तिक और अकलङ्क- (ख) अष्टमहसीके अवतरण-- देवके लिये प्रयुक्त हुए समझकर शास्त्रीजीने विद्यानन्दकी -तवृत्तिकारैरपि ततएवोद्दीपीकृतेत्यादिना तसंलेखन शैलीकी यह अनोखी कल्पना कर डाली है कि
स्तवनविधानात् । पृ०२ 'विद्यानन्द अपने पूर्ववर्ती किसी भी श्राचार्यको 'सत्रकार' २-स्वयं ग्रन्थकारेगारन्यत्रामिधानात, 'वं शंभवा
और पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थको 'सत्र' लिखते है। अन्यथा __ इतिस्तोत्रप्रसिद्धः । पृ०६२ विद्यानन्दके साहित्यपरमे ऐसी उपलब्धि नहीं होती। नीचे ३-वृत्तिकागस्त्वकलङ्कदेवा एवमाचक्षते कपिलमताके अवतरणोपर से पाठक देखेंगे कि उनमें विद्यानन्दने कहीं नुसारिणां । पृ० १०१ अपने पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको 'सत्रकार' और पूर्ववर्ती ४-तदुक्तंन्यायविविनिश्चये-"तपशीद्धोदनेरेव"पृ.११६ किसी भी ग्रन्थको 'मत्र लिखा है ? कहीं भी नही लिखा ५-तदुक्तं न्यायविनिश्चये-"अभिलापतदंशाना"पृ०१२० है। साथ ही यह भी मालूम करेंगे कि 'प्रकलदेनका ६-इति व्याख्यानमकलङ्कदेवळवधायि । पृ० १३१ उल्लेख उन्होंने अकलङ्कादि नाम देकर तथा उन्हें 'वृत्तिकार' ७-इति तात्पर्यव्याख्यानमकलंकदेवानामा पृ०६५७
और 'वार्तिककार' श्रादि लिम्यकर किया है-'सूत्रकार' लिख (ग) प्रमाणपरीक्षाके अवतरणकर नही:
१-नैकं स्वस्मात्यजायतेइति समन्तभद्रस्वामिभिरभि. (क) श्लोकवानिकके अवतरण
धानान । पृ०५६ १-अनन्तधर्मिणि वस्तुनि विवक्षा चाविवक्षा च २-तथाचोक तत्त्वार्थवार्तिककारः, इन्द्रियानिन्द्रिया
भगवद्भिः समन्तभद्रम्वामिभिरभिहितास्मिन् नपेक्षमनीतव्यभिचारं साकारग्रहणं प्रत्यक्षमिति । विचारे । पृ० ६१
पृ०६८ २ द्वित्यसख्याविशेषोऽत्राऽकलंकर-यधायि
३-तत्वार्थवानिकारैरभिधानान् । पृ० ६६ (वा.१७८) पृ. १८२
४-तदुक्तमकलङ्कदेवैः- पृ० ६६, ७६ -यार्तिककारेणवमुक्तं "अन्यथानुपपलच यत्र तत्र ५-तथा चाभ्यदापि कुमारनन्दिभद्रार:। पृ०७० अयण किम्” पृ. २०५
(घ) पत्रपरीक्षाके अवतरण-- -भावाद्येकान्तवाचानां स्थितं दृष्टेष्टचाधनं । मामन्तभद्र- 1-तथैव हि कुमाग्नन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये नो न्यायादिति नात्र प्रपंचिनम् । पृ० २३६
निगदितत्वात्तदाह-पृ. ३ ५-श्रुतस्वरूपप्रतिपादक्मकलंकग्रन्थमनुवादपुरस्परं २-धीमदकलङ्कदेवस्य प्रत्यक्ष विशदं ज्ञानं प्रमाण मिविचारयति । पृ० २३६
त्यादिवत । पृ०॥ ६-अत्रा कलङ्कदेवाः प्राहुः । पृ. २३६
३-अकलङ्कवचो यत्साध्यसाधनसूचकम् । पृ. ५ ७-इनि व्याख्यानमाऽकलङ्कमनुपर्तव्यम्। पृ०२४० ४-श्रीमाममन्तभद्रार्ययुनिविद्भिस्तथोकितः । पृ०५ ८-नाऽकलङ्कवचोबाधा संभवस्यव्रजातुचित । पृ०२४१ (ड) आमपरीक्षा-टीकाकेअवतरण६-'श्रुतं शब्दानुयोजनादेव' इयवधारणस्याउकलङ्का- -नथा चोकमकलङ्ककदवैः-'इन्द्रजालादिपु । पृ०४६ भिप्रेतस्य कदाचिद्विरोधाभावात । पृ. २४२
२-कममेव समन्तभद्रम्वामिभिः । पृ० ५१ ५०-सिद्ध वात्राऽकलङ्कम्य महतोन्यायवेदिनः पृ०२७७ (च) युक्त्यनुशामन-टीकाके अवतरण
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३०
अनेकान्त
१ - विस्तारतो देवागमे तस्य समन्तभद्रस्वामिभिः प्रतिपादनात् । पृ० ८६
२- प्रश्नवशादेकवस्तुन्य विरोधेन विधि- प्रतिषेधकल्पना सप्तभंगीति वार्तिककारवचनात् । पु० १०७ सत्यशासनपरीक्षा के अवतरण -- यह ग्रन्थ यद्यपि इस समय मेरे सामने नहीं है और न वीरसेवामन्दिरमें ही मौजूद है, फिर भी इस ग्रन्थ के परिचयका जो लेख स्वयं शास्त्रीजीने अनेकान्त वर्ष ३ किरण ११ मे प्रकाशित कराया है और उससे भी पूर्व जैनहितैषी भाग १४ के श्रह्न नं० १०-११ मे मुख्तार श्री जुगल किशोरजी ने जो परिचायक नोट निकाला है उन दोनोंपर से यह स्पष्ट जाना जाता है कि इस ग्रन्थमें ‘उक्त ं च भट्टाकलङ्कदेवैः' 'उक्त च स्वामि समन्तभद्राचार्यैः' जैसे वाक्योंके साथ अकलङ्क और समन्तभद्र के वाक्य उद्घृत पाये जाते हैं। शास्त्री जीने सिद्धिविनिश्चयके 'यथा यत्राविसंवादः तथा तत्र प्रमाणता' इस कारिकांशको उद्धृत करके बतलाया है कि इसे "कलदेवका नाम निर्देश करके ही उद्घृत किया है।"
सात ग्रन्थोंके इन बहुतसे श्रवतरणोंपर से स्पष्ट है कि विद्यानन्दने तत्त्वार्थ सूत्र के कर्ता श्राचार्य उमाम्वातिमे भिन्न अपने पूर्ववर्ती दूसरे किसी भी श्राचार्यको इन श्रवतर णोंमें सूत्रकार नही लिखा है और न उनके किसी ग्रन्थको 'सूत्र' नामसे या सूत्रनामके साथ उल्लेखित किया है, और इस लिए शास्त्र जीने विद्यानन्दकी लेखन शैली के सम्बन्ध मे जो नई कल्पनाकी है वह बड़ी ही अनोखी तथा निगधार जान पड़ती है और कहीं भी उसका समर्थन नही होता। स्वयं चुनकर रक्खा हुश्रा शास्त्रीजीका उदाहरण ही जब उसका समर्थन करने में असमर्थ हो गया है तब दूसरे किन श्राधारोवरसे वह फलित होती है श्रथवा उसका समर्थन होता है. इसे शास्त्रीजी ही बतला सकते हैं
1
[ वर्ष ५
यह पाठ शुद्ध है, इसकी जगह 'तत्त्वार्थसूत्रकारादिभिः ' होना चाहिये; जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है-श्रौर एक फुटनोट-द्वारा उसका अच्छा स्पष्टीकरण भी किया जाचुका है। ऐसी हालत में 'तत्त्वार्थ सूत्रकार' शब्दका एक मात्र वाच्य यहाँ श्राचार्य उमास्वाति हैं - तस्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति से भिन्न दूसरे श्राचार्य 'आदि' तथा 'प्रभृति' शब्दों वाच्य हैं। और इस लिए विद्यानन्द ने उमास्वातिके बाद प्रभृति' शब्द के प्रयोगद्वारा श्रन्य पूज्यपादादि श्राचार्यों को 'तत्वार्थ पूत्रकार' सूचित नही किया है । यदि थोड़ी देरके लिये यह मान भी लिया जाय कि दूसरे श्राचार्योंको भी सूत्रकार सूचित किया है तो भी उससे यह फलित नहीं होता कि उन्हें भी 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलश्लोकका कर्ता बतलाया है; क्योंकि एक ही कृतिके भिन्नकालवर्ती दो कर्ता हो नहीं सकते — दूसरे तो उसके अनुमती ही कहे जा सकते हैं तब उक्त मंगलश्लोक-गत विषय के प्रतिपादन में उमास्वातिका नाम खास तौर से देने और दूसरे किसी भी प्राचार्यका नामोल्लेख साथ मे न करनेसे यह साफ़ जाना जाता है कि विद्यानन्दने उमास्वाति श्राचार्यको ही उक्त मंगलश्लोकका कर्ता सचित किया है, दूसरे पूज्यपादादि श्राचार्य, जिन्होंने इस मगलश्लोकको अथवा इसमें प्रयुक्त हुए प्राप्तके विशेषणांको अपनाया है, वे सब इसके अनुसर्ता ही हैं—कर्ता नही । और जब यह सिद्ध होजाता है कि उमास्वाति आचार्य 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलश्लोक के कर्ता हैं और उन्होंने इसे अपने तत्त्वार्थशास्त्रकी श्रादिमें रखखा है, तब इसमें कोई सन्देह नही रहता कि यही श्लोक प्रस्तुत तस्वार्थमूत्रका मंगलाचरण है।
रही श्राप्तपरीक्षा टीकाके 'तत्त्वार्थसूत्रकारैः उमाम्वामिप्रभृतिभि:' इस उल्लेखमे प्रयुक्त हुए 'प्रभृति' शब्दके द्वारा अन्य पूज्यपाद श्रादि श्राचार्योंको सूत्रकार सूचित करने की बात, वह नहीं बनती; क्योंकि इसमें 'तत्त्वार्थसूत्रकारः'
उमास्वातिकृत न होनेके कारण और उनकी जाँच
उक्त वस्तुस्थितिपरसे, यद्यपि, 'मोक्षमार्गस्य नेतार' इत्यादि मङ्गलस्तोत्रको उमास्वातिका कहने से इनकार करने के लिये कोई कारण नहीं रहता, फिर भी शास्त्रीजी ऐसे कुछ दूसरे कारण भी उपस्थित कररहे हैं जिनकी वजह से उन्हें उक्त मंगलस्तोत्रको सूत्रकार उमास्त्रातिका
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७
तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
२३१
माननेमें संकोच हो रहा है। अत: उन कारणों को भी जाँच कि यह श्लोक सूत्रकार का है, तो वे इस अमूल्य कर लेना आवश्यक जान पड़ता है, जिससे यह विषय और बेजोड़ श्लोकरनको कभी भी नहीं छोड़ते। वे इसपर भी अधिक स्पष्ट हो जाय और उक्तमंगलश्लोकको तत्त्वार्थ व्याख्या करते और स्वतन्त्र प्रन्य तक रचते । सूत्रका मंगलाचरण मानने में किसीको भी संकोच न रहे। इत्यादि कारणोसे यह निःसंकोच कह सकते हैं कि शास्त्री जी अपने उन कारणोंको उपस्थित करते हुए यह श्लोक स्वयं सूत्रकार-कृत नहीं है, किन्नु पूज्यपादकृत है।" लिखते हैं:
(१) इन कारणों में से प्रथम कारणके सम्बन्धमें पहले "निम्न लिखित कारणोंसे यह स्तोत्र स्वयं मूत्रकार तो मैं यह कह देना चाहता हूं कि यह कोई ऐसा हेतु नहीं उमास्वातिका तो नही मालूम होता
जो विषयका निर्णायक हो सके, क्योंकि शास्त्रीजीके देखने में १-जहाँ तक प्राचीन प्रास्तिक सूत्र-ग्रन्थ देखने में पाए हैं, यदि कोई ऐसे प्राचीन ग्रन्थ न भी पाए हों जिनमें मंगलाउनमें कही भी मंगलाचरण करनेकी पद्धति नही है। चरण किया गया हो तो इसपरसे यह नहीं कहा जा सकता
कि उमास्वातिकाल तक सूत्रग्रन्थों में मंगलाचरणकी पद्धति २-यदि यह सूत्रकार-कृत होता, और तन्वार्थसूत्रका ही
नही थी। दूसरे, यह बतला देना चाहता हूं कि एसे अनेक अंग होता, तो उसकी व्याख्या करने वाले पूज्यपाद
प्राचीन सूत्रग्रन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही जैन अकलङ्क और विद्यानन्द श्रादि प्राचार्योने अपने सवार्थ
परम्परामोमें पाये जाते हैं जिनमें मंगलाचरण किया गय। सिद्धि, राजवार्तिक और श्लोकवार्तिक श्रादि व्याख्या
है। नीचे उनमें से कुछ के नाम मंगलाचरणकी सूचना ग्रन्थों में इसका व्याख्यान अथवा निर्देश अवश्य किया
सहित प्रकट किये जाते है :-- होता।
(क) दिगम्बर जैन सूत्रग्रन्थ३--यदि पूज्यपादने स्वयं इसे नहीं बनाया होता श्रीरवं इसे सूत्रकारकृत समझते तो वे सर्वार्थसिद्धिमे इसका
१ पटवण्डागमसूत्र--यह पुष्पदन्त-भूनबली व्याख्यान अवश्य करते ।।
श्राचार्यविरचित अतिप्राचीन सूत्रग्रंथ है। इस
के प्रथम खगड 'जीवाण' की प्रादिमें 'गामी ४--सर्वार्थसिद्धिपर प्रभाचन्द्रकृत तत्वार्थवृत्तिपद-विवरण
अरिहंताणं णमो सिद्धार्ग' इत्यादि प्रसिद्ध नामकाका एक विवरण उपलब्ध है । इसमें इस
यामोकारमंत्र मंगलाचरण के रूपमें दिया है. मंगलको सर्वार्थसिद्धिका मानकर उसका यथावत
और 'वेयणा' खण्डकी प्रादिमें 'रामाजिग्गाणं' व्याख्यान किया है।
इत्यादि ४४ मंगलसूत्र दिये हैं, जिनकी बाबत ५-तत्त्वार्थसूत्र थोडे-बहुत हेर-फेरके साथ श्वेताम्बर
'धवला' टीकामे लिखा है कि 'ये गोतमस्वामिपरम्परामे भी मान्य है। उसपर एक स्वयं सूत्रकारका
प्रणीत 'महाकर्मपयडीपाहुड' के श्रादिके स्वोपज्ञ भाष्य भी प्रसिद्ध है। सिद्धसेनगणि, हरिभद्र,
मंगलसूत्र हैं, वहीये लाकर भूतबलि प्राचार्यने यशोविजय उपाध्याय आदि प्राचार्योने इसपर टीकाएं
इन्हें उम कम्मपयडी पाहुडके उपसंहाररूप इस लिखी हैं। इन सभी व्याख्यानोंमे इस मंगलस्तोत्रका
वेदनाखंडकी आदिमें मंगलके लिये रक्खा है. उल्लेख तक नहीं है। यदि यह स्वयं उमास्वातिकृत
और इसलिये ये एक प्रकारसे अनिबद्ध तथा होता, तो कोई कारण नहीं था कि इन श्वेताम्बर *यह उद्धरण शास्त्र के लेग्वक उम आदिम ग्रंशक बाद व्याख्याओं में न पाया जाता । इस श्लोकमें कोई का है जो इम लेविके शुरुम उदधृत किया गया है और भी ऐसी माम्प्रदायिक वस्तु नहीं है, जिससे हमके अननसरका वह अंश है मे ऊपर मध्यभाग बाला साम्प्रदायिकताके कारण इसके छोडनेका प्रसंग अश प्रकट किया है और जो "परन्तु विद्यानन्द प्राचार्य पाता। यदि इन प्राचीन प्राचार्योको यह ज्ञात होता ही" इन शब्दाम प्रारम्भ होता है।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनकान्त
[वर्ष ५
दूसरे प्रकारमे निबद्ध मंगलके रूपमे है। इससे कृत्वा त्रिकरणशुद्धं तस्मै परमर्षये नमस्कारम। सत्रग्रंथोकी प्रादिमे मंगलाचरण की पद्धति पूज्यतमाय भगवते वीराय विलीनमोहाय ॥१॥ गौतम स्वामी तक पहुंच जाती है, जहांसे भागम- उपर्युक्त प्रमाणोपरसे प्रकट है कि प्राचीन सूत्रग्रंथोंमे सूत्रोका प्रारंभ होता है।
ती मंगलाचरण की पद्धति रही है, शुभ कार्यकी प्रादिमें २ प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि-ये श्री मंगलाचरण करना शिष्ट एवं आस्तिक परम्पराके अनुकूल कुंदकुदाचार्य के सूत्रग्रंथ हैं, जिनमे 'एस मुग- है--प्रतिकृल नहीं, और इसलिये कुछ ग्रन्थोंमें यदि मंगसुरमहिदो', 'इंदमदवंदियाण' इत्यादि रूप लाचरण नही भी पाया जाता तो मात्र उस परसे यह से मंगलाचरण किया गया है । कुंदकुंदाचार्य कल्पना कर लेना कि, उमास्वातिने भी मंगलाचरण न किया उमास्वातिमे पूर्ववर्ती हैं । "प्रो. ए. एन. होगा, ठीक नहीं है। वह उमास्वाति-ग मंगलाचरण के उपाध्येने प्रवचनमारकी भूमिकामें इनका किये जाने अथवा उसके श्रीचित्यमें कोई बाधक नहीं हो समय ईसाकी प्रथम शताब्दी सिद्ध किया है। सकता । प्रकटरूपसे मंगलाचरण का करना-नकरना ऐसा शास्त्रीजीने स्वयं न्यायकुमुदचंद्रकी। अथवा मंगलाचरण करके उसे शास्त्रनिबद्ध करना-न करना प्रस्तावना (पृ. २५) मे विना किमी अापत्तिके यह सब हर किसीकी अपनी रुचिपर निर्भर है । और इस उल्लेवित किया है।
लिये शास्त्रीजीके पहले कारण में कुछ भी मार मालूम नहीं (ब ) श्वेताम्बरीय सूत्रग्रंथ
होता। १ भगवतीमूत्र-इसमे णमो अरिहंताणं इन्यादि (२) दूसरे कारण के सम्बन्धमे मेरा निवेदन इस रूपमे कई मंगलसूत्र दिये हैं।
प्रकार है :-- २ दशाश्रुतस्कन्धसूत्र-इसमें भी णमो अरिहं. (क) प्रथम तो यह मंगलश्लोक बहुत सुगम है-- ताण' इत्यादि नमोकारमंत्रको ही मंगलाचरण शब्दार्थकी दृष्टिमे इसकी व्याख्याकी ऐसी कोई जरूरत नही के रूपमे दिया है।
रहती। दूसरे, हर प्रकारके टीकाकारके लिये यह लाजिमी ३ नन्दीमत्र--इसमें 'जयह जगजीवजोणों श्रादि नहीं कि वह ग्रंथके मंगलाचरण की भी व्याख्या करे--
तीन गाथाओ द्वारा मंगलाचरण किया है। कितने ही टीकाकार तो मूलके भी अनेक पद-वाक्योंकी ४ निशीथसूत्र-इसमे 'नमो मुयनेवयाए रूपये टीका करना आवश्यक नहीं समझते, और इसलिये उन्हें मंगलका विधान है।
यो ही अथवा 'सुगम अादि लिवकर छोड़ते हुए देख ५ नशवकालिक सूत्र-इसमें 'धम्मो मंगलमुक्टि" । जाते हैं। 'धवला जैसी विस्तृत टीका तकम भी एमे बहुत
इण्यादि रूपसे मंगलाचरण किया है। स्थल पाये जाते हैं। तीसरे, ऐसे स्पष्ट उदाहरण भी उप६ जीतकल्पसूत्र(जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत)-- लब्ध हैं, जिनमें मूलग्रन्थपर टीका अथवा भाष्य लिम्बते इसमे 'कयपवयण पणामो' इस रूपमे समय मूलके मगलाचरण की कोई व्याख्या नही की गई। मंगलाचरण है।
नमृनेके तौरपर श्वेताम्बर सम्प्रदायके कर्मस्तव' नामके ७ तत्वार्थमूत्र-इसके शुरू में मूलसे सम्बन्धित द्वितीय कर्मग्रंथ और ' पडशीति' नामके चतुर्थ र्मग्रंथ
जो ३१ कारिकाएँ स्वयं उमास्वानिकृत मानी को पेश किया जा सकता है. जिन दोनोमे मंगलाचरण जाती है उनमे नमस्कारात्मक मंगलाचरणकी किया गया है परन्तु उनके भाष्योम मूल के मंगलाचरण पर एक कारिका निम्न प्रकार है, जिसके अनन्तर ही कुछ भी नहीं लिखा गया--मंगलाचरण का व्याख्यान या दूसरी कारिका' ग्रन्थ रचने की प्रतिज्ञाको लिए भाग्य करना तो दूर रहा, उपके पदोका निर्देश तक भी
तत्वार्थाधिगमाख्यं बहथं संग्रा लघु ग्रन्थम् । * वह दूसरी कारिवा इस प्रकार है:
वक्ष्यामि शिप्यहित-निमम द्वचनैकदेशम्य ॥२२॥
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
२३३
नहीं किया गया है। चौथे, तत्वार्थाधिगमसूत्रका जो स्वोपज्ञ दशाश्रुतस्कन्ध और जीवाभिगम भादि सूत्रग्रंथोंका मंगलाभाष्य कहा जाता है उसमें उन ३१ सम्बन्धकारिकाओंका चरण बना हुआ है, उसे भी रिसीने किसीपरसे अपनाया कोई भाप्य नहीं है जो मूल के साथ सम्बद्ध हैं* और ही है। इसी तरह दिगम्बर 'प्राकृतपंचसंग्रह' के बन्धोदयजिनमें मंगलाचरण तथा ग्रन्थप्रतिज्ञाकी वे कारिकाएँ भी सवाधिकार और श्वे. 'कर्मस्सव' ग्रंथका मंगलाचरण शामिल है जिन्हे इस लेखमें पहले उद्धृत किया जा चुका भी एक है, जिससे प्रकट है कि वह किसी एकके द्वारा रचा है। ऐसा भी नहीं कि स्वोपज्ञ भाग्य अथवा टीका होनेसे गया और दूसरेके द्वारा अपनाया गया है । ऐसी हालत मंगलाचरण के पद्योंकी टीका ही न की जाती हो, क्योंकि होते हुए सर्वसिद्धि में उक्त मंगलश्लोककी टीकाका न पाया जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का जो जीतकल्प' सूत्र है उस जाना कोई विरोधी असर नहीं रखता। की स्वोपज्ञ टीकामें गणी.ने उसके मंगलाचरण की स्वयं (ग) दूसरे दो प्रन्थ (राजवार्तिक, श्लोकवार्तिक ) व्याख्या की है। इसी तरह पं० प्राशाधरजीने भी अपने पार्तिक हैं और वार्तिकका लक्षण है-'सूत्रोंकी अनुपपत्ति 'धर्मामृत' की स्वोपज्ञ टीकामे मंगलपोंकी व्याख्या की को बतलाना, अनुपपत्तिका परिहार करना और सूत्रसंबंधी है। और इसलिये इस सबके निष्कर्षरूपमें यही कहना विशेष कथन करना, जैसा कि श्री विद्यानन्दके लोकवार्तिकसंगत होगा कि मूलके मंगलाचरणादि किसी भी अंशकी गत निम्न वाक्यसे प्रकट हैव्याख्या करना-न करना यह सब व्याख्याकारकी रुचि- "वार्तिकं हि सूत्राणामनुपपत्तिचोदना तत्परिहागे विशेषपर अवलम्बित है।
विशेपाभिधानं प्रमिद्धम ।" (पृ. २) (ख) पूज्यपाद प्राचार्यने अपनी सर्वार्थसिद्धिर्म तत्वा
ऐसी हालतमें वार्तिकोंके लिये उनके स्वरूपसे ही यह र्थसूत्रके मंगलाचरणको अपना लिया है, इससे भी उनपर
आवश्यक नहीं रहता कि वे सत्रों के अतिरिक्त मंगलाचरण उक्त मंगललाव की व्याख्या करना कोई आवश्यक नहीं
की भी व्याख्या करें । और जब बार्तिकोंके लिये ही वह रहा। दूसरे श्राचार्योंने उमास्वातिकृत 'मोक्षमार्गस्य नेतारं'
आवश्यक नहीं तब उनके भाष्योंके लिये तो कैसे प्रावश्यक इत्यादि मंगलश्लोकको तथा इसमे प्रयुक्त हुए प्राप्तके विशे
हो सकता है ? क्योंकि ये वार्तिकानुपारी ही होते हैं। अत: पणोंको अपनाकर प्राप्तस्वरूपका प्रतिपादन किया है, इसी राजवार्तिक जैसे ग्रंथों में यदि मंगलाचरण की व्याख्या न बातको बतलानेके लिये विद्यानन्द प्राचार्यने अपनी प्राप्त- मिले तो वह कोई अनहोनी बात नहीं है। इसके सिवाय परीक्षा-टीका और अमहस्रीमें 'सूत्रकागदयः प्राहुः' राजवार्तिककार प्रकलंकदेवने, उक्त मंगलश्लोकको लक्ष्य 'तत्वार्थसूत्रकारादिभिः उमास्वातिप्रभृतिभिःप्रतिपाद्यते' करके लिखी गई प्राप्तमीमांसा ( देवागम ) की वृत्तिम • मुनिभिः सूत्रकारादिभिरभिटूयते' जैसे वाक्योंमें 'मङ्गलपुरस्सरस्तव' जैसे शब्दोंके द्वारा यह सूचित किया 'आदि' और 'प्रभृति' शब्दोंका प्रयोग किया है, जैमा कि है कि उक्त मंगलस्तोत्र तत्वार्थशास्त्रके अवतारके समय ऊपर बतलाया जा चुका है। दूसरेके मंगलाचरणको अपनाने रचा गया है। और विद्यानन्दने तो श्लोकवार्तिकमे उक्त की बात भी कोई अनोखी तथा नई नहीं है-महाकम्म- मंगलश्लोक-गत प्राप्तके विशेषको लेकर प्राप्तके स्वरूपका पयडी पाहुडके 'गणमो जिगणाणं' आदि ४४ मंगलसूत्रोंको बहुत कुछ व्याख्यान भी किया है, प्राप्तके उक्त विशेषणोंकी वेदनावण्ड' में अपनाया गया है और 'णमोअरिहंताणं' सिद्धिपर ही श्रादिमस्त्रका प्रवर्तन बन सकता है यह बतलाया है, श्रादिरूपसे जो णमोकारमंत्र षटबंडागम, भगवतीसूत्र, जिसका कुछ उल्लेख इसी लेखमें पीछे विद्यानन्दका अभिमत' * जैसा कि नत्वार्थसूत्रकी उम सटिप्पण-प्रतिसे भी प्रकट है * जमा कि श्रष्टमहस्रीमं दी हुई उक्त शब्दोकी निम्न व्याग्व्या जिसका परिचय पं जुगल किशोरने अनेकान्त के नीमरे वर्षकी परसे भी प्रकट हैप्रथम किरणम पृ० १२१ से १२८ तक दिया है । पं. "मंगलपुरस्सरस्तवो हि शास्त्रावताररचितस्तुनिरुच्यते । मुग्बलाल जी भी अपने तत्वार्थसूत्रकी प्रस्तावनामें, इन्हें मंगलं पुरम्मरमस्येति मंगलपुरस्सर: शास्त्रावतारकालस्तत्र "मूलग्रंथको ही लक्ष्य करके लिखी गई" बतलाते हैं। नितः स्तवो मंगलपरस्मरस्तवः इति व्याख्यानात् ।""
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
२३६
अनेकान्त
[ वर्ष ५
उपसंहार और आभार
प्रयोग क्रमश: 'राजवासिंक' और 'अवलङ्क देवे के लिए न
ऊपर के इस संपूर्ण विवेचनपरसे नीचे लिखी बातें होकर 'तत्वार्थ सूत्र' और उसके वर्ता 'उमास्वाति' के लिये बकुल स्पष्ट और सन्देह-रहित हो जाती है किया गया है। और इस लिये शास्त्रीजीका यह लिखना कि 'विद्यानन्द अपने पूर्ववर्ती किसी भी श्राचार्यको 'सूत्रकार' ओर पूर्ववर्ती किसी भी प्राथको 'सूत्र' लिखते हैं' बिल्कुल निराधार है, और यह निराधारता उन प्रचुर प्रमाणोंसे और भी दिनकर - प्रकाशकी तरह स्पष्ट हो जाती है जो ऊपर पृ० २२१ पर उटत किए गए हैं 1
४- उक्त मङ्गलश्लोके उमास्वाति-कृत न होनेमे ओ पोच कारण शास्त्रीजीने उपस्थित किए हैं उनमें कुछ भी दम तथा सार नहीं है-सूत्रादिमंगलाचरणकी पृथाका पता उमास्वातिके पूर्ववर्ति समय में गोतमस्वामी तक चलता है, किसी भी टीकाकार के लिए यह प्रावश्यक तथा लाज़िमी नहीं कि वह उसके मंगलाचरणकी भी व्याख्या करे, श्लोकवार्तिकमे व्याख्याका न होना बतलाना गलत है, सर्वार्थसिद्विकार पूज्यपाद मूलके उक्त मंगलश्लोकको अपना लिया है इससे उनपर उसकी व्याख्याका करना और भी श्रावश्यक नही रहा, सर्वार्थसिद्धिपर प्रभाचन्द्रका वह क्रम तथा श्रव्यवस्थित विवरण कोई विरोधी प्रसर नहीं रखता और श्वेताम्बर श्राचार्योंके लिये तो अपनी टीका इस मंगलश्लोककी व्याख्या श्रादिका कोई कारण ही नहीं रहता जब उनके यहाँ पहलेसे सूत्रपाठ अलग स्थिर कर लिया गया है और उसमें उक्त मंगलश्लोकको स्थान नहीं दिया गया है, बल्कि शुरूको सम्बन्धकारिकाओंमें दूसरे ही मंगलाचरणकी कल्पना की गई है।
1
आशा है शास्त्री हमपरसे पुन: विचार करके अपने निर्णयको बदलेंगे और दूसरे विद्वान् पाठक भी इस विषय को निर्णीत करार देंगे कि 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' इत्यादि मंगलश्लोक नश्वार्थसूत्रका मंगलाचरण है श्री सूत्रकार उमास्वाति की कृति है । विद्वानोंसे अपना अपनाथभिमत प्रकट करनेके लिए सानुरोध निवेदन है ।
१ --- श्राचार्य विद्यानन्दने श्राप्तपरीक्षा के अन्तिम पद्यों और प्रष्टसहस्त्र | गलपद्य में ऐसी कोई सूचना नहीं की कि 'तस्वार्थसूत्रकी उत्पत्तिका निमित्त बतलाने वाली भूमि कादि बाँधते समय चाचार्य पूज्यपादने अपनी स टीका के प्रारम्भमें स्वयं उक्त मंगलश्लोकको बनाकर रक्खा है' और न उन शब्दोंपरसे ही ऐसी कोई सूचना मिलती है जिनकी तरफ शाखोगीने संकेत किया है। उनक स्पष्ट आशय इतना ही है कि तस्वार्थशास्त्र (सूत्र) की श्रादि मैं उसके रचनारम्भके समय शाखकार ने सूत्रकार उमास्वातिने 'मोषमार्गस्य नेता' इत्यादिरूपसे उस मंगलस्त्रोत्रकी रचना की है जिसकी आसपा ऽन्वरूप' व्याख्या की गई है
1
,
२ श्रीविद्यानन्द आचार्यके लोकवार्तिक मध्याख्यान परीक्षा सटीक और सही जैसे ग्रन्थोंपर उनका यह स्पष्ट अभिमत पाया जाता है कि उक्त मंगलस्तोत्र एक मात्र सूत्रकार उमास्यानिकी कृति है और उन्होंने उसे अपने स्वार्थ आदि में मंगलाचरयाली पर रखकर रखा है। ३- प्राचार्य विद्यानन्दकी दृष्टिमें 'सूत्रकार' का वाच्य प्राचार्य उमास्वाति और 'सूत्र' शब्दकावाच्य उनकी एकमात्र कृति तस्यार्थसूत्र रहा है। शास्त्रीजीने भी उदाहरण उपस्थित किया है, वह बिल्कुल गलत तथा भ्रममूलक है । उसमें पाये जाने वाले 'सूत्र' और 'सूत्रकार' शब्दोंका है । स्वयं विद्यानन्द के वाक्योंमे ही वह स्पष्टतया सूत्रकार उमास्वाति-कृत सिद्ध होता है । ऐसी हालत में उक्त सुझाव निर्धक है । ममन्तभद्र के समय सम्बन्धमे पं० जुगलकिशोर मुख्तारका लिखा हुआ 'समन्तभद्रका समय और डाक्टर के०बी० पाठक' नामका वह लेख देखना चाहिए, जो 'जैन जगत' के ६ वर्षके श्रङ्क १५-१६ में प्रकाशित हुआ है। उसमे दी हुई सभी युक्तियांका जब तक कोई सबल उत्तर नही दिया जाता तब तक यो ही चलती सी बात कह देना ठीक नहीं है और इसमे यहाँ उसके विषय में विशेष कुछ भी लिखना उचित नही समझा गया-वद इस लेख का विषय नहीं है ।
1
इस लेख लिखने में मुझे मुख्तार श्री पं० जुगल किशोर जीका पूरा सहयोग प्राप्त हुआ है, जिसके लिये मैं आपका बहुत आभारी हूँ । आपका भी इस विषय में यही मत तथा निर्णय है।
वीर मेवा मन्दिर, सरसावा जि० सहारनपुर
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
* श्रीदादीजी *
माता जिला महारनपुर के जन रईस स्वर्गीय जिस कामके लिए पुरुष भी उकता जाय उसको श्राप सहज
माननीकी धर्मपत्नी हैं, मेरे पिताकी सगी मामी माध्यकी तरह सम्पन्न करती रही हैं। इस बद्ध अवस्थामें होने से मोबादी है। स्थानीय जनता श्रापको बडीजी भी श्रापका इतना पुम्पार्थ- अवशिष्ट है कि श्राप भोजन नाबादीजीनाममे ही पुकारती है। यो श्रापका नाम बना लेती हैं. चक्की चला लेनी हैं और गाय-भैसको दहने 'गमी बाई है। आपकी अवस्था इस समय ८३ वर्षकी तथा दृध-दहीक बलोनका काम भी कर लेती हैं। माथ ही है। श्रापका जन्म देवन रि० फरीदकोट (पंजाब) में वि० एक अाश्चर्यकी बात यह है कि अंगोंमें बहुत कुछ शिथिलता संवत १९१७ में हुआ था।
|श्रा जाने और शरीरपर झुरियां श्राप के पिताका नाम कन्हैया-1
पड़ जानेपर भी आपके सिर लाल और माताका अनोग्बीथा।
का एक भी बाल अभी तक यद्यपि जन्मसे थाप अग्र
सफेद नही हया है। वाल वैश्यकुलमें उत्पन्न हुई
कोई ४५ वर्षकी अवस्था थी, परन्तु विवाहित होते ही
में आपको वैधव्यकी प्राप्ति श्राप जैनधर्ममें ऐसी परिणत |
हुई उसके छः वर्ष बाद ही होगई जैसी कि पशिडता चंदा
श्रापका देव-कुमार-सा इकबाईजी। भले ही आपकी शिक्षा
लौता पुत्र 'प्रभुदयाल' भी चल विशेष नही हुई–माधारण
बमा । जो बहुत ही बुद्धिमान भकामगदि स्तोत्र, भजन
तथा साधु-स्वभावका था । पग्रह, भृधरजनशतक और
उसमे थोडे ही दिन बाद श्राप जापाठकी पुस्तके ही श्राप
की पुत्री 'गुणमाला' बालपढ लेती हैं, फिर भी आपने |
विधवा होगई । और फिर शाम खूब सुने हैं और जैना
श्रापकी पुत्रवध भी २-३ वर्षचार सबन्धी बत नियम-उप
की पुत्री 'जयवन्नी को छोडवास तथा शीलमयमादि की
कर चल बसी। इससे आपके कोई भी बात ऐसी उठा नहीं |
ऊपर भारी संकटका पहाड़ टूट ग्क्स्वी जिसपर आपने दृढ़ताके
पडा ' परन्तु इस दुखावस्था माथ अमल न किया हो।
में भी आपने धैर्य तथा पुरमुख्य मुख्य यात्राएं भी श्रापने |
पार्थ नहीं छोडा, कर्तव्यसे मुग्ध पब ही की हैं-तीन महीने दक्षिण देशीय यात्रामे आप नहीं मोडा और श्राप मोंकी भाति बराबर निर्भय होकर सकटुम्ब मेरे साथ भी रही हैं और पूर्वकी यात्राओंमे भी जमीदारी के कार्य-संचालनमें लगी रही। ग्वगइगिरि उदयगिरि नक माथ रही हैं।
पुी गुणमाला तथा पोती जयवन्तीको शिक्षा देना भी श्रापका स्वभाव जीवन-भर बडा ही नम्र, प्रेमपूर्ण और अब श्रापका ही कर्तव्य रह गया था, जिसकी ठीक पूनि मेवा-परायण रहा है। कोई भी अतिथि घरपर पाये उसे दोनोंको घरप। रग्वनेमे नही हो सकती थी। अत: आपने अापने सादर भोजन कगये गिना जाने नहीं दिया। अतिथि- दोनोंको मेरे पास देवबन्द शिक्षाके लिए भेज दिया। जब मवामे श्राप बहुत दक्ष हैं। आपमें पुरुषों जैसा पुरुषार्थ मेरी धर्मपस्निका देहान्त हो गया तब मैंने इन्हें पंडिता
और वीग मी हिम्मन तथा होमला रहा है। चार-चार चन्दायाईजीके अाश्रममे भाग भिजवा दिया और इनकी भयो तक की धार आपने अकेले एक साथ निकाली हैं। शिक्षाका ममुचित प्रबन्धकर दिया । नगरके लोगों और
Post
य
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष
अनेक इष्टजनोंने दादीजीसे कहा कि तुम ऐसी दुःख-संकटकी है। पैसा आप कभी फिजूल खर्च नहीं करती, अवस्थामें इन्हें बाहर क्यों भेजती हो? अपनी छातीमे परन्तु ज़रूरत पड़ने पर उसके खुले हाथों खर्चने में लगाकर क्यों नहीं रखती? परन्तु विद्यासे प्रेम रखने वाली कभी संकोच भी नहीं करतीं। इन्हीं सब बातोंमें श्रापका
और अपने श्राश्रितजनाका • ला चाहने वाली दादीजीने महत्व मंनिहित है। उनकी एक नहीं सुनी और स्वयं अकेलेपनके कष्ट झेलकर
मेरे मुस्तारकारी छोड़ने पर श्रापने नानीतासे देवबन्द भी वर्षों तक इन्हें बाहर ही रखकर शिक्षा दिलाई । इन
श्राकर मुझे शाबाशी दी और मेरी कमर हिम्मतकी थपदोनोंके प्रति चन्दाबाईजीकी श्रद्धा बहुत बढ़ी-चढ़ी है।
थपाई। इसपर गृहिणीको कुछ बुरा भी लगा क्योंकि पिता गुणमालाका सती-साध्वी-जैसा जीवन श्रापको पसन्द आया
भाई आदि और किसीने भी मेरे इस कार्यका इस तरहसे और जयवन्तीकी बुद्धिमत्ता तथा सुशीलता मनको भा गई।
अभिनन्दन नहीं किया था। परन्तु बादको श्रापके समझाने इसीसे जब कभी पंडिनाजीकी इच्छा होती है वे इन्हें अपने
पर वह भी समझ गई। पास बुला लेती हैं, यात्रादिकमें अपने साथ रखनी हैं और स्वयं भी कई बार इधर इनके पास आई हैं और सदैव
देहली-कगलबाग़ में जब समन्तभद्राश्रम था तब एक
बार मारे स्टाफ़के बीमार पड़ जाने और अनेकान्तके प्रत इनके हितका ख़याल रखती हैं। चि. जयवन्तीको अापने 'जैनमहिलादर्श' की उपसंपादिका भी नियन कर रखा है।
श्रादि कार्योंकी माग मारीके कारण मुझे पाँच दिन तक
भोजन नहीं मिला था उस समय खबर पाकर श्राप ही अपनी श्राशाकी एकमात्र केन्द्र चि० जयवन्तीका भले नानौताये देहली पहुंची थीं और थापने छठे दिन मुझे प्रकार पालन-पोपण एवं सुशिक्षण सम्पन्न करके और भोजन कराया था। वीरम्मेवामन्दिरकी स्थापनाके अवसरमे प्रतिष्टित घरानेके योग्य वर वा० त्रिलोकचन्द बी.ए. के श्राप उसके हरएक उत्पवमें श्रातिथ्य-सेवाके लिए स्वयं साथ उसका सम्बन्ध जोडकर दादीजीने सोचा था कि वह पधारती रही हैं अथवा अपनी सुयोग्य पुत्री गुणमाला तथा जमींदारेका सारा भार चि. त्रिलोकचन्द वकील के सुपुर्द पीती जयवन्ती को भेजती रहीं हैं जिससे मुझे कोई विशेष करके निश्चिन्त हो जावेगी और अपना शेष जीवन पूर्णतया चिन्ता करनी नहीं पड़ी। इसके सिवाय, बीमारियोंके अत्रधर्मध्यानके साथ व्यतीत करंगी, परन्तु दुर्दैवको यह भी सर पर श्राप बराबर मेरी खबर लेती रही है, मानाकी तरह इष्ट नहीं हया-अभी सम्बन्धके छह वर्ष भी पूरे महीने में मेरे हिना ध्यान रखती और मुझे धैर्य बँधाती रही हैं। पाये थे कि त्रिलोकचन्दका अचानक स्वर्गवास होगया! इस समय भी श्राप मेरी बीमारीकी ख़बर पाकर और यह जयवन्ती भी बाल विधवा बन गई ! पुत्रके पहिले ही चल जानकर कि सारा श्राश्रम बीमार पड़ा है, वीरसेवामन्दिर बसनेमे उमकी गोदभी खाली होगई ! और दादीजीकी में पधारी हुई हैं और रोटी-पानीकी कुछ व्यवस्था कर रही मारी शाशानों पर पानी फिर गया !
हैं। सकार्योंके करनेमें मुझे सदा ही आपसे प्रेरणा मिलती इस तरह दादीजका जीवन एक प्रकारस दुख और संकटकी
रही है--कभी भी आप मेरी शुभ प्रवृत्तियों में बाधक नहीं ही करुण कहानी है! परन्तु श्रापने बड़ी वीरताके साथ
हुई। इन सब सेवाओंके लिए मैं आपका बहुत ही उपकृन
हूं और मेरे पास शब्द नहीं कि मैं श्रापका समुचिन श्राभार संकटॉका सामना किया है और धैर्यको कभी भी हाथसे। जाने नहीं दिया। श्राप सदा बातकी सच्ची और धुनकी पक्की .
प्रकट कर सकूँ। रही हैं। दूसरे थोडेसे भी उपकारको श्रापने बहुत करके
वीरसंवामन्दिरसे श्राप विशेष प्रेम रखती हैं और सदा माना है। जिसे आपने एक बार वचन दे दिया. फिर लाख उसकी उन्नतिकी भावनाएँ करती रहती हैं । हालमें श्रापने प्रलोभन मिलने तथा प्रचुर श्राधिक लाभ होनेपर भी श्राप चीरसेवामन्दिरको १०१) रु. की सहायता भी प्रदान उससे विचलित नहीं हुई-इस विषयकी कई रोचक की है। घटनाएं हैं, जिन्हें यहां देने के लिए स्थान नहीं
जुगलकिशोर मुख्तार
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
जैन समाजके होनहार युवकरत्न, बाल प्रोपे.मर मोहनलाल जी जैनकी पुनीत सेवामें सादर समर्पित
अभिनन्दन पत्र। होनहार युवक ! अाज अापको अपने मध्य देखकर हमारा हृदय खुशीके मारे उछल रहा है। श्राप जैनसमाजके ही नहीं अपितु भारतवर्ष के एक होनहार युवक हैं। श्राप विश्वविख्यात राममूर्तिजीके ममान योग द्वारा शारीरिक शक्तिको संगठित करके अाश्चर्यजनक ग्वेलोंका प्रदर्शन करनेवाले जैन समाजके प्रथम युवकरन हैं। _ वीर बालक! अाप प्रतापगढ़ निवामी मेठ अमृतलालजी जैनके सुपुत्र हैं । अभी श्रापकी प्राय सिर्फ १३ वर्षकी ही है। इतनी कम श्रायुमं ही ग्राप योग, श्रामन, एक्रोबेटिक्स, बेलेंमिग, लाठी, बनेटी, तलवार, भाला अादि व्यायामके अनुकरणीय एवं याकर्षक प्रयोगों में अति निपण हैं। श्राप-सा पुत्र पाने के लिये श्रापके माता पिता बधाई के पात्र हैं।
जैन समाजके गौरव! आपने इतनी अल्य अायुमै ही, मीनेवर तथा हाथ परसे मोटर माइकिल उतरवाना, फासी लगवाना, लोहेकी सलियोको गर्दन व छातीस मोडना तथा १०० पौण्ड वजनके पत्थर यादिको दांतसे उठानमं दक्षता
दिग्या कर अपने जैन कुलको ही नहीं अपितु समस्त जैन समाजके गौरवको ऊँचा किया है, तदर्थ श्राप धन्यवाद के पात्र हैं।
कुल दीपक ! अापकी शिक्षाकी तरफ जब हम अपने विचारोको फंकत है तो हमारा दिल खुशीके मारे उन्मन मा होकर बार बार यही कहता है कि अापने इतने अल्पकाल में जो योग विद्यामें इतनी दक्षता प्राम की है उसका श्रेय अापके गुरु प्रोफेसर मत्यपालजीको है, जो " शक्ति-योगाश्रम बम्बई" में भारतकी बाल सन्तानों को योग विद्या में निपुणता प्रदान कर रहे हैं। अापके गुमने अनेक विद्यायोका अध्ययन किया है, उनकी बाग-विद्या को देखकर सहसा मह कह उठता है कि अापके शिक्षक नी कलियुगी अर्जुन है। अत: हमारी हार्दिक भावना है कि श्राप हम श्रेयस्करी शिक्षामें उनरोत्तर उन्नति करते हुए अपनी जातिका उत्थान करें।
जैन जातिके उज्ज्वल भविष्य ! अापके आश्चर्यचकित कर देनेवाले कार्योंमे प्रभावित होककर प्रतापगढ़ स्टेट, मन्तगमपुर म्टेट, लुनावाडा ग्रादि स्टेटो, श्रीमानी, श्राफिसगं अादि अनेक महानुभावा ने ही आपको स्वर्ण, रजतपदक एवं कप व मार्टिफिकट प्रदान नहीं किये वरन केप्टेन जेम्स कमाण्डर हनीफ, डलहोजी इण्डियन रायल नंव्हीकी अोरस मी मार्टिफिकेट तथा ५०) 5. इनाम मिले हैं। भारतकं बड़े २ पत्रों ने भी श्रापकी भूरि भूरि प्रशंसा की है । अापका उज्ज्वल मुख, कान्निरूप शरीर और व्यायामके कार्य जैन समाज के प्रत्येक युवक के हृदय में स्फूर्ति, बल और माहम पैदा करते हैं । अत: यार जैन जातिके उज्जल भविष्य हैं।
वीर हृदय ! अापकी योग विद्याकी दक्षता किमको मोहित नहीं कर मकती ! अापने इम थोड़ीमी उम्र में इतनी शिक्षा प्राप्त कर के जिस चीर-हृदय का परिचय दिया है। उम के लिये हमारी वीर भगवानसे यही प्रार्थना है कि श्रार चिगयु दी और अपनी जाति और देशका मुम्ब उज्ज्वल करते हुए संमार में उन्नति-शिम्बर पर श्रारदा । अन्तमें हम श्रापकी योग्यताकी मगहना करते हुए भावना करते हैं कि आप संमार-विजयी हो।।
हम हैं आपकी उन्नतिक इच्छुक देहली ता०८-६-१६४२
वीर-सेवक-संघ देहलीके मदम्यगरण
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष५
-Prerromoeoymseerecao.com-memiccousawrencICONICONI98
-B-ra pa
BHARATIOBH
b
rameSURENCER.N
IDAOOKa NaNCONSORIVARMADIMOONNOONAMOMIN@
econdstoreon cace conscam ECONICONICONICORNING:Bunder of
स्व० लाला जिनदासजी संघवी
मुलतानवासी जिन श्रीमान् ला० जिनदासजी संघवी दि० जैन ओसवालका स्वर्गवास गत द्वितीय है ज्येष्ठ वदी १३ गुरुवार के दिन ता० २१ जून १६४२
ई० को हो चुका है और जिनके देहावसानका समाचार पाउक 'अनेकान्त' की गत किरण नं०३-४ में 'वह
मनुष्य नहीं देवता था' इस शीर्षकके नीचे पढ़ चुक न हैं, आज उन्हींका यह भव्य चित्र पाठकोंको भेंट किया जाता है।
Brmaanitamin-rintention:CONOMICimiaominary tem
पं० अजितकुमारजी जैन शात्री, मुलनानक शब्दों में 'आप मृर्तिमान परोपकार और मंबाकी मृनि थे, मञ्चरित्रके आदर्श थे. नगरमान्य न्यायाधीश थे, शरीरसे कृश किन्तु आत्मवल-मनोबल के धनी, अनुपम माहमी एवं धैर्यकी प्रतिमा थे तथा आतिथ्यसवाक प्रमुख पाठक थे । आपकी चतुर्मुखी प्रतिभा माधारण शिक्षा पानेपर भी प्रत्येक विषय में आगे दौड़ती थी। आपकी रमनामें अदभुत वाणीरस था-मानां सरस्वत ने अपने हाथोंसे उसपर मंत्र लिख दिया हो । साथ ही आप सफल व्यापारी भी थे, सतत उद्योगी और उत्साही थे, अच्छे समाज-सुधारक थे, धर्मके श्राश्रय थे, निरभिमानी और निरीह संवक थे, मादा रहन-सहन, के प्रेमी थे; विश्वमैत्री-गुणिप्रमोद, दयालुता आपमें साकार विद्यमान थी। आपकी आयु ५० वर्षमै भी अधिक पार कर चुकी थी किन्तु अापका उत्साह युवा पुरुपोंको भी लाजन करता था और इन्हीं सब गुणोंसे आप सर्वप्रिय थे।' निःसन्देह आपके निधनसे जैनममाजको भारी क्षति पहुंची है, । आपको सद्गतिकी प्राप्ति हो
और कुटुम्बी जनोंको धैर्य मिले, यही अपनी भावना है। शास्त्रीजीने अपने उक्त लेखमें प्रकट किया था कि "आपने अपनी सावचेत दशामें अपने हाथमे लिख कर दान किया है।" परन्तु अभी तक उसकी कोई तफसील अपनेको जाननेको नहीं मिली, अच्छा हो उमे प्रकट कर दिया जाय ।
-सम्पादक
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्रमणबेलगोलके संस्मरण
(ले०-५० सुमेरचन्द जैन दिवाकर, बी० ए० न्यायतीर्थ )
श्रमणबेलगोल मैसूर रियासत का अन्यन्त महत्त्वशाली के साथ २ पुनः भगवान गोमटेश्वरके लोकोत्तर दर्शनका
स्थल है। यह हासन रेलवे स्टेशनसे ३२ मील और पुण्य अवसर प्राप्त होगया। मैसूरसे करीब ६० मील पर है । बंगलोरसे यह १० मीलके मैं ३ जनवरी को वहा पहुंचा। रात्रिको भग्वानकी लगभग है। मैमुरके दीवानमाहबने एक बार कहा था कि मतिपर प्रकाश (Flood light) प्रवाह की व्यवस्था सम्पूर्ण सुन्दर मैमूरराज्यमे श्रमणबेलगोल सरश अन्य हासनके श्रेष्ठि श्री पुट्टस्वामी तथा उनके पुत्रों की सहायतासे स्थान नहीं है, जहां सुन्दरता एवं भव्यताका मनोहर होगई है, किन्तु जब हम वहां पहुंचे तो ज्ञात हुआ कि सम्मिश्रण पाया जाता हो।"
महापुद्ध के कारण प्रकाशका कार्य बन्द कर दिया गया है, यह स्थान जैनियो के लिये तो अन्यन्त पूज्य है ही, ताकि भावि अनिष्टकी सम्भावना न हो। प्रभु बाहुबलिकी किन्तु कलाके पुजारियों के लिये भी अत्यन्त श्रादरणीय एवं मूर्तिके दर्शनकी तीव्र उत्कण्ठा थी, अत: हम जैनवेदमहादर्शनीय स्थल है। प्रमणबेलगोलमे जैनश्रमण-तपस्वी पाठशालाके स्थानीय एक छात्रको साथमे लेकर पर्वतपर भगवान गोम्मटेश्वर (बाहुबली) की अत्यन्त उन्नत और चले गये, उसी समय चन्द्रदेव अपनी चतुर्दश कलाओंसे नयनाभिगम मूर्ति विद्यमान हैं, साथ ही वहां का मनोज्ञ अलंकृत हो उदित हुए थे। जिस पर्वत पर प्रभु विराजकल्याणी सरोवर जो कन्नडमे बेलगोल कहा जाता है, मान हैं, उसे इन्द्रगिरि, विध्यागिरि अथवा दोड्डवेट (बड़ा विशेष प्राकपा है। वहांसे श्रवण गोम्मटेश्वरका सुन्दर पहाड) कहते हैं। यह जमीनसे तो ४७० फीट ऊंचाई पर दर्शन नगरवासियों को होता है, इस प्रकार उस प्रदेशको है. किन्तु समुद्र-तलसे ३३४७ फीट पर है। पर्वतका व्याप श्रमणबेलगोला कहना संगत है।
चौथाई मील के लगभग है। नीचे से ऊपर तक पहुचनेके सन् १६४० की २६ फरवरीके महामस्तकाभिषेक लिए लगभग ५०० मीढ़ियाँ पहाडमे ही उत्कीर्ण हैं। महोत्सवपर श्रमणबेलगोल जानेका हमे शुभावसर प्राप्त प्रवेशद्वार बड़ा आकर्षक है; वहाँसे पर्वन बड़ा मनोहर हुया था। उस समय एक दिन रात्रिको करीब ४ घंटे दिखाई देता है। अन्य पर्वतोंके समान वह भीषण या भगवान बाहुबलीकी भव्यमृतिके शरणमे बैठनेका सौभाग्य दुर्भग नही दीखता है। पाषाण अत्यन्त चिकना और ढाल मिला था, तब प्रभुका दर्शनकर चित्तमे अनेक कल्पनाएं लिए हुए चित्तको हरण करता है। पर्वतके अासपासकी उत्पन्न होती थी. खेद इतना ही था, कि लेखनकी मामग्री सम्पूर्ण सामग्री ऐसी है जो नेत्रोंको अानन्द एवं शान्ति पासम न होनेसे उन कल्पनाओंको न लिख मका, फि भी प्रदान करती है। हम प्रवेशद्वारमेमे होकर पर्वत पर चढने कुछ कल्पनाएँ स्मृति-पथमे विद्यमान ही रह श्राई । कई लगे। क्षणभरमें अर्थात १० मिन के भीतर ही हम बार ऐसा विचार हुश्रा, कि श्रवणबेलगोलके संस्मरणरूप गोम्मटेश्वरस्वामीके समीप पहुच गए। उस समय चित्तमें कुछ लिखू किन्तु साथमें यह भी खयाल होता था, कि वृत्ति सबसे प्रथम भगवान बाहुबलिके दर्शनको आकलित यदि एक बार पुनः दर्शन करके लिखू तो विशेष प्रानन्द हो रही थी, अतः श्रापपाममे अन्य अनेक सुन्दर मन्दिरोंके प्राप्त होगा। सौभाग्यकी बात है, कि बैगलोर गोमटेश्वर- विराजमान होते हुए भी हम प्रभुके चरण कमलोंके रक्षिणी कमेटीकी बैठकमें सम्मिलत होनेके लिए २१ दर्शनार्थ सीधे पहुंचे। दिसम्बरको जाना पड़ा, अत: दक्षिणके जैन तीर्थोंकी वंदना उनके चरणोंकी वन्दना करनेके अनन्तर हम एक
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
०४२
अनेकान्त
[ वर्ष ५
जगहसे उनकी वीतराग मुद्राका दर्शन करने लगे। उस प्रभुकी स्थापना की गई है। हृदय तो यह अनुभव करता समय जो श्रानन्द तथा शान्ति प्राप्त हुई, वह वार्ण के है कि मूति सजीव है, साक्षात् गोम्मटेश्वर है। दर्शन करते द्वारा प्रकाशमें नहीं लाई जा सकती। पल्ले हम कुछ स्तोत्र हुए क्षणभर नेवीको बन्द करनेपर ऐसा अनुभव होता है, पाठ कर रहे थे, किन्तु भगवान के सौन्दर्य निरीक्षण में चित्त- मानो हम योगीश्वर बाहुबली के साक्षात् सम्पर्कमे हों।।
एसा लगी कि स्तोत्र-पाठ रुक गया। जैसे बहुत कभी यह भी भाव उत्पन्न होता था, कि मृतिमे भी दिनके भूखे व्यक्ति को अमृत तुल्य पदार्थका आहार प्राप्त जब भावाको प्रभावित करनेकी सामर्थ्य है, तब फिर होता है और वह महान प्रानन्दका अनुभव करता है, साक्षात कामदेव भगवान बाहबलिका जिनमुद्रा धारण उसी प्रकार हमारे नेत्र भी अन्यन्त आसक्तिपूर्वक भगवान ।
करनेपर कितना न असर पड़ता होगा। का दर्शन कर रहे थे। उस समय यह समझमे आया कि
यही भाव महाकवि शेक्सपियरके एक पद्यमे शब्दमात्र भगवानकी रूप-मधुरिमाके पान करनेको क्यों इन्द्र महाराज
के परिवर्तन द्वारा प्रस्तुत प्रसगके लिये स्व. जस्टिम जुगपाश्चर्ययुक्त हो सहस्र नेत्रधारी बने ? वास्तवमें जी यही
मन्दरलालजैनीने लिखा हैचाहता था, कि क्यों नेत्रों के पलक बीचमे बन्द होकर व्य
Ahme! how sweet is Jina itself वधान करते हैं और ऐसे सौन्दर्यके सिन्धुको कैसे छोटेसे
possessed. When but Jima's shadows नयनपात्रोंये पीऊ। प्रतीत होता था कि यदि इन्द्र भी
are so nchinoy Romes and Jubet. दर्शनको श्रावे, तो वह पुनः सहस्राक्ष बने बिना न रहेगा, विचित्र बात है कि यहाँके सौन्दर्यका अगणित रसज्ञ नेत्रोंने
___ अहा । स्वरूप में निमग्न जिनेन्द्र कितने मनोहर न पान किया, किन्तु उस सौन्दर्यके सिधुमें कोई कमी नही
होगे, जबकि उनकी छायामात्र इतने श्रानन्दरस से परिपूर्ण आई, जो संभवतः शास्त्रोमे वर्णित संसारी जीवराशिके
है। हजार वर्षके लगभग जिस मृतिको प्रतिष्ठित हुप व्यतीत पमान कही जा सकती है, जिसमे व्यय होते हुए भी पूर्ण
न हो गए, वह आज भी दबनेमे नवीन सरीखी मालूम होती क्षयकी कल्पना नहीं की जा सकती।
है। मैसूरमे कुछ प्रोफेसर दर्शनार्थ अनेक बार पाए । हाल
ही दर्शन पर लौटते समय कहने लगे, ऐसा प्रतीत होता __भगवान बाहुबली महान थे. इस बातको समझने के लिए हमें वहां कल्पनाशक्तिको ज़ोर देनेकी कोई भी जरू
है, कि ५-७ वर्ष पूर्व मूर्तिका निर्माण हुअा होगा । साधाग्त नहीं पड़ती। यदि छोटी सी मृति होती हैं तो हमें ।
रण दृष्टिमे देखने पर तो यह मालूम पडता है कि कुछ ही यह कल्पना करनी पड़ती है कि इस लघु शरीरमे महान्
दिन पूर्व प्रतिमा बनाई गई होगी। अामाकी स्थापना की गई है। विशालकाय मुनिको देखकर मृतिवा प्रत्येक अंग नवीनताके अमृतरससे परिपूर्ण स्वयं हृदय उनकी महत्ताका अनुभव करता है। प्रभु बाहु
मालूम होता है। जितने बार भी दर्शन करो, वह सदा बलि यथार्थमे जैसे महान महिमाशाली हए हैं. उसी प्रकार दर्शनीय ही रहती है। प्रभुके दर्शन करनेसे प्रतीत होता है का भाव उनकी मृतिमे प्रगट होता है। चाहे वृद्ध हो, चाहे
कि वास्तवमै को रमणीय वस्तु होती है, उसके सौन्दर्यका बालक, चाहे श्रज्ञ हो, चाहे विज्ञ, प्रत्येक व्यक्तिके अन्त:
भण्डार अक्षय होता है । संस्कृतके कविका यह कथन यहा करणमें भगवानकी महत्ता अंकित हो जाती है और वह
अक्षरश: चरितार्थ होता है किअपनी लघुताका अनुभव करता है। कितना ही बडा तथा “पदे पदे यन्नरतामुपैति, नदेव रूप रमणीयतायाः" वैभवशाली व्यक्ति क्यो न हो, यहां दर्शन करते ही वह पद पदमे जिसमें नवीनता पाई जाती है, वही रमअपनी लघुताका अनुभव करता है और महान बननेकी णीयताका स्वरूप है। श्राकांक्षा करता है।
अंगरेज कवि कीस (Kests) की उक्तिभी गोम्मटेश्वर प्रभुका दर्शन करते समय यह विचार ही नहीं पाता है स्वामी का दर्शन करनेपर पूर्णसंगत मालुम होती है। वह कि यह मूर्ति है, प्रतिबिम्ब है, अचेतन है, इसमें वीतराग कहता है
4.
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्रमणबेलगोल के संस्मरण
A thing of beauty is a joy for सर्वाङ्गीण अविनाशी सन्यको देख रही है। श्रोठोंपर स्मित ever, Its loveliners increases it will की सूक्ष्म आभा दीखती है, जो संभवतः उनके चिद्रूप never pass into nothingness. ___दर्शनसे उत्पन्न प्रात्मानंदकी धोतिका हो। वह स्मित सदा
'सौन्दर्यसंपन्न पदार्थ सतत श्रानंद प्रदान करता है। विद्यमान रहता है । भयंकर वर्षा, तीव शीत एवं भीषण उसकी रमणीयता बढ़ती ही जाती है और कभी भी उसका उष्णता उस स्मितपर कुछ भी असर नहीं पहुंचाती, कारण अभाव नहीं होता।'
वह अविनाशी प्रारमाके स्वाभाविक भानंदका द्योतक है। हमारा अनेक बारका अनुभव है कि गोमटेश्वर स्वामी और बाह्य सामाग्रये उस प्रभुके शान्ति-रस पानमे वाधा का बार-बार निरीक्षण करने पर भी सदा नवीनता विद्यमान नहीं पहुंचा सकती, क्योंकि वह आत्मनिममता योगीश्वरोंके रहती है, इसीसे पुनः पुनः दर्शन करके चित्त तृप्त नहीं होता। भी आराध्यदेव भगवान मोम्मटेश्वर की है। हमने ता० ३ की रात्रिको प्रभुका बहुत समय तक दर्शन दिशाकी अपेक्षा मृति उत्तरमुखी कही जाती है, किन्तु क्यिा, जब कि चद्रदेव अपनी विमल चंद्रिकामे ज्योतिर्मय गुण प्रादिकी दृष्टिसे वह अनुत्तर है । उनकी शातमुद्रा, भगवानका अभिषेक कर रहे थे । ता० ४ को प्रभातसे क्रोध, मान, माया, लोभ, काम, शोक, भय, मोह, क्षधा, मध्याह तक भी हमने चार पांच घंटे दर्शन किये, जब कि तृपा, मृत्यु प्रादि विकारोके विजेतापनेको घोषित करता है। सूर्य-प्रकाशये भगवानकी छविका पूर्णतया दर्शन होता था। आजका विश्व अनेक व्याधियोमे, विविध प्रापत्तियोंमे ता. ५ को भी हमने प्रभु का दर्शन किया; किन्तु दर्शनकी निमग्न होकर पीड़ाके कारण कष्ट पा रहा है । वह यदि पिपामा शान्त नहीं हुई। मूर्तिका सौन्दर्य और नवीनता भगवान गोम्मटेश्वरके चरणोंका श्राश्रय ले, तो उसे प्रभुकी पूर्ववत् ही दिखाई देती थी।
मौनी मूति यह उपदेश देगी, कि यदि तुम्हे शांत चाहिय, इंद्रगिरि-शिखर पर निराश्रयस्थित ५७ फीट ऊंची तो मेरे पास या जाग्रो, और मेरे समान जगतके मायाभगवानकी मूर्तिके पृष्ठ भागमें श्राकाशकी नीलिमा बहुत जालका स्याग कर प्रकृतिप्रदत्त मुद्राको धारण करो। क्रोध, भली मालूम पड़ती है। सूर्यका पाना तथा जाना, चंद्रमा मान, माया, लोभ श्रादिका परित्याग करो; देखें तुम्हारा का नक्षत्र-मालिका-सहित उदित होना और अस्ताचलगामी दुःख कैसे नही दूर होता है ? जब गोम्मटेश्वरके चरणों होना यह बताते हैं मानों प्रकृतिदेवी अपने तेजस्वी के समीप बैठनेसे दुःख-ज्वाला शांत होती है, तब उनकी प्रकाशपुनोमे भगवानकी नीराजना-भारती करता हो। मुद्राको धारण करके उनके मार्गपर चलनेसे क्यो न दुःखी
न मालूम कितनी बार वहां जाड़ा-गर्मी-वर्षा-ऋतुओं का क्षय होगा? का आगमन हुआ, किन्तु गोमटेश्वर अपने प्राकृतिक रूपमे प्रकृतिकी मौन वाणीको समझनेकी जिसे योग्यता सदा विद्यमान हैं। श्राम-पासको क्षणभगुर प्रकृति में परिव प्राप्त है वह जान सकता है, कि प्रभुकी मूर्ति कितनी र्तनका तमाशा सदा दीवता है, किन्तु अविनाशी आनंदके अमूल्य शिक्षा प्रदान करती है। प्रकृतिका उपासक कवि अधिपति प्रभुमे कोई चचलना या क्षणभ पुस्ताका दर्शन वर्डसवर्थ तो यह कहता है कि-"Ore impulse नहीं होता । उनकी वही शान्त-गंभीर-अामनिमग्नमुद्रा from avernal wood teaches me more श्रामविजय, कामविजय तथा स्वाधीनवृत्तिको प्रकाशित of moral good and bad than all the करती है। उनके नेत्र यद्यपि खुले हुए हैं, किन्तु उनके sages can." सूक्ष्मदर्शनसे प्रतीत होता है, कि भगवान बहिर्जगतको 'वसंत श्री-संपन्न वनसे प्राप्त भावना मेरे हृदयको देखते हुए भी अंतर्दशके रूप में विद्यमान हैं। उनके नेत्र इतना शिक्षित करती है कि जितनी शिक्षा-नैतिक गुण का स्वयं अनेकान्तदृष्टिके भावको व्यक्त करते हैं। यह पता परिज्ञान-बडे बड़े माधुओं के द्वारा नही प्राप्त होती है।' नही चलता कि गोमटेश्वर चुपचाप खड़े होकर मामने क्या जिस व्यक्तिकी अारमा प्रकृतिसे शिक्षा प्राप्त करनेकी देख रहे हैं। मालूम पड़ता है, कि उनर्क अविचल दृष्टि योग्यता प्राप्त कर चुकी है, वह शेक्सपियर के शब्दोंमें
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४४
अनेकान्त
[वर्ष५
"Books in the running brooks ser- लगा। क्या यह अनुपम बात नहीं है? उन प्रभुकी दृष्टि mons in stones and good in every जहा पडता है, वहीं समता और मृदुताका प्रकाश फैला things"-'बहने वाले झरनोमे ग्रथाको, पाषाणोंमें धर्मोप- मालूम होता है इसी भावको द्योतन करने के लिए विध्यदेशोको एवं प्रत्येक वस्तुमे भली बातोंको पाता है। गिरिके सामनेकी पापाण-राशि एवं चंद्रगिरिका प्रस्तर-समूह
गोम्मटेश्वरस्वामीका दर्शन करनेवाला प्रत्येक विचारशील स्निग्ध एवं चिकना बन गया और उसका ऊँचा-नीचापना व्यक्ति उनकी मौनी मुद्रासे बहुत कुछ सीख कर श्राता है और दृर होकर उसमें भी समता एव सौन्दर्यका वास होगया। इतना अधिक सीखता है, कि उनकी वीतरागताकी छाप हृदय- भगवान बाहुबलिका प्रभाव और प्रताप त्रिभुवन पटल पर सदा अंकित रहती है। उनके दर्शनये यह बात विख्यात था। प्रतीत होता है कि, इसी कारण उस पापाण समझमे आजाती है कि वीतरागताके भावोसे पूर्ण दिगम्बर पिण्डने कठोर होते हुए भी मृदुता धारण की और कुशल मुद्रा सर्वत्र शांति तथा निर्विकारता का साम्राज्य उत्पन्न शिल्पीने जहां जैसा भाव अंकित करना चाहा वहा उसको करती है। पूज्यपाद स्वामीके शब्दों में कहना होगा कि अनुकूलता प्रदान की, तभी तो ऐसी भावमयी मूर्तिका 'वाणी का बिना प्रयोग किये वे आकृतिसे मोक्षमार्गका निर्माण हुआ जो मनुष्योंकी तो बात ही क्या, देवताओं के उपदेश देते रहते हैं।'
द्वारा भी वंदनीय एवं दर्शनीय है। शिक्षा-मर्मज्ञोका कथन है कि चित्रोंके द्वारा भी बहुत कोई कोई व्यक्ति यह सोचते हैं कि, जब महाराज शिक्षा दी जासकती है। इस बालका प्रशस्त उदाहरण बाहुबलिने दृष्टि, जल तथा मल्लयुद्धमे सम्राट भरतको गोम्मटेश्वर स्वामीकी मूर्ति है, कि जिनके दर्शनसे पुण्य- पराजित कर दिया था, तब उनको राज्य शासन करना था, वृत्तियों का अनायास एवं स्थायी उपदेश प्राप्त होता है। यह क्या ? कि, तत्काल तपस्वी बन गए । उनकी शंका है जिस प्रकार चुम्बक लोहेको अपने पास प्राकर्षित करता है, कि विजेता बाहुबलिने क्यों दीक्षा ली ? उसी प्रकार वीतराग प्रभुकी मूति दर्शकोके चित्तीको अपनी भगवान के दर्शन करते हुए उक्त शंकाका समाधान
ओर आकर्षित करके अपनी गह ी मुद्रा अंकित कर देती है। हमे इस रूपमे प्राप्त हुअा कि--यदि बाहुबलि स्वामीने कैसा ही मलिन मनोवृति वाला मानव उनके दर्शनको जावे दीक्षा न ली होती तो क्या होता ? भले ही बाहुबलिने उसके हृदयमें उज्वल विचारोमा प्रकाश फैले बिना नही भरतेश्वरको पराजित कर दिया था, फिर भी भरत महारहेगा। जो जैनधर्मकी श्रादर्श पूजा के भावको समझना राजके चित्तमें न्यायानुसार राज्य देनेकी भावना नहीं थी। चाहते हैं वे एक बार भगवानके दर्शन करे, तब उनको तभी तो उन्होंने हार जानेपर भी बाहुबलिपर चक्रका प्रहार विदित होगा, कि यहाँ अादर्शके गुणोंकी आराधना किस किया था। यह दूसरी बात है कि वह चक्ररत्न बाहुबलिस्वामी प्रकार की जाती है।
का, कुटुम्बी होनेके कारण, कुछ न कर सका। इस घटनासे __ भगवान बाहुबलि लोकोत्तर पुरुष थे। उन्होंमे चक्रवर्ती बाहुबालको भरतके अंत:करण को समझनेका मौका मिल भरतको भी जीत लिया था और अन्तमे साधु-वेष अंगीकार गया। उन्होंने सोचा और समझा--यदि में राज्य करना किया था। उनके प्रतिबिम्बमें भी विश्वविजयीपनेका भाव चाहता हूं तो भरतके साथ सदा कलह हुआ करंगी, इससे पूर्णतया अतित मालूम पड़ता है, यही कारण है, कि बड़े बड़े मुझे मेरी प्रिय शांति नहीं मिलेगी और हमारे पिता राजा-महाराजा तथा देश-विदेशके प्रमुग्वपुरुष प्रभुकी प्रतिमा भगवान श्रादिनाथको भी लोग भला-बुरा कहेगे । और के पास आते हैं, और अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। उपहास करते हुए कहेगे, कि उनके पुत्र बहुत अयोग्य
संसारमें कठिन होनेके कारण पाषाणको अभिमानका निक्ले, कि जो बंधुरखको छोडकर पतित प्राणियोकी तरह प्रतीक बताते हैं । वही मानका उदाहरण कहा जाने वाला निरंतर झगढ़ते ही रहते हैं। इस तरह राज्यधारणसे न पाषाण, जब प्रभुकी अनुपम मुद्रासे अंकित होगया, तो मुझे शांतिलाभ होगा, और न पिताकी कीतिका ही वह मानका नाशक एवं मार्दव भावका उद्बोधक कहा जाने रक्षण होगा । अत: वे सोचने लगे, कि ऐसा
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-5]
गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्रवणबेलगोलके संस्मरण
मार्ग अङ्गीकार करना चाहिए, जिससे शाति लाभ उतनी तृष्णाकी दृष्टि होती जाती है । इस सम्बन्धमें हो कीर्तिका रक्षण होगा, और भरतकी भी अभिलाषा अग्नि और इंधनका उदाहरण प्रसिद्ध है। जब बाहुबलिने पूर्ण हो । आखिर वह मेरा ही ज्येष्ट भाई है। इन सब पट खंडविजेता भरतको पराजित कर दिया, तब उनकी जयाबातोकी प्राप्ति एक राज्य-परित्यागसे हो सकती है। भरत काक्षा और बढ़ गई तथा उनकी उस्कठा विश्व विजयी बननेकी राज्यको बहुत भले ही मानते हो, किन्तु बाहुबलिकी हुई। चारो दिशाओं में दृष्टिपात करनेपर उनको कोई शत्र नही दृष्टिमे राज्य बहुत चिंताका बढ़ाने वाला ही था। यही कारण दिखाई दिया, किन्तु जब अंतःकरण में दृष्टि गई, तो एक है, क जब भरतका दूत बाहुबलि के समीप यह कहनेको पहुंचा. नही अपरिमित शत्रुओंका--महाशत्रुनोका समुदाय देना, कि अप भरतकी अधीनता स्वीकार कीजिए, तब बाहुबलिने जो मोहके नेतृत्व इस श्रात्माके गुणोंका नाशकर इसे सदा कुशल-क्षेमकी चर्चा करते हुए पूछा था-"बहुचितत्य दु.ख दिया करते थे । उस समय बीरशिरोमणि बाहुबल चक्रिणः कुशलं किम ” ?-अधिक चिंताओये लदे हुए का पौरुष जागा । उनने सोचा, यदि मैंने इन शत्रुग्रीका चक्रवर्तीकी कुशल तो है न ? यहा 'बहचिंत्यस्य' शब्दके दमन न किया, तो मेरा वीरस्य वृथा है । अतः जयशील द्वारा बाहुबलि की प्रात्माको श्राचार्यने पूर्णतया स्पष्ट कर बाहुबलिने पापवासनाश्रीको निर्मूल करनेके लिये विशाल दिया है, कि वे राज्यको श्रानंदका साधन न मानकर उसे साम्राज्यका त्याग किया और एक आसनसे खड़े होकर कर्मों भाररूप तथा चिंताका कारण समझते थे। उनकी मनोवृत्ति का नाश करने के लिए घोर तपश्चर्या प्रारंभ कर दी, और का एक अंग्रेज कवि भी इस प्रकार समर्थन करता है :- अंतमे कैवल्यका लाभ करके 'मारिविजयी जेता" की
“Uneasy lies the head that wears प्रतिष्ठा प्राप्त की। अत: यह विचार भी सगत प्रतीत होता है, a erown."
कि विश्वविजेता बननेके लिए बाहुबलि स्वामीने साम्राज्यका 'जिस मस्तक पर राजमुकुट विराजमान रहता है, वह परित्याग किया। सदा बेचैनीका अनुभव करता है। बाहुबलि राज्यवृद्धिको यह भी कहा जाता है. कि जब भरतने राज्यकी ममता श्राकुलताका वर्धन अनुभव करते थे, इमीये जहां उनके के कारण नीति मार्गके विपरीत बाहुबलिपर चक्र-प्रहार कर भाई भरत राज्यपर राज्यविजय प्राप्त करते जाते थे, वहाँ उनके प्राण लेनेका भाव व्यक्त किया और वह विफल बाहुबलि अपने पोदनपुरमे पूर्णतया मनुष्ट थे और उनके हुश्रा, तब बाहुबलि स्वामीके श्रतःकरण मे सहज-विरक्तिने चित्त में साम्राज्यवृद्धिकी लालसा नही थी। यदि बाहुबलि जन्म लिया कि-"धिक्कार है, इस राज्य-नृष्णा और भोगाका श्राम-गौरव संक्टम न पाता तो ये भरतके साथ युद्ध के कांक्षाको, जिसके कारण भाई भाई के प्राण का ग्राहक बनता लिए भी तैयार न होते । भरतके साथ युद्ध करनेमे बाहु है।" यथार्थमे सांसारिक विभूतियोंम एक न एक श्रापत्ति बलिकी राज्य-कामना कारण नहीं थी, किंतु अपने क्षत्रियव लगी रहती है। सच्ची निर्भीरता तो वैराग्य भावमे ही प्राप्त तथा वीरवकी मर्यादाका संरक्षण करना था। अपने गौरव होती है-वैराग्यामवारम।' उनके करणापूर्ण अंत की रक्षा करते हुए साम्राज्यकी प्राप्ति आनुषंगिक फल था। करणमे यह भी विचार उत्पन्न होना संभव है कि मैंने व्यर्थ इस कारण बाहुबलिने क्षणभरमे यही गंभीर विचार किया, ही नश्वर राज्यके पीछे अपने जयशील, चक्रवर्ती बननेवाले कि मेरे लिये अपनी शाति और कुलके गौरवकी रक्षार्थ सम्मान भाईकी प्राशाओंपर पानी फेर दिया और उनके संतापका पूर्ण तथा कल्याण प्रद एक ही मार्ग है, और वह यह कारण बन बैठा। ऐसे ही कुछ सत्कारण थे जिनने विजयी कि मैं राज्यके संकीर्ण क्षेत्रसे निकल कर प्राकृतिक दिगम्बर बाहुबलिके अंत:करणको प्रभावित किया, प्रकाशित किया मुद्राधारणकरूं और विश्वमैत्रीका अनुभव करूं।
और इसीसे उन्होंने उस मुद्राको धारण किया, जो प्रकृतिसे भगवान बाहुबलिके दीक्षा लेनेको इस प्रकार भी प्राप्त है, जिसमे संपूर्ण विश्व अंकित देखा जाता है, और जो युक्तियुक्त बताया जा सकता है कि संसारके पदार्थोका कुछ निर्विकारता तथा पूर्ण पवित्रताको प्रगट करती है। ऐसा स्वभाव है, कि उन्हें जितना जितना भोगी उतनी भगवानके शरीरसे लिप्त माधवीलता और मर्प श्रादिका
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनकान्त
[वर्ष ५
समूह इस बात को ज्ञापित करते हुए प्रतीत होते हैं कि प्रेरणा अवश्य की होगी, कि जैसे इस कल्पकाल में बाहुबलि अब बाहुबलि मानव-समाजके ही प्रेम-पात्र नहीं हैं, वे तो के विजयका इतिहास एक अनूठी घटना है उसी प्रकार जीवमात्रके हितैषी हो गए, इस लिए हरप्रकार के प्राणी उन उनकी मूर्ति भी इतनी अपूर्व हो जो संसार भरको विस्मयके प्रति आत्मीय भाव धारणकर अपना स्नेह व्यक्त करते हैं। सागरमे निमग्न करदे। हुश्रा भी ऐसा ही, महाराज चामुंडराय
ऐसा भी विचार प्राता है कि माधवीलता और सर्प- की मनोकामना शतप्रतिशत पूर्ण हुई । इसीमे सिद्धान्त राज उन पुण्य और पाप वासनाओंके द्योतक हैं, जिनको चक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्य, अपने गोम्मटसार-कर्मकाण्डमे, बाहुबालीने वीतराग, वीतद्वेष बननेके कारण अपने अन्तः इस मूर्ति के निर्माता चामुण्डराय (गोम्मटराय) को गाशीर्वाद करणसे बाहर निकाल दिया है, अतएव वे बाहर ही देते हुए लिखते हैंविद्यमान रहकर उनका संसर्ग नहीं छोड़ना चाहते हैं।
'जेण विणिम्मिय-पडिमा-बयणं सबट्टसिद्धिदेवहिं । हमारे चित्तमे एक प्रश्न उत्पन्न हुश्रा कि महाराज चामुंडरायने ही यदि भगवानकी मूर्तिका निर्माण करवाया,
__ सव्व-परमोहि-जोगेहिं दिट्ठ मो गोम्मटो जयः॥ यह इतिहासज्ञोंकी मान्यता सत्य है. तब चामंडरायने अथात-जिसके द्वारा निर्मापितकी गई मर्तिक बाहुबलिकी मूर्तिको क्यों पसन्द किया ? वे चाहते. तो मुग्बका मवामिद्धिकदेवो और परमावधि-सर्वावधि श्रादि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव या अन्य तीर्थकर परमदेवकी ज्ञानक धारक योगीन्द्रोने दर्शन किया है वह गोम्मटमूर्ति बनवाकर धर्मकी महिमा प्रकाशित करने के साथ-साथ राजा जयवन्त हो। अपनी पाल्माका भी कल्याण कर सकते थे। आखिर तीर्थ- इस अप्रतिम सौन्दर्य-समन्वित प्रतिमाको देखकर कभी करका पद विशेष महत्वका है, इसे पभी स्वीकार करते हैं तो चित्त चामुण्डरायके महत्व एवं सौभाग्यकी ओर ___तकाल ही इसका समाधान यह सूझ पहा कि-मूर्तिके आकर्षित होता है, कभी उस शिल्पीकी ओर जिसके निर्माण कराने वाला व्यकि महान् सैनिक था, इसीसे मस्तकमे सबसे पहले गोम्मटेश्वरका लोकोत्तर काल्पनिक उसको समरमार्तण्ड, वैरिकुलकालदण्ड श्रादि क्षत्रियोचित चित्र पाया, और जिसने अपनी कलाके द्वारा ऐसी मूर्ति पदोंसे अलंकृत किया जाता था । वह बाहुबलिके समान उस पाषाण पिण्ड में से निकाल दी, जैसी कि आज तक पराक्रम, शक्ति तथा मनोवृत्तिकी प्राप्ति चाहता था। लोगोंके देखने सुननेमे भी अन्यत्र नही पाई। श्राज उस जिस प्रकार बाहुबलिने अपने पराक्रम एवं बाहुबलसे शिल्पीके नामका पता नहीं है, किन्तु अमर कलामयकृति चक्रवर्ती तक को पराजित कर दिया और अन्तमे जिनेश्वरी करके वह वास्तवमे अमर हो गया। उसकी पवित्र कलाके मुद्रा धारणकर कर्मचक्रको निर्मल किया, उसी प्रकार प्रति संपूर्ण विचारक अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते चामुंडराय भी अन्यन्त स पुग्नत शत्र को परास्त करके कर्म हैं। वैसे तो अपूर्व कलाकी अन्य वस्तुए भी विश्व में शोंपर विजय प्राप्तिकी कामना करता था। इसीसे बाहु- विख्यात हैं, किन्तु इस मूर्ति निर्माण की कलाको कोई नहीं बलिका श्रादर्श चामुंडरायके लिये अत्यंत आकर्षक था। पाता । कारण? यह पुण्यकला है, इससे मनुष्यके अंतःकरण श्राचार्य विद्यानन्दने कहा है--जो जिसके गुणोंकी
में विषयाशक्तिके भाव नहीं रहने पाते और वह एक प्राप्तिकी आकांक्षा करता है वह उसकी वन्दना करते हुए
अनुपम पवित्र प्रकाशमं अपनी प्रामाको पालोकित पाता देखा जाता है, इसी नियमके अनुसार लौकिक तथा
है। इस प्रकारकी उज्वल तथा जीवनमे निर्मलताकी पुण्य आध्यात्मिक क्षेत्रके सफल सैनिक बाहुबलिके श्रादर्शको
धारा बहाने वाली चमत्कारपूर्ण कलामयकृति और अपना लषय बनाना चामुंडराय जैसे सैनिकके लिए अत्यन्त
कहाँ है ? यहाँ हमें अन्य वस्तुके साथ उपमान-उपमेय-भाव ही उसने शिल्पा का संबन्ध करना असंगत प्रतीत होता है और यह कहना बाहुबलिकी अनुपम मूर्ति बनानेको कहा। मूर्तिकी अलौ- *चामुण्डगयका खाम नाम गोम्मट' होनेसे उनके श्राराध्यदेव किकताको देखकर प्रतीत होता है कि उनने शिल्पीको यह बाहुबलिको 'गोम्मटेश्वर' (गी-मटका ईश्वर) कहते है।
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्रवणबेलगोलके संस्मरण
किरण ६-७ ]
पढ़ता है कि मोम्मटेश्वरको मूर्ति गोम्मटेश्वर मूर्तिके समान है । जब अन्य तत्सदृश वस्तु ही नहीं, तर तुलना किसके साथ की जाय चतः अतुलनीय कहना पूर्णतया संगत है। कहते हैं कि जिस कलाकारने इस कलामय मूर्तिका निर्माण किया था वह लगभग १२ वर्ष तक अत्यन्त पवित्रता के साथ रहा था और उसने उच्च साविक जीवन बिताया था। उसकी सच्ची पवित्र साधनाको इतनी सफलता मिली, कि उसकी महिमाके लिए शब्द नहीं हैं।
कभी-कभी हृदय उस पाषाणको धन्य कहता है, जो भले ही एकेन्द्रिय जीव रहा, किन्तु जिसको गोम्मटेश्वर की त्रिभुवनबंदित मुद्रा धारण करनेका सौभाग्य प्राप्त हुना और जो अनन्त प्राणियां के कल्याणका निमित्त बना, बनता है और बनता रहेगा ।
गोम्मटेश्वर के समीप श्रानेपर मस्तक सदा उन्नत रहता है, चित्तमें किसी प्रकार की चिन्ता या भीति नही रहती, घरेल छोटी मोटी श्राकुलताएं नहीं सतात x । ठीक है महान ग्रामाका श्राश्रय पाकर कौन महान नहीं बनता है ? गोम्मटेश्वर के चरणों समीप बैठने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानों हम सब प्रकारकी कटोसे मुक्त होकर ऐसे आयको प्राप्त कर चुके हैं जहाँ भविष्य कोई आपकी आशंका नहीं है।
फर्गुसन महाशयका कथन है कि – “मिश्र देश के
संसार भरने इस मूर्ति अधिक विशाल और प्रभावशाली मूर्ति नहीं है मिश्रमे भी कोई मूर्ति इससे अधिक नहीं है।"
डा० कृष्ण एम० ए० पी० एच० डी० लिखते हैं-"शिवपीन जैनधर्मके संपूर्ण त्यागको भावना इस मृतिके अङ्ग अङ्ग में अपनी छैनीसे पूर्णतया भरदी है । मृतिकी नग्नता जैनधर्मके सर्वत्याग की भावनाका प्रतीक है । एक दम
* कविवर रवीन्द्रनाथ टागोर ऐसे ही प्रदेशको कामना अपनी गीताजलि व्यक्त करते हैं।
Where the mind is without fear and the head is
held hungh, Where knowledge 19 free, Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls, ....Into that heaven of freedom, my father let mg country awake
'GITANJALI'
२४७
सीधे और मस्तक ऊँचा किए खड़े इस प्रतिमाका श्रङ्गविन्यास पूर्ण आत्मनिग्रहको सूचित करता है। श्रोठोंकी दयामयी मुद्रा स्वानुभूत श्रानन्द और दुःखी दुनियाके साथ सहानुभूतिकी भावना होती है।"
गोम्मटेश्वरकी मूर्ति कमियों, मायुक्योंके लिये सदा aata Erytra aथा भावनाओंको प्रदान करती है । बारहवीं के विज्ञान पंडित मालिका' नामकी २७ पद्यमय कविताद्वारा भगवान का गुण कीर्तन कन्नड भाषा में किया है, इसके एक पद्य में कवि बड़ी मार्मिक बात कहता है कि
“यन्त उत आकृति वाली वस्तु सौन्दर्यका दर्शन नहीं होता है, जो अतिशय सुन्दर वस्तु होती है वह तीय तारवाली नहीं होती है; किन्तु गोम्मटेश्वर की मूर्ति यह लोकोत्तर विशेषता है कि अत्यन्त उत श्राकृतिधारी होनेपर भीथनुपम सौन्दर्य से विभूषित हैं ।"
यथार्थमे महिमाशाली भगवानगोमटेश्वरका जितना भी वर्णन किया जाय थोडा है । उनके दर्शनका श्रानन्द स्वानुभवका विषय हैं, जिसे मनुष्य कभी भी भूल नहीं सकता ।
इस प्रपंग में हमें महाकवि भगवजिनसेनाचार्य की भगवान बाहुबलिको लक्ष्यकरके लिखी गई यह श्रमर उक्ति स्मरण हो श्राती है कि
जगनि जयिनमेनं योगिनं योगिवयैः, अधिगतमहिमानं मानितं मानिनीयः । स्मरति इदि नितान्तं यः स शान्तान्तरात्मा, भजति विजयलक्ष्मी माशु जैनीमजय्याम ||
"
'जगमे जयशील योगीश्वरोंके द्वारा जिनकी महिमा परज्ञान है आदरणीय व्यक्तियोंके द्वारा सम्मानित इम इन योगिराज बाहुबलि गवानको हृदयमे वारंवार स्मरण करता है, उसकी आत्मा शान्त अंतःकरण वाली होती हुई जैनेश्वरी तथा अजेय विजयश्रीको प्राप्त करती है।'
उन गोम्मटेश्वर बाहुबलि भगवान्का दर्शन कर लौटे कई दिन बीत गए, किन्तु वह पुण्यस्मृति सदा ही चित्त में विराजमान रहती है । उन बाहुबलि प्रभुके श्रीचरणोंको परोक्ष प्रणाम है 1
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रादमी, जानवर, या बेकार ?
[ एक स्केच ] ( लेखक-श्री 'भगवत्' जैन )
एकबार नहीं, कई बार कॉन्टेबिलको ठोकर मारते शो' देखकर लोटा है, मैंने इस करुण-पुकारको हुए मैने उसे देखा है । और देखा है दयापात्रोंको सुना है ! । पसा देते हुए भी ........
छुट्टीका दिन था-इतवार ! माग-सब्जी लेकर घर वह गस्तेमे ज़राह कर, फुट पाथ पर बैठी रहती लौट रहा था किहै-अपने बच्चेको फ्ट-टाटक ट्रकड़ेपर वैटाले हाए ! 'बाबू एक पैमा, दुखिया-अपाहिज-मुहताजको श्रास-पाय दुर्गन्धि उड़ा करती है, मक्खियाँ भिन- एक पैसा ...... " भिनाया करती हैं !
पैर अनायास रुक गए ! एक इकन्नी निकालकर वह जो कोदिन है। माग शरीर घाचोंसे भर मैंने उमके आगे फेक दी। रहा है । गल रहा है। हाथोंकी उंगलियाँ गिर चुकी गुदड़ा-लपेटी हथेलियोमे उसने इकन्नी उठाकर है। हथली भर बाकी हैं। वह चिथडे में की हैं- यत्नम रिपाई और कृतज्ञ-दृष्टिस निहारने लगी-मरी बदके मारे टहग नही जाता उसके पाम ।
...
श्रार! जाने कैसे पाप किये हैं-उसने , घडी-भरको पर, बच्चा रोता ही रहा, उसी तरह ! मेरी इकन्नी चैन नहीं मिलता। पीडाक मारे तो रोती ही रहती ने उसपर कोई असर नहीं किया ! मुझ लगा-जम है । पर, दुसरी वेदना जो उसपर और है-'अन्न। बच्चे को इसन भी कुछ अधिक चाहिए। वह पराक
अगर कुछ-बछ बच्चे पर भी है ! उसका शरीर महत्वको अभी नहीं समझ पाया है ! . . . . . भी ऐसा हो रहा है जैम-छलनी । मक्खियाँ उसे भी झालम अमरुद निकालकर मन उसके आगे बहुत परेशान करती हैं । रोता वह भी खूब है जी डाल दिए ! खोलकर । रक्त-माँस-हीन चार सालका बच्चा हेमा वह बहल गया ! लगता है, जैसे-दो-ढाईसे अधिक नहीं!
गम्ते-भर मै मोचता गया- उनके साथ-माथ हो कितनी घृणामयी है उसकी माँ ! कितना दयनीय- मनुष्यकी आवश्यकता बढ़ती है ! और आवश्यजीवन है उमका, यह वह नहीं जानना !
कताआके साथ-साथ ही जावनकी कटुता ! उम्र है चालीमके करीब ! पर मुमीबतोंने, कठोंने बच्चा अमरूदसे बहलता है। और शरीरकी भयंकर, नरक-दृग्य-प्रदर्शक बीमारीने भिखारिन इफन्नीस । उसे एक दम परतंत्र. मुहताज, अपाहिज और जीर्ण- मै पाँच रुपयेकी तरक्कीसे खुश हो गया । और शीर्ण बना दिया है !
साहव पाँच मौ रुपये पाने पर भी जले-भने रहते हैं। ___ 'बावृ एक पैमा, दुग्दिया-अपाहिज-मुहताजको एक...... मा!'
'नो वैकैन्सी (जगह नही है) का वोर्ड टॅगा रहने जय-जब मै उस गम्ते जाता हूँ, बराबर यह पर भी, दफ्तरमे नौकरी तलाश करने वालोंकी कमी आवाज़ मेरे कानों में आती है । मुबह, दिन, दोपहर, नही रहती ! श्रीमतन प्रतिमप्ताह, दर्जन-भर तो आते गत और श्राधी-आधी रात तक भी, जब मै 'मैकिन्दु- ही हैं ! जिनमें कुछ प्रेप्याट, कुछ अंडर-प्रेज्याएट और
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७
आदमी जानवर या बेकार
२४६
कुछ यों ही!
समझ बैठे ! लेकिन तुम आदमी नहीं; नारकी हो, आशा लेकर आते हैं, और फटकार लेकर लौटते हैवान हो, जानवर हो! जिसके दिलम......!' हैं ! मुमीबत तो यह है कि सभ्यताका बर्ताव उनपर दर्बान ने धक्का देकर निकाल बाहर किया ! कारगर ही नहीं होता ! नौकरी क्या माँगते हैं—पूग साहब बड़बड़ाता रहा, न जाने क्या ? "मै चुप, मुचिरापन याः करके आते हैं, शायद ! मरने-मारने, काम में लगा रहा! लड़ने-झगड़नेको उतारू ! आखिर फटकार ही उनसे पिड छुड़ानेमें समर्थ होती है।
"बाबू, दुखिया-अपाहिज-मुहताजको एक पैसा ... उम दिन भी एक आया-शरीरका तन्दुरुस्त, एक' 'पैसा !!! उम्रका नोजवान । गोरा-चिट्टा, साफ-सुथरा ! कपसोल पिछले दो इतवारों में दो इकन्नियां मै उसे दे का जूता, ढीला पजामा और ऊपर घरका ध या,
चूका था ! दयाके सबब, या पुण्य के लोभ से-कुछ भी पुराना कोट | निचोडनकी सिकुडनं अभी भी बाकी थीं।
समझिए ! सिरपर लम्बे-लम्बे बाल थे-मॅभाले हुए ! पर, तेल एक इकन्नी फैक मैं चला कि वह बोली--'बाबू!' उनमें नहीं था, पानी से भीगे हुए थे, तभी शायद मैने पास आकर पूछा-'क्यों ? काढ लिये गये थे, अस्त-व्यस्त नहीं थे ! जमे थेसब!...
घिघियाफर वह बोली-'एक 'दुअन्नी' और
घिघियाफर वह बोली- 'द ___माहब सुबह से दो उम्मीदवारोंको फटकार चुका दे सकेंगे" था ! काम के वक्त यह तृकाने-बदतमीजी उसे पसन्द
मैं कुछ उदार-सा हो गया था ! जेबसे दुअन्नी नही था ।.......
निकाल, उम देते हुए कहाकलम चलाते-चलाते ही माहबने डाट बताई--
'यह लो ! क्यों ? क्या करोगी-इतने पैसोंका ?' 'चले जाओ, जगह नहीं है यहाँ !'
'बाबू एक आदमी को चाहिये! वह बेचारा...!' 'मगर सुनिये तो......?"
'तुम्हारा आदमी है ? 'जरूरत नहीं !
'मेरा अपना और कोई नहीं है-इसके सिवा!'और उसने अपनी योग्यताके गवाह-सार्टी- बच्चेको हाथ लगाते उसने कहा ! फिकेटम-मेज़पर पटक ही दिए !
बदबूसे पास खड़ा होना मुश्किल हो रहा था ! माहब भल्लाया-'श्रादमी हो या जानवर ?' पर, उसकी बात जान लेने की इच्छा भी बलवती हो
'आदमी ! तीन दिनका भूखा आदमी अगर उटी! 'आदमी' ही रह सकता है, तो माहेब । मुझे भी मैने पूछा-'नब ?' आदमी ही कहना होगा !'-दबंगपनके माथ उमने वह कहने लगीउत्तर दिया ।
'परसों, परले दिनकी बात है !-बारहसे कुछ माहबका मुंह मारे क्रोधके लाल हो पाया- ज्यादे बजे होगे, तब मैं सोनेको चली, बाबू। अपनी 'शप"
झोंपड़ी की तरफ ! झोंपड़ी उधर है जमनापार ! जहाँ और घन्टी बजादी !
ताँगे-इक्के खड़े रहा करते हैं ! रोज पुलपर होकर दर्वान आगया !
जाती हैं ! उस दिन जो गई तो देखा एक बाबू जान वह भी कुछ उग्र हो गया, मुंह उमका भी सुर्व देने के लिये लहराती हुई-धारामें कूदे जा रहे हैं, हो रहा था ! बोला--'जानवर हो तुम ! जो मैंने उन्हें पकड़ लिया.. . !'
आदमियत के बर्ताव को भी भूले हुए हो ! पैमा 'ऐ ? तुमने बचा लिया उमे ? अच्छा ? क्या वह पाकर-दोनों वक्त खाना पाकर तुम अपने को आदमी भी कोढ़ी है !
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५०
अनेकान्त
[वर्ष ५
'नहीं, बाबू ! वह काढ़ी नहीं है ! अगर कोढ़ी 'ऐ तुमने सब पैसे उसे देदिये ? क्या सोचकर?' होता, तब क्या वह यो मरने जाता ! कोढ़ियों को 'यही सोचकर कि वह दुनियाका सबसे बड़ा दया-पात्र आत्म-हत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती-बाबू जी! है। जिसके लिए आदमी कहलाने वालों के पास भी उनपर तो कठोर-से-कठोर आदमीको भी तरस आता सहानुभूति नही !' है, दया आती है ! और मै जानती हूँ-शायद कोई कोढ़ी भूखा भी रातको न सोता ह गा! पर, वह जो कोदी नहीं है, इसीलिए तो आत्म-घातको उतारू था! दसरे दिन मैं उसे लेकर उसकी झोंपड़ी तक गया, दुनिया उसपर दया नही कर सकती, तरस नहीं ला उम 'दया-पात्र' को देखने ! रास्ते में उसने कहासकती क्योंकि वह तन्दुरुस्त है ! बिना भेपक भीग्व 'अब वह मेरे यहाँ ही रह रहे हैं। मैं कह रही हैंनहीं, यह तो पुराना मसला है ! आज तो भीख के कि वह भी कोढी बन जाएं, तो खानेका घाटा न लिए भेप ही नही, वोसियों बातो की जरूरत पड़ती रहेगा।" है। पेशा जो हो गया है !..'
मैने कहा-"कोढी बनजा' का क्या मतलब ?' मैने पूछा-'फिर तुम्हे उसपर दया कैसे आई?' वह बोली-'पहले दया नहीं ! कर्तव्य सूझा कि
बोली-'आप नहीं जानते ? 'भीख' भी आज 'मरने वाले को बचाना चाहिए !' फिर जब उसकी
अभागे हिन्दुस्तानमें एक पेशा है । और नकली कोढ़ी बाते सुनी तो जी पानी-पानी बन गया !... '
बनना है एक तरीका, व्यापारकी तरह ! वैसे दया जो 'ऐसा क्या कहा, उसने ?' मै पूछ बैठा !
किसीको नही आती! कहने लगी-'उसने कहा, मैन नोकरी तलाशी, मैने लपककर पूछा-'क्या तुम भी नक़ली-को दिन गिड़गिड़ाकर भीख माँगी, पर मुझे समाजसे कोई हो ? चीज़ न मिली! उल्टी फटकार, डाट, डपट और
वह हंसी और बोली-'यो सब नक़ली ही नहीं अपमान ! आखिर चोरीपर नज़र डाली, लेकिन वह होते-बाबू ! पर यह सच है कि मैं उतनी कोढिन मुझसे हो न सकी ! मैं निराश होकर अपने जीवनको नही है, जितनी कि आप मुझे देखते है !' अब खत्म कर देना चाहता हूँ। क्योंकि दुनियाको झोपड़ी भागई। मेरी ज़रूरत नही ! दुनियामें, मेरे लिये जगह नही,
मैने उम दया-पात्र को देखा तो दंग रह गया। अन्न नही-कुछ नही !' वह रो उठा ! जान उसकी
दफ्तर में आने वाला वही उम्मेदवार ही तो था ! .. भूखके मारे निकली जा रही थी ! उसने बताया कि चार दिनसे उसके मुंह में एक दाना भी नहीं गया ! 'ओफ !' अनिच्छा, मेरे मुंहसे निकला!
मैन उमे एक छोटी दूकान कगदी है ! अपेक्षाकृत वह बोली-'मेग मन जानें कैसा हो उठा। चैन मे है वह ! पर, वह इस पर बहुत शर्मिन्दा दिन-भरकी कमाईके साढ़े सात आने मैंने उसके हाथों है कि भूग्वमे उमने बुग खाना खाया । हालाँकि में देकर कहा-लो भैय्या ! पहले खाना खाओ, फिर कोढिनके पंसे अदाकर चुका है। लेकिन फिर भी दूसरी बातें होंगी!'
उसके दिलमें एक कसक है !
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
रत्नाकर वर्णी और उनका रत्नाकराधीश्वर शतक
(ले०-५० के० भुजवली जैन शास्त्री )
रत्नाकर वर्गी उल्लेखनीय प्राचीन कन्नड़कवियोंम योगविजय, मोविजय और अर्ककीर्तिविजय इस
से अन्यतम हैं। कवि रत्नाकरसिद्ध, रत्नाकर- प्रकार पांच भागों में विभक्त है । इसमें ६६६६ पद्य अण्ण आदि नामोंमें भी ये विश्रुत थे । देवचन्द्रका हैं। जनश्रति ऐमी है कि कविने लगभग दस हज़ार प्रसिद्ध कथाग्रन्थ 'गजावलिकथे' मे ज्ञात होता है पद्यपरिमित इस महान ग्रन्थको नौ महीनों में ही पूर्ण कि ये महविद्रीके सूर्यवंशी राजकुलके देवराजके किया था। इसीसे इनकी कविताशक्तिका परिचय सुपुत्र थे और इनका 'रत्नाकर' नाम अपने माता-पिता मिल जाता है। कविकी शैली सरल है; अतः इनके के द्वारा ही रखा हुश्रा जन्मनाम था। इनका वर्णीपद पूर्वोक्त ग्रन्थोक स्वाध्यायसे भावुक पाठकों के सरस दीक्षा-प्राप्त है । वर्णोजीके दीक्षागुरु मृडाबद्रीके हृदयमें सहसा एक अनिर्वचनीय आनन्द स्वयमेव भट्रारक चारुकीर्ति थे। रत्नाकरने बाल्यावस्थामे ही उमड आता है। अपनी कृतियोंको क्लिष्ट बनाना काव्य, अलंकारादि विपयो में पाण्डिल्य प्राप्त कर प्राचार्य कविको सर्वथा इष्ट नहीं था। इस बातको उन्होंने कुन्दकुन्द के प्राभृतत्रय, प्राचार्य पूज्यपादक समाधिश- स्वयं अपने मुंहसे कहा है और उसको अन्त तक तक, श्रीपानन्दीके म्वरूपम्बोधन आदि अनेक यावच्छक्य निबाहा भी है। रत्नाकर अपने हृद्गत श्राध्यात्मिक ग्रन्थोंका मनन किया था। ये कारकलके बड़े से बड़े विचारोंको भी थोड़े शब्दों में हस्तामलकवत भैरग्स प्रोडयरके गजदरबग्में 'शृंगारकविराजहंम' स्पष्ट वाचकों के सामने रखने की अनुपम शक्ति रस्ते की उपाधि प्राप्त कर श्रास्थानस्थित सभी विद्वानोंपर थे। इस प्रकारका सामर्थ्य सभीमें नहीं होता । कवि अपना सिक्का जमाये हुए थे । रत्नाकरका समय का रचनाचातुर्य भी विलक्षण था। इसके लिये आपक उपर्युक्त 'राजावलिकथे' के मनसे शालिवाहन शक भरतेशवैभवका 'भोगविजय' ही उज्ज्वल निदर्शन है। १४७६ ( ई० मन १५५७) है । इस समय कन्नड वस्तुतः कथाभाग इसमें बहुत कम है, फिर भी कवि भाषामें रत्नाकरप्रणीत मुख्य चार ही ग्रन्थ उपलब्ध ने प्रकरणोंद्वारा केवल तीन दिनकी बातोको बढ़ाकर होते हैं-१ भरतेशवैभव, : अपराजितेश्वरशतक, छोटे-छोटे १६ प्रकरणोंमें वर्णन किया है। इसका ३ रत्नाकराधीश्वरशनक र ४ त्रिलोकशतक। वर्णनक्रम बीसवी शताब्दीके उच्चकोटि के उपन्यामोंमे शतकत्रयोमेमे पहला शतक उपलचम्पयाला छंदमें, कुछ भी कम नहीं है । 'भोगविजय' का कथाभाग दुमरा शादू लमत्त भमें एवं तीमरा कंटोमें रचित है। नाटकोके ममान आस्थान-रंगमे प्रारम्भ होता है। ये ग्रन्थ 'शतक' कहलाने पर भी वास्तवमें मपाद-शतक ये कवि प्रत्येक विषयमें पूर्ण दक्ष थे; अतः जिम हैं । इन शनकोमेसे प्रथम दोमे बैगग्यका तथा विषयको अपने हाथमे लेते थे उस निचोड़कर ही अन्तिममें त्रिलोकका वर्णन है । साहित्यिकदृष्टिमे भी छोड़ते थे। कविकी शृंगारवर्णन-सम्बन्धी अमेयशक्ति तीनों ग्रन्थ बहुत ही उत्तम हैं। इनका भरतेशवैभव को देखकर उनकी श्रृंगार-कवि हंसराज' यह उपाधि सांगत्य (छन्दका एक भेद) में रचा हुआ एक सर्वोत्तम सर्वथा अन्वर्थ जॅचती है । इनकी कृतियां हास्य,शान्त काव्य है । इममें सम्राट् भरतकी जीवनी बड़े रोचक आदि अन्यान्य रमोंसे भी परिपूर्ण हैं । रत्नाकरके ढंसेगचित्रित य ह ह ग्रन्थ भोगविजय, दिग्विजय, शतकद्वयमें तो तत्त्वज्ञान विराग्य कूट-कूट कर भरा
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
०५२
अनेकान्त
[वर्ष ५
है । 'भरतेशवैभव' में भी तत्त्वज्ञानकी कमी नहीं है। अजीव, आश्रव, बंध, संघर, निर्जरा, मोक्ष,पुण्य, पाप) खासकर योगविजय, मोक्षविजय एवं अर्ककीर्तिविजय इन्हें भले प्रकार जान कर भी वास्तव में आत्मा तत्त्वज्ञानका भाण्डार ही हैं । रत्नाकर कोरे लेखक ही शरीरसे भिन्न है,शरीर अचेतन है, आत्मा चेतनास्वरूपी नही थे; परन्तु एक सच्चे प्रात्मानुभवी भी । इसके है; यो विचार करनेवाला ही सुखी है न? ॥३॥ लिये इनके मुखमे निकले हुये अनुपम, बहुमूल्य वचन हे रत्नाकराधीश्वर ! आपने बताया है कि आत्मा ही ज्वलन्त उदाहरण हैं। 'राजालिकथे' से विदित केवलज्ञानगम्य है। शरीरके समान वह चक्षरिद्रियगोचर होता है कि रत्नाकर एक अच्छे योगज्ञ भी थे। कथा नहीं होता। जिस प्रकार पत्थर में सुवर्ण, पुष्पमें सुगन्ध, के कर्ताका कहना है कि अपने गृहस्थाश्रममें जिस दृधमें घी और लकड़ीमे आग अव्यक्तरूपमें व्याप्त है यो समय कवि कारक्लके भैररस ओडेयर के राजदरबार समझकर अभ्यासद्वारा ही वह प्राप्त होता है।॥४॥ मे आस्थानकविके पदपर थे, उस समय उनपर हे रत्नाकराधीश्वर ! जिस प्रकार पत्थरमें दिखाई राजकुमारी सहसा आसक्त हो गयी थी । ये उससे देनवाली कान्ति सुवर्णका गुण, वृक्षमे दिखाई देने मिलने के लिये योग-द्वारा वायु-धारणकर सदैव वाला मार भागका चिन्ह आर दूधमें दिखाई देने सौधाग्रमे खिड़की द्वारा आया-जाया करते थे । वाली मलाई घीका चिन्ह कहा जाता है उसी प्रकार अकस्मात जब एक रोज़ यह बात राजाको ज्ञात हुई इस शरीरमे दिखाई देने वाली चेतना, ज्ञान, वचन तब उसी गेज़ भयमे रत्नाकरने अपने गुरु महेन्द्र- आदि जीवके गुण हैं यो आपने फरमाया है ॥५॥ कोत्तिमे दीक्षा लेली । अस्तु, मै अब रत्नाकरजीके हे रत्नाकराधीश्वर : जिस प्रकार पत्थरको शोधन 'रत्नाकराधीश्वरशतक' के कुछ प्रारम्भिक पद्योंका हिन्दी से सुवर्ण, दुधको मथनेस मक्खन और लकड़ीको अनुवाद 'अनेकान्त' के पाठको के समक्ष रख रहा हूँ। जोरसे रगड़नसे आग प्राप्त होती है उसी प्रकार शरीर ___'शृङ्गारकविहंसराजके प्रभु हे रत्नाकराधीर ! में आत्माको जुदा मानकर अभ्यास करनेसे क्या शोभायमान लेपनद्रव्य, मुन्दर और सुगन्धित पुप्पों आत्माको देखना असाध्य है ॥६॥ की माला, अनध्ये रत्नोंका हार र बहुमूल्य वस्त्र ये हे रत्नाकराधीश्वर ! उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन-चारित्रसभी केवल शरीरकै अलंकार हैं, इसलिये ये त्याज्य स्वरूप, मंगलमय, अतिशयोसे युक्त, दूसरोकी सहायता हैं । श्रात्मस्वरूपकी श्रद्धा, आत्माका ज्ञान और विशिष्ट के विना स्वस्वरूपको प्राप्त, सुखस्वभाव, बाधारहित चारित्र ये तीनों चित्तके अलंकार हैं, इसलिये ये उपा- श्रीर विषयासक्तिसे विमुख आत्मा इस शरीरमें पैर देय है, यह समझकर आपने इन त्रिरत्नोंको मुझे के अंगूठे से लेकर मस्तक तक सर्वाङ्ग व्याप्त है ॥७॥ प्रदान करनेकी कृपा की है ॥ १॥
हे रत्नाकराधीश्वर ! धूपसे नहीं सूखनेवाला, आग हे रत्नाकराधीश्वर ! जीवाजीवादि तत्वोमें उत्पन्न से नहीं जलनवाला, पानीस नहीं भीगनेवाला, तंज होनेवाली प्रीति ही सम्यग्दर्शन है, उन तत्वोंको भले से तेज़ तलवारसे भी नहीं करने वाला, ज्ञान-दर्शनप्रकार समझना सम्यग्ज्ञान है और इम सम्यग्ज्ञानकी स्वरूप यह आत्मा परवस्तुओके चिन्तनसे अपने स्वसहायतासे किसी प्राणीको किमीप्रकारकी पीड़ा उत्पन्न रूपको भूलकर क्षधारोगादिसे नष्ट होनेवाले इस न हो इस ढंगम चलना सम्यकचारित्र है; यह कहकर शरीरमें मिल गया है । इसलिये अपने स्वरूपके इन्हीं तीनोंको आपने मुक्तिका कारण बताया है चिन्तनसे ही यह सुखी हो सकता है न ? ||८||
हे रत्नाकराधीश्वर ! पद्रव्य, ( जीव, पुद्गल, हे रत्नाकराधीश्वर नाशस्वभावी, निश्चेष्ट, सदोष धर्म, अधर्म, आकाश. काल ) पञ्चास्तिकाय, (जीवा- इस जड़ शरीरको यह श्रात्मा अपनी चैतन्य-शक्तिसे स्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति- सारथीके समान चलाता है, मृदंगकारके समान बुल काय, आकाशास्तिकाय ) सप्ततत्व, ( जीव, अजीव, वाता है और नटके समान नचवाता है। देखो इसका आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) नवपदार्थ (जीव, सामर्थ्य | ॥॥
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपभ्रंश भाषाका शान्तिनाथचरित्र
(ले०- पं० परमानंद जैन शास्त्री)
अनेकान्तके चौथे वर्ष की पाँचवीं किरणमे नया- हुए लेखक ने उसे ५००० हजार सूचित किया है, मन्दिर देहली के कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोकी जो एक जिसका अभिप्राय संधिवाक्यो आदिका भोगणनाकरक सूची प्रकाशित की गई थी उसमे बह ग्रन्थोको, जिनका श्लोकसंख्या बतलान का जान पड़ता है। इस ग्रन्थम सम्प्रद यादि-विपयक निर्णय नहीं हो सका था, 'संदिग्ध ५३ पारच्छद ह। पत्र संख्या १५३ ३ । यह प्रात ग्रन्थसम्प्रदाय-ग्रन्थ' शीर्षकके नीचे प्रकट किया गया था। रचनास एक वष बाद अथात् वि० स० १५८८ म उनमें से आज चौथे ग्रन्थ 'शान्तिनाथचरित्र' का फाल्गुण वदी पंचमाक शुभादन विष्णुदास लखक क संक्षिप्त परिचय अनेकान्तके पाठकों को कराया जाता द्वारा लिखागइ ह । विष्णुदास ऊधाबामण (मूदव)का है जिससे ग्रन्थकारक सम्प्रदाय तथा नामादि-विपयफ पुत्र था । संभवतः उसीक द्वारा ग्रन्थका प्रथम प्रात सारा सन्देह भी दूर हो जाता है।
लिखो गई, इसीसे उसका नाम मूलमे 'वण्हण वि यह शान्तिनाथ चरित्र अपभ्रंश भापाका एक ऊधापुत्तएण' आदि वाक्योंके द्वारा संनिविष्ट किया दिगम्बर ग्रन्थ है । इसके रचयिता कवि महिन्दु गया है। (महीचन्द्र या महाचन्द्र) है, जो इल्लराजके पुत्र थे। ग्रन्थप्रशस्तिमें कविन योगिनीपुर (दिल्ली) का इससे अधिक ग्रन्थकारका कोई विशेष परिचय उक्त सामान्य परिचय कराते हुए काठासंघक माथरगच्छ ग्रन्थप्रतिपरस उपलब्ध नहीं होता । इस ग्रन्थकी और पुष्करगणक तीन मुनियों (भट्टारकों) का नामोरचना अग्रवाल वंशक मंडनस्वरूप गर्ग-गोत्रीय ल्लेख किया है-यशःकीर्ति, मलयकीर्ति और गुणभदभाजराजसुत ज्ञाना (ज्ञानचन्द्र)क पुत्र विद्वान श्रावक सरि । इसके बाद ग्रंथका निर्माण कराने वाले साधामाधारणकी प्रेरणा की गई ह* । जैसाकि निम्न
रण नामक अग्रवाल श्रावकके वंशादिका विस्तृत पद्य र तदनन्तरक संधि वाक्यसे प्रकट है:--
परिचय दिया है। और ग्रंथके द्वितीयादि परिच्छेदक भो सुणु बुद्धीसर वरमहि दुहुहर, इलराजसुप्र णाखिजइ । प्रारम्भमें एक एक संस्कृत पद्यद्वारा भगवान शांतिनाथ मण्णाणसुश्र माहारण दोसणिवारण वरणरेहि धारिजइ ॥ का जयघोप करते हुए उनमे, पुष्पदन्तक महापुराणकी
'इय सिरिमंतिणाहचरिए णिरुवमगुणरयण संभरिए तरह, माधारणकेलिये श्री और कीर्तिआदिकी रक्षा करने अण्णाणमयो (?) इल्लराजसुअ-महिंदुविरइए सिरिणाणा- की प्रार्थना की गई है। उन पद्योंको अलग परिशिष्टमे मुअ-संघाहिव-महाभब्व माहारणस्प णामंकिए भन्वियण- दे दिया गया है और उनसे ग्रन्थकार कविकी संस्कृतजणमणाणं दयरे मिरिइढिदेव - णमीयारकरणं सेणिय रचना-चातुरीका भी अच्छा परिचय मिल जाता है। महागय सिरिवड्ढमाणसमवसरण गमणं धम्मक्रवाण-निसु- ग्रंथका मंगलाचरण निम्न प्रकार है:णणं पढमो इमो परिच्छेश्रो सम्मत्तो ॥छ॥'
जिणमय-तरु कंधर णुय भुविकंधर सुरवह संतिहु पयजुयलु । कविवर महाचन्द्र ने इस ग्रन्थकी रचना योगिनीपुर उत्तमु तह केरउ सुक्खजणेरउ चरिउ कहमि पणविवि अमलु ॥ (दिल्ली) में बादशाह बाबरके राज्यकालमें विक्रम मं०
इसके बाद 'जय श्राहणाह जय रणाह रगाह । जय १५८७ क कातिक माम के प्रथमपक्षका पचमाक दिन अजिय गयं रइ-पीझरणाह । आदि रूपमे चतुर्विशति पूर्ण की है। । ग्रंथकी श्लोक-ख्या मृलमें ४३०० तीर्थकरों और जिनवाणीकी स्तति की गई है। पश्चात (तेतालीममई) दी है, परंतु ग्रन्थप्रतिको समाप्त करते
आचार्य, उपाध्याय, साधु और सम्यग्दर्शनादिको नम* एयाहि मज्झ माहारणेण कागविउ एह गंयु तण। स्कार किया गया है। इसके बाद धर्मकथा कहनेकी । विक्मगबहु नवगयकालइ. रिमि वसुसर भुविधेकालइ। प्रतिज्ञा की गई है। इसके अनंतर ग्रंथमें अकलंक, कत्तियपढमपवित्र पंचमदिणि हुउ परिपुण्णवि उग्गंतद इणि॥ पूज्यपाद, नेमिचन्द्रसैद्धान्तिक, चतुर्मुख, स्वयंभू ,
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५४ अनेकान्त
[ वर्ष५ पुष्पदन्त, यशःकीर्ति, रइधू , गुणभद्रमूरि और सहण- भव्वयण -कमल-वियसण-दिणेंदु । पाल x नामके आचार्यों नया विद्वान कवियोका तहु सीसु वि मुणिवरु मलयकित्ति । म्मरण किया गया है। ग्रन्थका प्रशस्ति आदिके रूपमें श्रणवरय भमइ जगि जाह कित्ति । अन्तिम भाग इस प्रकार है :
तहु सीसु वि गुणगणरयणभूरि । प्रशस्ति
भुःणयलि सिद्ध गुणभद सरि । अहुणा णामावलि, वरणवि पाउलि पभणउ अइहयारी।'
र सोरटा-तहु पयभत्तउ साहु भोयराउ जाणिजइ ।
- गुणवठियइणि वास जोयणि पुरि णिव सिजइ ॥१॥ सिरिवीरु णवेपिणु हियह धरेविणु सुद्धविदा पहुकेरी।।
चौपाई-जे तिथयर वि गोत्त णिवद्धउ । पद्धडी-इह जोयणिपुरु पुरवर, सारु।। जहु वरणणि इह सक्कु वि श्रमारु ॥
करि पयट्ट मुहपुण्ण वि लदउ । सालत्तय मंडिउ सो विभाइ ।
संधाहिउ गयपुरि संजायउ । कोसी सहि परिहा दुग्गणाइ ॥
अयरवालु संघह सहु..ायट । जो वण-उववण-मंडिउ विचित्तु ।
गग्गगोत्त -णिम्मलगुण मायरु ।
सुथिर मेरुवि तेय-दिवायरु । णं मेरुवि चेईहर - पवित्तु । तरिणयड विजउँणा - ण वहेइ ।
पद्धट्टी-तहु भजवि घील्हाही वि सार । णं गंग वि ईसहु सहु वहद ।
णाहहु गामिणि णं गंगफार ।
तहु पुत्त पंच णं मेरुपंच। खड गोउराई अइजिगि मिगंति ।
मह-बयइ पंच णं ममिइ पंच । खणमुहहु विणं अवयारु दिति ।
पहिलारउ संघहु भारधरणु । जहु रक्खइ गोउव दंडधारि ।
घउभेयसंघ बहुभत्ति-करणु । अरियण - गणाह जो संपहारि ।
संघाहिउ ग्वीमविचंद माम् । परचंत णिवइ संगहा दंड । रायाहिराउ वव्यरु पयंहु ।
तहु विरिण भज गुणगण विसारु । मिच्छाहिउ अइवविणाय जाणु ।
पढम वि घीकाही गुणवरिछ । महमूलणोव्व जण दिएणमाणु ।
वीई नानिगही अइव इछ । जहिं चाउवरण पय सुहि वसंति ।
तहु पुत्त चयारि वि चउ णियोय । णियणिय किरियाइवि रत्तचित्ति ।
बीथा पढ़मउ मज्ज वि असोय । तहि चेत्तालउ उत्तुंग सहइ ।
तिहुगाही णामे णमिदामु । धयमंडिअ मोक्ख [सु] मग्गु वहइ ।
तोउ वि जायउ सपि किरणहामु ।
तहु कामिणी वि गजो वि णाम । जहि मुणिवर सत्त्थई वायरं नि ।
वीयउ सुउ पिरथीमल्लु नाम । महजण्ण-पूय मावय करति ॥
तहु पिययम हिउराही पसिद्ध । तहिं कट्ठमंघ माहुर विगच्छि। पुक्खरगण मुणिवर चइविलच्छि ।
तहु पुत्त चयारिवि गुण समिद्ध । जसमुत्ति वि जसकित्ति वि मुरिणदु ।
पढमउ उधरणु रगणयउ वि वीउ ।
गुणगण गरिछ धणराउ तीउ । xअकलंकमामि मिरिपाइपूय । इंदाइ महाकइ अट्ठभूय । चौपई-चउत्थउ मानमिघु वि भणिज्जइ।
मिरि णेमिचंद मिद्धतियाई। मिद्धतमार मुणि णवियताई। खीमचंद सुउ तीयउ गिजइ । चउमुह-सुयंभु-मिरि पुष्फयंतु । सरसइणिवासगुणगण महंतु । पद्धडी-इंदेव कीड सो इंदराउ । जमकिनिमुणीसर जसणिहासु। पंडियरधू कटगुण अमाणु। रावणही कामिणि जो सराउ । गुणभद्दसूरि गुणभटाणु सिरि सहणपालु बहु बुद्धि जासु। तहु पुत्त विरिण णं लच्छपिल्ल ।
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
अपभ्रंश भाषाका शान्तिनाथचरित्र
२५५
संती वि हामु तारणु रसिल्ल। पुणु चउथउ चंदु वि चंदहासु ।
दोदाही बहु मुउ मामिदामु । घता-भायहु सुर वीयउ गुणगण जूयउ,
णाणचंदु पणिज्जह। तिहु भामिणि गुण गणरामिणि ।
सउगजही कहिजइ । पद्धडी-तहु तिरिण अंगसू तिरण रयण ।
णं तिगिण लोय ते मुद्धबयण । पढमउ मम्मेयवि जत्तकरण । सारंगु वि रामे सुद्धकरणु । नहु ललण तिलोकाही गुणाल ।
राका-पसहर-दिप्पंतभाल । चंपई-बीयउ संघहु भार-धुरंधरु ।
देवमाय गुरु-भत्ति वि पायरु । पद्धडी-जिण यह पोमिणि महिरायहम् ।
पावारिणाय जो पवरहंसु । जुएणय-सेतु जयजत्तकारि ।
विहवेण विजित्तउजेमुगरि । चोपई-पंडियरसमुह दापणु गिजह ।
पंडियाह गुणणाय भणिजइ। साधारणु णामे सो भाणउ । उवमारहिउ विजण अहि माणिउ । तहु वणिया सीवाही णामे ।
ण सरधोरणि पेसिय कामे । पद्धडी-तहु चारि तगुभव गुणमहंत ।
जेठू वि सुअ अभयहु चंदु संत । चौपई-चंदणही भाजहि रमइल्लउ ।
वीयउ जेट्ठ वि मल्लु गुणिल्लउ । वर भदासही भज अल किउ । तीयउ जितमल्ली वि असंकिड । सो पिया वि समदो रइ माणइ । पुणु चउत्थु साहिलु पिउ भाणइ । तासु णारि भीखरणही पावण । णं मंदोयरि मीलहु भायण । संघाहिव णाणात.उ पुत्तु । संघाहिउ ताल्हणु गुण विचित्तु । संघवइ वि भोयहु तीउ तोउ ।
सिरियचंदु माणंतु भोउ । घत्ता-तहु भजा गुणहि मणोजा।
हरराजही य भणिज्जइ। सीलेण वि सीया अहव विणीया।
णं सुतार जरा। गिजा। पद्धही-तहु भुल्णु गामें तोउ जाउ ।
वे कामिणी हि मंडियउ काउ । पदमी उधरण पुत्ती विचित्त । वीया चूहुटही पियहु रत्त । सं-भोयहु तुरिउ वि तोउ सालु । गजभच्छ णामु गुराियण-रसालु । वे कामिशिश भरहविपालधी य । दुइया साल्हाही अइविणीय। तहु अंगब्भउ सयतरण ग्मालु । वृढणही भज हि अइ रमालु । तहु कुच्छिजाउ सुहवंतु सूखु । ण पिल्लु णामेण सखु । पुण भोयहु पंचमु पुत्तुमाहु । रणमनु रामे अचंत साहु । वे भजहि मोहिउ जासुमणु । पढमा चूहडही भज-रयणु । तहु जटमल्लु वि रामे विणीउ । नहु थीय वि रावणधी य णीउ । तहु पुत्त चयारि वि कामकासु ।
पढमउ हिमराउ वि वुहविमेसु । च.पई-वीयउ मेइणिमल्लु पउत्तउ ।
तीयउ वाइ विमल्लु वि उत्तउ । पद्धडी-चउथउ चउहत्थु वि दाणजुत्तु ।
सं-रणमलहु वीयउ कलत्त । पंथही तहु सुउ मुरदासु । पिउमाइभत्तु जिगावर वि दासु । ण्याहे मझि साहारणेण ।
कारा वि उ राहु गंधु तेण । चौपई-कम्मवस्खय वि णिमित्त मारउ ।
संतिणाह चरिउ वि गुणारउ । श्रायहु गंथ पमाणु विलक्विड ।
तेयालसइ गणि कइयण अविवउ । पद्धडी-विष्णहेण वि उधा पुत्तगण ।
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५६
अनेकान्त
[वष ५
भूदेवेण वि गुणगणजुएण।
विकचकुमुदराशेयस्य साधारणस्य । लिहियाउ चितेण वि सावहाणु ।
निहततिमिरपंके शांतिचन्द्रोदये यं, इहु गंथ विबुहसर-जाणभाणु ।
भजयति भुवि रागी दत्तचित्तस्सुधीपु ।। चौपई-विक्कमरायहु बवगयकालइ ।
यः संमोहपरागपुञ्जहरण समीरणः सूत्करो, रिसि-वसुसर-भुवि-अंकालइ।
नायाभूमिविदारणे विनियतं सत्सारसीरो बली । कत्तिय-पढम-पक्खि पंचमिदिणि ।
स श्रीशांतिजिनाधिपो विजयते संसारसंतापहत , हुउ परिपुण्ण वि उग्गतइ इणि ।
सत्साधारणसेवकस्य नियतं दद्याच्छिवं सुन्दरम ।६। धत्ता-जावहिमहि-सायरु गयणु दिवायरु मेरु-महीहरु चंदउ। यः पंचमः पार्थिवचक्रवर्ती, जउण। वि गंगाणई जियावाणीसई एहु सन्थु ता दउ ॥
श्री धर्मचक्री स तु पोडशोपि । इति श्री शांतिनाथचरित्र समाप्तमिति ग्रं. ५०००। स शान्तिनाथः करुणाम्बुनाथः, सम्पूर्ण: शुभं भवतु ।
साधारणस्य श्रियमातनोतु ॥ ७॥
सुललितपदयुक्ता सर्वदोपैविमुक्ता, सं० १५८८ वर्षे फाल्गुण वदि ५शुभदिने लिविश्न दासु।
जडमतिभिरगम्या मुक्तिमार्गे सुरम्या। यादृशं पुस्तकं दृष्ट्वा तादृशं लिखितं मया। जिनमदनमदानां चारुवारणी जिनानां यदि शुद्धं न विशुद्ध चा ममदोषो न दीयते ।।
परचरितमयानां पातु साधारणानां ।।। मंवत १७६४ वर्षे कार्तिक वदी पंचमी पोथी लिई यो नित्यं सकलाकलासु कुशलो विज्ञानवान सद्वती, मोल मुकुंदरनगर माग्यनपुरके वासी ने।
भक्त्वा भोगमनेकधा च विभवं सच्चक्रवतिश्रियं । परिशिष्ट
मुक्तो यो भवसागराजिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा, [शान्तिनाथचरित्र के परिच्छेदोमे पायजाने वाले संस्कृत पद्य]
श्रीसाधारणश्रावकम्य सततं कुर्यान्मनो वांछितं ।।। सद्वचन सज्जलनिधी वैदग्ध्यभंगाकुले,
कनकमगिरीन्द्र चारसिंहासनस्थः , तत्मेवानलिनीदले स्थिरमना यो राजहंमायते ।
प्रमुदितमुग्वृन्दैः स्नापितो यः पयोभिः । मत्काव्यांवुजलो भिजैनमधुपैर्गीतः सुकीर्तिमुहुः,
स दिशतु जिननाथः सर्वदा सर्वकामा-, शुश्रपु जिनशान्तिनाथमुनिपस्तं पातु साधारणं ॥११॥
नुपचितशुभगशः साधुमाधारणस्य ॥ १० ॥
भुवनतिलक-तुल्यो यो गुणांघरतुल्यः, यत्कीर्तेभु विसागरस्य च गुगादो भवत्सा जयत ,
सकलमुग्बनिकेतो ज्ञानतत्त्वेकहतुः । तेजस्वी वडवानलेन पवनेनोत्थापितो वेगवान ।
जिनरतिपतिरूपो ज्ञातलोकस्वरूपो , शीतत्वं भजते कथं न यदि वा सीमानमासेवते,
हदि वमतु जिनेन्द्रः साधु-साधारणस्य ॥ ११ ॥ श्री शांतिगु गाजिगजिवपुपं तं पातु साधारणं ।।।
यं सर्वदेवाः स्तुतिभिः स्तुति दृप्यन्मोहमदान्धकारपटले श्री यामिनी कामिनी
मंसेवते भूतिगणोऽणिमाद्यः । न भव्यजना मनःकजवरे कास्यैकमास्वद् द्युतिः ।
म वीतरागो भवतु प्रसन्नः श्रीमच्छान्तिजिनेश्वरो गुणगुणयुक्तः सदा ज्ञानवित
साधारणस्येह गुणालयम्य ॥ १० ॥ श्रीअग्रोतकवंशमंड नमणः साधारणस्य श्रिये ।। ३ ।। यो रागारिविमर्दको गुणगुणयुक्तः सदा साधुभिः,
प्रकाशिताशेषपदार्थसार्थी, दोपोदयानंतरितः कदाचिन। सेव्यो क्रोध-विमान-मत्सर-भयान्मुक्तो जिनोपोडशः।
भवत्वपूर्वो जिननाथभानुःसाधारणस्याखिलकार्यकर्ता।१३ मः कैवल्यविराजमानविरतः संसारविच्छित्तिये.
वीरसेवामन्दिर, सरसावा श्रीमच्छान्तिजिनेश्वरो गुणनिधेः साधारणस्य श्रिय।४।। रस इव नवकीर्तिष्पीयते प्राज्ञभृङ्गः,
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
'चूनड़ी ग्रन्थ
(लेखक-पं0 दीपचन्द जैन पारख्या)
प्रास्ताविक निवेदन
प्रस्तुत गुटका ३६० पत्रीका है । प्रत्येक पत्र में अजमेर जिलम नसीराबाद छावनीस दो मील
२३-२४ अक्षराकी ३०-३२ पंक्तियां हैं । गुटके के अंत की दूरी पर देगटू' नामका एक गांव है, वहांक
में उसकी लोकसंख्या ८५०० दी है। परन्तु यह गुट
का १८१ वे पत्रस प्रारंभ होता है। इससे पूर्व के पत्र जैनमन्दिरके शास्त्रभंडारकी शोध करते हुए अाजस कोई ५ वर्ष पहिले मुझे एक प्राचीन हस्तलिखित
प्राप्त नही हो सके, जिनक खोज जानकी जरूरत है। गुटका मिला था, जो इस समय मेर पास है। यह
उपलब्ध भागमें जो जो अप्रकाशित पाट मिले हैं, गुटका कुरुजागल देशक अन्तर्गत सुवर्णपथ दुर्गम
उनक नाम इस प्रकार है:सानीपत नगरमें-वि० सं० १५७६ ज्येष्ठकृष्णा प्रति
(१) अध्यात्मप्रकृति संस्कृतमे । इस रचनाका निम्न पदाको, सिकन्दरशाह के पुत्र सुल्तान इब्राहीमक राज्य
अन्तिम अंश ही १८१ वे पत्रक शुरूमे पाया काल में लिखा गया था। और इस अग्रवालवंशी जाता है। शेष समूचा ग्रंथ पूर्व पत्रो में ही जिंदलगोत्रीय साधु जोल्हाके पुत्र संघई मेघाने समांझय। लिग्बाकरगुणचन्द्र भट्टारकक शिय ब्रह्म०मांडणको भेट “णीयमुदरम्यं । निःकर्म शर्ममयमेतिद शी(शां)किया था। संघई मेधा गुणचन्द्र भट्टारककी आम्नाय- तरं सः।। इति अध्यात्मप्रकृति १४८।” म था। गुटकक अन्त म गुणचन्द्र भट्टारकका गुरु- (२) मोड़ढलु-श्रावककृत आगमक छप्पय, जिनमें २४ परम्परा इस प्रकार दी है
दंडकांका वर्णन है। ... "काष्ठासंघ माथुरान्वये पुष्करगणे आचा- (३, ४) विनयचन्द मुनिकृत 'कल्याणकरासु' और ये श्रीमाह(ध)वमन देवान् तत्प? भट्टारक श्री उद्धर- 'चूनड़ी' । सनदवान , तत्प? भ० श्रीदेवसनवान् , 'तत्प? (५) पंचमेरु संबंधी बीस विहरमाण तीर्थकर जयभ. श्राविमलमनदवान् , "तत्पट्ट भ० श्रीधर्मसन- माला। देवान , ६९ पढे भ० श्रीभावसनदवान , "तत्पी भ० (६) भ० जयकीर्तिकृत पार्श्वभवान्तर के छंद । श्रीमहसकीर्तिदेवान, 'तत्पट्ट भ० श्रीगुणकीर्तिवान, नं २ मे ६ तक के पाठ अपभ्रंश भाषाके हैं। "तत्प भ० श्रीयश कीर्तिदेवान , तत्प? भ. श्रा- (७) भद्रबाहुरासके अन्तर्गत चन्द्रगुप्त के १६ स्वप्न, मलयकार्तिदेवान, 'तत्प? भ० श्रीगुणभद्रदेवान, प्राचीन हिन्दीमें है। १२तत्प भ० श्री० गुणचंद्र तच्छिप्य ब. मांडण- (5) पं० सोमदेव बघेरवालकृत प्रास्त्रवत्रिभंगीकी एपां गुरुणामाम्नाये"-(इसके बाद विन्दुवाल स्थान लाटी (पुरानी गुजराती) भाषाकी टीका, अपूर्ण । पर गुटका लिखाने वाले संधई मेघाकी वंशपरम्परा यह टीका नेमिचंद्र सि० चक्रवर्तीकी प्रास्रवत्रितथा काम्बिकपरिचय दिया है)।
भंगी पर जो श्रतमुनिने कनडीमें टीका लिखी * स्वस्ति श्री विक्रमार्क संवत्सर १५७६ जेट गांद १ पडिवा
पनि थी उसके आधार पर बनाई गई है। शुक्रांदने कुरु जागलदेशे सुवर्णपथनाम्निसुदुर्गे सिकन्दर- (९) हरिवंशपुराणकी मेधावी(मीहा)कृत संस्कृतव्यासादितत्पत्रमुल्तान (५) वाहिमुराज्यं प्रवर्तमाने .... ख्या का अंश-समवसरण वणन, संस्कृतमें। (इसके बाद 'काठामधे' श्रादि गुरुपरम्परा बाला पाट है) (१०, ११) संस्कृत में दो मालागद्य, जो फूलमालके
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
२५८
अनेकान्त
[व
५
लिये उत्सवों पर पढ़ी जाती है।
तिकरूपमें संग्रह किया गया है, एक स्मृतिपटका काम इन उपर्युक्त पाटोमेंसे आज यहां अनेकान्तके देती है जिस पर नजर पड़ते ही अनेक तात्विक पाटकों के लिये 'चूनड़ी' ग्रन्थको प्रकाशित किया जाता विषयोंकी स्मृति हो आती है और उनकी याद सदैव है, जो अपभ्रंश भाषामें हैं।
ताजा बनी रहती है। जिन स्त्रियोंको चून्डी छपानेका 'चूनड़ी' एक प्रकारकी रंगीन ओढ़नी होती है, शौक है वे यदि इस प्रकारकी तात्विक चर्चाओं वाली जिसे छीपे-रंगरेज रंगते और सूतमे बांध-बांधकर चूनड़ी छपाकर योढ़ा करें तो कितना अच्छा हो । उसमें रंग-बिरंगी बूदे डालते हैं अथवा उमपर बेल- चनड़ीछपानकी यह कल्पना अच्छी सुन्दर जान पड़ती है। बूटे आदि छापते हैं । चूनड़ीका दूसरा नाम चुण्णी- इस ग्रन्थके कर्त्ता माथुर-संघीय भट्ठारक वालचूर्णी भी है जिसका अर्थ होता है विखरे हुए प्र- चन्द्र के शिष्य भविनयचन्द्र हैं, जिन्होने इमे गिरिपुर कीर्णक विषयोका लेखन अथवा चित्रण । ग्रन्थकारने (डूगरपुर-गिरनार?)से निवास करते हुए अजयनरेशके भोली महिलाद्वारा की गई पतिसे ऐसी चूनड़ीके गजविहार में बैठकर बनाया था। ग्रंथ पर एक विस्तृत लिखाने-छपानेकी प्रार्थनाको हृदयस्थ करके जिमे अोढ़ संस्कृत टीका भी है परन्तु वह किसकी बनाई हुई है कर जिनशासनमें विचक्षणता प्राप्त होवे, इस ग्रन्थ- यह टीका परसे उपलब्ध नहीं होता। विनयचंद्र मुनिकी रचना की है और इसका नाम चूनड़ी या चूड़िया की 'कल्याणकगसु' और 'चुनड़ी' इन दो रचनाओ के रक्खा है तथा इसे चुराणी भी बतलाया है। यह सब मिवा अन्य रचनाएँ अपने को ज्ञात नहीं हैं, जिन्हें नाम ग्रन्थगत प्रवक और ३,४, १५, ३०, ३१ नंवर मालूम हो उन्हें प्रकट करना चाहिये । अस्तु इस के पद्योंमें पाये जाते हैं। और इस लिये यह रचना- प्रास्ताविक निवेदनके बाद मृल 'चूनडी' ग्रंथको जिसमें जैनशासन संबंधी कितनी ही चर्चाओका सांके नीचे उद्धृत किया जाता है।
ग्रन्थारम्भ विण' वंदिवि पंच-गुरु,
भवियह इह चूनडिय बग्वारगाउँ ॥ २ ॥ मोह-महा-तम-तोडण-दिगायर ।
हीग-दंत-पति-पयडंती। णाह लिहावहि चूड़िय,
गोरउ पिउ बोलइ वि-हमंती ।। मुद्धउ प-भणइ पिउ जोडिवि कर । प्रवकं । मुदर जाइ सु-चेइहरि', पणवउँ कोमल-कुवलय-रायणी।
महु दय फिजर मुहय मुलक्खरण । [अमिय-गब्भ जण-सिव-यर-वयणी।]"
लइ छिपावहि चुनडिय, प-सरिवि मारद-जोण्ह जिम,
हरें जिण-मामरिण मुट्ट, वियववरण |॥ ३॥ जा अंधारउ सयलु वि गगासइ !
वल्लह ! जइ ण लिहावणि आहि । सा महु रिण-वसउ माणसहि,
छिपुलडा महुं वयणु सुणावहि ।। हंस-वधू जिम देवि मगमइ' ॥१॥
निरिण लोय तिहि-मंगि-जुय, माथुर-संघहें उदय मुणीसरु ।
चउ-दह रज्जु लिहहि उट्ठ-त्त । पणविवि बालइंदु गुरु गण-हरु ।।
सत्त रज्जु तलि सुर-गिरिहें, जंपइ विणय-मयंकु मुणि,
उपरि सत्त सत्त पिंड-तं ॥ ४ ॥ आगमु दूगमु जइविण जइ वि ण जाणउँ।
मेरु-महा-गिरि-जंवू दीवहु । मा लेजउ अवराहु महु,
खार-समुद्द-परिट्ठिय-सीमहु ।। १-ब्रेकेट वाला पाठ मूल प्रति मे त्रुटित है उम अपनी अोर दीव-समुद्द अमंख गरिण, से पूरा किया गया है।२-सरस्वतीदेवी।
३-चैत्यालयमे । ४-मुभग ।
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
'चूनड़ी' ग्रंथ
मझ-लोइ सत्तरु-मय खेत्त।
अट्ठावीस वि मोहरिणय, सरिम तीस कुल-पव्ययहि,
आव चारि दुइ गोत्त म छंडहि। अज-मिलेच्छ-भोय-महि-जुत्त।। ५ ।।
णाम-पयडि तेणवइ पुणु, पुणु छ एणवइ कु-भोय-धरा-ल।।
अंतराय लइ पंच वि मंडहि ॥ ११ ॥ लवण-काल-रणाम मयगल।।
रणव पयत्थ मत्त त्रि लिहि तश्च । ऊसप्पिणि-अवसत्पिणिय,
छह दव्व पंचत्थिय सच्चई ।। छह-छह-काल लिहहि गिरुत्त ।
दुइ पमाण णव मुग्णहि णय, कोडा-कोडिउ सायरहि,
चारि वि रणामाइय णिववव। एक एक दम दस पवि-हत्त ॥ ६॥
मइ छत्तीमा निरिण सय, चउदह कुल-यर जिण चउ-वीस।
बारसंग संठवि मंग्वेव।।१२।। लिहि पुराण बारह चक्केस।
चउदह पुच्च पयिएणय' च उदह । वासु-राव बलराव गाव, व पडि-वामु एवं मंचारहि। अहि-गाणु जाणहि छह-भेयह ।। कामवणारय' सुरि, पुणु एयारह रुद्द पयारहि ॥७॥ लिहि संपुण्णु समोमरणु, दंसा-सुद्धि-पमुह अणुमरिय।
सत्त-पयारु संघु जिग्ग-समय। सोलह कारण लिहि जिणचरिय॥
मण-पजव दुहु-भेद ठिउ, तिहिं भयहि मम्मत्त लिहि,
निरिण सय तिमट्टि लिहि कुमयह ॥ १३॥ सत्त-भय-मिच्छ म मंभरि ।
लइ लेहरिण महु वुतउ२ किजइ। पंच णाण अण्णाण तय,
चूडिया-वट मंडिवि दिंजइ ।। दसण चारि पयत्तं" उद्धरि ।। ॥
मत्त सरीरइँ चारि मग, लिहि एयारह सावय-पडिम।
चारि वि वयग पणरह जोय।। बारह भिक्खु-पडिम मुणि गम्मइ ।।
पणरह लिहि पमाय पुणु, अट्ठावीस वि मूलगुण,
उउदह मल परिहारहि तेम ॥ १४॥ वारह-विह त उ दम-विहमंजमु ।
गुत्तिउ मल्ल दंड तिहि भयहि । महम-ट्ठारह मीलु भणि,
मोलह-विह कमाय मा वेयहि ।। पंचाचारु म वीसरि उत्तिमु ॥६॥
सुमरि अमंजम मत्तरह, गुण] लक्षु चउरासी टिप्पहि।
णोकमाय णव जोणिउ लिहि णव । चउदह जीव-समास-वियप्पइँ ॥
छह लेस दस धम्म धरि, च उदह लिहि गुणठाण पुणु,
चारिसरण भय मत्त ति-गारव ॥ १५ ॥ बीस परवण चउहह मग्गण ।
चारि भाग चउभयहि कलिय। छह पज्जत्ती पाण दह,
सम्मतहो गुण अट्ट जि कहिय॥ चारि वि गइ नह मिद्धि णिरंजण ॥१०॥
लिहहि दोस पणवीस तहिं, णाणावरण पंच दुइ वेयण ।
अट्ट वि अंग नस्स सरीरहो। रणवदंसण-आवरण महावरण (?)॥
विणउ विसेमहि पंच-विहु,
जं करेवि मुणि गयभवत्तीरहो।। १६ ।। १ कुलपर्वत-कुलाचल २ समुद्र ३ नवनारद ४ म-मा-मत ५घयत्नसे
१ प्रकीर्णक २ कहना ३ प्रमाद
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
अनेकान्त
[वर्ष
अट्ठोत्तरु स हिंसा भय।। दस-विहु सच्चु असच्चु वि वेयहि ।। बंभु पयामहि भेय णव, वहिरंतर दस-चऊदहगंथ। आयरियह छत्तीस गुण, अरि विणाणिय लिहि थिर-हत्थहि ।। १७ ॥ बारह अनुपहा लिहि वंधुर । मुणिवावीम परीमह दुद्धर ।। तेतीम अच्चामा रयणत्त लिहि सिवसुह-मासणु। अणु-गुण-सिक्खा-वय सहिर, वारह-विहु व उ मावय-मामणु ॥ १८ ॥ किरिया तेवएणइ गिहि-धम्महो। तेरह रिमि-धम्मही पिच्छम्नहीं॥ पंचवीस लिहि भावण, तिणि समय तह जीवही जंतहो । अट्ट वि गुण देव-त्तणह, लिहि मिच्छत्त अांत गुणं तहां ॥ १६ ॥ सासण-गुण कोडिन बावरण। मिस्स-ठाण ते दुगुण पवरण। सत्त-कोडि-सय सम्मणि, तेरह-कोडिउ सावय-ठाणहो। तिहिंऊरणी णवकोडि लिहि, मुणिवर-वविह-गुण-परिमाणहो ।। २० ॥ इग-अडयाल-मत्त-उणहत्तरि । पंच-अट्ट लिहि जिण-भवणं तरि ।। दस देवह संघाय मुणि, दम-विह भावण वसुविह वितर । पंच-पयार जोइसिय, बारह कप्पवामि लिहि सुर-बर ।। २१ ॥ पंच भाव णव लद्धि जिणिदहे। मत्त रिद्धि लिहि गण-हर-विंदहं ।। पंच च्छरियइ दिसि वि दस,
पवयण-माउ अट्ठ दस मुडण! चउ मंगल-उत्तम-सरण, पञ्चय सत्त चारि मण-खंडण ॥ २२ ॥ तिरिण काल किरिया पणवीस वि। लिहि अंतयड-अणुत्तर दस विह।। अाराहण भयवय लिहहि, जा चालीमहि सत्तहिं बद्धी। पंच मरण जेत्तहिं कहिय, चेयण निहिं भेयहिं सु-पसिद्धी ।। २३ ।। पंच णिगंथ सत्त सिय-भंग। रणव हि च रदह ग्यण समग्ग।। बुद्धि चर बल सत्त मुणि, दब्ध स-पजय-गुण संभालहि । इस आलोयण-दाम लिहि, थावरपण छ-ज्जीव म चालहि ।। २४ ।। चरतीम लिहि अइसय-सार।। छ-विह पुग्गलु बह आहार ।। छह मंठारण मंहगाण, दर्मावह एमण सुद्धि लिहहि तह । अंतराय बत्तीस मुगि, विजावञ्च-भत्ति दम दम विह ।। २५ ।। पंडिय-मरण तिरिया तह णाण। अट्ट विवेय पंच कल्लाग ।। दायारही लिहि सत्तगुण, छिपहि अट्ट सुद्धि दसभास। सत्तरि-सय वेयड्ढ़ गिरि, पुरउ दहोनरु-मर खग-वाम ॥२६॥ कप्प-वासि पडल तेमट्टि वि। लिहि अक्खर पूरािव चउसट्टि वि ॥ पंच वरण छह रस गणहि, मत्त वि सर दुइ गंध मिरुत्त। अट्ट फरिस चउ दाण मुणि, अहवीस विसय समग्ग: ।। २७ ।। पाडिहेर अट्ट वि जिण विंदहें । पडिलेहण-गुण पंच मुगिदह ।। १ प्रत्यय मात (?) २ प्रातिहार्य ।
१ अल्यासना (मूलाचारोक्त) २ निश्छद्म निष्कपट ३ विग्रत गतिमे जाने वाले जीव के। तीन कम नौ कोटि संख्या
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
वीर शासन-जयन्ती
पंच-अट्ठमय-पंच-तिय, अट्ठावीस-इग्यारह-अंक। अंगहॅ पुच है इत्तिपय, चउदह ण सोयार म संकहि ॥२८॥ लिवि' अट्ठारह कला बहत्तरि । च उठि वि विरणार मणंतरि ।। रिउ छह बारहमास लिहि, पुढविभय-छत्तीस विसेसहि । सत्तवीस अणगार-गुण, जिण-द्दर सहस-कूडु महुँ दरिमहि ||१|| मचा-उदय-उदीरण कम्मई। लिहि मविमेस विहिय जिगा-धम्महि ।।।
पतिउ लिहिवि समप्पियउ, मुद्धउ धरि गय ओढिवि चुएगी। विरणयचंद-मुणि-वयण सुणि, उत्तम-सावय-धम्मि पवएणी ।।३०।। ति-हर्याण गिरिपुरु जगि विक्खायउ। मग्ग-खंडु णं धर-यलि आयउ॥ तहिं णिवसंत मुणिवरें, अजय-गरिंदहो गय-विहारहिं । वेगे विरइय चूनडिय सोहहु, मुणिवर जे सुय धारहिं ।। ३१ ॥ ॥ इति श्री भट्टारक-विनयचंद्रप्रणीता चूर्णिका समाप्ता ॥
वीर के सन्देशका संवाद लेकर मास सावन,
आगयाशामन-जयन्तीका मुदिन शुभ पर्वपावन ।। लोभ पापचार-अत्याचारको जगसे मिटान, भेद भावोको हटाकर साम्यमय जगको बनाने ।
ओ' अहिसा धर्मका संसार में मंगीत गाने, दानवोंको मनुजताका पाठ आये थे पढ़ाने ।।
त्यागका आदर्श बन जो तज चुके थे राज्य-शासन ।
आगया उन वीरका शासन-जयन्ती पर्वपावन ।। घोर था आतङ्क भू पर, कट रहे थे पशु विचारे ! सान्त्वना उनको मिली थी,आप हीके आ सहारे।। दलित-पतितों औ' अछूनांको उठा उरमे लगाया। स्वार्थक संमारमें परमार्थ-नद जिनने बहाया ।।
थे लगे करने नभी सब निडर होकर आत्मचिन्तन ।
आगया उन वीरका शासन-जयन्ती पर्वपावन ।। उप-मिश्याचार-हिमाको हटाकर आत्मवलसे, दु:ख जीवोंका किया था दृर जिनने भूमितलसे । विश्वमें सद्ज्ञानकी तब छा गई थी शुभ घटाएँ, वृष्टि ज्ञानाऽमृत हुई, थीं चल पड़ी मंजुल हवाएँ ।।
हर्पसे 'व्याकुल' अवनिका नृत्य करता एक कण-कण ।
आगया उन वीरका शासन-जयन्ती पर्वपावन* ॥ *वीर सेवामन्दिरमे वीरशामन जयन्तीके अवसरपर पटित ।
श्रीओमप्रकाश शर्मा 'व्याकुल'
सरसावा
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
चामुण्डराय और उनके समकालीन प्राचार्य
(लेखक-श्री पं० नाथूरामजी प्रेमी' )
वीर-मार्तण्ड चामुण्डराय और सेनापति थे। गचमल्ल (चतुर्थ) का राज्य-काल जिस प्रकार श्वेताम्बर सम्प्रदायमें वस्तपाल और श०सं०८६६ से १०६ (वि० सं० १०३१-४१) तक तेजपाल मंत्रीकी प्रसिद्धि है उमी तरह दिगम्बर निश्चित है। ये गंग-ब्रज मारमिंहके उत्तगधिकारी थे। सम्प्रदायमे चामुण्डराय या चावुण्डराय की । उनका मारलिह आचार्य अजिनमनके शिष्य थे और उन्हींक घरू नाम गोम्मट था और 'राय', राजा गचमल्लबाग ममीप बंकापुर (धारवाड़) में उन्होंने ममाधिपूर्वक मिली हुई पदवी थी, इस लिये गोम्मटराय नामस भी
देहत्याग किया था। वे बड़े भारी योद्धा थे और उन्हों उनका उल्लेख मिलता है। डा० आदिनाथ उपाध्येने ने अनेक जैनमन्दिर निर्माण कराये थे। जगरेकवीर अपने एक लेखमें सप्रमाण मिद्ध कर दिया है कि राचमल्ल भी उन्हींकेममान जैनधर्मपर श्रद्धा रखते थे। बाहुबली स्वामीकी मूर्तिका नाम गोम्मटजिन या चामुण्डराय केवल महामात्य ही नहीं, वीर मनागोम्मटेश्वर इसी कारण प्रसिद्ध हुआ है कि वह पति भी थे । उन्होने अपने स्वामी के लिए अनेक युद्ध चामुण्डरायद्वारा निर्मापित हुई थी और आचार्य जीते थे, गोविन्दराज, वेकांडुराज आदि अनेक नेमिचन्द्रका पंच-मंग्रह भी गोम्मट-सार गोम्मट-संग्रह, राजाओको पगम्त किया था और इसके उपलक्ष्यम या गोम्मट-मंग्रह-मूत्र इसी लिये कहलाया कि वह उन्हें समर-धुरंधर, वीर मार्तण्ड, रंगारंगमिह वैरिकुलचामुण्डरायक लिये उनके प्रश्नके अनुरूप धवलादि कालदण्ड, असहायपराक्रम, प्रतिपक्षराक्षस, भुजविक्रम, सिद्धान्तों परम मंग्रह किया गया था । अण्णु भी समर-परशुगम आदि विरुद्ध प्राप्त हुए थे और कौनसी उनका एक बोलचालका नाम था। केवल 'गय' या उपाधि किस युद्ध के जीतनपर मिली, इमका भी 'देव' नामस भी उनका उल्लेख किया गया है। उल्लेख मिलता है। अपनी सत्यप्रियताके कारण व चामुण्डराय ब्रह्म-क्षत्रिय कुलक थे । इम कुलके विपय मत्ययुधिष्ठिर भी कह जाते थे। में हम कुछ पता नहीं । संभव है, उनके पूर्वज पहले
जैन धर्मनिप्र होन कारण जैन-प्रन्थकागंने उन्हें ब्राह्मण रहे हों और पीछे छात्र-वृत्ति करने लगे हों। सम्यक्त्वरत्नाकार, शौचाभरण, गुणरत्नभूपण, देव
वे गंगवंशी राजा गचमल्लक अमात्य (मन्त्री) गज आदि विशेपण भी दिये है"।। १ देखो, अनकान्त वर्ष ४ अर, ३-४ ।
गोम्मटराय या चामुण्डगय तीन कामांके लिए २ बाहुबलि नरितम चामुण्डगयको 'ब्रह्मक्षत्रिय-वैश्य
विख्यात हैं-गोम्मट-ग्रहमूत्र(गोम्मटमार), गोम्मट__ मुक्ति-मुर्माणः' कहा है।
४ देवा, जैन शिलालम्ब-मंग्रहका ३८ वो लेख । ३ यह वंश भैसूर प्रान्तम ईमाकी चोमे लेकर ग्यारहवी ५ प्राचार्य नमिचन्द्रने श्लिष्टरूपमे तीर्थकर भगवानको भी सदी तक रहा है। श्राधुनिक मैसूरका अधिकाश भाग ऊपर लिग्वे विशेषण देकर चामुगडगयका मंके । किया है, गंगराजानांके ही अधिकारम था। इनकी गजधानी जैमाकि गोम्मटमार-कर्मकाण्डकी निम्नगाथायोमे प्रकट हैपहले कोलार (पालार नदीके किनारे) थी. जो पीछे (क) अमहायजिग्देि अमहायपरकाम महापारे ।२६८ कावेरीके तटपर ललकाड चली गई थी। इस गजवंशका (ख) णभिऊण ऐमिचंदं महायपरक्कम महावीरं । ८७ जैनधर्मसे घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। गोम्मटसारके टीका- (ग)भिऊण मिणा गच्च जाहिरण्मासय घिजुग ।४५१ कर्ता अभयचन्द्रने हमे मिहनन्दिमुनीन्द्राभिनन्दित' राज- (घ) रामद गुणापणभूमण मद्धतामियमहद्विभवभावं ।८६६ वंश कहा है। कई जगह सिहनन्दिको इन राजवशकी (ङ) गुणग्यणभूसणंबुहिमइवेला भरउ भुवण्यलं ॥९६७ जड़ जमाने वाला भी बतलाया है ।
(च) गमिऊण वढमाणं कणयणि देवरायपरिपज्ज ।३५८
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७
चामुण्डराय और उनके ममकालीन आचार्य
२६३
शिखर या चंद्रगिरिक ऊपरके गोम्मटजिन और दक्षिण जलसे सिद्धोंके चरण धुलते रहते थे। डा० उपाध्ये कुक्कुजिन । गोम्मटसारमं प्राचार्य नेमिचन्दने इन का खयाल है कि यह स्तंभ 'त्यागद ब्रह्मदेव' स्तंभ है, तीनोकी जय मनाई है। इनमेसे गोम्मटजिन नेमिनाथ जो बिन्ध्यगिरिपर है। की इन्द्रनीलमणिकी उस प्रतिमाके लिए कहा गया है ये गंगवत्र मारमिहके गरु अजितमेनाचार्य के जो पहले चामुण्डराय-वस्तिम थी परन्तु अब उसका ही शिष्य थे। अजितमन अपने ममयके बहत बड़े पता नही कि कहां गई और अब उसके बदले में प्रभावशाली प्राचार्य थे और वे आर्यमनके शिष्य थे। एचणके बनवाये हुए मन्दिरमस नेमिनाथकी दूसरी गोम्मटमारके कान उन्हें ऋद्धिप्राप्त गणधरदेवादिप्रतिमा लाकर स्थापित कर दी गई है जो पाँच फीट महश गुग्गी और भुवन-गुरु कहा है । चामुण्डरायके ऊँची है और दक्षिण-कुक्कुट जिन बाहुबलि म्वामीकी
कुट जिन बाहुबाल म्वामाका पुत्र जिनदेवन भी इन्हीके शिष्य थे। उस विशाल मूर्तिक लिए कहा गया है जो जगत्प्रसिद्ध
चामुण्डगय जैनधर्मके उपासक तो थे ही, मर्मज्ञ है। एक प्रवाद था कि भरत चक्रवर्तीने उत्तग्में
विद्वान भी थे । उनका कनड़ी भापाका विपष्टिलक्षण बहुबलिकी प्रतिमा निर्माण कराई थी, जो कुवकुट
महापुगण (चामुण्डराय-पुगण) प्रसिद्ध है उपलब्ध सोसे व्याप्त हो गई थी। इस वही न ममझ लिया
गदा-प्रन्थोमे यह मबसे प्राचीन गिना जाता है । इसके जाय, यह उमम पृथक ह,इम बतलाने के लिए दक्षिण प्रारम्भ में लिखा है कि यह चरित्र पहले (कृचि (१) विशेषण दिया गया है।
भट्टारफ,तदनन्तर नन्दिमुनीश्वर नत्पश्चात कविपरमेश्वर उक्त बाहुबलि स्वामीकी विशाल प्रतिमाके सुन्दर र फिर जिनमन-गुणभद्र इम प्रकार परम्पराक्रममे और आकर्षक मुग्यके विपयमें कहा गया है कि उमे चला आया है और उन्हीक अनुमार मै भी लिग्बना है। साथमिद्धिक देवान और सर्वावधि-परमाधि- गोम्मटमारक अन्तमें एक गाथा है जिसमे ऐसा ज्ञानके धारी योगियोने दृरसे देग्या'।
भाम होता है कि गोम्मटमारकी कोई ऐसी टीका उनके बनवाये हुए जिन मन्दिरका नाम 'ईसिप- (कनड़ी टीका) भी उन्होने लिखी थी जिमका नाम भार' या 'ईपत्प्राग्भार' था जो कि शायद इम समय वीरमत्तण्डी था। चामुण्डायवम्तिके नामसे प्रसिद्ध है। कहा गया है।
जेणाभयथं भुवग्मिजवरवतिरीटकिरण जलाया। कि उमका तलभाग बन जमा है, और उसपर मौन
महाण मुद्वपापा मागो गान्मटी जयउ ॥६७१-क.का. का कलश है।
१० गोम्मट्टमुतल्लिटिगं गोन्मटगयेण जा कया देसी। चामुण्गयने एक स्तंभ भी बनवाया था जिम
मी (मा) गयो (अ) चिरकालं गाम य वीरमत्तंही। ऊपर यक्षाका मृर्नियाँ थी और जिनके मुकुटोक किरा
हम गाथ काटक अन्वय नही बैटना । पाट भी ६ गाम्मटमंगहमुन गोम्मटामहरि गोम्मटाजणो य। शायद कुछ अशुद्र है। परन्तु यदि मचमुच ही चामुण्ड
गाम्मटगयविणिम्मियदाकावणुकुक्कुड जिगोजयउ॥६६८ गयकी कोई दम। या कनदी टीका हो, जिमका कि नाम ७ जेण विगिन्मि पडिमावयणं सव्वामद्धिदवहिं।
'चारमनडी' था, नो व केशवगिकी कर्नाटकी वृत्तिमे मवारमोहिजोगिहि विमो गोम्मटो जयउ ||६|| जुदा ही होगी, यह निश्चित है । एक कल्पना यह भी ८वजयलं जिणवणं ईमपभारं सुत्रएणकलमं तु |
होता है कि उन्होंने गोम्मटमारकी कोई देमी ( कनड़ी) तिहुबगपडिमाणिक्कं जेणकयं जयउ मा गयो ||७०॥ प्रतिलिपि की हो । केशववणीकी कनड़ी-वृत्ति के लिए
मिद्धलाक या अाठवा पृथवीका नाम 'ईपत्याग्मार है। देविए डा उपाध्यायका 'जीवतत्वप्रदविका श्रॉन गोम्मट उमीक अनुकरण म यह नाम रक्खा गया है । देखो, सार : इटम श्राथर पन्टु इंट' शीर्षक लेग्व। (इंडियन त्रिलोकमारकी ५५६ वी गाथा ।
कल्चर जिल्द ७, नं० १ । तथा (अ० वर्ष कि० ३-४)
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६४
अनेकान्त
[वर्प ५
चारित्रमार नामका एक संस्कृत ग्रन्थ भी चामुण्ड- श्राचार्य नेमिचन्द्रने लिखा है कि जिनके चरणों रायका बनाया हुआ कहा जाता है परन्तु वह एक के प्रसाकमे वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिप्य मंसारतरहम मंग्रह ग्रन्थ है आर वहुत करके तत्त्वार्थकी समुद्रसे पार हो गए उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार सर्वार्थसिद्धि टीकापरमे मह किया गया है। हो । इसम भी मालूम होता है कि ये वीरनन्दि समसामयिक प्राचार्य
चन्द्रप्रभकाव्यक कर्ता ही है जो अपनेको अभयनन्दि
का शिष्य बतलाते है। आगे इन सबके अस्तित्वकाल चामुण्डरायके ममयमें अनेक बड़े-बड़े विद्वान आचार्य हो गये हैं। उनम में एक तो उनके गुरु
पर जो विचार किया गया है, नमसे भी यही निश्वय अतिजर्मन थे जिनका उल्लेख ऊपर किया जाचुका है
होता है। और जो बहत करके सेनमंधक थे। उन्हें 'भवनगरु' इन्दनन्दि नामक अनेक प्राचार्य हो गये हैं। कहा गया है । दृमर है अभयनन्दि-जिनक, वीर
हमाग खयाल है कि तावतार या श्रतपंचमी कथाके नन्दि, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि और नमिचन्द्र नाम कत्त) इन्द्रनन्दि यही होग; क्योकि श्रृतावतारसे मालूम के शिप्य थे । इनमम नमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती होता है कि वे मिद्धान्तशात्रांम खूब अच्छी तरह प्रमिद्ध गोम्मटमार श्रार त्रिलोकमारके कर्ता हैं। वे परिचित थे अ.र गम्मरसार (कर्मकाण्ड) में उन्हें
अपनका अभयनन्दिका ही शिष्य लिखते है। श्रुनमागरपारगामी लिग्या भी है। वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि उनके ज्येष्ठ गुरु भाई
कनकनन्टिक विषयमे इतना ही मालूम होता है थे श्रीर इस लिये उन्होंने एक दो जगह उनको भी कि गोम्मटमारकी रचनामें उनका भी हाथ था और गुरुतुल्य मानकर नमस्कार किया है और अपनेको
वे शायद इन्द्रनन्दिरी छोटे थे । कर्मकाण्डकी एक उनका चन्द्र (वत्म) या शिप्य भी कहा है। गाथाके अनुसार उन्होंने इन्द्रनन्दि गुरुके पास सब ये वीरनन्दि ही चन्द्रप्रभ महाकाव्य के कर्ता हैं।
मिद्धान्त सुनकर मत्त्व-स्थानकी रचना की थी। इन्होने इस काव्यको प्रशस्तिमें लिखा है कि मेरे गुरु गुणग्रामाम्मोवे: मुकृतवममित्रमदमाका नाम अभयनन्दि था जो देशीगगाके प्राचार्य थे। मसायं मस्सन्मान महाशा मतामन । अभयनन्दिक गुरु विबुधगुणनन्दि और प्रगुरु म नच्चियो ज्येष्ठ: शिशिर करमाभ्य: ममभवत् (दादागुरु) गुगणनन्दि थे ।
प्रावग्व्यानो नाम्ना विबुधगुग्णनन्दीत भुवने ॥ २॥ १ अजनमगागुणगणममूटमधारिजियसगगुरू ।
मनिकननुतपाद प्रास्तमिथ्यावाद: भुवणगुरु जम्मगुरु मा गयो गोम्मटो जयउ । ७३३॥ जी.का. मकलागुणममृदम्तस्य शिष्यः प्रमिशः। १२ दि मिचन्द्रम एमाग पसुदेणभयगादवच्छेग । अभवदभरनन्दी जनधर्माभिनन्दी रहयो निलायमारो ग्वमंन नं बहमुदाइरिया ॥-त्रि.सार.
स्वमिजित मधुभव्यलोककवन्धुः ॥ ३॥ १३ गामिऊगा अभयादि मुदमागरपारगिंदणंदिगुरूं । भव्याम्मी नविबोधनाद्यनमतर्भावममानविपः
वग्वारगं दिया पयडीग पच्चयं योच्छं ॥७८५-क. का. शिष्यम्नस्य गुणाकरम्प सुधिय: श्रीवीरनन्दीत्यभूत । ग्मद गुणग्यणभूमणमितानियमहद्धि भवभाव । स्वधं नाग्विलव हमाम्य भुवन-रख्यातकीर्ने: मना वरवरगादचदं गिम्मलगुणमिदगंदिगुरूं |८६६-क.का. ममत्मु गनयन्त यस्य जयिनी वाचः कुतर्काङ्कशाः ॥ वीग्दिणादेवच्छेण पसुदेण्भयगदिसिस्मेण ।
१५ जम्म य पायघमाएगाणं ममाग्जामुत्तिएगो । दमणचरित्तलद्वी मुयिया णे मिचं देण ॥६४८-ल०मा० वाग्दिणदिवच्छो णमामि इन्द्रणं दिगुरूं ॥४३६क. का. १४ बभूव भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पनि नीना गणभृत्मनः। १६ वग्इंदणदिर रुपी पासे मोउग्ण मयल मिद्धतं ।
मदग्रणीशिगणाग्रगण्या गुणाकर: श्रीगुणनन्दिनामा॥१॥ मिरिक एयण दिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिटम॥३६६॥क०का०
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द सिरायको प्रतिवायसार टीका
किरण ६-७]
चामुण्डराय और उनके समकालीन आचार्य पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके अनुसार आराके जैन १०० अर्थान वि०म०१०३५ में समाप्त किया था। सिद्धान्त-भवनम कनकनन्दि आचार्यका रचा हुआ कनड़ी भाषाके सुप्रसिद्ध कविरन्नने अपना 'त्रिभंगी' नामका एक प्रन्थ है जो १४०० श्लोक प्रमाण 'पुराणतिलक' (अजितपुराण) नामकग्रन्थ श०सं०६१५ है और वे यही कनकनन्दि होगे।
अर्थात् वि०सं० १०५०म समाप्त किया था। उसनअपने त्रिलोकसारकी व्याख्याके कर्ता माधवचन्द्र ऊपर चामुण्डरायकी विशेषकृपा होनेकाउल्लेख किया है। विद्यदेव आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य मालूम होते इससे चामुण्डरायका समय विक्रमकी ग्यारहवी हैं । मूलगन्धमे भी इनकी कई गाथायें सम्मिलित हैं सदीका पूर्वार्ध निश्चित होता है। बार वे मूलमे शामिल की गई हैं। गोम्मटसारमें भी माधवचन्द्र विद्यदेवने तिलोयसार टीकामं इनकी कई गाथाये संग्रह की गई हैं जो संस्कृत टीका लिखा है कि चामुण्डरायको प्रतिबुद्ध करने के लिए की उत्थानिकासे मालूम होती हैं । मंस्कृत गद्यमय नेमिचन्द्र मि० च० ने इस ग्रन्थकी १९ रचना की क्षपणासार भी, जो कि लब्धिसारमें शामिल है, इन्ही और इसी तरह गोम्मटसारकी मन्दप्रबोधिका टीकाके माधवचन्द्रका है।
कर्ता अभयचन्द्र कहते हैं२० कि गंगनरेश राचमल्ल श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गोम्मटसार के महामात्य चामुण्डरायके प्रश्नके अनुरूप यह ग्रन्थ और त्रिलोकसार नामकी दो रचनायें प्रसिद्ध हैं और बनाया गया । इमसे उक्त दोनों ग्रन्थों के कर्ता ये दोनों ही संग्रह ग्रन्थ हैं। इन दोनोंकी ही अधिकांश नमिचन्द्रसि०६० और उनके सहयोगियों-चीग्नन्दि, गाथाय धवलसिद्धान्त और तिलोयपरणत्तिस मार इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि, माधवचन्द्र-का समय भी रूपमें संग्रह की गई हैं। इनमें से गोम्मटसार तो विक्रमकी ग्यारहवीं सदीका पूर्वाध ठहरता है। चामुण्डरायकी ही प्रेरणासे उन्होंने बनाया है और श्रीवादिराजसूरिने अपना पार्श्वनाथचरित्र काव्य जैसा कि पहले कहा जा चुका है उन्हींके गोम्मटराय श०सं० १६४ (वि० सं०१०८२) में समाप्त किया नामपर इसका नामकरण किया गया है। गोम्मटसार है२१ और उन्होंने उसके प्रारम्भमें पूर्व कवियोकी का परिशिष्टपरू. लब्धिसार भी यतिवृषभके कषाय स्तुति करते हुए वीरनन्दिके चन्द्रप्रभ - काव्यका स्पष्ट प्राभृतपर से इन्हीने संग्रह किया है। आचार्य नेमिचन्द्र उल्लेख किया है २२ । अर्थात वि० सं० १०८२ तक की अन्य किसी रचनाका हमे पता नही है।
उक्त काव्यकी ख्याति हो चुकी थी और इससे भी जिस तरह चक्रवर्ती अपने शासन-चक्रस भारतवर्ष पूर्वोक्त समयकी पुष्टि होती है। के छह खण्डोको स धता है या अपने अधीन करता मैदानदेवश्चतरनयोगचतवदधिपारगश्चामण्डगया तिबाधनव्या है, उसी तरह आचार्य नेमिचन्द्रने अपने बुद्धिरूपमा
न्द्रन अपन बुद्धिरूप जेन अशेषविनय जनप्रतिबोधनार्थ त्रिलोकमारनामानंग्रन्थमारच यन चक्रस पद वंडागमको साधा। इसी लिए वे सिद्धान्त
। इसा लिए व सिद्धान्त- २०सिहनदिमुनीन्द्राभिन्दितगंगवंशललाम श्रीमद्राचमल्ल - २ क्रवर्ती कहलाये।
देवमहीवल्लभमहामात्यपद विराजमान रणरगमलनासहाय समय-विचार
पराक्रमगुगर भूपणसम्मात्यरत्ननिलयादिविविधिगुणग्रामप्रारम्भमे ही कहा जा चुका है कि चामुण्डराय
नामसमामादितकीर्ति श्रीचामुण्डरायभव्यपण्डरीक द्रव्यागंगनरेश राचमल्लके मन्त्री थे और उनका गज्यकाल नुयोगप्रश्नानुरूपम् " वि० सं० २०३१ से १०४१ तक है।
२१ शाकाब्दे नगवाधिग्न्त्रगणने संवत्सरे क्रोधने, __ चामुण्डरायने अपना चामुण्डरायपुराण श०सं० मामकातिंकनाम्नि बुधहिते शुढे तृतीयादिने । १७ नैनहितैषी भाग १४, अंक ६ पृ० १६५-६६
सिहे पाति जयादिके वसुमती जेंनी कथयं मया, १८ जह चक्कण य चक्की छक्वंड साहियं अविग्घेण निष्पत्तिगमिता सती भवतु वः कल्याण निष्यनये ।। पाच
तह मइचक्कण मया छबंड माइयं सम्मं । ३६७-क०का०२२ चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मन:प्रिया । कुमतीव नो
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरसेवामन्दिरमें वीर-शासन-जयन्ती-उत्सव
इस वर्ष वीरसेवामन्दिर मरसावामें श्रावण कृष्णा सम्पादिका जैन 'महिलाश और बहनगुणमाला प्रतिपदा और द्वितिया ता००८-२६ जुलाई सन् १६४२ नानीता आदिक नाम उल्लेखनीय हैं।। दिन मंगलवार-बुधवारको पिछले वर्षोंकी अपेक्षा और भी प्रथम दिन सुबह ५ बजे बड़े ही आनन्द तथा अधिक ममारोहके साथ वीर-शासनजयन्तीका उत्मव उत्सव के साथ प्रभातफेरी हई, जिसमें स्थानीय और मनाया गया। स्थानीय प्रमुख मजनों के अलावा बाहर- बाहरके बहत प्रतिधित मजनोंने भाग लिया। प्रभातसे-महारनपुर, देहली, मथुग, अम्बाला, मुजफ्फर- फेरीका भण्डा मुग्तार माहब लिए हुए चल रहे थे। नगर, पंचकूला, सलावा, खतौली, तिरुमा, मल्हीपुर, इसके बाद भण्टाभिवादन किया गया । १२ बजे अबदुल्लापुर, जगाधरी, बनारस, नानौता आदि के बाद जलस निकाला गया। जुलूस के बीचस्थानों से-अनक गण्यमान्य श्रीमान और विद्वद्गण बीच में स्थानीय जैन धर्मप्रेमी वैटा पं० रामनाथजी पधारे थे, जिनमें ला० प्रम्नकुमार जैन रईस शर्मा जलम का प्रयोजन और वीर-शामनका महत्व सहारनपुर, ला० अहदास सहारनपुर, ला० उदयगम जनताको बहुत ही अच्छे ढंगसे समझाते जाते थे तथा जिनेश्वरदास, ला० बेनीप्रसाद तथा ला० रुढ़ामलजी श्री माणिक गवैये के भावपूर्ण मनोहर गायन होते थे। सहारनपुर, ५० माणिकचंद्रजी न्यायाचार्य महारनपुर, । बजे जुलूमके वीरसेवामन्दिरमें वापिम श्रा पं. राजेन्द्रकुकारजी जैन न्यायतीथे, प्रधानमन्त्री जाने के बाद मनोनीन सभापति श्री०लाप्रशम्नकुमारजी दि० जैन संघ मथुरा, बा० जैनेद्रकुमार देहली, श्रीमती जैन रईस, सहारनपुर के सभापतित्वमें सभाका कार्य लेखवतीजी अम्बाला, पं० चन्द्रकुमारजी शास्त्री एम० प्रारंभ हआ। यद्यपि लालाजी साहब कुछ अस्वस्थ थे To अम्बाला, पं. कृष्णचन्द्रजी अधिष्ठाता जैनेन्द्र किन अपनी अम्वशताका गरुकुल पंचकूला, बा० कौशलप्रसादजी जैन मैनेजिंग मन्दिरके प्रेम और आग्रहको पाकर आपने जल्मे में डायरेक्टर भारत आयुर्वेदिक कमिकल्म सहारनपुर, पधारनेकी कृपा की थी। सभाका कार्य प्रारम्भ होनके बा० रूपचन्दजी एम० ए० हेडमास्टर जैन हाई स्कूल सर्वप्रथम स्थानीय कन्यापाठशालाकी छात्राओं और सहारनपुर, श्री० कर्मानन्दजी महारनपुर, पं० शील- जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूलाके ७० रवीन्द्रकुमारने हारचन्द्रजी न्यायतीर्थ सहसम्पादक 'विश्वमित्र' देहली, मोनियम पर सुमधुर मंगलगान किये । तदन्तर मेरे पं० शंकरलालजी शर्मा, पं० श्रेयांसकुमार जैन शास्त्री मंगलाचरण किये जानेके बाद सभापतिका चुनाव मंत्री परिपद आफिस देहली, मा० चेतनदासजी किया गया। सभापतिजीने वीरसेवामन्दिरकी महत्ता बी० ए० मल्हीपुर, डा० कैलाशचन्द्रजी सहारनपुर, और उसके कार्यकी उपयोगिता बतलाते हए मार्मिक बा० विजयमूर्ति एम० ए० दर्शनाचार्य बनारस, ला० भाषण दिया, उसके बाद पं० शीलचन्द्र जैन न्यायविमलप्रसादजी सदर बाजार देहली, ला० बाबूरामजी तीर्थ, पं० रामनाथ वैद्य, बा० जयभगवान वकील नैन रईस तिस्सा, हकीम चंद्रसैन जैन तिस्सा, ला० और पं० माणिकचन्द्र न्यायाचर्य के प्रभावक एवं त्रिलोकचन्द जैन, मंत्री जैन मिडिल स्कूल खतौली, महत्वपूर्ण व्याख्यान हुए। व्याख्यानके मध्य में पं० ला० जौहरीमल शर्राफ देहली, ५० बाबूलालजी जैन ओमप्रकाश, पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित', कुमारी तिस्मा, पं० काशीरामजी शर्मा 'प्रफुल्लित' सहारनपुर, लज्जावतीके क्रमशः 'वीर-संदेश' 'वीरकी कहानी' और पं० धर्मदासजी खत ली, ला० हुकमचन्द्रजी सलावा, 'वीर-शासन' पर बहुत ही सुन्दर भावुक कविताएँ ला. तनसुखराय तिस्सा, श्रीमती जयवन्तीदेवी सह- हुई। शामके भोजनका समय हो जानेके कारण
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
૬૭
अन्य विद्वानोंके इस समय भाषण न हो सके अतः सभा रात्रि के लिए स्थगित कर दी गई ।
रात्रिमें श्री० माणिक गवैयेके गायन होने के अनन्तर श्रीयुत बा० जैनेन्द्रकुमारजी की अध्यक्षता मे सभा प्रारम्भ हुई। पं० राजेन्द्रकुमार जैन न्यायतिीर्थका कार्यारंभ पहिले मंगलाचरण हुआ । श्री० कर्मानंद पं० कृष्णचन्द्र, पं० श्रेयांमकुमार, पं० बाबूलाल, श्री० प्रेमलता 'कौमुदी' आदिके व्याख्यान हुए, तथा कविताएँ और गायन भी हुए।
१
दूसरे दिन अधिक पानी बरसने के कारण निय मित सभा तो नहीं हो सकी किन्तु सुबह ६ बजे बजे तक विद्वानोंकी महत्वपूर्ण गोष्ठी हुई, जिसमे बा० जैनेन्द्रकुमार, पं० राजेन्द्रकुमार, बा० जयभगवान, श्री० कर्मानन्द, बा० कौशलप्रसाद, श्री लेखवती, पं० परमानंद शास्त्री आदिने प्रमुख भाग लिया । मै भी इस गोष्ठी में सम्मिलित था । बा० जैनेन्द्रकुमारजीके समाधानकारक उत्तरोंमें बड़ा आनंद आता था। क्या ही अच्छा हो, जल्सोंके समय इसी तरह विद्वानोंकी साहित्य-गोष्ठियाँ हों, और विभिन्न विषयों पर तत्वचर्चा की जाये तो विद्वानोंको ही नहीं, बरन् अन्य लोगों को भी बड़ा लाभ हो और सामयिक समस्याओं पर भी प्रकाश डाला जा सके ।
भूले पथिक ! कहाँ फिरते हो ? मार्ग विपर्यय है यह तेरा अनय-असुर ने किया अँधेरा विषय - व्यालने तुमको घेरा
ज्ञान-प्रकाश जगा जीवनमें; जन्म-मरण-दुख क्यों भरते हो ?
अनेकान्त
करण- कंटकाकीर्ण विजनमें मनोवृत्तियों के भव-वनमें राग-द्वेष के शल्य-सदन में
[ वर्ष ५
मध्याह्न ने श्री लेवनी जैन के नेतृत्व में महिलाओं की सभा हुई जिसमें अनेक महिलाओं के उत्तम व्याख्यान हुए ।
थिर हो बैठ हृदयमें सोचो, अमित कालमे क्या करते हो ?
पथिक !
मायाके इस विकट जाल में, जान बूझ क्यों पग धरते हो ?
श्रागन्तुक सभी सज्जनोंने वीर सेवा मन्दिर के कार्यों की प्रशंसा की । न्यायाचार्य पं० माणिकचंद्र जैनने बहुत खुशी प्रकट की। आपके वे शब्द ये हैं- "खुशी की बात है कि वीर सेवामंदिर में यह पुण्य दिवस पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार कई वर्ष से मना रहे है। बालोपयोगी जैनधर्म की पुस्तके यहांसे प्रकट हों तो बहुत अच्छा होगा; क्योंकि यहां अच्छे विद्वान मौजूद है ।"
अन्त मे मुख्तार साहबने बड़े ही मार्मिक शब्दों द्वारा अपनी लघुता प्रकट की ओर सबका आभार प्रदर्शित किया तथा सभापतिजी और अन्य आगन्तुक सज्जनोंको हार्दिक धन्यवाद दिया ।
स्थानीय सज्जनों में बा० नानकचंद्र, वैद्य रामनाथ, ला० जम्बूप्रसाद, ला० अनन्तप्रसाद, ला० महाराजप्रसाद, ला०] रोढामल, ला० सुखमालचंद, बा० प्रघ्म्नकुमार, बा० तिलोकचंद्र, ला० नेमिचंद्र आदि धन्यवाद के पात्र हैं जिन्होंने इस जल्सेमें हमें किसी न किसी रूप में सहायता पहुंचाई है। इस तरह यह जल्मा बड़े आनंद एवं समारोहके साथ संपन्न हुआ | दरबारीलाल जैन कोठिया
दद्द लाल जैन
रि० हेडमास्टर
भूले पथिक ! कहाँ फिरते हो ?
तेरा है जगसे क्या नाता ? सोच अरे क्या भूला जाता ? काम क्रोध मद क्यों अपनाता ?
कुटिल-काल के चंगुल में फॅस, अन्धकूपमें क्यों गिरते हो ?
अमर ज्ञानकी ज्योति जगाओ; शुद्ध-चिरन्तनचिन्मय ध्याश्रो; कर्म-वृन्दकी चिता जलाओ;
'दद्द' दिव्य ज्ञान-दर्शन से, क्यों नहि भव-सागर तरते हो ?
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
बुद्धिवाद-विषयक कुछ विचार
( संग्रहकर्ता-दौलतराम 'मित्र' )
(१) "बुद्धि हमें जीवनकी अनेक अवस्थाओंमे पार () "इस संसारमें हम बुद्धिक द्वारा थोड़ी ही
ले जाती है सही, परन्तु संकट और प्रलोभन चीजोंको समझ सकते हैं। इसीस ज्ञानियोंफो क समय तो वह हमारा साथ नहीं देती।"
ज्यों-ज्यों ज्ञान प्राप्त होता जाता है, वे नम्र (२) "बुद्धिवाद तभी तक प्रशंसनीय है जब तक कि बनते जाते हैं। क्योंकि ज्ञान तो अपने
वह सर्वज्ञता का दावा न करने लगे। सर्वज्ञता अज्ञानका पहाड़ देखनेमें हैं। जितना ही का दावा करने पर तो वह (बुद्धि) भयङ्कर गहरा वह उतरता है, उतना ही वह देखता है राक्षसी है।"
कि वह तो कुछ भी नहीं जानता । बल्ति. ( ३) "अकला (कोरा) बुद्धि-विकास मनुष्यको विकृत, जितना वह जानता है वह सबका सब उसका धूर्त, और अप्रामाणिक बनाता है।"
अनुमान-कल्पना-मात्र है।" (म० गांधी) (४) "अतिशय तर्क-वादसे बुद्धि तेजस्विनी नहीं (१०) "हम जानते थे इल्मसे कुछ जानेगे।
बनती, तीव्र भले ही होती हो। तर्क-वितर्ककी मगर जाना तो यह जाना कि न जाना कुछ भी।" अतिशयितासे बुद्धिको भ्रष्ट होते किसने न
(उस्ताद 'जौक') देखा होगा ?"
(११) "बुद्धिसे पूछा कि तेरे इन्द्रियाँ नही, परन्तु ( ५ ) “प्रलोभन देने में और महोत्पादन करनेमें मब कुछ ज्ञान है; आँखें नहीं, परन्तु सब कुछ बुद्धि अग्रणी है।"
देखती है; किन्तु वह क्या शै है कि जिसके (६) "जगतमें जो आर्थिक अनीति-असमानता फैल- आगे तू भी सिर झुकाती है ?-वह बोलीती है, उसका बड़ा सबब बुद्धिका दुरुपयोग है। जिस हृदयेश्वर के विरह मे मै नित जलती हूँ,
कृषि इत्यादि कर्मों को छोड़कर बुद्धिके- जब उसके दर्शन होते हैं तो मैं अपने प्राण द्वारा आजीविका प्राप्त करना बुद्धिका दुरुपयोग निछावर कर देती हूँ। उसके होते मै नहीं कहलाता है।"
रह जाती।" (७) "मनुष्य का सारा जीवन त-शास्त्रके आधार
(एक ईगनी कवि) पर नहीं बीतता । अकसर मनुष्य तक-शास्त्रका (१२) "रुवसत मिली जो बोलने की तो जवाँ नहीं। विरोधी बर्ताव करके भी अपने विवेक और जब तक रही जवाँ तो हम बज़बाँ रहे ।।" बल-चीर्यका परिचय देता है।"
(मीर-असर) (८) "बेशक मंमार में ऐसे पदार्थ भी हैं जो बुद्धि- (१३) "इस संसारंग आकस्मिकघटना-उथलपुथल
के खिलाफ नहीं, किन्तु उससे परे है। यह नामकी कोई चीज़ नहीं हैं । जो कुछ होता है, बात नहीं कि हम बुद्धिकी कसौटी पर उनकी नियमानुसार होता है। बात केवल यही है परीक्षा करना नहीं चाहते, लेकिन वे स्वयं ही कि हमारी बुद्धि की पामरता इतनी ज्यादा है बुद्धिकी मर्यादाम नहीं आते है। वे अपने कि हम उस नियमकी गतिस अनभिज्ञ रहते सहजरूपके कारण बुद्धिको थकादेते हैं।" ( म० गांधी)
(म० गांधी)
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रवणबेल्गोल और इन्दौरके कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची
अपनेको जिन शास्त्रभण्डारोंकी अन्धमूचियाँ प्राप्त हई हैं उनमेंसे दो भण्डार श्रवणबेलगोलके हैं-एक भद्रारकजीका और दूसरा पं० दौर्बलि जिनदास शास्त्रीका, जिनमें क्रमशः ५०५ और ४६४ हस्तलिखित ग्रन्थ दर्ज सूची हैं। एक अमरग्रंथालय नामका शास्त्रभण्डार उदामीनाश्रम तुकोगञ्ज, इन्दौरका भी है, जिसकी सूची में १८१ ग्रन्थ दर्ज हैं। इन तीनों ग्रन्थसूचियों परसे आज सिर्फ उन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी एक सूची भण्डारक्रमसे नीचे प्रकाशित की जाती है, जो अनेकान्तमें इससे पहले प्रकाशित हुई सूचियोमें नहीं आए हैं। इसमे पाठकोंको और कितने ही नये ग्रंथोंका सामान्य परिचय प्राप्त होगा और उनको देखने जानने श्रादिकी प्रेरणा मिलेगी।
-सम्पादक
भाषा
पत्र सं. आनुः श्लोक्स
विषय
N
कन्नड
प्रथमानुयोग
m
.
संस्कृत कन्नड
on ०४
प्रथमानुयोग चरणानुयोग
संस्कृत
CW CG MIN ko No 1.
०
कन्नड
० ०
संस्कृत
०
० ०
द्वाविद्य
प्रथमानुयोग
० ०
कन्नड
०
० ०
प्रथमानुयोग
०
वे.नं. ग्रन्थ-नाम । ग्रन्थकार-नाम
(१)भट्टारकजीका भंडार १३. अनन्तनाथपुराण कवि जनार्दन ४८ अशौचविधि
ब्रह्मसूरि अंजनादेवीचरित्रे कवि मायण श्राराधनासार
देवेन्द्रशयनगणी प्रागधनामार
वीरसेन 'श्राराधनासार-टिप्पण सूरमेन ० श्राराधनासार
नागसेन उदितोदयचरित्रे शिखामणि ४५ कर्तृरत्नप्रदीपिका बालचन्द्रदेव २६५ कविगिरकाव्य
अण्डल्य ५४ जिनशतक
दामनन्दी १४४ त्रिभंगीव्याख्या माधवचंद्र दानसार
दामनन्दी दीक्षापटल ५४ धन्यकुमारचरित्र दामनन्दी
नागकुमारचरित्र शिखामणि नागकुमारचरित्र दामनन्दी नाभिराजीयं
नाभिराज नेमिनाथपुराण
माणिक्यदीप ३८६ परूवणा
पभप्रभ ५२ प्रतिक्रमणव्याख्या श्रीनन्दीगुरु ८६ प्रमेयकंठिका
शांतिषेण
० ०
w mw 12. " X X
०
संस्कृत कन्नड संस्कृत
० ०
०
करणानुयोग
० ०
०
० ०
०
चरणानुयोग प्रथमानुयोग
X
०
१६८
०
M
K
प्राकृत
करणानुयोग
संस्कृत
X
:
x
न्याय
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
०७०
अनेकान्त
[वर्ष ५
वे. नं.
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा । पत्र सं. श्रानु-श्लोकसं.
विषय
१४७
। संस्कृत
१४५
०
X
W
m
०
०
०
स्तवन
:
X
x
अध्यात्म
०
तामिल
०
०
न्याय प्रथमानुयोग
०
०
प्रथमानुयोग
नमिचन्द्र
१५००
तामिल
३०००
x मंत्र
। संस्कृत
२
प्रमेयरत्नालंकार पंडिताचार्य चारकीति
प्रवचनपरीक्षा जिनेद्रचन्द्र १३६ प्रवचनपरीक्षा
नेमिचन्द्र ३८७ प्रश्नोत्तरस्तोत्र
धर्मचन्द्रगणि प्राकृतमंजरी
पंडिताधार्य चारुकीर्ति १८ प्राभृतत्रय-टीका मल्लिषेण
पंचपरमेष्टिगलुव्याख्यान x २२ पंचप्रकरण
विद्यानन्दी ११७ पाभ्युदयकाच्यटीका पंडिताचार्य चारुकीर्ति १८४ पुष्पांजलिकाव्य उदयकीर्ति ३८२ बाहुवलिस्वामिचरित्र पंडिताचार्य चारुकीति २१८ महाशांतिहोम ११. मंत्रवाद २२६ माधनन्दिसंहिता माघनन्दी १६ युक्त्यनुशासन
गुणभद्र ? २२७ योगरत्नाकर
| जयकीति १५६ रयणसारव्याख्या १२८ लघीयत्रयवृत्ति
अभयचन्द्र ३५ लीलावती | नेमिचन्द्र .०६ लोकचूणामणि
वैद्यसारसंग्रह (अपूर्ण) नरसिंह शास्त्री ११२ सनकुमार चरित्र | पायण्णवर्णी
सप्तभंगितरंगिणी विमलदास समयपरीक्षा
ब्रह्मदेव सम्यक्त्वकौमुदी विष्णुसेन समाधिशतकटीका जिनदास संगीतसमयसार पार्श्वदेव
शब्दमणिदर्पण केशिराज ६३ शाकटायनपाठ
नागवर्मा श्रृंगारमणिचंद्रिके विजयएण ३११ हरिवंशपुराण
मंगरस
xxx MExnxC06
EXCAM WCM M N ६ M . . .
xxxxx
कन्नड
संस्कृत
न्याय गणित
कन्नड
०
तामिल?
०
०
। संस्कृत
०
प्रथमानुयोग
20
न्याय
०
०
x
०
१५५
३६६
कथा
4
X
x
.
४
xxx
०
រ
०
W
कन्नड संस्कृत
०
व्याकरण
४
१६५
कन्नड
१४५
प्रथमानुयोग
०
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ६-७]
श्रवणबेल्गोल और इन्दौरके कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची
२७१
थे.नं.
ग्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
पत्र सं. श्रानु-श्लोकसं
विषय
३३२०
श्रलंकार
.
M
m
०
.
. ०
m GC1०० m Gk
संस्कृत कन्नड तामिल संस्कृत कन्नड संस्कृत
२४५
व्याकरण प्रथमानुयोग
.
.
काव्य
K
३१
W ० xxx० . ० ० ० ०
० ० x Umw ० ०
० ० 0
xxx
११५
कथा
द्रव्यानुयोग
तामिल संस्कृत कन्नड द्राविड कन्नड़ संस्कृत
x
-----
x
x
x
(२) दोर्बलि जिनदाम भण्डार अलंकारचूडामणि
हेमचन्द्र प्रागमसार २८० आन्ध्रव्याकरण
पवननंदि कदम्बपुगण
चन्द्रमागरवणे २७७ कविराजमार्ग नृपतुगदेव
क्षत्रचूडामणिपंजिका २७८ गणरत्नमहोदधि वर्धमान ११७ छंदोनुशासन
जयकीन १२ । जिनेन्द्रमाल
केशवार्य ३१६ जीवकचिन्तामणि १३८ । ज्ञानार्कोदय
कनकसेन २३३ तत्त्वार्थवृत्ति
दौर्बलिजिनदास ३०६ । तामिलव्याकरण ४२ त्रैलोक्यचूडामणि (अपूर्ण) दानसार
पंकजनन्दि ध्यानपद्धति
। सोमदेवपण्डिन ध्यानलक्षण ८५ नय विस्तार ६६ । नेमिदूतकाव्य विक्रम १६४ । नीलकेशी
। प्रकृतिसमुकीर्तन प्रभाचंद्र १७ प्रमेयकमलमार्तण्ड-टिप्पण भट्टअकलंक १६. पार्श्वनाथ चरित्र सकलकीर्ति ५२ । पैथिलीकल्याणनाटक । कविवर हस्तिमल ३१ । राघव-पाण्डवीयकाव्यटीका पुष्पमेन
। राजवार्तिकटिप्पण .२ । रामचन्द्रचरित्र
पानाथ २६७ । लघुपुराण 'लीलावती
- कवि राजकुजर समयमारप्रकाश प्रभाचंद्र सस्वतीकल्प
अरिष्टनेमि स्थविरकल्प स्मरपराजय
जिनदेव १६२ श्रीपुराण
गुणभद्र
x
कन्नड संस्कृत
x
x
मलियालम
०
x
x ० ० ० X FU००nx
४००
x
०
न्याय प्रथमानुयोग
संस्कृत
०
.
xxx xx
४५
१२१०
.
कन्नड संस्कृत कन्नड
л
गणित अध्यात्म
е
संस्कृत
३००६
०
л
०
संस्कृत
а
११२
१०६०
о
प्रथमानुयोग
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष
वे. नं
प्रन्थ-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा
| पत्र सं० श्रानु-श्लोकसं
विषय
०
.
०
१८४
०
.
०
०
०
"
०
० ०
. ० ०
9
. ० ०
. ० ०
० ०
. ० ०
० ०
x
०
X.229
० ०
० ०
० k ०
०
०
। (३) अमरपन्थालय, तुकोगंज २०१ | अरिष्टाध्यायी
प्राकृत ज्ञानदीपिका हरिचन्द्रराय
हिन्दी ज्योतिषसार-संग्रह रत्नभानु
संस्कृत ढालवाण टेकचन्द
हिन्दी E१ टाढेयामत-बंडन
बक्सीराम २०० तिथि निर्णय
सिंहनन्दी
संस्कृत ग्रेपनक्रिया
गौतमगणी धर्मसार श्रावकाचार शिरोमणि परमात्मप्रकाश टीका दीपचन्द
हिन्दी पिडस्थध्यानचक्र
संस्कृत पद्मनंदिपंचविंशतिकाटीका टेकचन्द पातिकश्रावकचन्द्रिका | मरकत(पन्नालाल गोधा)' हिन्दी , ८८ प्रश्नमाला टेकचन्द
संस्कृत । ६ । बुद्धिप्रकाश अमरचन्द
हिन्दी २ भावदीपिका जोधराज
ढेंढारी । १६२ मरकतविलास कविवर मरकन (पन्नालालगो हिन्दी-पद्य १६८
मूलसंघपट्टावली ५४ वसुनन्दिश्रावकाचास्टीका चंपालाल विद्यानुवाद भ. देवेन्द्रकीर्ति
संस्कृत विवेकविलास ग्रं० दौलतराम
हिन्दी ४७ विवेकविलास
पं० प्रभाचन्द्र व्रतोद्यापनश्रावकाचार अभ्रदेव
संस्कृत । ४२ - शांतिहवन विधि शुद्धोपयोग भागचन्द
हिन्दी पद्य १४ ४६ श्रावक धर्मसंग्रह दरयावसिंह मोधिया श्रावकाचार लक्ष्मीचन्द्र
प्राकृत षट्कर्मश्रावकाचार लक्ष्मीचन्द्र
संस्कृत . ४८ । सम्यक्त्वप्रकाश डालूराम
हिन्दी सम्यकाव प्रकाश ऐलचन्द
प्राकृत १८० सम्यक्त्वलीलाविलास । विनोदीलाल
११ सम्यगदर्शनचन्द्रिका(न टी) मरकत(पं.पन्नालालगोधा) १६२ सर्वज्ञपरीक्षा
हिन्दी सहस्रनामटिप्पण पद्मनन्दी
संस्कृत | स्वरूपानन्द
दीपचन्द स्वानुभवदर्पण (प-प्र.प.)। मैंशी नाथूराम
हिंदी पद्य २८ वीरसेवामन्दिर, सरसावा ज़िला सहारनपुर ।
गद्य ४१६
U
०
११८
१८६७ १२१५
m
-
० ०
०
०
० ... ०
० . ०
० ० E
० .
० CM 6GE MM 10.
M ०
० .
. र 6 8
, गद्य ।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तके सहायक
अनेकान्त को सहायता गत किरणमें प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्तको
द्वितीय और तृतीय मार्गसे ६३॥) की और सहायता प्राप्त अब तक जिन सजनाने अनेकान्तकी ठोस सेवाश्रोके
हुई, जो निम्न प्रकार है और जिसके लिये दातार
महाशय धन्यवादके पात्र हैं:प्रप्ति अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुये, उसे घाटेकी चिन्तासे
२५) गुप्त सहायता, सदर बाजार देहलीके उन्हीं परोपमुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने
कारी महानुभावकी श्रोरसे जो इससे पहले इसी और अधिकाधिक रूपसे समाजसेवाश्री अग्रसर होने के
मदमें ४६॥) रुपयेकी सहायता भेज चुके हैं और लिये सहायताका वचन देकर उसकी सहायकश्रेणीम अपना
जिन्होंने अपना नाम अभी तक पत्रमें प्रकट करनेसे नाम खिखाया है उनके शुभ नाम सहायताकी रकम-महित
मना कर रखा है। (१० व्यक्तियोंको और 'अनेकान्त' इम प्रकार हैं :२२५) बा० छोटेलालजी जैन रईम, कलकत्ता ।
फ्री भेजनेके लिये)। यह महायता प्रापने स्वयं वीर
शासन-जयन्ती के अवसर पर वीर सेवामन्दिरमे पधार १०१) वा अजित प्रसादजी जैन एडवोकेट, लग्बनक।
कर प्रदान की है। १०१) बा. बादुरसिंहजी सिंधी, कलकत्ता ।
११) रा०प० ला० हुलासरायजी जैन रईस सहारनपुर १००) माह शान्तिप्रमादजी जैन, डालमियानगर ।
(स्वयं वीर सेवामन्दिरमें पधार कर)। १००) बा० शातिनाथ सुपुत्र बा० नन्दलालजी, कलकना। १०) बा. महावीर प्रमाद जी जैन यी०ए० पल पल बी०, १००) सेठ जोखीगमजी बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता।
वीर स्वदेशीभंडार, सरधना जि. मेरठ। (चार १००) माह श्रेतासप्रसाद जो जैन, लाहौर ।
व्यकियोंकोएक वर्ष तक अनेकान्त फ्रीभिजवाने के लिये) १००) बा० लालचंद जी जैन, एडवोकेट गेहतक ,
१०) रखबचन्द राजमल जावरा वाले बोटा मराफा, १००) बा० जयभगवानजी वकील श्रादि जैनपंचानन पानीपत
इन्दौर। (५ व्यक्तियोंको अनेकान्त फ्री भिजवानेके १००) ला० ननमुग्वगय नी जैन, न्य देहनी ।
लिये) मार्फत भाई दौलतरामजी 'मित्र' इन्दौर। ५१) राज्यव्या० उलफतरायजी जेन रिसदजीनियर, मरठ। ५) रायसा ला० श्रादीश्वरलालजी देहली, (अपने ५०) ला० दलीपसिंह कागजी और उनकी मापन देहली।
पिता बा. प्यारेलालजी वकील देहली म्वर्गवामके २५) पं० नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी ग्रंथ रन्नाकर, बम्बई ।
समय निकाले गये दान मे)। २५)ला. दामलजी जैन शामिलानेवाले महारनपुर। पं. दरबारीलालजी जैन न्यायाचार्य, सरमावा (एक २५) बा. रघुबरदयालजी जैन एम ए०करोलबाग़ देहली।
___ व्यक्तिको अनेकान्त फ्री भिजवाने के लिये)। २५) मेठ गुलाबचंदजी जैन टोग्या, इन्दौर। ६३॥)
व्यवस्थापक 'अनेकान्त' २५) लाल बाबूगम अकलकपमादजी जैन, निम्मा तिला
वीर मेवामन्दिरको फुटकर महायता मुजफ्फरनगर।
गत किरणम प्रकाशित सहायताके बाद वीर मेवामंदिर २५) मचाई मिघई धर्मदास भगवानदामजी जैन, माधना ।
मरसावाको ५) रुपयेकी सहायता ला० इन्द्रमैन बानमलजी २५) ला० दीपचंदजी जैन रईस, देहरादून।
जैन, दिम्बरमर्चेन्ट, अबदुल्लापुरसे (लायब्रेरी में कोई जैन ग्रंथ २५) ला० प्रयम्नकुमारजी जैन रईस, सहारनपुर ।
मंगानेके लिये) प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महाशय शा सुमनप्रसादजा जन २० अमान, सहारनपुर। धन्यवाटके पात्र हैं। अधिधाता 'वीरमेवामंदिर' श्राशा है अनेकान्त के प्रेमी दूसरे सजन भी थापका
विलम्थका कररण अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको माफल प्रेम कर्मचारियों तथा वीर सेवामन्दिरके भी सभी बनाने में अपना पृग महयोग प्रदान करके यशके भागी विद्वानोंके सम्पादकजी महित. बीमार पडजानेके कारण बनेगे।
अनेकान्तकी इस किरणके प्रकाशनमें पाशानीत बिलम्ब हो व्यवस्थापक 'अनेकान्त' गया है। पाठक इसके लिये हमें क्षमा करेंगे। वीरमेवामन्दिर, सरसावा (महारनपुर)
-प्रकाशक 'अनेकान्त'
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
Registered No. A-731.
EPS तैयार हो गया !
तैयार हो गया !!
शीघ्र ही मँगाइये !!! * खटखंडागम (धवलसिद्धांत) का पाँचवाँ भाग
अन्तर-भाव-अल्पबहुत्वानुगम छपकर तैयार हो गया है !
___ यह भाग भी पूर्वपद्धतिके अनुसार शुद्ध मूलपाठ, मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद तथा अनेक उपयोगी परिशिष्टों के साथ तैयार किया गया है। इसमें एक-एक गुणस्थान व मार्गणास्थानमें क्रमशः जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका विवेचन बड़ा खुलासा और गम्भीर किया गया है। खूब शंका-समाधान किये गये हैं। प्रस्तावनामें कनाड़ी प्रशस्ति, शङ्का-समाधान व विषय परिचयके अतिरिक्त डा. अवधेशनारायणसिंहजी के लेखका अविकल हिन्दी अनुवाद 'धवलाका गणितशास्त्र' भी दिया गया है जो अपूर्व है। बड़ी महत्वपूर्ण रचना है। शीघ्र मँगाइये!
कागज आदिकी दुष्प्राप्ति और अत्यन्त मंहगाई होनेपर भी कागज़ और भी पुष्ट लगाया गया है। कीमत पूर्ववत् कायम रखी गई है।
नोट १-प्रथम भागकी शास्त्राकार प्रतियां तो पहले ही समाप्त हो चुकी हैं, अब पुस्तकाकार भी थोड़ी ही रही हैं। अतएव अब प्रथम भाग पुस्तकाकार फुटकर नहीं मिल सकता । पूरा सैट पांचों भागोंका एक साथ लेने वालेको ही मिल सकेगा। शेष भाग भी शीघ्र दुर्लभ हो जावेंगे।
मूल्य
SC
पताका १, २, ३ व ४ भागप्रत्येक १०)
NEFTATE (१ भाग अप्राप्य )२, ३ व ४ भाग प्रत्येक १) नोट २-इस संस्थाके हाथमें द्रव्य बहुत थड़ा और कार्य बहुत ही विशाल है । अतएव समस्त श्रीमानों, विद्वानों और संस्थाओंको उचित मूल्यपर प्रतियाँ खरीदकर कार्यप्रगतिको सुलभ बनाना चाहिये।
नोट ३--इन्हीं ग्रंथों के साथ कारंजा सीरीजमें प्रकाशित अपभ्रंश भाषाके अद्वितीय ग्रंथ भी मंगाइये। जमहर चरिउ ६), णायकुमार चरिउ ६), सावयधम्म दोहा २), पाहुड दोहा २।।) नोट ४-मूल्य पेशगी भेजने वालोको डाक व रेलवे व्यय न लगेगा।
मन्त्री ,
किंग एडवर्ड कालेज, अमरावती (बरार)
कामुक पानंद साम्बानीयानिवास-jit es-112113Trir..
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
चन्द सिरायको प्रतिवायसार टीका
किरण ६-७]
चामुण्डराय और उनके समकालीन आचार्य पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारके अनुसार आराके जैन १०० अर्थान वि०म०१०३५ में समाप्त किया था। सिद्धान्त-भवनम कनकनन्दि आचार्यका रचा हुआ कनड़ी भाषाके सुप्रसिद्ध कविरन्नने अपना 'त्रिभंगी' नामका एक प्रन्थ है जो १४०० श्लोक प्रमाण 'पुराणतिलक' (अजितपुराण) नामकग्रन्थ श०सं०६१५ है और वे यही कनकनन्दि होगे।
अर्थात् वि०सं० १०५०म समाप्त किया था। उसनअपने त्रिलोकसारकी व्याख्याके कर्ता माधवचन्द्र ऊपर चामुण्डरायकी विशेषकृपा होनेकाउल्लेख किया है। विद्यदेव आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य मालूम होते इससे चामुण्डरायका समय विक्रमकी ग्यारहवी हैं । मूलगन्धमे भी इनकी कई गाथायें सम्मिलित हैं सदीका पूर्वार्ध निश्चित होता है। बार वे मूलमे शामिल की गई हैं। गोम्मटसारमें भी माधवचन्द्र विद्यदेवने तिलोयसार टीकामं इनकी कई गाथाये संग्रह की गई हैं जो संस्कृत टीका लिखा है कि चामुण्डरायको प्रतिबुद्ध करने के लिए की उत्थानिकासे मालूम होती हैं । मंस्कृत गद्यमय नेमिचन्द्र मि० च० ने इस ग्रन्थकी १९ रचना की क्षपणासार भी, जो कि लब्धिसारमें शामिल है, इन्ही और इसी तरह गोम्मटसारकी मन्दप्रबोधिका टीकाके माधवचन्द्रका है।
कर्ता अभयचन्द्र कहते हैं२० कि गंगनरेश राचमल्ल श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी गोम्मटसार के महामात्य चामुण्डरायके प्रश्नके अनुरूप यह ग्रन्थ और त्रिलोकसार नामकी दो रचनायें प्रसिद्ध हैं और बनाया गया । इमसे उक्त दोनों ग्रन्थों के कर्ता ये दोनों ही संग्रह ग्रन्थ हैं। इन दोनोंकी ही अधिकांश नमिचन्द्रसि०६० और उनके सहयोगियों-चीग्नन्दि, गाथाय धवलसिद्धान्त और तिलोयपरणत्तिस मार इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि, माधवचन्द्र-का समय भी रूपमें संग्रह की गई हैं। इनमें से गोम्मटसार तो विक्रमकी ग्यारहवीं सदीका पूर्वाध ठहरता है। चामुण्डरायकी ही प्रेरणासे उन्होंने बनाया है और श्रीवादिराजसूरिने अपना पार्श्वनाथचरित्र काव्य जैसा कि पहले कहा जा चुका है उन्हींके गोम्मटराय श०सं० १६४ (वि० सं०१०८२) में समाप्त किया नामपर इसका नामकरण किया गया है। गोम्मटसार है२१ और उन्होंने उसके प्रारम्भमें पूर्व कवियोकी का परिशिष्टपरू. लब्धिसार भी यतिवृषभके कषाय स्तुति करते हुए वीरनन्दिके चन्द्रप्रभ - काव्यका स्पष्ट प्राभृतपर से इन्हीने संग्रह किया है। आचार्य नेमिचन्द्र उल्लेख किया है २२ । अर्थात वि० सं० १०८२ तक की अन्य किसी रचनाका हमे पता नही है।
उक्त काव्यकी ख्याति हो चुकी थी और इससे भी जिस तरह चक्रवर्ती अपने शासन-चक्रस भारतवर्ष पूर्वोक्त समयकी पुष्टि होती है। के छह खण्डोको स धता है या अपने अधीन करता मैदानदेवश्चतरनयोगचतवदधिपारगश्चामण्डगया तिबाधनव्या है, उसी तरह आचार्य नेमिचन्द्रने अपने बुद्धिरूपमा
न्द्रन अपन बुद्धिरूप जेन अशेषविनय जनप्रतिबोधनार्थ त्रिलोकमारनामानंग्रन्थमारच यन चक्रस पद वंडागमको साधा। इसी लिए वे सिद्धान्त
। इसा लिए व सिद्धान्त- २०सिहनदिमुनीन्द्राभिन्दितगंगवंशललाम श्रीमद्राचमल्ल - २ क्रवर्ती कहलाये।
देवमहीवल्लभमहामात्यपद विराजमान रणरगमलनासहाय समय-विचार
पराक्रमगुगर भूपणसम्मात्यरत्ननिलयादिविविधिगुणग्रामप्रारम्भमे ही कहा जा चुका है कि चामुण्डराय
नामसमामादितकीर्ति श्रीचामुण्डरायभव्यपण्डरीक द्रव्यागंगनरेश राचमल्लके मन्त्री थे और उनका गज्यकाल नुयोगप्रश्नानुरूपम् " वि० सं० २०३१ से १०४१ तक है।
२१ शाकाब्दे नगवाधिग्न्त्रगणने संवत्सरे क्रोधने, __ चामुण्डरायने अपना चामुण्डरायपुराण श०सं० मामकातिंकनाम्नि बुधहिते शुढे तृतीयादिने । १७ नैनहितैषी भाग १४, अंक ६ पृ० १६५-६६
सिहे पाति जयादिके वसुमती जेंनी कथयं मया, १८ जह चक्कण य चक्की छक्वंड साहियं अविग्घेण निष्पत्तिगमिता सती भवतु वः कल्याण निष्यनये ।। पाच
तह मइचक्कण मया छबंड माइयं सम्मं । ३६७-क०का०२२ चन्द्रप्रभाभिसम्बद्धा रसपुष्टा मन:प्रिया । कुमतीव नो
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची
२ समन्तभद्र-भारतीक कुछ नमूने-[सम्पादक- पृष्ठ २७३ ८दीवाली और काव-० काशीगम शमा 'प्रफुल्लित' २६५ २ श्री अकलंक और विद्यानन्दकी गजवानिकादि कृतियार ६ साहित्यपरिचय और समालोचन-[परमानन्द जैन २६६ पं० सुरवलाल मीके गवेषगापूर्ण विचार-[संपादक २७५ १० महाकविस्वयंभु और त्रिभुवनस्वयंभ [पं नाथूगममी२६७ ३ 'मोक्षमार्गस्य नेनारं'-न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार २८१ ११ जैनसंस्कृतिका हृदय--[40 मुखलाल संघवी ३१० ४ जीवन है मंग्राम (कहानी)-श्री भगवत्' जैन २८८ १२ प्रेम-कमांटी-श्री दौलतराम 'मित्र'
३२० ५ वासनाश्रोके प्रति (कविता)--[श्री भगवत्' जन २६२ १३ जैन जातियों के प्रानीननिहामकी समस्या श्रीश्रगरचंद३२१ ६ चलनी चक्की--डा० भैयालाल जैन PH. D. २६३ १४ मेडन के विषयमे शंकासमाधान-दौलतगम मित्र' ३२३ ७ मंगलाचरणापर मेरा अभिमत-पं.समेरचंद दिवाकर६४ १५ मामादकीय (. महेन्द्रकुमारजीका लेव) ३२६
स्वास्थ्य और प्रागार
अबकी बार अतिवृष्टिक फलस्वरूप मलारया ज्वरकी जो वबा फैली इससे अपना मारा हा आश्रम पीड़ित होगया ! बहुत कुछ संयमके साथ रहन और महीनों में एक वक्त भोजन करने के कारण मै समझता था कि इस बवामे बचा रहँगा परन्तु अन्तको मुझे भी उसकी बलि चढ़ना ही पड़ा ? और उसने मुझे कोई डेढ़ महीने तक रगड़ा !! इतनी कमजोरी हो गई कि उठते-बैठते और दो कदम चलते चक्कर आने लगे। अस्तु; अब मेरा स्वास्थ्य उत्तरोत्तर सधर रहा है। आशा है जो भारी कमजोरी पैदा हो गई है वह शनैः शनैः दूर हो जायगी। पाश्रमके दसरे विद्वान भी प्रायः ठीक हैं। मेरी तथा आश्रम के अन्य विद्वानोको अस्वस्थताको मालूम करके जिन सजनी ने चिन्ता व्यक्त की ह और महानुभूति के पत्र भेजे हैं उन मचका मै हृदयसे आभारी है, और उन्हें यह सूचित करते हए मुझे प्रमन्नता होती है कि मै चंदगेजमे अपना कुत्र काम धीरे धीरे करने लगा है । इधर ग्वाली बैठ मुझन नहीं और उधर मेरे पाममें कोई हाथ बटानेवाला भी नहीं....इसीसे बीमारोकी हालत में भी मुझे अनेकान्तादिका कितना ही काम मजबूरोको करना ही पड़ा है श्रीर उमम मेरे बाम्यक सुधरनेम विलम्ब हुआ है, और हो रहा है।
जुगलकिशोर मुग्रनार
अधियाना 'वीर मेयामन्दिर'
वार्षिक ३) नीन रुपये
अनेकान्तका मूल्य।-
एक प्रतिका ।) छह माना
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
* ॐ अहम् *
स्ततत्त्व-सचातक
श्व तत्त्व-प्रकाशक
% नीतिविरोधष्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
___ वर्ष ५ किरा ८६
।
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) मग्माया ज़िला महारनपुर भादपद अाश्विन वीरनिवाण सं० २४६८. विक्रम मं0 TERE
मतम्बर-अक्लयर
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
श्री सुविधि-जिन-स्तोत्र एकान्तदष्टि-प्रनिधितचं प्रमाणमिद्ध नदत-बभावं त्वया प्रगीत मुविधबधान नैतत्ममालाढ पदं त्वदन्यः ।।
'(शोभन विधि-विधानके प्रतिपादन : ( अन्वर्थ-संज्ञाके धारक) ह मुविधि (पदन्त ) जिन । आपने अपने ज्ञाननेजमे उस प्रमाण-सिद्ध तत्वका प्रणयन किया है जो सत-श्रमन श्रादिम्प विवक्षिताडाववक्षिन म्वभावका लिये हुए हैं और एकान्तदृष्टिका प्रनिषेधक है-अनेकान्ना-मक होने में किसीकी भी इस एकान्तमान्यनाको स्वीकार नहीं करता कि वस्तु तन्व सर्वथा (म्बरूप और प रूप दानाप ही) मन (विधि) श्रादि रूप है। यह ममालंद पद-सम्यक अनुभून नश्वका प्रतिपादक 'नदनम्वभाव जैसा पद - श्राप भिन्न मत रखने वाले दूसरे मत प्रयत का द्वारा प्रणीत नही हुन्मा है। नदेव च म्यान्न तदेव च स्यात्तथा प्रतोतेस्तव तत्कथंचित् । नात्यन्तमन्यन्त्रमनन्यना च विधेनि पंधम्य च शन्यदो पाता।
(हे मुविधि जिन ) आपका वह तत्व कथचित नद्रप (माप है और कचित नहप नहीं (असद प) है; क्योकि (मरूप-परम्पकी अपेक्षा उसके द्वारा) वैसी ही मत अमट पकी प्रतीत होती है। म्वरूपादि चतुष्ट रूप विधि श्रीर पररादि-चतुष्टयरूप निषेधके परम्पग्मे अश्यन्न (सर्वथा ) भिन्न ना नथा अभिन्नता नहीं है, क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता मानने पर शून्य दौर श्राता है--अविनाभाव सम्बन्धके कारण विधि श्रीर निषेध दोनोंम किमीका भी तब अस्तित्व बन नही सकता संकर दोषके भी श्रा उपस्थित होनये पदार्थाकी कोई व्यवस्था नहीं रहती, और इसलिये बम्न तत्व लोपका प्रसंग श्रा जाता है।'
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७४
अनेकान्त
[ वष ५
नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपतिमिद्धेः। न तद्विरुद्धं बहिरंतरग-निमित्त-नमित्तिक-योगतस्ते।३।
यह वही है, इस प्रकारकी प्रतीति होनेसे वस्तुतत्त्व नित्य है और यह वह नहीं-अन्य है, इस प्रकारकी प्रतीनिकी मिद्विमे वस्तुतत्त्व नित्य नहीं--अनित्य है। वस्तुतत्वका नित्य और अनिय दोनो रुप होना तुम्हारे मतमे विरुद्ध नहीं है: क्योंकि वह बहिरंग निमित्त-सहकारी कारण, अन्तरंग निमित्त--उपादान कारण, और नै मत्तिक्के--निमित्तोस उत्पन्न होने वाले कार्यके सम्बन्धको लिये हुए है---द्रव्यस्वरूप अन्तरंग कारणके सम्बन्धकी अपेक्षा निग्य है और क्षेत्रादिरूप बाह्य कारण तथा परिणाम-पर्यायरूप कार्यकी अपेक्षा श्रनिग्य है।' अनेकमेक च पदस्य वाच्यं वृक्षा इति प्रत्ययवत्प्रकृत्या । आकांक्षिपः स्यादिनि वै निपातोगुणणाऽनपेक्षे नियमेऽपवादः।४।
‘पदका वाच्य-शब्दका अभिधेय-प्रकृति-स्वभाव हो - एक और अनेक दोनों रूप है--समान्य और विशेषमै अथवा द्रव्य और पर्यायमे अभेद-विवक्षा होने पर एकरूप है और भेद-विवक्षाके होने पर अनेकरूप है'वृक्षा.' इस पदज्ञानकी तरह । अर्थात जिस प्रकार 'वृक्षाः' यह एक व्याकरण-सिद्ध बहुवचनान्त पद है, इससे जहाँ वृत्ताव मामान्यका बोध होता है वहाँ वृक्षविशेषांका भी बोध होता है। वृक्षन वृक्षपना अथवा वृक्ष जातिकी अपेक्षा इसका वाच्य एक है और वृक्ष विशेषकी--श्राम, श्रानार, शीशम, जामुन श्रादिकी अपेक्षा इसका वाच्य अनेक है; क्योंकि कोई भी वृक्ष हो उसमे सामान्य और विशेषके दोनों धर्म रहते हैं, उनमेसे जिस समय जिस धर्मकी विवक्षा होती है उस समय वह धर्म मुख्य होता है और दूसरा गौण, परन्तु जो धर्म गौण होता है वह उस विवक्षाके समय कहीं चला नही जाता- उसी वृक्षवस्तुम रहता है, कालान्तरमे वह भी मुख्य हो सकता है। जैसे 'श्राम्राः' कहने पर जब 'अाम्रत्व' धर्म मुग्व्य होर विवक्षित होता है तब 'वृक्षव' नामका सामान्यधर्म उससे अलग नहीं हो जाता--यह भी उसी में रहता है। और जब 'अाम्रा' पद मे पाम्रय सामान्यम्पमे विक्षित होता है तब अाम्रके विशेष देशी, कलमी, लगडा, माल्दा, फज़ली आदि धर्म गौण (अविक्षन) होते हैं और उमी अाम्र पदमे रहते हैं। यही हालत द्रव्य और पर्यायकी विवक्षा
विवक्षाकी होती है। एक ही वृक्ष द्रव्य-सामान्यकी अपेक्षा एकरूप है तो वही अंकुगदि पर्यायांकी अपेक्षा अनेकरूप है । दोनोमे जिम समय जो विवक्षित होता है वह मुख्य और दूसरा गौण कहलाता है। इस तरह प्रत्येक पदका वाच्य एक श्रीर अनेक दोनो ही होते हैं।
(यदि पद-शब्दका वाय एक श्रीर अनेक दोनों हां तो 'अस्ति' कहने पर 'नास्तन्व' के भी बांधका प्रसग पानेमे दसरे पद 'नास्ति' का प्रयोग निरर्थक ठहरेगा, अथवा स्वरूपकी तरह पररूपमे भी अस्तित्व कहना होगा। इसी तरह 'नास्ति' कहने पर अस्तित्व के भी बोधका प्रसंग पाएगा. दूसरे पदका प्रयोग निरर्थक ठहरेगा अथवा पररूपकी तरह स्वरूपसे भी नास्तित्व कहना होगा। इस प्रकारकी शंकाका समाधान यह है कि--) अनेकान्नामक बस्नुके अस्तित्वादि किमी एक धर्मका प्रतिपादन क ने पर उस समय गाणभृत नास्तिवादि दूसरे धर्मके प्रतिपादनमे जिपकी आकांक्षा रहती है ऐसे पाकाती-पापेक्षवादी अथवा स्याद्वादीका 'स्यान यह निपात---'स्यान' शब्दका साथम प्रयोग---गौणकी अपेक्षा न रखने वाले नियममे--पर्वधा एकान्त मनमें—निश्चितरूपमे बाधक होता है--उम सर्वथाके नियमको चरितार्थ नही होने देता जो स्वरुपकी तरह परम्पके भी अस्तित्वका और पररूपकी तरह स्वरूपके भी नास्तिवका विधान करता है (और इस लिये यहाँ उक प्रकारकी शकाको कोई स्थान नहीं रहता)। गुणप्रधानार्थमिदं हि वाक्य जिनम्य ते त्वद्विपतामपध्यम। ततोऽभिवन्द्यंजगदीश्वराणाममाऽपि साधौम्तव पादपद्मम
'हे सुविधि जिन ' श्रापका यह 'स्यात' पदरूपसे प्रतीयमान नाक्य मुख्य और गौया के श्राशयको लिये हुए है--- विविक्षित और अविक्षित टोनी ही धर्म इसके वाच्य हैं-अभिधेय हैं । प्रापये--आपके अनेकान्त मतमे--द्वेष रखने वाले सर्वथा एकान्तवादियों के लिये यह वाक्य अपथ्ण रूपसे अनिष्ठ है-उनकी मैद्धान्तिक प्रकृति के विरुद्ध है, क्यों कि दोनों धर्मोंका एकान्त स्वीकार करनग्ये उनके यहां विरोध प्राता है। कि आपने म मातिशय तत्वका प्रणयन किया है इस लिये हे साधो। आपके चरण कमल जगदीश्वरी-इन्द-चक्रवात के द्वारा वन्दनीय है, और मेरे भी द्वारा वन्दनीय है।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्री अकलंक और विद्यानन्दकी राजवार्तिकादि कृतियोंपर
पं० सुखलालजीके गवेषणा-पूर्ण विचार
-+-+---
-
--
-
-
-
-
पं. मुम्बलालजी मघवी श्वताम्बर जैनममाजके गण्यमान्य चोटीक विद्वानाम हैं। श्राप बड़े ही अध्ययन-शील व्यक्ति है-तुलनात्मक अध्ययन प्रापका बढ़ा चदा है। श्राग्ने जेन-जेनंतर दर्शनीका ग्बब तुलनात्मक अभ्याम किया है। बसयो वर्षमै श्रीअकलक श्रोर विद्यानन्द प्राचार्योक तत्त्वार्थ-राजवानिक और तत्त्वार्थ-श्लोकवातिकादि ग्रन्थ श्रापक अध्ययनवा खाम विषय बने हुए हैं । अापने इन प्राचार्योक ग्रन्थोकी दुसरे दिगम्बर माहित्य, श्वनाम्बर साहित्य और अजेंन दर्शनमादित्य के साथ जो तुलना की है तो उमपरसे इन ग्रन्यांका पहुन कुछ महत्व श्रापपर प्रस्फुटित हुया है और उमने आपके हृदयपर अमिट हाप जमाई है । इसीमे श्राप इन प्रन्यो नथा ग्रन्यकार के मक्तकण्ठम प्रशमक हैं और बगबर इनकी गुण-गरिमाको विद्वानों पर ख्यापित करते रहते है अनेक बार इनके विषयम आपने अपने गपगापूर्ण विनार बिना किमी मंकोचके प्रकट किये हैं । अापके ये विचार अनेक ग्रन्थों-प्रन्यप्रस्तावनायो, प्राक्कथनो अोर टप्पगियो अादिके विभिन्न पृष्ठ में बिग्बर पड़े हैं। पदत समय मैं अक्मर उनपर मार्क कर दिया करता था। बहुत दिनाम मेग इच्छा थी कि उनका एकत्र मंग्रह करके उन्हें 'अनेकान्न' के पाठकोके भामने रमवा जाय, जमसे नई मालूमातके माय माथ श्राधकाश पाटकोक जानकी वृद्धि हो मके, परन्तु अनवकाशादिके यश अभी तक मरी वह इच्छा पूरी नही हो रही थी। अाज उम इच्छाकी श्राशिक पृतिक रूपमे पंडितजीके ऐसे विचागका एक मंग्रह उनके १ तत्त्वार्थ-मृत्र मविवेचनाकी 'पारचय' नामक प्रस्तावना, २ प्रमाणमीमामाकी 'प्रस्तावना', ३ प्रमाण मीमामाके भाषा टिप्पणिअोर ४ अकलंक ग्रन्यत्रयके 'प्राक्क यन' परसे उदधृत करके अनेकान्त-पाठकोंके मामने ग्बग्या जाना है। श्राशा हे टमपा में पाठकाका कितनी ही नई बात जाननेको मिलेगी, नई नई बाने खोजनेकी और विद्वानांकी प्रवृत्ति होगी, उनके हृदयपर रन प्रन्याय। महत्व मावशप रूपसं अंकित होगा और दिगम्बर श्रीमानीको दम बातकी प्रेरणा मिलगी कि वे अपने इन अद्वितीय ग्रन्थरत्नाकं उत्तमानम मम्बरण प्रकाशित कराकर इनके प्रति अपने कर्तव्यका पालन कर, । मम विद्वत्ममाजकी डाष्टका अपना यार अाकर्षित करने में समर्थ हो मकं । गजवानिक लोकवार्तिक प्रादि ग्रन्थोके जी मस्करण अभी तक प्रकाशित हुए हैं व बहुत ही थडक्लाम, श्रीहान, श्राप शन्य, त्रुटियाम परिपूर्ण और अशुद्धियों में भर हुए है । इमाम जन-जनंतर विद्वानांकी प्रवृत्ति उनके पठन-पाठनकी ओर बहुत ही कम होनी है। उनम मंस्करणोका प्रकाशित करना जहाँ भांक और माहित्य स्वाका एक अंग है वहा वह लोकोपकारका भी बहुत बड़ा माधन है, अत: इमकी और ममा जके श्रीमानाका शीघ्र ही • यान जाना चाहिये ।
-सम्पादक ] . रिचयम
अभ्यामी हैं और इन्होंने नत्वार्थ पर 'श्लोकवार्तिक' “य (भट्ट अकलङ्क) जैनन्याय-प्रस्थापक विशिष्ट
नामकी पाबद्ध विम्तन व्याख्या लिवकर कुमारिल
..म प्रसिद्ध मीमांसक प्रन्थकागेकी म्पर्द्धा की है और गण्यमान्य विज्ञानोमेस एक हैं। इनकी कितनी ही
जैननर्शन पर किये गये मीमांसकों के प्रचण्ड आक्रमण कृतियाँ' उपलब्ध हैं, जो हरएक जैनन्यायके अभ्यासी
का मबल उत्तर दिया है।" ५० पृ०६० के लिये महत्वकी हैं।" प० पृ०५६
"मर्वार्थमिद्धिमें जो दार्शनिक अभ्यास नजर "य (विद्यानन्द ) भारतीय दर्शनों के विशिष्ट
आता है उसकी अपेक्षा गजवानिकका दार्शनिक १ नत्त्वार्थगजवानिक, अपशनी, लधीयत्रय, न्यायविनिश्चय अभ्याम बहुत ही ऊँचा चढ़ जाता है। राजवार्तिकका मिद्धिविानश्चय, प्रमागर्मग्रह यादि । फुटनोटकी एक ध्रुवमंत्र यह है कि उसे जिस बातपर जो कुछ मचनानुमार)
कहना होता है उस वह 'अनेकान्त' का प्राश्रय लेकर
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७६
अनेकान्त
[ व५
ही कहता है । 'अनेकान्त' राजवार्तिककी प्रत्येक चर्चा अर्थका पृथक्करण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकमें है, को चाबी है । अपने समय पर्यन्त भिन्न भिन्न संप्रदायों वह सिद्धसेनीय वृत्तिमे नही ।" ५० पृ० ६५ के विद्वानोंने 'अनेकान्त' पर जो आप किये र २ प्रमाणमीमांसाकी प्रस्तावनासेअनेकान्तवादकी जो त्रुटियाँ बतलाई उन सबका निर- “उसी परिस्थितिमेसे अकलङ्क जैसे धुरंधर व्यसन करने और 'अनेकान्त' का वास्तविक स्वरूप वस्थापकका जन्म हश्रा । संभवतः अकलङ्कने ही बतलानक लिये ही अफलंकने प्रतिष्ठित तत्वार्थसूत्रके पहिले-पहल मोचा कि जैन परंपराके ज्ञान, ज्ञेय,
आधार पर सिद्धलक्षणवाली सर्वार्थसिद्धिका आश्रय ज्ञाता आदि सभी पदार्थों का निरूपण तार्किक शैलीसे लेकर अपने राजवातिककी भव्य इमारत खड़ी की है।" संस्कृत भाषामें वैसा ही शास्त्रबद्ध करना आवश्यक है
प० पृ०६१ जसा ब्राह्मण और बौद्ध परंपराक साहित्यम बहुत " तत्वार्थ श्लोकवार्तिकमें जितना ओर जैमा पहिलमे होगया हे और जिसका अध्ययन अनिवार्य सबल मीमांसक दर्शनका खंडन है वैसा तत्वार्थसूत्रकी रूपस जैन तार्किक करने लगे हैं। इस विचारसे अकदूसरी किसी भी टीकामें नहीं । तत्वार्थ श्लोकवार्तिकमें लकने द्विमुखी प्रवृत्ति शुरू की । एक ओर तो बाद्ध सर्वार्थसिद्धि तथा राजवातिको चर्चित हुए कोई भी और ब्राह्मण परंपराक महत्वपूर्ण ग्रंथोंका सूक्ष्म परिमुख्य विपय छूटे नही; उलटा बहुतसे स्थानोपर तो शीलन और दसरी और समस्त जैन मन्तव्योंका सर्वार्थसिद्धि और राजवातिककी अपेक्षा श्लोकवातिक तार्किक विश्लेपण । केवल परमनोंका निराम करने ही की चर्चा बढ़ जाती है। कितनी ही बातोंकी चर्चा तो से अकलङ्कका उद्देश्य सिद्ध हो नहीं सकता था। अतश्लोकवार्तिकमें बिलकुल अपूर्व ही है। राजवातिकमें एव दर्शनान्तरीय शास्त्रों के सूक्ष्म परिशीलनमे से और दार्शनिक अभ्यासकी विशालता है तो श्लोकवातिकमें जैनमतके तलस्पर्शी ज्ञानसे उन्होंने छोटे-छोटे पर इस विशालताके साथ सूक्ष्मताका तत्व भरा हुआ समस्त जैनतर्क-प्रमारपशाम्के आधारस्तम्भभृत अनेक दृष्टिगोचर होता है। समग्र जैनवाङमयमें जो थोड़ी न्याय-प्रमाण-विषयक प्रकरण रचे जो दिङ्नाग और बहुत कृतियां महत्व रखती हैं उनमेंकी दो कृतियाँ खासकर धर्मकार्ति जैसे बौद्ध तार्किको के तथा उद्योतकर 'राजवार्तिक' और 'श्लोकवार्तिक' भी हैं । तत्वार्थसूत्र कुमारिल आदि जैस ब्राह्मगा तार्किको के प्रभावसे भरे पर उपलब्ध वेताम्बरीय साहित्यमें से एक भी ग्रन्थ हए होने पर भी जैन मन्तव्योंकी बिलकुल नये मिरे राजवार्तिक या श्लोकवातिककी तुलना कर सके, ऐसा और म्वतन्त्र-भावस स्थापना करते हैं । अकलङ्कने दिखलाई नहीं देता।” ५० पृ०६२
न्याय-प्रमाणशास्त्रका जैन परंपरामें जो प्राथमिक "प्रस्तुत दोनों वार्तिक जैनदर्शनका प्रामाणिक निर्माण किया, जो परिभाषाये की, जो लक्षण व प्रीअभ्यास करनेके पर्याप्त साधन हैं; परन्तु इनमेंसे
क्षण किया, जो प्रमाण प्रमेय आदिका वर्गीकरण किया 'राजवार्तिक' गद्य, सरल और विस्तृत होनेसे तत्वार्थ और परार्थानुमान तथा वादकथा आदि परमत-सिद्ध के संपूर्ण टीकाग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूरी करता वस्तुओके सम्बन्धमे जो जैन प्रणाली स्थिर की, मंक्षेप है। ये दो वार्तिक यदि नही होते तो दसवीं शताब्दी मे अब तकमे जैनपरम्पगमे नही पर अन्य-परंपराओं तकके दिगम्बरीय साहित्यमें जो विशिष्टता आई है में प्रसिद्ध ऐसे तर्कशास्त्र अनेक पदार्थोको जैन-दृष्टि
और इसकी जो प्रतिष्ठा बंधी है वह निश्चयसे अधूरी से जैनपरंपरामे जो मात्मीभाव किया तथा आगम-सिद्ध ही रहती।" प० पृ०६३
अपने मतव्योंको जिस तरह दार्शनिकों के सामने रखने “सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकके साथ सिद्धसे- योग्य बनाया, वह सब उनके छोटे-छोटे ग्रन्थों में नीय वृत्तिकी तुलना करनेसे इतनातो स्पष्ट जान पड़ता विद्यमान उनके असाधारण व्यक्तित्वका तथा न्यायहै कि जो भाषाका प्रासाद, रचनाको विशदता और प्रमाण स्थापना युगका द्योतक है।" प्र० पृ० १४
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
राजवार्तिकादि कृतियोंपर प० सुखलालजीके गवेषणा-पूर्ण विचार
२७७
ल कन कहीं 'अनधि
गतार्थक और अनि
टे छोटे अनेक प्रकरण
__ "माणिक्यनन्दी अकलङ्कके ही विचार-दोहनमे प्रमाणमीमांसाके टिप्पणोंसेसे सूत्रोका निर्माण करते हैं। विद्यानन्द अकलंकक “जैनन्यायके प्रस्थापक अकलङ्कने कहीं 'अनधिही सक्तोपर या तो भाष्य रचते हैं या पद्यवातिक तार्थक और अविवादिदोनो विशेषणोंका प्रवेश बनाते हैं या दमरे छोटे छोटे अनेक प्रकरण बनाते किया और कहीं 'स्वपरावभासक' विशेषणका भी है। अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र और वादिराज जैम तो समर्थन किया है।" 120 पृ०६, ७ अकलंकके संक्षिप्त सूक्तोपर इतने बड़े और विशद
"क्षमाश्रमण ( जिनभद्र) जाने यह सब कुछ नथा जटिल भाष्य व विवरण कर डालते हैं कि जिससे किया फिर भी उन्होंने कही यह नहीं बतलाया नक तकम विकासत दशनान्तराय विचार-परपगा कि जैन प्रक्रिया परोक्षप्रमाणके इतने भेद मानती है का एक तरहसे जन वाङ्मयमें समावेश हो जाता है। दूसरी तरफ श्वेताम्वर परम्गक आचार्य भी उसी
। सा इस तरह अभी तक जनपरंपरामें आगमिक ज्ञानअकलंक स्थापित प्रणालीकी ओर झुकते हैं । हरिभद्र
__ चचाके साथ ही साथ, पर कुछ प्रधानतासे प्रमाणजैसे आगमिक और तार्किक ग्रन्थकारने नो मिद्धमेन
मोदी और ममन्तभद्र आदि के मार्गका प्रधानतय, अनेकान्त
प्रनिवादियोकी ओरम यह प्रभचार बार आता ही था जयपताका आदिम अनुसरण किया, पर धीरे-धीरे
कि जनप्रक्रिया अगर अनुमान, आगम भा.द दर्शनान्याय-प्रमाणविषयक म्वतन्त्र ग्रन्थ-प्रणयनकी प्रवृत्ति
न्तर प्रसिद्ध प्रमाणोको परोक्षप्रमाणरूप स्वीकार करती भी श्वेताम्बर-परंपरामें शुरू हुई । श्वेताम्बराचार्य
है तो उसे यह म्पष्ट करना आवश्यक है कि वह परोक्ष मिद्धर्मनने न्यायावतार ग्चा था। पर वह निरा प्रारंभ
प्रमाणके कितने भेद मानना है, और हरएक भेदका मात्र था । अक्लंकने जैनन्यायकी सारी व्यवस्था
सुनिश्चित लक्षण क्या है ? जहां तक देखा है उसके स्थिर कर दी।"
आधारसे निःसंदेह कहा जा सकता है कि उक्त प्रश्र
प्र० पृ० १५ का जवाब मबम पहिले भट्टारक अकलङ्कने दिया है "धर्मकीर्तिके प्रमागवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय और वह बहुत ही स्पष्ट तथा सुनिश्चित है। अकलङ्कने आदिमे बल पाकर तीक्ष्ण दृष्टि अकलंकने जैनन्याय अपनी लघीयत्रयीम बनलाया कि परोक्ष प्रमाण के का विशेष निश्चय-व्यवस्थापन तथा जेंन प्रमाणोका अनुमान, प्रत्यभिज्ञान, स्मरगा, नक. और आगम ऐसे मंग्रह अर्थान विभाग, लक्षण आदि द्वारा निरूपण पाँच भेद हैं। उन्होंने इन भेदोंका लक्षण भी स्पष्ट अनक तरहसे कर दिया था । अकलंकने सर्वज्ञत्व, बाँध दिया। हम देखते हैं कि अकलङ्कक इम स्पष्टीजीवत्व श्रादिकी सिद्धिक द्वारा धर्मकीति जैसे प्राज्ञ करणने जनप्रक्रियाम आगमिक श्रार तार्किक जानबौद्धोंको जवाब भी दिया था। सूक्ष्मप्रज्ञ विद्यानन्द चर्चा में बराबर खड़ी होनेवाली सब समस्याको ने प्राप्त की, पत्रकी और प्रमाणोकी परीक्षा द्वाग धर्म- मुलझा दिया । इमका फल यह हुआ कि अकलङ्कक कीर्तिकी तथा शान्तरक्षितकी विविध परीक्षाओका जैन उत्तरवर्ती दिगम्बर - श्वेताम्बर मभी नाकिक उसी परंपरामें सूत्रपात कर ही दिया था। दिगम्बर परंपरामे अलङ्गदर्शिन राम्ते पर ही चलने लगे और उन्ही के अकलंकके संक्षिा पर गहन सूक्तोंपर उनके अनुगामी शब्दोंको एक या दमरे कपस लेकर यत्र तत्र विकसित अनन्तवीर्य, विद्यानन्द, प्रभाचन्द और वादिराज कर अपने अपने छोटे र बृहत्काय ग्रन्थोको लिम्बने जैसे विशारद तथा पुरुषार्थी तार्किकाने विस्तृत व गहन लग गये। अकत कने पक्षप्रमाणके पाँच भेद क ते भाष्य-विवरण आदि रचकर जैन न्यायशास्त्रको अति- समय यह ध्यान अवश्य रक्खा है कि जिससे उमाममृद्ध बनाने का सिलसिला भी जारी कर ही दिया स्वाति पूर्वाचार्योंका ममन्वय विरुद्ध न होजाय और था।" प्र. पृ० १६
आगम तथा नियुक्ति आनिमे मतिज्ञान के पर्यायरुपसे
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
२७८
अनेकान्त
[वर्ष५
- ०८
प्रमिद्ध स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध इन शब्दों में शब्दशः स्थान दिया।" टि० पृ०६६ की सार्थकता भी सिद्ध होजाय । यहा कारण है कि "अकलंकोपा प्रत्यभिज्ञाकी यह व्यवस्था जो अकल का यह परोक्ष प्रमाण के पंच प्रकार तथा उनके स्वरूपमें जयन्तका मानसज्ञानकी कल्पनाक समान लक्षण-कथनका प्रयत्न अद्यापि सकल जैन तार्किक है वह सभी जैन तार्किकों के द्वारा निर्विवादरूपसे मान मान्य रहा। आ० हेमचन्द भी अपनी मीमांसामें नाम परीक्षक उन्हीं भेदोंको मानकर निरूपण करते हैं।
"जब जैन परम्परामें तार्किक पद्धतिसे प्रमाणके टि० प्र०२२, २३ १२ भेद और लक्षण आदिकी व्यवस्था होने लगी तब am
ना होने की " यदापि त्यक्षक लक्षणमें विशद या सुट सम्भवतः सर्वप्रथम अकाँकने ही तर्कका स्वरूप, शब्दका प्रयाग करनेवाल जैनतार्किको में सबसे पहिले विषय पये
विषय, उपयोग आदि स्थिर किया, जिसका अनुसरण अफल ही जान पड़ते हैं तथापि इस शब्दका मूल पिछले मभी जैन तार्किकों ने किया है।......चिगयात बाद्धतग्रन्थामे है क्यो.क अकलङ्कके पूर्ववर्ती धर्म
आये परम्पराके अति परिचित उह या तक शब्दको काति आदि बाद्धताकिकोन इसका प्रयोग प्रत्यक्ष स्वरूप
लेकर ही अकलंकने परोक्षणप्रमाणके एक भेदरूपसे निरूपणमें किया है।" टि० पृ० २६, २७
नर्क प्रमाण स्थिर किया।" टि० पृ०७७ ___" यद्यपि प्रा. हमचन्द्र वादी देवसूरिक समका
"अतएव जैन परम्परागके सामने निग्रह स्थानका लीन और उनके प्रसिद्ध ग्रंथ स्याद्वादरत्नाकर के द्रष्टा हूँ
म्वतन्त्रभावमे निरूपण करनका ही प्रश्न रहा जिसको एवं जिनभद्र, हरिभद्र आर देवसूर तोनाक अनुगामी
भट्टारक अकलंकने सुलझाया। उन्होने निग्रहस्थानका भी है, तथापि वे धारणाक लक्षणसूत्रम तथा उसंक
लक्षण स्वतन्त्र भावमे ही रचा और उसकी व्यवस्था व्याख्यानम दिगम्बराचार्य अकलंक ार विद्यानन्द
बांधी, जिसका अक्षरशः अनुसरण उत्तरवर्ती सभी श्रादिका शब्दशः अनुसरण करते है। " टि०पृ०४८ दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किकोंने किया है।......
"प्रमाणलक्षण-मबंधी परमतोका प्रधानरूपस खंडन जहाँ तक देखने में आया है उसमे मालूम होता है कि करनेवाला जैनताकिकाम सर्वप्रथम अकलङ्कहा है। धर्मकीर्तिके लक्षगका मंक्षेपमें म्बतन्त्र ग्यण्डन करने उत्तरवनी दिगम्बर-श्वेताम्बर सभा ताकिकाने अकलङ्क- वाले मर्वप्रथम अकलंक हैं और विस्तृत खण्डन करने अवलाम्बत खण्डन मागेका अपनाकर अपन-अपन वाले विद्यानन्द और तदुपजीवी प्रभाचन्द्र हैं।" प्रमाणविषयक लक्षण ग्रंथोम बाद्ध, वैदिक-सम्मत
टि. पृ० १२५ लक्षणोका विस्तारक साथ खण्डन किया ह ।'
"इस तरह धर्मकीर्तिने जय-पराजयकी ब्राह्मणटि.पृ०४८-४६
सम्मत व्यवस्था में संशोधन किया। पर उन्होंने जो "अनेकान्तवादके उपर प्रतिवादियोके द्वारा दिय
असाधनाङ्गवचन तथा अदोपोदावन द्वागजय-पराजय गए दोषोंका उद्धार करने वाल जैनाचार्योमे व्यवस्थित
की व्यवस्था की इसमें इतनी जटिलता और दुरूहता श्रार विश्लपणपूर्वक उन दापोंके निवारण करने
आ गई कि अनेक प्रसङ्गों में यह सरलतासे निर्णय वाले सबस प्रथम अकलंक भार हरिभद्र हो जान
करना ही असम्भव हो गया कि अमाधनाङ्गवचन तथा पड़ते है।" टि० पृ० ६४
अदोपोद्भावन है या नहीं। इस जटिलता और दुरूहता "जसे अनेक विषयोंम श्रा० हेम न्द्र अकलंक में बचन एवं सरलतासे निर्णय करने की दृष्टिसे का त्रास अनुसरण करते हैं वैसे ही इस चर्चामें भी भट्रारक श्रालंकने धर्मकीर्ति कृत जय-पराजय व्यवस्था उन्होंने मध्यवर्ती फलोंको सापेक्षभावस प्रमाण और का भीमंशोधन किया। अकलंकके संशोधनमें धर्मकीर्तिफल कहने वाली अकलंक स्थापित जैन शैलीको सूत्र सम्मत सत्यका तत्त्व तो निहित है ही, पर जान पड़ता
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-१]
राजवार्तिकादि कृतियोंपर पं० सुखलालजीके गवेषणापूर्णविचार
२७६
है अकलंककी दृष्टिमें इसके अलावा अहिंसा-समभाव "सिद्धसेनने अपरोक्षत्वको प्रत्यक्षमात्रका साधाका जैनप्रकृतिसुलभ भाव भी निहित है । अतएव रण लक्षण बनाया । पर उसमें एक त्रुटि है जो किसी अकलंकने कह दिया कि किसी एक पक्षकी सिद्धि ही भी सूक्ष्मप्रज्ञ तार्किकसे छिपी रह नहीं सकती। वह उसका जय है और दूसरे पक्षकी असिद्धि ही उसका यह है कि अगर प्रत्यक्षका लक्षण अपरोक्ष है तो पराजय है। अकलंकका यह सुनिश्चितमत है कि किसी
परोक्षका लक्षण क्या होगा। अगर यह कहा जाय एक पक्षकी सिद्धि दूसरे पक्षकी असिद्धिके बिना होही कि परोक्षका लक्षण प्रत्यक्षभिन्नत्व या अप्रत्यक्ष नहीं सकती। तव को सामान तो इसमे स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय है। जान पड़ता है हुआ कि जहां एक की सिद्धि होगी वहाँ दूसरेकी
इस दोषको दूर करनेका तथा अपरोक्षत्वके स्वरूपको असिद्धि अनिवार है, और जिस पक्षकी मिद्धि हो
स्फुट करनेका प्रयत्न सर्वप्रथम भट्टारक अकलंकने उसी की जय । अतएक सिद्धि और अमिद्धि अथवा
किया। उन्होने बहुत ही प्राञ्जल शब्दों में कह दिया कि दूसरे शब्दोंमें जय और पराजय समव्याप्तिक हैं।
जो ज्ञान विशद हे वही प्रत्यक्ष है। उन्होंने इस वाक्य कोई पराजय जयशून्य नहीं और कोई जय पराजय
में साधारण लक्षण तो गर्भित किया ही पर साथी शन्य नहीं। धर्मकीर्तिकृत व्यवस्थाम अकलककी सूक्ष्म
उक्त अन्योन्याश्रय दोषको भी टाल दिया । क्यों कि अहिंसा प्रकृतिने एक त्रुटि देखली जान पड़ती है।
अब अपराक्ष पद ही निकल गया जो परोक्षत्वके वह यह कि पूर्वोक्त उदाहरणमें कर्तव्य पालन न करने
निर्वचनकी अपेक्षा रखता था। अकलंककी लाक्षमात्रसे अगर पतिवादीको पराजित समझा जाय तो
णिकताने केवल इतना ही नहीं किया पर साथ ही दुष्ट साधन प्रयोगमें सम्यक् माधक प्रयाग रूप
वैशद्यका स्फोट भी कर दिया। वह स्फाट भी ऐसा कर्तव्यका पालन न होनेसे वादा पराजित क्यों न
कि जिमस सांव्यवहारिक पारमार्थिक दोनों प्रत्यक्षका ममझा जाय ? अगर धर्मकीर्ति वादीको पराजित नही
संग्रह हो। उन्होने कहा कि अनुमानादिकी अपेक्षा मानते तो फिर उन्हें प्रतिवादीको भी पराजित नहीं
विशेष प्रतिभास करना ही वैशय है। अकलंकका यह मानना चाहिए । इस तरह अकलकने पूर्वोक्त उदाहरण
माधारण लक्षण का प्रयत्न और स्फोट ही उत्तरवर्ती में केवल प्रतिवादीको पराजित मान लेने की व्यवस्था
मभी श्वेताम्बर-दिगम्बर ताकिकोंके प्रत्यक्ष लक्षण में को एकदेशीय एवं अन्यायमूलक मानकर पूणसमभाव
प्रतिबिम्बत हुआ। किसीने विशदके स्थानमें 'स्पष्ट' माम
पद रग्बा तो किमीने उसी पदको ही रखा। करना ही जय है। आर ऐमी सिद्धि में दूसरे पक्षका
आचार्य हेमचन्द्र जेसे अनेक स्थलोंमें अकलंकानिराकरण अवश्य गर्भित है। अकलंकोपज्ञ यह जय- नुगामी हैं, वैसे हा प्रत्यक्षके लक्षणके बारेमें भी पराजय व्यवस्थाका मागे अन्तिम है, क्योंकि इसके
अकलंकके ही अनुगामी हैं। यहां तक कि उन्होंने तो ऊपर किसी बोद्धाचार्यने या ब्राह्मण विद्वानोने आपत्ति
विशद पद और वैशटाका विवरण अकलंकके ममान नहीं उठाई। जैन परंपरामें जय-पराजय व्यवस्थाका
ही रग्या । अकलंककी परिभाषा इतनी बढ़मूल होगई यह एक ही मार्ग प्रचलित है, जिसका स्वीकार सभी कि अन्तिम तार्किक उपाध्याय यशोविजयजीने भी दिगम्बर-श्वेताम्बर तार्किकोंन किया है और जिसके प्रत्यक्षके लक्षण में उमीका आश्रय किया।"टि०पृ०१३५ समर्थनमे विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, वादिराज आदि ने
"भट्टारक अकलंकने उम मिद्धमेनीय लक्षण बड़े विस्तारसे पूर्वकालीन और ममकालीन मतान्तरो प्र
प्रणयन मात्र में ही मंतोप न माना। पर माथ ही बौद्ध का निरास भी किया है। प्राचार्य हेमचन्त भी इस
नार्किकोंकी तरह वैदिक परम्परामम्मत अनुमानके विपयमें भट्टारक अकलंकके ही अनुगामी हैं।"
भेद-प्रभेदोंके ग्वण्डनका मूत्रपात भी म्पष्ट किया, जिसे
विद्यानन्द आदि उत्तरवर्ती दिगम्बरीय तार्किकोंने टि.पृ० १२, १२३ विस्तृत व पवित किया।" टि० पृ० १४०
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८०
अनेकान्त
.
[वर्ष ५
४ अकलंक ग्रन्थत्रयके 'प्राक्कथन' से- जैन निरूपणका तार्किक शैलीमें मेल बिटाने का काम
जैसा तैसा न था, जो कि अप लंकने किया। यही "भट्रारक अकलंकने अपनी विशाल और अनुपम
सबब है कि अकलंककी मौलिक कृतियाँ बहुत ही कति जतिक सस्कृतमें लिखी, जो विशेषावश्यक संक्षिप्त हैं किर भी वे इतनी अर्थज्ञान तथा सुविचाभाष्यका तरह तर्कशैलीकी होकर भी आगमिक ही रित हैं कि भागेके जैनन्यायका वे आधार बन गई है।" है। परन्तु जिनभद्रकी कृतियोंमें ऐमी कोई स्वतंत्र
प्रा० पृ०६-१० संस्कृत कृति नहीं है जैसी अकलंककी है। अकलंकने ----- आगमिक ग्रंथ राजवार्तिक लिख कर दिगम्बर साहित्य
"यह अकलंकदेव, स्वामी ममन्मभद्रके उज्ञ ।सद्धान्ती में एक प्रकारसे विशेषावश्यकके स्थानकी पूर्ति तो की,
के उपस्थाक, समर्थक, विवेचक और प्रमारक है। जन
मूलभूत तात्त्विक विचारोंका और तर्क-मनादांका स्वामी पर उनका ध्यान शीघ्र ही ऐसे प्रश्न पर गया जो जैन
समन्तभद्रने उद्बोधन या श्राावर्भाव किया उन्हीका भट्ट परम्पगके मामने जोरोंसे उपस्थित था। बौद्ध और
अकलंकदेवने अनेक नरहम अबृदण, विश्लेषण, मंचयन, ब्राह्मण प्रेमाणशास्त्रोंकी कक्षामें खड़ा रह सके ऐमा
ममुपस्थापन, मंकलन और प्रमारण आदि किया। न्याय-प्रमाणकी समग्रव्यवस्था वाला कोई जैन प्रमाणग्रंथ आवश्यक था। अकलंक जिनभद्रकी तरह पांच
हम तरह मह अकलकदेवने जैम समन्तभद्रोपज्ञ नय आदि आगमिक वस्तुओंकी केवल तार्किक चर्चा
श्रार्हतमतप्रकर्षक पदार्थोका परिस्फोट और विकाम किया करके ही चुप न रहे, उन्होंने उमी पंचज्ञान, मप्तनय
वैसे ही पुगतन-मिद्धान्त-प्रतिपादिन जैन पदार्थोंका भी, नई आदि प्रागमिक वस्तुका न्याय और प्रमाणशास्त्र
प्रमाण-परिभाषा और तर्क पद्धतिम, अद्घिाटन ओर रूपसे ऐसा विभाजन किया, ऐमा लक्षण प्रणयन किया,
'वचारोबोधन किया । जा कार्य श्वेताम्बर सम्प्रदायमे जिससे जैनन्याय और प्रमाण ग्रंथोंके स्वतत्र प्रकरणों
जिनभद्रगणी, मल्लवादी, गन्धहस्ती और हरिभद्रसूरिने की मांग पूरी हुई। उनके सामने वस्तु तो आगमिक
किया वही कार्य दिगम्बर संप्रदायम अनेक अंशाम अकेले थी ही, दृष्टि और तर्कका मार्ग भी सिद्धसेन तथा
भट्ट अकलंकदेवने किया ओर वह भी कही अधिक सुन्दर ममन्तभद्र के द्वारा परिष्कृत हवा ही था, फिर भी और उतम रूपसे किया। अतण्व दम दृष्टिम भट्ट अकलंकप्रवल दर्शनान्तरोंके विकसित विचारोंके साथ प्राचीन दव जैन-बाङ्मयाकाशके यथार्थ है। एक बहुत बड़े तेजस्वी
नक्षत्र थे । यद्यपि मंकुचित विचार के दृष्टिकोणम देखने पर *यह ग्रन्थ जिम सिंघी जैन ग्रन्थमालाम प्रकाशित हुआ है व सप्रदायम दिगम्बर दिखाई देते है और उम मप्रदायक उसके संचालक और प्रधान सम्पादक है श्री जिनविजय जीवनके व प्रबल बलवईक और प्राणपोषक प्राचार्य प्रतीत मुाना आप भी श्वेताम्बर जैनममाजके गण्यमान्य कोटिके होन है नयापि उदार दृष्टिस उनके जावनकाका सिहावविद्वानोम है और बड़े ही अध्ययनशील तथा विचारक है। लोकन करने पर, वे समग्र अातदर्शनकं प्रम्बर प्रातष्ठानक
आपने इस ग्रन्थके 'प्रास्ताविक' में जा विचार इस संबंधर्म और प्रचण्ड प्रचारक विदिन दोन है। अतएव ममुच्चय व्यक्त किये हैं वे भी पाटकोके जानने याग्य है, और वे जेनसंघकं लिये वे परम पूजनीय भार परमश्रय मानने इस प्रकार है :
योग्य युगप्रधान पुरुष है।"
पृ०१, २
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
"मोक्षमार्गस्य नेतारम्”
[ न्यायाचार्य महेन्द्रकुमार काशी ]
d. 101
DO
.0001.000000
" ने जून ४२ के 'भास्कर' में इमी शीर्षकमे एक अपने विचार इसी लेखका उपसंहार करते समय आक्षेप- लेख लिया था। इसके पहिले न्यायकुमुदचद्र परिहारके रूप में प्रकट करूंगा। मेरी न तो वैसी भूमिका
द्वि. भाग तथा प्रमेयकमलमानण्डकी प्रस्ता- या वृत्ति ही है और न ऐमा सहयोग ही मिला है, न
वनामें समन्तभद्र और प्रभाचन्द्र' उपशीर्षक इतना समय ही है जिसमे एसे लम्बोंका 'यथातथा' 288880 से 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इम मगलश्लोकके रूपमे उत्तर दूं।
विषयमें अपना मत प्रक्ट कर चुका ह । हमारे सशोधकके नाते मै मर्वप्रथम पं० रामप्रसादजी शास्त्री इस अंशका प्रतिवाद श्रीन पं. गमप्रमादजी शास्त्री बबई द्वाग (जैन गजट, जुलाई) सुझाए गये उस मंशोधनको ने 'समन्तभद्रका समय' शीर्षक देकर 'जैनगजट' के है और माभार स्वीकार करता है जिसमें उन्होंने यह बताया है १६ जुलाई मन् ४२ के अंकोंमे तथा 'जैन बोधक' वर्ष ५८ कि-'तत्वार्थलाव नानिक पृ. १७४ में आये हुये सूत्र के २० अंकम किया है। श्री पं० जिनदामजी शास्त्री और सूत्रधार प.का वाय रानवार्तिक और अकलक न शोलापुरने भी 'जैन बोधक' वर्ष ५८ के २२, २३ अकोमे होकर तरवार्थसूत्र और उमास्वाते हैं। इसी तरह पं. इमका प्रतिवाद किया है। वयोवृद्ध साहित्यमेवी प. जिनदायकी शास्त्रीका (जैन बोधक वर्ष ५८ अंक २२ में) जुगलकिशोरजी मुगनारके महयोगमे 'अनेकान्त' के जुलाई यह लिखना भी एक हद तक प्रा मालम होता है कि४२ के अंकामे त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक देकर 'आचार्य 'वद्यानन्नने • यार्थशाकवार्तिक (पृ. २६) में एक लेख अपने अनुरूप भापामे चि० भाई दरबारीलालजी 'तत प्रमाणान्विनमोक्षमार्गप्रणायकः सर्वविदस्तदोष' न्यायाचार्यने भी लिखा है। मुझे भाईय इस बातका हुआ इत्यादि लिख कर 'मांक्षमार्गस्य नेनार भोकम घणित कि इस लेखके अन्तम मुग्तार मा० के महयोगके लिये तो प्राप्तका विवेचन किया है।' आभार प्रदर्शित किया गया है पर जिन पं० रामप्रसादजी
पर मेरी तो यह अनुपपत्ति थी, जो अब भी कायम और पं. जिनदासजी शाम्री लेम्बोकी मामग्रीसे लंग्य
है कि जिस प्रकार विद्यानन्द मान्यापद्धतिमे उत्थानवाश्य मप्राण हुआ है और जिनकी सामग्रीके पिष्टपेषण एव
जोड कर तत्वार्थमत्रके प्रत्येक शब्दका व्यग्यान करते हैं पल्लवनमे इस लेखका कलेवर बड़ा है उनका नामोल्लेख
उसके एक भी शब्दको नही होने उसी तरह वे इस भी नहीं किया गया है। अतः मै तो प. रामप्रसादजी
श्लोकमे वर्णित प्राप्तको तत्वार्थमूत्रका श्राद्यवका मान कर नथा जिनदासजी शास्त्रीके लेखोंको मुख्यतः सामने रखकर
जब प्रथम मत्रगी पीठिकाम उम्की मिद्धि करने हैं तब उसके उत्तग्णीय अश पर अपने विचार प्रकट कर रहा हूँ।
उन्हें यदि इस मगलमय शाक्को स्पष्टन मूत्रकार कृत इन लेखोंका उत्तर हो जाने पर अनेकान्त' के लेम्वमे कोई
मानना इष्ट था तो वे इसका भी उधानवाक्य श्रादि देकर म्बाम महाका अनुरिष्ट उत्तरणीय भाग नही रहजाता
व्याख्या भी अवश्य ही करते । अस्तु । है। हां, कुछ प्रमाद, अनभिज्ञता जैसे मुख्तारी शैलीके माधु शब्दोंकी दक्षिणा और कुछ छोटे मोटे आक्षेप अवश्य
कुछ अनुपपत्तियाँ बच जाते हैं। जिनमें अपने पुराने सम्बन्धके नाते दक्षिणा थाचार्य विद्यानन्दक 'सत्रकार प्राह.' आदि अन्य नां मुझे स्वीकार कर ही लेनी चाहिये उसके बदले में उल्लेम्वाको मुख्याक मानकर यह मान भी लिया जाय तो मै शुभ भावना हो सकता है। शेषके विषयमे में कि विद्यानन्द इस श्लोकक ग्रकार कृत मानते नां भी
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
वर्प५
अभी ३ प्रभ अवशिष्ट रह जाते हैं जो इस मान्यनामें उन्हें श्लोकवातिकमें स्पष्टतः उसका तत्त्वार्थसूत्रके अंगके अनुपपत्ति उत्पन्न करते हैं
रूपमे सोन्थान व्याख्यान करना था। (1) प्राप्त परीक्षाके 'प्रोग्यानारम्भकाले' वाक्यमें आये यह कहना कि 'विद्यानन्द अष्टमहम्री और प्राप्त. हुए प्रोत्थान पदका वास्तविक अर्थ क्या हो सकता है? परीक्षामे इस श्लोकका व्याख्यान कर आप हैं अनः श्लोकनभी शब्दोके अर्थोका प्रचलन मात्र बोके आधारसे ही वार्तिकमे इसका व्याख्यान नही किया' संगत नहीं मालूम नहीं होता है। अनेक शब्दों के प्रचलनमै व्यवहार कोषकी होता। क्योंकि जो वाक्य या श्लोक जिस शास्त्रका अग अपेक्षा नही भी करता । दर्शनशास्त्रीशी साधारण पद्धतिम होता है उसका वही विस्तार या संक्षेपसे व्याख्यान करना उत्थान या उल्थानिका शब्द का प्रयोग किसी श्लोक या पंकिकी आवश्यक है। यदि व्याख्यान नहीं किया जाता है तो भूमिकाके अर्थ में होता है। इस श्लोककी उथानिका क्या है ?, उसकी सूचना व्याख्याकार वहां पर अवश्य दे देता है। इस पंक्तिका उत्थानवाक्य क्या है आदि प्रयोग दार्शनिकों जैसे धवलाटीकाम महाबन्धनामक छठवं खंडका व्याख्यान की जबानपर चढ़े रहते हैं। इस लिए प्रोत्थान' का नही किया पर वीरसन स्वामीने उसकी सूचना यथावसर व्यवहारसिद्ध अर्थ भूमिका ही होता है । फिर याद अवश्य दे दी है ( देखो षट् ग्वण्डागम् प्रथम पुस्तक, विद्यानन्दको 'तत्वार्थसूत्रका प्रारम्भ ही इष्ट था तो श्राम्भ प्रस्तावना पृ० ६७) दूसरी बात यह है कि विद्यानन्द अष्टपद देने में ही लाघव था। प्रोत्थान और प्रारम्भ दोनों महम्री और प्रातपरीक्षाके पहिले तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक पदोंका प्रयोग अपना खाम अर्थ रखता है। जिसा अनु- बना चुके हैं क्योंकि उन्होंने अष्टसहस्री (पृ. ४७) नथा सरण करने पर उनका पूर्वाचाय परम्परा समन्वय किया श्रातपरीक्षा (पृ. ६४ ) में श्लोकवातिकका निर्देश किया जा सकता है।
है। अत: बादमें रचे गए अष्टसहमी और प्राप्तपरीक्षाके (२) प्राप्तपरीक्षा ( पृ०६४)म लिख गये "तमर्थ आधार पर श्लोकवातिकके प्रारम्भमे उक्त मंगल श्लोककी सूत्रकारैः उमास्वामिप्रभृतिभिः" ये शब्द क्या विद्यानन्दकी
व्याख्या न करनेकी बातको संगत बताना ठीक प्रतीत नही हाष्टम उमास्वामिकी तरह प्रभृति शब्दसे मूचित होने वाले
होता। तिस पर भी, अष्टसहस्री उक. मंगल श्लोकको अन्य प्राचार्योके ग्रन्थीको तत्वार्थसूत्र' माननेकी पोर स्पष्ट लच्य करके लिखी गई है यह भी अनिश्चित है। सकेत नहीं कर रहे हैं ? और क्या ये ही शब्द उमास्वामि विद्यानन्दकी मान्यतामें पूर्वाचायपरम्परा के माथ ही साथ प्रभृनि शब्दस बाधित होने वाले तत्त्वार्थ
के ममर्थन का अभाव विवेचक पूज्यपादादि श्राचार्योको स्पष्टत: 'मूत्रकार नहीं इम सब अनुपपत्तियोके रहने हुये भी उनके मित्रकह रहे हैं ? बिना किसी प्राचीन प्रतियोक श्राधारके 'तवार्थ कारा प्राहुः' आदि अन्य उल्लेखोंको मुख्यार्थक मानकर यह मूत्रकारादिभिः पाठकी कल्पना विदग्राह्य नहीं हो सकती। भी मान लिया जाय कि वे इस श्लोकको मयकारकृत इसीमे तो विवाद है कि विद्यानन्द उमास्वामिके साथ अन्य मानते थे तो यह महत्वका प्रश्न विचारणीय है कि उन्हें पूर्वाचार्योको मूत्रकार समझते थे या नहीं ? प्रभृतिशब्दमे अपने पूर्वाचार्योकी भी ऐसी कोई परम्परा प्राप्त थी क्या ? बोधित होने वाले अन्य चायोको नवाथसूत्रकार लिख विद्यानन्द के पूर्ववर्ती जिन दि. प्राचार्योके तत्वार्थसत्रके कर विद्यानन्दने स्वयं सूत्र शब्दको गौणार्थक मूचित किया ऊपर लिग्ब गये टीकाग्रंथ उपलब्ध हैं उन पूज्यपाद और है। उनकी दृष्टिमे सूत्रका अर्थ शास्त्र मालूम होता है। अकलक आचार्यका इस विषयमे क्या अभिप्राय था ?
(३) विद्यानन्द के मामने यह शौक था यह निर्विवाद श्रा. पुज्यपाद सर्वार्थ गिद्विमे तत्वार्थपत्रके किसी भी है और उन्होंने प्रथम सूत्रकी पीठिकामे उन श्लोकमे अंशको बिना व्याख्या और उत्थानक नहीं छोड़ते वे उसके वणित प्राप्तके साथ उसका पाद्यवक्त व सम्बन्ध जोडा एक एक शब्दका व्याख्यान करते हैं । यह उनकी व्यास्यायह भी ठीक है। पर प्रश्न तो यह है कि वे उसे स्पष्टतः पद्धति है । वे सर्वार्थमिद्विम 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' मगल - नत्वार्थमृत्रका अंग भी मानते थे क्या ? यदि मानते थे तो श्लोककी न तो उन्थानिका ही लिखते हैं न उसकी व्याख्या
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-
मोक्षमार्गस्य नेतारम्
२८३
ही करते हैं। यदि सरल होनेके कारण उन्हें इसकी व्याख्या है। जिसमें प्रश्नका उत्तर देने के लिये वक्ता ऐसा मंगलकरना इष्ट नहीं था तो 'सुगमम्' लिख कर छोड देते। श्लोक बना रहा है जिसमें उसके प्रश्नका कोई उत्तर नहीं सर्वार्थसिद्धिकी लिखित प्रतियों में यह श्लोक बिना किसी है। उत्तर तो प्रथम सूत्र में है । सर्वार्थसिद्धि मे ऐसा विचित्र उत्थानवाक्यके ही पाया जाता हैं। और न किसी भी प्रश्नोत्तरक्रम नहीं है क्योंकि पूज्यपाद प्राचार्य उक्त श्लोक प्रतिमें इसकी कोई व्याख्या ही मिली है बल्कि मूल को सूत्रकारका नहीं मानते थे, बल्कि उन्होंने इसे स्वयं ही नन्वार्थसूत्रकी कुछ प्रतियामे यह श्लोक नही भी है। उदा- रचा था अन: उन्हें तग्वार्थसूत्रकी उत्थानिकामे इस श्लोकको हरणार्थ-जिस प्रतिके श्राधारसे निर्णयमागरका प्रथम- श्रुतसागरसूरिकी तरह विचित्र ढंगसे शामिल करनेकी गुच्छक छपा है वह ।
श्रावश्यकता ही नहीं हुई। यही कारण है कि पूज्यपादने प्राचार्य पूज्यपाद इस मंगलश्लोको रचकर तत्वार्थमूत्र इस श्लोककी न तो उग्थानिका ही लिखी और न व्याख्या के प्रथम सूत्रकी उत्थानिकामे तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्तिका ही जब कि वे तत्त्वार्थ सूत्रके प्रत्येक अंशकी सोग्थान व्याख्या निमित्त बनाते हुये 'कश्चिद् भव्यः' इत्यादि लिम्वते हैं। करते हैं। इसका भाव यह है--एक भव्य निर्गन्थाचार्यसे पूछता है इमो तरह अकलंकदेव राजवार्तिकमें तत्वार्थसूत्रके कि भगवन् श्रा'माका हित क्या है ? वे उत्सर देते हैं कि प्रत्येक अंशका या तो वार्तिक बना कर या उनका सीधा मोक्ष । भव्य फिर पूछता है कि-मोक्ष क्या है और उसकी ही विशद व्याख्यान करते हैं। यदि वे भी उन मंगल प्राप्तिका क्या उपाय है ? भावार्य इमी प्रश्न के उत्तरमं श्लोकको तत्वार्थसूत्रका अंग समझते तो इसकी व्याच्या 'सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: इस प्रथम सूत्रको करते । तथा इसकी उत्थानिका बांधकर इस श्लोकको तत्वाकहते हैं। इस तरह पूज्यपाद श्राचार्य द्वारा बनाई गई सूत्रके अंग होनेकी सूचना देते। अकलंकदेव जिस सर्वार्थभूमिकाके अनुसार यदि तन्वार्थमूत्रकी भव्य के प्रश्न के अनु मिद्धिको सामने रख कर अपना तत्वार्थवार्तिक बनाते हैं उस मार उत्पत्ति हुई है तो सूत्रकारको मंगलाचरण करनेका सर्वार्थ सिद्धिके प्रारम्भमे यह मंगलश्लोक विद्यमान है. इस कोई अवसर या प्रमग ही नहीं था। यदि पूज्यपादकी दृष्टि लिये यदि उनका पूज्यपाद आचर्यसे इस विषयमें मतभेद में यह मंगलश्लोक सूत्रकार कृत होता तो वे श्रनसागरसूरि था अर्थात वे उसे स्वयं पूज्यपाटका नही मान कर सूत्रकार की तरह प्रथमसूत्रकी "प्रथ' श्रीमदुमाम्वामिभट्टारक का मानते थे तो वे प्रथम सूत्रकी उत्थानि कासे पहिले इस निर्गन्धाचार्ययो:तिनिकटीभवपरमानर्वाणन श्रापन्नभव्यंन श्रीकका सूत्रकारकत होना सचिन कर ही देने । और यदि
पायकनाम्ना भव्यवर पुण्डरीकेण सम्पृष्टः-भगवन, किमा- उन्हें यह श्लोक बहुत सरल होनेके कारण व्याख्याके लायक •मने हिनमिति १ भगवानपि नाप्रश्नवशात पम्यग्दर्शनजान नही ऊँचा था तो इसे वे जैसाका तैमा बिना ब्यारण्याके ही चरित्रीपत्नक्षितमन्मार्गमम्प्राप्य' मोक्षो हिन• इति प्रतिपादः ग्रन्थमे शामिल तो करते ही। उन्होंने तत्त्वार्थसत्रका कहीं यिनुकाम इष्टदेवताविशेष नमस्कगतीति ।" ऐसी उत्था- भी अंगरछेद नहीं किया है किन्तु उन्हें जहाँ भी पत्राम निका बाधते । इस उथानिकामे श्रुतमागरमूरिने 'मांक्षमार्ग- पाठभेद उपलब्ध हुये उनका निर्देश एवं समालोचन तक म्य नेतारं श्लोकको सूत्रकार कृत मानने की अपनी पूर्व किया है। जो अकलंक इस तरह तत्वार्थमत्रकी अखण्डना धारणाके कारण सर्वार्थसिद्धिकी उत्थानकामं विचित्र परि- की सुरक्षा कर रहे हैं वे पहिले ही पहिले मंगलश्लोकके ही वर्तन करके नई उग्थानिका बनाली है। और इसमें उन्होंने विषयमें यों ही चुप्पी साध कर उसे अमंगल कर यह म्प लिख दिया है कि भव्यने प्रश्न किया कि, भगवन अकलंकदेवकी सदमेसिकाके अपरिज्ञानका ही फल है। पर श्रान्माका हित क्या है ? भगवान उसका उत्तर देने के लिये
जय प्रकलंकदेव स्वयं इस विषय में अमन्दिग्ध थे और वे इष्ट देवता नमस्कार करनेके निमित्त 'मोक्षमार्गस्य मगल
निश्चित रूपसे इसे पूज्यपादका मानने थे तब उन्हें प्रारम्भम भोक बनाते हैं।' यह एक अपने ढंगका अभूतपूर्व प्रश्नोनर
इमे तत्वार्थपत्रकं अगक स्पर्म व्याग्या करनेकी या निर्देश देग्यो मायामाटे गानापुर सस्करणकी भूमिका प० २, करने की आवश्यकता ही नही थी।
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८४
अनेकान्त
[वर्ष५
प्राचार्य विद्यानन्दकी मान्यताका आधार- शब्दका अर्थ अष्टमहस्रीम ‘मंगलं पुरस्मरमस्येति मङ्गल इस तरह हम देखते हैं कि जब प्रा. विद्यानन्दको
पुरस्परः शास्त्रावतारकालः तत्र रचितः स्तवः मङ्गलपुर
स्परस्तवः .. ." यह लिखते हैं । अर्थात् मगल होता है इस श्लोकको सूत्रकारकत माननेके लिये अपने पूर्वाचार्योकी
पहिले जिसके वह मंगल पुरस्मर, इस अन्यपदार्थप्रधान कोई परम्परा प्राप्त नही थी तब उनकी इस धारणाका क्या प्राधार है इस बातकी स्वतत्र भावसे जांच की जाय ।
बहुव्रीहिमें वे कालनामक अन्य पदार्थकी कल्पना करते हैं
और ऐसे कालको शास्त्रावतार काल कहते हैं। तथा शास्त्र इस मंगलश्लोकको सूत्रकारकत लिम्बने बाले सर्वप्रथम श्रा०
शब्दमे निःश्रेयस शास्त्र लेकर यह मान लेने हैं कि अकलक विद्यानन्द है। उनकी इस परम्पराये अप्राप्त धारणाकं पक्षम
देव इस प्रशतीमे मङ्गल पुरस्परस्तव' शब्दये निःश्रेयस यदि उत्तरकालीन श्रुतमागरमूरि प्रादिका इमे सूत्रकारकृत
शाम्म्रके श्रादिम क्यिा हुश्रा 'स्तव' ले रहे हैं और उसी मानकर व्याख्या करना अपना मत देता है तो विपक्षमं उनके
स्तव अर्थात 'मोक्षमार्गम्यनेतारम्' स्तवमं वर्णित प्राप्त की पूर्ववर्ती पूज्यपाद अकलंकदेवका इस तत्त्वार्थसूत्रका अग न
परीक्षा इस श्राप्तमीमांसा ग्रन्थमे की जा रही है और इसी मानकर व्यग्व्या न करना पर इसकी उत्थानिका तक नही
मान्यतावश वे श्राग्नपरीक्षा और असहस्रीके अन्त में बाँधना एवं अकलकदेवके द्वारा इसका निरुत्थान निर्देश तक
"स्वामिमीमासितं तत" और 'इतीयमाप्तमीमांसा विहिता' न करना अपना कई गुना बल रखता है। और इस पक्षम
"शास्त्रारम्भेऽभिष्टुतस्य मोक्षमार्गःणेतृनया कर्मभृदभेतृतया हम उन समस्त तत्वार्थटीकाकार श्वेताम्बराचार्योको नही
विश्वतस्वाना ज्ञानृतया च भगवरपर्वजस्यैव अन्ययोगव्यवच्छेदेन भुला सकते जिनने एक मतसे इस महत्वके असाम्प्रदायिक
व्यवस्थानपरा परीक्षयं विहिता" यह लिखकर मूचित करने श्लोकको तत्वार्थमूत्रका अग नहीं माना है। मालूम होता
हैं कि समन्तभद्र स्वामीने प्राप्तमीमांसा 'मोक्षमार्गस्य है कि श्रा० विद्यानन्दको जब अपनी धारणाके पक्ष में पूर्वा- नेतारम् महल श्लोकपर बनाई है। चार्याकी परम्परा नहीं मिली और उनका व्याख्यान करना परन्त जब हम 'देवागमेत्यादिमंगल पुररसरंग पति प्रबल बाधक ऊँचा इसी लिये उन्होंने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के ऊपर लिखे गये अष्टशनीक मंगलश्लोकोंके अतिमभागक में इसे तत्त्वार्थसूत्रका अग मान कर व्याख्या नहीं की, न साथ इसका अनुसन्धान करते हैं नो इस पंक्तिका दसरा इस श्लोककी उत्थानिका ही बांधी और न निरुत्थान निदेश ही मांधा अर्थ निकलता है। अष्टशनीका दृमग मंगलही किया। हाँ, इस श्लोकमें प्रतिपाद्य विशेषामि विशिष्ट लोक यह हैं:याप्तको तत्वार्थमूत्रका याद्यवक्ता मान कर उसका समर्थन तीर्थ सर्वपदार्थतत्वविषयम्याद्वादपुण्योदधेः । अवश्य किया है। वे यदि अपनी धारणाको पर्याप्त बलवती,
भव्यानामकलङ्कभावकृतये प्राभावि काले कली। पूर्वाचार्य प्रसिद्ध समझते और उसे तत्वार्थसूत्रका अंग
येनाचार्ययमन्तभद्रयनिना नम्मै नमः मन्ततं । समझने तो पूज्यपाद अकलंक आदिक इसे अव्याम्यान
कृत्वा विवियते स्तवो भगवता देवागमम्त कृतिः ॥" रम्बनेके क र्यम शामिल न होते।
अर्थात जिन समन्तभदने इस कलिकालमे भयजीवोंक अब हमे यह विचारना है कि प्रा. विद्यानन्दयी उक्त. भावोको अकलंक करने के लिए सर्वपदार्थविप पक स्याहाद. श्रांकको सूत्रकारकृत माननेकी धारणाका क्या प्राधार है। समद्रके तीर्थको प्रकट किया उपके तरणका उपाय बताया यह तो विद्यानन्द जैसे प्राचार्यके लिए कम संभव है कि उनको नमस्कार करके भगवानके स्तवनरूप जो उन्हीकी व मी धारणा बिना किसी पूर्वाधार्यवाक्यके पालम्बनके दवागमम्नव नामकी कृति है उसका विवरण करता हूँ। बना लेते । मालूम होता है कि प्रा० विद्यानन्दने अष्टशतीके इसमें देवागमः स्तव' पद ध्यान देने योग्य हैं । इसके 'दंवागमेयातिमद्गल पुरस्परस्तव विषयपरमाप्तगुणातिशय- अनन्तर ही वे देवागमेन्यादि मंगलपुरस्परस्तवविषयपर. परीक्षामुपनिपनैव स्वयं " इस प्रारम्भिक अंशके माग्तगुणातिशयपरीक्षामुपक्षिपतैव ... ' यह पंक्ति लिखते आधारये अपनी वह धारणा बनाई है। वे मंगल पुरम्पर हैं। इस पंक्तिमें भी अकलंकनेव वही बात कहते हैं कि
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
मोक्षमार्गस्य नेतारम
२५
"देवागम प्रादि मंगलपूर्वक किया गया जो स्तव अर्थात् विद्यानन्दकी उक धारणा प्रकलंकका 'देवागमेत्यादि. जिसमें देशागम नभोयान आदि मंगलसूचक पद विधमान मंगलपुरस्सरस्तव' पद ही कारण हुआ है। और इसी है ऐसा जो स्तव उस देवागमस्तवके विषयभूत परम प्राप्तके लिये उन्होंने इसका सीधा अनुवाद न कर 'शास्त्रावतारगुणातिशयकी परीक्षाको स्वीकार करने वाले ग्रन्थकार ।' रचित स्तुति' जैसे शब्दोंसे किया है। यहाँ देवागमेत्यादि मंगलपुरस्परस्तव' पदमे अष्टशतीके यह एक स्वतंत्र प्रश्न है कि स्वामी समन्तभद्रने मंगलश्लोकमे स्पष्टतया निर्दिष्ट 'देवागमस्तव' ही ग्रहण वस्तुत: 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' लोकपर भाप्तमीमांसा बनाई किया गया है। स्यावाद विद्यालयकी अष्टशतीकी लिखित है या नहीं। यदि बनाई है तो इसका उनके समय पर प्रति 'देवागमेत्यादिमंगलपुरस्सरस्तव' इस पंक्तिके अनन्तर कितना प्रभाव पड़ता है। इसकी विवेचना फिलहाल इस 'देवागमनभायान' यह प्राप्तमीमांसाकी कारिका लिखकर फिर लेखका विषय नही है। 'प्राज्ञाप्रधाना हि.. 'प्रादि अष्टशतीवाश्य लिखा गया मैंने अपने पहिले लेखमें विद्यानन्दके मतका पूज्यहै। अत: 'देवागमेन्यादि' पदको श्लोककी श्राद्य प्रतीकके पादादि प्राचार्योके मतसे समन्वय करनेके लिये प्रोयानारूपमे लिखे जानेकी वोई आशंका नही रहती। अकलंकदेव रम्भकालेमें आये हुये प्रोग्थान पद पर जोर दिया था। देवागम श्रादि पदों को मंगलार्थक मानकर देवागमस्तवको अब भी यदि विद्यानन्दके मतका समन्वय करना है तो मंगलशून्य होनेकी आशंकाका निराकरण कर रहे हैं। जिस विद्यानन्दके सूत्रकार और सूत्र शब्दवो मुख्यार्थक न मान कर प्रकार शंकराचार्यने अपने शांकरभाष्य में 'अथातो ब्रह्माजे.ज्ञासा गौणार्थक मानना होगा और प्रोत्थानारम्भकाले पदके (ब्रह्मस १1१1१) इस बादरायण सत्रमे पाये हुये 'अथ प्रथान शब्दके प्रकाशमें उनके अन्य उल्लेखोंगे देखना शब्दको अधिकारार्थक होते हुए भी उसके श्रवणमा व्रको होगा। मंगलरूप माना है उसी तरह अकलंकदेव यहो देवागमन
आक्षेप-परिहारभोयान श्रादि शब्दों को मंगलार्थक मान रहे हैं। और इसी लिए देवागम इ यादि मंगल शब्द हैं पहिले जिसके ऐसे
अपने इस लेग्वका उपसंहार करनेके पहिले मैं 'अनेस्तवको उन्होंने देवागमस्तव कहा है। शांकरभाष्यकी भामती
कान्त'के लेखमे लिखी गई कुछ अनुपपत्तिके योग्य बातोका टीकाके रचयिता सर्वतन्त्रम्मतन्त्र श्रा० वाचस्पति मगलराब्दी
माक्षेप-परिहारके रूपमे उत्तर देना आवश्यक समझता हूंके श्रवणको मंगलार्थक सिद्ध करने के लिये अन्यनिमित्तमे
पाक्षेप-(अनेकान्त पृ. २२३-२२४) 'ततस्तदारम्भे लोग जल भोकलाकारोबार युकं परापरगुरुपवाहस्याध्यानम्' तस्वार्थश्लोकवार्तिकके इस हैं। उसी तरह यहाँ यद्यपि देवागमनभीयान श्रादि शब्द
वाक्यके 'तदारम्भे' पदसे दशाभ्यायीरूप तत्त्वार्यसूत्रके अन्य प्रयोजनसे अर्थात् शंकाकारकी शंकाकेरूपमें प्रयुक्त
प्रारम्भमें मंगल किये जानेका उल्लेख है। और 'सिद्ध हुये हैं फिर भी वे भगवानके अतिशयोंका वर्णन करने
मुनीन्द्रसंस्तुरये' में मुनीन्द्र (उमास्वाति) के द्वारा संस्तुत वाले होनेसे मंगलरूप हैं ही।
प्राप्तका कथन है। ___इस तरह हमें तो यही मालूम होता है कि प्रा. परिहार-यहो 'तदारम्भे पदमें आये हुये तत् शब्द
का वाच्य तस्वार्थसूत्र न होकर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक है। इस १ अर्थान्तरप्रयुक्ताव ह्यथशब्दः श्रुत्या मंगल योजना भवति" सन्दर्भ में विद्यानन्द तत्वार्थसूत्रसे लेकर तत्त्वार्यश्लोकवातिक
ब्रह्मसूत्रशाकरभाष्य १०१।१ तकको शास्त्र सिद्ध करते हैं और फिर तत्त्वार्थश्नोकवातिकके २ "अर्थान्तरेषु अानन्तर्यादिपु प्रयुक्तोऽथशब्दः श्रुत्याश्रवण श्रादिमें किये गए 'श्रीवर्धमानमाध्याय' मंगलश्लोकका मात्रेण वणुवीणाध्वनिवत् मंगलं कुर्वन् मङ्गलप्रयोजनो औचित्य 'युक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानम्' अंशसे सिद्ध कर भवति अन्यार्थमानीयमानोदकुम्भदर्शनवत्"-भामती १।१।५ रहे हैं। यहाँ 'प्राध्याय' और 'श्राध्यानम्' पदोंका ध्यानसे
योगमू० र त्य० ॥१॥ प्रमागामी० पृ०॥ विचार करने पर उक्त अर्थकी स्पष्ट प्रतीति हो जाती है।
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८६
अनेकान्त
[वर्ष ५
'मुनीन्द्रसंस्तुत्ये' विशेषणकी सार्थकता बताते हुए के बाद उमास्वातिने भाष्य बनाते समय इन कारिकाओंको विद्यानन्द स्वयं भागे (तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक पृ..) लिखते मुखग्रंथको लक्ष्य करके भाष्यके अंगरूपसे बनाया है। *कि-"विनेयमुख्यसेव्यतामन्तरेण सतोपि सर्वज्ञ-बीत- श्रीमान् पं० सुखलालजीने इस विषय में जो शब्द लिखे हैं, रागस्य मोक्षमार्गप्रणेतृत्वानुपपत्ते: । प्रतिग्राहकाभावेपि तस्य जिन्हें अधूरा उद्धृत किया गया है, ध्यान देने योग्य हैंप्रायने अधुना यावत्तत्प्रवर्तनानुपपत्तेः” अर्थात् सर्वज्ञ "भाष्यके प्रारम्भ में जो ३१ कारिकाएँ हैं वे सिर्फ मूलवीतराग इसका प्राय प्रवक्ता हो भी जाय पर जब नक सत्ररचनाके उद्देश्यको ऊतलानेकी पूर्ति करती हुई मूलग्रन्थ उसके कहे गए उपवेशको ग्रहण करने वाले गणधर आदि को ही लक्ष्य करके लिखी गई मलम होती हैं।" अतः मध्यविनेय नहीं होंगे तब तक मोक्षमार्गका प्रणयन नहीं जब वह मंगलकारिका भाष्यत्री ही अंग है तब उसको सकता। यदि विनेयजनोंके अभावमें भी उपदेश दिया व्याग्ल्यानका प्रश्न ही नहीं उठता। गया होता तो आजतक उसकी परम्परा नहीं पा सकती
आक्षेप (पृ. २३२) मूलग्रन्थके मंगलाचरणके व्याख्यान थी। इस सन्दर्भमें 'मुनीन्द्रसंस्तुत्व' विशेषणसे विद्यानन्द करनेकी पद्धति पहिले थी जैसे श्वेताम्बर सम्प्रदायके कर्मयह सूचित कर रहे हैं कि सर्वज्ञके पास गणधर आदि स्तव और षडशीति नामके द्वितीय और चतुर्थवर्म ग्रन्थ । मख्य विनेय रहते हैं तभी उनमें मोक्षमार्ग प्रणेतृव बन परिहार-हर एक ग्रन्थकारकी पद्धति और प्राचीन सकता है, न कि इसके द्वारा 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक भाप्यों तथा चणियोंके स्वरूपपर सावधानीसे विचार करने की उमास्वातिकर्तृकताका सूचन हो रहा है।
पर इस श्राक्षेपको स्थान नहीं रहता। कर्मग्रन्थोंके प्राचीन आक्षेप (पृ.२२४)-अलपरीक्षाके तत्वार्थसूत्रकारैः
भाष्य विशेषावश्यकभाष्यकी तरह अविकलव्याख्यानानात्मकउमास्वामिभृतिभिः' इस उल्लेख में 'तत्वार्थमूत्रकारादिभिः'
भाष्य न होकर आवश्यक निर्मुक्ति के मूल भाष्यकी तरह पूरकयह शुद्ध पाठ होना चाहिये।
भाष्य हैं। और इस लिए उनमें मूल ग्रन्थके हरएक वाक्य परिहार-ये ही तो ऐसे इतिहासप्रधान उल्लेख हैं का व्याख्यान होना आवश्यक नहीं है। यही सवय है कि जिनसे ग्रंथकारकी ऐतिहामिक दृष्टि पर प्रकाश पड़ना है। उनमें न केवल मंगलगाथाका ही व्याख्यान छोडा गया है अतः विना प्राचीन प्रतियोंके आधारके तत्वार्थपत्रकार' किन्तु मध्यकी अनेक गाथाओंका भी उनमे भाष्य नहीं है। इस लक्षणशुद्ध पाठकी जगह 'तत्त्वार्थसत्रकारादिभिः' इस परन्तु पुज्यपाद और अकलंककी व्याख्यापद्धति ऐसी नहीं अन्य पाठकी कल्पना इतिहासके क्षेत्रमें ग्राह्य नहीं हो सकती। है। वे मूल ग्रन्थके 'च तुजैसे शब्दोको भी अव्याख्यात
आक्षेप-(पृ. २३१) प्राचीन दि० श्वे. सूत्रग्रंथ हैं नहीं छोड़ते । अतः इनके विषयमें मंगलश्लोकको अव्याजिनमें मंगलाचरण पाया जाता है।
ख्यात या निरुत्थानरूपसे अनिर्दिष्ट छोइनेकी बात कहना परिहार-मेरा तात्पर्य है कि प्राचीन संस्कृत भाषा- इनकी शैलीके न समझनेका ही फल है। निवद्ध सत्रग्रंथों में मंगलाचरण करनेकी पद्धति दृष्टिगोचर दूसरे, कर्मग्रन्थोमे यदि मंगलगाथाबोंका व्याख्यान नहीं होती-जैसे ब्रह्मसत्र, मीमांसासत्र, वैशेषिकसूत्र नहीं है तो वे मूल ग्रन्थसे बहिष्कृत तो नहीं की गई हैं उनमें न्यायसन, योगसत्र, प्रादि । उत्ती तरह तत्त्वार्थमत्र ऐसे यथास्थान निर्दिष्ट हैं तब राजवार्तिक्में उनके निदेश न करने ही सत्रग्रन्थोंकी कोटिका है। इसके लिये षट् खंडागम आदि का क्या कारण है ? अनेक पुराने भाग्य ऐसे हैं जिनका का हवाला देना उपयोगी नहीं है। और न इससे मेरे परिणाम मूलग्रन्थमे कम है जैसे प्रावश्यक नियुक्तिका मूलविचारमें कोई बाधा ही उपस्थित होती है।
भाष्य अतः कर्मग्रन्धोंके ऐसे ही पूरकभाप्योंमे सर्वार्थसिद्धि आक्षेप (पृ. २३२)-स्वार्थपत्र में मूलसे सम्बन्धित और राजवार्तिक श्रादि अरंड व्याख्याग्रन्थोंकी तुलना करना ३१ कारिकाएँ उमास्वातिकृत मानी जाती हैं उनमें नमस्का- उचित नहीं जान पड़ता। स्मक मंगलाचरणकी कारिका है।
आक्षेप (पृ. २३३) गजवानिक भीर श्लोकवार्तिक परिहार-प्रचलित मान्यतानुसार तत्वार्थसत्र बना चुकने वार्तिक हैं। वार्तिकका लक्षण है 'मूत्राणामनुपपत्तिचोदना
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
मोक्षमार्गस्य नेतारम्
२८७
तत्परिहारो विशेषाभिधानं च' । अत: वार्तिकों के लिये उनके का अभिप्राय भी इस मंगलश्लोकको सूत्रकारकृत माननेका है। स्वरूपसे ही यह शावश्यक नहीं रहता कि वे सूत्रोंके परिहार-इसका उत्तर हमारे इसी लेखमें पहिले अतिरिक्त मंगलाचरण की भी व्याख्या करें।
विस्तार दिया जा चुका है। परिहार-वार्तिकका लक्षण कुछ भी क्यो न हो पर आक्षेप (पृ. २३४)-विद्यानन्द और श्लोकवार्तिकके प्रश्न तो यह है कि जब अकलंकदेव और विद्यानन्द उमा- अनन्तर आदि शब्दका प्रयोग प्रमाद और अनभिज्ञता है। स्वामीके एक भी शब्दको विना व्याग या उथानिकाके परिहार-जैनसिद्धान्तभास्करके जून सन् ५२ के अंक नहीं छोड़ते, उनपर वार्तिक बनाते हैं, उन्थानिका लिखते में मैंने जो टीका न करने वाले प्राचार्योंकी सूचीमें विद्यानन्द हैं, और अविकलव्याख्पापद्धतिमे उनकी व्याख्या करते हैं तब के बाद तथा श्लोकवार्तिक्के बाद आदि शब्दका प्रयोग मगलाश्लोक क्यों उन्होंने अयता छोडा । अथवा, यदि किया है वह अनेक श्वेताम्बर व्याख्याकारोंको तथा उनके उसपर वार्तिक लिखना इष्ट नहीं था तो उसकी तत्त्वार्थसूत्र व्याख्यानन्याशे लक्ष्यमें रखकर किया है। क्योंकि तत्वार्थके अन्य मृलशब्दोंकी तरह सीधी व्याख्या तो की जासकती सूत्र समानरूपसे दोनों सम्प्रदायोंको मान्य है । कहा जा थी। अकलंकदेवने तत्वार्थ सूत्रके जिन अनेकसूत्रोंपर वार्तिक सकता है कि श्वेताम्बराचार्योका जब भागे विशेषरूपसे लिखना आवश्यक नही समझा उनकी व्याख्या अवश्य निर्देश किया है तब यहाँ आदि पदसे क्यों उनका निर्देश की है-उदाहरणार्थ-५-२८, ७-४, ५, प्रादि, म-२६, किया है ? इसका उत्तर यह है कि आगे 'मंगलश्लोककी' १-४४.१०.६ प्रादि । यदि यह श्लोक तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ असाम्प्रदायिक स्थिति पर जोर देनेके लिए उन प्राचार्यों का अवयव है तो सूत्रग्रन्थका अवयव होने से अन्य सूत्रोंकी का प्रथक निर्देश करके बताया है कि यह श्लोक अत्यन्त तरह यह भी मंगलसूत्र ही हुआ, और इसलिए इसपर असाम्प्रदायिक है अत. श्वे. व्याख्याकाको सम्प्रदायिकता वार्तिक बनना न्यायप्राप्त है। सूत्र गद्यरूप ही हो पद्यात्मक के कारण उसे छोडनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। नहीं यह नियम तो है ही नही।
जैनसिद्वान्तभास्कर (पृ. १२) में मैंने स्वयं श्रुतसागर श्लोकवातिकमे किया गया वार्तिकका लक्षण आपके मूरि बालचन्द्र योगेन्द्रदेव श्रादिके मतकी आलोचना की है किये गए अर्थके अनुसार अध्यापक हो जाना है, क्योंकि अत: उन श्राचार्योंसे मैं अपरिचित था यह बताकर मेरे दिङ्नागके प्रमाणसमुच्चयपर लिखे गए प्रमाणवानिको ऊपर जो अनभिज्ञता या प्रमाद जैसे साधुशब्दोंकी पात्रता यह लक्षण नही पाया जाता--यत. एक तो प्रमाणसमुच्चय का श्रारोप किया है वह उन्हींके योग्य है। सूत्रग्रन्थ नहीं है । दूसरे उसमे अन्यवार्तिकोंकी तरह आक्षेप-(पृ. २३५) तत्त्वार्थवृत्ति पदविवरणमें इस मुख्यरूपमे अनुपपत्ति-परिहारकी शैली नहीं है। अतः मंगलश्लोकका यथावत व्याख्यान नहीं है, मामूली निर्देश है। वार्तिक के लक्षणमे श्राप हुए सूत्रपदका अर्थ है मृलभाग परिहार-इस विवरण अन्यकी जितनी मर्यादा एवं या व्याख्येय अंश । उसमे कहीं मूलभाग या व्याप्येय अंश शैली है उसीके अनुसार 'यथावत व्याख्यान' शब्दको का अनुपपत्ति-परिहारक रूपमे विवेचन होता है और कहीं लगाईये । ग्रन्थकार जिसका जिस रूपसे व्याप्त्यान करना विशेषाभिधानमात्र । अत' वानिकके लक्षणके आधारसे चाहता है वही उसका 'यथावत' व्याख्यान है। मंगलश्लोकके अव्याख्यानका समर्थन करना उचित नहीं है। प्राक्षेप (प० २३५)-चुने हुये हेतुओंके सिवाय अन्य वार्तिकका एक व्यापक लक्षण है-उनानुक्तदुरुस्कार्थ. कारणोंको सूचन करनेके लिये 'ग्यादि' शब्द यों ही लिख चिन्तावारि तु वार्तिकम्', (हैमकोश) अर्थात उक्त अनुक्त दिया है, इत्यादि शब्दका प्रयोग कुछ महत्व नहीं रखता । और दुरुक्त पदार्थों का विचार करने वाला वार्तिक होता है। परिहार-मेरे लेखके पीछे जिन युक्तियोंकी पृष्ठभूमिका अत: यदि तत्त्वार्थसूत्रमें यह मंगलश्लोक उक है तो थी उन्हें मैंने इस लेखमें लिखा है । वे महत्वकी हैं या उसकी चिन्ता करना वार्तिकको अवसर प्राप्त है ही। नहीं यह लिखना मेरा कार्य नहीं है। श्राक्षेप(पृ०२३३)-मंगल पुरस्मरस्तव' शब्दोंमे अकलंक
(शेष पृष्ठ ३२८ पर)
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवन है संग्राम !
[ ले० --- श्री 'भगवत्' जैन ]
..
हः
[1] -लात मारे ज़मीनमें, तो पानी निकल पड़े ! और उस पर माँगने चला है भीख ! ह ह ! हिन्दुस्तान में जैसे और कोई पेशा रह ही नहीं गया ! जिसे देखो, भीख माँगता है! कोई थका-दुबला हो तो एक बात भी है ! यह हट्टा-कट्टा, खम्बा चौड़ा नौकरी करे तो आठ माने जाए ! लेकिन करे क्यों ? मशक्कत जो पड़ती है—उसमे !' वह रुका, मुँहमे पानका बीडा मने के लिए! फिर एक पीक छोड़ते हुए, बढे भले मानुसकी तरह सभ्यतापूर्वक बोला- 'जा, जा बाबा ! हमे बख्श ! — और चल दिया डिकारतकी नजर से देखता, सिगरेट और माचिसके बक्मोंको जेबमे डालता हुआ !
--
पनवादी अपनी दूकानदानीमे मशगूल था। सम्भव है, उसे पता तक न चला हो, कि उसका कोई ग्राहक किसी भिखारीसे उलझ कर उसे खरी-खोटी सुना गया है !
पर, निरंजन देखता भर रह गया- एक टक | उसे जो ग्लानि, चोभ और पीड़ा हो रही है, वह किसे बताए ? वह किसे कहे कौन सुनेगा कि वह पहली बार आत लाचार होकर भीख मांगने निकला है! जब नही दे सका है—भूसे व्याकुल पानीका मुंह नहीं सुन सका है, रोते- तते बच्चेका चार्त्तनाद ! वह खुद भूखा रह सकता है, एक दिन, दो दिन ! और उतने दिन, जब तक उसकी श्रखिरी साँस न आ जाय ! लेकिन उन्हें वह खुली श्रीँखों तबते हुए कैसे देखे, जिनकी परवरिशकी जिम्मे दारी उसके हाथोंमें है ? नहीं, वह अपने बच्चे के लिएअपनी पत्नीके लिए भीख माँगेगा, अपमान सहेगा, और वह सब कुछ करेगा, जो उसके वश में होगा, जिसे वह कर सकता है !
-
'ऐ, ऐ ! एक तरफ़ हट !'
निरंजनकी विचार धारा टूटी ! नज़र उठाकर उसने देखा एक सूट-बूट भारी नोजवान सामने खड़ा है, पन
arst fertent बक्स उसकी ओर बढ़ा रहा है ! वह सरक गया, एक ओर ! फिर उसे होश आया 'अच्छे कपड़े हैं, सिगरेट खरीद रहा है, शायद पैसे वाला है !" वह फिर बढ़ा ! कुछ कहने ही जा रहा था, कि कैन्टिलमैन बने आप ही पूँछ दिया क्यों ?'
निरंजन घबरा-सा गया ! अभ्यस्त भिखारी जोन था ! जल्द बोला'ब भीख!'
'क्या भीख ?'
निरंजन चकराया ! सोचा- 'अभी डॉट बताता है, शायद मार न बैठे ? कैसी मुसीबत मे पहा हूं-- श्राज !' कुछ सोच कर बोला- नौकरी लगा, बामेरी"
――
'श्रक्ववखखः खः ।' बाबू हॅमे, इस जोरसे कि पनवाडी चौका, और उसके सभी ग्राहक ! सबमे कौतुक, कि बात क्या हुई ?
वह बोले-- 'नौकरी ? नौकरी इन्द्र देवताके सिंहासन से भी मुश्किल है-- श्राज ! समझा " ?'
निरंजन चुप !
उन्होने उपस्थित जनकी ओर मुखातिब होकर कहा'अच्छा भिखारी है, भीमे नौकरी मांग रहा है. ठीक है कुछ ? न पैसा न दो पैसा एक दम नौकरी ? जैसे नौकरीको कुछ समझा ही नहीं । श्रभ्यो ! नौकरी पारसपत्थर, चिन्तामनीसे भी बद कर हो रही है पता हैकुछ ?'
खड़े हुए लोगोंने समर्थन किया उनकी बातका ! जैसे सभी उसका कडवा घूँट पिए हुए हों, सभी भुक्त भोगी हों !
जरा अधिक खुलकर से बोले में दूसरोंकी नही कहता---'खुद वः महीनेसे नौकरीकी तलाशमे दर-दर भटक रहा हूँ. जगह-जगह दुस्कार खाता हूँ । पर, वह है जो आज तक नही मिल रही ! यह तो चीज क्या, पदा न लिखा ! मुझे देखोसेको किताबे चाटे, हजारी
रुपये फुके बैठा है
कितने साक्रकेट जेब भरे हुए हैं !
1
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण -१]
जीवन है मग्राम
२८६
पर, नौकरीके नाम पर कोई पाठ रुपए तकको नहीं से बड़ा संकट मानता पा रहा है--इन दिनों। पूछता-यह तमाशा है।
झोपड़ी पाम पाती जा रही है और निरंजनका दिल एक खौँ साहेब जो धेलेकी दियों ग्वरीदनेको खहे घबगता-सा जा रहा है डरता-सा जा रहा है ! वह सोचने हुए थे, और रह-रह कर पनवाडीके लम्बे श्राईनेमें अपनी लगता है--'काश ! बह दनियामे अकेला होता!' सूरत नेम्वते जाते थे बोले--'वाकया है, सच कह रहे हो- वह स्वयं भूग्वा मर सकता है, पर बीवी-बच्चेको बाबुजी ! यही बात कल एक दूसरे जैन्टिलमैन भी सुना तडपते देग्वना उमे मा नहीं । यही तो उसकी समस्या रहे थे । मैं ही उन्हें अपने तांगेमे लाया था, बेचारे बडे है! ... स्त्री बीमार है। और उसका मर्ज है वह, जो सीधे थे ! कहते थे कि और देखता र महीने दो महीने-- एलोपेथी होम्योपेथी या आयुर्वेद किमीमे भी स्थान नही लगती है नौकरी तो ठीक ! नही तो अब बे-मौत मरना पा रहा। वह भूग्यसे व्याकुल है। पिछले दिनों, जो कुछ ही तय किया है। बेचारे अतिया गए थे-जिन्दगीमे । पेटमें डालने लायक मिला है, वह सब उसने अपने पुत्र बीबी थी, बच्चे थे, और सबको चाहिए खाना । श्राए और अपने पतिको खिलाया है, स्वयं भूम्बी रही है। क्यों कहाँसे ? बडे परेशान थे।"
कि यही तो स्त्री-हृदयकी ममता नामम्मे पुकारी जाने वाली ___'एक वे अकेले क्या परेशान थे, दुनिया परेशान है! चीज़ है। क्या नीकर-पेशा, क्या मजदूर, दकान्दार"--एक दूसरे मजन झोपडीसे अभी दर ही था कि बचेके गेनेकी आवाज बोल उठे, जो शायद या तो छोटे-मोटे दुकानदार थे या दलाल! सनाई दी। वह सिर थामकर वही बैठ गया ' उसे चक्करपान खाने श्राप थे, और खाकर उल्टे पैरों लौट रहे थे, सा पा रहा था। सिर्फ बच्चेकी दीनताने ही उसे बैठने के जल्दी ही। पूरी बातें उनने गुनी न थीं, न सुनने की दिल- लिए विवश किया हो, सो बात नही, दिन-भरकी दौड़-धूप चस्पी थी उन्हें।
और खाली पेटकी निष्टुरता भी इसमें माझीदार थी। ... निरंजन जितना सुन रहा था, समझ उससे ज्यादह मुस्त-सा, निरंजन खड़ा था, और रोता बच्चा पैरोमें रहा था । बाते जो उसी की समस्या को लेकर उठी थीं। चिपटा पा रहा था। न जाने क्यमे रो रहा था? पर, वह चुप था और मोच रहा था--'कितनी भयानक है निरंजन पर उसके रोनेका कोई प्रभाव न हो रहा थादुनिया ? और कितना कठिन है जीवन-संघर्ष ? ताजुब है, वह गुम-सुम था। पाथरकी तरह । फटे-टाट पर स्वीका लोग जीवित कैसे रहते पा रहे हैं"
निर्जीव-शरीर पहा हा था श्रोखे खुली हुई थी, मह फटा हुश्रा ! सूखी-सी जीभ श्रीग्व रही थी, जो एक दम
सफ़ेद थी!... चिराग जल चुके । निरंजनके पैर घरकी ओर बढ़ रहे निरंजन की ओग्वाने न प्रोसू डाला एक बंट । न मॅहने है--विवश, हताश, निर्जीव सदश ! रात सबके लिए प्राई 'अाह ' भरी । यम्भव है, उसे स्त्रीको मृत्युमै अपने जरूर है, पर निरंजनको लग रहा है, जैसे वह उसकी एकाकी जीवनकी-झलक दिग्वलाई दी हो। चेष्टा पर भी अँधेरी चादर डालनेका दावा कर रही है। देर तक बढ़ा रहा, पागलकी तरह । देखता रहा दिनमें यह घूमता-फिरता तो रहा है, अपनी उस पीडाको बगैर पलक मारे स्त्रीकी ओर । उसे लगा जैसे वह मेरी भृला-सा तो रह सका है, जो उसे भूखसे भी ज्यादह दुःख ही राह देखते-देखते पर लोक गई है । दर्वाजकी ओर ही पहुंचाती रही है जो असयताकी सीमा पर जा चदी है। उसका मह है, नजर है। और अब मैंह ग्बोलकर जैसे बेशक, उसे प्राज एक दाना भी भीख के नामपर नहीं पूछ रही है-- क्या आज कुछ मिला ' बरके लिए, मिला है, पर आशाकी सुनहरी-तसवीर तो उसकी दृष्टि-पथ अपने लिए कुछ जुटा सके नही। तो बच्चा कैसे पर झूलती रही है न ? बीबी-बच्चे की करुण-मूर्ति नो प्रोखों जियेगा? तुम भृग्वे कैये रहोगे तुम्हे तो भूग्वमे चक्कर के पागेसे श्रोझल रही है, न ? जिसे वह अपने लिए मब श्रामे लगते हैं सबियन बगब हो जाती है ।' 'बोलो न"
x
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६०
अनेकान्त
वर्ष ५
निरंजनकी सारी शक्तियों स्त्रीके मृत-शरीर पर टिकी ही मोऊँगा, अटूट निद्रामे !' हुई हैं ! वह कई बार इशारेसे बच्चेको चुप करनेका गला दबाया। निष्फल प्रयत्न कर चुका है। कई बार हायसे झटककर उसे पहले धीरे-धीरे । फिर ज़रा जोरसे! मुंह लाल हो अपनेसे दूर हटा चुका है। पर, वह न चुप हुश्रा है न दूर ! गया। आँखामे प्रोसू निकल पाए । शरीर कौंप उठा। चुप करना, भूस्वकी शान्ति पर था। और दूर हटना मोंके रुक गया, निरंजन । शायद यह सोचा हो, कि दूसरे श्राधार पर । अब इसमें रमका क्या अपराध ? . को मारना जितना सहज है, मरना उतना अामान नहीं।
लेकिन निरंजनको लगा यह बुरा । वह मल्लाकर फॉपी लगानेकी तजवीज सोची गई हल्की-इन्छाये । बोला--'मुझे वा ले।'
झोपड़ी में न छत थी न कडी, न कुन्दा! और तभी उसके मनमे एक पैशाचिकता उत्पा सोचने लगा—'मुझे मरनेकी ज़रूरत क्या? जिनके हुई ।--'वह दुनिया मे अकेला जरूर नहीं है लेकिन अकेला दुखम्मे मरना सुरव मालूम देता था, वह तो मर ही चुके ! रह सकता है!'
अब ?--अकेला हूं-मारे संसारमें । चिन्ता किमकी ? बचा रोता रहा।
एक टुकडा मिला, वही बहुत ! न मिला फिक्र नही जी निरंजनका मन धधक उठा ! उसने सोचा-'स्वाना का जंजाल मिटा', चाहिए, स्वाना नहीं है तो उबदस्ती ज़िन्दगीके लिए और तब कठोरताका पुतला निरंजन रातक अंधेरेमे झगडना क्यों"
झोपहीसे निकल कर न जाने कहाँ गायब हो गया। चुप हो चुप हो। नहीं हुआ चुप ! किसके श्रागे रोता है किसे पिंधलाना चाहता है--रोकर हो बात बहुत पुरानी हो चुकी है! इतनी कि जितना चुप !' और निरंजनने वसकर बच्चका मह बन्द कर
निरन । काले बालोमे सफंदी श्रागई है ! तनी हुई खाल दिया - दोनो हाथोंसे । पिताने पुत्रके-उपी पुत्रके, जिसे
में झुरियो पढ़ गई हैं, और होगया है हृदयमे एक मौलिक दनियामे रत्न कहा जाता है, जिसकी प्राप्ति पर कठिनतास
परिवर्तन । वह अब एक पुराना भिखारी है! मांगने के कमाया धन, पानीकी तरह बहाकर, खुशियां मनाई जाती
सैकड़ों हथकरके उसे याद हैं ! जीभ बगैर प्रयन्नकेहैं, दम घोटनेकी कोशिश की। तब तक मेह बन्द-योस
'दाता | भिखारीको एक पैसा मिले।'-उगल देता है ! बन्न -किए रहा, जब तक कि वह बिल्कुल चुप न
सब कुछ है ' पर, निरंजन मुखी आज भी नहीं हो होगया ।..
सका है ! उसका वह स्वप्न, स्वप्न ही रहा कि 'अकेलको वालकका छोटा-सा अस्थि-पर निर्जीव पड़ा था। चिन्ता क्या '' आज भी उमके पागे चिन्ता रहती है। ---अमहाय! ...
मोगन यानेका काम आज भी उसे करना पड़ता है। और निरंजनम श्रामुरो-शनि काम कर रही थी। पिताका मसीबत यह है कि उपके खाने लायक भी भीख उसे नहीं दिल उसके मीनेम नहीं था. मानवबसे रीता था वह उस मिलती। कई दिन, कई रात ऐसी होती हैं, जब वह भूग्वा समय ! न जाने क्या करना चाहता था और क्या कर रहा घूमना और मोता है! था शायद अपने 'श्राम नहीं था !
रातको जब अकेला सोता है, तो अोखामे आंसू भरस्त्रीके मृतक शरीरके समीप लाकर बचेको लिा भर पाते हैं। कभी निकलता भी एकाध उद्गार तो 'धे दिया। श्रीर मन्नोषके में बोला -'बम, सोते रहो कंठ- मेरा बशा! प्रोफ । श्राज कितना बड़ा होता? श्रानन्दसे माथ-साथ ''
सोचता - 'दुनियामे आज मैं बिल्कुल अमला हूँ । एक नजर दानाको देखकर निरंजन उठा आरम-हत्या तब एक नज़र ऐसी थी, जो मुझे सहानुभूतिमे देवती थी, करनेका निश्चय लेकर ! और वोला, भारी आवाज़ मे दर्दमे देखती थी! माह । वह कितना चाहती थी मुझे। ---- घबराम्रो नही । मैं भी नुम्हारे पास आता है, बराबर मुझे भूखा देख, उसकी छाती फटती थी। और आज ?
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
जीवन है संग्राम
२६१
मैं दो दिनसे भूखा है-कौन जानता है ? किसे चिन्ता भूखा रह कर जिन्दा रहना जो सम्भव नहीं ! फिर ? है-मेरी?
लोग राजीसे जब देना नही चाहते, तो भृग्वेको जबर्दस्ती
लेनेका हक है। ह हः हः ! [३]
निरंजन हँमा । शायद भूग्वकी व्यग्रता पर। और ढाल-जमीन पर फिसलने वाला व्यक्ति भले ही बल. तय, भृम्खने उसे एक रास्ता सुझाया--'चोरी!' शाली क्यों न रहे, लेकिन जब फिसलता है, तो रुकता ठीक । मैं अब चोरी करूँगा और निश्चय ही इस नए नही' बीचमे रुकना बहुत मुश्किल पड़ता है, फिसलने पेशेमे मुझे भूम्वा न रहना होगा। लेकिन पकड़ा गया वालेको। यही बात पतनके गस्ते पर कदम धरने वाले के तो ?-जेल | बम, इतना ही तो, और क्या ? वहीं लिए भी है। प्रायः पतन अपनी चरम-सीमा पर पहँच खानेकी फिक्र न रहेगी न ?' कर ही सन्तोपित होनेका आदी है ! .. निरंजन भूखा है। और भूख है दुनियामें, हजार
सुबहके मादे-तीन, चार बजेका वक्त । कुछ-कुछ बदकारियोंसे एक · 'भूग्वे पंटको जो तर्क जो प्रयत्न मूझने अंधरा' यमुनाके मवेग जलक
अंधेरा। यमुनाके मवेग जलकी कल-कल धनि ! स्नानाहैं, वे अमानुषिक और पापमय ही होते हैं ! श्रीचिश्य उन
थियोंका कोलाहल । गंगा-दमहराका दिन । में नही रहता।
निरंजन श्राज पहली बार चोरीकी नाकमें घूम रहा वह नहाके पुल पर आ खड़ा हुआ है-डूब-मानेके है । अाज भी उसके मनमें वैसी ही धड़कन है, जैसी लिए । भूग्वो मरनेसे अात्मघात करना उसे उचित और पहली बार भीख मांगने के वक्त थी। पर, प्राज मुंह पर सुगम जान पड़ा है। लेकिन जीवनकी ममता अभी भी दीनता नही, हेकड़ी है! उसका पीछा छोडनेको तैयार नहीं है।
लोगोंकी भीडका ठिकाना नहीं । स्त्री, पुरुष, बृढे बच्चे वह सोच रहा है.-- नौकरीके लिए गिडगिड़ाया, न मब नट पर कपडे उतार-उतार कर स्नानके लिए जा मिली । भीग्व मांगने पर उतारू हा हूँ, तो आज उसमें भी भूखा मरनेकी नौबत पा रही है। मुझे आज भीखका निरंजनकी घात लगी । वह दूर रवी एक पोटलीको अनुभव है ' मैं जानता हूं. कि पिछले दिन मैंने किम उठाकर चला · पहले धीरे-धीरे । फिर ज़रा तेज़ । नरह बिनाए हैं और समझ चुका हूं कि लोग अन्न देने किम्मत । कि किमीने उसे देखा नहीं । सम्भव है. उस पहले अपमान देनेमे अपनी शान समझते हैं। भिग्वारीके पोटलीकी निगरानी करनेवाला हो ही न ? या उसकी हाथ पर एक पैसा रखने वाला अपनेको अच्छा समझ नज़र दृयी ओर हो। उठता है, यह मुझसे छिपा नही है । ख्याति प्रतिष्टाके निरंजन खुश है । खुश है कि ग्राज पहले ही प्रयत्नम लिए लोग लाखोंका दान करते हैं पर दीन-गवरीको वह सफल-मनोरथ हुश्रा है। पोटली दबाये वह चला जा मुट्ठी भर अन्न देने वाले कितने हैं '- यह मुझे मालूम है। रहा है-एकान्तकी खोंजमें जहां वह पोटली खोल सके। जित निकायमा जी
देख सके कि उसमें क्या है? कितना लाभ हश्रा है उस? जो बन, बनके बिगड़ रही हैं ! क्या वह भी इन्ही लहरो रास्नेसे हटकर, वह बैठ। पोटली ग्वालने । खुशी की तरह मिटने वाला है, इन्ही लहरोम ? विचार बढ़ रहे चमकती श्राखोस पोटलीको देवता हुआ।
_मर जाउंगा. चला जाउंगा किसीको पता तक न म्नानार्थियोंका दल अब भी जा-या रहा था, यहाचलेगा। कोई गने वाला जो नहीं है। यह भी क्या वहा ! जीवन ?
निरंजनकी उन्मुकता पर जमे वज्रपात हुश्रा ! यह नब ? जिन्दा ही क्यो न रहा जाय ? लेकिन चौक पहा!- 'पोटलीम बच्चा ? किनका बच्चा है?'
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६२
अनेकान्त
[बर्ष ५
बध रहनेसे बरचा गुमसुम था
!
निरंजन
भूखा रोता है
देर तक बंधे रहनेसे बच्चा गुम-सुम था । सगी जो रुला रहा है रे, बच्चेको ? क्या माँ नहीं है इसकी ?' उन्डी हवा तो चैतन्यता लौट आई। रोने लगा वह ! निरंजनने दीनता पूर्वक उत्तर दिया-'मौ । इसकी निरंजन चुप !
मर चुकी है-बाबूजी। भूखा रोता है श्री श्रो.रे.. सोच रहा है-'बच्चा ? बच्चेका पिता हूं मैं ! उसका देख, बाबुजी कहते हैं चुप हो जा-बेटा। चुप रोते पिता हूं मैं ! उसका पोषण करना ही मेरे भान्यकी कठोर नहीं है, हाँ !" अाज्ञा है, वही मेरा जीवन है!'
पतिने पत्निकी ओर देखा, पनिका मुंह दयाई हो और बच्चा उसने गलेसे लगा लिया ! पर वह चुप रहा था - न हुआ निरंजन बोला-'भूखा है तू ? क्यों रे ? चल, बोलीं-कैसा सुन्दर बच्चा है?' मैं तुझे दूध पिलाऊँगा, अब मैं समझ गया हूं--जबरन और उसी समय, पतिने एक रुपया निरंजनकी ओर मुँह बन्द करनेसे कभी कोई चुप नहीं होता। जिसके बिना फेकते हुए कहा-'ले, बच्चेको दूध पिलाना !' काम न चले, उतना तो मिलना ही चाहिए न?'
और वे सब भागे बढ़ गए ! बच्चेको चुमकारता-पुचकारता वह सबक तक प्रागया! निरंजन विक्षिप्तकी भांति खडा, कभी बच्चेकी ओर पर बच्चेका रोना बन्द न हुश्रा!
देखता है, कभी चौंदनीमें चमकने रुपएकी तरफ ? न जाने कई स्त्रियों, जिनके माथमे उनके पति भी थे, जा रहे कौनसी स्मृति उसे दुख दे रही है ! थे घरको, स्नानसे निवृत्त होकर ! बच्चेको रोता देख स्त्रीने बच्चा रो रहा है ! पतिसे कहा-'कैसा रो रहा बच्चा ? बेचारे की मों मर बच्चेका पिता स्तब्ध है। पर अखि उपकी बह रही हैं, चुकी है-शायद ?
दिल उसका सिसक रहा है ! शायद निरंजनकी बडी दानपतिने स्त्रीका मनोभाव परख, निरंजनसे कहा-'क्यो वताको चुराई हुई छोटी-सी मानवताने पराजित कर दिया !
वासनाओं के प्रति-]-=-[-रचयिता-श्री ‘भगवन जैन
तुम क्यों मँडराया करती हो, मेरे जीवन के प्राम-पास? मैं तभी तुम्हारे वशम था
तुम मेरे मनमे बैठी थीं-- जब अपनेपन को भूला था !
मैं तुममें खुदको पाता था ! अध्यागम-वादसे रीता था---
थे एकमेक हम-तुम दोनो-- अन्धा था, लँगड़ा-लुला था ।
बस, एक प्रेमका नाता था। पर, अाज दिखाई देता है-अपने भीतर मुझको प्रकाश । मालूम न था, ले शत्रु-भाव, रोके थी नुम मेरा विकार ! उस दिन जब तुम मुस्काती थी,
अब मेरे मनमें जाग उठी-- मैं बनता था उसका भिक्षुक !
लोकोत्तम-मुखकी एक लहर । पर, अाज सत्यता इसमें है
अन्धी आँखोंमे लौट सकीहूँ मुम्हें त्यागनेका इच्छुक !!
फिर वही ज्ञानकी दृष्टि प्रखर " तुम खिलखिलकर हंसती हो जब, तब मैं होजाता हूँ उदास। । 'सुग्व समझे बैठा था जिसको वह था यथार्थमें सुखाभाम!
मैं जान चुका हूं भली-भाँति-दुनियाकी मायावी-बन्दिश ! हूँ देख चुका, सजनी ! तुममें-कितमा रस है, कितना है विष ? अब मुझे न बाँधी, रहने दो, अपने सारे असफल प्रयास' तुम क्यो मँडराया करती हो, मेरे जीवनके पास-पास ?
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
चलती चक्की (ले०-डाक्टर भैयालाल जैन, Ph. D.)
दुनिया बहुत तनीसे घम रही है, ममय पत्नक मारते विधवा बहू या भौजाईके साथ बलात्कार कर अपना मुंह ही बदल रहा है । जो जातिया मजग हैं वे अपना अस्तित्व काला करते हैं । गर्भ रहजाने पर भ्रूणहत्या करते हैं । यदि कायम सम्बने क लिए, ममारक रुखको देग्य कर. समयकी गर्भ न गिरा तो किसी गुण्डको रुपया देकर उसका हमल गतिके माय अपना कदम बढ़ा रही है। छोटीसे छोटी और सबूत कर देन है और बच्चा हो जाने पर उस बेचारी बिलकुल पिछड़ी हुई जातिया भी अपने उत्थानके प्रयत्न अहिमा-धर्म की पालने वाली अवलाको उस मासाहारी मे कमर कमके जुट पड़ी हैं। एक अभागा जैन समाज ही गुण्डेके सुपर्द कर देते हैं ! तुर्ग यह है कि इन दुष्कृत्या पर ऐमा है जो मृदेंस बाजी लगा कर मोया है। और इसकी पंच-परमेश्वरोको स्वीकृति की मोहर भी लग जाती है और दुर्गति ऐमी हालतम हो रही है जब इम ममानके अन्दर । वे नर-पिशाच अपने उच्च वर्णकी डाम दोकने हुए, समाज बड़े बड़े वैभवशाली धनकुबेर मोजद है।
की छाती पर कोदो दला करते हैं ! उफ ! कैसा भयंकर गढ़वाद, नो ममा जान्नतिके मार्गका रोड़ा है, इम अत्याचार !! समाजस दिनोदिन चुम्बककी नाई चिपकता जाना है और महानुभूति तथा जातिप्रेम तो जैन समाजस बिलकुल धर्मके व अग जो किसी वस्तुके ट्रेडमार्कके ममान जैनत्वका ही रफूचक्कर हो चुका है। छोटे २ ग्रामोमे कोई रोजगार पता देत है, ममास ऐसे लार होने जारह है जैसे गजेके धंधा न हानसे हनाग जैनी भूग्बो भरने है, उनकी सन्तानका सिरम बाल ।
विद्या-प्राप्ति के कोई साधन न होने में मृवतामे जीवन व्यतीत पहिले जहाँ प्रत्येक जैनी देव-दर्शन करना, जल छान करना पड़ रहा है। गर्गबीके कारण उनमसे धर्म भी लोप कर पीना और गात्रम भोजन न करनेको अपना पवित्र हो रहा है। बीमार हाने पर बेचारीका दवा-इलाजका कोई कर्तव्य ममझना था, वहाँ अाज-कल इन बातोका नियमित- प्रबन्ध न होनेमे मैकडोकी संग्व्याम प्रतिवर्ष मृत्युकं महमे रूपसे पालन करने वाले मुश्किलसे २५ प्रतिशत मिलेगे। धसते चले जाते हैं, जिमसे ममा जकी मंख्या घटती चला देवदर्शनके लिये मन्दिर जाना नो अब लोगोंको भार मालूम जाती है। एक और घोर निर्धनताके कारण ऐसी भयंकर पड़ने लगा है। पपग् पर्वम शर्मा-शर्मी यदि १० दिनके दुर्दशा है, दुमरी ओर ममाज के धनकुबेर अपने इन श्रम:लाए जाने भी है तो आपमा गाली गलौज तथा लात-जना हाय बन्धुश्राकी ओर से श्राग्व-कान बन्द किये, अपने महलो करक धर्मकी ग्वब प्रभावना करत हैं ! बिना छना पानी में चैनकी बंशी बजा रहे हैं ! कुछ समय हुश्रा एक समापीना तो अब बहुत मामूली बात होगई है, यहा तक कि चारपत्रम पढ़ा था कि एक शहरमे एक जैनीकी मृत्यु हुई, होटलाम जाकर महाअशुद्ध सोडा लमन इत्यादि झूठे बेचारा निर्धन था। शहग्मे इंदमो घरके जेनी, पर उसके गिलासांग पीनम भी जैनी भाई अग्नी शान ममझने लगे मृतक-संस्कारके लिए एक भी घरमे न निकला! तब दो हैं ! गतको स्वाना भी अब फैशनमें दाखिल होगया है ! नवयुवकोने उसे एक गाड़ीम डालकर उसकी मिट्टी ठिकाने
जो लोग पाँव तले चींटी दबजानेमे भी पाप समझने लगाई !! एक और स्थानमे एक बहुत गर्गव जैनीका हाल थे उनके लिए नर-हत्या तक कर डालना बाएँ हाथका इससे भी अधिक हृदय दहलाने वाला है। अग्वेि खराब खेल हो गया है ! पिछले कुछ वर्षोंम ऐसे लोगों पर कत्न हो जानेके कारण बेचाग बड़े कष्ठम था । वहाँके निकांसे के मकदमे चलना इसका प्रमाण है।
श्रॉग्बोका इलाज कराने के लिए ५०) रुपया उधार मॉगे, जो नैनसमाज नैतिक आचरणम श्रादर्श माना जाता जिससे प्रॉग्वें सुधर जाने पर कुछ काम धंधा कर सके; पर या उमका ऐमा घोर पतन हुआ है कि कई दुराचारी अपनी किसी जेनीको उम पर दया न बाई ! ईमात्यांने उम पर
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष५
-
तरस खाकर तुरन्त ईसाई धर्म में दीक्षित होनेकी शर्त पर यदि ऐसे निन्दनीय व्यवहार मुसलमान, सिक्ख या आर्यउसकी सहायता करना स्वीकार कर लिया। ये हैं, दया- समाजके साथ किये जाते तो क्या 7 लोग जैनसमाज धर्म पालने वालोकी करतूतोंके नमूने !!
के समान योही पानीके घुट पीकर शान्त हो जाते ? हर्गिज संगठनका तो जैनसमाजमें सर्वथा अभाव है, और नहीं । वे अातताइयोको उनकी कमीनी हर्कतोके लिये ऐसा यही एक प्रबल कारण है जिससे इसे अनेको बार सामा- मज़ा चम्बाते कि उन्हे छटीका दूध याद अाजाता और जिक और धार्मिक अपमान सहन करने पड़ते हैं। कहींस भविष्यमे फिर कभी ऐसी हरकते करने की हिम्मत ही न विधर्मियो-द्वाग जैनमन्दिरसे मूतिया उठा कर फेंक दिये करते। कारण स्पष्ट है । इन सम्प्रदायोम जीवन है, मंगजानेके समाचार पाते हैं, कहींसे विमान पर जूता फेके ठन है, अपने समाज और धर्म पर मर-मिटनेकी हविस जानेके, कही स्त्रियोकी बेइजती किये जानेके, तो कहीसे है; इसी लिए उनकी श्रोर कई उंगली उठानेका माहस पूज्य प्राचार्य महाराज पर अण्डे और पत्थर फेंके जाने के!! नही कर सकता। इसके विपरीत जैन समाज साहस-झीन, इम प्रकारके अत्याचारोका नपुंसक प्रतिकार जैन ममाज- दब्बू और कायर बन रहा है। यदि अब भी इसकी अाब्वे द्वारा एकाध प्रस्ताव पास करके तथा अधिकारियोको तार. नही खुलनी नो समयकी चलनी चक्कीमे पिस कर इसका चिट्ठी भेजने के रूपमे कर दिया जाना है। छट्टी हुई !!! कचमर निकल जायगा !!
मङ्गलाचरण पर मेरा अभिमत अनेकान्त वर्ष ५ के जुलाई-अगस्तके अंकमें प्रकाशित 'तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक लेख ४ बहुत दिलचस्पीके साथ एक बार नहीं, दो बार पढ़ा और साथमें अनेक प्रथों के साथ विचार भी किया।
पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने 'मोक्षमार्गस्य नेतारं' आदि श्लोकको पूज्यपाद स्वामीकी कृति बताने
वाली जो युक्तियां दीं, वे साधारण दृष्टिस काफी आकर्षक हैं, किन्तु न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीने उन ए युक्तियोंकी त्रुटियोंका समीचीनरूपमें साधार उद्भावन किया है।
मंगलाचरणके कर्तृत्वके बारेमें अनेक विद्वान दुल-मुल-यकीन तबियत वाले नजर आते थे, किन्तु इस लेखकी जोरदार तथा असर करने वाली दलीलोने साधार निश्चितमार्ग बता दिया कि वह मंगल ४ श्लोक भगवान उमास्वामीकी ही कृति है, और अन्यकी क्यों नहीं है।
यह विचार कर बड़ा आनंद होता है कि श्रीमान दानवीर पं० जुगलकिशोरजी मुख्नार जैसे अनुभवी, समाजसेवी विद्वानके संपर्कको पाकर अनेक विद्वान जैनधर्मकी आधुनिक युगकी जरूरतके अनुसार सेवा करनेके योग्य बनते जा रहे हैं। थोड़े ही समय में ऐसे सुन्दर सारपूर्ण तथा युक्ति-बहुल आकर्षक रचनाओंको करने की क्षमता पं० दरबारीलालजी में माननीय मुख्तार साहबके सुयोगसे प्राप्त हो गई और उसका उचित दिशासे अच्छा विकास हो रहा है, इससे तो यह विश्वास होता है, कि वीरसेवामदिरके द्वारा दि. जैन समाजको तथा विद्वन्मण्डलको अपूर्व लाभ होगा।
उस सुन्दर रचनाके लिये मैं लेखक-उनके सुयोग्य सहायक अनेकान्तके सम्पादकजीको हार्दिक धन्यवाक देता हैं।
__ सुमेरचंद्र दिवाकर, सिवनी १ मुख्तार माहबके लिए 'दानवीर' शब्दका मैंने जानबूझकर प्रयोग किया, क्योंकि वे इस पदके अत्यन्त उपयुक्त पात्र हैं. कारण उनने अपने जीवन भरी गाढ़ी कमाईको जिनवाणी माताक ! वामे लगा दी। दानवीरताका अर्थ देय द्रव्यकी विपुलतास ही समन्वय नहीं रखता है । द्रव्यका किस कार्यमे विनियोग किया जाता है, उसकी ओर लक्ष्य दिया जाना चाहिये । शास्त्रोमे अल्प किन्तु उपयुक्त दानके दाताओका महिमापूर्ण शब्दोमे स्मरण किया गया है। हम दृष्टिम मुख्तार मादबको दानवीर कहना अत्युक्ति नहीं है, ऐसी मेरी समझ है।
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
दीवाली और कवि [ पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लिन' ]
- - कविने कहा-'समस्या मेरी सुलझ न पाती, सोच रहा हूँ ! हे स्वतन्त्र लिखने में, फिर भी मन-ही-मन हा ! लोच रहा हूँ !! हाथ काँपता, भाव टूटते; क्या शब्दोंके जोड़ लगाऊँ ? दीवाली आई है, कैसे भावोंके मै दीप जलाऊँ ?
बाहर-भीतर इधर-उधर है सूखापन, सूना, अधियाला ! काला-काला भूत, भयङ्कर वर्तमान है, आने वालासमय विकट, संकटमय जीवन, कैसे कोमल प्राण बचाऊँ?'
दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ? लेखकसे पूछा-'कुछ लिक्खा, दीपमालिका जो आई है ?बोले-'कागजका दीवाला, सचमुच कंगाली छाई हे ! ४३४ कानूनी भझामें कैसे कागजके घोड़े, दौड़ाऊँ ? दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ?
उपदेशक-भजनीक बिचारा चिल्लाता है जोर-जोरसे'समय भयावह आता देखो ! दीख रहा है सभी ओरसे !! चिन्तित हैं सब लोग-देशके, रोतोको क्या और रुलाऊँ ?'
दीवाली आई है कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ? इष्ट-मित्र-समुदाय दुग्वी, इस मॅहगाईको कोस रहा है ! भार होरहा जीना-मरना, नहीं ठिकाने होश रहा है !! उचित मूल्यमे कहो कहाँ से आवश्यक सब चीज़ मॅगाऊँ ? दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ?
र्दशा, शेष क्लेश है, बीमागने मत्व निकाला ! बेकारीने दीन-देशमें कर डाला सर्वत्र दिवाला !! पराधीनतासे मुंह काला : क्या अन्तरको खोल दिखाऊँ ?
दीवाली आई है कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ? तेल नहीं, फल-फल नहीं हैं, नहीं यहाँ शुभ खील-पताशे ! खुल्लम-खुल्ला 'जूबा-मट्टा' दीवालीके खेल-तमाशे !!
दीवानोंकी दीवाली में क्यों कविताकी खाक उड़ाऊँ ? . दीवाली आई है, कैसे भावोंके मैं दीप जलाऊँ ?
.
1
.
1
।
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
साहित्य-परिचय और समालोचन
वन विश्ववाणीका जन-संस्कृति अंक-:लाहाबादसे वाट महितप्रथम खण्ड जीवाणका अन्तरमाव अल्प- पं० मुन्दाजकी मंरक्षना और पं० विश्वम्भरनाथ के बहुत्वानुगम नामक पंचम अश। मृनलम्बक, भगवान पुष्प- ममादकत्वम प्रकाशित होने वाली विश्ववाण का यह जैन । दन्त-भूतबलि । सम्पादक प्रो. हीरालाल जैन एम ए. मस्कृति अक दूसरे मंस्कृति अंकांके ममान ही प्रकाशित संस्कृताध्यापक किंग एडवर्ड कालेज, श्रमगवनी । प्रकाशक किया गया है । प्रस्तुत अंकमे एक विनाको छोरकर १८ श्रीमन्त मेठ लक्ष्मीचन्द्र सिताबराय जैन साहित्योद्वारकफण्ड गद्य लेख है जिनमेस क्तिने ही अच्छे पठनीय हैं, और कार्यालय, अमगवती। बड़ा मादन पृपुमंग्या मब मिलाकर कुछ माधारण भी हैं। श्वेताम्बरीय विद्वान पं० सुम्बलाल .४५८। मूल्य, सजिल्द प्रतिका १०), शाम्राकारका १२)। जीका 'जनमंस्कृतिका हृदय' शीर्षक लेख महत्वपूर्ण है।
इस पंचम भागम जीवस्थानके पाठ अनुयोगदागेमेमे दमम जैन-अजैन माहित्यके तुलनात्मक अध्ययन और अन्तके अन्तर-भाव और अल्म्बहुत्व ऐमें नीन अनुरोग- अन्वेषण द्वारा जैन, हिन्दू तथा बौद्ध मंस्कृतियोवा पहार द्वारीका गुगास्थान नथा मार्गणा स्थानाकी अपेक्षा कथन में एक दूसरे पर कब कितना और कैमें प्रभाव पड़ा और है। प्रस्तावनामे इन तीनो अनुयागदागंका मंक्षिप्त परिचय जैनमस्कृतिका आमतौर पर भारतीय संस्कृतियों पर क्या भी दिया है तथा १५ भक्शी द्वाग उनके विषयको और अमर हुअा, इमे स्पष्ट करके बतलाया गया है। महात्मा स्पष्ट कर दिया है। अन्नगनुयोगम मलमत्र में उपलब्ध होन भगवानदीन नीका 'जैनमंझन जगह जगह' नामक लेख भी वाले विशेष कथनाको टीकाकग्ने उदाहरणादि के माय अपने ढंगका अच्छा है। विश्ववाणीके विद्वान सम्पादककी खलासा करते हए कपनकी सापेक्षताको भी स्पष्ट कर दिया विविध-संस्कृत ग्रंक निकालनेकी यह योजना बड़ी अच्छी है। और कहीं कही सूत्रोका श्राशय व्यक्त करते हुए श्राचार्य है, इसम जनता एक दूमर की संस्कृतिकी कितनी हा विशेबोलो यांना सामानमनित पताका परिचय प्राप्त कर सकती है। अत: इसलिये समाधान भी दे दिया है। ग्रन्थके अध्ययनमे कि-न ही
सम्पादक महोदय धन्यवाद के पात्र हैं।
, विशेष कथनांकी जानकारी होती है। अनुवाद गरल तथा
३ भूगोलका द्वितीय महाममर परिचय-सम्पादक मूलानुगामी है और वह सम्पादकीय दृष्टिकोणके अनुसार
और प्रकाशक पं० गमनागयण मिश्र बी ए, भूगोल
कार्यालय, इलाहावाद । पृष्ठ मंख्या १५०, वार्षिक मूल्य निमे अबकी बार समालोच कोके अनुचित प्रहारको टालने के
३) ० विशेषाक का मूल्य १॥) रु.। लिये स्पष्ट कर दिया गया है, अन्छा ही हो रहा है। प्रस्ता
प्रस्तुत १५० पृष्ठोके. विशेषाकमे जो पांच खंडोम वनामे लम्बनऊ यूनिवमिटीके प्रोफेमर टाक्टर अवधेश
विभाजित है मन १६३६ में जन मन् १९४२ नककी सभी नारायणमिहके 'धवलाका गणितशास्त्र' नामके अंग्रेनी युद्ध मम्बन्धी घटनाग्रां पर प्रकाश डाला गया है जो पश्चिम लेविका हिन्दी अनुवाद भी २६ प्रोम दे दिया है, जिमसे योरुप. मम-जर्मनी, अफ्रीका, मीग्यिा, इनक, ईगन, अटहिन्दीके अभ्यामी भी अब उममे मचित लाभ उठा सकन लाटिक महामागर और प्रशंनिमागरके युद्धम और भारतम है। इसके मिवाय कनाड़ी प्रशनि और शंका ममाधान भी कृम-चागकाईशेकके आगमन सम्बन्ध आदिमें घटित हुई। दिया गया है साथ ही विस्तृत विषय-मची भी लगाई गई हैं । माथ ही ६० नक्शे देकर विषयको और भी सरल एवं है, जिसमें ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयका मजदीम परिचय हो पठनीय बना दिया है। इसके सिवा लेखामे सम्बंधित व्यक्तियों जाता है। ग्रन्यके अन्नमे ५ पांगशष्ट लगे हैं जिनसे उक्त के चित्र भी दिये गये हैं। प्रस्तुत अंक भूगोलके विद्यार्थियों खण्डकी उपयोगिता अधिक घट गई है। रम नरह यह नया वर्तमान युद्धका भूगोलिक स्थितिके साथ ठीक परिचय भाग भी पहले भागोंके समान ही उपयोगी एवं मग्रहणीय पानेके इच्छुकांके लिये बड़े कामका तथा विशेष उपयोगी बनाया गया है जिसके लिये विद्वान सम्पादक महोदय है और हर तरहसे संग्रहणीय है। विद्वान् सम्पादक हम धन्यवादके पात्र है।
योजनाके लिये धन्यवादके पात्र है। -परमानंद जैन शात्री
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वायंभु
(ले०-श्री पं० नाथूरामजी प्रेम। )
XXXX
4X
न विद्वानोंने लोकरुचि और लोकमाहिन्य . स्वय स्वयंभुने अपने पउमचरिउ, रिढणे मिचरित कम की कमी उपेक्षा नहीं की। जनसाधारण (हरिवमुपुराणु) और स्वयंभु-छन्द इन तीनों प्रन्थोंमे कहीं
के निकट तक पहुँचने और उनमें अपने भी 'चतुर्मुख स्वयंभु' नामसे अपना उल्लेख नहीं किया है
विचारोंका प्रचार करनेके लिये वे लोक- सर्वत्र ही स्वयंभ लिखा है और स्वयभके पुत्र त्रिभवन ने xभाषाका प्राश्रय लनेसे भी कभी नहीं भी अपने पिताका नाम स्वयंभु या स्वयभुदेव ही लिखा है।
. चूके। यही कारण है जो उन्होंने सभी २ महाकवि पुष्पदन्तने अपने महापुराण में जहां अपने प्रान्तोंकी भाषायोको अपनी रचनायोमे समृद्ध किया है। पूर्वके अनेक ग्रन्थकर्ताश्री और कवियोका उल्लेख किया है अपभ्रंश भाषा किसी समय द्रविद प्रान्तो और कर्नाटकको वहाँ वे 'चउमुहु' और 'सयंभु' का अलग अलग प्रथमा छोड़कर प्रायः मारे भारतमे थोडे बहुत हेर-फेरके साथ एकवचनान्त पद देकर ही स्मरण करते हैंसमझी जाती थी। श्रतएव इस भाषामे भी जैन कवि
च उमुहु सयभु सिरिहरिसु दोगु, विशाल-साहित्य निर्माण कर गये हैं।
रणालाइउ कइईसाणु बाणु । १-५ धक्कहकुलके पं० हरिषेण ने अपनी 'धम्मपरिक्खा' में
अर्थात न मैंने चतुर्मुख, स्वयंभ श्रीहर्ष और द्रोणका अपभ्रंश भाषाके तीन महाकवियोकी प्रशंसा की है। उनमें
अवलोकन किया, और न कवि ईशान और वाणका । सबसे पहले चउमुहु या चतुर्मुख हैं जिनकी अभी तक कोई
महापुराणका प्राचीन टिप्पणकार भी इन शब्दोंपर जुदा रचना उपलब्ध नहीं हुई है, दूसरे हैं स्वयंभुदेव जिनकी
जुदा टिप्पण देखकर उन्हें पृथक् कवि बतलाता है। "चउ. चर्चा इस लेख की जायगी और तीसरे हैं पुष्पदन्त जिनके
मुह कश्चिकविः । स्वयभु-पद्धडीबद्धरामायणकर्ता प्रायः सभी ग्रन्थ प्रकाशमे आ गए हैं और जिनसे हम
श्रापलीसंघीयः।" परिचित भी हो चुके हैं। पुष्पदन्तने चनुर्मुख और स्वयंभु दोनोंका स्मरण किया
३ पुष्पदन्तने भागे ६६ वी सन्धिमे भी गमायणका है, और स्वयंभुनं चतुर्मुखी स्तुति की है अर्थात चतुर्मुग्व
प्रारंभ करते हुए सयभु और चउमुहुका अलग अलग स्वयंभुसे भी पहलेके कवि हैं।
उल्लेख किया है।
४ पं० हरिषेण · ने अपने 'धम्मपरिक्खा' नामक चतुर्मुख और स्वयंभु
२ महाकवि बाणने अपने हर्षचरितम भापा-कवि ईशान प्रो. मधुसूदन मोदीने चतुर्मुख और स्न्यभुकोन जाने। कैसे एक ही कवि समझ लिया है। वास्तवमें ये दोनों
और प्राकृत-कवि वायुविकारका उल्लेख किया है। देग्यो,
श्री गधाकुमद मकर्जीका श्रीहर्ष, पृ० १५८ । जुदा जुदा कवि हैं। इसमें सन्देहकी जरा भी गुंजाइश
३ कइराउ मयंभु महायरिउ, सी मयणमहामहिं परियरिउ । नही है। क्योंकि
चउमहह चयारि मुहाई जहि, सुक इत्तणु मीसउ काई नहि।। १ देखो, भारतीय विद्या ( अङ्क र अोर ३, मार्च और __ अर्थात् कविगज स्वयंभु महान प्राचार्य हैं, उनके
अगस्त १६४० ) में प्रो. मोदीना 'अपभ्रंश कविश्रो : सहस्रो स्वजन हैं; और चतुमुखके तो चार मुग्व हैं, चतुमुख स्वयंभु अने त्रिभुवन स्वयंभु' शीर्षक गुजराती उनके आगे मुकवित्व क्या कहा जाय ? लेग्व ।
४ पं० हरिपेण धक्कड़कुल के थे। उनके गुरुका नाम मिद्ध
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
६८
अनेकान्त
[वर्ष ५
अपभ्रंश काव्यमे, जो वि० सं० १०४० की रचना है, सकते । इसी तरह जलक्रीडा-वर्णनमे स्वयंभुको, गोग्रहचतुर्मुख, स्वयभु और पुष्पदन्त इन तीनों कवियोकी स्तुति कथामें चतुर्मुखदेवको और मस्यवेधमे भद्को आज भी की है और तीनकी संख्या देकर तीनों के लिये जुदा जुदा कविजन नहीं पा सकते। विशेषण दिये है।
इन उद्धरणोमे बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि चतु हरिवंशपुराणमे स्वयंभु कवि स्वयं कहते हैं कि पिंगलने मुंबदेव स्वयंभुमे पृथक् और उनके पूर्ववर्ती कवि हैं जिनकी छन्दप्रस्तार भामह और दंडीने अलकार, बाणने अक्षरा- रचनामें शब्द-मौन्दर्य विशेष है और जिन्होने अपने हरिडम्बर, श्रीहर्पने निपुण व और चतुर्मुग्वने छर्दनिका, द्विपदी और वंशमे गोग्रह-कथा बहुत ही बढ़िया लिखी है। ध्र वर्कोसे जटित पद्धड़िया दिया-"छदाणिय-दुवड-धुवपहिं अपने स्वयंभु-छन्दमें स्वयं ने पहलेके अनेक जडिय, चउगुहेण समप्पिय पद्धदिय ।" इससे चतुमुम्ब
कवियोंके पथ उदाहण स्वरूप दिये हैं और उनमें चतुमुम्ब निश्चय ही स्वयंभुसे जुदा हैं जिनके पद्धडिया काव्य (हरि
या काव्य ( हार के 'जहा चउमुहस्प' कहकर ५-६ पद्य उद्धत किये हैं। वंश-पद्मपुराण ) उन्हें प्राप्त थे ।
इसमे भी चतुमुखका पृथकन्च सिद्ध होता है। ६ इसी तरह कवि स्वयंभु अपने पउमा उमें भी
'करकंडुचरिउ' के कर्ता कनकामर (कनकदेव) ने चतुर्मुखको जुदा बतलाते हैं। वे कहते हैं कि चतुर्मुखके
स्वयंभ और पुष्पदन्त दो अपभ्रंश कवियोका उल्लेख किया शब्द और दंति और भद्रके अर्थ मनोहर होते हैं, परन्तु
है, परन्तु स्वयंभुको केवल 'स्वयंभ' लिखा है, 'चतुर्मुम्ब स्वयंभु काव्यमें शब्द और अर्थ दोनो सुन्दर है, तब शेष
स्वयंभ' नहीं।' कविजन क्या करें ?
पउमचरिउमें पंचमि चरिश्र' के विषयमे लिम्बा हैमागे चलकर फिर कहा है कि चतुर्मुखदेवके शब्दोंको, चउमुहमयंभुवागण वाणियत्थं अचक्खमाणेण । स्वयंभुदेवकी मनोहर जिह्वा (वाणी') को और भद्र तिहुअणसयंभु रइयं पंचामचरित्रं महच्छरिअं॥ कवि गोग्रहणको आज भी अन्य कवि नही पा इमके 'चउमुहमयंभुवाण' (चतुर्मुग्यस्वयभुदेवान म् )
सेन था। चित्तोड (मवाइ ) को छोड़ जब वे किमी पदमे चतुर्मुग्व और स्वयभु जुदा जुदा दो कवि ही प्रक्ट काममे अचलपर गये थे, तब वहा उदने धम्मपरिक्वा स्वयंभु-छन्दम च उमुहु के नी पद्य उदाहरणस्वरुप उद्धृत बनाई यां।
किये हैं, उनमें ४-२, ६-८३, ८६ १५२ उद्योम मालूम १ चउमह कव्वविश्यण मयंभु वि, पफ्फयंतु अएगणारा गिामुंगिवि होना है कि उनका पउमचरिउभा अवश्य रहा होगा। तिएण विजोग्ग जेण न सीमइ, चउमुहमुह थिय ताममरामइ काकि उनमें राम-कथाक प्रमंग हैं । सा मयंभुमो देउ पहाणउ, अह कह लोयालोयवियाण उ।
४-५ पउमचरिउके प्रार्गमक अंशके पद्य न० ३-४ । पष्फयंतु ण विमाणुमु वुच्चइ, गोसम्महाए कया विण मच्चः ।।
६ मंभव है 'पउमरि' के ये प्रार्गम्भक पदा स्वयं स्वय २ देखा 'पउमचरि 3' के प्रागंभक अंशका दूमग पद्य । ३ भद्र अपभ्रंशके ही कवि मालूम होते हैं । उनका कोई
के रचे हुए न हो, उनके पुत्र त्रिभुवन के हा, फिर भी महाभारत या हाग्वंश होगा जिसके अन्तर्गत 'गोग्रह- इनम चतुम व भार स्वयमुका पृथक्च मद्व हाता है। कथा' थी। क्योंकि अपभ्रंश-कवि धवलने भी अपने हरि- ७ जयाएव मयंभु विमालचिन, वागमग्घिा मिरिपफयतु । वंशपुराणम चतुमुखकी 'हरिपाण्डवाना कथा' का उल्लेग्ब ८ ग्विंशपगण और पद्मपुराण के ममान 'पचम-कहा' भी किया है
जैनोकी बहुत ही लोकप्रिय कथा है। मस्कृत और अपहरिपड्वाण कहा च उमुहवामहि भासियं जम्हा ।
भ्रशके प्रायः सभी प्रसिद्ध कवियाने इन तीन कथानाको तह विग्यमि लोयपिया जेण ण यासेइ दंसण पउरं ।। अग्ने अपने ढगसे लिखा है। महापुराण (इममे पद्मइसमे च उमुहवामहि ( चतुर्मुग्वव्यास:) पद श्लिष्ट है। चरित और हरिवंश दोनो है) के अतिरिक्त पुष्पदन्तक
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८६]
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
२६८
: होते हैं। क्योंकि यह पद एकवचनान्त नही, बहुवचनान्त वन स्वयंभुको ही हम जानते हैं । उक्त दो पत्नियोमेसे ये है। (द्विवचन अपभ्रंशमे होता नहीं।)
किसके पुत्र थे, इसका कोई उल्लेख नहीं मिला। संभव है ___इन सब प्रमाणीके होते हुए चनुर्मुग्व और स्वयंभुको कि पूर्वोक्त दोके सिवाय कोई तीसरी ही उनकी माता हो। एक नही माना जा सकता। प्रो. एच. डी. वेलणकर नीचे लिखे श्लिष्ट पद्यसे अनुमान होता है कि त्रिभुवन और प्रो. हीरालाल जैनने भी चतुर्मुखको स्वयंभुसे पृथक् स्वयंभुकी माता और स्वयंभुदेवकी तृतीय पानीका नाम और उनका पूर्ववर्ती माना है।
शायद 'सुअब्बा' होस्वयंभुदेव अपभ्रशभाषाके प्राचार्य भी थे । भागे सत्यवि सुआपंजरसुअव्व पढि अक्खराइं सिक्खति। बतलाया गया है कि अपभ्रशका छन्दशास और व्याकरण कइराअस्म सुप्रो सुअव-मुइ-गब्भमभूओ।। शास्त्र भी उन्होंने निर्माण किया था। छन्दच्दामणि विजय- अपभ्र शमे सुन शब्दमे सुत (पुत्र) और शुक शेपित या जयपरिशंप और कवि जि-धवल उनके विरून थे। (मुअ-तोता) दोनोंका ही बोध होता है। इस पद्यमें कहा
उनके पिताका नाम मारुतदेव और माताका पधिनी है कि मारे ही मुत पीजरेके सुबोके समान पड़े हुए ही था । मारुतदेव भी कवि थे । स्वयंभु-छन्दमे 'तहा य मा- अक्षर सीखते हैं, परन्तु कविराजका सुत (त्रिभुवन ) श्रत उरदेवस्म' कहकर उनका एक दोहा उदाहरणस्वरूप दिया इव श्रुतिगभभूत है। अर्थात् जिस तरह श्रुति (वेद) गया है' । स्वयंभु गृहस्थ थे, साधु या मुनि नहीं, जैसाकि से शास्त्र उत्पन्न हुप उमी तरह दूसरे पक्षमे त्रिभुवन सुनउनके ग्रंथोंकी कुछ प्रतियोम लिबा मिलता है। ऐसा जान व्वसुइगम्भसंभूत्र है, अर्थात् मुअब्बाके शुचिगर्भसे उत्पन्न पड़ता है कि उनकी कई पत्नियां थी जिनमेसे दोका नाम पउमचरिउमें मिलता है-एक नो प्राइच्चबा' (आदि
- कविराज स्वयंभु शरीरमे बहुत पतले और ऊँचे थे। न्याम्बा) जिसने अयोध्याकाण्ड और दूसरी सामिअब्बा,
उनकी नाक चपटी और दांत विरल थे। जिसने विद्याधरकाण्ड लिग्वाया था। संभवत: ये दोनों ही
स्वयंभुदेवने अपने वंश गोत्र श्रादिका कोई उल्लेख मुशिक्षिता थी।
नही किया। इसी तरह अन्य जैन ग्रंथकर्ताओंके समान
अपने गुरु या सम्प्रदायकी भी कोई चर्चा नहीं की। परन्तु स्वयभुदेवके अनेक पुत्र थे जिममेमे सबसे छोटे त्रिभु
पुष्पदन्तके महापुराणके टिप्पणमे उन्हें पापुलीमघीय बत. पंचमी-कथा ( गायकुमार चरिउ ) हे दी. मालपेणके भी
लाया है। इस लिए चे यापनीय सम्प्रदायके अनुयायी
, महापगण और नागकुमारचरित है । इमी नरह चनुमुख
जान एडते हैं। पर उन्होंने पउमचरिउके प्रारम्भमे लिखा श्रीर स्वयं के उक्त तीनो कथानकापर ग्रंथ हने चाहिए। है कि यह राम-कथा वर्द्धमान भगवानके मुख कुहम्मे वि. म्वयमुक दाना उपलब्ध ही है. अरि पचमाचारतका निर्गन होकर इन्द्रभूति गणधर और मुधर्मास्वामी श्रादिके उक्त पद्यम उल्लख किया गया है । त्रिभुवन स्वयं भुन द्वारा चली आई है और रविपेणाचार्यके प्रसादसे मुझे प्राप्त अपने पिता ताना ग्रन्थाको मैंभाला है । अर्थात् उनमे हई है। तब क्या रविषेण भी यापनीय मंघके थे? कुछ अंश अग्नी तरफम जोड़कर पूरा किया है।
स्वयभुदेव पहले धनंजयके आश्रित रहं जबकि उन्होंने धनगलका पंचमी कथा' प्रकाशिनाचुकी है। पउमचरिउकी रचना की और पीछे धवलइयाके जब कि १ स्वयंभू छन्दका इट्रोडक्शन पेज ७१-७४, गयल एशिया- रिठ्ठणे मिचरिउ बनाया । इसलिए उन्होंने पहले ग्रंथ
टिक मामाइटी बबईका जनन, जिल्द २, १६३५ में धनजयका और दूसरेमे धवलइयाका प्रत्येक सन्धिके २ नागपुर यूनीवर्सिटीका जर्नल, दिमम्बर. १६३५ । अंतमे उल्लेख किया है। ३ लहउ मिन भमंतण ग्णाअग्चदेण ।
६ अहतगुण्ण पईहरगनं, छिब्बग्गाम पविग्लनं । सो मिजंत मिजद वि नह भरइ भतरण || ४-६
७ मयंभु पद्वडीबद्वकर्मा भारलीमधीयः । --म० ए० पृ०६। ४-५ देखो पउमचरिउ सन्धि ४२ श्रार २० के पद्य । ८ देखो मधि १, कडवक २।
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
३००
अनेकान्त
[वर्ष ५
त्रिभुवन स्वयंभु
कवि कहाँके थे? स्वयंभुदेवके छोटे पुत्रका नाम त्रिभुवन स्वयंभु था।
अपने ग्रन्थों में इन दोनों कवियोंने न तो स्थानका नाम ये अपने पिताक सुयोग्य पुत्र थे और उन्हींके समान महा- दिया है, न अपने समयके किसी राजा श्रादिका जिससे यह कवि भी। कविराज-चक्रवर्ती उनका विरुद था। लिखा है पता लग सके कि वे कहाँके रहनेवाले थे। अनुमानसे इतना ही कि उस निभवनस्वयमुके गुणों का वर्णन कौन कर सकता है
कहा जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे और बहुत करके जिसने वाल्यावस्थामे ही अपने पिताके काव्य-भारको उठा
पुष्पदन्तके ही समान बरारकी तरफके होंगे यद्यपि मारुतदेव, लिया। यदि वह न होता तो स्वयंभ देवके काव्या, धवलइया, बंदइया, नाग, पाइरचंबा, सामिश्रब्बा, आदि कुलका और कवित्वका समुद्धार कौन करता ? और सब
नाम कर्नाटक जैसे हैं और ऐसे ही कुछ नाम अन्मइय, लोग तो अपने पिताके धनका उत्तराधिकार ग्रहण करते हैं. मीलइय, पुष्पदन्तके परिचित जनों के भी हैं। परन्तु त्रिभुवन स्वयभ ने अपने पिताके सुकविश्वका उत्तरा
ग्रन्थ-रचना धिकार लिया। उसे छोड़कर स्वयंभ के समस्त शिष्योंमें महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभुके दो सम्पूर्ण ऐसा कौन था जो उनके काव्य-समुद्रको पार करता ' और संयुक ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, एक पउमचरिंग' व्याकरणरूप हैं मजबूत कन्धे जिसके, श्रागोंके अंगोंकी (पद्मचरित) या रामायण और दूसरा रिटणेमिचरिउ' उपमा वाले हैं विकट पद जिसके, ऐसे त्रिभ वनस्वयंभु रूप (अरिष्टनेमिचरित) या हरिवंशपुगण । तीसरा ग्रन्थ पंचमिधवल (वृषभ) ने जिन-तीर्थमें काव्यका भार वहन चरिउ (नागकुमारचरित) है जिसका उल्लेख तो किया गया किया" । इससे मालूम होता है कि त्रिभ वन भी वैयाकरण है परन्तु जो अभी तक कही उपलब्ध नही हुश्रा। और पागमादिके ज्ञाता थे।
__ये तीनों ही ग्रन्थ स्वयंभु देवके बनाये हुए हैं और जिस तरह स्वयंभ देव धनंजय और धवलइयाके तीनों को ही उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभुने पूरा किया है । आश्रित थे उसी तरह त्रिभ वन बंदइयाके । ऐसा मालूम परन्तु उस तरह नहीं जिस तरह महाकवि बाणकी अधुरी होता है कि ये तीनों ही पाश्रयदाता किसी एक ही राज- कादम्बरीको उनके पुत्रने, वीरसेनकी अपूर्ण जयधवला मान्य या धनी कुलके थे-धनंजयके उत्तराधिकारी टीकाको उनके शिष्य जिनमेनने और जिनमेनके श्रादि पुराण (संभवत: पुत्र) धवलइया और धवलइयाके उत्तराधिकारी को उनके शिष्य गुणभद्रगने पूरा किया था। पिता या गुरुकी बंदइया। एकके देहान्त होनेपर दूसरेके और दूसरेके बाद अधूरी रचनाअोके पुत्र या शिष्यद्वारा पूरे किये जानेके अनेक तीसरेके आश्रयमे ये आये होंगे।
उदाहरण हैं, परन्तु यह उदाहरण उन सबसे निराला है। बन्दइयाके प्रथम पुत्र गोविन्दका भी त्रिभु वन स्वयंभु कविराज स्वयंभुदेवने तो अपनी समझसे ये ग्रन्थ पूरे ही ने उल्लेख किया है जिसके वात्सल्य भावसे पउमचरियके शेष रचे थे परन्तु उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयभुको उनमे कुछ के सात सर्ग रचे गये ।
८-६ ये दोनो ग्रन्थ भाण्डारकर इस्टिटयूट पृनेमे हैं-नं. बन्दहयाके साथ पउमचरिउके अन्त में त्रिभुवन
११२० श्राफ १८६४-६७ और १११७ श्राफ १८६१स्वयंभ ने नाग और श्रीपाल प्रादि भव्य जनोंको भी श्राशी
६५ । पउमरियकी एक प्रति कृपा करके प्रो० हीगलाल र्वाद दिया है कि उन्हे प्रारोग्य, समृद्धि और शान्ति-सुख
जी जैनने भी मेरे पास भेज दी है जो मागानेरके गोदीका प्राप्त हो ।
के मन्दिर की है। यद्यपि उमके हामियेपर मंवत् १७७५ १-२-३-४ पउमचरि उके अन्तिम अंशके पद्य ३,७,६,१० । लिग्वा हुआ है, परन्तु वह किमी दूसरेके हाथका है। ५ अन्तिम अंशका चौथा पद्य । ६ अन्तिम अंशका प्रति उससे भी पुरानी है । हरिवंशकी एक प्रति बम्बई के १५ नो पद्य ।
ऐ० पन्नालाल सरस्वती-भवनम में है। इस रोखमे उक्त ७ अन्तिम अंशका १६ वो पद्य ।
सब प्रतियोंका उपयोग किया गया है।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
कमी महसूस हुई और उस कमीको उन्होंने अपनी तरफ कई नये नये सर्ग जोड़कर पूरा किया।
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभु
जिस तरह महाकवि पुष्पदन्तके यशोधरचरितमे राजा और कीलका प्रसंग, यशोधरका विवाद और भवान्तका दर्शन नहीं था और इस कमीको महसूस करके बीलसह नामक धनीके कहने मे गन्धर्व कविने उक्त तीन प्रकरण अपनी तरफ़ से बनाकर यशोधरचरितमे जोड दिये थे । कविराज चक्रवर्तीने भी उक्त तीनों ग्रन्थोंकी पूर्ति लगभग उसी तरह की है । अन्तर सिर्फ इतना ही है कि गन्धर्वने उक्त प्रयत्न पुष्पदन्नामे लगभग साढ़े तीन सौ वर्ष बाद किया था, परन्तु त्रिभुवन स्वयंभु पिताके देहान्त बाद कल ही
१- पउमचरिउ
यह ग्रन्थ १२ हजार श्लोकप्रमाण है और इसमें सब मिलाकर ६० - विद्याधरकार में २०, अयोध्या काण्ड मे २२, सुन्दरकाण्ड में १४, युद्धका २१ र उत्तरकाण्ड में १३२ इनमे ८३ सन्धियों स्वयंभुदेवकी श्रौर शेष ७ त्रिभुवन स्वयंभुकी हैं। ८३ वीं सन्धिके अन्तकी पुष्पिकामें भी यद्यपि त्रिभुवन स्वयंभुका नाम है, इस लिए स्वयंभूदेवकी रची हुई ८२ ही सन्धियों होनी चाहिएँ परन्तु ग्रंथान्तमेत्रिभुवनने अपनी रामकथा-कन्याको सप्तमहामगंगी या सातसवाली कहा है, इसलिए ८४ से ६० तक सात सन्धियों ही उनकी बनाई जान पडती हैं। संभव है ८३ वी सन्धिका अपनी आगेकी ८ वी सन्धिसे ठीक सन्दर्भ बिठाने के लिए उसमे भी उन्हें कुछ कढवक जोडने पढे हों और इसलिए उपकी पुष्पिकामे भी अपना नाम दे दिया हो ।
२ रिमिचरिउ
यह हरिवंसपुराण नामसे प्रसिद्ध है । श्रठारह हज़ार ओकमाया है और इसमें ११२ मन्धियाँ हैं। इसमें तीन काण्ड हैं-- यादव, कुरु और युद्ध । यादवमे १३. कुरुमे १६
१ देवो महाकवि पुष्पदन्त' शीर्षक लेख, पृ० ३३१-३१ । २ देखो पउमचरिउके श्रन्तके । ३-४ अपभ्रंश काव्य में मर्गकी जगह प्रायः 'सन्धि'का व्यवहार किया जाता है। प्रत्येक अनेक कड़क होते हैं
३०१
युद्ध में ६० सन्धियों हैं। सन्धियोंकी यह गणना युद्धकांड के अन्तमें दी हुई है और यह भी बतलाया है कि प्रत्येक काण्ड कब लिखा गया और उसकी रचना में कितना समय लगा"। इससे इन १२ सन्धियोंके कर्तृवके विषय में को कोई शंका ही नहीं हो सकती ये तो निक निश्चयपूर्वक स्वयंभुदेवकी बनाई हुई हैं।
श्रागे ६३ से ६६ तककी सन्धियोंकी पुष्पिकाओं में भी स्वयभदे का नाम है और फिर उसके बाद १०० वीं सन्धि अन्त मे त्रिभुवन स्वयंभुका नाम है। इसका श्रर्थ यह हुआ कि ६३ से ६६ तककी सन्धियाँ भी स्वयंभुदेवकी हैं और इस तरह उनका रचा हुआ रिमिचरिय ६६ व सन्धिपर समाप्त होता है। इस सन्धिके अन्त में एक पथ है जिसमें कहा है कि पारित बनाकर
अब मैं हरिवंशकी रचना में प्रवृत्त होता हूँ, सरस्वतीदेवी मुझे स्थिरता देवें। निय ही यह पत्रिभुवन स्वयंम् का लिखा हुआ है और इसमें वे कहते हैं कि पटमचरि की अर्थात उसके शेष भागकी रचना तो मैं कर चुका, उस के बाद अब मैं हरिवंशमे अर्थात उसके भी शेषमें हाथ लगाता हूँ । यदि इस पद्यको हम त्रिभुवनका न माने तो फिर इस स्थानमें इसकी कोई सार्थकता ही नहीं रह जाती।
और एक कड़वक ग्राठ यमकका तथा एक यमक दो होता है पद दिन पइडिया दोनो १६ मात्रायें होती हैं । ग्राचार्य हेमचन्द्र के अनुसार चार पड़ियां यानी आठ पंक्तियाका कड़क होता है । हर एक कवक अन्त में एक घना या अवक होता है। स्वयंको ६२ मन्धियों समाप्त करनेन छह वर्ष तीन महीने और ग्यारह दिन लगे। फाल्गुन नक्षत्र तृतीया तिथि, बुधवार और शिव नामक योग से युद्धकाण्ड समाम हुआ और भाद्रपद दशमी, रविवार और मूल नक्षत्रमं उत्तरकाण्ड प्रारंभ किया गया।
६ राम लक्ष्मण श्रादि बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रत के नीर्थम हुन त माना जाता है। मनिन चरित की ही संक्षेप 'मुव्ययचरिय' कहा है। मुव्वयचरियको मुडयचरिय ग़लत रहा गया है 1
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०२
अनेकान्त
[वर्ष
हरिवंशकी ११ सन्धियों बना चुकनेपर स्वयंभव यह कैसे करना कठिन है। कह सकते हैं कि पउमचरिउ बनाकर अब मै हरिवंश बना- बहुत कुछ सोच विचारके बाद हम इस निर्णयपर ता हूं? अतएव उक्त पद्यसे यह स्पष्ट हो जाता है कि पहुचे हैं कि मुनि जमकित्तिको इस प्रकी कोई सी जीर्णस्वयंभवी रचना इस ग्रन्थमे ११ वी मन्धिके अन्त तक है। शीर्ण प्रति मिली थी जिसके मन्तिम पत्र नष्ट भ्रष्ट थे और
इसके प्रागेका भाग, १०० से ११२ तककी सन्धियों, शायद अन्य प्रतियाँ दुर्लभ थी, इसलिए उन्होने गोपगिरि त्रिभुवनस्वयंभुकी बनाई हुई हैं और इसकी पुष्टि इस (ग्वालियर) के समीप कुमरनगरीके जैनमन्दिरमे व्याख्यान बातसे होती है कि अन्तिम सन्धि तककी पुष्पिकायाम करनेके लिए इसे ठीक किया, अथान जहाँ जहाँ जितना निभवन स्वयभका नाम दिया हुवा है। परन्तु इन तेरह जितना अंश पढ़ा नही गया, या नष्ट हो गया था, उसको सन्धियोंमसे १०६, १०८, १५० और ११७ वी सन्धिके स्वयं रचकर जोर दिया और जहाँ जहों जोड़ा वहीं वहाँ पोंमें मुनि जमकित्तिका भी नाम आता है और इससे एक अपने परिश्रमके एवज में अपना नाम भी जोड दिया। बही भारी उलझन वढी हो जाती है। इसमें नो सन्देह १०६ वी सन्धिके अन्तम वे लिखते हैं कि जिनके नही कि इस अन्तिम अंशमे नुनि जमकित्तिका' भी कुछ मनमे पर्वोके उहार करनेका ही राग था, (पर्वसमुद्वरणरागहाथ है. परन्तु वह कितना है इसका ठीक ठीक निर्णय कमनमा) एसे जमकित्ति जनिने कविराजके शेष भागका १ मनि नकित्ति या यश:कानि वाठासंघ-मायुगन्वय पाकर
प्रकृत अर्थ कहा और फिर अपने इस कार्यका औचित्य गण के भट्टारक थं श्रोर गोपाचल या ग्वालियरकी गहार बतलाते हुए वे कहते हैं कि संसारमे वे ही जीते हैं, उन्हीका आसीन थे। उनके गुरुका नाम गुणकति या । उनके
के जीवन सार्थक है, जो पराये बिहडित (बिगडे हुए या दो अपभ्रंश-अन्य भिलन हैं एक हरिवमप्राणु ओर मग विश्वल हुए) काव्य कुल और धनका उद्धार करते हैं। चंदष्पहचरिउ । पहला ग्रन्थ जनमिद्वान्तभवन आगम है।
ही पिछली दो मन्धियोकी रचना और भाषापरसे ऐसा भास्कर (भाग ८, किरण १) में उसके जो बहुत ही मालूम होता है कि उनमें जमकित्तिका कुछ अधिक हाय अशुद्ध अंश उदघृत किये गये है उनसे मालूम होता है है। जस कित्ति इम ग्रन्थके कर्तासे ६-७ सौ वर्ष बानके कि दिवढा माह के लिये उसकी रचना की गई थी।--- लेखक हैं, उनकी भाषा इस ग्रन्थकी भाषाके मुकाबिलेमें "इय हग्विंसपगण कुरुवंमाहिटिए विवचित्तागुरंजण अवश्य पहिचानी जा सकती है और हमारा विश्वास है कि मिारगुणकित्तिमा मांगजमकित्तिविग्हाए माहु-दिवढाना- अपभ्रंश भाषाके विशेषज्ञ परिश्रम करके इस बातका पता मंकित नेरहमी मगा मम्मत्त।।" और पिछला ग्रन्थ लगा सकते हैं कि इस ग्रन्थकी पिछली सन्धियोम जमफवनगरके जैनन्दिरके भवाग्म है। नमक अन्नम कित्सिकी रचना कितनी है । हमे यह भी आशा है कि लिग्वा है-"इय मिरिचंदापहचाशा महाक जमवित्ति- हरिवंशकी शायद ऐसी प्रति भी मिल जाय जो स्वयंभ विरहए महामविमिद्धपालमवणभूमणे मारचंद गहमामि- और त्रिभुवन स्वयंभुकी ही सम्पूर्ण रचना हो और उसमें णिवाणगमगो गामाएयाग्इमो मधी मम्मत्ता ।" यह जमकित्तिके लगाये हुए पेबन्द न हो। प्रति श्रावण बी १, शनि, सवन १५६८ की रिवी हुई एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि जसवित्तिका है। जकिति तोमवंशी गना की िसिटके समयम खुदमा भी बनाया हुआ एक हरिवंशपुराण है और वह विक्रमकी सोलहवी शताब्दि के प्रारम्भम हुए है । नेन- अपभ्रशभाषाका ही है। इसलिए उनके लिए यह कार्य सिद्धान्त भवन श्रागम जानार्गवकी एक प्रति है जो अत्यन्त मुगम था और क्या प्राश्चर्य जो उन उन अंशोंके मंधत् १५२१ भाषाट सुदी ६ ममबारका गोपाचल दुर्गम स्थानपर जो त्रिभ वन स्वयंभु के हरिवंशपुराण मे नष्ट हो तोमरवंशी राजा कीतिमिहक राज्यम लिम्वी गई थी। गये थे अपने उक्त हरिवंशकेही अंश काट-छांटकर जड इसम गुणकीर्ति और यश:ति के बाद उनके शिव दिये हो। इसका निर्णय जसकित्तिका ग्रंथ सामने रखने मलय कीर्ति और प्रशय गुगा मद्र भट्टारकके भी नाम हैं। से हो सकता है।
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण -६]
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्पयंभु
३०३
३--पंचमीचरिउ
अंश स्वयंभदेवका है और शेप और त्रिभवनका । दर्भान्यये अभी तक इस ग्रंथकी कोई प्रत उपल्लव स होता है कि पिता यांद दोनोको अधूरा ही छोड़ता तो नहीं हुई है। परन्तु पउमरियमे लिया है कि यदि स्वयम इतने थोडे थोडे ही अंश क्यों छोड़ता वक पुत्र त्रिभुवन न होते तो उनक' पहाडयाबह पंचमी ५ त्रिभवन स्वयम अपने ग्रन्थ शोंको 'सेस' 'मयभ. चरितको कौन संवारता' इससे मालूम होता है कि स्वयंभु देव-उपरिम' और 'तिहअणसयंभममाणि' विशेषण देवका पंचमीचरित नामका ग्रंथ भी अवश्य था और उसे देते हैं। शेषका स्थं स्पष्ट है। प्राचार्य हेमचन्द्रकी नामभी उनके पुत्रने शायद पूर्वोक्त दो ग्रंथों के ही समान बारा
मालाकं अनुसार 'उज्वार' का अर्थ 'अधिकं अनीप्सित' था--बढ़ाया था।
होना है। अर्थात, स्वयभदेवको जो अंश अभीप्सित नहीं स्वयंभुके तीनों ग्रन्थ सम्पूर्ण थ था, या जो अधिक था, वह अंश । इसी तरह 'समाणि'
शब्द का अर्थ होता है, लाया गया। इन तीनो विशेषणोमे जैसा कि पहले कहा जा चुका है, स्वयंभु देवने अपने
यही ध्वनिन होता है कि यह अधिक या अनीप्सित श्रश तीनों ग्रन्थ अपनी समझ और रुचिके अनुसार सम्पूर्ण
ऊपरसे लाया गया है। ही रचे थे, उन्हें अधूरा न छोड़ा था । पीछे उनके पुत्र त्रिभुवनने अधोको पूरी नहीं किया है बल्कि ६ रिट्टण मिचरिउको देखनेमे पता चलता है कि उनमें इजाफा किया है। इसकी पुष्टिमें हम नीचे लिपी वास्तवमे समवसरण के उपरान्त नेमिनाथका निर्वाण होते बातें कह सकते है
ही यह ग्रन्थ समाप्त हो जाना चाहिए । इसके बाद कृष्णकी , यह बात कुछ जंचती नही कि कोई कवि एक साथ रानियोंके भवान्तर, गजकुमारनिर्वाण, दीपायन मुनि, द्वारातीन तीन ग्रन्थोंका लिखना शुरू कर दे और तीनोंको ही वती-दाह, बलभद्रका शोक, नारायगाका शोक, हलधरदीक्षा, अधूरा छोड जाय । अपना अन्तिम ग्रन्थ ही वह अधूग जर'कुमार राज्यलाभ, पाण्डव - गृहयास, मोहपरित्याग, छोड़ सकता है।
पाण्डव-भवान्तर श्रादि प्रकरण जोहर से श्रागेकी पधियां २ पउमचरिउमें स्वयभुदेव अपनेको धनजयका श्राश्रित में है वे नेमिचरितके अावश्यक अंश नही हैं. अवान्तर हैं। बतलाते हैं और रिटणे मिउरिउमे धवल इयाका। इसमे इनके विना भी वह अपूर्ण नही है। परन्तु त्रिभवन स्व. स्पष्ट होता है कि इन दोनो ग्रन्थोंकी रचना एक साथ नही यभने इन विषयांकी भी आवश्यकता समझी और इस हुई है। धनजयके श्राश्रयमें रहते समय पहला ग्रन्थ समाप्त तरह उन्होंने रिट्टण मिचरिउको हरिवंशपुराण बना दिया किया गया और उसके बाद धवलइयाके श्राश्रयमे जो कि और शायद इसी कारण वह इस नामगे प्रसिद्ध हुआ। शायद धनंजयका पुत्र था रिट्टणे।मचरिउ लिखना शुरू ५ उमरियशी अन्तकी सात सन्धियांके विय भी-सीना, ह्या । पंचमीचरित शायद धनंजयके श्राश्रयमे ही लिग्ग बालि, और सीता-पुत्रोके भवान्तर, मारत-निर्वाण हरिमरण गया हो।
आदि-इसी तरह अवान्तर जान पड़ते हैं। ३ दोनों प्रन्थोका शेष त्रिभुवन स्वयंभुने उस समय
४-स्वयंभु-छन्द लिखा जब वे बन्दइयाके आश्रित थे और इस बातका उल्लेख भी रिटणे मिचन्यिकी ११ वी सन्धिके अन्तमे कर
स्वयंभदेवके इस छन्दोग्रथका पना अभी कुछ ही दिया कि पउमचरिउको (शेष भाग) कर चुकनेके बाद
समय पहले लगा है। इसकी एक अपूर्ण प्रति जिसमे अब मैं हरिवंश-पुराणकी (शेष भागकी) रचनामे प्रवृत्त ।
प्राभके २२ पत्र नहीं हैं प्रो. एच. डी, वेलणकरको होता हूँ। यह उल्लेख स्वय स्वयंभुदेवका किया हुआ नही १ या प्रान बड़ौदाक श्रोस्यगटल इन्स्टट्य टकी है। हो सकता।
प्राधिन मुदी ५, गुरुवार मयत १७२७ को इस गमनगर ४ पउमचरिउका लगभग अंश और हरिवंशका में किसी कगादेवने लगाया।
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०४
प्राप्त हुई है और उन्होंने उसे बड़े परिश्रम सम्पादित करके प्रकाशित कर दिया है।"
इसके पहले के तीन अध्यायोंमे प्राकृतके वर्णवृत्तका और शेषके पाँच अध्यायोंमें अपभ्रंश छन्दोंका विवेचन है । साथ ही रून्दोके उदाहरण भी पूर्व कवियो के ग्रन्थों में से चुनकर दिये गये हैं ।
इस ग्रंथका प्रारंभिक अंश नहीं है और अन्तमें भी कर्त्ता का परिचय देनेवाली कोई प्रशस्त आदि नहीं है। इसलिए सन्देह हो सकता है कि यह शायद किसी अन्य स्वयंभ की रचना हो, परन्तु हमारी समे इन्हींकी है। क्यों कि
१ इसके अन्तिम अध्यायमेनाहा दिला पढडिया आदि छन्दोंके जो स्वोपज्ञ उदाहरण दिये हैं उनमे जिनकी स्तुति है। इसलिए इसके कर्ताका जैन होना तो असन्दिग्ध है। साथ ही इ० २-६) बट्ट श्रवजाईके उदाहरण स्वरूप को धत्ता उद्घृत की है वह पउमचरिउकी १४ व सन्धिमे बहुत ही धोड़े पठान्तरके साथ मौजूद है, घत्ता छन्दका जो उदाहरण (श्र० ७ – २७ । दिया है वह पउमचरिउकी पांचवी सन्धिका पहला पद्य 'है 'वम्महतिल' का भी उदाहरण है (अ० ६-४२) वह ६५ वी सन्धिका पहला पथ" है, रश्रणावती का जो उदाहरण है (अ० ६-७४), वह ७७ वी सन्धिके १३ व " पहले के तीन अध्याय रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे के जर्नल (सन् १६३५ ५० १८-५८ ) में और शे पांच अध्याय बाम्बे वृनवमी जर्नल नवम्बर १६३६ में प्रकाशित हैं । हुए तुम्हा दुरुदुलियाई जिगावर जं जाणमु तं करेजामु ॥ ३८ ॥ जिला मे लिदाव मोहजालु, उपजद देवल्लमाम मालु । जिएगा। मं क्रम्मइ शिद्द लोवे, माक्स्वरंगे पद्दाम सुत्र लवि ३ कहाब सरुहिरई दष्टई गई श्रमिइरोबर सुहुत्तई । वित्तई ॥६
गउनमामि निलमही ।
गाय उपांत वारसा ॥
अनेकान्त
,
,
५ तु रणे परिवटिज्जई (मियरेहि |
गाय वालांदवापरु जलटि ।
[ वष ५
कवकका अन्तिम पथ ६ है और अ० ६ का जो ७१ वॉ पद्य है वह पउमचरियकी ७७ वीं सन्धिका प्रारंभिक प है। चांक ये कविकी अपनी और अपने ही ग्रन्थकी वत्तायें थीं, इस लिये इन्हें बिना कर्त्ताके नामके ही उदाहरणस्वरूप दे दिया गया। यदि श्रम्य कवियोंकी होती तो उनका नाम देनेकी आवश्यकता होगी। इससे भी यही निश्चय होता है कि पउमचरिउके कर्त्ता स्वयंभुदेव ही स्वयंभु छन्दके कर्त्ता हैं इस इन्दोथ ६-४२, २८ १८ १०२, १५२, ८-२६ को हरिवंशकी कथा के प्रसंग है और
1
६, ६५, ६८, ६०, १५५, ८- २१.२५, ऐसे हैं जो रामकथा के प्रसंगके हैं और उदाहरण स्वरूप दिये गए हैं परन्तु कर्त्ताका नाम नहीं दिया गया है। हमारा विश्वास है कि वे सब
स्वयं स्वयंभुके हैं और खोज करने से रिट्र मिचरिउ और पउमचरिउमे उनमे अनेक पथ मिल जायेंगे।
२ रिमिचरिउके प्रारंभ में पूर्व कवियोंने उन्हें क्या क्या दिया, इसका वर्णन करते हुए कहा है कि श्रीहर्षने निपुणत्व दिया मिरिहरिस शियलिट" और श्रीहर्षके इसी निपुणश्वके प्रकट करने वाले संस्कृत पद्यके एक चरण को स्यन्द (१-१४४ ) उद्धृत किया गया है- "जह ( यथा ) - श्रीहर्षो निपुण. कविरित्यादि ।” चूंकि यह पथ श्रीहर्षके नागानन्द नाटककी प्रस्तावनामै सूत्रधारद्वारा कहलाया गया है और बहुत प्रसिद्ध है, इस लिए कविने
६ मुरवर डामरु गणु दद्रु, जासु जग कंपइ |
कहि कद एवम पद । विकिमि नि हिमाली |
स्वयंभू छन्द के मुद्रित पाठ इस पद्यको बिउ का बतलाया है, परन्तु अमल यह लेखकी कुछ पानी मालूम पडती है । 'चउमुद्द' का पद्य लिखने में छूट गया है और उसके श्रागे यह स्वयं स्वयंभूका अपना उदाहरण या गया है।
श्रीहर्षो निपुणः कपिः परिपदेयेषा गुणग्राहिणी, लोक दारि च मिराजचरितं नाट्य च दक्षा वयम् । वस्त्यैकैकमपदातिफल प्राप्तः पदं कि पुनमंद्राम्योपचयादयं समुदितः सर्वो गुणाना गणः ॥
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण
]
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवनस्वयंभु
३०५
इसे पूरा देनेकी ज़रूरत नहीं समझी। परन्तु इससे यह इन कवियोंमें जैन कौन कौन हैं और अजैन कौन, यह सिद्ध हो जाता है कि स्वयंभु छन्दके कर्ता और पउमचरिउके हम नहीं जानते। हमारे लिए हाल, कालिदास मादिको कर्ता एक ही हैं, जो श्रीहर्षके निपुणवको अपने दोनो छोड़कर प्रायः सभी अपरिचित हैं। फिर भी इनमें जैन ग्रन्थों में प्रकट करते हैं।
कवि काफी होंगे बल्कि अपभ्रश कवि तो अधिकांश जैन ३-स्वयंभुदेवको उनके पुत्रने 'छन्दचूडामणि' कहा ही होंगे। क्योंकि अब तक अपभ्रंश साहित्य अधिकांशमें है। इससे भी अनुमान होता है कि वे छन्दशास्त्र के विशेषज्ञ उन्हीका लिखा हुआ मिला है। थे और इसलिए उनका कोई छन्दोग्रन्थ अवश्य होना वेताल' कविक पद्यके प्रारभिक अंशका जो उदाहरण चाहिए।
दिया है, उससे वह जैन जान पड़ता है। चौथे अध्यायके स्वयंभछन्दमें माउरदेवके कुछ पद्य उदाहरणस्वरूप १७.११.२१.२४.२६ नं. के जो छह पथ हैं, वे दिए हैं और अधिक संभावना यही है कि ये माउरदेव या
गोहन्दक हैं और हरिवंशकी कथाके प्रसंगके हैं। उससे मारुतदेव कविके पिता ही होंगे। अपने पिताके पोंका
मालूम होता है कि गोइन्द भी जैन है और उसका भी एक पुत्रके द्वारा उद्धृन किया जाना मर्वथा स्वाभाविक है।
हरिवशपुराण है। माउरदेव, जिनदास और चउमुहु तो पूर्ववर्ती कविगण
जैन हैं ही। चतुर्मुखके जो ४-२, ६-७१, ८३, ८६, ११२ इस छन्दोग्रन्थमे प्राकृत और अपभ्र श कवियोंके नाम न० के पद्य हैं वे राम-कथा-सम्बन्धी है और उनके पउमदकर जो उदाहरण दिये हैं उनमे इन दोनों भाषाओंके उस चरिउसे लिए गए हैं । चतुर्मुखके हरिवंस, पउमचरित विशाल साहित्यका प्राभास मिलता है जो किसी समय और पंचमीचरिउ नामक तीन ग्रन्थोंके होनेका उल्लेख ऊपर अतिशय लोकप्रिय था और जिमका अधिकांश लुप्त हो चुका किया जा चुका है। है। यहाँ हम उन कवियोके नाम देकर ही संतोष करेंगे
स्वयंभु-व्याकरण प्राकृत कवि-वम्हअत्त (ब्रह्मदत्त), दिवायर (दिवाकर)
हमारा अनुमान है कि स्वयंभदेवने स्वयंभु-चन्दके अंगारगण, सुद्धपहाव (सुद्धस्वभाव), ललिअसहाव
समान अपभ्र श भाषाका कोई व्याकरण भी लिखा था. ( ललितम्वभाव ), पंछमणाह, माउरदेव (मारुतदेव ),
क्योंकि पउमचरिउके एक पद्यमें कहा है कि अपभ्रंशरूप कोईन, णागह, सुहसील (शुद्धशील), हरप्रास (हरदास),
मतवाला हाथी तभी तक म्वच्छन्दतामे भ्रमण करता है हरअत्त (हरदत्त), धणदत्त, गुणहर (गुणधर), णिउण
जबतक कि उसपर स्वयंभु-व्याकरणरूप अंकुश नही पड़ना, (निपुण, मुद्वराय (शुद्धराज), उन्भट(उद्भट),चंदण,दुग्गमीह
और इसमें स्वयंभु-व्याकरणका स्पष्ट उल्लेख है। (दसिंह), कालिबास (कालिदास ), वेरणाम, जीउदेश
___एक और पद्यमें स्वयंभुको पंचानन सिंहकी उपमा दी (जीवदेव), जणमणाणंद, मील णिहि (शीलनिधि), हाल
है, जिसकी सच्छब्दरूप विकट दाद हैं, जो छन्द और (मातवाहन ), विमलएव (विमलदेव) कुमारसोम,
अलंकाररूप नखोंमे दुष्प्रेक्ष्य है और ब्याकरणरूप जिसकी मूलदेव, कुमारअन ( कुमारदत्त) तिलोमण (त्रिलोचन),
केसर (श्रयाल) है। इसमे भी उनके व्याकरण ग्रन्थ होनेका अंगवइ (अंगपति), रज उत्त (गजपुत्र), वेपाल (वेताल), जोहन, अजरामर, लोणुअ, कलागुगन (कलानुराग),
समय-विचार दुग्गसत्ति (दुर्गशक्ति), अण्ण, अब्भुथ (अदभुत), इसहल,
पउमचरिउ और रिट्टनेमिचरिउमें स्वयंभदेवने अपने रविवप्प (रविवप्र), छइन्न, विड़ढ सुहडराम (सुभटराज),
पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ ग्रंथोंका उल्लेख किया है चंदराम (चन्द्रराग), जलन ।
जिनके समयसे उनके समयकी पूर्व सीमा निश्चित की जा अपभ्रंश कवि-चउमुहु (चतुर्मुम्ब); धुत्त, धनदेव, बइल्ल, अजदव (आर्यदेव), गोइद (गोविन्द), सुद्धसील १ कामवाणो वेग्रायस्स(शुद्धशील), जिणाम (जिनदास), विभड़ढ ।
'पिच्चं णमो विगा ' एवमाह नि ।। १-१७७
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०६
अनेकान्त
[ वर्ष ५
सकती । पाँच महाकाव्य', पिंगलका छन्दशास्त्र, भरतका बाद नहीं हुए। वे हरिवंशपुराणकर्ता जिनसेनसे कुछ पहले नाव्यशाल, भामह और दंडीके अलंकारशास्त्र, इन्द्रका ही हुए होंगे। क्योंकि जिस तरह उन्होंने पउमचरिउ में व्याकरण, व्यास, बाणका अक्षराडम्बर (कादम्बरी) श्रीहर्ष रविषेणका उल्लेख किया है, उसी तरह रिटणेमिचरिउमें का निपुणत्व और रविषेणाचार्यकी रामकथा (पाचरित)। हरिवंशके कर्ता जिनमेनका भी उल्लेख अवश्य किया होता, समयके लिहाजसे जहाँ तक हम जानते हैं इनमें सबसे यदि वे उनसे पहले हो गये होते तो। इसी तरह श्रादे पीछेके रविषेण है और उन्होंने अपना पचरित वि. स. पुगण-उत्तरपुगणके कर्ता जिनसेन गुणभद्र भी स्वयं देव ७३४ (वीर-निर्वाण सवत् १२०३) में समाप्त किया था।
द्वाग स्मरण किये जाने चाहिएँ थे। यह बात नही जंचती अर्थात स्वयंभू वि. स. ७३४ के बाद किसी समय कि वाण, श्रीहर्ष, आदि अजैन कवियोंकी तो वे चर्चा करते
और जिनसेन श्रादिको छोड देते। इससे यही अनुमान इसी तरह जिन सब लेखोंने स्वयंभका उल्लेख होता है कि स्वयंभ दोनो जिनसेनोंसे कुछ पहले हो चुके किया और जिनका समय ज्ञात है, उनमें सबसे पहले होंगे। हरिवंशकी रचना वि. स. ८४० (श०सं० ७०५) महाकवि पुष्पदन्त हैं। पुष्पदन्तने अपना महापुराण वि. में समाप्त हुई थी। इस लिए ७३४ से ८४० के बीच स. १.१६ (श. स. ८८१) में प्रारंभ किया था। अत. स्वयंभ देवका समय माना जा सकता है। परन्तु इसकी एवं स्वयंभ के समयकी उत्तर सीमा वि० स० १.१६ है। पटिके लिए अभी और भी प्रमाण चाहिए। अर्थात वे ७३४ से १०१६ के बीच किसी समय हुए हैं। नीचे दोनों ग्रंथोंके वे सब महत्त्वपूर्ण अंश उद्धत कर प्राचार्य हेमचन्द्रने भी अपने छन्दोनुशासनमे स्वयंभुका दिये जाते हैं जिनके पाधारसे कवियोंका यह परिचय लिग्वा उल्लेख किया है जो विक्रमकी तेरहवी सदीके प्रारंभमें गया।
परिशिष्ट परन्तु यह लगभग तीन सौ वर्षका समय बहुत लम्बा
पउमचरि उके प्रारंभिक अंश है। हमारा खयाल है कि स्वयंभ रविषेणसे बहुत अधिक
१ रघुवंश, कुमारसंभव शिशुपालवध, किगतार्जुनीय और णमह" णव कमल-कोमल मणहर-वर-बहल-कनि-सोहिल्लं । महि । कोई कोई भाट्टके बदले श्रीपक नैषधचरितको उसहस्प पायकमलं ससुरासुरवंदियं सिरया ॥ १ ॥ पाँच महाकाव्योम गिनते है।
चउमुह मुहम्मि सहो दंती' भदं च मणहरो अन्थो। २ नेपधचरित के. क. श्रीहर्ष नहीं किन्तु बाणक अाश्रयदाता
विरिण वि सयभुकव्वे कि कीइ कहयणो सेयो ॥ २ ॥ मम्राट हर्ष जिनके नागानन्द, यिर्शिका श्रादि नाटक- चउमुहएवस्स सही सयंभएवस्म मणहरा जीहा। ग्रन्थ प्रमिद है। 'श्रीदों निपण: कनि.ग्रादि पय श्रीहर्षक भदस्प य गोगाहणं अज वि कहणो ण पावंति ॥ ३ ॥ नागानन्दका ही है और उसे स्वयं भुलन्दम उद्धृत किया
जलकीलाग सयंभ चउमुहावं च गोग्गहकहाण । मानसी या विषयाकनका भद्द च मच्छवेहे अज वि कइणो ण पावंति ॥ ४ ॥ स्वयंभुने 'मिरिदरिसे गिर्यारण उत्तएउ' पदम किया है। मंगलाचरण के हम पयके बाद और दसरे पद्यक पहले नेपधचरितके कर्ना श्रीहर्ष स्वयंभुमे और पुष्पदन्तमे भी मागानेवाली प्रतिम कवि ईशानशयनके सस्कृत जिनेन्द्रपीले हा है। पापदन्नने भी श्रीहर्ष (दर्पवर्तन) का ही रुद्राष्टक' क सात पद्य दिये हैं। एक श्लोक शायद छूट उल्लेख किया है।
गया है । मालूम नहीं, इनकी यहां क्या जरूरत थी। ३ देग्यो मा० जैन ग्रन्थमालाम प्रकाशिन पद्मचरितको ६ दूसरेसे छठे तकके द्य पूने की प्रतिम नहीं है , परन्तु भूमिका।
सोगानेवाली प्रतिम हैं। ४ देग्यो, निर्णयमागर-प्रेसकी आवृत्ति, पत्र १४, पं० १६। ७ मागानेरकी प्रतिम 'दंती मद्द च'।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवनस्वयंभ
३०७
तावति य सच्छंदो भमह अवन्भंस-मच्च मायंगो। पउमचरियम चूडामणि ब्च सेसं यं जेण ॥॥ जाव ण सयंभु-वायरण-अंकुसो पडद ॥ ४ ॥
कहरायस्य विजय-सेपियस्य विस्थारियो जसो भव। सच्छद-विया-दाढो छंदालंकार-णहर-दुप्पिच्छो । तिहुयण-सयंभणा पउमचरियसेसेण मिस्सो ॥२॥ वायरण-केसरदो सयंभु-पंचाणणो जयउ ॥ ६॥ तिहुयण-सयंभु-धवलस्स को गुणे। वारिणउ जए तरह । दीहर-समास-णालं सद्द-दलं प्रत्यकेसरग्धविया।' बालेण वि जेण सयंभुकन्वभारो समुढो ॥३॥ बुह-महुयर-पीयरस सयंभु-कव्वुप्पल जयउ ॥ ७ ॥ वायरण दढ-खंधो आगम-अंगोपमाण-वियपत्री। (२)
तिहुयण सयंभ धवलो जिणतित्थे वह कन्वभरं ॥५॥ वड्डमारा-मुह-कुहर-विणिगय रामकहाणए पह कमागय । चउमुह-मयंभएवाण वरिणयथं श्रचक्त्रमाणेण। अक्खर-वास-जलोह-मणोहर सुयलंकार-छंद-मच्छोहर। तिहुयण-सयंभु-रइयं पमि-चरियं महरियं ॥५॥ दीह-समास-पवाहावंकिय सक्कय-पायय-पुलिणाल किय। सच्चे वि सुया पंजर-सुय ब्व पढिसक्खराइं सिक्वंति । देमीभासा-उभय-तदुजल कवि-दुक्कर-घण-सद-सिलायन। कइरायस्स सुप्रो सुय ब्व सुइगम्भ-संभूमो ॥६॥ अयबहल-कल्लोलाणिट्टिय प्रामासय-सम-तूह-परिष्ट्रिय। तिहुयण-मयंभ जइ ण इंतु णदणो सिरिसयंभुदेवस्स । एह गमकह-सरि मोहंती गणहर-देवहिं दिछ वहंती। कव्वं कुलं कवित्तं तो परछा को समुद्धरह ॥ ७ ॥ परछई इंदभूइ-प्रायगिए पुणु धम्मेण गुणालंकरिए। जह ण हुउ छंदचूामणिस्स तिहुयण-सयंभु लहुतगाउ । पुरण एवहिं संसाराराणं कित्तिहरेण अगत्तरवाएं। तो पद्धडियाकन्वं मिरिपंचमि को समारेउ ॥ ८॥ पुणु रविसेग्गायरिय-पमा बुद्धिए अवगाहिय कराएं। सबो वि जयो गेरह णिय ताप-विढत-तव्य संताणं । ५ मिणि-जणणि गट संभृग मारुयएव-स्व-अणुगएं। तिहुयण-सयंभुणा पुण गहियं णं सुकहत्त-संताणं ॥३॥ अइत गुपण पईहरगत्ते छिब्बर-णासे पविरल-दंते। तिहुयण-सयंभुमेक्कं मोत्तण मयंभुकन्च मयरहरी। पत्ता-णिम्मल-पुण्ण-पवित्त-कह-किनणु थाढप्पइ। को तरइ गंतुमंत मज्झे णिस्पेस-मीयाणं ॥१०॥ जेण समाणिजंतण्ण थिरकित्ति विढापड ॥२॥ इय चाम पोमचरियं सवंभुएवेण रइय सम्मत्तं ।
तिहुयश-मयंभुणा तं समाणियं परिसमत्तमिणं ॥१॥ वृहयण मयंभू पई विएणवइ मई सरिसउ अण्णुणन्थि कुकइ मारुय-सुय-सिरिकहराय-तणय-कय-पोमचरिय अवसेसं । वायरणु कयावि ग जागियउ ण उ वित्ति-सुत्त वक्खाणियउ। मंपुष्ण संपुषण बदइयो लहउ संपुण्ण ॥ १४ ॥ पर पच्चाहारहो तत्ति किय उ सधिहे उपरि बुद्धि ठिय। गोइंद-मयण सुयणंत विरइयं ? वदइय-पढमतणयस्य । गउ णिमुगिउ यत्तविहत्तियाउ छविहर समास-पउत्तियाउ वच्छलदाए तिहुयण-मयंभुण। रइयं महप्पयं ॥१५॥ छक्कास्य दम लयार ण सुय वीपोवसग पञ्चय पहुय । बंदइय-णाग सिरिपाल पहुइ-भम्बयण-समूहस्स । या बलाबल धाउणिवाय-गणु णउ लिंगु उणाइच रक्त वयणु थारोगत्त-समिद्धी संति सुहं होउ सम्वस्म।। १६॥ गउ णिमणि उ पचमहायकवु ण उभरह ण लक्वणुछंदुसन्यु मत्तमहामनगंगी तिरयणभूमा सु रामकह-कण्णा। णउ बुझिउ पिंगल पन्थारु णउ भम्मह-दडियलंकारु। तिहुयण-सयंभु जणिया परिणा उ वंदइय मणतयाउ ॥१७॥ ववमाउ तोवि णउ परिहरमि वरि स्यडावुत्तु कब्बु करमि।
इय रामायणपुराणं समत्त । अन्तिम अंश
सिरि-विजाहर-कडे संधीमो हुति वीसपरिमाणं । तिहुयण-मयंभ व एको कइराय-चकिरणप्परणो। उज्माकंडमि तहा बावीस मुणेह गणणाए ॥ १ अथकेसरुद्धवियं' पाठ पूने की प्रतिम है।
मागाने वाली प्रतिम मौ' । २ मागानेवाली प्रतिम 'बुद्धिणियह जाय कहगा पाट है। ५ सागाग्नेवाली प्रतिम , ३ और ४ को कम ८८,६० ३ उक्त प्रतिम 'अण्गुण्णाहि कुकुइ' पाठ है।
और ८६वी मंधिक प्रारम्भमं भी दिया है। ६ वागयत्थं ।'
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०८
दह सुंदरकंडे एक्काहिय वीस जुग्भकंडे य । उत्तरकंडे तेरह संधीधो वह सव्वाउ ॥ छ ॥ पउमचरिउकी संधियाँ
अनेकान्त
१ इय इत्थ पउमचरिए धजयासिय सयंभु एवकए जिण-म्मुप्पत्ति इयं पढमं चिय साहियं पव्वं ॥ २ जिरावर शिक्मणं इमं बीयं चिय साहियं पव्वं ॥ १४ जलकीलाए सयंभू चउमुहएवं च गोग्गहकहाए । भहं च मच्छचेहे अजवि कणो या पावनि ॥ २० द्वय विज्जाहरकंड वीमहिं श्रासास एहिं मे सिद्ध ।
हिम उज्माकंड साहिज्जं तं णिसामेह | ध्रुवरायधीव (?) तय भुश्रप्पयत्तिणतीसुयाणुपादेण । णामेण सामिधन्वा सयंभुधरिणी महासत्ता ॥ तीए लिहावियमियां वीसहिं श्रासासएहिं पडिबद्धं । सिरि विजाहरकंडं कंडं षिव कामएवस्स ॥ ४२ उज्माकंडं समत्तं ।
श्रहच्चुएवि पडिमोवमाए भाइच्वंबियाप । बीउ उज्माकंडं सयंभुघरिणीए लेहवियं || ७८ जुज्मकंडं समत्तं ॥ ज्येष्ठ वदि ९ सोम । ८३ इय पोमचरिय-सेसे सयंभुएवस्स कहवि उब्वरिए । तिहुयण-मयंभु रइयं समाणयं सीयदीव-पन्वमियां ॥ वदासिय- तिहुयणसयंभु-कइ कहिय पोमचरियस्य । सेसे भुवणपगासे तेयासीमो इमो सग्गो ॥ कइरायस्स विजयसेसियस्स वित्थारिश्रो जसो भुवणे । तिहुयरासयंभुणा पोमचरियरूप सेसेण णिस्सेसे ॥ =४ इय पउमचरियसेसे सयंभु एवस्स कवि उब्वरिए । तिहुयणसयंभुरइए सपरियण-हलीस-भवकद्दणं ॥ इय रामएव चरिए वंदद्दश्रासियसयंभुसुय रहए । बुहयण-मण- सुह-जणणो चउरासीमो इमो सग्गो । = वंद सिय-महकइ सयंभु-लहु-अंगजाय विणिबद्धो । सिरिपोमचरियसेसो पचासीमो इमो सग्गो ॥
६० इय पोमचरियसेसे सयंभुएवस्स कहवि उम्बरिए । तिहुयणसभर राहवणिव्वाणपव्वमिणं ॥ वंद श्रासिय तिहुयण-सयंभ परिविरइयम्मि महाकन्त्रे । पोमचरियस्स सेसे संपुराणो यवइमो सग्गो ।। १- सागानेरकी प्रतिमे ये दोनो पद्य 'तिहुवण सयंभुरणवर' आदि पाके पहले दिये हैं ।
[ वर्ष ५
रिट्ठमिचरिउका प्रारंभिक अंश सिरिपरमागम णालु सयल-कला- कोमल दलु । करहु विद्धूस करणे जायव- कुरुव- कुलुप्पल ।
*
**
चितवs सयंभु का करम्म हरिवंस-महगणड के तरम्मि । गुरु-वयण- तरंडउ लद्ध या वि जम्महो वि या जोहर को बिकवि । उ खाइउ बाहत्तरि कलाउ एक्कु वि ण गंथु परिमोक्कलाउ तहिं श्रवसरि सरसइ धीरबद्ध करि कष्वु दिएण मद्द विमलमह इंदे समपि वायर रसु भरहें वासें वित्थर । पिंगले छंद-पय- पत्थारु भम्मद - दंडिगिहि श्रलंकारु । बाणेण समपि घणघणउ तं श्रक्खर डंबरु अप्पणउ । सिरिहरिसें यि उत्त उ श्रवरेहिं मि कहहिं कइतउ छडणिय- दुबइ-धुवएहिं जडिय च उमुहे समप्पय पद्धडिय जरण-रायणाणंद जणेरियए आमीसए सव्वहु के रियए । पारं भिय पुणु हरिवस- कहा स-समय पर समय-वियार-सहा धत्ता - पुच्छद्द मागहरगाहु, भवजरमरण- विचारा
थिउ जि-सासगु केम, कहि हरिवंस भडारा ||२|| अन्तिम अंश
इह भारह पुराण सुपसिद्धउ ऐमिचरिय हरिसाइद्धउ । वीरजिसे भवियो क्खउ पच्छई गोयमसामिण क्विड सोह में पुर जंबूसा में विहुकुमारं दिया |
दिमित्त अरज्जियाहे गोवद्धरण सुभद्दहवाहे । एम परंपराई अलग्गड ग्रामरियह मुहाउ श्रावग्गउ । सुणि सखेत्तु श्रवारिक विउसे मयं महि वित्थारिक । पद्धडिया-छंद्रे सुमणोहरु भवियग्- जरण-मण-सवरा-सुहंकरु | जमपरिसंसकाहि जं सुराणउत' तिब्रुव-सयंभु किउ पुए उ । तासु पुत्तपिउ-मणिव्वा हिउ जसु यि जसु भुवणे साहि गय तिहुयणस्य भुसुरठा यहां जं उब्वरिउ कि पि सुखिया हो । तं जसकिमुदि उद्धरियउ वि सुत्तु हरिवंसच्छरिय उ णिय-गुरु-सिरि-गुण कित्ति पसाएं कि परिपुरण मण हो श्रपुराए मरसेणेदं (?) सेटि आए कुमर-यरि श्राविउ सविसेसे । २ बम्बई do पन्नालाल सरस्वती-भवनकी प्रतिमे यह एक चरण और आगे तीन चरण अधिक हैं। इससे सम्बन्ध ठीक बैठ जाता है । यह चारों चरण नेकी और प्रो० हीरालालजीकी प्रतिमे नहीं हैं । ३ बम्बईकी प्रति यह arrant पंक्ति नहीं है।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८५]
महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवनम्वयंभु
३०६
गोवगिरिहे समीवे विमालए पशियारहे जिणवर-चयालए। निहुवा-सयंभुमहाका-समाणिएमम सरणंणाममउमामगंगा मावयजगहो पुरउ वखाणिउ दिदु मिच्छत्त मोह अवमाणिउ १०२ इय. ... ... ... . .. . . मयंभु-उन्नरिए जं श्रमणंते इह मई माहिउ त सुयदेवि स्वमउ अवराहउ । तिहुवण-सयंभु-महकइ-ममाणि कराह-महिल-भवगहणमिणं गंदउ मासणु सम्मइणादहो गंदउ भनियण कय-उच्छाइहो निहुवगो जइ वि ण होतु शंदणा सिरिमयंभुएचस्य । णंदउ परवड पय-यालंतही गंदउ दयधम्म वि अग्हतहो। कब्व कुलं कवित्त तो पच्छा को ममडरइ ॥ कालं वि य णिच्च परिसक्कउ कासु वि धणु कणुदितु ण थक्कउ १०६वत्ता-तेधण्णा मउण्णा के विग्ग पालियमंजुम फेडिय-दुम्मद भद्दवमामि विणामिय-भवकलि हुउ परिपुण्णु च उद्दमि णिम्माल इह भवे जसुकित्ति पवित्यरिवि हुंति सयंभुवणाहिवह ॥ घना-इय चउविह संघई, विहुणिय-विग्धई,
इय रिट्र "मयंभुविरहए-णारायणमरण-पन्चमिणं ॥ णिण्णामिय-भव-जर-मरणु।
१०७ पत्ता-सइंभुयगण विदन धणु जिम विलासज्जा संत जसकित्ति-पयामणु, अविलय-मामणु,
तम सुहामुह-कम्मडा भुजिज्जहि णिभंत ।। पयड उ संति मयंभु जिणु ॥ १७ ॥
इय रिटठ "" मयंभुएव-उबरिए। प्रय ग्छिणेमिचरिए धवलइयामिय-मयंभुण्व-उवरिए ।
तिहुवणमयंभु-इए ममाणियं मोयबलमदं ॥ निहवण-सयंमनहाए ममाणियं कराकित्तिहरिवंमं ॥ १०८पियमायगिडगिडयमडिविखाइयभूमियरिणयजसकित्तिजणि गुरु-पत्र-वाममयं सुयणाणाणुक्कम जहाजायं ।
जिणदिवबहे कारणे दुर्वाणवारणे देउ सयंभुयधरवि मणि सयमिक-दुद्दह-अहियं संधीग्रो परिममनाओ ॥ संधि ११२ ।।
इय रिट्ठ..........."मयंभुएव उन्वएि। इति हरिवंशपराणं समाप्त।
तिहुयणसयं भुगहए हलहर-दिवासमं कहियं ।।
जग्कुमररज्ज-लंभी, पडवघरवाम-मोहपरिचायं । हरिवंशकी सन्धियाँ
सय-अलाइय मंधी समागिय एत्य बरकरणा ।। , इय रिठ्ठणेमिचरिए घपलक्ष्यासिय-मयंभुएवकए ।
१०६इग्मिपुराणमंगहे धवलइयामियकदमयंभुएवउव्यांगा पढमो समुद्दविजयाहिसेयणामो इमो मग्गो ॥
तिहुयण-सयभुराए ममाणिय पदमुयहोभवं णवोहिय-मयं मंध' E२ तेरह जाइवकंडे कुरुकंडेकृणवीमसंधीश्रो,
इह जमकित्ति-कारणं पञ्चसुद्धरण-गय-एक्कमर्ग । तहमट्रिट जुज्झयकंडे एवं वाणउदि संघीयो ॥१॥
कइगयस्मुन्वग्यिं पयइत्य अक्विय जाणा ॥| मोमसुयस्स य वारे तइयादियहम्मि फग्गुणे रिक्ग्वे, त जीवति य भुवणे मज्जण-गुण-गण्ड्ग य भावत्था । सिउणासेण य जोए समाणियं जुज्झकंई च ॥ २ ॥ पर-कव्य कुलं वित्तं विडियं । जे ममुखरजि ॥२॥ करिमाई तिमासा एयारसवासरा सयभुम्म,
११. सन्चु सुयंगु णाणु जिण-श्रावउ, वाणवइ-मंधिकरणे बोलीणो इत्तिश्रो कालो ॥ ३ ॥ भवमहंतरि कि पिण् रविउ । दियहाहिवम्सबारे दसमीदियहम्मि मृलणवत्त,
गिय जमकित्ति तिलोए पयासि 3, एयारमम्मि चंदे उत्तरकंडं समाढतं ॥ ४ ॥
जिह सयंभु जिणे चि: श्राहामिउ ॥ वरं तेजस्विनो मृत्युन मानपरिखण्डन ।
इय रिणामचरिए धवलक्यामिय-मयमुएव-उपनि। मृत्युस्तक्षणकं दुःवं मानभंगो दिने दिने ॥५॥
नवण-मभुकाणा ममाणिय दहमय मग्गं ॥ ६ इय रिठ्ठणेमिचरिए धवलइयासिय-सयंभु-कए कविगजधनल- एक्को मयंभुवि नमो तहो पत्ती णाम निहुयण-सयंभू । विनिर्मिते श्री ममवसरणकथनं नाम निन्याणवो संधिः ॥ को वारण ममन्यो पिउभणबहग-एक्कमणी ॥ १॥ काऊण पोमचरियं मुन्वय-चरियं च गुणगणपविय । १११ पत्ता-ततीममहमवग्मिं अमगं गिरहनि माणसे सुच्छ । हरिवंम-मोहहरणे सरस्सई सुढिय-देह ब्व ॥ छ । ननिय पक्वम्मामं जकित्ति-विहामय-मरीरे ॥छ । इय रिट्ठणेमिचरिए धवलहयासिय-सयभुवएव-उबरिए। इय-ग्गिामांगा धवलहयामिय-मयभएव उरिए । १ यह पद्य बम्बईकी प्रतिम यहार नही है।
निहुवा-मयभन्दा गमिर्माणब्यागं पंडुर्यातगण ।।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन संस्कृतिका हृदय
(ले०-श्री पं० सुखलालजी संघवी)
संस्कृति एक ऐसे नदी के प्रवाह के समान है सुझे मुख्यतया जैन सस्कृतिके उस पान्तर रूपका या जो अपने प्रभवस्थानमे अन्त तकमें अनेक दूसरे हृदयका ही परिचय देना है, जो बहुधा अभ्यासजनित छोटे मोटे जल-स्रोतोसे मिश्रित; परिवधित और कल्पना तथा अनुमान पर ही निर्भर है। परिवर्तित होकर अनक दूसरे मिश्रणोसे भी युक्त जैन संस्कृति के बाहरी स्वरूप में अन्य सस्कृतिओं होता रहता है अंर उद्गमस्थान में पाये जाने वाले के बाहरी स्वरूपकी तरह अनेक वस्तुओंका समावेश रूप, स्पर्श, गन्ध तथा स्वाद आदिम कुछ न कुछ होता है। शास्त्र, उसकी भाषा, मन्दिर, उसका स्थापत्य; परिवर्तन भी प्राप्त करता रहता है । जैन कहलाने मृतिविधान, उपासनाके प्रकार, उसम काम आनेवाले वाली संस्कृति भी उस सस्कृति सामान्यक नियमका उपकरण तथा द्रव्य, समाज के खान पान के नियम, अपवाद नहीं है। जिस मस्कृतिको आज हम जैन उत्सव, त्यौहार आदि अनेक विषयोंका जैन समानके संस्कृतिके नाममे पहचानते है उसके मर्व प्रथम साथ एक निराला सम्बन्ध है और प्रत्येक विषय श्रा वर्भावक कोन थे और उनसे वह पहिले पहल अपना खास इतिहास भी रखता है। ये सभी बाते किस स्वरूपमें उद्गत हुई इसका पूरा पूरा सही बाह्म संस्कृतिकी अंग हैं। पर यह कोई नियम नहीं है वर्णन करना इतिहासकी सीमाके बाहर है । फिर कि जहा जहां और जब ये तथा ऐसे दूसरे अङ्ग भी उम पुरातन प्रवाहका जो और जैमा स्रोत हमारे मौजूद हों वहां और तब उसका हृदय भी अवश्य सामने है तथा वह जिन आधारोंके पट पर बहता होना ही चाहिये । बाह्य अगोंके होते हरा भी कभी हृदय चला आया है, उप सात तथा उन साधनोके ऊपर नहीं रहता और बाह्य अंगोके अभाव भा मंस्कृतिका विचार करते हुये हम जैन संस्कृतिका हृदय थोड़ा हृदय मभव है। इस दृष्टिको सामने रखकर विचार बहुत पहिचान पाते है।
करनेवाला कोई भी व्यक्ति भला भाति समझ सकेगा जैन संस्कृतिक भी, दुमरी संस्कृतियोंकी तरह, कि जैन संस्कृतिका हृदय, जिसका वर्णन मै यहां करने दो रूप हैं। एक बाह्य और दुसरा प्रान्तर । बाह्य जारहा है वह केवल जन समाजजात और जैन कहमप वह है जिसे उम संस्कृतिके अलावा दूसरे लाने वाले व्यक्तियों में ही संभव है ऐसी काई बात लोग भी आंख कान आदि बाह्य इन्द्रियांसे जान नहीं है। सामान्य लोग जिन्हें जन समझते है, या सकते है। पर मंस्कृतिका आन्तर स्वरूप ऐसा नहीं जो अनिको जन कहते हैं, उनमें अगर आन्तरिक होता। क्योकि किसी भी संस्कृतिक अान्तर स्वरूप योग्यता न हो तो वह हृदय संभव नही और जैन का साक्षान आकलन तो सिर्फ उसीको होता है जो नहीं कहलाने वाले व्यक्तियोमें भी अगर वास्तविक उसे अपने जीवनमं तन्मय करले । दूसरे ल.ग योग्यता हो तो वह हृदय संभव है । इम तरह जब उसे जानना चाहें तो साक्षात दर्शन कर नहीं सकते। सस्कृतिका बाहारूप समाज तक ही सीमित होनेक पर उस प्रान्तर मस्कृतिमय जीवन बितानेवाले पुरुष कारण अन्य समाजमे सुलभ नहीं होता तब सस्कृति या पुरुषों के जीवन व्यवहारोंसे तथा आस पासके क हृदय उस समाजके अनुयायियोका तरह इतर वातावरण पर पड़ने वाले उनके असरोंसे वे किसी समाजके अनुयायियोंमे भा-सभव होता है । सच भी प्रान्तर संस्कृतिका अन्दाजा लगा सकते हैं। यहां तो यह है कि संस्कृतिका हृदय या उसकी आत्मा
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
जन संस्कृतिका हृदय
३११
इतनी व्यापक और स्वतंत्र होती है कि उसे देश, काल को हमारे प्राचीनतम शास्त्रों में भी अनात्मवादी या जात-पात, भाषा और रीति-रस्म आदि न तो मीमित नास्तिक वहा गया है। यही वर्ग कभी आगे जाकर कर सकते हैं और न अपने साथ बाँध सकते है। चार्वाक कहलाने लगा । इस वर्गकी दृष्टिमें साध्य ___ अब प्रश्न यह है कि जैनसंस्कृति का हृदय क्या पुरुषार्थ एक काम अर्थात् सुख-भोग ही है। उसके चीज़ है ? इसकामक्षित जवाब तो यही है कि निव- साधनरूपसे वह वर्ग धर्मकी कल्पना नहीं करता या तेक धर्म जैन संस्कृतिकी आत्मा है। जो धर्म निवृत्ति धर्म नामसे नरह तरह के विधिविधानों पर विचार कगने वाला अर्थात पुनर्जन्मके चक्रका नाश कराने नहीं करता । अतएव इस वर्गको एकमात्र काम-पुरुवाला हो या उस निवृत्तिके माधनरूपसे जिस धर्म पार्थी या बहुत हुआ तो काम और अर्थ उभय का आविर्भाव, विकास और प्रचार हआ हो वह पुरुषाथी कह सकते हैं निवर्तक धर्म कहलाता है। इसका असली अर्थ दमरा विचार कवर्ग शारीरिक जीवनगत सुखको समझने के लिये हमें प्राचीन किन्तु समकालीन इतर साध्य तो मानता है पर वह मानता है कि जैसा धर्मम्वरूपोंके बारेमे थोड़ासा विचार करना होगा। मौजूदा जन्ममें सुख सम्भव है वैसे ही प्राणी मरकर ___ इस समय जितने भी धर्म दुनियामें जीवित हैं फिर पुनजन्म ग्रहण करना है और इस तरह जन्मया जिनका थोड़ा बहुत इतिहास मिलता है, उन सब जन्मान्तरमें शारीरिक मानसिक सुखों के प्रकप अपके आन्तरिक स्वरूपका अगर वर्गीकरण किया जाय कर्षकी शृङ्खला चालू रहती है। जैसे इस जन्म में वैसे नो वह मुख्यतया तीन भागों में विभाजित होता है। ही जन्मान्तरमें भी हमें सुखी होना हो, या अधिक पहला वह है, जो मौजूदा जन्मका ही विचार करता सुख पाना हो, तो इसके वास्ते हमें धर्मानुष्ठान भी है। दूसरा वह है जो मौजूदा जन्मके अलावा जन्मा- करना होगा। अपार्जन आदि माधन वर्तमान जन्म न्तरका भी विचार करता है। तीसरा वह है जो जन्म- में उपकारक भले ही हों पर जन्मान्तरके उच्च और जन्मान्तरके उपरान्त उसके नाशका या उच्छंदका उच्चतर सुखके लिये हमे धर्मानुष्ठान अवश्य करना भी विचार करता है।
होगा। ऐमा विचार-मरणी वाले लोग तरह तरह के ___ आजकी तरह बहुत पुराने समयमें भी ऐसे धर्मानुष्ठान करते थे और उसके द्वारा परलोक तथा विचारक लोग थे जो वर्तमान जीवन में प्राप्त होने लोकान्तरके उच्च सुख पानेकी श्रद्धा भी रखते थे । वाले सुखके उस पार किमी अन्य सुखकी कल्पनासे न यह वर्ग श्रात्मवादी और पुनर्जन्मवादी ता है ही पर नो प्रेरित होते थे और न उसके साधनोंकी खोजमें उसकी कल्पना जन्म-जन्मान्तरमें अधिकाधिक मुख समय बिताना टीक ममझते थे। उनका ध्येय वर्तमान पानेकी तथा प्राप्त मुम्बको अधिकम अधिक समय तक जावनका सुग्बभोग ही था । और वे इमी ध्येयकी स्थिर रखनेकी होनस उसके धर्मानुष्ठानोंको प्रवर्तक पूर्तिके लिये सब साधन जुटाते थे। वे समझते थे धर्म कहा गया है। प्रवर्तक धर्मका मंक्षेपमें सार यह कि हम जो कुछ हैं वह इसी जन्म तक हैं और मृत्यु है कि जो ओर जसी समाज व्यवस्था हो उसे इम के बाद हम फिर जन्म ले नही सकते । बहुत हुआ तो तरह नियम और कर्तव्यबद्ध बनाना कि जिमसे समाज हमारे पुनर्जन्मका अर्थ हमारी मन्ततिका चालू रहना का प्रत्येक सभ्य अपनी अपनी स्थिति और कक्षामे है । अतण्व हम जो अच्या बुरा करेगे उसका फल सुखलाभ करे और साथ ही ये जन्मान्तरकी तैयार। इम जन्मके बाद भोगने के वास्ते हमें उत्पन्न होना करे जिससे दूसरे जन्म में भी वह वर्तमान जन्मकी नही है । हमारे कियेका फल हमारी मन्तान या हमारा अपेक्षा अधिक और स्थायी मुच पा सके । प्रवर्तक समाज भोग सकता है। इसे पुनर्जन्म कहना हो तो धर्मका उद्देश्य समाज व्यवस्थाके साथ माथ जन्मान्तर हमें कोई आपत्ति नहीं । ऐसा विचार करने वाले वर्ग का सुधार करना है, न कि जन्मान्तरका छेद ।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
अनकान्त
[वर्ष ५
प्रवर्तक धर्म के अनुसार काम अर्थ और धर्म तीन लिए हेय बन गया। यद्यपि मोक्षके लिए प्रवर्तक धर्म पुरुषार्थ हैं। उनमें मोक्ष नामक चौथे पुरुषार्थकी कोई बाधक माना गया पर साथ ही मोक्षवादियों को अपने कल्पना नहीं है । प्राचीन ईरानी आर्य जो अवस्ताको माध्य मोक्ष पुरुषार्थके उपाय रूपसे किसी सुनिश्चित धर्मग्रंथ मानते थे और प्राचीन वैदिक आर्य जो मन्त्र मार्गकी खोज करना भी अनिवाय रूपसे प्राप्त था।
और ब्राह्मणरूप वेद भागको ही मानते थे, वे सब इस खोजकी सूझने उन्हें एक ऐसा नार्ग, एक ऐसा उक्त प्रवर्तक धर्म के अनुयायी हैं। आगे जाकर वैदिक उपाय सुझाया जो किसी बाहरी साधन पर निर्भर न दर्शनोंमें जो मीमांमासादर्शन नामसे कर्मकाण्डी दर्शन था। वह एकमात्र साधककी अपनी विचारशुद्धि प्रसिद्ध हा वह प्रवर्तक धर्मका जीवित रूप है। और वर्तनशुद्धिपर अवलम्बित था । यही विचार
निवर्तक धर्म उपर सृचित प्रवर्तक धर्मका विल- और वतेनकी आत्यन्तिक शुद्धिका मार्ग निवर्तक धर्म कुल विरोधी है। जो विचारक इस लोकके उपरांत के नामसे या मोक्षमार्ग नामसे प्रसिद्ध हुआ। लोकान्तर और जन्मान्तर माननेके साथ उस जन्म- हम जब भारतीय संस्कृतिक विचित्र और विविध चक्रको धारण करनेवाली आत्माको प्रवर्तक धर्मवा- तानेबानेकी जांच करते हैं तब हमें स्पष्ट रूपसे दिखाई दियोंकी तरह तो मानते ही थे; पर साथ ही वे जन्मा- देता है कि भारतीय आत्मवादि-दर्शनोंमें कर्मकाण्डी न्तरमें प्राप्त उच्च उच्चतर और चिरस्थायी सुखसे मीमांसकके अलावा सभी निवर्तक धर्मवादी हैं । संतुष्ट न थे । उनकी दृष्टि यह थी कि इस जन्म या अवैदिक माने जाने वाले बौद्ध और जैनदर्शनकी जन्मान्तरमें कितना ही ऊँचा सुख क्यो न मिले, वह संस्कृति तो मूलमें निवर्तक धर्मस्वरूप है ही पर वैदिक कितने ही दीर्घकाल तक क्यों न स्थिर रहे पर अगर समझ जाने वाले न्याय-वैशेषिक सांख्य-योग तथा वह सुख कभी न कभी नाश होनेवाला है तो फिर औपनिषद दर्शनका आत्मा भी निवर्तक धर्म पर ही वह उच्च और चिरस्थायी सुख भी अन्तमें निकृष्ट प्रतिष्ठित है । वेदिक हो या अवैदिक सभी निवर्तक सखकी कोटिका होने उपादेय हो नहीं सकता । वे धर्म प्रवर्तक धर्मको या यज्ञयागादि अनुष्ठानोंको अन्त लोग ऐसे किसी सुखकी खोजमे थे जो एक बार प्राप्त में हेय ही बतलाते है। और वे सभा सम्यक ज्ञान या होने के बाद कभी नष्ट न हो । इम खोजकी सुझने प्रात्मज्ञानको तथा आत्मज्ञान-मूलक अनासक्त जीवनउन्हें मोक्ष पुरुषार्थ मानने के लिए बाधित किया। व्यवहारको उपादेय मानते हैं । एवं उसीके द्वारा वे मानने लगे कि एक ऐसी भी आत्माकी स्थिति पुनर्जन्मके चक्रसे छुट्टी पाना सभव बतलाते हैं। संभव है जिसे पाने के बाद फिर कभी जन्मजन्मा- ऊपर सूचित किया जा चुका है कि प्रवर्तक धर्म तर या देह-चारण करना नहीं पड़ता। वे आत्माकी समाजगामी था। इसका मतलब यह था कि प्रत्येक उस स्थितिको मोक्ष या जन्म-निवृत्ति कहते थे । प्रवर्तक व्यक्ति समाजमें रहकर ही सामाजिक कर्तव्य जो धर्मानुयायी जिन उच्च और उच्चतर धार्मिक अनु- ऐहिक जीवनसे सम्बन्ध रखते हैं और धार्मिक कर्तव्य प्ठानोस इस लोक तथा परलोकके उत्कृष्ट सुखोक जो पारलौकिक जीवनसे सम्बन्ध रखते हैं, उनका लिये प्रयत्न करते थे उस धार्मिक अनुष्ठानोको निव- पालन करे। प्रत्येक व्यक्ति जन्मसे ही ऋषि ऋण तक धर्मानुयायी अपने साध्य मोक्ष या निवृत्ति के लिए अर्थात् विद्याध्ययन आदि, पितृ-ऋण अर्थान् संततिन केवल अपर्याप्त ही समझते बल्कि वे उन्हें मोक्ष जननादि और देव-ऋण अर्थात् यज्ञयागादि बन्धनों पाने में बाधक समझकर उन सब धार्मिक अनुष्ठानोंको से आबद्ध है। व्यक्तिको सामाजिक और धार्मिक प्रात्यन्तिक हेय बतलाते थे । उद्देश्य और दृष्टि में पूर्व- कर्तव्योंका पालन करके अपनी कृपण इच्छाका संशोपश्चिम जितना अन्तर होनेसे प्रवर्तक धर्मानुयायिओं धन करना इष्ट है । पर उसका निमूल नाश करना न के लिए जो उपादेय वही निवर्तक धर्मानुयायिओंके शक्य है और न इष्ट । प्रवर्तक धर्मके अनुसार प्रत्येक
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
जनसंस्कृतिका हृदय
३१३
व्यक्तिके लिए गृहस्थाश्रम जरूरी है । उमे लांघकर पीछे संन्यास सहित चार श्राश्रमोंको जीवनमें स्थान कोई विकाम कर नही सकना । जबकि निवतेक धर्म दिया। निवतेक धर्म की अनेक संस्थाओं के बढ़ते हुए व्यक्तिगामी है। वह आत्मसाक्षात्कार की उत्कट वृत्ति जनव्यापी प्रभावके कारण अन्त में तो यहाँ तक से उत्पन्न होने के कारण जिज्ञासुको आत्मा तत्व है या प्रवर्तक धर्मानुयायी ब्राह्मणोंने विधान मान लिया कि नहीं, है तो वह कैसा है, उसका अन्य के साथ कैसा गृहस्थाश्रम के बाद जैसे संन्याम न्याय-प्राप्त है वमे ही सम्बन्ध है, उमका साक्षात्कार मंभव है नो किन किन अगर तीव्र वैराग्य हो तो गृहस्थाश्रम बिना किए भी उपायोंसे मभव है, इत्यादि प्रश्नोंकी और प्रेरित सीधे ही ब्रह्मचर्याश्रमस प्रवृज्यामार्ग न्याय-प्राप्त है। करता है। ये प्रश्न ऐसे नहीं है कि जो एकान्त चिंतन इस तरह जो प्रवतक धर्मका जीवन में समन्वय स्थिर ध्यान. तप और असंगतिपूर्ण जीवनके मिवाय मुलझ हुअा उमका फल हम दार्शनिक साहित्य और प्रजासके। ऐमा सञ्चा जीवन खाम व्यक्तियों के लिए ही जीवन में आज भी देखते हैं। मंभव हो सकता है। उसका समाजगामी होना मंभव जो तत्वज्ञ ऋपि प्रवतक धर्मक अनुयायी ब्राह्मणो नहीं। इस कारण प्रवर्तक धर्मका अपेक्षा निवर्तक धर्मका के वंशज होकर भी निवर्तक धर्मको पूरे तौरमे अपना क्षेत्र शुरूमें बहुन परिमित रहा। निवर्तक धर्मके लिए चुके थे उन्होने चिन्तन और जीवन में निवर्तक धर्म गृहस्थाश्रमका बन्धन था ही नहीं। वह गृहस्थाश्रम का महत्व व्यक्त किया। फिर भी उन्होंने अपनी पैतृक बिना किए भी व्यक्तिको मवत्यागकी अनुमति देता मंपत्तिरूप प्रवर्तक धर्म और उसके माधारभूत वेदों है। क्योंकि उसका आधार इच्छाका मंशोधन नही का प्रामाण्य मान्य रखा। न्याय-वैशेषिक दर्शनके और पर उसका निरोध है। अतएव वह प्रवर्तक धर्म पनिषद दर्शनके श्राद्यदृष्टा ऐम ही तत्वज्ञ ऋषि सम्भव सामाजिक और धार्मिक कर्तव्योसे बद्ध होने थे । निवर्तक धमके कोई कोई पुरस्कर्ता ऐम भी हुए की बात नहीं मानता । उसके अनुमार व्यक्तिके लिए कि जिन्होंने नप, ध्यान और श्रात्म साक्षात्कार के मुख्य कर्तव्य एक ही है और वह यह कि जिस तरह बाधक क्रियाकाण्डका तो श्रात्यंतिक विरोध किया पर हो श्रात्म-माक्षात्कारका और उसमें रुकावट डालने उम क्रियाकाण्डकी अाधारभून श्रुतिका सर्वथा विरोध वाली इच्छाके नाशका प्रयत्न करे।
नहीं किया। ऐसे व्यनियम सांख्य दर्शनक आदिजान पड़ता है इस देशमें जब प्रवर्तक धर्मा- पुरुष कपिल आदि ऋषि थे। यहा कारण है कि मूलमें नुयायी वेदिक आर्य पहले पहल अाए तब भी कही सांग्य-योगदशन प्रवर्तक धर्मका विरोधी होने पर भी न कही इम देशमें निवर्तक धर्म एक या दूसरे रूपमें अन्तम वैदिक दर्शनों में समा गया। प्रचलित था। शुम्में इन दो धर्म मस्थाओके विचारो समन्वयकी ऐसी प्रक्रिया इम देशमं शताब्दिों में पर्याप्त मंघर्ष रहा। पर निवर्तक धर्म के इने-गिने नक चली। फिर कुछ ऐम आत्यन्तिकवादी दोनोंधों मच्चे अनुगामित्रों की तरस्या, ध्यान प्रणाली और में होते रहे कि वे अपने अपने प्रवर्तक या निवर्तक अमगचर्याका साधारण जनता पर जो प्रभाव धर्म के अलावा दूसरे पक्षको न मानते थे और न युक्त धीरे धीरे बढ़ रहा था उसने प्रवर्तक धर्म के कुछ बतलाते थे । भगवान महावीर और बुद्धके पहिले भी अनुगामियोको भी अपनी ओर खीचा और निवर्तक ऐसे अनेक निवर्तक धर्मके पुरस्कर्ता हए हैं। फिर भी धर्म की संस्थाका अनेक सरम विकास होना शुरू महावीर और बुद्ध के समयमें तो इस देशमं निवर्तक हृया। इसका प्रभावकारी फल अन्तमे यह हुआ कि धर्मकी पोषक ऐसी अनेक संस्थाए थीं और दूसरी प्रवर्तक धर्म के आधार रूप जो ब्रह्मचर्य और गृहस्थ अनेक ऐसी नई पैदा हो रही थीं कि जो प्रवर्तक धर्म दो आश्रम माने जाते थे उनके स्थान प्रबतक धर्म का उग्रतासे विरोध करती थी। अब तक नीचसे ऊँच परम्कामान पहले तो बानप्रस्थ महित तीन ओर नक के बगों में निवर्तक धर्म की छायामें विकास पाने
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१५
अनेकान्त
[वर्ष ५
वाले विविध तपोनुमान, विविध ध्यान मागे और तकरा धर्माधिकार उतना ही है, जितना एक ब्राह्मण नानाविध त्यागमय आचारोंका इतना अधिक प्रभाव और क्षत्रिय पुरुषका । ६-मद्य मांस आदिका धार्मिक फैलने लगा था कि फिर एक बार महावार और बुद्ध __ और सामाजिक जीवनमें निषेध । ये तथा इनके जैसे के समय में प्रवर्तक और निवर्तक धर्म के बीच प्रबल लक्षण जो प्रवर्तक धर्मके आचारों और विचारोंसे विरोधको लहर उठी जिसका सवृत हम जैन-बोद्ध- जुदा पड़ते थे वे देशमें जड़ जमा चुके थे और दिनवाङमय तथा ममकालीन ब्राह्मण वाङमयमे पाते हैं। ब-दिन विशेष बल पकड़ते जाते थे। तथागत बुद्ध ऐसे पक्व विचारक और दृढ़ थे कि कमोवेश उक्त लक्षणोको धारण करने वाली जिन्होंने किमी भी तरहम अपने निवर्तक धर्ममें अनेक संस्थाओं और सम्प्रदायोम एक ऐसा पुराना प्रवर्तक धर्मक आधारभूत मन्तव्यों और शास्त्रोंको निवर्नकधर्मी सम्प्रदाय था जो महावीरके पहिले श्राश्रय नहीं दिया । दीर्घ तपस्वी महावीर भी ऐसे ही बहुत शताब्दिोंसे अपने वाम ढंगसे विकास करता कट्टर निवर्तक धर्मी थ। अतएव हम देखते है कि जा रहा था। उसी सम्प्रदायमे पहिले नाभिनन्दन पहिले से आज तक जैन और बौद्ध संप्रदायमे अनेक ऋषभदेव, यदुनन्दन नेमिनाथ और काशीराजपुत्र वेदानुयायी विद्वान ब्राह्मण दीक्षित हए फिर भी पाश्वनाथ हा चुके थे, या वे उम सम्प्रदायमे मान्य उन्होंने जैन और बौद्ध वाडमयमे वेद के प्रामाण्य पुरुप बन चुके थे। उस सम्प्रदायक ममय समय पर स्थापनका न कोई प्रयत्न किया और न किसी ब्राह्मण अनेक नाम प्रसिद्ध रहे । यनि, भिक्षु, मुनि, अनगार, प्रन्थविहित यज्ञयागादि कर्मकाण्डको मान्य रखा। श्रमण आदि जैसे नाम तो उस मम्प्रदायके लिए
शताब्दियों ही नहीं बल्कि महस्रादि पहलेम व्यवहत होते थे पर जब दीर्घ तपम्बी महावीर उस लेकर जो धीरे धीरे निवर्तक धर्भक अग प्रत्यंग रूप सम्प्रदायके मुखिया बने तब सम्भवतः वह सम्प्रदाय में अनेक मन्तव्यो और आचागेका महावार बुद्ध निग्रन्थ नामसे विशेष प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि निवर्तक तक के समयमे विकाम हो चुका था वे मंक्षेपमे ये धर्मानुयायी पन्थोंमें ऊँची आध्यात्मिक भूमिका पर हैं: १-श्रात्मशुद्धि ही जीवनका मुख्य उद्देश्य है, न पहुँचे हुये व्यक्तिके वास्ते 'जिन' शब्द साधारण कि ऐहिक या पारलाविक किसी भी पदका महत्त्व। रूपमें प्रयुक्त होता था। फिर भी भगवान महावीरके २-इस उद्देश्यकी पृतिम बाधक आध्यात्मिक मोह- समय में और उनके कुछ समय बाद तक भी महावीर अविद्या और तजन्य तृष्णाका मुलोच्छेद करना। का अनुयायी साधु या गृहस्थ वर्ग 'जैन' (जिनानुयायी) ३-इसके लिए आध्यात्मिक ज्ञान और उसके द्वारा न.मस व्यवहृत नहीं होता था। आज जैन' शब्दसे मारे जीवन व्यवहारको पूर्ण निम्तृप्ण बनाना । इमक महावीरपोषित सम्प्रदायके त्यागी, गृहस्थ सभी वास्ते शारीरिक, मानमिक, वाचिक, विविध तपस्याओं अनुयागिनोंका जो बोध होना है इसके लिये पहिले का तथा नाना प्रकारके ध्यान-योग-मार्गका अनुमरण निमगन्थी और समरणोवामग आदि जैसे शब्द व्यवहन और तीन चार या पांच महायतोंका यावज्जीवन होते थे। अनुपान । ४-किमी भी आध्यात्मिक अनुभव वाले इस निर्ग्रन्थ या जैन सम्प्रदायमें ऊपर सूचित मनुष्य के द्वारा किसी भी भाषामें कहे गये आध्यात्मिक निवृत्ति धर्म के सब लक्षण बहुधा थे, ही पर इसम वर्णन वाले बचनोंको ही प्रमागारूपसे मानना, न ऋषभ आदि पूर्व कालीन त्यागी महापुरुषोके द्वारा कि ईश्वरीय या अपौरपेय पमे स्वीकृत किसी खाम तथा अन्नमें ज्ञातपुत्र महावीरके द्वारा विचार और भाषामें रचित ग्रन्थोंको। ५---योग्यता और गुरुपदकी आचारगत ऐमी छोटी बड़ी अनेक विशेषताएं आई कमीटी मात्र जीवनकी आयात्मिक शुद्धि, न कि थी व स्थिर हो गई थी कि जिनसे ज्ञातपुत्र महावीरजन्मसिद्ध वर्गविशेष । इम दृष्टिसे स्त्री और शद्र पोषित यह सम्प्रदाय दूसरे निवृत्तिगामी मंप्रदायोमे खास
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-१]
जैनसंस्कृतिका हृदय
३१५
जुदारूप धारण किये हुये था। यहां तक कि यह जैन संघर्ष में भी आना पड़ा। इस सघर्ष में कभी तो जैन सम्प्रदाय बौद्ध सम्प्रदायसे भी खास फर्क रखता था। आचार विचारोंका असर दूसरे सम्प्रदायों पर पड़ा और महावीर और बुद्ध न केवल समकालीन हो थे बल्कि कभी दूसरे सम्प्रदायोंके आचार-विचारोंका असर वे बहुधा एक ही प्रदेशमें विचरने वाले तथा समान जैन सम्प्रदाय पर भी पड़ा । यह क्रिया किसी
और समकक्ष अनुयाइयोंको एक ही भाषामें उपदेश एक ही समय में या एक ही प्रदेशमें किसी एक करते थे। दोनों के मुख्य उद्देश्य में कोई अन्तर नहीं ही व्यक्तिक द्वारा सम्पन्न नहीं हुई। बल्कि दृश्यथा। फिर भी महावोर-पोपित ओर बुद्धसंचालित अदृश्य-रूपमे हजारों वर्ष तक चलती रही सम्प्रदायां में शुरूसे ही नासा अन्तर रहा जो ज्ञातव्य और आज भी चालू है। पर अन्तमें सम्प्रदाय है । बौद्ध संप्रदाय बुद्धको ही प्रादर्श रूपसे पूजता है और दृमरे भारतीय भारतीय सभी धर्म सम्प्रदायो तथा बुद्ध के ही उपदेशोंका श्रादर करता है ज । कि का एक स्थायी सहिष्णुता पूर्ण समन्वय सिद्ध हो गया जैन सम्प्रदाय महावीर श्रादिको इष्टदेव मान कर है जैसा कि एक कुटुम्बके भाइयोमें होकर रहता है। उन्हीं के बचनोंको मान्य रखना है। बौद्ध चित्तशुद्धिके इम पाढ़ियो के ममन्वयक कारण साधारण लोग यह लिये न्यान और मानसिक मंयम पर जितना ज़ोर जान ही नहीं मकते कि उसके धार्मिक आचार-विचार देते हैं उतना जोर बाह्य ता और देहदमन पर नहीं। की कानमी बात मालिक हैं और कौनसी दसरा के जैन ध्यान और मानसिक सयमके अलावा देहदमन मंसर्गका परिणाम है। जैन आचार-विचारका जो पर भी अधिक जोर देते रहे हैं। बुद्धका जीवन असर दूसरों पर पड़ा है उसका दिग्दर्शन कराने के नितना लोकोमं हिलने-मिलने वाला तथा उनके उप- पहिले दूसरं सम्प्रदायोके आचार विचारका जैन माग देश जितने अधिक सीधे-माद लोक-मेवागामी हैं पर जो असर पड़ा है उसे मंक्षेपमें बतलाना ठीक वैसा महावीरका जीवन तथा उपदेश नहीं हैं। बौद्ध होगा, जिसमें कि जैन मंस्कृतिका हार्द सरलतास अनगारकी बाह्यचर्या उतनी नियन्त्रित नहीं रही समझा जा सके। जितनी जैन अनगारोकी । इसके सिवाय और भी इन्द्र, वरुण आदि स्वर्गीय देव-देवियों की स्मृति अनेक विशेषता है जिनके कारण बौद्ध सम्प्रदाय उपासना स्थान में जैनोंका आदर्श निष्कलंक मनुष्य भारतक समुद्र र पर्वतोंकी सीमा लाँधकर उम की उपासना । पर जैन आचार-विचारमें वे बहिष्कृत पुराने समयमं भी अनेक भिन्न भिन्न भाषाभाषी सभ्य देव देवियां. पुनः गौण रूपसे ही सही, स्तुति-प्रार्थना असभ्य जातियोंमे दूर दूर तक फैला और कराड़ों द्वाग घुम ही गई, जिसका कि जैन मंस्कृतिके साथ अभारतीयोने भी बौद्ध आचार-विचारको अपने अपने कोई भी मेल नहीं है । जैन परम्पराने उपासनामें ढगस अपनी अपनी भाषामें अतरा व अपनाया जब प्रताकरूपस मनुष्यमूर्तिको स्थान नो दिया, जो कि कि जैन सम्प्रदायके विषयमें ऐमा नहीं हुआ। उमई उद्देश्यक साथ मगत है,पर साथ ही उसके पास
यद्यपि जैन सम्प्रदायने भारतके बाहर स्थान पाम शृंगार व प्राइमरका इतना मंभार आ गया जो नही जमाया फिर भी वह भारतके दूरवर्ती सब भागों में कि निवृत्ति के लक्ष्यक साथ बिलकुल असंगत है। स्त्री धीरे धीरे न केवल फल ही गया बल्कि उसने अपनी और शुद्रको आध्यात्मिक ममानताके नाते ऊँचा उठान कुछ खास विशेषताओंकी बाप प्रायः भारत के सभी का तथा समाजमें ममान स्थान दिल नेका जो जैन भागोंपर थोड़ी बहुत जरूर डाली। जैसे जैसे जन संस्कृनिका उद्देश्य रहा वह यहा तक लुप्त होगया कि मम्प्रदाय पूर्वसे उत्तर और पश्चिम तथा दक्षिणकी न केवल उसने शद्रोको अपनानको क्रिया ही बन्द
ओर फैलता गया वैसे वैसे उस प्रवर्तक धर्मवाल नथा कर दी बल्कि उसने ब्राह्मण धर्म-प्रसिद्ध ज्ञात और निवृत्तिपंथी अन्य सम्प्रदायों के साथ थोडे बहत जातिकी दीवार भी खड़ा की। यहां तक कि जहां
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१६
अनेकान्त
[वष५
ब्राह्मण परंपराका प्राधान्य रहा वहां तो उसने अपने परम्पराओं के प्राचार-विचार पुरानी वैदिक परम्परासे घेरेमेसे भी शद्र कहलानेवाले लोगोंको अजैन कहकर बिलकुल जुदा हो गए हैं। तपस्याके बारेमें भी ऐमा बाहर कर दिया और शुरू में जैन मंस्कृति जिस जानि- ही हुआ है । त्यागी हो या गृहस्थ सभी जैन तपस्याके भेदका बिरंध करनेमे गौरव समझती थी उसने उपर अधिकाधिक भुकते रहे हैं । इसका फल पड़ौमी दक्षिण जैसे देशों में नये जाति-भेदकी सृष्टि कर दी समाजोंपर इतना अधिक पड़ा है कि उन्होंने भी एक नथा स्त्रियोंको पूर्ण आध्यात्मिक योग्यताके लिये अम- या दूसरे रूपसे अनेकविध मात्विक तपम्या अपना मर्थ करार दिया, जोकि सष्टतःकट्टर ब्राह्मण परंपराका ली हैं। और सामान्यरूपमे साधारण जनता जैनोंकी ही असर है । मन्त्र-ज्योतिष आदि विद्याएं जिनका तपम्याकी ओर आदरशील रही है। यहाँ तक कि जैन संस्कृतिक ध्येयके साथ कोई सम्बन्ध नहीं वे भी अनेकवार मुसलमान म्म्राट तथा दूसरे समर्थ अधिजैन संस्कृतिमें आई। इतना ही नहीं बल्कि प्राध्या- कारियोंने तपस्यासे आकृष्ट होकर जैन मंप्रदायका त्मिक जीवन स्वीकार करने वाले अनगारों तकने उन बहुमान ही नहीं किया बल्कि उसे अनेक मुविधाएँ भी विद्याभोंको अपनाया । जिन यज्ञोपवीत आदि दी हैं। मदामांम श्रादि सात व्यसनोंको रोकने तथा संस्कारोंका मूलमें जैन संस्कृतिक साथ कोई सम्बन्ध उन्हें घटाने के लिये जैनवर्गने इनना अधिक प्रयत्न न था वे ही दक्षिण हिन्दुम्तानमे मध्यकाल में जन किया है कि जिससे वह व्यसन सेवी अनेक जातियों मंस्कृतिकारक अङ्ग बन गये और इसके लिये ब्राह्मण में सुमंकार डालने में समर्थ हश्रा है । यद्यपि बौद्ध परम्पराकी तरह जैन परम्परामें भी एक पुरोहिनवर्ग आदि दृमरे सम्प्रदाय पूरे बलसे इम मुसंस्कार के लिये कायम हो गया। यज्ञयागादिकी ठीक नकल करनेवाले प्रयत्न करते रहे पर जैनोंका प्रयत्न इस दिशामें आज क्रियाकाण्ड प्रतिष्ठा आदि विधियोमे आ गये । ये तक जारी है और जहां जैनोंका प्रभाव ठीक ठीक है नथा ऐसी दुसरी अनेक छोटी मोटी बाने इमलिये वहां इम स्वरविहारके स्वतंत्र युगमें भी मुमलमान घटी कि जैन मंस्कृतिको उन साधारण अनुयायियों और दूसरे मामभक्षी लोग भी खुलमखुल्ला मांस-मदा की रक्षा करनी थी जो कि दूसरे विरोधी सम्प्रदायोंमे का उपयोग करने में सकुचाते हैं। लोकमान्य तिलकने मे आकर उममें शरीक होते थे, या दसरे सम्प्रदायोंके ठीक ही कहा था कि गुजरात आदि प्रान्तोंमें जो आचार-विचारोंसे अपनेको बचा न सकते थे । अब प्राणिरक्षा और निमा म भोजनका आग्रह है वह जैन हम थोड़ेमे यह भी देखेंगे कि जैन सस्कृतिका दसगें परम्पराका ही प्रभाव है। न-विचार - सरणिका पर क्या त्रास असर पड़ा।
एक मौलिक सिद्धान्त यह है कि प्रत्येक वस्तुका ___ यों तो सिद्धांततः सर्वभूतदयाको सभी मानते है पर विचार अधिकाधिक पहलुओं और अधिकाधिक प्राग्गिर नाके ऊपर जितना ज़ोर जैन परम्पराने दिया, दृष्टिकोणोंमे करना और विवादास्पद विषयमें जितनी लगनसे उसने इस विषयमें काम किया उसका बिलकुल अपने विरोधी पक्षके अभिप्रायको नतीजा सारे ऐतिहासिक युगमें यह रहा है कि जहां भी उतनी ही महानुभूतिसे समझनका प्रयत्न जहां और जब जब जैन लोगोंका एक या दूसरे क्षेत्र करना जितनी कि सहानुभूति अपने पक्षकी ओर हो। में प्रभाव रहा वहां सर्वत्र आम जनता पर प्राणिरक्षा और अन्त में समन्वय पर ही जीवन व्यवहारका का प्रबल मंस्कार पड़ा है। यहां तक कि भारतके फैसला करना । यों तो यह सिद्धान्त सभी विचारकों के अनेक भागों में अपनेको अजेन कहनेवाले तथा जैन जीवन में एक या दूसहे रूपसे काम करता ही रहता विरोधी समझने वाले साधारण लोग भी जीवमात्रकी है। इसके मिवाय प्रजाजीवन न तो व्यवस्थित बन हिंसासे नफरत करने लगे हैं। अहिसाके इस सामान्य मकता है और न शांतिलाम कर सकता है । पर जैन मंम्कारके ही कारण अनेक वैष्णव आदि जैनेनर विचारकोंने उस सिद्धांतकी इतनी अधिक चर्चा की
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनसंरतिका हृदय
किरण ८-६ ]
है और उसपर इतना अधिक जोर दिया है कि जिससे कट्टर से कट्टर विरोधी सम्प्रदायोंको भी कुछ न कुछ प्रेरणा मिलती ही रही है। रामानुजका विशिष्टाद्वैत उपनिपकी भूमिकाके ऊपर अनेकान्तवाद ही तो है ।
जैन संस्कृतिके हृदयको समझने के लिये हमें थोड़ेसे उन आदर्शोंका परिचय करना होगा जो पहिले से आजतक' जैन परम्परामै एकसे मान्य हैं और पूजे जाते हैं। सबसे पुराना आदर्श जैन परम्परा के सामन ऋषभदेव और उनके परिवारका है। ऋषभदेवने अपने जीवनका बहुत बड़ा भाग उन जवाबदेहियाको बुद्धिपूर्वक अदा करनेमें बिताया जो प्रजापालनकी जिम्मवारीके साथ उनपर आ पड़ी थी। उन्होंने उस समय के बिलकुल अपढ़ लोगोको लिखना पढ़ना सिखाया, कुछ काम-धन्धा न जानने वाले बनचरोका उन्होंने खेती बाड़ी तथा बढ़ई, कुम्हार आदिके जीवनोपयोगा धन्वे सिखाए, आपसमे कैसे बरतना, केंस समाज नियमो का पालन करना यह भी सिखाया। जब उनको महसूस हुआ कि अब बड़ा पुत्र भरत प्रजाशासनकी सब जवाबदेहियांका निबाह लेगा तब उसे राज्य-भार सौपकर गहरे श्रध्यात्मिक प्रश्नोकी छानबानक लिये उत्कट तपस्वी हाकर घर से निकल पड़े ।
ऋषभदेवकी दो पुत्रिया ब्राह्मा और सुन्दरी नाम की थी। उस जमाने में भाई-बहन के बीच शादीकी प्रथा प्र लिन श्री । सुन्दरीने इस प्रथाका विरोध करके अपनी साम्य तपस्यासं भाई भरतपर ऐसा प्रभाव डाला कि जिससे भरतने न केवल सुन्दरीके साथ विवाह करनेका विचार ही छोड़ा बल्कि वह उसका भक्त बन गया । ऋग्वेदके यमसूक्तम भाई यमने भगिनी यमीकी लग्न मांगको अस्वीकार किया जब कि भगिनी सुन्दरीने भाई भरतकी लग्न मांगको तपस्या पति कर दिया और फलतः भाई-बहन के लग्नकी प्रतिष्ठित प्रथा नामशेष हो गई ।
ऋपके भरत और बाहुबली नामक पुत्रों में राज्य के निमित्त भयानक युद्ध शुरू हुआ । अन्तमें द्वन्द युद्धका फैसला हुआ । भरतका प्रचण्ड प्रहार निष्फल गया । जब बाहुबलीकी बारी आई और समर्थनर
३१७
बाहुबलीको जान पड़ा कि मेरे मुष्टिप्रहारसे भरतकी अवश्य दुर्दशा होगी तब उसने उस भ्रातृविजयाभिमुख क्षणको आत्मविजय में बदल दिया । उसने यह सोच कर कि राज्यके निमित लड़ाई में विजय पाने और फिर वैर प्रति वैर तथा कुटुम्ब - कलह के बीज बोनेकी अपेक्षा सधी विजय अहंकार और तृष्णा- जय में ही है। उसने अपने बाहुबलका क्रोध और अभिमान पर ही चलाया ओर श्रवैरसे वैरके प्रतिकारका जोवन दृष्टान्त स्थापित किया । फल यह हुआ कि अन्तमे भरतका भी लोभ तथा गर्व खर्व हुआ ।
एक समय था जब कि केवल क्षत्रियोंमें ही नही पर सभी वर्गो में मांस खाने की प्रथा थी । नित्य-प्रति के भोजन, सामाजिक उत्सव, धार्मिक अनुष्ठान के श्रव सरो पर पशु-पक्षिओंका वध ऐसा ही प्र प्रतिष्ठित था जैसा आज नारियलों और फलोंका चढ़ना । उस युगमें यदुनन्दननेमि कुमारने एक अजीब क़दम उठाया। उन्होंने अपनी शादी पर भोजनके वास्ते कतल किए जाने वाले निर्दोष पशुपर्तिमूक वाणी से सहमा पिघल कर निश्चय किया कि वे ऐसी शादी न करेंगे जिसमें अनावश्यक और निर्दोष पशु-पक्षियोंका वध होता हो । उस गम्भीर निके साथ वे सबकी सुनी-अनसुनी करके वारान से शीघ्र वापिस लौट आये । द्वारका से सीधे गिरनार पर्वत पर जाकर उन्होंने तपस्या की । कौमारवयमं राजपुत्रीका त्याग और ध्यान- तपस्याका मार्ग अपनाकर उन्होंने उस चिर प्रचलित पशु-पक्षी वध की प्रथा पर आत्म-शन्तमं इतना सख्त प्रहार किया कि जिससे गुजरात भर में और गुजरातके प्रभाव वाले दूसरे प्रान्तों में भी वह प्रथा नामशेष हो गई और जगह जगह याज तक चली आने वाली पिंजरापोलोंकी लोकप्रिय संस्थाओ में परिवर्तित हो गई।
1
पार्श्वनाथका जीवन आदर्श कुछ और ही रहा है। उन्होंने एक बार दुर्वासा जैसे सहजकोपी तापस तथा उसके अनुयाइयोंकी नाराज़गीका ख़तरा उठा कर भी एक जलते सांपको गीली लकड़ी से बचाने का प्रयत्न किया । फल यह हुआ है कि आज भी जैन प्रभाववाले क्षेत्रों में कोई सांप तकको नही मारता ।
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१८
अनेकान्त
दीर्घ तपस्वी महावीरने भी एक बार अपनी हिंसावृत्ति की पूरी साधनाका ऐसा ही परिचय दिया । जब जंगलमे वे ध्यानस्थ खड़े थे एक प्रचण्ड विपधर ने उन्हें डस लिया, उस समय वे न केवल ध्यानमें अचल ही बल्कि उन्होने मैत्री भावनाका उस विषधर पर प्रयोग किया जिससे वह "अहिंसा प्रति छायां तत्संनिधी गैरत्यागः " इस योगसूत्रका जीवित उदाहरण बन गया । अनेक प्रसंगों पर यज्ञयागादि धार्मिक कार्यों में होने वाली हिंसाको तो रोकनेका भरसक प्रयत्न वे आजन्म करते ही रहे । ऐमे ही आदर्शो से जैनसंस्कृति उत्प्राणित होती आई है और अनेक कठिनाइयो के बीच भी उसने अपने आदर्शोंके हृदयको किसी न किसी तरह संभालनेका प्रयत्न किया है, जो भारतके धार्मिक, सामाजिक और राजकीय इतिहास में जीवित है । जब कभी सुयोग मिला तभी त्यागी तथा राजा, मन्त्री तथा व्यापारी आदि गृहस्थों ने जैन संस्कृतिके हिंसा, तप और संयम के आदर्शो का अपने ढंग से प्रचार किया ।
[ वर्ष ५
रही। उसने एक विशिष्ट समाजका रूप धारण किया । समाज कोई भी हो वह एकमात्र निवृत्तिकी भूलभुलैयों पर न जीवित रह सकता है और न वास्तविक निवृत्ति ही साध सकता है। यदि किसी तरह निवृत्तिको न माननेवाले और सिर्फ प्रवृत्तिचक्रका ही महत्व मानने वाले श्रादोर में उस प्रवृत्तिके तूफान ओर आधीमें ही फंसकर मर सकते हैं तो यह भी उतना ही सच है कि प्रवृत्तिका आश्रय विना लिये निवृत्ति भी हवाका फ़िला ही बन जाती है । ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति क ही मानव कल्याणके सिक्के के दो पहलू है। दोष, गलती, बुराई और अकल्याणमं तब तक कोई नहीं बच सकता जब तक वह साथ ही साथ उसकी एवज में सद्गुणोकी पुष्टि और कल्याणमय प्रवृत्तिमं बल न लगावे । कोई भी बोमार केवल अपथ्य और कुपथ्यमे निवृत्त होकर जीवित नहीं रह सकता । उसे साथ ही साथ पश्य सेवन करना चाहिये । शरीरमं दूषित रक्तको निकाल डालना जीवन के लिये अगर जरूरी है तो उतना ही जरूरी उसमें नये रुधिरका संचार करना भी है।
संस्कृतिमात्रका उद्देश्य है मानवताकी भलाई की ओर आगे बढ़ना । यह उद्देश्य तभी वह साध सकती है जब वह अपने जनक और पोषक राष्ट्रकी भलाईमें योग देनेकी ओर सदा अग्रसर रहे। किसी भी संस्कृतिक बाह्य अंग केवल अभ्युदय के समय ही पन पते हैं और ऐसे ही समय वे आकर्षक लगते हैं । पर संस्कृतिके हृदयकी बात जुदा है। समय आतका हो या अभ्युदयका, उसकी अनिवार्य आवश्यकता सदा एक सी बनी रहती है। काई भी संस्कृति केवल अपने इतिहास और पुरानी यशगाथाओ के सहारे न जीवित रह सकती है और न प्रतिष्ठा पा सकती है । जब तक कि वह भावी निर्माण में योग न दे। इस दृष्टिसे भी जैन संस्कृति पर विचार करना मंगत है । हम ऊपर बतला आए हैं कि यह संस्कृति मूलतः निवृत्ति अर्थात पुनर्जन्म से छुटकारा पाने की दृष्टिसे आविर्भूत हुई। इसके आचार-विचारका सारा ढांचा उसी लक्ष्य के अनुकूल बना है। पर हम यह भी देखते हैं कि आखिर में वह संस्कृति व्यक्ति तक सीमित न
ऋषभसे लेकर आज तक निवृत्तिगामी कहलाने वाली जैन संस्कृति भी जो किसी न किसी प्रकार जीवित रही है वह एकमात्र निवृत्तिके बलपर नही किन्तु कल्याणकारी प्रवृत्तिके सहारे पर । यदि प्रवर्तक धर्मी ब्राह्मणोंने निवृत्तिमार्ग के सुन्दर तत्वों को अपनाकर व्यापक कल्याणकारी संस्कृतिका ऐसा निर्माण किया हैं जो गीता मे उज्जीवित होकर आज नये उपयोगी स्वरूपमे गांधीजी के द्वारा पुनः अपना सरक
कर रही है तो निवृत्तिलक्षी जैन संस्कृतिको भी कल्याणाभिमुख आवश्यक प्रवृत्तियों का सहारा लेकर ही आजकी बदली हुई परिस्थिति में जीना होगा । जैन संस्कृतिमे तत्त्वज्ञान और आचार के जो मूल नियम हैं और वह जिन आदर्शों को आज तक पूजती मानती आई है उनके आधार पर वह
मंगलमय योग साध सकती है जो सत्रको क्षेमकर हो ।
जैन परंपरा में प्रथम स्थान है त्यागियोका, दूसरा स्थान है गृहस्थोका । त्यागियोंको जो पांच महाव्रत
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-१]
जैनसंस्कृतिका हृदय
३१६
धारण करनेकी आज्ञा है वह अधिकाधिक सद्गुणों लेकर घरसे अलग हुआ है, और ऋषभदेव तथा में प्रवृत्ति करनेकी या सद्गुण-पोपक प्रवृत्तिके लिये नेमिनाथके आदर्शोको जीवित रखना चाहता है। बल पैदा करने की प्राथमिक शर्त मात्र है। हिमा, -देशमें गरीबी और बेकारीकी कोई सीमा असत्य, चोरी, परिग्रह आदि दोपोसे बिना बचे नहीं है। खेती बार। ओर उद्योगधंधे अपने अस्तित्वके सद्गुणों में प्रवृत्ति हो ही नहीं सकती, और मद्गुण- लिए बुद्धि, धन, परिश्रम और साहसकी अपेक्षा कर पोषक प्रवृत्तिको बिना जीवनम स्थान दिये हिंसा रहे है। अतएव गृहस्थोंका यह धर्म हो जाता है कि
आदिसे बचे रहना भी मर्वथा असम्भव है। इस वे संपत्तिका उपयोग तथा विनियोग राष्ट्र के लिए करें। देशमें जो लोग दूसरे निवृत्ति पंथोकी तरह जैन पंथ वे गांधीजीके ट्रस्टीशिपके सिद्धान्तको अमल में लावें। में भी एक मात्र निवृत्तिको कान्तिक माधनाकी बुद्धिसंपन्न और साहसियोका धर्म है कि वे नम्र बात करते हैं वे उक्त सत्य भूल जाते हैं। जो बनकर ऐसे ही कामोमें लग जाग जो राष्ट्र के लिये व्यक्ति सार्वभौम महाव्रतीको धारण करनेकी शक्ति विधायक हैं। कांग्रेसका जो विधायक कार्यक्रम नही रखता उसके लिये जैन परम्राने अणुव्रतोंकी कांग्रेसकी ओरसे रखा गया है इसलिए वह उपेक्षमृष्टि करके धीरे धीरे निवृत्तिकी और आग बढनका णीय नहीं है। असलमे वह कार्यक्रम जैन संस्कृतिका मार्ग भी रखा है। ऐसे गृहस्थोंके लिए हिमा आदि एक जीवन्त अङ्ग हे। दलितों और अस्पृश्योंको भाई दापोंसे अंशनः बचनेका विधान किया है। उसका की तरह बिना अपनाए कौन यह कह सकेगा कि मैं मतलब यही है कि गृहस्थ पहले दोषोंसे बचनेका जैन हूँ ? खादी और ऐसे दूसरे उद्योग जो अधिकसे अभ्याम करे । पर साथ ही यह आदेश है कि जिस अधिक अहिसाके नज़दीक हैं और एकमात्र आत्मौपम्य जिस दोपको वे दूर करें उस उम दोपके विरोधी एवं अपरिग्रह धर्मके पोपक हैं उनको उत्तेजना बिना सद्गुग्गोंको जीवनमे स्थान देते जांय । हिंसाको दर दिएकीन कह सकेगा कि मैं अहिंसाका उपासक हैं। करना हो तो प्रेम और आत्मौपम्यके सदगणको अतण्व उपसंहारमे इतना ही कहना चाहता हूँ कि जैन जीवनमे व्यक्त करना होगा । सत्य विना बोले और लोग, निग्थेक आडम्बरों और शक्तिके अपव्ययकारी सत्य वोलनका चल बिना पाये अमन्यमे निवृत्ति कैसे प्रसंगोंमे अपनी संस्कृति सुरक्षित है, यह भ्रम छोड़ होगी ? परिग्रह और लोभरो वचना हो तो मन्तोष कर उसके हृदयकी रक्षाका प्रयत्न करें, जिसमें हिन्दु और त्याग जैसी पीपक प्रवृत्तिओमें अपने आपको और मुमलमानोंका ही क्या, सभी कौमोंका मेल भी खपाना ही होगा। इस बातको ध्यानमे रखकर जैन निहित है। मंस्कृतिपर यदि आज विचार किया जाय तो आज संस्कृतिमात्रका संकेत लोभ और मोहको घटाने कलकी कमाटीमें जैनोंके लिये नीचे लिग्बी बातें व निर्मूल करनका है, न कि प्रवृत्तिको निर्मूल करने फलित होती हैं:
का । वही प्रवृत्ति त्याज्य है जो आसक्तिके बिना कभी १-देशमे निरक्षरता, वहम और आलस्य व्याप्त
संभव ही नहीं, जैसे कामाचार व वैयक्तिक परिग्रह है। जहां दग्यो वहां फूट ही फट है। शराब और
आदि । जो प्रवृत्तियाँ ममाजका धारण, पोपण, दूसरी नशीली चीजे जड़ पकड़ बैठी हैं। दुकाल,
विकसन करने वाली हैं वे आसक्तिपूर्वक और आसक्ति अतिवृष्टि, परराज्य और युद्धके कारण मानव-जीवन
के मित्राय भी मम्भन हैं। अतएव मंम्कति आसक्ति का एकमात्र आधार पशुधन नामशेष हो रहा है।
के त्यागमात्रका संकेत करती है। जैन मंस्कृति यदि अतएव इस सम्बन्धमें विधायक प्रवृत्तियोंकी भोर
संस्कृति सामान्यका अपवाद बने नो वह विकत बन मारे त्यागीवर्गका ध्यान जाना चाहिये, जो वर्ग कुटुम्ब
कर अन्नमें मिट जा मकती है। के बन्धनोंमे बरी है, महाबीरका अान्मौ.म्यका उद्देश्य (विश्ववाणीके जैनसंस्कृति अङ्कस'-)
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रेम-कसौटी
(o-श्री दौलतराम 'मित्र') "प्रेम-पात्रके हित-साधनको, उसे त्याग कर सकनेमें- सुख माताका है, पुत्रका नहीं है । माताको देखनेसे अगर और प्रसंग-कठिन पड़ने पर तन-धन-युत मर मिटने में--- पुत्रको सुख हो नो हो, वह जुदी बात है, उसमें पुत्रकी प्रवृत्ति हो न अगर पीटा-अनुभव, तो हममे प्रेम सचोटी है। होनी चाहिये। माताने यहांपर अपना एक सुख ढढा-नित्य उपादेय बस यही एक अति उत्तम प्रेम-कसौटी है॥" पुत्रका मुख देखना । उसकी अभिलाषा करके उसने पुत्रको
यह मेरी एक तुकबंदी है। इसके प्राचार दो हैं-एक दरिद्रताके दुखसे दुःखित बनाना चाहा। यहां मातास्वार्थपर सिद्धान्त, दूसरा उदाहरण ।
है, क्योंकि उसने अपने सुखके लिये अन्यको दुखी किया।" (१ सिद्धान्त)
___ 'स्नेहका यथार्थ स्वरूप ही अस्वार्थपरता है । जिस श्री-वंकिमचन्द्र प्यारका अत्याचार"नामक लेखमें लिखते हैं:
माताने पुत्रके सुखके लिये पुत्र मुखदर्शन-सुखकी कामना "मानलो कोई ग़रीब है। देवके अनुग्रहसे उसे कोई
छोड़ दी, वही यथार्थ स्नेह करने वाली है। जो प्रणयी अच्छी जगह मिल गई और वह दूर देश जाकर ग़रीबीसे पीछा
प्रणय-त्रात्रकी भलाई के लिये प्रणय-सुख-भोगको छोड़ सका बुदानेका उद्योग कर रहा है। इसी बीच में मानाने रोना-धोना
वही सच्चा प्रणयी है।"(वंकिम-निबन्धावली, पृ०११०।१३) मचा दिया। उसे अपनेसे दर जाने के लिये मना किया। वह
_ (२ उदाहरण) मातृ-प्रेमसे लाचार होकर रह गया । मातृ-प्रेमके अन्याचारसे कथा है-"एक लड़का दूध पीता चोरी चला गया। उसने अपनेको सदाके लिये गरीबीके गढ़ेमे डाल दिया।' असेंके बाद पता चला। दोनों माताओंमें झगडा पैदा हुआ।
'कह सकते हैं कि जिस माताने स्नेहवश पुत्रको जननी माताने चोर-माता पर न्यायालयमें दावा दायर किया । धन कमानेके लिये परदेश नहीं जाने दिया, वह क्या स्वार्थ- दोनो तरफसे सबूत पेश किए गए। न्यायाधीश किसी एक पर है ? बल्कि यदि वह स्वार्थपर होती तो पुत्रको धनकी पक्षकी तरफ रहने के लिए मतुष्ट न हो सके। वे बड़े विचार खोजमें दूर देश जानेके लिये ममा न करती क्योंकि कौन में पड़े । अाखिर एक दिन उन्हें एक सूझ सूझी। माता पुत्रकी कमाई का सुख नहीं भोगना चाहती ? अतएव अदालतमें दोनों माताओं और लडकेको हाजिर किया इस प्रकारके दर्शन मात्रकी आकांक्षा रखने वाले स्नेहको गया। मंठ-मूठ फैसला सुनाया-'लेख और गवाह परसे बहुत लोग श्रस्वार्थपर स्नेह समझते हैं। किंतु वास्तवमे मामला सशंकित है. दोनों पक्षों में जाता है । अतएव हुक्म यह खयाल ठीक नहीं है। यह स्नेह भस्वार्थपर नहीं दिया जाता है कि लडकेके दो टुकडे करके एक एक है। जो लोग इसे अस्वार्थपर मानते हैं, वे केवल धन- टुकडा दोनोंको बांट दिया जाय ।” परायणताको ही स्वार्थ-परता समझते हैं। जो धनकी
अदालतमे सन्नाटा' श्रोताजन सकंप ।। चोर माता कामना नहीं करता, उसे वे स्वार्थपरतासे शून्य समझते हैं।
- मनुष्ट ।। असली माता चिल्ला उठी-'मुझे प्राधा नहीं
चाहिये, पूरा इसे दे दो।' वे यह नहीं समझ सकते कि धन-लाभके अलावा पृथ्वीपर
श्रोता जनोंकी कपकपी दूर हुई, मह खुले, तरह तरह अन्यान्य सुख हैं और उसमेंमे किमी किसी सुखकी आकांक्षा
इसमम किमी किसा सुखका आकाक्षा की चर्चा करने लगे। धनकी आकांक्षासे अधिकतर वेगवाली है। जिस माताने
स्वत: सिद्ध हो गया. लग्केकी जननी--सचा प्रेम धनका मोह त्यागकर पुत्र-मुख देखनेके सुम्बकी वासमासे करने वाली माता कौन है ! पुत्रको सदाके लिये ग़रीब बना डाला, अथवा अपनी प्रेम-कमौटीपर परीक्षा हो गई। तब न्यायालयसे असली अवस्था संभालनेका अवसर उसके हाथसे निकल जाने फैसला हुश्रा-"जो माता लडकेके हित के लिए उसे और दिया, उसने भी अपना सुख खोया । वह धनका सुख नहीं अपने स्वार्थको त्याग देनेको राज़ी है, वही सरचा प्रेम करने चाहती, किन्तु पुत्रको सदा देखनेका सुख चाहती है। वह वाली लड़की जननी है। लडका उसके सुपुर्द कियाजाय।"
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन जातियोंके प्राचीन इतिहासकी समस्या
( ले०-श्री अगरचन्द नाहटा )
जैन जातियों का इतिहास जैन इतिहासकी एक जटिल ते सेलयया, ते अट्ठसेणो, ते वायकरहा। समस्या है। वर्तमान समस्त जैनजातिय अपनेको पूर्णावस्थामें ४ जे कोत्था ते सत्तविहा पन्नता तजहाःक्षत्रिय एवं जैनेतर बतलाती हैं और अमुक समयमें ते कोत्था, ते मोग्गलायणा, ते पिंगायणा, ते अमुक प्राचार्य द्वारा प्रतियोधित कही जाती हैं, पर इसके कोर्ड णा, ते मंडलिणो, ते हारिया, ते सोमया। विषयमें प्राचीन एवं समकालीन प्रमाणोंका पर्वथा अभाव ५ जे कोसिया ते सतविहा पन्नत्ता तजहाःनज़र पाता है। समझमें नहीं पाता कि प्राचीन जैन विद्वान ते कोसिया ते कच्चायणा, ते सालंकायणा, ने जैन जातियों के उत्पनि एवं इतिहासके सम्बन्धमें उदासीन क्यों गोलिकायणा, ते पारिककायरणा, ते अग्गिच्चा, रहे । जब कभी भी कि 1 जैनाचार्यमे हजारों अजैनोंको तेलेहिच्चा। जैन बनाया तो वह घटना एवं समय जैन इतिहासकी ६ जे मंडवा त मत्तविहा पन्नत्ता तं जहाःमहत्वपूर्ण बात अवश्य थी फिर भी प्रनिबोधक श्राचार्य के त मडया, ने आरिट्ठा, ते संमुत्ता, तेहेरा ते एलाशिष्योंने अपने गुरुके महत्वपूर्ण कार्यका उल्लेख क्यो नही बच्चा, ते कतल्ला, त कवायणा । किया और प्रभावक प्राचार्य रूपमे उनका उल्लख उन ७ ते वामिट्ठा ने मत्त व्हिा पन्नत्ता तंजहाःसमकालीन या कुछ पश्चात्वा विद्वानों ने भी उसका उल्लेख ते वामिट्ठः, त उंजायणा, त जारुकण्हा, ते वग्धाक्यों नहीं किया?
बच्चा, ने कोडिन्ना, ते सत्ती, ते पागसरा। प्राचीन जैनागमोको टटोलने पर वर्तमान किसी भी अर्थात:-मूलगोत्र । हैं ५ कश्यप, २ गौतम, ३ वत्म, जैन जासिका कही नामरूपसे भी उल्लेख नहीं मिलना। ४ कुत्म, ५ कौशिक, ६ मंडप और ७ वाशिष्ठ इनमें से उस समयके प्रसिद्ध गोत्र मेरे अन्वेषणानुसार निम्नोक्त हैं-- प्रत्येक्के ७-७ उपभेद हैं जो इस प्रकार हैं:___ श्वेताम्बर जैनागम स्थानाङ्ग सूत्रके ७ वे स्थानके १८ वे १ कश्यप, मांडिल्य, गोल, वाल, मुंज, पर्वत, वरिसकृष्ण मत्रमे जिग्खा है कि:
२ गौतम, गर्ग, भारद्वाज, अंगीरम, शर्कराभ, भास्कराभ, मत्त मूल गोत्ता पन्नत जहा:
उदनाभ। १ कामवा, २ गोयमा, ३ वत्था, ४ कोत्था, ३ वस, अंगिय, मित्तिय, सामलीय, मेलवय, अस्थिम्पेन, ५ कोसिया, ६ मंडवा, ७ वसिट्ठा।
वन्मुकृष्ण । १ जे कासवा से सत्तविहा पन्नत्ता तंजहाः
४ कुस्म, मौदगलायन पिगतण, कोडिन्न, मंडलीक, हारित, ते कामवा, ते मंडिल्ला, ते गोला. ते वाला, ते सोमय ।
मुजतिणो, ते पबतिणो, ते वरिसकहा। ५ कौशिक, कात्यायन, शालकायन, गोलिकायन, परिकका२ जे गोयमा ते सत्तविहा पन्नत्ता तंजहाः
यन, अगित्या. लोहित्य । ते गोयमा, ते गग्गा, ते भारदा, ते अंगिरमा, ६ मंडप, अरिष्ट, संमुत्त, भेला, पलापश्य, कंतेल्ल, ग्वायण ।
ते मकराभा, ते भक्ग्वगभा, ते उदत्ताभा। वाशिष्ट उंजायन जास्कृष्य, व्याघ्रापन्य, कोदिन्न, सत्ती, ३ जे वत्था ते मत्तविहा पन्नत्ता नजहाः
पाराशर । ने बत्था, ते अग्गिया, ते मित्तिए, ते मामलिणो, बह प्रकारक कुलार्या व प्रकारके जाति पार्यका
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२२
अनेकान्त
वर्ष ५
उल्लेख इसी सूत्रमें इस प्रकार है:
२२ जालंधर गोत्रीय भगवान महावीरकी माता नेवनंदा १ छबिहा कुलारिया मणुस्सा पन्नत्ता तं जहा:
(कल्पसूत्र)
____इससे स्पष्ट है कि ५ वीं शताब्दी तक तो इन्ही गोत्रों १ उग्गा २ भागा ३ राइन्ना, इक्वागा, रणाया,
का प्रचार था और वर्तमान जैन जातियोंका नामकरण इस कोरवा।
समय तक नहीं हुआ था। उपलब्ध प्रमाण मे १५वीं शताब्दीके अर्थात् कुलार्य ६ प्रकारके हैं-१ उग्र+ २ भोग
पहलेका एक भी उल्लेख अवलोकनमे नहीं आया जिसमे ३ राजन्य ४ इच्वाकु ५ ज्ञान ६ कौरव ।
वर्तमान जैन जातियोमेसे किसी भी जातिका नाम निर्देश (२) विहा जरइ अग्यिा मणुरुला पन्नत्ता तंजहाः- हो। १२वी-१३वी शताब्दीकी कई महत्वपूर्ण प्रशस्तिये एवं
१ अंबढ़ाय, २ कलंदाय, ३ वेदेहा ५ वेदिगाइया शिलालेख मिलता है ५ हरिया ६ चंचुणा।
भी ६ वीं शताब्दी तक ही है अर्थात् उनमें आये हुए अर्थातः-६ प्रकारके जाति प्रार्य ये हैं:-अंबस्द, कलिद, नामोका विस्तार भी वीं शताब्दी तक ही सीमित है। विदेह, विदेहगा. हरिता और चंचुया।
मुनि जिनविजयजी सम्पादित जैन पुस्तक प्रशस्तिसंग्रहकी अब हमे देखना यह है कि इन गोत्र नामोंका उल्लेख (नं. ३५) सं० १३६५ की प्रशस्तिमें श्रीमाल वंशम शांतिकबसे कब तक पाया जाता है। और इनमेंसे कौनसे २ गोत्र सूरि द्वारा प्रतिबोधित डीडू श्रावककारित नवहर मदिरका प्रयुक्त रूपसे मिलते हैं
समय सं० ७०४ बतलाया गया है यथा :आवश्यक सूत्रके ३८१ वी गाथामे लिखा है कि २४
"श्रामाल वंशोस्ति विशालकीर्तिः तीर्थकरोमेंसे । मुनिसुव्रत २ अरिष्टनेमि गौतमगोत्रके थे
श्रीशांतिमूरि प्रतिबोधित डीडवाख्यः। अन्य सब काश्यप गोत्रके थे। चक्रवर्ती सब काश्यप गोत्रीय
श्रीविक्रमावदनभमहर्षि-वत्सरे, थे। वासुदेव बन्देवोमे ८-८ तो गौतम गोत्रीय थे केवल
श्रीआदिचैत्यकारापितनवहरे च (१)॥" लघमण और पउम (राम) दो कश्यप गोत्रीय थे। अर्थात
यद्यपि यह उल्लेख घटनाके बहुत पीछेका है अत: ये गोत्र परम प्राचीनकालसे प्रवतित थे अब देखना यह है
संवन् पूंर रुपये ग्राह्य नही माना जा सकता फिर .यह कि इनका सम्बन्ध जैनामे कब तक रहा और कौन कौनसे उल्लं ख अपना महत्व रखता है। इसी प्रकार जैनाचार्य गोत्रोंके उल्लेख मिलते हैं।
श्रात्माराम शताब्दीस्मारक ग्रन्थमे श्रीमाली जातिकी एक वीरनिर्वाण १८. अर्थात विक्रमके ५ वी शताब्दी
वशावलि प्रकाशित हुई है उसमे लिखा है कि "भारद्वाज
गोत्रे मंवत ७६५ वर्ष प्रतिबोधित श्री श्रीमालज्ञातियः तकके श्वेताम्बर जैन युगप्रधान प्राचार्यों व स्थविरोकीन.मावलि नंदी और कल्पसूत्रकी स्थांवरावली में पाई जाती है
श्रीशातिनाथगोष्ठिकः श्रीभिन्नमालनगरे भारद्वाजउनमें उन सभी प्राचार्योंके गोत्र इस प्रकार बतलाये हैं -
गोत्र श्रेष्ठी तोज" इत्या द उल्लेखौको नजर तले रखते हुए
एवं कतिपय भारतीय प्रसिद्ध ऐतिहासिक विद्वानोंका भी १ गौतम, २ भारद्वाज, ३ अग्निवेश्यायन, ४ वाशिष्ट,
यही मत है कि भारतकी बहुत-सी क्षत्रिय एवं वैश्य ५ काश्यप, ६ हारितायन, ७ कोडिन्य, ८ कात्यायन, ६ चम्म,
जातियोका नामकरण ८ वी शताब्दीम हुअा, कथम पर १. तुङ्गियायन, ५९ माढर. १२ प्राचीन, १३ ऐल्लापत्य,
विचार करने पर वर्तमान जैन जातियोंका नामकरण-स्था५४ व्याघ्रापत्य, १५ कुत्म, १६ पौशिक, १७ कोडाल, १८
पनाका समय भी ७-८ वीं शताब्दीके लगभग होना उत्कौशिक, ११ मुवत (मावया) २०, हारित २१ सांडिल्य,
संभव है ।* +यह वंश अब भी बगाल प्रान्तम है।
*शेष जानने के लिये देखो मेग 'अोमवाल जातका स्थाहलमाफ-यायक मनसे वर्तमान जथ ग्या जाही ज्ञान पना मम्बन्धी प्राचीन प्रमाणोकी परीक्षा" शार्पक निबंध जो वंशन हे।
कि.नरुण ग्रोमवाल के वर्ष २ अं०६-.मे प्रकाशन है।
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ८-६]
मेंडकक विषयमें शंका समाधान
३२३
अद्यावधि हमारे जैन विद्वानोंने जैन जातियोंके इतिहास कि ४-५ विद्वान इसके लिये नियुक्त करें और वे स्थान का अन्वेषण कार्य बहुत ही कम किया है । इसमें भी श्वेता- स्थानमें भ्रमण कर प्रनिमालेखोंका संग्रह करें एवं हस्तम्बर समाजसे कुछ एतासम्बन्धी सामग्री प्रकाशित तो हुई लिम्वित ग्रन्थभंडागी मृचीनिर्माण के साथ साथ ग्रन्थहै पर दि० विद्वानोंका ध्यान तो अभी इस ओर गया ही रचना एवं लेग्वनी प्रशस्तियों का संग्रह करें। श्राशा है नहीं कह सकते हैं। जैन जातियोके इतिहासकी प्राचीन मेरे नम्र निवेदन पर वह शीघ्र ध्यान देगी। और दि. मामग्रीमे १ शिलालेख एवं २ प्रशस्तिसंग्रह घटनाके पम- ऐतिहासिक विद्वान जैन जातियों के प्राचीन इतिहास पर कालीन लिखित होनेसे अधिक उपादेय हैं, दि. समाज विशेष प्रकाश डलंगे। की ओरसे शिलालेखसंग्रहका काम थोडा सा हुआ है और का इतिधाम दर्गाशरणलाल जायसवाल का देखा तो प्रशस्तिसंग्रहका कार्य तो उससे भी कम हुआ है, अत: इन उममे जायमवाल जनिकी उत्पनि जेसलमेर के भाटी जैमलमे दोनों महा पूर्ण कार्योकी भोर दि० विद्वानोंको अतिशीघ्र बतलाई हैं जो मर्वथा भ्रमित है क्योकि जैमलमेकी स्थाध्यान देना चाहिये। अन्यथा दि.जातियोंका इतिहास अंधकार पना मं० १२१२ में हुई हैं और यमवाल जातिका मं० में ही पढा रहेगा। दि. समाजका परमावश्यक कर्तव्य है । रहगा । दि० समाजका परमावश्यक कत्तव्य है ११४५ का बकुंडकार जैन शालेग्ब उपलब्ध है अर्थात्
जैनशिलालेखी एव प्रशस्तियांकी खोज में केवल जैनीका हौ * अग्रवाल और जायमवाल जाति दि. जेनांकी भी है और हित है यह नह। पर भारतीय इतिहाममे भी नया युगान्तर जेनेर ममा.में भी ये जाये है उनमेसे जायमबाल जा। उपस्थित होगा।
मेंडककें विषयमें शंका-समाधान
(ले०-श्री दौलतराम 'मित्र' )
अक्टोबर सन १८४० के अनेकान्तमें मैंने मेंडक हासिक नहीं किन्तु कल्पित जान पड़ती है ? के विषय में एक शंका उपस्थित करते हुए यह आशा इस शंकापर नीचे लिखे जवाब मेरे देखने में प्रकट की थी कि इसपर कोई सज्जन प्रकाश डालेंगे। आये
शंका सिर्फ इतनी-मी थी कि जलचर पंचेन्द्रिय १ जनमित्र २०-२.४५ श्री० नेमीचन्दजी मिघई तिर्यञ्च सम्मूर्छन भी होते हैं, गर्भज भी होते है इंजिनियर नागपुर ।। (गो० जी० गाथा ७६ ) परन्तु इनमें से मेंडक वर्गक २ जनमित्र १०-२-१५ श्री०वीरचन्द कोदरजी गांधी प्राणी गर्भज हैं या सम्मन्छन या दोनों ही प्रकार की कल्टण । इसी लग्बमें मेंडकके सम्मूर्छन होने के प्रमाण देकर ३ अनेकान्त मई १६४१ श्री० नेमीचन्द जी मिघई फिर यह शंका उठाई थी कि अगर वह राजगृही इंजिनियर नागपुर । वाला मेडक सम्यकदृष्टि था तो उसका गर्भज होना ४ जैनसंदेश १-१०-४२ श्री. पं० सुमेरचन्दजी
आवश्यक है (लब्धिमार गाथा . ) परन्तु मडक तो "न्निनीपु”, न्यायतीर्थ ।। सम्मूच्छन होते हैं, अतः राजगृही वाले मेडककी कथा इन जवाबो में तीन महाशयांने जो लिखा है सो तियश्च भी भगवद्भक्तिके फलमे देव-ाति प्राप्त कर देखियसकता है, इस मत्यप्रयोजन पापक होकर भी ऐति- १ श्री नेमीचन्दजी निघई तो गर्भज मूच्छनकी
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२५
अनेकान्त
[ वर्ष ५
चर्चा छोड़कर मैनी-असैनीकी चर्चा ले बैठे। और
(धवला चतुर्थखंड पुस्तकाकार पृष्ठ २५०) मेंडकको असैनी मान बैठे। (जनमित्र)
और यह भी लिखा कि लब्धिसार गाथा नं०२ • श्री वीरचन्द कोदरजी गाँधीने नेमीचन्दजी सिंधई में जो कथन किया गया है वह प्रथमापशम सम्यक्त्व
की इस मान्यताका कि मेंडक असैनी है. खंडन की अपेक्षासे है उसका आशय यह है कि प्र० सं० किया और ले देकर वही गोमट सारकी
गर्भज और संज्ञीके ही हो सकता है। वहाँ द्वितियो"गिवण्णं इगविगने अमरिणसरिणगयजलथलखगाणं ।
पशम सम्यक्त्वका निषेध नहीं किया है। गम्भभवे सम्भुछ दुतिग भोगथन खेचरे दो हो।"
पडितजीने एक बात बड़े मजेकी यह भी कह (गो. जी. गा. ७१)
डाली कि “विशेष बलवती शंका न देख उस ओर
उपयोग नहीं गया किन्तु धवला चतुर्थ खडका स्वाध्याय इम गथाका हवाला देकर यही कहा कि मेडक
करते समय अकस्मात उस शंकाकी तरफ दृष्टिपात गर्भज और सम्मूर्छन दोनों प्रकारके होते हैं।
गया।" आश्चर्य तो इस बात का है कि इन्होंने इस बात अक्टोबर सन १९४० मे प्रकाशित शंकापर अक्टोका ध्यान ही नहीं दिया कि गाथामें मेडकका वर्णन बर सन १६४२ में विचार प्रकट करने पर भी (भला नहीं किन्तु जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च सामान्यका हो धवलाका !) यह कहना कि शंका कमजोर !विचार वर्णन है । जलचरोमें कई वर्गके प्राणी हैं, उनमें जोरदार! यह तो वही मसल हुई कि "आपनो माल किसी वर्गके गर्भज किमी वर्गके मम्मूच्र्छन, और पूंछ नो बाल, और पर नो माल पूछना बाल” खैर किसा वर्गके प्राणी दोनों प्रकारके हो सकते हैं। यों ही मही।
जैसा कि मैन हर तरहसे सिद्ध किया था कि मंडक इस प्रकार तीनो मजनों के जवाब हैं । इनमें से मर्गके प्राणी सम्मृर्छन होते है, वैमा गांधी महाशय दो मज्जनोके ( सिंघईजी और गांधीजी के ) तो यह सिद्ध नहीं कर मके कि मेडक गर्भज भी होते हैं। सवाल दिगर जबाबदिगर' वाली कहावतको चरितार्थ खाला अटकल पच्चू तौर पर यह लिख दिया कि करने वाले हैं। शेष रहे तीसरे सजन पं० सुमेरचन्द्रजी, “मेंडकके युगल बड़े तालाब और कावदीमें देखने मे मो इनका जवाब कुछ समाधान कारक हे । “कुछ" आते हैं।"
कहने के कारण है । वे ये हैं३५० सुमेरचन्दजीन उक्त दोनो महाशयांकी इस १ जब मैंने उक्त शंका उपस्थित की थी उस समय मेरे मान्यताका कि मटक गर्भज है, खंडन करके "धवला" त्यालमें यह बात जमी हुई थी कि मेंटक सम्मृच्छन शास्त्राधारसे यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि ही होते हैं । परन्तु बाद में विकाशवाद पुस्तकके मंडक गर्भज नही, मम्मृच्छन जीव है। और उमक देखने पर मालम हाकि मेडक गर्भज भी होते हैं। पंचम गुण स्थान तक हो सकता है । यथा- २ ऊपर उधृत धवलाके शब्दार्थपरसे यह सिद्ध नही ___ "मोहकर्मकी अठाईम कमप्रकृतियांकी सत्तावाला होना-ऐमा एकांत कथन नहीं निकलता कि मेडक. एक तिर्यञ्च अथवा मनुष्य मिथ्यादष्टि जीव, मंज्ञी १"चमिच्छी मरागी पएणो गाजविसुद्धसागाये। पंचेन्द्री और पर्याप्तक, से सम्मृच्छन निर्यच मच्छ पदमबममं म गिराइदि पंचम पग्लद्विचारमन्दि ॥ कच्छ मेंडकादिको में उत्पन्न हुआ, मबलघु अन्तमु हने
(लब्धिसार २) काला द्वारा सर्व पयाप्रियासे पर्याप्त पनेका प्राप्त हुश्रा २'च दुगदि भव्य मरागी पजनी मुझगो द सागागे। (१) पुनः विश्राम लेना हा (6) विशुद्ध होकर (३) जागागे मल्हमा मद्धि गो मम्ममुवगमई ॥" संयमासंयमको प्रान हुआ।"
(गो-जी ६५१)
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
करण -६]
मेंडकके विपयमें शंका समाधान
३२५
सम्मुर्छन ही होते हैं।
मीमा तक पहुंच गया है, और सामान्य नियम बन ३ लब्धिसार गाथा नं. २ का श्राशय यदि यह लें कि गया है। इन जीवोंका विचार करनेसे पहिले हमें प्रथमोपशम सभ्यास्त्र प्राप्तिके लिए ही गर्भज होना बीचकी स्थितिको देखना पड़ेगा, याने वह जो अलि
आवश्यक है तो फिर देव-नारक गतिमें प्र० स० ङ्गिक स्थिति (एककोषीय जीव ) के बाद की और को अप्राप्ति रहेगी ?-परन्तु लगाथा २०२ में द्विलिङ्गिक स्थितिक पहिलेकी है। इसे उभयलिङ्गिका तो चारों गति में प्र० स की प्राप्तिका विधान है। नाम दिया गया है, क्योंकि इनमें नर और मादा' जो हो, मैंने तो अपना समाधान इस तरह कर
दोनों के गुण मौजूद होते हैं । अब भी कुछ ऐसे लिया है--
जीव हैं, जिनमें यह स्थिति देखने में आती है। उनमें
आंतरिक कोपोंकी वृद्धि तो उसी तरह होती जाती है १ मेंडकवर्ग के प्राणी गर्भज समूर्छन दोनों प्रकार के
मगर कुछ कोपोके शरीरसे बिलकुल निकल जानेके, होते हैं।
बदले, वे एक अंगसे दूसरे अंगमें चले जाते हैं, २ द्वितीयोपशम सम्यक्त्व प्राषिके लिए गर्भज होना और वहीं उनका पोषण तब तक होता रहता है जब आवश्यक नही है।
तक वे स्वतंत्र जीवनके योग्य नहीं हो जाते।...." ३ राजगृही वाला मेंडक मम्यग्दष्टा था अतएव उसके यहां एक बात ध्यान देने लायक है। उभयजिनपूजा-भक्तिके लिए समवसरगामें जानेकी समिति
लिङ्गिक मृष्टिके साथ साथ एक नई बात देखने में
: कथा कल्पित नहीं किंतु ऐतिहासिक है।
आती है वह गह है कि दोनों लिङ्गोंके उसके अङ्ग अब यदि इस विषय में चर्चा करनेकी कोई सिर्फ अलग ही अलग नहीं रहते बल्कि स्वतंत्ररूपसे गुरुजायश शेप रह गई है तो वह यह है-
अपने अपने शुक्र कोपोंकों बनाते जाते हैं। नर१ लब्धिसार गाथा नं.२ का आशय यदि यह ले अंग तो पुराना आंतरिक जननका काम शुक्रकोषों कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्तिके लिय ही गर्भज को बना बनाकर करता ही जाता है (जिन्हें हर होना आवश्यक है तो फिर देव-नारक गतिमें निकालकर मादा पिंडमें प्रवेश कराने के कारण वीयप्र० स० को अप्राधि रहेगी ?-परन्नु लम्धिसार कीट कहते हैं) और मादा अङ्ग भी अपने जीवकोष गाथा नं०२ में तो चारो गतिमें प्र० स० के प्राप्ति बनाते ही जाते हैं, मगर पुरुष अङ्गके जीवकोपको का विधान है।
गर्भाधान के लिये रख लेते हैं, नकि निकाल देते हैं।' २ मेंडकवर्गके प्राणी मम्मूर्छन ही होने हैं, यह बात (विलियम लोफ्टसहेयर, के लेखका अनुवादक्या घवलासे सिद्ध होती है ?
"अनीतिकी राहपर" पृष्ठ १४ । १२५) ३ जंतु विज्ञान (सायंस) की खोज इस विषयमें क्या इन जीवोंको क्या कहना ?-माता पिताके शुक्रबतलाती है ?--बैज्ञानिकोंने ऐसे उभयलीङ्ग शोणित-मिश्रण-जन्य गर्भज तो ये हैं नहीं ? जीवोंकी भी खोज की है जिसमें नर मादा दोनों ऐसी बातें हैं--बस अब जिसका जी चाहे, च के गुण मौजूद हैं। देखिये
चलावे। में तो विश्राम लेता हूँ। "मनुष्यों और पशुओं में लिङ्ग-भेद अपनी चरम
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय
पं० महेन्द्रकुमारजीका लेख- का उत्तर होजाने पर 'अनेकान्त के लेख में कोई महत्वका
अनुच्छिष्ट उत्तरणीय भाग नहीं रह जाना ।" इस किरण में अन्यत्र (पृ. २८१) न्यायाचार्य पं. इस पर, यथार्थ वस्तुस्थितिको व्यक्त करते हुए, मै महेन्द्रकुमारजी शास्त्रीका 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' शीर्षक लेख कुछ प्रकाश डाल देना अपना कर्तव्य समझता हूँ । अत प्रकाशित हो रहा है। यह लेख लेखक महोदयकी इच्छा- इसके सम्बन्धमे मेग निवेदन इस प्रकार हैनुसार अविकलस्पसे छापा गया है इस पर सम्पादक पं० दरबारीलालजी कोठियाने अपना उक्त लेख अगस्त की कोई कलम नहीं लगी। लेख परमे पाठकको मालूम के मध्यमे कोई १५.१६ तारीखको मुझे सम्पादनार्थ दे दिया होगा कि यह लेख न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल जी कोठिया था। उस वक्त तक पं. रामप्रसादजी और जिनदासजी के उस विस्तृत एवं व्यवस्थितप्राय लेखके उत्तररूपमें नही शास्त्रियों के वे लेख अपने यहाँ नही पाए थे जो जैनसिद्वाहै जो अनेकान्तकी गत किरण में 'तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण' न्त-भास्करमे प्रकाशित पं. महेन्द्रकुमारजीके उक्त लेखक शीर्षकके साथ प्रकाशित हुआ है और जिसका एकमात्र प्रतिवाद-स्वरूप लिखे गये हैं और जो जैनयोधक के लक्ष्य पं. महेन्द्रकुमारजीके उस लेख पर कुछ गहरी छान- १६ अगस्त तथा २ मिनम्बरके अंको (नं० २२, २३) में बीनके साथ विचार करना था जो जैन सिद्धान्तभास्करमे प्रकाशित हप है। ये अंक वीरसेवामन्दिरमें क्रमश: २२ उनके उक्त शीर्षकके साथ ही प्रकाशित हुआ था। न्याया- अगस्त श्रीर ७ सितम्बरको पहुंचे हैं। अत: इन लेखांका चार्यजीका यह लेख मुख्यत: पं. रामप्रसाद जी शास्त्री बंबई कोठियाजीने अपने लेखम कोई उपयोग नहीं किया और न और पंजिनदासजी शास्त्री शोलापुरके उन लेखोको लक्ष्य इनकी किसी सामग्रीमे अपने लेखको बढ़ाया है। मुझे भी करके लिखा गया है जो जुलाई-अगस्तके महीनाम 'जैन- कल तारीख १४ नवम्बरको ही इन लेखाके देवनेका अवगजट' और 'जैनबोधक' में 'समन्तभद्रका समय' आदि सर मिला है। अब रही प० रामप्रसादजीक उस लेखकी शीर्षकांके साथ प्रकाशित हुए थे, लेखके अन्त मे चलतीमी बात, जो जैनगजटके , और १६ जुलाई सन् १६४२ के दो-चार बातें कोटियाजीके लेग्यपर भी कह दी गई हैं। इस अंकोंमे प्रकाशित हुआ है और जो न्यायकुमुन्दचन्द्र द्वि० तरह कोठियाजीके लेखके उत्तरसे जो किनाराकशी की गई भागकी प्रस्तावनामे आए हुए समन्तभद्रके समय सम्बन्धी है, उसके औचिन्यको तो लेखकजी ही जान, परन्तु इस युक्तियोको लक्ष्य करके लिम्बा गया है। जैनगजटके उत. किनाराकशीका कुछ कारण बतलाते उन्होंने जो यह लिस्वा अंक अपने यहां उस समय पाए जब कि पाश्रममे ग्रिलोक है कि---
प्रज्ञप्तिकी एक पुरानी प्रति परसे 'पुगनन-जनवाक्य-सूची में "मुझे आश्चर्य इस बातका हुआ कि इस लेखके अन्त नोट की हुई गाथाओंके मिलानका काम जोरोंसे चल रहा में मुग्तार सा. के सहयोगके लिये तो अाभार प्रदर्शित था और उसमे कोठियाजी, पांड्याजी तथा परमानन्द जी किया गया है पर जिन पं. रामप्रसाद जी और पं० जिन- ये तीन विद्वान पूर्णत: लगे हुए थे; वीरशासन जयन्तीके दासजी शास्त्रीके लेग्योंकी सामग्रीसे लेख सप्राण हुधा है जल्सेकी निकटता और उप प्रतिको वापिस भेजनेकी शीघ्रता और जिनकी सामग्रीके पिष्टपेषण एवं पल्लवनसे इस लेखका के कारण किमीको भी जैनगजट-जैसे पत्रोंको पढनेका अवकलेवर बढा है उनका नामोल्लेख भी नही किया यया है। सर नहीं था और न बादको उनके पढनेकी ओर ध्यान अत: मैं तो १० रामप्रसादजी तथा जिनदासजी शास्त्रीके गया। इसीसे कोठियाजीके देखने में प. रामप्रसादजी लेखाको मुख्यतः सामने रख कर उस (न?) के उत्तर- का उक्त लेख भी नहीं पाया, और मेरी प्रवृत्ति तो उसे माय अंश पर अपने विचार प्रकट कर रहा है। इन लेखों देखनेमे कल ही हुई है। ऐसी हालतम उक्त लेम्बर भी
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण -६]
सम्पादकीय
३२७
पोई सामग्री कोठियाजीके लेखम नही ली गई है। कुमारजीको प्रवृत्ति कई मह ने तक भी नहीं हुई थी वह
एक दिन कोठियाजी मेरे कमरेमे बैठे हुए थे, सामने प्रवृत्ति कोठियाजीके लेखको पाकर कोई एक-डेढ़ सप्ताहके जैन-सिद्धान्तभास्करकी क्त किरण खुली हुई थी, मैंने भीतर ही होगई, यह कोटियाजीके लेखका कुछ कम असर कोठियाजीये कहा कि- महेन्द्रकुमारजीके इस 'मूत्र' और नही है। इस दृष्टिसे भी कोठियाजीका लेख अच्छा ही 'सूत्रकार' शब्दों वाले उदाहरगा की आपने मूल ग्रन्थ परसे रहा। अस्तु। जाम भी करली है या कि नहीं। उन्होंने कहा---जाँच तो पं. महेन्द्रकुमारजीके प्रस्तुन लेखकी श्रन्य बातोंका नही की, यह समझकर कि उदाहरण ठीक ही होगा, और यह उत्तर देना मेरे इस नोटका कोई विषय नही--वह तो कह कर वे हाल में चले गये तथा श्लोकवातिकादिवो निकाल प्रायः उन विद्वानोका ही हिस्सा होगा जिन्हें लक्ष्य करके कर देखने लगे। थोडी देग्मे प्राकर उन्होंने नई खोनके यह लेख लिग्या गया है। मैं तो अपने पाटकोको, संक्षेपमें, उत्साहको लिये हुए बडे आश्चर्य के साथ कहा कि--मुख्तार इस लेख परसे फलित होने वाली दो एक सार बाते ही माहब ! महेन्द्रकुमारजीने तो बहुत मोटी भूल की है ! बतला देना चाहता है. और वे इस प्रकार हैं :-- उनके उदाहरण जो 'मूत्र' और 'सूत्रकार' शब्द श्राप (१) पं. महेन्द्र कुमारजीने, जैन सिद्धान्त-भास्कर हैं वे 'राजवानिक और 'अवलंकदेव' के बाचक हैं ही नहीं, प्रकाशित अपने पूर्वलेग्यमे प्राचार्य विद्यानन्दकी शैलीको वे तो 'तवार्थसूत्र' और 'उमास्वाति के लिये प्रयुक्त हुए विशेषताको बतलाते हुए लिखा था कि 'विद्यानन्द अपने हैं, चुनाचे आपने उसी समय शाश्वार्तिक्का स्थल भी पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको 'सूत्रकार' और अपने पूर्ववर्ती निकाल कर दिखलाया और इस बातको बा जयभगव न किसी भी ग्रन्थको 'सूत्र' लिखते हैं। और इसके समर्थनमें की प्रादि दूसर विद्वानों पर भी प्रकट किया तथा इसके श्लोकवार्तिकका एक अवतरण उदाहरणके नौर पर प्रस्तुत बाद ही अपने ले बम विद्यानन्दकी दृष्टिमे मूत्र और सूत्र- किया था, जिसमें श्राप हुए 'नूत्र और सूत्रकार शब्दोंको कार' प्रकरण की योजना की। इस घटना परये यह और भी क्रमश. राजघातिक और 'अकलंकदेव' के लिये प्रयुक्त स्पष्ट हो जाता है कि वोठियाजीको पं. रामप्रसादजीका हुश्रा बनलाया था, परन्तु यह बतलाना भूल-भरा था। उन, लेख उस वक्त तक भी देखनेको नहीं मिला था और ५० रामप्रसादजी और प० दरबारीलालजीवी औरसे इस न श्राश्रमके किसी दूसरे बहानके ही वह परिचयमे आया भूलके सुझाये जाने पर पं. महेन्द्रकुमार ने उसे इस था, अन्यथा वे उनसे कहते कि यह भूल तो पहले पं. लग्बने स्वीकार कर लिया है, परन्तु दूसरा कोई निर्विवाद रामप्रसादजी पकड चुके हैं। अस्तु, दो विद्वान एक ही उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया, जिसमे उम नियम अथवा विषय पर विचार करते हुए यदि समान परिणाम पर लकी पुष्टि होती जिसे आपने विद्यानन्दकी शैलीकी विशेपहुंचे तो इसमें कुछ भी अस्वाभाविकता नहीं है। पताको बतलानेके लिये निर्धारित किया था। जब कि पं.
ऐसी स्थिति में बिना किसी जांच-पड़तालके ऐसा कह दरबारीलालजीने अपने द ग्वमे प्राचार्य विद्यानन्दके सात देना कि न्यायाचार्य ५० दरबारी लालजी कोठियाका लेख ग्रंथों परसे कोई ३६ उदाहरगा से प्रस्तुत किये हैं जिनमें प. रामप्रसादजी और पं० जिनदासजी शास्त्रीके लेखोंगी कहीं भी पूर्ववती अथो तथा अन्यकारीको मृत्र' तथा 'सूत्रसामग्रीसे समाण हुश्रा है और उन्हीं के लेखोकी सामग्रीके __ कार' नही लिखा है, और जिनका महेन्द्रकुमारजीने अपने पिष्टपेषण एवं पल्लवनसे उसका कलेवर बढा है. वह लेखमे कोई प्रतिवाद भी नहीं किया। इससे मालम होना उनकी उच्छिष्ट है कुछ भी उचित मालूम नही होता है कि विद्यानन्दकी शैलीक सम्बन्धम जो नियम ५० महन्द्र
पं० महेन्द्रकुमारजी कोठियाजीके लेखको उपेक्षाकी मारजीने बनाया था वह ब स्थिर नहीं रहा। दृष्टिपे देखें या अनुपेक्षाकी, परन्तु इतना को कहना ही होगा (२) पं. महेन्द्रकुमारजीन जैनम्द्विान्त भाम्बरम कि जिन प रामप्रसादजी और जिनदासजीके लेखाका प्रकाशित अपने पूर्वग्बम अाचार्य विद्यानन्दके जिन उत्तर देने और अपनी भूलको स्वीकार करनेमें पं. महेन्द्र- उल्लेम्बोंको अपने निर्णयका मुख्य आधार बनाया था उन
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२८
अनेकान्त
[वर्ष५
उल्लेखोंके ठीक प्राशयका दूसरे विद्वानों द्वारा स्पष्टीकरण प्राधार खोजनेमे लगे हैं। अपनी खोज परसे उन्हे यह किया जाने और उस स्पष्टीकरणकी पुष्टिमे प्राचार्य महोदय मालुम पड़ा है कि विद्यानन्दके सामने उक्त मंगलश्लोकको के दसरे भी कुछ उल्लेखोंके मामने लाये जाने पर पंडित उमास्वामिकृत मानने के लिये कोई सष्ट पूर्वपरम्परा नहीं जीका वह श्राधार डोला ही नहीं किन्तु प्राय: गिर गया थी, उन्होंने अकलंककी अष्टशतीके एक वाक्य परसे अपनी है, और इसलिये उन्होंने अपनी कुछ अनुपपत्तियों के गलत धारणा बनाली है, उसके पूर्वापर-सम्बन्धपर ठीक रहते हुए भी इस बातको स्वीकार कर लिया है कि श्रा. विचार नहीं किया और इसीसे वे अपनी अष्टसहस्रीमें उक्त विद्यानन्द 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगल-श्लोकको वाक्यका सीधा अर्थ न करके उलटा अर्थ करने में प्रवृत्त हुए उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण मानते थे; जैसा हैं। इस तरह पं. महेन्द्र कुमार जीने यह एक नया विषय कि आपके लेखके 'श्राचार्य विद्यानन्दकी मान्यताका आधार' विचार के लिये प्रस्तुत किया है, जिस पर विद्वानाको गहराई इस प्रकरणसे प्रकट है।
के साथ विचार करना चाहिये। (३) अब पं. महेन्द्रकुमारजी श्रावार्य विद्यानन्दकी वामना) मान्यताको संदेहकी दृष्टिसे देखने लगे हैं और उसका १५-११-४२
जुगलकिशोर मुख्तार
( पृष्ट २८७ का शेषांश ) उपसंहार
विद्यानन्द के उल्लेखमे ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट है तो " इस तरह मैं अपने विचारोको सक्षेपमें पाठकोंके अत: विद्यानन्द के उल्लेखोंमे वितनी ऐतिहासिक दृष्टि है सामने रखकर उनसे इसे निणन करार देनेका अति साहस और समन्नभद्र के समय पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है पूर्ण भ.ग्रह तो नहीं कर सकता, हौं, उनमें यह अवश्य तथा अन्य प्रमाणामे समन्तभद्रका क्या समय हो सकता है निवेदन कर देना चाहता हूं कि तत्वचिन्तन और इतिहास इसपर पथावमर लिखने का विचार है। के क्षेत्र में पूर्वग्रहोंसे मुक्त होकर तटस्थवृत्तिस विचार करने अन्नमे मैं यह लिख देना भी उचित समझता हूं कि की बावश्यकता है। इतिहासका क्षेत्र ही ऐसा है कि इसमें इतिहास विषयके लेखोंको किसी प्रोपेगेन्डेका साधन उत्तरोत्तर वाद-प्रतिवादसे नई वस्तुयें सामने आती जाती हैं बनाना इस क्षेत्रको भी दूषित कर देना होगा। कोई लेख जो सत्यके निर्णयमें सहायक होती हैं।
लिखा और तुरन्त ही उसके नामसे सम्मतियों इकट्ठी करने __ तत्वार्थसनकी अनेक प्राचीनसे प्राचीन प्रतियोके देखने की वृत्ति शोभन नहीं कही जा सकती। ऐसे लेखोंपर विद्वान् की आवश्यकता है जिससे यह जाना जासके कि तत्वार्थसत्र विशेष ऊहापोह करे यही प्रशस्त मार्ग है और इसी से सन्य की प्रतियोमें यह मंगलश्लोक कबसे शामिल हुआ है। के निकट पहुंचा जा सकता है। सम्मतियांके बलपर ऐतिभनेक तत्वार्थसत्रकी छपी तथा लिखित प्रतियों में इस मंगल- हासिक प्रश्नोंके निर्णय करनेकी पद्धति कभी कभी सम्मतिश्लोकका तरवार्थसत्र अङ्गके रूपमे न पाया जाना ख़ास दाताओंको भी असमञ्जसमें डाल देती है। जैसा कि महत्व रखता है। प्रस्तु, विद्वान्, पाठकोसे निवेदन है कि कर्मकाण्डकी ऋटिपूर्ति' लेखपर सम्मति देने वाले अनेक इस विषयका और विशेष ऊहापोह करें। मेरे ध्यान में इसके सम्मतिदाताओंको स्वयं अनुभव हुश्रा होगा। और सम्मतियो उपयुक्त जो सामग्री थी वह संक्षेपमें प्रस्तुत कर दी है। प्रागे भी 'यदि ऐसा है तो 'सम्भव है' आदि अनेक बचावके जो और सामग्री मिलेगी उसे यथावसर लिखेंगे। वाक्योंसे श्रोत प्रोत रहती हैं। अत: इतिहास और तत्वज्ञान
रह जाती है समन्तभद्रके समयका प्रश्न | उसके विषय सम्बन्धी लेख प्रोपेगेण्डेकी भावनासे रहित होकर लिखे में मैंने स्वयं न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागकी प्रस्तावना और आय यही प्रशस्त मार्ग है। प्रमेयकमलकी प्रस्तावनामें ये शब्द लिखे हैं कि "यदि
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तके सहायक
अनेकान्तको सहायता गत रिरणमें प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्तको
तृतीय मार्गसे८) रु. की निम्न सहायता प्राप्त हुई है, अब तक जिन सजनोंने अनेकान्तकी ठोस सेवाओंके जिसके लिये दातार महाशय धन्यवादकं पात्र हैं:प्रति अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्तासे ५)ला. फतह चंद दासूरामजी जैन मुलतानसिटी (ला. मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्यमें प्रगति करने जिनेश्वरदासजीके, मत्युस कुछ समय पहले निकाले हुए,
और अधिकाधिक रूपमे समाजसेवाग्रामें अग्रसर होनेके दानमे), मार्फत पं. जितकुमारजी जैन शास्त्री, लिये सहायनाका वचन देकर उसकी महायकश्रेणीम अपना
मुलतान मिली। नाम लिखाया है उनके शुभ नाम सहायताकी रकम-महिन
३) ला नानमल म्पचन्दजी जैन, ब्राममचेट, पानीपत इस प्रकार हैं।
(ला. नानमलके स्वर्गवास पर निकाले हुए दानौसे) २२५) वा. छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता।
मार्फन ला० रोशनलालजी जैन पानीपत ।
__ व्यवस्थापक 'अनेकान्त' १०) बा० अजितप्रमावजी जैन एडवोकेट, लखनऊ।
थोरसेवामन्दिरको फुटकर महायता १०१) बा. बहादुरसिंहजी सिंघी कलकत्ता ।
गतकिरणा में प्रकाशित महायताके याद वीरसेवामन्दिर १००) साहु शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर ।
परमावाको) २० की निम्न सहायता प्राप्त हुई है, जिस १००) बा० शातिनाथ सुपुत्र बा. नन्दलालजी, कलकत्ता । १००) मेट जोग्बीरामजी बैजनाथजी सरावगी, कलकना।
के लिये दातार महाशय धन्यवादके पात्र है:
४) श्रीदिगम्बर जैन समाज बाराबंकी, मार्फत मंत्री कन्हैया१००)माह श्रेयोमायादजी जैन, लाहौर । १००) बा• लाल चन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहनक ।
लानजी जैन, बाराबंकी।
४)ला. गोपीचन्द जी जैन, अम्बाला छावनी (अपने भाई १८.) चा जयभगवान जीवकील श्रादि जैनपंचान, पानीपत
मुन्शीगम के पत्र दि. प्रेमचन्दको गांद लेनेकी खुशीम ५१) ग.ब. या उलफतराय जी जैन रि० हजीनियर, मेरठ । ५०) ला० दलीपसिह काग़ज़ी और उनकी मार्फन, देहली।
निवाले हुए दानममे), मार्फत ला. समन्दरदासजी २५) पं० न.धूगमजी प्रेमी, हिन्दी ग्रन्थ ग्नाकर, बम्बई।
जैन पानीपतके। अधिमाता 'वीरसेवामदिर' २५) ला० रूटामन जी जैन शामियाने वाले सहारनपुर ।
श्रीकापड़ियाजी पर अनभ्र वज्रपात! २५) बा. रघुबरदयालजी जैन एम०ए०करोलबाग देहली। जैनविजय प्रेप मूरनके मालिक तथा जैनमित्र और २५) सेठ गुलाबचन्दजी जैन टोग्या, इन्दौर ।
श्रीर दिगम्बर कनके सम्पादक मे० मूलचन्द विसनदासजी २५)ला. बाबुराम अकल प्रसादजी जैन, निम्सा जिला कापडियाके इकलौते पुत्र बाबूभाई कापरियाका मात्र १७ मुजफ्फरनगर।
वर्गकी अायुमे १५ दिनकी टाइफाइडकी बीमारी ता. २५) मवाई मिधई धर्मदाम भगवानदासजी जैन, सतना। १६.१०४२ को सवेर स्वर्गवास हो गया है। श्री. काप. २५) ला. दीपचन्दजी जेन रईस, देहगदान ।
हियाजी पर ६० वर्षकी वृद्धावस्थामे यह घोर शनभ्र वनपात २५) ला० प्रद्युम्नकमारजी जैन रईम. स रनपुर। हुश्रा है। थापकी समस्त श्राशाओंग केन्द्र यही एक मात्र २५) मुंशी सुमतप्रमादजी जैन रि० अमीन महारनपुर। पुत्र था। जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है कि उन्हें यह दुःख सहन
ग्राशा है अनकान्तकं प्रेमी दूसरे सजन भी आपका करनेकी शक्ति प्राप्त हो और स्वर्गीय लामाको शांति मिले। अनुसरण कांगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल श्री कापडियाजीने १५०००) का दान घोपित करके बनाने में अपना परा सहयोग प्रदान करके यशके भागी अपने स्वर्गीय पुत्रकी स्मृनिमे सूरतमे दि. जैन बोर्डिंग बनेंगे।
खोलनेका विचार प्रकट किया है और १०००) दि. जैन
संस्थाश्री नया गरीबों को प्रदान के लिये निकाले हैं। श्री. व्यवस्थापक 'अनेकान्त' कापरियाजीके धपुर श्री गलायचट लालनदजी ने भी वीरवामन्दिर, परमाना (महारनपुर) १०८०) का दान दिया है। परमप्रीदाम जैन
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
Resisterrum.....31.
** ***ॐ नैयार हो गया ! नयार हो गया !
शीघ्र ही मेंगाइये !! बटग्वंडागम(धरामद्धांन)कापाँचवा भाग
अन्तर-भाव-अल्पबहुत्वागम छपकर तैयार होगया है !
यह भागभी पूर्वपद्धतिके अनुमार शुद्ध मूलपाठ, मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद तथा अनेक उपयोगी परिशिष्टोंके साथ तैयार किया गया है। इसमें एक-एक गुणस्थान व मार्गणास्थानमें क्रमशः जीवोंके अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका विवेचन बड़ा खुलासा और गम्भीर किया गया है। खूब शंका-समाधान किये गये है। प्रस्तावनामें कनाड़ी प्रशस्ति, शक्का-समाधान व विषय परिचयके अतिरिक डा०अवधेशनारायणसिंहजी के लेग्वका अविकल हिन्दी अनुवाद 'धवलाका गणितशाब भी दिया गया है जो अपूर्व है। बड़ी महत्वपूर्ण रचना है। शीघ्र मॅगाइये।
पुग्नकाममा
.
कागज आदिकी दुष्पानि और अत्यन्त मेंहगाई होनेपर भी कागज्ञ और भी पुष्ट लगाया गया है। कीमत पर्वत्रन कायम रखी गई है।
नोट-१-प्रथम भागकी शाखाकार प्रतियां तो पहले ही ममाप्त हो चुकी हैं. अब पुस्तकाकार भी थोड़ी ही रही है। अतएव अब प्रथम भाग पुस्तकाकार फुटकर नहीं मिल सकता। पूरा मैट पाँचों भागोंका एक माथ लेने बालेको ही मिल मकेगा। शेष भाग भी शीघ्र दुर्लभ हो जावंगे। .
.,२, ४ भाग प्रत्येक १०) मृत्य
HTA । (१ भाग अप्राप्य )२, ३ व ४ भाग प्रत्येक १)
नोट:-दम मस्थाक हाथमे डन्य बहुत थोड़ा और कार्य बहुत ही विशाल है। अतएव समस्त श्रीमानों, विद्वानां और मथाको उचित मूल्यपर प्रतियाँ ग्वरीदकर कार्यप्रगतिको मुलभ बनाना चाहिये।
नोट -नन्ही ग्रंथांके साथ कारंजा मीरीज में प्रकाशित अपभ्रंश भापाके अद्वितीय ग्रंथ भी मॅगाइथे । जसहर चरिउ६), णायकुमारचरि६), सावयधम्म दोहा २), पाहुड दोहा गा)। नोट-मूल्य पेशगी भेजनेवालोंको डाक व रेलवे व्यय न लगेगा।
मन्त्री ,
किंग पर कालेज, अमरावती (वरार)
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
RECHAPRASAN
Al-mata PORE
एकनाकर्षन्ती श्लधयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण ।। अन्तन जयति जैनी नीतिर्मन्धानमेत्रमिव गोपी।
KARAN
जर
-
-
विधप
उभयानुभयो तत्व
RAur
FE
अनकान्तात्मक
निपध्यानुपए तस्व
वस्तूतत्त्व
निषेध्य तत्व
NI
REILY
City
Heam
विधयानुभय
उभयतत्व
PRROR
अनुभव
तत्व
KERS
विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तहिशेपेः प्रत्येकं नियमविषयवाऽपर्गिमते । (क.१०-११ मदाऽन्योऽन्यापेक्ष मकलभुवनज्येष्ठगुरुगा न्वया गीतं तत्त्वं बहुनय-विवक्षतग्यशान ॥
गरपाद
--
"
पुरम
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची
समन्तभद्रभारतीके कुछ नमूने-संपादक पृ. ३२६.६ भगवान महावीत-श्रीविजयसाल जैन B.Com.३५३ २ अनेकान्तके मुखपृष्ठका चित्र-[संपादक
अपराधी (कहानी)-[श्रीभगवत् जैन ३५६ ३ पडमचरियका अन्तःपरीक्षण-[.परमानन्द जैन ३३७ र पाशा-गीत (कविता)-[श्रीभगवत् जैन ३६१ ४ समर्थन-[40 परमानन्द जैन: शास्त्री ३१ पंडित-गुण-[संपादक
.३६२ ५ सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्राव-संपादक ३४५१० तत्वार्थस्त्रका मंगलाचरण-न्या.पं दरबारीलाल ३६५
अनेकान्तके लिये चिन्ता आजकल युद्धाद्विकी परिस्थिति के कारण कागजका अकाल सर्वत्र व्याप रहा है- सभी जगह कागजकी हाय-हाय मची हुई है। कागज मिलता ही नहीं, और जो मिलता भी तो बहुत भारी रेट पर अर्थात् युद्धसे पहले के कोई दस गुने मूल्य पर !! इसके फलस्वरूप कितने ही समाचारपत्र बन्द होगये हैं-बन्द हो रहे हैं, कितनों हीको अपना मूल्य चोढ़ा दुगना कर देनेपर भी पृष्ठ-संख्याको घटानेके लिये बाध्य होना पड़ा है और कितनों हीका सुन्दर पुष्ट कलेवरकंकालमात्र रह गया है। ऐसी हालत में अनेकान्त' के लिये चिन्ताका होना स्वाभाविक है। अनेकान्तके कागका स्टाक गतविरण के साथ ही समाप्त होगया था। इस किरण के लिये कागजकी कितनी ही खट-पट करनी पड़ी-२८ पीट तकका कागज भी लगाना पड़ा है। जैसे-तैसे इस किरणके कागजकी समस्या हल हुई है। अगली किश्या भी विसी तरह निकल ही जायगी और उसके साथ ही अनेकान्तका पाँचवा वर्ष भी समास हो जायगा। अब प्रश्न है भनेकान्तके आगामी वर्ष का-अगले वर्ष इसे चालू रक्सा जाय या कागजकी समस्या हल होने तक बन्द किया जाय ? बन्द करनेपर समाजको एक पलाम जरूर होगा और वह यह कि इसके निमित्तसे शोध-खोजका काम होकर महत्वके ठोस एवं गुत्थियोको सुलझाने वाले साहित्यका जो सजन होता है वह भी एक प्रकारसे बन्द हो जायगा, क्योंकि अपने समाज में दूसरा ऐसा कोई मासिक पत्र नहीं जो इस कामको पूरा कर सके । साप्ताहिकपन वोजके लम्बे लेखोंको एक साथ प्रकाशित करने में प्रायः अपनी असमर्थया व्यक्त करते हैं। यदि पत्रको चालू रखा जाय तो उसके लिये दो ही सूरतें हो सकती हैंएक तो यह कि पत्रका मूल्य ३) रुपयेके स्थानपर ६) रुपये कर दिया जाय और दूसरी यह कि मूल्यको बदस्तूर रखकर सहायकोंको जुटाया जाय, जिससे घाटा उठाकर भी यह पत्र पाठकोंको कम मूल्यमें दिया जासके। पहली सूरत (मूल्य बढ़ाने) से समस्याका हल नहीं हो सकेगा, क्योंकि उससे ग्राहक संख्या एक दम गिर जायगी, ऐसा समाजका अपना अनुभव बतलाता है। तब सहायकोंको जुटाने रूप दूसरी सूरत ही श्रेयस्कर होगी। अनेकान्तके अन्यतम सहायक ला. वलीपसिंहजी कागजी देहलीने अनेकान्तको विसी तरह भी बन्द न करनेका भाग्रह करते हुए लिखा है कि कागज सारीदने में जो अधिक चार्ज देना पदे उसकी पूर्ति २० पत्तियां करके करली जाय, जिनमेंसे पाँच पत्तियोंका भार वे स्वयं अपने उपर लेनेको तय्यार है। ऐसे ही दूसरे कुछ सजन भी इस कार्य में हाथ बटाचे तो सहज हीमें काम निकल सकता है। इधर एक बात यह भी सुझाई जा रही है कि 'भनेकान्त' को त्रैमासिक कर दिया जाय, उसका आकार भी, जैनसिद्धान्तभास्कर तथा वीरसेवामन्दिरसे प्रकाशित 'समाधितन्त्र' जैसा कर दिया जाय और उसमें गवेषणापूर्ण ताविक एवं ऐतिहासिक लेखोंकी ही विशेषता रहे। साथ ही, महत्वके अप्रकाशित ग्रन्थोंको अनुवादाविके साथ प्रकाशित किया जाय । घाटेको कुछ सहायतासे और कुछ पत्रमें प्रकट होने वाले प्रन्योंकी अलग विकीसे पूरा किया जाय । मस: अनेकान्तके प्रेमी पाठकोंसे निवेदन है कि वे इस विषयमें समस्याका ठीक हल करनेके लिये शीघ्र ही अपनी अपनी राय भेजकर अनुगृहीत करें।
जुगलकिशो मुख्तार
सम्पादक अनेकान्त'
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
* ॐ अहम् *
स्व-सघात
तत्व-प्रकाशक
M2
नीतिविरोधचसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
नवम्बर-दिसम्बर
वर्ष ५ किरण १०-१२
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा ज़िला सहारनपुर मानिक, मार्गशीर्ष, बीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं. १६६६
१९४२
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
[१०
श्रीशीनल-जिन-स्तोत्र न शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो ने गाङ्गमम्मो न च हारयटयः ।
यथा मुनेरतेऽनघ चास्यरश्मय. शमाम्वगाः शिशिग विपश्चिताम् ॥१॥ 'हे अनघ-निग्वद्य-निदोष श्रीशीनन नि!-श्राप प्रत्यक्षज्ञानी-मुनिकी प्रशम-जलसे भरी हुई वाक्य-रश्मियोयथाान अर्थम्बम्पको प्रकाशक वचन-किग्णालियो-जिम प्रकारमे--ममाग्नापको मिटाने रूम-विद्वानोके लिए
योगदेय-जयका विक रखने वालों के वाम्ने-शीतल हैं-शान्तिप्रद है-उस प्रकार न तो चन्दन तथा चन्द्रमाकी मिण शीतल है. न गंगाका जल शीतल है और न मोनियोंके हारकी लडिया ही शीतल है-पोई भी इनम में भरग्रानाप-जन्य दुःम्बको मिटाने ममर्थ नहीं है।'
सुखाऽभिलापाऽनलदाहमूञ्छिनं मनोनिजं आनमयाऽमृताऽम्बुभिः ।
व्यदिध्यपस्त्वं विपदाह-मोहितं यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम् ॥२॥ 'जिस प्रकार वैद्य विष-दाहसे मूञ्चित हुए अपने शरीरको विषापहार मंत्रके गुणोसे-उम अमोघशक्तियोमे-निविष एवं मूछा-रहित कर देता है उसी प्रकार (हे शीतल Iन!, आपने मासारिक सुखोंकी अभिलाषा-रूप अग्निके दाहम्मेचतुर्गति-मम्बन्धी दु:ग्वमंतापसे-मूर्छित हुए-हयोपादेयके विवेकम विमुग्व हाए-अपने मनका-श्रात्माको- ज्ञानमय अमृत-जलोके सिञ्चनसे मूर्छारहित-शान्त किया है-पूर्ण विवेकको जागृत करके उसे उत्तरोत्तर मतापप्रद सामारिक सुग्याकी अभिलापामे मुक्त किया है।'
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३०
अनेकान्त
स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया दिवा श्रमान निशि शेरते प्रजाः । raat an anमत्तवान जागरेवाऽऽत्मविशुद्ध वर्त्मनि ॥ ३ ॥
[ वर्ष ५
'अपने जीनेकी तथा काम-सुग्वंकी तृष्णाके वशीभूत हुए लौकिक जन दिनमें श्रममे पीडित रहते हैं—सेवा- कृष्णादिजन्य क्लेश-खेदसे श्रभिभूत बने रहते हैं और रातमें सो जाते हैं - अपने श्रात्मा के उद्धारकी और उनका प्राय: कोई लक्ष्य ही नहीं होता । ( परन्तु) हे श्रार्य शीतल जिन ! श्राप रात-दिन प्रमादरहित हुए आत्माकी विशुद्धिके मार्ग में जागते ही रहे हैं —— ग्रात्मा जिससे विशुद्ध होता है – मोहादि कमौसे रहित हुआ स्वरूपमं स्थित एवं पूर्ण विकसित होना है—उस सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्ररूप मोक्षमार्ग के श्रनुष्ठानमे सदा सावधान रहे हैं ।'
श्रपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते ।
भवान्पुनर्जन्म-जरा-जिहासया त्रयीं प्रवृत्ति समधीरवारुणत् ॥ ४ ॥
'कितने ही तपस्वीजन संतान, धन तथा उत्तरलोक (परलोक या उत्कृष्ट लोक ) की तृष्णाके वशीभूत हुएपुत्रादिकी प्राप्ति के लिए, धन की प्राप्ति के लिये अथवा स्वगादिकी प्राप्ति के लिये -- (श्रादादक यज्ञ ) कर्म करते हैं, ( परन्तु हे शोतल जिन ! ) श्राप समभावी हैं-सन्तान, धन तथा उत्तरलोक की तृष्णासे रहित हैं - आपने पुनर्जन्म और जराको दूर करनेकी इच्छासे मन-वचन-काय तीनोंकी प्रवृतिको ही रोका है - तीनका स्वछन्द प्रवृत्तिका हटाकर उन्हें स्वामान किया है और इस तरह श्रात्मविकासका उच्च स्थिति पर पहुँचकर योग निरोध-द्वारा न मनसे कोई कर्म होने दिया, न वचनसे और न शरीरमे । भावार्थ - मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको योग-मंचालन कहते हैं। योग-संचालन मे ग्रामे कर्मका
व तथा बन्ध होता है, जो पुनर्जन्मादिरूप संसारपरिभ्रमणका हेतु है । अत: आपने तो योगमंचालन कर्मका कर अथवा स्वाधीन बनाकर संसार - परिभ्रमणसे छूटने का यत्न किया है, जबकि दूसरे तपस्वियोने सामारिक इच्छाक वशीभृत होकर अग्निहोत्रादि कर्म करके संसार परिभ्रमणका ही यत्न किया है। दोनोंकी इन प्रवृत्तियों में कितना बड़ा अन्तर है ! त्वमुत्तमज्योतिरजः क्व निवृतः क्व ते परे बुद्धिलवोद्धव-क्षताः ।
ततः स्वनिःश्रेयसभावना पर वुधप्रवेकैर्जिन शीतलेज्यसे ॥ ५ ॥
हे शीतल जिन ! कहाँ तो श्राप उत्तमज्योति परमानिशयको प्राप्त केवलज्ञानके धनी, श्रजन्मा - पु.. जिन्ममे रहित - सामारिकायम रहित और निर्वृत- सासारक इच्छा से रहित सुखीभूत! और कहीं वे दूसरे प्रसिद्ध श्रन्य देवता अथवा तर जो लेशमात्र ज्ञानके मदसे नाशको प्राप्त हुए हैं-मामारिक विषयोंमे श्रन्यासक्त हो र दुःखोपडे हैं और ग्रात्मस्वरूप विमुख एव पतित हुए हैं !! इसी लिये अपने कल्याणकी भावनामे तत्पर - उमे माधने के लिए सम्यदर्शनादिक के अभ्यासपूर्ण सावधान — बुधश्रेष्टों गणादक देवोंके द्वारा आप पूजे जाते हैं ।' [ ११ ] श्री श्रेयो- जिन स्तोत्र
श्रेयान् जिनः श्रेयसि वर्मनीमाः श्रेयः प्रजाः शासदजेयवाक्यः । भववकाशे भुवनत्रयेऽस्मिन्नेको यथा वीतघनो विवस्वान् ॥ १ ॥
一
'हे श्रजेयवाक्य बाधित वचन - श्रेयो जिन ! - समृर्ण कपायी- इन्द्रियां अथवा कर्मशत्रु ग्रांको जीतने वाले श्रीयाम तीर्थकर ! - आप इन श्रेयप्रजाजनोको - भव्यजीवांको — श्रेयोमार्ग में अनुशासित करते हुए - मोक्ष मार्गपर लगाते विगत घन सूर्यके समान अकेले ही इस त्रिभुवन में प्रकाशमान हुए हैं । अर्थात् जिस प्रकार घट रहित सूर्य अपनी श्रप्रतिहत किरणों द्वारा श्रकेचा दी अन्धकारसमूहका विघातक बनकर, दृष्टिशक्तिसे सम्पन्न नेत्रांवाली प्रजाको इष्टस्थानकी प्राप्तिका निमित्तभूत सन्मार्ग दिग्वलाता हु जगतमे शोभाकी प्राप्त होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि घातिकर्म-चतुष्टय रहित श्रार अकेले ही अजानान्धकार- प्रसारको विनष्ट करनेसे समर्थ बनकर ने बाधित वचनों द्वारा भव्य जनाको मोक्षमार्गका उपदेश देते हुए इस त्रिलोकीम शोभा को प्राप्त हुए हैं ।'
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १० ११]
समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
३३१
विधिविषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणभत्राऽन्यतरत्प्रधानम् ।
गुणो परो मुख्यनियामहेतुर्नयः स दृष्टान्तसमर्थनस्ते ॥२॥ (हे श्रेयाम जिन!) अापके मतमे वह विधि-स्वरूपादिचतुष्टयसे अस्तित्व-प्रमाण है (प्रमाणका विषय होनेसे) जो कथंचित तादात्म्य सम्बन्धको लिए हुए प्रतिषेध रूप है-परूगदिचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्वरूप भी है-तथा इन विधि-प्रतिषेध दोनोंमें से कोई एक प्रधान ( मुख्य ) और दूसरा गौण होता है (वक्ताके अभिप्रायानुसार न कि स्रू से*)। और मुख्यके-प्रधानरूप विधि अथवा निषेधके-नियामका-'स्वरूपादिचतुष्ट यसे ही विधि और पररूपादिचतुष्टयमे ही निषेध' : म नियमका-जो हेतु है वह नय है (नयका विषय होनेसे) और वह नय दृष्टान्त-समर्थन होता है-दृष्टान्तमें समर्थित अथवा दृष्टान्तका ममर्थक । उमके अमाधारण स्वरूपका निरूपक) होता है।
विवक्षितो मुख्य इतीप्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते ।
तथाऽपिमित्राऽनुभयादिशक्तिद्धयाऽवधेः कार्यकरं हि वस्तु ॥३॥ ह श्रेयास जिन !) आपके मतमे जो विवक्षित होता है-कहने के लिए इष्ट होता है- वह 'मुख्य (प्रधान)' कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता है-जिमका कहना नहीं होता-वह 'गौण' कहलाता है, और जो अविक्षित होता है वह निगमक (अभारू नहीं होता- उसकी सत्ता अवश्य होती है। इस प्रकार मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे एक ही वस्तु शत्रु, मित्र और अनुभयादि शक्तियोको निये रहती है-एक ही व्यक्ति एक का मित्र हे (उपकार करनेसे), दूमरेका शत्र है (अपकार करने मे), तोमर का शत्रु-मित्र दोनों है (उपकार-श्रपकार करनेस) और चौथका न शत्रु है न मित्र ( उमकी भोर उपेक्षा धारण करने मे), और इस तरह उममे शत्र-मित्रतादिके गुण युगपत् रहते हैं। वास्तवमें वस्तु दो अवधियों (मर्यादाश्री) मे कार्यकारी होती है-विधि-निषेधरूप मामान्य-विशेषरूप अथवा द्रव्य-पर्यारूप दो दो सापेक्ष घका अाश्रय लकर ही अर्थक्रिया करनेमे प्रवृत्त हती है और अपने यथार्थ सरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है।'
दन्तसिद्धावुभयोविवादे साध्यं प्रसिद्धयेन तु ताहगस्ति ।
यत्सर्वथैकान्तनियामहष्टं त्वदीय दृष्टिविभवत्यशेषे ॥४॥ 'वादी प्रतिवादी दोनोके विवादमे दृष्टान्त (उदाहरण) की सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होता है-जिम सिद्ध करना चाहा हैं उनकी भले प्रकार मिद्रि हो जाती है परन्तु वैसी कोई दृष्टान्तभूत वस्तु है ही नहीं जो ( उदाहरण गकर ) सर्वथा एकान्तकी नियामक दिखाई देती हो। क्योंकि आपकी अनेकान्त-दृष्टि सबमे-साध, साधन और दृष्टान्तादि में-अपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अनेकान्तात्मकत्यस व्यास है, इमीसे सर्वथा एकान्नवादियोके मतम ऐमा काई दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके मर्वथा एकान्तका नियामक हो और इस लिए उनके सर्वथा नित्यत्वादिरूप मी मिद्रि न बन सकती।'
पकान्तप्रिनिषेधसिद्धि-न्यायेषुभिर्मोहरिपु निरस्य।
असिस्म कैवल्य-विभूति-सम्राट् ततस्त्वमहनसि मे स्तवाहः ॥५॥ _ 'हे अर्हन्-श्रेयो जिन ! आप एकान्तदृष्टिक प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्यारवाणोंसे-तत्वज्ञान के सम्यक् प्रहागेसेमोह-शत्रका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए ज्ञानावरणादिरूप शत्रसमहका-घातिकर्म-चतुष्टयका-नाश करके कैवल्य-विभूतिके - केवल ज्ञानके माय माथ समवमरणादि विभूतिके-सम्राट हुए हैं। इसीसे श्रार मेरी स्तुतिके योग्य हैं। -मैं भी एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिका उपासक है और उसे पूर्णतया मिद्ध करके मोह-शत्रुको नाश करदेना चाहता हूँ तथा कैवल्यविभूतिका सम्राट् बनना चाहता हूँ. अतः आप मेरे लिए यादर्शरूपमें पृज्य है-स्तुत्य हैं।'
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३२
अनेकान्त
वर्ष५
[१०]
श्रीवामपूज्य-जिन-स्नोत्र शिवासु पूज्योऽभ्युदयक्रियाग्नु त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्रपूज्यः ।
मयाऽपि पूज्योऽल्पधिया मुनीन्द्र दीपार्चिपा किं तपनो न पूज्यः ॥ १॥ 'हे (वसुपूज्य-मुन) श्रीवासुपूज्य मुनीन्द्र । श्राप शिवम्वरूप अदयवियानोम पूज्य हैं--मंगलमय स्वर्गातरगादि-कल्याणक-क्रियायांक अबमपर पूजाको पात . ए हैं-, त्रिदशेन्द्रपूज्य हैं-देव द्रांक. द्वाग पृजे गये है पृजे जाते है, और मुझ अल्पबुद्धिके द्वारा भी पूजन हैं--में भी स्तुत्य दिक रूपम अापकी पृना किया रिता हूँ। (अल्बुद्धिक द्वाग पूजा जाना कोई श्रमंगत बात नहीं है, क्योकि । दीपशिग्गके द्वारा क्या सूर्य पूजा नही जाता ?-माही जाता है, नाग दीपक जलाकर मृर्यकर्को श्रारती उतारन हैं, दीशिवाम उमकी पूजा करते हैं।'
न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवरे।
नथाऽपि ने पुग्यगुणम्मृतिर्नः पुनानि चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥२॥ 'हे भगवन् ! पूजा-वन्दनाये श्रापका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योकि आप वीतरागी हैं-गगका अंश भी अापके भागम विद्यमान नहीं है, जिमके कारण किमी की पूजा-बन्द नाम भार प्रसन्न होत । (इसी तरह) निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नही है-कार्ड कितना ही अापको बुग कहे, गालिया दं, परन्तु उसपर श्रापको नग भी सोम नहीं ग्रामका क्योकि श्रापके श्रात्मामे बंग्भाव-दुपाश-बिल्कुल निकल गया है-यह उमम विद्यमान ही नहीं है--, निमसे नम तथा अपमन्नतादि कार्योका उद्गव हो माता । मा हालतम निन्दा और स्तुति दोनों ही आपके लिए मगन हैं-उनमें अारका कुछ भी बनता या बिगड़ता नही है । फिर भी आपके पुण्य गुणोग स्मरण हमारे चित्तको पाप मलाये पवित्र करता है।--और इम लिये हम जो आपकी पूजा बन्नानादि करते है नह ग्रारके लिए नहीं -श्रा का प्रमन्न कर के आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वाग आपको लाभ पहुंचाना यह सब उमका विष ही नदी है। उमका ध्येय है यापके पण्य गुणों का स्मरण-भारपूर्वक अनुचिन्तन-, जो हमारे चिनको-चिद्र। श्रान्नाको-पाप-माने छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र बनाना है और इम न हम उसके द्वाग अपने ग्रामगक विकामकी माधना करते है। अतः वह अापकी पूजा-वन्दना हम अपने ही तितके लिये करते है।
पूज्यं जिनं वाऽचयतो जनस्य मावद्यलेशा बहपुगयराशी।।
दोपाय नाऽलं कणिका विपम् न दृषिका शीतशिवाम्वुराशों ॥३॥ ___ 'हे पूज्य जिन श्रीवासु पूज्य! अापकी पूजा करते हुए प्राणीके जो मावद्यलेश होता है--मगगपरिणति तथा प्रारम्भादित्रद्वारा लेशमात्र पापका उर्जन होता है-वह (भावपत्रक को हुई पृजाम उत्पन्न होने वाली) बहुपुग्य-राशिमे दोपका कारण नहीं बनता--प्रचुर पुण्य-पु जमे हनवीर्य हुअा व पार उम पराय । दृप काने अथवा पावरूप परिणत करनेम ममर्थ नही हाता । ( मी टीक है। है ) विषकी एक काणिका शीतल तथा कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रको दूपित नही करती-उमे प्राणघातक विपधर्मम युक्त विपैला नहीं बनाती।'
यद्वन्नु वायं गुग्णदोषमूनिमित्तमभ्यन्नरमूलहेतोः।
अध्यात्मवृत्तस्य नदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलम यलं न ॥४॥ 'जो बाह्य वस्तु गुण-दोपकी--पराय-यापादिरूप उपकार-अपकारकी-उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरगमें वर्तने वाले गुण-दोषकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूल हेतुकी. - शुभाशुभादि-परिणाम-लक्षण उपादानकारगणकी-अंगभूत-- सहकारी कारण भूत-होती है ( अोर हम लिए मूल कारण शुभाऽशुभादि-परिणाम के अभावम महकारिकारगारूप कोई भी बाह्यवस्तु पुण्य-पापादरूप गुगण-दोपकी जनक नह। । । बाह्य वस्तुकी अपेदा न रग्बता हा केवल अभ्यन्तर कारण भी-अकेला जीवाद किमी द्रव्यका परिणाम भी-गुण-दोपकी उत्पत्तिमे समर्थ नहीं है।'
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण -६]
अनेकान्तक मुम्बपृष्ठका चित्र
३३३
वातरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः।
नवान्यथा मोक्ष-विधिश्च पुमा तेनाऽभिवन्द्यस्वमृपिव॒धानाम् ॥५॥-स्वयम्भूस्तोत्र 'कार्योम बाह्य और अभ्यन्तर-उपादान योर सहवार्ग-दोनों कारणोंकी जो यह पूर्णता है वह आपके मतम द्रव्यगत स्वभाव है-जापादि-पदार्यगत अर्थक्रियाकारि-स्वरूप है। अन्यथा-टम ममग्रता और द्रव्यगत स्वभावके विना अन्य प्रकारमे--पुरुषांके मोक्षकी विधि भी नही बनती - घटाादकका विधान ही नहीं किन्तु मुक्तिका विधान भी नहीं बन सकना । इसीसे हे परमद्धि-सम्पन्न ऋषि वामपृच ! आप बुधजनोंके अभिवन्ध हैं-गणधरादि विबुधजनोंके द्वारा जा-वन्दना किये जाने के योग्य है।'
अनकान्तक मुखपृष्ठका चित्र
[सम्पादकीय ] ना०५ नवम्बर मन १९४२ के 'जनमित्र' (वर्ष सूचित कर दिया गया था कि-"जैनी नीति क्या है अथवा ५३ अंक ५.) में, पृष्ठ ८.१ पर, कुछ पंक्तियाँ पं० उम्का क्या म्वरूप और व्यवहार है, इस बातको कुशल 'बुद्धिलाल श्रावक, देवर्ग' के नाम मुद्रित हुई हैं। चित्र-कारने दो प्राचीन पद्योके आधारपर चित्रित किया इन पंक्तियाने अनकान्तक मुखपृष्ठ पर प्रकाशित है और उन्हे चित्रम ऊपर-नीचे अङ्कित भी कर दिया होनेवाल जैनी नीति' के चित्रपर श्रावकजीने कुछ है।" साथ ही, दोनो पद्योक विपयका स्पष्टीकरण भी आपति का है, जिसका रूप इस प्रकार है- कर दिया गया था । दूसरे पद्य 'विधेयं वार्य' का __"अनकान्त मासिक पत्रके मुख पृष्ठ पर एकना- मग्रीकरण करते हुए यह साफ तौरपर बतलाया था कपेन्ती गाथाका चित्रपट है, उसमें दास अधिक हाथ कि-'जैनी नीतिरूप गोपीके मन्थनफा जो वस्तुतत्व वाली गापिका मन्थन कर रही है, जो अजैनियोक विषय है और जिमका अमृतचन्द्रके पद्यमें उल्लेख है त्रिनत्र, चतभज, पडानन, दशधर, बीसवाहुवत् वह अनेक नयोकी विवक्षा-अविवक्षाके वशसे मिथ्यात्वकी और आकर्षण है। क दर्शकन कहा कि विधेय, निपेध्य, उभय, अनुभय, विधेयोप्नुभय -"ज का लक्ष्मी ज आय महि भाउत हैं ?" इस निषेध्याऽनुभय और उभयाऽनुभयके भेदसे सातओर लक्ष्य वाहनीय है। स्वामी अमृनचद्रका अभिप्राय भंगरूप है और ये मातों भंग सदा ही एक दो नयाम है जो मतभंगीकी ओर तानतून की जानसे दुसरेको अपेक्षाको लिये रहते हैं। प्रत्येक वस्तुतत्व विपरीत भामना है।दो हाथकी गोपीका चित्र उचित है। इन्ही मात भंदोमें विभक्त है, अथवा यों प० पन्नालालजी वर्मतका कविता दो हाथोका प्रतिपा- कहिये कि वन्नु अनेकान्तात्मक होनसे उसमें अपरिदन करती है।"
मित धर्म अथवा विशेप संभव हैं और वे सब धर्म इस आर्गत परसे मान्हम होता है कि श्रावकजी- अथवा विशेष वस्तुके वस्तुतत्व हैं। ऐसे प्रत्येक वस्तुने चित्रके मर्मको ठीक तारपर ममका नहीं है । मब तत्वके 'विधेय' आदिके भेदसे सातभेद हैं। इन मात में पहले आपने यही समझनमें ग़लती की है कि उक्त मे अधिक उसके और भेद नहीं बन सकते, इसलिये चित्र मात्र अमृतचंद्रक एकेनाकर्पन्ती' इस एक पद्यके ये विशेप (त्रिकालधर्म) सातकी संख्याके नियमको
आधार पर ही बना हुआ है, जबकि वह दो पद्योके लिये हुए हैं। इन तत्वविशेपोंका मन्थन करते समय संयुक्ताधार पर बना है। दूसरा पद्य म्वामी समन्तभद्र जैनीनीतिरूप गोपीकी दृष्टि जिस समय जिस तत्वको का है, जो बहुत गम्भीरार्थक है और वह भी चित्रपर निकालने की होती है उस समय वह उसी रूपसे परिअङ्कित है। चित्रपरिचय (वर्प४,कि पृ२) में भी यह गत और उसी नामसे उल्लिखित होती है, इसीसे
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३४
अनेकान्त
[ वर्ष ५
मलिषेणादि आचार्योंके 'भैरवपद्मावती कल्प' जैसे ग्रंथोको उटाकर देख लेना चाहिये | भैरव - पद्मावती कल्पका एक पद्य नमूने के तौर पर नीचे दिया जाता है जिसमें पद्मावतादेवोको चार भजाओंवाली तथा त्रिलोचना प्रकट किया है
चित्र में विधिदृष्टि, निषेधदृष्टि आदि सात नामों के साथ उसके सात रूप दिये हैं और उसे सप्तभंगरूपा लिखा है।' इसमें स्पष्ट है कि जैनीनीतिरूप गोपी एक है, जिसके सात नाम और नामानुसार सात रूर हैं। मुखपृष्ठ पर जो सात चित्र हैं वे उसी एक गोपिका देवीके सात रूप हैं - वस्तुतः सात गोपियाँ मन्थन नहीं कर रही हैं। एक गोपीकी सात अवस्था ओंका एक ही चित्रमें प्रदर्शन नहीं किया जा सकता । अतः उसकी दृष्टि और परिणतिको स्पष्ट करनेके लिये सात चित्रोका अवलम्बन लिया गया है । चित्र नं० २, २, ४ से प्रकट है कि उस गोधिका देवीके मुलतः दो हाथ हैं, वही देवी जब चित्र २० ३, ५, ६ में चार हाथ और चित्र नं० ७ में छह हाथ धारण करती है। तो समझना चाहिये कि यह उसकी विक्रियाका परिराम है। एक वस्तुकी अनेक अवस्थाएँ होने पर उस में क्रिया-विक्रियाका होना स्वाभाविक है; फिर एक देवी अपनी विक्रिया-शक्तिसे, अपने दृष्टिविन्दु एवं लक्ष्यको नष्ट करने के लिये, यदि दोके स्थान पर चार अथवा छह भुजाएँ बना लेती है तो इसमें जैन सिद्धान्तकी दृष्टिसे कौन सी बाधा आती है, जिसके कारण दोसे अधिक भुजाओं के प्रदर्शनको “मिध्यात्व की ओर आकर्षण" कहा जा सके ? क्या जैन सिद्धान्तानुसार वैक्रियक शरीर के कारण देवतागरण और वैकियक ऋद्धिके कारण मर्त्यजन दोसे अधिक हाथ नही बना सकते ? और क्या रावणने बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करके अपने एक से अधिक सिर और दोमे अधिक हाथ नही बनाये थे ? यदि बना सकते हैं और बनाये थे तो फिर दोसे अधिक हाथोंके प्रदर्शनको मिथ्यात्व की ओर आकर्षण बतलाना कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? नहीं हो सकता ।
यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हैं कि अनेक प्रतिपाठों तथा संहितादि दिगम्बर ग्रन्थों में भी अनेक शासन देव - देवियों - यक्ष-यक्षियों और विद्यादेवियोंको दोसे अधिक भुजाओं तथा नेत्रा दिकोंसे युक्त बतलाया है। इसके लिये आशाधरादि के प्रतिष्ठापाठों, एकसंध आदिके संहिताशास्त्रों और
पाश-फल- वरद गज्वशकरण करा पद्मविष्टरा पद्मा । सा मां रक्षतु देवी त्रिलोचना रक्तपुष्याभा ॥ ऐसी हालत में त्रिनेत्र और चतुर्भुजादिकी कल्पना जनकल्पना बतलाका भी उसे मिथ्या ठहराना उचित नही है ।
को
ही एक दर्शक कहने की बात, चित्रको देखकर यदि कोई दर्शक पूछता है कि यह क्या लक्ष्मीजी आकर मट्टा चिनो रही है अथवा दधि-मन्थन वर रही हैं ? तो इसमे विचलित होने की कौन बात है ? उत्तर में साफ कहना चाहिये- 'हाँ, यह ज्ञानलक्ष्मीजी हैं जो गोपिकाका रूप धारण करके वस्तुतत्वका मन्थन कर रह हैं और उसके द्वारा वस्तुवत्वका ठीक विश्लेरण करनेवाली जननीतिको स्पष्ट करके बतला रही हैं।'
अ रही अमृतचन्द्राचार्य के दो नयों के अभिप्रायकी वात, जब वस्तुतत्व समभंगरूप है और वे सप्तभंग सप्तनयात्मक हैं तथा अमृतचंद्र अपने उक्त पद्य में वस्तुतत्वका उल्लेख कर रहे हैं तब उनका वह वस्तुतत्व दो नयाँक अभिप्रायको ही लिये हुए कैसे कहा जा सकता है ? क्या आचार्य अमृतचंद्र केवल दो ही नय मानते थे ? यदि दो ही मानते थे तो फिर तत्वार्थसार में उन्होंने नैगमादिरूपसे सात नयोंका कथन क्यों किया ? और पुरुषार्थसिद्धयुपायके 'इति विविधभङ्गगहने' पद्यमे 'प्रबुद्धन यच क्रमचाराः' पदके द्वारा बहुत नयोंके समूहकी सूचना क्यों की ? इन उल्लेखोंपर से स्पष्ट है कि वे बहुत नयोंको मानते थे मात्र दो नयोंका ही उनका अभिप्राय बतलाना तथा सप्त भंगोकी बातको 'तानतून' और 'विपरीत' प्रकट करना भूलसे खाली नहीं है। स्वामी समन्तभद्रने जिनेन्द्र के कथनानुसार वस्तुको बहुत नयोंकी विवक्षा अविक्षाके वश भेदरूप बतलाया है, और यह बात चित्रमें अंकित उनके पाके 'बहुन६ - विवक्षेतरवशात' इस पदसे भी प्रकट
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११]
अनेकान्नके मुख्यपृष्ठका चित्र
३३५
है। अनः सप्तभागोंका बात केवल चित्रकार अथवा ही सम्मतियाँ अनेकान्तके चौथे वर्ष में 'अनेकान्तपर चित्रकारको भाव देने वालाकी भी 'ताननून' लोकमत' शीर्पफके नीचे प्रकाशित हुई हैं, कुछ अन्य नहीं है और न जैनसिद्धान्त के ही वह विपरीत है। पत्रों में प्रकट हई हैं और कुछ अपने पास अप्रकाशित श्रावकजीको यदि वह विरात भामती है तो इसे तब भी पड़ी हुई हैं। इन सबमे से कुछ सम्मतियाँ नमूने उन्हीकी दृष्टिका दोप समझना चाहिये ।
के तौरपर नीचे दी जाती हैं जिनसे मालूम होगा कि गोपीके मूलतः दो ही हाथ ह ते हैं, यह बात अनेकान्तके मुख्यपृष्ठका चित्र विद्वानोंकी दृष्टि में कितने ऊपर बतलाई जा चुकी है। परन्तु जब वह एकम महत्वका है और वे उसे कितना सुसंगत तथा जैनी अधिक दृष्टियों को अपनाती है तब उस दृष्टिपरिणति- नीतिको स्पष्ट करने वाला बतला रहे हैं :रूप उसकी स्थितिको स्पष्ट करने के लिये चित्रम दोसे १-६० कैलाशचन्द्र जैन सि० शास्त्री,(संपादक अधिक हाथोका चित्रित किया जाना अनुचित नहीं जैनसन्देश), काशी-"चित्र जैनी नीतिका है। और है। चित्र में जहाँ दोसे अधिक हाथ अकित हैं उनका जैनी नीतिरूपी अनेक गोपिकाओं के द्वारा अनेकायह अभिप्राय नही है कि व सत्र हाथ एक साथ काम तात्मक वस्तुतत्त्वको आलोडन करके सापेक्ष दृष्टिसे कर रहे हैं-सबके तक साथ काम करनपर मन्थन- इच्छित तत्वको निकालनेकी प्रक्रियाका चित्रण क्रिया बन ही नहीं मकरी । मन्थन क्रिया दो ही हाथों सम्पादक पं जुगलकिशोरजी मुख्तारके बुद्धिकौशलका सं हुआ करती है, दूसरे दो अथवा चार हाथोंका सजीव प्रतिबिम्ब है। चित्रके द्वारा जैनधर्मके जिस चित्रण मात्र दूसरी हटियाका अपनाते समय उसके महान सिद्धान्तका चित्रण किया गया है, उसे समझना हाथाकी स्थिति (Position) का अ.भास कराने के सबके लिए शक्य नहीं है, और इसी लिए उसकी लिये ह, श्रार इस लि. उमं अनुचित नहीं कहा जा
प्रक्रियासे अनभिज्ञ अधिकांश पाठकोंको वह केवल सकता । जिन पन्नालाल जी 'वसन्त' का श्रावकजी क कौतककी वस्तु-संभवतः वैद्यों के भयके जैसा न नामोल्लेख किया है उन्होने अनेकान्त के मुखपृष्ठ लगेगा. किन्तु प्रथम लेख 'चित्रमय जैनी नीति' वाल नीनीतक चित्रको ग्खूब पसन्द किया है और मे वे इसका रहस्य समझनेका प्रयत्न कर सकते हैं। उस चित्रपरमे ही उनकी कविताका जन्म हुआ है, २-न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमार, काशीजो उम चित्रके भावको स्पष्ट करने तथा उसका पूर्णतः "मुखपृष्ठका चित्र अवश्य ही आपकी तलस्पर्शी सूझका अभिनन्दन करने के लिए ही लिखी गई है।
सुपरिणाम है। वह जैनी नीतिका यथार्थ द्योतन कर इस मच विवेचनपरसे स्पष्ट है कि श्रावकजीकी रहा है।" उक्त-आपतिमें कुछ भी सार नहीं हैं।
३-पं० श्रजिनकुमार शास्त्री, मुलतान-"मुखउक्त आपत्तिके अनन्तर श्रावकजीने दो विद्वानों पृष्ठ पर सप्तभंगीको जिस चित्र द्वारा अंकित किया है का नामोल्लेख करके लिखा है कि, उन्होंने भी चालीस वह कल्पना प्रशंसनीय है।" गाँवमें उम चित्रको असंगत कहा है। यदि सचमुच ४-पं०पन्नालाल साहित्याचार्य,सागर-"मुखउन्होने ऐसा कहा है तो मालूम नहीं किस दृष्टिसे कहा पृष्ठ पर अत्यन्त भावपूर्ण चित्रमय जैनी नितिका चित्र है । जब तक उनकी दृष्टि-युक्ति सामने न आप तब तक है, जो कि अनेकान्त जैसे पत्रके लिये सर्वथा उपयुक्त उसपर कोई विचार नहीं किया जामकता । होसकता है।" है कि उन्हें भी चित्रकारका ठीक आशय समझने में ५-६० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, सूरत -"मुखभ्रम हुआ हो । मालूम होता है श्रावकजीको दूसरे पृष्ठका चित्र तो देखते ही बनता है। कई वर्षसे जिमे विद्वानोंकी सम्मत्तियाँ देखनेको नहीं मिली अथवा भोकोंमे पढ़ते आए थे उसे चित्रबद्ध देख कर बहुत उन्होंने उनपर कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसी कितनी आनन्द हुआ। उसे लेकर मैने अपने कई अजैन
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३६
अनेकान्त
[ वर्ष ५
मित्रों को भी अनेकान्तका रहस्य समझाया।" पृष्ठ पर म्यादात अनेकान्त नीतिका द्योतक सप्रभंगी
६-०सुमेरचन्द दिवाकर,न्यायतीर्थमिवनी- नयका रंगीन चित्र बहुत ही मनोहर एवं सुन्दर है। "मुखपृष्ठ पर स्याद्वाद के तत्वको बसान वाला चित्र इसमें एकनाकपन्ती' और 'विधेयं वाय चानुभयं बढ़िया है। चित्र अनेकान्तके स्वरूप पर अच्छा इत्यादि श्लोकदयके अभिप्रायको मूर्त स्वरूप बना कर प्रकाश डालता है।"
आपने अपनी उच्चकोटिकी कल्पनाशक्तिका समाज के ७–६० के० भुजवली शास्त्री, आरा-"मुख- मामने परिचय कगया। यह कार्य अत्यन्त प्रशंसा पृष्ठका चित्र स्याद्वाद (अनेकान्त) सिद्धान्तका पूर्ण करने योग्य है।" परिचायक है।"
१३-वा०जयभगवान वकील.पानीपत-"मुग्व८-बा० कृष्णलाल जैन, जोधपुर-"टाइटिल
मण्डल पर जिस मतभंगकी अविधा रही है वह पेज पर जो चित्र दिया है वह वाकई बहुन सुन्दर केवल जैनी नीतिका ही नहीं बल्लि इम पत्र-नीतिक और मौलिक और मैद्धान्तिक है।"
भी पूरा पूरा पता दे रही है। इस प्रकार चिचित्रम -पं० दौलतराम मित्र', इन्दौर-"मुखपृष्ठएर
द्वारा नीतिको दर्शाना आपकी ही अनुपम प्रतभ'कः जैनी नीतिका जो चित्र अंकित किया गया है वह अपने
कौशल है।" विषयको स्पष्ट करने वाला तो था ही, फिर भी समन्तभद्रविचारमालाके 'स्व-पर-बैरी कौन ?' नामक मणिका
१४-ना० माईदयाल जैन वी००, सनावद ने ऊपरसे और भी प्रकाश डालकर उसे मनोहर बना
(हाल देहली)-मुखपुरका चित्र भाव तथा अर्थ डाला है। इस प्रकाशमे जैनी नीति क्या है यह बात
है। इम के लिये चित्रकार की नधा उस को भार हर एक समझदारकी समझ अच्छी तरह समझ
देने वालों की जितनी प्रशंसा की जाय कम है।" सकेगी, संतुष्ट हो जायगी और पंडित जनाके प्रति १५-न्यायाचार्य पं० दरवारीलाल कोठिा उसे यह शिकायत न रहेगी कि-"
मथुरा (हाल सम्मावा)-"पंडितजीकी ही यह विचित्र १०-वा० रतनलाल वकील, विजनौर- नी मुझ है कि अनेकान्तक मुग्यपृष्ठ पर जैनी नीतिका नीति वाला लेख तथा उसकी तसवीर मुझे वहन ही गोपिकाके समन्वयका सुन्दर चित्र खीचा है।" पसन्द आई-उस उदाहरणसे अनेकान्तको बड़ी १६--सम्पादक जनमित्र, सुरत-"मुख पृष्ठ पर सरलतामे समझाया है। मैं चाहता है कि यदि जैन जैनी नीतिका द्योतक समगीका रंगीन चित्र बहन नीतिका दधिमन्थन वाला चित्र बड़े आकारमं छप कर ही मनोहर है। इसमें एकनाकपेन्ती' शोकको मन मन्दिरों में लग जावे तो बड़ा लाभ समाजका होगा। स्वरूप देकर मख्तार सा० ने अपनी उच्च कल्पनाशक्ति, यह जैननीति सरलतासे समझमें आ सकेगी।" का परिचय दिया है।"
११-पं०कन्हैयालाल मिश्र'प्रभाकर'सहारनपुर- आशा है इस लेख परमे श्रावकजी तथा उन "मुख पृष्ठका चित्र जैनी नीतिका संपूणे प्रदर्शन है। दूसरोका भी समाधान होगा, जिन्हें चित्रके सम्बन्ध इस वैज्ञानिक निर्देशके लिये.... 'प्रशंसाके पात्र हैं।" में कुछ भ्रम हुआ हो।
१२-पं० लोकनाश शास्त्री, मृडविद्री-"मुख- वीरसेवामन्दिर सरसावा, ता० ३०-१२-१६४२
NO.IN
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
पउमचरियका अन्तःपरीक्षण
(लेखक-पं०५रमानन्द जैन शास्त्रा)
'पउमचरिय' प्राकृत भाषाका एक चरितग्रन्थ है, जिम
रचना-काल में रामचन्द्रकी कथाका अच्छा चित्रण किया गया है । इस विद्वानी में हम ग्रन्थके रचनाकालके सम्बन्धमे भारी अन्धके कर्ता विमलमूरि हैं। ग्रन्थकाने प्रस्तुत ग्रन्थ में
मत-भेद पाया जाता है। डा. विण्टरनीज़ बादि कुछ अपना कोई विशेष परिचय न देकर सिर्फ यही मृचिन किया
कया विद्वान् तो ग्रन्थमे निदिष्ट समयको ठीक मानते हैं। किन्तु है कि-'स्व-समय और पर-ममयके सद्रावको ग्रहण करने
पाश्चात्य विद्वान् डा. हर्मन जैकोबी वगैरह इसकी रचनाकरने वाले 'राह' प्राचार्यके शिष्य विजय थे उन विजयके औली भाषा-साहित्यादि परमे इसका रचनाकाल हेसा शिष्य नाइल-कुल-नन्दिकर भुझ “विमल' द्वारा यह ग्रन्थ
की तीसरी चौथी शताब्दी मानते हैं। कुछ विद्वान् डा. रचा गया है* ।' यद्यपि रामकी कथाके सम्बन्धी विभिन्न
कीय प्रादि इममें 'दीनार' और ज्योतिष-शान-सम्बन्धी जैन कवियों द्वारा अनेक कथा-ग्रन्थ रचे गए हैं परन्तु उन कल ग्रीक भाषाके शोक पाये जाने के कारण इसे इसाय में जो उपलब्ध हैं वे सब पउमचरियकी रचनासे अर्वाचीन ३० वर्ष या उसके भी बादका बतलाते हैं। और छन्दकहे जाते हैं। क्योंकि इस ग्रन्थम ग्रन्थका रचनाकाल वीर- शासके विशेषज्ञ श्रीदीवान बहादुर केशवलाल ध्रुव उक्त निर्वाणये १३० वर्ष बाद अर्थात विक्रम संवत् ६० सूचिन रचनाकाल पर भारी सम्देह व्यक्त करते हुए इसे बहुत बाद किया है । अन्धकारने इस प्रन्थमे उमी रामब.थागे प्राकृत- की रचना बतलाते हैं। आपने अपने लेखमे प्रकट किया है भापामे सूत्री-सहिन गाथाबद्ध किया बलाया है जिसे प्राचीन- कि-इस अन्धके प्रत्येक उमके अन्त में गाहिणी, शरभ कालमें भगवान महावीरने कहा था, जो बादको उनके प्रमुख आदि छन्दोका, गीनिमे यमक और सर्गान्तमें 'विमल'
घर इन्वशान द्वारा धमाशयम शिष्याक प्रात कहा गह शब्दका प्रयोग भी इसकी प्राचीनताका ही द्योतक है।' और जो माधुपरम्पगमे मक्ल लोकमे उस समय तक इनके मिवाय, और भी कितने ही विद्वान् इसके रचनाकाल स्थित रही।
पर मंदिग्ध है-प्रन्धमे निर्दिष्ट समयको ठीक मानने में
- हिचकिचाते हैं. और इस तरह इसका रचनाकाल अब तक * गह नागारियो ".ममयार-ममयहियमभाव।। विजयो य तम्स मीमी नाइल-कुल-बम-नन्दियगे ॥११॥
सन्देहकी कोटिमें ही पडा हुया है। ऐसी स्थितिम ग्रन्थो. मीमेण तस्म रइयं सहचारय नु मृर्मिनमलेगा।
लिखित समयको महमा स्वीकार नही किया जा सकता।
___ग्रन्थके समय-सम्बन्धमे विद्वानोंके उपबन्ध मताका - उमरिय, उम १०३
परिशीलन करते हुए, मैंने ग्रन्थके अन्तःसाहित्यका जो
परीक्षण किया है उस परमे मैं इस नतीजेको पहुंचा हूँ कि चव य वासमया दुममाए नीमवरिम संजना ।
ग्रन्थका उक्त रचनाकाल ठीक नहीं है--वह जरूर किसी बीरे मिद्धिमवगए तो निबद्धं इमं चरियं ॥१०३
भूलका अथवा लेम्बक-उपलेखककी गल्तीका परिणाम है, एवं बीजिणेण गमग्यि मि महत्थं पग,
- - - - - - - - पच्छा बइल भूहगा उ काहा सामाग धम्मामय। देग्यो, 'इन्माइक्लोपीडिया श्राफ रिलीजन एण्ड एथिक्स' भूयो साहुपरंपराए मयलं लोए ठियं पायड,
भाग पृ० ४३७ और 'माइन रिव्यू' दिसम्बर सन् १९१४ । एनाहे विमलेश मुन-महियं गाहानिवढं कयं ।। १०२ देग्यो, कीथका मंस्कृत-माहिल्या इतिहास, पृष्ठ ३४, ५६
--उमचरिय, उ० १०३ इन्ट्रोडक्शन टु प्राकृत ।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
३३८
अनेकान्त
[वर्ष ४
और यह भी हो सकता है कि शक-क लकी तरह वीर- यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि निर्वाणके वर्षों की संख्याका तत्कालीन ग़लत प्रचार ही श्वेताम्बरीय विद्वान मुनि कल्याण विजयजी तो अपनी इसका कारण हो। परन्तु कुछ भी हो, ग्रन्थके अन्त:- 'श्रमणभगवान महावीर' पुस्तकमे बहानक लिखने हैं किपरीक्षण परसे मुझे उक्त समयके ठीक न होनेके जो दृपरे विक्रमी सातवी शताब्दीमे पहले दिगम्बर श्वेताम्बर विशेष कारण मालूम हुए हैं वे निम्न तीन भागोम दोनो स्थविर परम्पराधीमे एक तृमरेको दिगम्बर-श्वेताम्बर विभक है:--
कहमेका प्रारभ नही हुश्रा था। जैसा कि उनके निम्न (१) दिगम्बर-श्वेताम्बरके सम्प्रदाय-भेदसे पहले पउम वाक्यमे कट है:चरियका न रचा जाना ।
इसी समय (विक्रमकी सातवीं शताब्दी के प्रारंभसे (२) ग्रन्थमे दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्दकी मान्यताका
दशवीके अन्त तक) मे एक दमको विगम्बर- मा
कहनेका भी प्रारम्भ हुश्री।" पृष्ट ३०७ अपनाया जाना। (३) उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रोका बहुत कुछ अनुसरण
मुनि कल्याण विजयजीका यह अनुसंधान यदि ठीक
है तो पउमचारियका रचनाकाल विक्रम संवत १३६ से ही किया जाना। अब मैं इन तीनो प्रकारके कारणोंका क्रमश. स्पष्टी.
नही किन्तु विक्रम की मानवी शताब्दीमे भो पहले का नही
हो सकता। इस ग्रंथ का सबसे प्राचीन उल्लेख भी अभी करण करके बतलाता हूं--
तक कुवलयमाला' नाम के प्रथमे ही उपलब्ध हुअा है जो (१) जैनोमें दिगम्बर-श्वेताम्बरका सम्प्रदाय-भेद दिग
शकसंवत् ७०० अर्थात् विक्रम संवत् ८३५ का बना हुआ है। म्बरोंकी मान्यतानुसार विक्रम संवत् १३६ में और श्वेताम्बरों
(:) श्रीकुन्दकुन्द दिगम्बर सम्प्रदायके प्रधान प्राचार्य भी मान्यतानुसार संवत् १३६ में हुआ है। इस भेदये
हैं। अापने चारित्तपाहुड में सागारधर्मका वर्णन करते हुए पहलेके साहित्यमें जैन माधुओंके लिये 'दिगम्बर'- श्वेताम्बर'
पल्ले ग्बनाको चतुर्थ शिक्षाबत बतलाया है। अ.पसे पूर्वक शब्दोका स्पष्ट प्रयोग कही भी नहीं देखा जाता। ऐसी
और किसी भी प्रन्थमे इस मान्यताका उल्लेख नहीं है, स्थिति होते हुए यदि इस ग्रन्थमे कि जैन साधु के लिये
और हम लिये यह वास श्रापकी मान्यता समझी जाती श्वेताम्बर (सियबर) शब्दका स्पष्ट प्रयोग पाया जाता है तो
है। अापकी इस मान्यताको पउमचरियके कर्ता विमलमूरि वह इस बातको सूचित करता है कि यह ग्रथ वि० संग्न
ने अपनाया है। श्वेताम्बरीय भागम-मृत्रोंमें इस मान्यता १३६ से पहलेका बना हुआ नही है. जिस वक्त तक कि
का कहीं भी उल्लेख नहीं है। चुनाचे मुख्नार साहबको दिगम्बर श्वेताम्बरके सम्प्रदाय-भेदको कल्पना रूढ नहीं हुई
प्राप्त हुए मुनि श्रीपुण्य विजयजीके पत्रके निम्नवाक्यमे भी थी। ग्रंथके २२ वे उद्देशमे एक स्थल पर ऐसा प्रयोग
ऐसा ही कट है:-'श्वेताम्बर भागमामे कही भी १७ सष्ट है । यथा
बारह व्रताम मल्लेखन का समावेश शिक्षाव्रत के रूपमें नहीं पेच्छइ परिभमंतो दाहिणदेसे मियंवरं पणश्री। किया गया है।" चारित्तपाहुडके इस मागारधर्म वाले तस्स सगासे धम्म सुणि ऊरण तो समाढनो ।। ७ ।। पद्योका और भी कितना ही सादृश्य इस पउमरियमे पाया अहभणइ मुणिवरिदो णिमुण सुधम्म जिहि परिकहियं जाता है, जैसा कि नीचे की तुलना परसे प्रकट है :-- जेहो य समणधम्मो मावयधम्मो य अगजेट्टो ॥७६|पंचवणव्वयाई गगव्वयाई हवंति नह तिरिण।
इसमे राज्यच्युत सौदाम राजाको दक्षिण देशमे भ्रमण सिक्खावय चत्तारिय संजमचरणं च मायारं ॥ २३॥ करते हुए जिस जैन मुनिका दर्शन हुश्रा था और जिसके थूल तमकायबहे थूल मासे अदत्त थूले य । पाससे उसने श्रावकके व्रत लिये थे उसे श्वेताम्बर मुनि परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं ।।४।। लिखा है। अत: यह ग्रन्थ वि० संवत १३६ से पहलेकी दिमविदिममाणपढमं अगत्थदंडम्स वजणं विदियं। रचना नहीं हो सकता।
भोगीपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिरिण ||२||
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०१६
पउमरियका अन्तःपरीक्षण
३३६
मामाइयं च पढमं विदियं च तहेव पोमहं भणियं । सल्लेखना (समाधिमरण) को चतुर्थ शिक्षावतके रूपमे नइयं च अनिहिपज्जं चउत्थ मल्लहरणा अंते ॥२६॥ विहित दिखलाना और न
-चारित पाहुड
विक्रम संवत ६० से पूर्वका माममा होगा। पंच य प्रणव्वगाई निरणेव गुरवयाई भणियाई।
(३) उमाम्बाति-विरचित तत्त्वार्थसूत्रके सूत्रोंकी पउममिायावयाणि एन चत्तारि जिगोवट्ठागा ॥११२।।
चरियके कतिपय स्थलों के साथ तुलना करनेसे दोनों में भारी लयर पाणिवहं मूमावायं अत्तनाणं च ।
शब्दमाम्य और कथनक्रमकी शैलीका अरछा पता चलती पर जवईग्ण निवनी मन पंवयं च पंचमयं ॥ ११३ ।।
है। और यह शब्दसाम्यादिक श्वेताम्बराय भाष्य मान्यदिमिविनिमाण य नियमो अगत्यदेवावगं चैव।
पाठके साथ उतना सम्बन्ध नही रखता जितना कि दिग 'प्रधभांगपगमारणं तिग्णय गराध्वया गा || १५४ ।।
म्तरीयमृत्र-पाठके माथ रखता हुश्रा जान पडता है। इतना मामाइयं च उववास-पांसहो अतिहिमविभागो य।
ही नहीं, किन्तु जिन सूत्रोको भाप्य-मान्य पाठमें स्थान अंने ममाहिमरणं निकम्वामुवयाइ चत्तारि ॥ ११५ ।।
नहीं दिया गया है और जिनके विषयम भाप्यकं दीकाकार -पउमरिय:०१४
हरिभद्र और सिद्धसैन गणी अपनी भाष्यवृत्तिमें यहांतक इसके सिवाय, प्राचार्य कुन्दकुन्के प्रवचनपारकी
मृचित करने हैं कि यहां पर दूसरे कुछ विद्वान् बहुतमे नये निम्न गाथा भी पउमरियम कुछ शब्द-परिवर्तनके साथ
सूत्र अपने पाप बना कर विस्तारके लिये रम्बते हैं उनमें उपलब्ध होती है.
से कितने ही मूत्रोका गाथाबद्ध कथन भी दिगम्बरीय पर जं अग्गागी कम्मं बवेदि भवमयमहासकं हि। मग मम्मन मूत्र-पाठके अनुसार इसमें पाया जाता है। तं गाणी निहिगुना ग्ववेदि उपमासमनंग ।। ३८॥ यहां पाठको की जानकारीके लिये तत्यार्थसूत्रोकी और पउम
-प्रवचनसार अ८३ चरिय की गाथारोकी कुछ तुलना नीचे दी जाती है:जं अन्नागानवम्मी खवेइ भवमयमहापक डीहि ।।
उपयोगीलक्षगाम ॥८॥म द्विविधोऽg चतुर्भेदः ।।।। कम्मं तं ति.िगुत्तो खवेदणाणी महत्तेणं ।। ५७७ ।।
--तत्वार्थसूत्र, अ०३ -उमयि उ० १०० मी स्थितिम पउमचरियकी रचना कुन्दकुन्दसे पहिले
जीवणं उयांगो नाणं नह ईमगं जिणकरवायं ।
जा की नी हो सकती । कुन्दकुन्दका समय प्राय: विक्रमकी नाण अ
M नाणं अधिया चविहं दसरणं भणियं ॥६॥ ली शताब्दीका उत्तरार्ध और दूसरी शताब्दीका पूर्वार्ध
-पउयचग्यि, पहेम १०२ पाया जाता है--तीमरी शताब्दीके बादका तो वह किसी
पृथिरप्रेजोवायुवनापतयः स्थावराः ॥ १३ ॥
__ --तत्वार्थमूत्र, अ०२ तरह भी नहीं कहा जा सकता । ऐगी हाल तमे पउमचग्यिके निर्माणका जो समय यि० सं०६. बनवाया जाता पुढवि-जल-जलण-मारुय-वणम्मई चेव थावग गए। है वह सगन मालूम नही होना। मुनि वरूपाणविजयजीने काया एका य पुणो हवा तो पंचभैय जी ॥६३|| नो कुन्दकुन्दका समय वि० की छठी शताब्दी बलाया है।
--उमर्चाग्य, उ०१०२ उन्हें अपनी इस धारणाके अनुसार या नो पउमचरियको जरायुजाण्डजपोतानां गर्भः ॥ ३३ ॥ देवनारकाणाविक्रमकी छठी शताब्दीके बादका ग्रथ बतलाना होगा, या मपपादः ॥ ३४ ॥ शेषाणां मम्मूर्छनम् ।। ३५ ।। वि० संबन ६० से पहलेके बने हुए किसी श्वेताम्बर ग्रन्थमें
-तत्वाथसूत्र, अ०२ *दग्वो, अनेकान्त वर्ष २ किरण १ का प्रथम लेख, श्रीकुन्द- xअपर पनविद्वामोऽतिबनि स्वयं विरच्याम्मिन् प्रस्तावे कुन्द और यतिवृषभम पूर्ववर्ती कौन ? तथा प्रवचनसारकी सूत्राण्यधीयते विस्तरदर्शनाभिप्रायेण । प्रो. ए. एन. उपाध्यकी अंग्रेजी प्रस्तावना ।
-मिद्धसेनगणी, तत्त्वा० भा० टी० ३, ११ पृ० २६१
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
| वर्ष५
अण्डाउय-पोयाउय-जगच्या गभगा इमे भणिया। मारनं हेमवयं पुग्ण हग्विाम नह महाधिदेहं च । सुरनारय उबवाया इमे य संमृच्छिया जीया ||| रम्मय हेरगणवयं उत्तरी हवइ एरवयं ।। १०६।। -यमच गय०१०२
-उमञ्चग्य, :००२ श्रीदारिकवैक्रियिकाहायजमकार्मणा न शरीगग ३६ तद्विभाजिनः पूर्वापरयता हिमवन्हाहिमवनि
परंपरं सुक्ष्मम ॥३७॥ तत्वार्थसूत्र, अ०२ पधनीलविशिखरिणो वपंधरपर्वताः ॥ ओरालियं विवाहार जम कम्मदयं ।
-तत्वा०, अ०३ सुहम परंपराए, गुणहि संपज्जइ मरीरं ।। ३६८।। हिगवो य महाहिमवो निमटोनीलो यमपि मिरीय।
--पउमचरिय, उ०१.२ गह विहत्ताहं मतं हवंति वामाइ ॥ १० ॥ ग्लशकंगवालुकाकधूमतमोमहानमःप्रभा भूमयो
--उमचरिय, २०१०० घनाम्बुवानाकाशप्रतिष्ठा समाधोधः॥५॥
गंगासिन्धुगहिदोहितान्याहरिद्धरिकांतासंतातत्त्वा०, अ०३
मातोदानारीनरकान्तासुवर्गरूप्यकुलार कारक दामरिग्यणप्पभाय-सकर-बालुय-पंकप्पभा य धूमपभा ।
नम्तन्मध्यगाः ॥ २०॥ -तत्वा०, अ०३ पत्तो तमा तमतमा ममिया हवइ अह योग ॥६६||
गगग य पढम मरिया मिन्धू पुरण रोहिया गयचा ! ताम त्रिशल्पञ्चविंशतिपञ्चदश पउमरिय, उ० १०२
तह चव गहियमा हीनदा चेव हरिकंना ॥१०॥ दशत्रिपञ्चानेकनरकशतसहस्राणि चव यथाक्रमम
मीया विय मीओया नारी य तहेव होइ नरकता। ॥२॥ -तत्वा०, अ०३ तीसाय पन्नवीसा पणरम दम्चेब होति नरकाऊ ।
रूपय सुवगणकृन्ना रत्ता रत्तावई भगिया ।। १०॥ तिएणक्कं पंचूर्ण चित्र अणत्तग नग्या ।। ३७ ।।
-पउमचाग्यि ,३० १०२ भरतगवतयोहिदामी पटसमयान्यामुमगिगावा-पउमचरिय,३०२ तेवेकत्रिशप्तदशमप्तदशहाविशतित्रयस्त्रिशत्मागरम
पिंणीयम ॥२७॥ मत्वानां पथितिः॥६॥ --तत्वा०, अ०३
ताभ्यामप्गभूमयोऽवस्थिताः। -सन्वार्थमन्त्र, ०३ एकंच निरिण मत्त य दम सत्तरमहंव बावी। भरहरवा सुतहा हागी वुदी मोमु य होड नम१ तेत्तीस उहिनामा आऊ रयणप्पभादाम ॥२३॥
--पत्मचरिय२०३
भग्नैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरुत्तरकुरुभ्यः, -पध्मचरिय,.१००। जम्बूद्वीपलवणोदादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ॥७॥
तत्वा० अ०, ३ सू० ३७ द्विििवष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो बलयाकृतयः ।।८।।
पंचसु पंचसु पंचमु भरहेरवामु तह विदेहेम् ।
भगिया उ कम्मभूमी तीमं पुरण योगभमीश्रो ।।११।।
तत्वा०, अ०३ जम्बूहावाईया दीवा लवणाइया य सलिलनिही।
हेमवयं हरिवास उत्तरकुरु नह य देवकुरु । एगन्तरिया ते पुण दुगणा दुगुणा असंवजा १० रम्मय हरगवयं प्याभो भोगभूमीओ ।। ११२॥ --पउमरिय, ३०१००
-पउमचग्यि, २०१०२ नन्मध्ये मेमनाभित्तो योजनशतमहनविकम्मो भवनवामिनोऽसुग्नागविद्युत्सुपर्णाग्निवातम्ननिनोदधि जम्बूद्वीपः ॥६॥
-तत्वा०, अ०३ द्वीपदिक्कुमाराः॥ -तत्वा०, अ०४ मू०१० तम्स वि हवइ मज्झ नाहगिरी मन्दरो सयमहाग। अमग नागसवण्णा दीवममुहा दिसाकुमारा य । सव्वपमाणेणचो वित्थिगणो नममहम्पाई ॥१०३॥ वायग्विजारण्या भवरणनिवाम ढमवियापा ।३। -पउमचरिय, उ०१०२
-पउमचारिय, उ०७५ भग्नहैमवतहििवदेहरम्यकहरण्यवतरवितवपः व्यन्तराः किन्नरक्म्पुिरुपमहोग्गगन्धर्वयक्षराक्षमभूतक्षेत्राणि ।।
--तत्वार्थसूत्र, अ.३ पिशाचाः। --तत्वा०, अ०४ मू०१०
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
वप ५]
पउमचरियका अंतःपरीक्षण
३४१
किन्नरकिंपुरि यमहोग्गा य गन्धव्यरकावमा जावा ।
ग्रन्धकी कुछ खास बातें भूया य पिसाया वि य अट्टविहा वारणमन्तरिया ।३२ पउमवांग्यके अन्त परीक्षण परसे कुछ बाते ऐसी
__-पउमचारिय, २०७४ मालूम होती हैं जो ग्वास तौरपर दिगम्बर सम्प्रदायकी ज्योतिःकाः मूर्याचन्द्रममो ग्रहनक्षत्रप्रकीकतारकाच॥ मान्यतादिसे सम्बन्ध रखती हैं, कुछ ऐसी हैं जिनका श्वेता-तत्वा०, अ०४ मू० १२
म्बर सम्प्रदायकी मान्यतादिसे विशेष सम्बन्ध है और कुछ
ऐसी भी हैं जो दोनोंकी मान्यताओं कुछ भिन्न प्रकारकी वन्तरसराग उचरिं पंचविहा जोइमा ती देवा। चन्दा सूरा य गहा, नक्खत्ता तारया नेया ॥ १४॥
जान पड़ती हैं। यहाँ मैं उन सबको विद्वानोंके विचारार्थ --पउमचरिय, ६० १०२
दे देना चाहता है, जिसमें उन्हें इस बातका निर्णय करने में
मदद मिले कि यह ग्रंथ वास्तवमे कौनसे सम्प्रदायविशेषका इरिया भाषेपणादाननिक्षेपोत्सर्गाः ममिनयः।
है, क्योंकि अभी तक यह पूरे तीरपर निर्णय नहीं होसका -तत्त्वार्थ, अ००५
है कि इस ग्रंथके कर्ता दिगम्बर-श्वेताम्बर अथवा यापनीय श्रादि इरिया भामा तह एमणा य आयाणमेव नियंत्रो।।
कौनसे सम्प्रदायके प्राचार्य थे। कुछ विद्वान इस ग्रन्थको श्वेता. उच्चागई समिइ पंचमिया होइ नायव्वा ॥ ७१
म्बर, कुछ दिगम्बर और कुछ यापनीय संघका बतलाते हैं। --प उमचरिय, उ०१४
(क) दिगम्बरसम्प्रदाय-सम्वन्धीअनशनावमौदर्य वृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्त
१ ग्रंथके प्रथम उद्वेशमें कथावतारके वर्णनकी एक सनकायक्लेशा बगद्यं तमः । प्रायश्चित्तविनय- गाथा निम्न प्रकारसे पाई जाती है-- वैयावृत्यम्वाध्यायव्युत्मर्गध्यानान्युत्तरम ॥
वीरम्स पवरटाणं विपुलगिरिमत्थप मनभिरामे । -तत्त्वा०, अ०६ सू० १६-२० तह इंदमूहकहियं सेगि, यरएणम्स नीसेसं ॥ ३४ ॥ आगमणमृणोइरिया वित्तीमंग्वेवकाय परिणा।
इसमें बतलाया है कि जब वीर भगवानका समवसरण रन रिचागी य नहा विवित्तमयणाम चेव ॥७४ विपुलाचल पर्वत पर स्थित था तब वहाँ इंद्रभूति नामक गौतम पाच्छितं विगओ वेयावचं तहेव सभाओ।
गणधरने यह पब रामचरित राजा श्रेणिकसे कहा है। भाग चिय उम्मग्गो तवो य अभंगे एमो॥ ७५
कथावतारकी यह पद्धति खास तौरपर दिगम्बर सम्प्रदायये -पउमचरिय, उ० १४
सम्बन्ध रखती है । दिगम्बर सम्प्रदायके प्रायः सभी ग्रंथ, इस तुलना परमे स्पष्ट है कि पउमचरियकी बहुत सी
जिनमें कथाके अवतारका प्रसंग दिया हुआ है. विपुलाचल गाथाएँ तत्वार्थमृत्रके सूत्रों परसे बनाई गई हैं। ग्रंथके
पर्वत पर वीरभगवानका समवसरण पाने और उसमे हंदअन्तमे ग्रथकारने 'एत्ताहे विमलेण मुत्तम हियं गाहानिबद्धं
भूति-गौतमद्वारा राजा श्रेणिकको-उसके प्रश्नपर कथाके कय” इस वाक्य के द्वारा ऐसी सूचना भी की है कि उसने कह जानका उल्लेख करते हैं, जबकि श्वेताम्बरीय कथाग्रंथा मृवाको गाथा निबद्ध किया है। ऐसी हालतमें इस ग्रंथका की पद्धति इससे भिन्न है-वे सुधर्मस्वामी द्वारा जम्बू तत्वार्थमनके बाद बनना असंदिग्ध है। तत्वार्थसत्रके कर्ता स्वामीके प्रति कथाके अवतारका प्रसंग बतलाते हैं. जैसाकि श्राचार्य उमास्वानि श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके भी बाद हुए हैं-- * देखो श्रवणबेलगोलके शिलालेख न०४०, १०५, १०८ वे कुन्दकुन्दकी वंशपरम्परामें हुए हैं जैसा कि श्रवण- x इस बात को श्वेताम्बरीय ऐतिहामिक विद्वान् श्री मोहनलाल बेल्गोलादिने. अनेक शिलालेखो श्रादि परसे प्रक्ट है। दलीचंदजी देसाई,एडवोकेट बम्बईने भी 'कुमारपालना सम
और इस लिये पउमचरियमे उपकी रचनाका जो ममय यन एक अपभ्रंश काव्य' नामक अपने लेग्यम स्वीकार किया है दिया है वह और भी अधिक आपत्तिके योग्य हो जाता है और ट् से भी प्रद्य म्मचरित' नामक उक्त याव्य ग्रन्थके कर्ताको
और जरूर ही किसी भूल तथा गल्तीका परिणाम जान दिग-बर बतलानेमे एक हेतु दिया है (देखो, 'जैनाचार्य श्री पड़ता है।
श्रा मानन्द-जन्मशताब्दि-स्मारक ग्रथ' गुजराती लेग्व पृ०२६०)
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४२
अनेकान्त
[वर्प ५
संघदास गणीकी वसुदेव हिंडीके निम्म वाक्यम्से प्रकट है- गिनाए हैं। दिगम्बर सम्प्रदायके पट खण्डादि ग्रंथो में सर्वत्र
"तत्थ ताव 'सुहम्मसामिणा जंवृनामस्म पढमाणु- १६ कारण ही बतलाए गए हैं। आगे तित्थयरचकट्रि-दमारवंम पम्वगागयं वसुदेव- (२) ग्रंथके चतुर्थ उद्वेग्मकी ५८ वी गाथामे भरत चग्यिं कहियं' ति तम्भव ... त्ति।"
चक्रवर्तीकी ६४ हजार गनियोंका उल्लेग्व है * । रानियों की श्वेताम्बरोंके यहाँ मृल श्रागम ग्रंथोंकी रचना भी यह संख्या भी श्वेताम्बर मम् दायसे म्बन्ध रखती है। मुधर्मस्वामीके द्वारा हुई बतलाई जाती है, जबकि दिगम्बर दिगम्बर सम्प्रदायमे १६ हजार रानियोका उल्लेख है। परम्परामे उनकी रचनाका सम्बन्ध गौतम गणधर-इन्द्रभृनिके (३) ग्रंएके ७३ वे उद्देसकी ३४ वी गाथामे रावण साथ निर्दिष्ट है
की मृत्यु ज्येष्ठ कुणा एकादशीको लिग्बी + । यह मान्यता (२) ग्रथके द्वितीय उदेसमें शिक्षावतोफा वर्णन
श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-सम्मत जान पहनी है, क्योकि हेमचंद्र करते हए समाधिमरण नामक सल्लेखना व्रतको चतुथ अवार्यने भी अपने 'त्रिपष्टिशलाकापुर पचत्रि में इस शिक्षाव्रत बतलाया है । यथा--
तिथिका उल्लेख किया है। यह भी हो सकता है कि मामाइयं च उपवान पोमहा अतिहिमविभागो य।।
हेमचंद्राचार्यने अपने ग्रंथमे इस ग्रंथका अनुसरण किया हो। अंते ममाहिमरणं सिकन्या सवयाई चचारि ।। ११५ ।। कुछ भी हो दिगम्बर सम्प्रदायमें इस तिथिका कोई उल्लेख
समाधिमरण रूप सल्लेबनावतको शिक्षावतामे परिग- नहीं है और न बाल्मीकि रामायण में ही यह उपलब्ध णित करनेकी यह मान्यता दिगम्बर सम्प्रदायकी है-- होती है। ग्राम तौरपर श्राधिन शुक्ला १० मी रावण की श्राचार्य कन्दकुन्दके चारित्रपाहुडमें, जिनम्येनके प्रादिपुराण मप तिथि समझी जाती है। मे. शिवकोटिकी रनमालाम, देवसेनके भावसंग्रहमे श्रीर थ
उदटेस (पोटत था: वसनन्दीके श्रावकाचार जैसे ग्रंथोमे इसका स्पष्ट विधान में मांसभक्षी राजा सीदासको दक्षिण देशमे भ्रमण करते पाया जाता है । सिंहनन्दीके वरागचरितमें भी यह उल्लि- निमशासकीय मिला है। खित है । श्वेताम्बरीय श्रागमसूत्रोमे इसको कही भी लिखा है। शिक्षावतोंके रूप में वर्णित नही किया है, जैसाकि सुल्तार
इन बातोंके अतिरिक्त १२ क्ल्पो (म्याँ) की भी एक श्री जुगलकिशोरजीको लिखे गए मुनि श्रीपुण्यविजयजीके
मान्यताका इस ग्रंथमे उल्लेख है, जिन्पे कुछ विद्वानीने एक पत्रके निम्न वाक्यसे भी प्रकट है--
श्वेताम्बर मान्यता बतलाया है। परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायके "श्वेताम्बर अागममं कही भी १२ बारह व्रतामे सल्ले तिलोयपण्णत्ती और वरांगचरित्र जैसे पुराने ग्रंथाम भी खनाका समावेश शिक्षावतके रूप में नहीं किया गया है।" १२ कल्पोका उल्लेख है। दिगम्बर सम्प्रदायको इन्द्रो अत: यह मान्यता खास तौर पर दिगम्बर सम्प्रदायके
और उनके अधिकृत प्रदेशोंकी अपेक्षा १२ और १६ स्वर्गों साथ सम्बन्ध रखती है।
की दोनो मान्यताएँ इष्ट है, जिसका स्पष्टीकरण बिलोकसार (ब) श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-सम्पन्धी
की तीन गाथाश्री नं. ४५२, ४५३, ४५४ से भले प्रकार (6) इस ग्रन्थके दूसरे उददेयकी ८२ वी गाथामे हो जाता है । तीर्थकर प्रकृति के बंधके बीच कारण बतलाए हैं+। यद्यपि
* "चउमटि सहस्मा जुबईणं परमस्वधारीण।" उनके नाम ग्रंथमे कही भी प्रकट नहीं किये फिर भी२०
+ 'जेहस्य बहुल पक्ग्वे दिवसस्म च उत्यभागम्मि । कारणोंकी यह मान्यता श्वेताम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखती
एगारिसीए दिवम रावणभरणं वियाणाहि ।।" है क्योंकि उनके ज्ञाता धर्मकथादि ग्रंथों में २० कारण
x तदा च ज्ये कृष्ण कादश्यामश्च पश्चिमे । *देखो, मुख्नार श्रीजुगलकिशोर-विचिन जैनाचायौंका शासन
यामे मतो दशग्रीवश्चतुर्थ नरकं यौ।। भेद' नामक पुस्तकका 'गुगणव्रत और शिक्षा व्रत' प्रकरण ।
-त्रिप.पु.च०७-३७६ + "वीसं जिणकारणाई भावो।"
= देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण ११-१२ पृ० ६२४
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११ ]
पउमरियका अन्तःपरीक्षण
३४३
(३) इस ग्रंथके १०२ वे उद्देयमे कल्पों तथा नव- है--कल्पमूत्र में उनकी भार्या, पुत्री तथा दोहती तक प्रैवेधकोंके अनन्तर श्रादित्यादि अनुदिशीका उल्लेख निम्न के नामांका उल्लेख है । यह दूसरी बात है कि आवश्यक प्रकारसे पाया जाता है:
नियुक्ति (गाथा नं० २२१, २२२) मे भी जिसका निर्माणवाराणं पुरण उवरि नवगेवेजाइं मगभिगमाई। काल विक्रमकी छठी शताब्दीमे पूर्वका नही है , ताण वि अद्दिमाई पुरओ आइच्चपमुहाई ॥१४॥ वीरभगवानको कुमार श्रमणोंमें परिगणित किया है परन्तु अनुदिशोंकी यह मान्यता भी बास तौरपर दिगम्बर ।
यह एक प्रकारमै दिगम्बर मान्यताका ही स्वीकार जान
पड़ता है। सम्प्रदायस सम्बन्ध रग्बनी है--दिगम्बर सम्प्रदायके षट्- ५
(५) इस ग्रन्थके ८३ चे उद्देसमें राजा भरत की ग्वण्डागम, धवला, तिलाय परणनी, लोकविभाग और
दीनाका वर्णन करते हुए एक गाथा निम्न प्रकारमे दी हैबिलोकमार जैसे सभी ग्रंथान अनुदिशाका विधान है, जब
अरणमएणको गाणं भरहो काउग तत्थऽलंकारं । कि श्वेताम्बरीप श्रागमाम इनका कहीं भी उल्लेख नहीं है।
निम्मम मंगरहिओ लंचइ धीरो णिपयकम ॥५॥ सुनांचे उणध्याय मुनिश्री धामारामजन तत्वार्थमूत्र
इसमें वस्तुत वस्त्र तथा अलंकाका व्याग करके भरत जैनागमसमन्वय नामक जो ग्रन्थ दिन्दी अनुवादादि के
महागजके सम्पूर्ण परिग्रहमे रहित होने और केश लीच माथ प्रकाशित किया है उसमें पृ० १११ पर यह स्पष्ट करने का उल्लेख है परन्तु 'चाउगा वत्थतं. कारं' के स्थान बीमार किया है कि 'यागम ग्रंथोने नव अणुदिशोका
पर यहां 'काऊण तत्थ-लंकारं' ऐसा जो पाठ दिया अस्तित्व नही माना है।
है वह किसी गलती अथवा पबिर्तनका परिणाम जान परता (४) इस ग्रन्थके द्वितीय उसमें वीर भगवानके है अन्यथा अलंकार धारण करके--शृंगार करके--नि:शेष न्मादिक्का क्थन करते हुए उनके विवाहित हानेका कोई संगमे रहित होनेकी बात सम्पङ्गत जान पदनी है। साथ ही उल्लेख नहीं किया, मयुन इसके यह साफ लिग्वा है कि तत्थ' शब्द और भी निरर्थक जान पड़ता है। अतः यह जब वे बारभावको छोड़कर नील वर्पके हो गये नब वैराग्य उल्लेख अपने मूल में दिगम्बर मान्यताकी भोर संकेतको (संवेग) को प्राप्त करके उन्होंने दीक्षा (ज्या) ले ली । लिये लिये हुए है। इसके सिवाय २० व उददसमें उनकी गणना वासुपूज्य, (ग) कुछ भिन्न प्रकारकीमलि अरिटनेमि और पावके माथ उन कुम र श्रमणमि---
(1) इम ग्रंथम भगवान ऋषभदेवकी माता मरुदेवी बालब्रह्मचारी श्रीनाथ रोम---की है जो भोग न भोगकर को पाने वाले स्वप्नोंको संख्या १५ गिनाई है. जबकि कमाकाल में ही धासे निकल कर दीक्षित हुए हैं+ । वीर श्वेताम्बर सम्प्रदायमे वह धीर दिगम्बर सम्प्रदाय १६ प्रभु विवाहित न होनेकी यह मान्यना भी ग्वास तौरपर बतलाई गई हैं। इसमें दिगम्बर मान्यतानुम्पार सिंहासन दिगम्बर सम्प्रदायसे सम्बन्ध रखती है, क्योंकि दिगम्बर नामके एक स्वप्नकी कमी है। और श्वेताम्बर मान्यतानुसार ग्रंथोमे नही भी उनके विवाहका विधान नहीं है--सर्वत्र विमान' और 'भवन' दानामसे कोई एक होना चाहिये । एक स्वरये उन्हें अविवाहित घोषित किया है, जबकि (२) ग्रन्थके १०५ व उद्देसक निम्न पद्यम महाश्वेताम्बर ग्रन्याम श्रआमतौरपर उन्हें विवाहित बतलाया भारत श्रीर रामायणका अन्तरकाल ६४००० वर्ष बतलाया • उम्मकबालभावो तीमवारमो जिगो जाग्रो ॥२८॥
है यथाःअह अन्नया कयाई मवेगवगे जिणो मुणियदोसो।
चट्टिसहस्साई वरिसाणं अन्तरं समक्खायं । लोग लिय परिकिरणो पयज्जमबागश्री वीरो ॥२६॥
तित्यपरे हि महायस भारत गमायगाणंतु ॥१६॥ + भली अग्टुिणगी पामो बीगे य वासुपज्जो य ॥५७।।
इम अन्तरकालका समर्थन दोनों परम्पराओंमें किसी गए कुमारसीहा गेहायो निगाया जिणवरिंदा ।
से भी नहीं होता, खुद ग्रन्थकार द्वारा वर्णित तीर्थकरीके मसा विहु गयागो पुढई भोत्तुग णिक्वंता ॥५८|| .. देखो, अनेकान्त वर्ष ३, कि० १२ पृ०६७८
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४४
अनेकान्त
बपे५
अन्तरकालमे भी विरुद्ध पड़ता है, क्योकि रामायणकी है जैसाकि उसके निम्न पथमे प्रकट है:उत्पत्ति २०वे तीर्थकर मुनिसुवतके कालमे हुई है और अहअट्टकम्मरहियम्म नम्म भाणोवोगजुत्तम्म । महाभारतकी उत्पत्ति २२वें तीर्थकर नेमिनाथके समयमें मयल जगज्जोयकर केवलणाणं समुपरणं ॥३०॥ हुई है और दोनों तीर्थगेका अन्तगलकाल अन्यकारने स्वयं यह क्थन दोनो ही मम्प्रदायसे बाधित है, क्योंकि २० उददेसम " लाग्य बनलाया है यथाः
दोनों ही सम्प्रदायोंमें चार घातियामके विनाशसे केवलछच्चेव मयमहम्मा वीमइयं अन्तरं ममुटुं।
ज्ञानोत्पत्ति मानी है, अष्टकर्मके विनाशमे तो मोत होता है। पंचेव हवई लावा जिणन्तरं एगवीमदमं ॥८१ आशा है विजन इन कब बातों पर विचार करके
(१) दूसरे उदेमकी निम्न गाथामें भगवान महा- ग्रंथके निर्माण ममय और ग्रन्थकारके ममताय सम्बन्ध बीरको प्रष्टकमके विनाशमे केवलज्ञानकी उत्पत्ति बतलाई विशेप निर्णय करने में प्रवृत्त होंगे।
समर्थन
(लेग्यक-पं० परमानन्द जैन शाग्त्री) मैंने 'तत्त्वार्थमत्रक बीजीकी खोज' नामका एक विस्तृत वह नार्किक विभाग नियुक्तिकार भद्रबाहुके बाद ही कभी लेग्य लिम्बा था जो अनेकान्त के चतुर्थ वर्षकी प्रथम किरण दाखिल हुआाहे. क्योकि यावश्यक I..युक्ति जीभद्रबाहुकृत में मुद्रित हुआ है। इस लेग्यमे यह भी बतलाया था कि मानी जाती है और जिमका प्रारम्भ की जानचर्चाम होना बेताम्बरीय पागम साहित्यका मंशोधन-यग्विर्धनादि पूर्वक है उममे आगामक विभाग है पर तार्किक विभागका संकलन होकर उसे जो वर्तमानरूप दिया गया है वह कार्य सूचन तक नहीं है।" श्रीदेवर्षिगणी क्षमाश्रमग्गाके द्वाग बीगनिर्माण मं... "उमास्वानिने अपने तत्वार्थमत्र (१-१-१२) में (वि.सं०५१०) महा है। तत्वार्थमनके का श्राचार्य प्रत्यक्ष परोक्षरूपमे [म पमाणद्वय विभागका निर्देश किया उमास्वानि इममे पहले हो गए है, चुनाच श्वेतान्बय है वह वुद उमास्वातिकतना है या किमी अन्य प्राचार्य के विद्वान् प्रजाचक्षु पं. मुम्बलालजीने भी उनका ममय द्वाग निर्मित हुश्रा है दम विपयम कुछ भी निश्चिन कड़ा "प्राचीनस प्राचीन विक्रमकी पहली शताब्दी और अर्वाचीन नहीं जा सकता । जान पटना है भागमको मंगना के ममप में अर्वाचीन ममय तीमगचायी शताब्दी" माना है। प्रेमी प्रमाणचतुष्टय और प्रगग दुय वाले दोनोमाग स्थानाइ हालतम श्वनाम्बरीय श्रागम ग्रन्योपर तत्वार्थसूत्रकी छाश तथा भगवन म दाम्बिल हो गये।" । का पड़ना बहुत कुछ स्वाभाविक है और यह बहुत ही इसके सिवाय, श्वेताम्बर्गय प्रग्नर विद्वान् ५० बंचरमंभाव्य है कि तत्वार्थसत्रकी नुछ नानोको बादमे बनाए दाम ने 'जनमाहित्यमा विकायचाथी थपली हान' जाने वाले इन श्रागमग्रन्थोम शामिल कर लिया गया हो। नामक अपनी गुजराती भाप की पुस्तकम, जिमका हिन्दी मेर हम कथनका पं० मुम्बलालज.के निम्न वाक्यों ने भी अनुवाद भी प्रकाशित होचुका है, स्पष्टरूपमे मा स्वीकार ममर्थन होता है जो उन्होंने प्रमाणभीमासानटपणक पृष्ट किया है कि वर्तमानम उपलब्ध होनेवाले श्वेताम्बर अागम २०पर दिये है और जिनम मरूपमे यह स्वीकार किया है बहुत कुछ विकारग्रमित है-उनम मृल अागमाक' अपेक्षा कि आगमांकी मक ननाके ममय तथा नियुक्तिकारके बाद बादको कितनी ही मिलावट हुई है। कुछ बाने आगाम दाबिल होगई है जिनममे कुछ तत्वा- मी हालतम यह नहीं कहा जामकता कि वर्तमान श्वेतार्थसूत्रकी भी है :
म्बरीय भागमोके जिन मत्रांके माथ तत्त्वार्थमूत्रीका (नवार्थ"स्थानाज और भगवती ये दोनो गणधग्कृत ममझे सूत्र जैनागम समन्वय' में) ममन्वय किया गया है वे मब जानेवाले ग्यारह अंगोममे है और प्राचीन भी अवश्य है। वस्तुतः तत्त्वार्थमूत्रके बज है-कितने ही उनमेमे नत्वार्थउनमे यद्यपि तार्किक विभागका निर्देश स्पष्ट है तथापि यह सूत्र परसे बने हुए भी हो सकते हैं। मानने कोई विरोध नही दीखता कि स्थानाङ्ग भगवतीमे
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वार्थसिद्धि पर समन्तभद्रका प्रभाव
[सम्पादकीय]
'सर्वार्थमिद्धि' प्राचार्य नगास्मति (गृध्रपिच्छाचार्य) के सम्बलालजी सघवी, काशी और उसे गति प्रदान करने वाले तस्वार्थ मृत्रकी प्रसिद्ध प्राचीन टीका है और देवनन्दी अपर- है न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमारजी शास्त्री. काशी। पं० सुखनाम पूज्यपाद श्राचार्यकी काम कृति है, जिनका समयम- लालजीने जो बात अकल्क ग्रन्थरके 'प्राथन' मे कही तौरपर ईमाकी पांचवा श्री. वि. की छठी शताब्दीमाना ज ता उसे ही अपनाकर तथा पट बनाकर पं. महेन्द्रकुमारज ने है। दिगम्बर समाज की मान्यानुसार श्रा० पूज्यपाद स्वामी न्यायव मुदचन्द्र द्वि० भागकी प्रस्तावना, प्रमेयकमलमार्तण्ड ममन्तभद्रये बाद हुए हैं, यह बात पट्टाईल यामे ही नहीं किन्तु की प्रस्तावना और जैनमिडानभास्करके 'मोक्षमार्गस्य अनेक शिलालेग्योम भी जानी जाती है। श्रवणबेलगोलके नेतारम' शीर्षक लेग्यमे प्रकाशित की है। चुनोचे पं० सुखशिलालेग्ब नं. ४० (६४) में प्राचार्योके वंशादिकका लालजी, न्यायकुमुद चन्द्र द्वितीय भागके 'प्रक्कन' मे पं. उल्लेख करते हुए ममन्तभद्रक पारचय-पदा के बाद 'ततः' महेन्द्रकुमारजीकी कृतिपर सन्तोष व्यक्त करते हुए और उसे (नत्यश्चात् )शब्द लिवकर 'यो देवनन्द। प्रथमाभिधानः' अपने मिक्षिम लेम्बका विशद और सबल भाप्य' बतलाते इत्यादि पद्योके द्वारा पृज्यपादका पारचय दिया है, और हुए लिग्बत हैं-'40 महेन्द्रबुमार ने मेरे संक्षिप्त लेस्व नं० १०८ (२५८) के शिलालेग्नमें समन्तभद्र के अनन्तर काविशद और मबल भाग्य करके प्रस्तुत भागकी प्रस्तावना पूज्यपादके पारचयका जो प्रथमपद्यदिया है उर्गम 'ततः'
(पृ. २५) मे यह अभ्रान्तरूपसे स्थिर किया है कि स्वामी शब्द का प्रयोग किया है, और इस तरहपर पूज्यपाद को
समन्तभद्र पृज्यपाद के उत्तरवर्ती है। ममन्तभद्र के बादका विद्वान सूचित किया है। इसके मिवाय,
इस तरह पं. सुग्बलालजीको ५० महेन्द्रकुमारजीका स्वयं पूज्यपादने अपने 'जैनेन्द्र' व्याकरण के निम्न स्त्रमे
और पं. महेन्द्र कुमार जीको पं० मुम्यलालीका इस विषय ममन्तभद्रके मतका उल्लेग्व किया है
म पारम्परिक समर्थन और अभिनन्दन प्राम है-दोनो ही "चतुष्टयं समन्तभदस्य।" -५-४-१६८ विद्वान इम विचारधाराको बचाने में एकमत है। अस्तु ।
इम सूत्रकी मौजूदगीम यह नहीं कहा जा सकता कि इम नई विचारधागया लक्ष्य है ममन्तभद्रयो पृज्यपाद समन्तभद्र पूज्यपाद के बाद हुए हैं, और न अनेक कारणों के बादका विद्वान् सिद्ध करना, और उसके प्रधान दो के वश में प्रक्षिम ही बतलाया जा सकता है।
मावन हैं जो संक्षेपमे निम्न प्रकार हैपरन्तु यह मब कुछ होते हुए भी और न उल्लेग्यो (१) विद्यानन्दकी श्रामपरीक्षा और सहलीके उल्लेबी को असत्यताका कोई कारण न बतलाते हुए भी, किमी परमे यह 'म्यथा म्पष्ट है कि विद्यानन्दने 'मोक्षमार्गस्य नेनागलत धारणाके वश, हालमे एक नई विचारधाग उपस्थिर रम' इत्यादि मंगलम्तात्रको पृज्यपादक्त मचित किया है
की गई है, जिसके जनक है प्रमुग्ब ३० निद्वान श्रीमान प. और ममन्तभद्रको हमी श्रासम्तोत्रका 'मीमासाकार' लिखा *श्रीपूज्यपादोद्धृतधर्मराज्यस्ततः सुराधीश्वरपूज्यपाद । है, अनाच मानभद्र पृज्यपाद के "उत्नम्वनी ही" है। यदीयवैदुप्पगुणानिदानी वदन्ति शास्त्राणि ततानि (२) यदि एज्यपद स्मन्नभद्र के उत्तग्बती होने तो वे x देग्यो, 'ममन्तभद्रका समय और डा.क.बी. पाठक ममन्तभद्रकी अमाधारण कृतियोका और स्वासकर 'सममगी' नामका मेरा वह लेम्ब जो १६ जून-१ जुलाई मन १६३४२.
का, “जोकि ममतभद्रकी जैनपरम्पको उम ममयकी नई 'जैन जगत्' (पृ०६ से २३) में प्रकाशित हुश्रा है अथवा
देन नही," अपने 'सर्याधीमद्धि' श्रादि किसी ग्रन्थमं 'उप"Samantabihndia date and D Pathat" योग' किये बिना न रहने । चक पूज्यपादके अन्योंमे Anmals of R.ORI. Vol xv PM. I-II P.67.66. "समन्तभद्र की असाधारण कृतियाँका किसी अंशमें स्पर्श
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४६
अनेकान्त
[वर्ष ५
भी" नही पाया जाता, अतएव समन्तभद्र पूज्यपादके बन्द पड़ी। और इमलिये उक्त मंगलस्तोत्रको पूज्यपादकृत "उत्तरवर्ती ही है।
मानकर तथा समन्तभद्रको उमीका मामासाकार बतला कर इन दोनो माधनोंमेसे प्रथम माधनको कुछ विशद नथा निश्चितरूपम समन्तभद्रका पूज्यपादके बादका (उत्तरवर्ती) पल्लवित करते हुए पं. महेन्द्रकुमारजीने जैनसिद्धान्तभास्कर विद्वान् बनलानरूप कल्पना की जो इमारत खड़ी की गई (भाग : कि.१) में अपना जो लेग्व प्रकाशित कराया था थी वह एक दम धराशायी हो गई है। और इसीसे पं. उसमें विद्यानन्दकी श्रातपरीक्षाक "श्रीमतत्त्वार्थशास्त्राद्भुत- महन्द्रकुमारजीको यह स्वीकार करनेके लिये बाध्य होना सलिलनिधेरिद्धग्नोद्भवस्य प्रोत्थानारम्भव ाले” इत्यादि पद्म पड़ा है कि श्रा० विद्यानन्दने उक्त मंगल श्लोकको सूत्रमार को देकर यह बतलाना चाहा था कि विद्यानन्द इसके द्वाग उमास्वाति-कृत बतलाया है, जैसाक अनेकान्त की पिछली यह सूचित कर रहे हैं कि 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि किरण में 'मोक्षमार्गस्य नेताग्म्' शीर्षक उनके उत्तर लेम्वमे जिस मंगलम्तोत्रका इममे मंकेत है उसे तत्त्वार्थशारकी प्रकट है। इस लेग्बम उन्होंने अब विद्यानन्द के कथनपर उत्पत्तिका निमित्त बतलाते समय या उमको प्रोत्थान-भूमिका सन्देह व्यक्त किया है और यह साचत किया है कि विद्याबाँधते समय पूज्यपादने रचा है। और हमके लिये उन्हे नन्दने अपनी श्रष्टसहस्रीमे अकलंककी श्रष्टशताक 'देवागमे'प्रोत्यानारम्भकाले' पदकी अर्थ-विषयक बहुत कुछ ग्वीचतान त्यादिमगलपरस्मरम्तव' वाक्यका सीधा अर्थ न करके कुछ करनी पड़ी थी, 'शास्त्रावताररचिनस्तुति' नया 'तत्त्वार्थशा गलती खाई है और उसीका यह परिणाम है कि वे उक्त नादौ' जैसे स्पष्ट पदोके सीधे सच्चे अर्थको भी उमी प्रोत्थाना- मंगलश्लोकको उमास्वानिकी कृति बन्ला रहे हैं, अन्यथा रम्भकाले पदक कल्पित अर्थको ओर घसीटनेकी प्रेरणाके लिये उन्हे इसके लिये कोई पूर्वाचार्यपरम्परा प्राप्त नहीं थी। प्रवृत्त हाना पड़ा था और स्वीचतानकी यह सब चेष्टा पं० सुरव- उनके इस लेखका उत्तर न्यायाचार्य पं. दरबारीलालजीने लालजीके उस नाटक अनुरूर थी जिसे उन्होने न्यायकुमुद- अपने द्वितीय लेखम दिया है, जो इसी किरणमे अन्यत्र, चन्द्र-द्वितीय भागके 'प्राक्कथन' (पृ. १७) मे अपने बुाद्ध- तितार्थसूत्रका मंगलाचरण' इम शार्पकके साथ, प्रकाशित व्यापारके द्वारा स्थिर किया था। परन्तु 'प्रोत्यानारम्भकाले' हो रहा है। जब पं० महेन्द्रकुमारजी विद्यानन्दके कथनपर पदके अर्थकी खींचतान उमी वक्त तक कुछ चल मकनी थी मन्देह करने लगे है तब वे यह भी असन्दिग्धरूपमे नहीं जब तक विद्यानन्दका कोई स्पष्ट उल्लेख इस विषयका न कह मकेंगे कि ममन्तभद्रने उक्त मंगलस्तोत्रको लेकर ही मिलता कि वे 'मीक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगलस्नात्र प्राप्तमीमासा' रची है, क्योकि उमका पता भी विद्यानन्दके को किमका बतला रहे हैं। चुनाचे न्यायाचार्य प० दरबारी प्राप्तपरीक्षााद ग्रन्थोस चलना है। चुनाचं वे अब इमपर भी लालजी कोठिया और पं० रामप्रसादजी शास्त्री आदि कछ सन्देह करने लगे है, जेमाकि उनके निम्न वाक्यमे प्रकट हेविद्वानोने जब पं० महेन्द्रकुमारजीक भूलों तथा गलतियांका “यह एक स्वतन्त्र प्रश्न है कि स्वामा ममन्त भद्रने पकड़ते हुए, अपने उत्तर लेखो द्वारा विद्यानन्दक कुछ 'मोक्षमागस्य नेतारम्' लोकपर प्राप्तमामासा बनाई है अभ्रान्त उल्लेखोंको सामने रखा और यह स्पष्ट करके या नहीं।" बतला दिया कि विद्यानन्दने उक्त मंगलस्तोत्रको सूत्रकार ऐसी स्थितिमें पं० सुम्बलालजी द्वाग अपने प्राक्थनो उमास्वातिकृत लखा है और उनके तत्त्वार्थसूत्रका मगला- में प्रयुक्त निम्न वाक्योका क्या मूल्य रहेगा, इसे विज्ञ पाठक चरण बनलाया है, नब उम ग्वीच-तानकी गति रुकी तथा स्वयं समझ सकते हैं“श्रीमत्तवार्यशालाक्तसलिननिधेरिखरनोनयस्य
" 'पूज्यपादके द्वारा स्तुत प्राप्तके समर्थनम ही उन्होने प्रोत्यानारम्भकाले सकतमलभिदे शासकारैः कृतं यत् । (ममन्तभद्रने) श्राप्तमीमासा लिम्बी है' यह बात विद्यानन्दने स्तोत्रं तीर्थोपमानं पृषितपृथुपथं स्वामिमीमांसितं तन आप्तपरीक्षा तथा अष्टमहस्रीमे सर्वथा स्पष्टरूपसे लिखी है।" विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाण्यार्य सिद्धार्थ १२३
-अकलंकग्रन्थ त्रय, प्राक्कथन पृ०८
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०११]
सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव
"मैंने अकलंकअन्यत्रयके ही प्राक्कथनमे विद्यानन्दकी परिवर्तनोके साथ दिया हुआ है और वहाँ किसी 'प्रास्कश्रामपरीक्षा एवं असहनीके स्पष्ट उल्लेखों के श्राधारपर यह यन' को देखनेकी प्रेरणा भी नहीं की गई। अच्छा होता नि.शंक रूपसे बतलाया है के स्वामी समन्तभद्र पूज्यपादके यदि 'भास्कर' वाले लेखमे भी किमी प्राकथनको देखनेकी प्राप्तस्तोत्रक मीमामाकार है अतएव उनके उत्तरवर्ती ही हैं।"
प्रेरणा न की जाती अथवा पं० सुम्बलालजीके तर्कको उन्ही 'ठीक उभी तरहसे समन्तभद्रने भी पूज्यपाद के मोक्ष
के शब्दोम रक्खा जाता और या उसे डबल इनवटेंड मार्गस्य नेतागम्' वाले मंगनपद्यको लेकर उनके ऊपर
कामाक्षके भीतर न दिया जाता । श्रस्तुः इस विषयमे पं. श्राप्तमीमामा रची है।
मुम्बलालजीने जो तर्क अपने दोनों प्राक्कथनोमें उपस्थित "पूज्यगदका मोक्षमार्गस्य नेतागम्' वाला सुप्रसन्न पद्य
किया है उमीके प्रधान अंशको ऊपर माधन नं.२ में
मंकलिन किया गया है, और उममें पंडित जीके, ग्वाम शब्दो उन्हें (समन्तभद्रको) मिला फिर तो उनकी प्रातभा और
को इनवटेंड कामालके भीतर दे दिया है । इससे पडितजी जग उठी।" -न्यायकुमुद द्वि०प्रकथन पृ० १७-१६
के तर्ककी स्पिरिट अथवा रूपरेवाको भले प्रकार ममका इन वाक्यापरसे मुझे यह जानकर बड़ा ही श्राश्चर्य
जा सकता है। पंडितजींने अपने पहले प्राक्कथनमे उपस्थित होता है कि पं० सुम्बलालजी जैसे प्रौढ विद्वान् भी कच्च
नर्ककी बाबत दूसरे प्राक्कथनमे यह स्वय स्वीकार किया है
कि-'मेरी वह (ममभंगी बाली) दलील विद्यानन्द के स्पष्ट अाधारी पर ऐमे मुनिाश्चन वाक्योका प्रयोग करते हुए देग्वे जाते हैं ! सम्भवत: इमी नहमे कोई गलन धारणा है।
उल्लेख के आधार पर किए गए निर्णयकी पोषक है। और
उमे मैंने यहाँ स्वतन्त्र प्रमाणके रूपमे पेश नहीं किया है।" काम करती हुई जान पड़ती है, अन्यथा जब विद्यानन्दने
परन्त उक्त मंगलश्लोकको 'पृज्यपादक्त' बतलाने वाला जब प्राप्तपरीक्षा और अष्टमहरीम कही भी उक्त मंगलश्लाकके
निद्यानन्दका कोई स्पष्ट उल्लेख है ही नही और उमकी पूज्यपादकृत होनेकी पान लिम्बी नहीं नब उसे 'सर्वथा स्पष्ट
कल्पनाके अाधार पर जो निर्णय किया गया था वह गिर रूपसे लिख" बतलाना कैस बन सकता है ?" अस्तु ।
गया है तब पोषक म्पम उस्थित की गई दलील भी व्यर्थ अब रही दूसरे साधनकी बात ६० महेन्द्रकुमारजी दम विषयमें पं. सुग्वलालजीके एक युक्ति-वाक्यको उद्धृत
पड़ जाती है क्योंकि जब वह दीवार ही नहीं रही जिस लेप
लगाकर पष्ट किया जाय तब लेप व्यर्थ ठहरता है-उसका करते और उसका अभिनन्दन करते हुए, अपने उसी जन
कुछ अर्थ नही रहता। और इमलिये पंडितजीकी वह दलील मिद्धान्तभास्कर वाले लेग्बके अन्त में, लिम्बते हैं
विचार के योग्य नहीं रहती। "श्रीमान् पंडित सुम्बलालजी सा० का इस विषयम यह नर्क "कि यदि समन्तभद्र पूर्ववर्ती होने, नो ममन्तभद्र
यद्यपि, प. महन्द्रकुम्गर के शब्दोंमे, "मे नकागकी प्राप्तमीमामा जैमी अनूठी कृतिका उल्लेग्व अपनी
त्मक प्रमाणोंमे किमी प्राचार्य के ममयका म्वनन्त्रभावस मर्वार्थमिद्धि श्रादि कृतियोम किए बिना न रहने" हृदयको
साधन-बाधन नहीं होना" फिर भी विचारवी एक कोटि लगना है।"
उपस्थित होजाती है। मम्भव है कल को पं० सुम्बलाल जी
अपनी दलीलको स्वतन्त्र प्रमाण के रूपमं भी उपस्थित करने इममें पं. सुम्बलाल जीके जिम युक्ति-वाक्यका इरल
लगं, जिमका उपक्रम उन्होंने "समन्तभद्र की जैनपरम्पराको इनवटेंड कामालके भीतर उल्लेख है उसे 4 महेन्द्रकुमार
उम ममयकी नई देन" जैसे शब्दोको बाद मे जोड़कर किया जीने अकलंकग्रन्थत्रय और न्यायमुद्र चन्द्र द्वि० भागके
है शोर माश ही 'समन्तभद्र की अमाधारण कृतियोका किमी प्राक्कथनामे देखने की प्रेग्णा की है, तदनुसार दोनो प्राक्कथनोको एकमे अधिक बार देखा गया परन्तु ग्वेद है कि “यथा—“यदि समन्तभद्र पूज्यपदके प्राक्कालीन होते नोव उनमे कहीं भी उक्त वाक्य उपलब्ध नहीं हुआ ! न्याय- अपने इस युगप्रधान प्राचार्यकी भाममीमामा जैमी अनटी कुमुदचन्द्रकी प्रस्तावनामे यह वाक्य कुछ दूसरे ही शब्द. कृतिका उल्लेख किये बिना नही रहने।"
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४८
अनेकान्त
[वष ५
अंशमें स्पर्श भी न करने तककी बात भी वे लिख गये है प्राचार्य कुन्दकुन्द पृज्यपाद में बहुत पहले हो गये हैं। अत: उमपर-द्वितीय माधनपर-विचार कर लेना ही पृज्यपादने उनकं मोक्षाभृतादि प्रन्यीका अपने ममाधितंत्र श्रावश्यक जान पड़ना है। और उमीका इस लेखमें श्रागे
माग में बहुत कुछ अनुसरण किया है-कितनी ही गाथाश्रीको
में बहत प्रयत्न किया जाना है।
तो अनुवादितरूपम ज्यांका त्या रस्व दिया है और कितनी सबसे पहले मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि यद्यपि ही गाथाश्रोको अपनी मर्वार्थसिद्धि म 'उक्तं च श्रादि रूपसे किमी प्राचार्य के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने उद्धृत किया है, जिसका एक नमूना ५ वे अध्यायकं १६ पूर्ववर्ती श्राचार्योक मभी विषयोको अपने ग्रन्थम उल्लेखित वे मूत्रकी टोकामे उद्देन पंचास्तिकायकी निम्न गाथा हैअथवा चर्चित करे-पेसा करना न करना प्रथकारकी रुचि- अएणोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । विशेषर अवलम्बित है। चुनाचे ऐम बहुनमे प्रमाण उपस्थित
मेलता वि य गिचं सगं सभावं ण विजहंति ॥७॥
मेलनावि tin किये जासकते हैं जिनमें पिछले प्राचार्योंने पूर्ववर्ती प्राचार्यों की कितनी ही बातों को अपने ग्रन्याम कुश्रा नक भी नही;
ऐमी हालतम पूज्यपादक द्वारा 'सप्तभंगी' का राष्ट्र इतनेपर भी पूज्यपादके मब अन्य उपलब्ध नहीं है । उनके
शब्दोमे उल्लेख न होनेपर भी जैसे यह नहीं कहा जा 'सारसंग्रह' नामक एक खाम ग्रन्थका 'धवला' म नय- मकता कि प्रा० कुन्दकुन्द पृज्यपादके बाद हुए है वैसे विषयक उल्लेख मिलता है और उसपरसे वह उनका
यह भी नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्राचार्य पृज्यपाद के महत्वका स्वतन्त्र ग्रन्थ जान पड़ता है । बहुन सम्भव है कि
बाद हुआ है-उत्तरवर्ती है। और न यही कहा जा सकता उममे उन्होंने 'समभंगी' की भी विशद चर्चा की दो। उस
है कि 'मप्तभंगा एकमात्र समन्तभद्रकी कृति है-उन्दीकी प्रन्थकी अनुपलब्धिकी हालतमे यह नहीं कहा जा सकता
जैनपरम्पराको नई दन' है । एमा कहनेपर श्राचार्य कि पूज्यपादने 'सप्तभगी' का क विशद कथन नही किया
कुन्दकुन्दको समन्तभद्रके भी बादका विद्वान कहना होगा, अथवा उसे था तक नहीं।
और यह किमी तरह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता
मर्कगका ताम्रपत्र और अनेक शिलालेख तथा अन्योके इसके सिवाय, 'सप्तभंगी एकमात्र समन्तभद्र की ईजाद
उल्लेख इमम प्रबल बाधक है। अत: पं० सुग्वलालजीकी अथवा उन्हीके द्वारा आविष्कृत नहीं है, बल्कि उमका
सप्तभगी वाली दलार टीक नहीं है-उसमें उनके अभिमत विधान पहलेसे चला पाता है और वह श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके
की मद्धि नही हो सकती।। अन्धोंमें भी स्पष्टरूपस पाया जाता है, जैसाकि निम्न दो गाथाश्रोमे प्रकट है
अब मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि पं० सुखलाल
जीने अपने साधन (दलील) के अंगरूपम जो यह प्रतिपादन अत्थि त्तियणत्पित्ति य हवदि अवत्तवमिदि पुणो दव्वं।
' किया है कि 'पूज्यपादने समन्तभद्र की असाधारण कृतियोका पजायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥२-२३ किसी अंशमे सर्श भी नही किया वह अभ्रान्त न होकर
-प्रवचनसार वस्तुास्थतिके विरुद्ध है; क्योकि समन्तभद्रकी उपलब्ध पाँच सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं। असाधारण कृतियोममे प्राप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन, स्वयंदव्वं खु सत्तभंगं आदेमवसेण संभवदि ॥१४॥ भूस्तोत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार नामकी चार कानयोका
-पंचास्तिकाय स्पष्ट प्रभाव पूज्यपादकी 'मर्वार्थसिद्धि' पर पाया जाता है.
जैसा कि अन्तःपरीक्षण द्वारा स्थिर की गई नीचेकी कुछ *देखो, न्यायकुमुदचन्द्र द्वि०भागका 'प्राकथन' पृ० १८ ।
तुलना परसे प्रकट है। इस तुलनाम रक्खे हुए वाक्यो परसे "तथा मारमंग्रहेऽयुक्त पूज्यपादै:-'अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निग्वद्य- देखो, वीरसंवामन्दिरसे प्रकाशित समाधितंत्र' की प्रस्तावना प्रयोगो नय' इति ।"
पृ० ११, १२।
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव
किरण १०-११ ]
कि मजही यह जानसकेंगे कि ग्रा० पूज्यपादस्वा०ने समन्नभद्र के प्रतिपादित अर्थको कही शब्दानुसरणके, कही पदानुसरणके, कही वाक्यानुसरण के, वही अर्थानुमरक कही भावानुसरण, कहीं उदाहरणके, वही पर्यायशब्दप्रयोग के, कही 'आदि' जैसे संग्रादादयोग और कहीं उपाख्यान- विवेचनादिके रूपमें पूर्णतः श्रश्रवा अशतः अपनाया है— ग्रहण किया है। तुलनामे स्वामी समन्तभद्र के चाक्योंको ऊपर और श्री पूज्यादके वाक्योंको नीचे भिन्न टाइम रख दिया गया है, और साथमं यथावश्यक अपनी कुछ व्याख्या भी दे दी गई है, जिससे साधारण पाठक भी इस विषयको ठीक तौरपर अवगत कर सके (१) "नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञाना• नाकस्मानदविच्छिा । क्षणिकं फालभेदात्ते बुद्धयचरदोषतः || ” - श्राप्तमीमासा, का० ५६ " नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेर्न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः ।” - स्वयम्भू स्तोत्र, का० ४३ "तदेवेदमिति स्मरणं प्रत्यभिज्ञानम् । तदकस्मान्न भवतीति योऽस्य हेतुः स तद्भावः । येनात्मना प्राग्दृष्टं वस्तु तेनैवात्मना पुनरपि भावात्तदेवेदमिति प्रत्यभिज्ञायते । ... ततस्तद्भावेनाऽव्ययं नित्यमिति निश्चीयते । तत्तु कथचिद्वेदितव्यम् ।" - सर्वार्थसिद्धि, प्र० ५ सू० ३१ यहाँ पूज्य गदने समन्तभद्र के 'तदेवेदमिति' इस प्र भिज्ञानलक्षणको ज्योका त्या अपनाकर इसकी व्याख्या की है, 'नाक स्मात्' शब्दीको 'अकस्मान्न भवति' रूपमं रक्खा है, 'तदविच्छिदा' के लिये सूत्रानुसार 'तद्भावेनाऽव्यय' शब्दोका प्रयोग किया है और 'प्रत्यभिज्ञान' शब्दको ज्योंका त्यो रहने दिया है। साथ ही 'न नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिमिद्धेः' 'क्षणिकं कालभेदात्' इन वाक्योंके भावको तत्तु कथंचिद् वेदितव्यं' इन शब्दों के द्वारा संगृहीत और सूचित किया है । (२) "नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते । " - श्राप्तमीमांसा, का० ३७ “भावेषु नित्येषु विकार हानेर्न कारकव्यापृतकार्य युक्तिः । न बन्धभोगो न च तद्विमोक्षः - युक्त्यनुशासन, का०८ "न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमंत्र युक्तम" स्वयम्भूस्तोत्र २४
********
३४६
"सर्वथा नित्यत्वे श्रन्ययाभावाभावात् संसारत निवृत्ति. कारणप्रक्रियाविरोधः स्यात् ।”
- सर्वार्थसिद्धि, अ० १ सू० ३१ यहाँ पूज्यपादयत्कान्तपक्षे' पदके लिये समन्तभद्रके ही श्रभिमतानुसार 'सर्वथा नित्यत्वे' इस समानार्थक पदका प्रयोग किया है, 'विक्रिया नोपपद्यते' और 'विकारहाने के प्राशयको 'अन्यथाभावाभावात्' पदके द्वारा व्यक्त किया है और शेषका समावेश 'संसार-ननिवृत्तिकारणप्रक्रियाावरोधः स्यात्' इन शब्द में किया है।
(३) "विवक्षतो मुख्य इतीप्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते ।" -स्वयंभूस्तोत्र ५३ "विवक्षा चाऽविवक्षा च विशेष्येऽनन्नधर्मिणि । eat विशेषणस्याऽत्र नाऽसतस्तैस्तद् थिभिः ॥" -मीमांसा, का० ३५ "अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमति यावत् । तद्विपरी मर्नार्पितम् प्रयोजनाभावात् । सतोऽयविवक्षा भवतीत्युपसर्जनीभूतमनर्पितमुच्यते ।" - सर्वार्थसिद्धि, अ० ५ सू० ३२ या 'अति' और 'श्रर्नापित' शब्दोवी व्याख्या करते भद्रको 'मुख्य' और 'गुण (गोरा)' शब्दोंकी व्याख्याको अर्थत: अपनाया गया है। 'मुख्य' के लिये प्राधान्य' 'गुण' के लिये 'उपसर्जनं'भूत' 'विवक्षित' के 'लिये विवक्षया प्राप्ति' और 'श्रन्यो गुण:' के लिये 'तद्वि परीतमनप्रितम' जैसे शब्द का प्रयोग किया गया है। साथ ही 'अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद्यस्य कस्यचिद्धमंस्य' ये शब्द 'विवक्षित' के स्पष्टीकरणका लिये हुए है— श्राप्तमीमासाकी उक्त कारिकामे जिस श्रनन्तधर्मिविशेष्यका उल्लेख है और युक्त्यानुशासनकी ४६ वी कारिकामें जिसे 'तत्वं वनेकान्तमशेषरूपम्' शब्दोंमें उल्लेखित किया है उसीको पूज्यपादने 'श्रनेकान्तात्मकवस्तु' के रूपमें यहा ग्रहण किया है। और उनका 'धर्मस्य' पद भी समन्तभद्र के 'विशेषणस्य' पदका स्थानापन्न है। इसके सिवाय, दुमरी महत्वकी बात यह है कि श्राप्तममामाकी उक्त कारिकामे जो यह नियम दिया गया है कि विवक्षा और अविवक्षा दोनों ही सत् विशेषणकी होती है- श्रमतूकी नहीं जिसको
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
स्वयम्भूस्तोत्रके 'अविवक्षो न निगमकः' शब्दोंके द्वारा भी (५) "द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः। सूचित किया गया है, उमीको पूज्यपादने 'सतोऽप्यविक्षा परिणामविशेषाञ्च शक्तिमच्छक्तिभावतः।। भवतीति' इन शब्दोंमें संग्रहीत किया है । इस तरह अर्पित संज्ञा-संख्या-विशेषाश्च स्वलक्षणविशेषतः।
और अर्पित की व्याख्याने समन्तभद्रका पूग अनुसरण प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ।" किया गया है।
-आप्तमीमांसा, का०७१,७२. (४) "न द्रव्यपर्यायपृथग्व्यवस्था
"यद्यपि कथंचिद् व्यदेपशादिभेद हेतुवापेक्षया द्रव्यादन्ये द्वैयात्म्यमेकार्पणया विरुद्धम् ।
(गुणाः), तथापि तदव्यतिरेकात्तत्परिणामाश्च नान्ये ।" धर्मी च धर्मश्च मिस्त्रिधेमौ
-सर्वार्थ सिद्धि, अ. ५ सू० ४२ न सर्वथा तेऽभिमतौ विरुद्धौ।"
यहाँ द्रव्य और गुणो (पर्यायों) का अन्यत्य तथा अन-युक्त्यनुशासन, का०४७ न्यत्व बतलाते हुए. प्रा० पृज्यपादने स्वामी समन्तभद्रकी "न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात। उक्त दोनों ही कारिका के श्राशयको अपनाया है और व्येत्युदेति विशेषात्ते सहकत्रोदयादि सत् ।।" ऐमा करत हुए उ. के वाक्य मे कितना ही शब्द-साम्य भी
-आप्तमीमांसा, का० ५७ अागया है, जैसा कि 'तदव्यतिरेकात्' और 'परिणामाच' "ननु इदमेव विरुद्धं तदेव नित्यं तदेवानित्यमिति। पदोक प्रयोगसे प्रकट है। इसके सिवाय, 'कचित्' शब्द यदि नित्यं व्ययोदयाभावादनियताव्याघात: । श्रथानियत्व- 'न सर्वथा' का, 'द्रव्यादन्य' पद 'नानात्व' का. 'नान्य' शब्द मेव स्थित्यभावान्नित्यताव्याघात इति । नैतद्विरुद्धम्। 'ऐक्य' का, 'व्यपदेश' शब्द मंजा' का वाचक है तथा कुत:?(उत्थानिवा) अर्पितानर्पितसिद्धर्नास्ति विरोधः। 'भेदहेत्वपक्षया' पद भेदात्' 'विशेषात्' पदांका समानार्थक तद्यथा-एकस्य देवदत्तस्य पिता, पुत्रो, भ्राता, भागिनेय है और 'आदि' शब्द संज्ञासे भिन्न शेष संख्या-लक्षण - इत्येवमादयः सम्बन्धा जनकत्व जन्यत्वादिनिमित्ता न विरु- प्रयोजनादि भेदोका संग्राहक है । इस तरह शब्द और अर्थदुधन्ते अर्पणाभेदात् । पुत्रापक्षेया पिता, पित्रपक्षेया पुत्र दोनोका साध्य पाया जाता है। इत्येवमादिः । तथा द्रव्यमपि सामान्यार्पण या नित्यं, विशेषा- (६) "उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषम्यादानहानधीः । पणयाऽनित्यमिति नास्ति विरोधः।"
पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य म्वगोचरे ।।" -सर्वार्थसि. अ. सू० ३२
-आप्तमीमांसा १०० यहा पूज्यपादने एक ही वस्तुमे उत्पाद-व्ययादिकी दृष्टि से
"शस्वभावस्यात्मनः कर्ममलीमसस्य करणालम्बनादर्थ नित्य-अनित्यके विरोधकी शंका उठाकर उसका जो परिहार निश्चये प्रीतिरुपजायते. सा फल मित्युच्यते । उपेक्षा प्रज्ञानकिया है वह सब युक्त्यनुशासन और प्राप्तमीमामाकी उक्त नाशो वा फलम् । रागद्वेषयोरप्रणिधानमुपेक्षा अन्धकारदोनो कारिकाश्रोके श्राशयको लिये हुए है-उसे ही पिता- पाज्ञाननाशो वा फल मित्युच्यते।" पुत्रादिके सम्बन्धो-द्वारा उदाहृत किया गया है। श्राप्तमी
-सर्वार्थसिद्धि, अ० १ सू० १० मामाकी उक्त कारिकाके पूर्वार्ध तथा तृतीय चरणमे कही यहाँ इन्द्रियोके पालम्बनसे अर्थके निश्चयमे जो प्रीति गई निल्यता-अनित्यता-विषयक बातको 'द्रव्यमपि सामान्या- उत्पन्न होती है उसे प्रमाण ज्ञानका फल बतलाकर 'उपेक्षा पणया नित्यं, विशेषापणय नित्यभिति' इन शब्दोमे फलि- अजाननाशो वा फलम्' यह वाक्य दिया है, जो स्पष्टतया तार्थ रूपसे रक्खा गया है। और युक्त्यनुशासनकी उक्त- प्राप्तमीमासाकी उक्त कारिकाका एक अवतरण जान पड़ता कारिकामे 'एकार्पणासे.'-एक ही अपेक्षाम-विरोध बतला है और इसके द्वाग प्रमाणफल-विषयमे दूसरे प्राचार्यके
जो यह सुझाया था कि अपणाभेद से विरोध नही मतको उद्धृत किया गया है। कारिकामे पड़ा हुअा 'पूर्वा' अाता उसे 'न विरुध्यन्ने अर्पणाभेदात्' जैसे शब्दो द्वारा पद भी उसी 'उपेक्षा' फलके लिये प्रयुक्त हुआ है जिससे प्रदर्शित किया गया है।
कारिकाका प्रारम्भ है।
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११]
सर्वार्थसिद्धि पर ममन्तभद्रका प्रभाव
३५१
(७) "नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥ ६२ ॥” "अभावस्य भावान्तरत्वाद्धेन्वनचादिरभावस्य वस्तुधर्म
-स्वयम्भूस्तोत्र स्वसिद्धेश्वर -सर्वार्थसिद्धि, प्र. १ सू० २७ "निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत।"
इस वाक्यमे पूजा पादने, अभावके वस्तुधर्मत्वकी मद्धि -श्राप्तमीमांमा, का० १०८
बतलाते हुए, समन्तभद्रके युक्त्यनुशाम्न-गत उक्त वाक्यका "मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थहेतु
शब्दानुमरण के साथ कितना अधिक अनुकरण किया है, नशा न चांशी पृथगस्ति तभ्यः ।
यह बात दोनों वाक्यांको पहले ही स्पष्ट हाजाती है। इनम परम्परेक्षाः पुरुपार्थहेतुईष्टा नयास्तद्वदसिक्रियायाम ॥"
हत्वगन और वस्तुव्यवस्थाङ्ग शब्द ममानार्थक हैं। यत्यनशासन, का0 (E)"धनधान्यादि-ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेपुनिस्पृहता "त एते (नया:) गुण-प्रधानतया परस्परतत्राः सम्य- परिमितपरिग्रहः स्यादिच्छापरिमाणनामाsपि॥" ग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थीक्रयासाधनसामर्थ्यात् तन्वादय इव
रत्नकरण्ड० श्रा०६१ यथोपायं निनिवेश्यमानाः पटादिसंज्ञाः स्वतंग्राश्चासमर्थाः। "
____ "धन-धान्य-क्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृत्परिछेदो निरपेचेषु तस्वादिपु पटादिकार्य नास्तीति।"
गृहीति यंचमाणुनतम् ।' -सर्वार्थ सिद्धि, १०. सू०२० -पर्वार्थसिद्धि, अ० १ सू० ३३
यहाँ 'इच्छावशात् कृतपरिच्छेद:' ये शब्द 'परिमाय
यहा इच्छावश म्वामी समन्तभद्र ने अपने उक्त वाक्यांम नयांक मुख्य तताऽधिकेषु निस्पृहना' के श्राशय को लिये हुए हैं। और गुण (गौण) ऐसे दो भेद बतलाये हैं, निरपेक्ष नयोको (१०) “तियकक्लेशवणिज्याहिमारम्भप्रलम्भनादीनाम। मिथ्या तथा सापेक्ष नयाँको वस्तु वास्तविक (सम्यक् )
कथाप्रसङ्गप्रमवः स्मर्तव्यः पापउपदेशः॥" प्रतिसादत किया है और मापेक्ष नयोको 'अर्थकृत्' लिख
-रत्नकरण्ड०७६ कर फलत: निरपेक्ष नयाको 'नार्थकृत्' अथवा कार्याशक्त
"तिर्यकक्लेशवाणिज्यप्राणिवधकारम्भकादिपु पापसंयुक्तं (असमय) मूचित किया है। साथ ही, यह भी बतलाया है वचनं पापोपदेशः।" -सर्वार्थ सि० अ०७ सू०२५ कि जिस प्रकार परस्पर अनपेक्ष अंश पुरुषार्थ के हेतु नही, २१ वे सूत्र ('दिग्देशानर्थदण्ड') की व्याख्याम किन्तु परस्पर मापेक्ष अश परुषार्थ के हेतु देखे जाने हैं और अनर्थदरावत के समन्तभद्रप्रतिपादित पाचो भेदोको अपनाते अंशोस अशी पृथक् (भिन्न अथवा स्वतंत्र) नहीं होता । उनी हुए उनके जो लक्षण दिये हैं उनमे शब्द और अर्थका प्रकार नयाको जानना चाहिये । इन सब बातीको सामने रख कितना अधिक माम्य है यह इम नुलना तथा अागेकी दो कर ही पूज्याप दने अपनी सर्वार्थीमद्धिकं उक्त घापकी सृष्टि की तुलनाश्रोमे प्रकट है । यहाँ 'प्राणिवध' हिमाका समानार्थक जान पड़ता है। इस वाक्यम अंश-अंशीकी बानको तन्वादि- है और 'श्रादि' म 'प्रलम्भन'मागभित है। पटादिसे उदाहृत करके रक्खा है। इसके गुणप्रधानतया',
(११) "वध-बन्धच्छेदादे पादागाच परकलत्रादेः। परस्सरतत्राः', 'पुरुषार्थ क्रियासाधनमामात्' और 'स्वतंत्राः'
आध्यानमपध्यानं शासति जिनशासने विशदाः।" पद क्रमशः गुणमुख्य कल्यतः' परस्परेक्षा:-सापेक्षाः' 'पुरुषार्थ
-रत्नकरण्ड०७० हेतुः, निरपेक्षा: अनपेक्षाः' पदोके ममानार्थक हैं। और
"परेषां जयपराजयवधवन्धनाङ्ग छेदपरस्वहरणादि कथं 'असमर्थाः' तथा 'कार्य नास्ति' ये पद 'अर्थकृत' के विपरीत
स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम्" 'नार्थकृत्' के आशयको लिये हुए हैं।
-सर्वार्थसि०अ०स०२१ (८) "भवत्यभावोऽपि च वस्तुधों
यहाँ 'कथं म्यादिति मनमा चिन्तनम' यह 'पाध्यानम्' भावान्तरं भाववदहतस्ते
पदकी व्याख्या है, परेषा जय-पराजय' तथा पर स्वहरण' प्रमीयते च व्यपदिश्यते च
यह 'आदि' शब्द-द्वारा गृहीत अर्थका कुछ प्रकटीकरण हे वस्तुव्यवस्थाङ्गममेयमन्यन ॥"
और परस्वहरणादि' मे 'परकल त्रादि' का अपहरण भी -युक्त्यनुशासन, का०५६ शामिल है।
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५२
अनेकान्त
[वर्ष ५
(१२) "क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम सान्निवर्तनं कर्तव्यं काल नियमेन यावजीवं वा यथाशक्ति ।" सरणं सारणमपि च प्रमादचर्या प्रभाषन्ते ॥" "वतमभिसन्धिकृतो नियमः ।" --सर्वा० अ०० सू०२१,
-रत्नकरण्ड०८० यहाँ 'यानवाइन' आदि पदोंक द्वाग 'अनिष्ट' की व्या"प्रयोजनमन्तरेण वृक्षादिछेदन भूमिकुट्टन-मलिलसे चना- ख्या की गई है. शेष भोगापभोगपरिमाण व्रतमे अनिष्टके द्यबद्यकार्य प्रमादाचरितम् ।" -सर्वार्थ सि०अ०७ स०२१ निवर्तनका कथन मातभद्रका अनरण है । साथम
यहाँ 'प्रयोजनमन्तग्ण' यह पद 'विफल' पदका ममा- 'काला-यमेन' और 'यावजीव' जैसे पद समभद्रके नियम' नार्थक है, 'वृक्षादि' पद 'वनस्पति' के अाशयको लिये हुए।
और 'यम' के श्राशयको लिये हुए है, जिनका लक्षण रत्नहै, 'कुट्टन-सेचन' में 'प्रारम्भ के श्राशयका एक देश प्रकटी
करण्ड० श्रा० कं अगले पद्य (८७) में ही दिया हश्रा है । करण है और 'श्रादि अवद्यकार्य' मे 'दहन-यवनारम्भ' नया भौगोपभाग परिमाण व्रतके प्रसंगानुमार समन्तभद्र ने उक्त पद्यक 'मरण-सारण'का अाशय संगृहीत है ।
उत्तरार्धमे यह निर्देश किया था कि अयोग्य विषयमे ही (१३)"त्रसहनिपरिहरणार्थ क्षौद्र पिशितं प्रमादपरिहतये। नही किन्तु योग्य विषयसे भी जो अभिसन्धिकृता विरान हाती मयच वजनीयं निजचरणौ शरणमुपयातः॥" है वह व्रत कहलाती है । पृज्यपादने इम निर्देशमे प्रमंगापान
-रलकरण्ड० ८४ विषयायोग्यात्' पदोको निकाल कर उसे व्रतके साधारण "मधु मांसं मद्यं च सदा परिहर्त्तव्यं प्रमघातानिवृत्त लक्षणके रूपमे ग्रहण किया है, और इससे उस लक्षणको चेतसा।
-सर्वार्थसि०अ०७ सू०२१ प्रकृत अध्याय (नं०७) के प्रथम सत्रकी व्यारण्यामे दिया है। यहाँ 'त्रमघातानिवृत्तचेतमा' ये शब्द 'त्रसहनिपरिहर- (१६) “आहरोषधयोरयुपकरशावास्योश्च दानेन । णार्थ' पदके स्पष्ट श्राशयको लिये हुए हैं और मधु, मार्म वैय्यावृत्यं ब्रुवते चतुगत्मत्वेन चतुरस्राः॥" परिवर्तव्यं पद क्रमश: क्षौद्रं, पिशितं,वर्जनीयं के पर्यायपद है।
-रत्नकरण्ड० ११७ (१४)"अल्पफलबहुविघातान्मुलकमााणि शृंगवेराणि "स(अतिथिसंविभागः) चतुर्विधः--भिक्षोपकरणौषधनवनीत-निम्बकुसुमं कैतमित्येवमवहेयम ।।" प्रतिश्रयभेदात् ।" --सर्वार्थ सि० अ०७ सृ० २१
-रत्नकरण्ड० ८५ यहा पृज्यपादने समन्तभद्र-प्रतिदिन दानके चागे भेदो "केतस्यर्जुनपुष्पादीनि श्रृंगवेरमूलकादीनि बहुजन्तुयोनि- को अपनाया है। उनके 'भिक्षा' और 'प्रतिश्रय' शब्द क्रमश: स्थानान्यनन्तकायव्यपदेशार्हाणि परिहर्तव्यानि वहुधाताल्प- 'आहार' और 'श्रावास' के लिये प्रयुक्त हुए हैं। फलत्वात् ।” _ --सर्वार्थ सि० अ०७ सू० २१ इस प्रकार ये तुलनाके कुछ नमूने है जो श्री पूज्यपादकी
यहाँ 'बहुधानाल्पफलत्यात्' पद 'अल्पफल बहुविघातात्' 'मर्वार्थमिद्धि' पर स्वामी समन्तभद्र के प्रभावको-नके माहित्य पदका शब्दानुसरणके साथ समानार्थक है, 'परिहर्तव्यानि की छापको-स्पष्टतया बतला रहे हैं और द्वितीय माधनको पद 'हेयं' के श्राशयको लिये हार है और 'बहुजन्तुयोनि- दुषित टहग रहे हैं। ऐमी हालतमे मित्रवर पं० सुखलालस्थानानि' जैसे दो पद स्पष्टीकरण के रूपमे है ।
पमहा
जीका यह कथन कि. 'ज्यपादने समन्तभद्रकी श्रमाधारण (१५) "यदनिष्टं तदत्रतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यान। कृतियोका किमी अंशमे स्पर्श भी नहीं किया बड़ा ही अभिसन्धिकृता विरतिविषयायोग्यावतं भवति॥" आश्चर्यजनक जान पड़ता है और किसी तरह भी मंगत
-रत्नकरण्ड०८६ मालूम नही होता। आशा है पं० सुग्वलालजी उक्त तुलनाकी "यानवाहनाभरणादिष्वेतावदेवेष्टमतोऽन्यदनिष्टमित्यनि- गेश नीमे इस विषय पर फिरसे विचार करनेकी कृरा करेंगे। भूलसुधार-पउमचरियका अन्तःपरीक्षण' नामक लेखके पृष्ट ३४२ कालम १ का कुछ मैटर गलतीसे पृ. ३४३ पर
छप गया है। अत: पाठक पृष्ठ ३४२ के प्रथम काजममे नं० २ वाले मैटरके बाद और '( ख ) श्वेताम्बरीय सम्बन्धी--उपशीर्षकसे पहले उन तीन नन्बरोंके मैटरको पढ़नेकी कृपा करे जो पृ. ३.४३ पर शुरूमें ही नं. ३, ४, ५ के साथ दर्ज है, और इसकी सूचना मी उक्त उपशीर्षकके पूर्वकी पंक्ति मे बना लेवे।-प्रकाशक
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीर
| लेखक श्री विजयलाल जैन B. Com.]
gesग्राम के लिये कुण्डलपुर भी कहते है, राज सिद्धार्थकी पत्नी और वैशाली महाराजा पेटकी पुत्री त्रिशलाके पुत्र भगवान महावीर थे। श्रीमती त्रिशलादेवी की लघु बहन चलना मगध देशके सुप्रसिद्ध महागजा श्रेणिककी पत्नी थी। भगवानका जन्म एक ऐसे समय मे हुआ था जबकि लोग अपने अपने धर्मको प्राय. भूल चुके थे, अन्याय और पाप-मार्ग में लीन होकर धर्मके नाम पर महाहिपा करते थे । समाजका वातावरण बिगडा हुआ था और मनुष्य अपने अपने कर्तव्य विहीन हो रहे थे। ऐसी बिगड़ी हुई परिस्थितिको सुलझाने, श्रहिंसा धर्मका प्रचार कर प्राणीमात्रको कल्याणका मार्ग बताने, धूर्त, पाम्बराडी और पापियोंका को बोलबाला था उसे सबंके लिये मिटाने श्रीमहावीर भगवानका जन्म हुआ। भगवान महाबग्ने कोई नया धर्म नही फैलाया किंतु प्रायः उन्ही धर्मसिद्धान्तको फिर दुहराया जिनको इनके पूर्व भगवान पार्श्वनाथ भी इसी प्रकार संसारके सामने रख चुके थे ।
भगवान महावीर महात्मा बुद्धके समकालीन थे महात्मा बुने स्पष्टरूपसे कहा है कि कोई भी मनुष्य जन्ममे नीच नही होता बल्कि वे द्विजगण जो हिसा करने नही हिचकते और हृदय में दया नहीं रखते वे ही नीच हैं (सुत्तनिपान) । म० का कहना है कि "जन्ममे ब्राह्मण नहीं होता है न होता है किंतु कर्मयेाह्मा होता है और कर्म ही श्रब्राह्मण" ।
भगवान महावीरने आचरण पर उसका महत्व श्रव लंबित बतलाया है। गोम्मटम रमे स्पष्ट कहा है कि "मन नक्रम से चले श्रायें हुए जीवके श्राचरणकी गोत्र संज्ञा है । जिसका ऊंचा आचरण हो उसका उच्च गोत्र और जिसका नीच श्रचरण हो उसका नीच गोत्र होना है" । यह नदी कि यदि कोई व्यक्ति नीच वर्ण उत्पन्न हुआ ही और वह सन्मति पार अपने को सुधार का
उन्नत बनाले तो भी वह नीच बना रहे। कोई भी पुरुष उच्च श्राचरणमे उच्च गोत्रको प्राप्त कर सकता है। यही भगवान महावीरका एक उपदेश है। भगवानने जीवमात्रके साथ मैत्रीभाव रखनेका हमें पाठ पढ़ाया है। ऊँच और नीच हमने अपने स्वार्थवश बनाये हैं उन्हीं उपदेशोंको लेकर अगर आज हम और हमारे पूज्य श्राचार्यवर्ग समाज के गिरे व्यक्तिको धर्मका बोध देकर अपना साथम बनावे तो एक तो उस आमाका कल्याण होगा जो कि स्वार्थवश नीच बनाई गई है और दूसरे समाजकी संख्या व संगठन मे वृद्धि होकर उपदेश देनेवालेका भी आत्मकल्याण होगा। पंक्षेपमें कहा जा सकता है कि आधुनिक हरिजन उद्धारकी समस्या भगवानकी दिव्य वाणीका एक अंग है।
भगवान महावीरके विषय में कहा गया है कि जब वे अपनी माना गर्भमे आये थे तब माना शिला देवीने सोलह शुभ स्वप्न देखे और स्वर्गो देवगणीद्वारा महोसव मनाने यह ज्ञात होगया कि अंतिम तीर्थंकर भीमहावीरका जन्म होगा। चैत्र सुदी १२ के दिन जिस समय अनंत गुणधारी भगवान महावीर स्वामीका शुभ जन्म हुआ उस समय सब दिशायं निर्मल हो गई, समुद्र स्तब्ध हो गया, पृथ्वी किंचिन हिल गई और सब जीवोको चभर के लिये परम शान्तिका अनुभव हुआ ।
1
कुण्डग्राम भगवान महावीर का जन्मस्थान था और उसमें ज्ञात्रिक क्षत्रियो की मुख्यता थी। श्वेताम्बर आम्नाय के प्रत्थामे स्पष्ट भगवानका जन्म-सम्बन्ध वैशालीके साथ प्रकट किया हुआ मिलता है जैसे सूत्रा (१-०३-२२) उत्तराध्ययन सूत्र, (६ - १७) व भगवतीसूत्र (२११०२) मे भगवानका 'वैशालीय' या 'वैज्ञानिक' रूपमे हुआ है, जिसमें उनका वैशाली के नागरिक होना कट है। अभयदेवने भगवतीसूत्रकी टीकामे 'विशाला' को महावीर
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५४
अनेकान्त
[वप५
जननी लिखा है। महावीरके नाना राजा चेटक वज्जिराज- भगवानका नाम 'बर्द्धमान' रवाया गया । उपगन्त जब मधके अधिपति थे जिनकी राजधानी वैशाली थी। कहते सौधर्मेन्द्र ने भगवानके जन्मोत्सव पर उनकी संस्तुति की तो हैं कि यह तीन भागों में विभक्त था अथात् (७) वैशाली उनका नाम महावीर दिखा। भगवानके जन्मसंबंधी शुभ (२) वणियग्राम, और (३) कुण्डग्राम।
समाचार सुनकर मंजय नामक चारण ऋद्धिधारी मुनि, दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रंथों में यद्यपि ऐसा कोई प्रक्ट एक अन्य विजय नामक मुनिके साथ, भगवानके दशन उल्लेख नहीं है जिससे भगवानका सम्बन्ध वैशालीम सिद्ध करने श्राये और दिव्यरूपके दर्शनसे उनकी शंकाका हो किंतु उनमे कुण्डग्राम, कुलग्राम, बनषण्ड आदि नाम समाधान होगा था, इसलिये उन्होंने भगवानका नाम अाए हैं वे सब वैशालीके निकट मिलते हैं । कोई कोई 'सन्मति रकम्वा । विद्वान कोल्लागको, जो कुण्डग्राममे उत्तर-पूर्व मे स्थित था, भगवानको नाथ-कुल-नंदन भी कहते हैं। हिन्दुशास्त्री महावीरका जन्मस्थान बतलाते हैं किन्तु यह बात दिगम्बर में उनका नामोल्लेख 'अर्हत महिमन या महामान्य' रूपम और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी मान्यतामे विरुद्ध है। हा है। श्वेताम्बर शास्त्र 'उपासकदशामत्र' में उनको श्वेताम्बर ग्रंथोंपे पता चलता है कि कोल्लागके निकट एक 'महामाहन' अथवा 'नायमुनि लिग्वा है । चैन्यमंदिर था जिसको 'दुइपलाश', 'दुइपलाश उजान' भगवान महावीरके विषय में हमे ज्ञात है कि वे अपनी अथवा नायषण्डवन' कहते थे। इसी उद्यान में भगवान के कुमारावस्थामे गजकुमारी, मंत्रि-पुत्रो और देव-मह चरोके दीक्षा लेनेका वर्णन पाया जाता है। अत: दिगम्बर सम्प्रदायके माथ अनेक प्रकारकी क्रीडाय करने थे । उन्होने बाल्यउल्लेखोसे भगवानका जन्मस्थान कुण्डग्राम वैशाली जीवनये ही अहिंसा, न्याग और शौर्यका अादर्श लोगोंके निकट प्रमाणित होता है और कि राजा सिद्धार्थ वैशाली समन रम्बा था। पाठ वर्षकी नन्ही मी अवस्थामे उन्होंने के राजसंघमें शामिल थे तब वैशालीको उनका जन्म- जानबूझ कर किसी भी श्रान्माको पीडा न पहुचानेका स्थान कहना अत्युक्ति नहीं रग्वता । कुण्डग्राम वैशालीका संकप कर लिया था और यह दृढ निश्चय किया था कि एक भाग अथवा मन्निवेश ही था। दोनों सम्प्रदायोके मत किसी भी दशाम प्राणहिया न करूंगा और र.यका ही को मान्यता देते हुए यह कहा जा सकता है कि भगवानका अभ्यास करूंगा। इस प्रकार उन्होंने सत्य और अहियाका जन्म-स्थान वैशाली-गज्यान्तर्गत कुण्डग्राम होगा। वर्तमान उच्च श्रादर्श हमारे सामने रखा। में कुण्डग्राम अथवा कुन्डलपुरमै भगवानका जम्मोसव भगवान महावीरने गजकुल में जन्म धारण गया। मनाने प्रतिवर्ष मेला लगता है, जिसमें दोनों यम्प्रदायवाले उन्हें भोग-विलासकी सामग्रीकी कोई कमी नही थी किन्न एकत्रित होकर मानन्द उत्सव मनाते हैं।
पुर्ण ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए वे विलासिता व वासभगवानका जन्मस्थान कुण्डग्राम होनेका प्रमाण बौद्ध नायोकी तृप्तिमे कोसो दर थे । आवश्यक सामग्रीको परिग्रंथ 'महावग्ग से मिलता है। इसमें लिखा है कि "एक मिन रूपमे रखते थे और सिर्फ शोकक गातिर अनावश्यक बक्क महात्मा गौतम बुद्ध कोटिग्राममे ठहरे थे जहां नाथिक वस्तयाको एकत्रित नहीं करते थे। यह उच्च न्याग धर्म लोग रहते थे। बुद्ध जिस भवनमें ठहरे थे उसका नाम हमे माद। Economme: जीवन व्यतीत करनेका पाठ 'नाथिक-इष्टिका भवन" था। कोटिग्रामसे वे वैशाली गये। पटाता है। सर रमेशचन्द्र इत्त इस कोटिग्रामको कुगडग्राम ही बतलाते एक दिन वे राज्योद्यानमे अपने अन्य सहचरी महिन हैं और लिखते हैं। "यह कोटिग्राम वही है जो कि क्रीडा कर रहे थे कि एक ओरमे विकराल रूपं उनपर श्रा जैनियोग कुराग्राम है और बौद्ध-ग्रेथोमे जिन नातियोका धमका। बेचारे अन्य मग्या भयभीत होकर इधर उधर वर्णन हैं वे ही ज्ञात्रिक क्षत्री थे।"
भाग गये परन्तु भगवान महावीर जरा भी भयभीत नहीं ___ भगवान महावीर के जन्म होनेये उनके पिताके राज्यमे हुए। उन्होंने बातकी बातमे उप सर्पको वश कर लिया विशेषरूपसे हर बातमे वृद्धि होती नजर आई, इसीलिये श्री उम्पपर दया करके वैसा ही छोड दिया । वास्तवमै
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-१५]
भगवान महावीर
३५५
नह मर्प स्वर्गलोकका एक देव था जो भगवानक दयालु अधर्म पथपर अग्रसर होरहे थे, मम्मार्ग पर लगाना उन्हें चिन और अपूर्व बलशाली शरीरकी प्रमिद्धि सुनकर उनकी हासतौर पर इष्ट था। उस समय समाजमें ब्रह्म वर्मका परीक्षा लेने पाया था। इस तरह भगवानकी परीक्षा लेकर महाव कम होकर व्यभिचारकी मात्रा बढ रही थी। ऋषिवह विशेष हर्षित हुश्रा और भगवानकी बदना करके अपने गण, जिनका इन्द्रियनिग्रह व मयमपालन करना मुग्थ्य स्थानको चला गया। भगवानका यह बाल्यकाल, श्रादर्श- कर्तव्य था, अपने कर्तव्यमे युक्त होकर पनियां रखते थे। भ्याग ६ ब्रह्मचर्यका जीवन हमारे लिये अनुकरणीय है। ऐसी परिस्थितिम भगवान के दिव्य अम्बड ब्रह्मचर्यके चरित्र
भगवानके माता पिता उनकी युवावस्था देवकर में जनता पर महान प्रभाव पड़ा । आजके असयममय विवाह करदनेकी पार्योजना करने लगे । देश-देशांतर्गके वातावरणम दशके नवयुवकोके समक्ष यह आदर्श उपगजागण अपनी कन्याश्रीको भगवान के साथ परणवाना स्थित करना परम आवश्यक है। जिस पवित्र भारतवर्षम चाहते थे परन्तु विशिष्ट ज्ञानी, न्यागकी मूर्ति, भगवान भगवान महावीरके दिव्य अखण्ड ब्रह्मचर्यका अनुपम प्रादर्श महावीरको यह रमणी-रन भी मोहिन नहीं कर सका। उपस्थित हो रहा था वही आज ब्रह्मचर्यका प्राय: सर्वथा उन्होंने समार कल्याण के लिये अपने सर्वम्वका स्याग करना अभाव देखकर हमारा हृदय थर्रा जाता है। भगवान ही परमावश्यक समझा । माना पिताने बहुत समझाया महावीरका यह श्रादर्श परम शिक्षापूर्ण, हितकर और चिन्नु वैगग्यका गाढा रंग जो भगवान पर चढ चुका था प्रत्येक स्त्री-पुरुषके लिये अनुकरणीय है। यदि हम भगवान वह उनग्ना तो दूर रहा किन्तु जरा भी हनका नहीं हुआ। के इस दिव्य चरित्रये किचिन मात्र भी उपदेश ग्रहण करें महावीरनं अपना विवाह करना अम्वीकार कर दिया। ना अवश्य हमारा कल्याण हो सकता है।
श्वेताम्बर संग्रहायके शाखांमे कहा गया है कि भगवान भगवान महावीर बाल्यावस्थामे ही श्रावकके व्रताका ने अपने माता पिनाके प्राग्रहये कोलग देशके राजा जिनशत्र प्रयास करते हुए अपने पिता के गज्यमे सहायक बन रहे की पुत्री यशोदराय पाणिग्रहण कर लिया था और उनके थे। एकदिन भगवान विचारमे मग्न थे कि सहमा उनको प्रियदर्शना नामकी पुत्रीवा भी जन्म हुश्रा था । दिगम्बर अपने पूर्व भवका स्मरण हो पाया और प्रामज्ञान प्रकट शाम्र हरिवंश-पुराणमें कहा गया है कि यशोदराकं साथ हुअा। उन्होंने विचाग कि स्वर्गाके अपूर्व विषय-मुखोंमे विवाहकी आयोजना की गई थी परन्तु महावीर स्वामीने उसे जब कुछ तृप्ति नही हुई ना यह मामारिक क्षणिक इन्द्रिय. म्वीकार नहीं किया। इसकी पुष्टि बोह-ग्रंथा भी होती है विषय-मुख किस तरह मुखी बना सकते हैं। भगवानन
स्वताम्बर शास्त्रों में भगवान महावीरके अविवाहित विचारा कि उन्होंने अपने जीवनके ३० वर्ष वृथा व्यतीत रहनेकी भी एक मान्यता है जिसमें मानम होना है कि भ. किये हैं। मनुष्य जन्म दुर्लभ है और इस लिये हम जन्मका महावीर प्रथमवय कुमारावस्थामनी वामपूज्य, मलि. नेमि मचा उपयोग करना अन्यन्त आवश्यक है।
और पार्श्वनाथ नार्थकाकी तरह विना विवाह कगये उनर पुगणमे लिखा है कि इस प्रकार भगवान दीक्षित होगये थे ।
जानिम्मरगा और थामज्ञान होने पर लोकान्निक देवान भगवान महावीरका जन्म एक ऐसे समयमै हुअा था
पाकर उनकी स्तुति की और इन्द्रादि देवाने श्राकर जब कि सामाजिक हालत बिगडी हुई थी । ब्रह्मचर्यका
उनके दीक्षाकल्याणका उपसव मनाया । भगवानने महत्व कम होगया था। अपने अखण्ड ब्रह्मचर्यमे समाजसे
मीठी नाणीपे मब भाई-वधुश्राको प्रसन्न किया और गव शिक्षा देना भगवानको अभीष्ट था। और भुमकिन है इसी से विदा लेकर वे अपनी चन्द्रप्रभा पालकी पर श्रारूद हो वजहमे विवाह मीकार नहीं किया हो; क्योंकि उनके बनखंड नामक वनमें पहुंचे। वहां पर आपने अपने सब जोवनका प्रधान लक्ष्य मंमारकल्याण था, श्रन, अग्याचा
बम्बाभूपण आदि उतार कर वितरण कर दियं और फिर को रोकना और उन प्राणियोंकी जो धर्मका गस्ता भूनकर आप मिद्धाको नमस्कार कर उत्तराभिमुग्ध होकर तथा पच - देवी अंगका बर्ष ४ किग्गा ११-१. पृ०५-८ मुष्टि केशलोच करके परम उपासनीय निर्ग्रन्थ मुनि होगये।
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५६
अनेकान्त
*ज्वान महावी ने निग्रंथ मुनिकी दिगम्बरीय (नग्न) प्रतिमायोग धारण करके तिष्ठ गये। उसी समय भव नामक दीक्षा ग्रहण की थी यह दिगंवर शास्त्र प्रगट करते हैं एक र द्रने श्राकर घोर उपमर्ग क्यिा किन्तु भगवान जरा भी परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय के शास्त्रका कथन है कि भगवान अपने ध्यानसे चल विचल नहीं हुए । हठात रुद्रको लजित दीक्षासमय नग्न हुए थे । इन्द्रने दीक्षासमयसे एक वर्ष होना पड़ा और उसने भगवानकी उचितरूपमे स्तुति की। और एक महीना उपरान्त तक देवदूष्य वस्त्र धारण कराये इसके अतिरिक. श्वेताम्बर शास्त्रोमें भगवानपर अन्य थे। पश्चात् वे नन्न हो गये । (जैनसूत्र भा०) बहुतमे उपसर्ग होनेका वर्णन मिलता है, जिससे भगवानके देवदृष्य यस्त्रकी व्याख्यामें बताया है कि इस वस्त्रको पहने कठिन तपश्चरण और महती सहनशीलतापर अच्छा हुए भी भगवान नग्न प्रतीत होते हैं । श्वेताम्बर श्रागम प्रकाश पडता है । सचमुच भगवान महावीरके जीवनका ग्रन्थों पर इस सम्बन्धमे एक गंभीर दृष्टि डाले तो महत्व उनकी इस वष्टसहिष्णुनामे नहीं है प्रत्युत उस उनमें भी हमें नग्नावस्थाकी विशिष्टता मिल जाती है। श्रामबल और देहविरनिमें है जहाँसे इस गुण का और श्राचारागसूत्रमें नग्न अवस्थाको सर्वोत्कृष्ट बतलाया है और इसके साथ साथ अन्य कितने ही गुणोका उद्गम हुअा था। कहा है कि तीर्थकगेने भी इस नग्नवेषको धारण किया था। एक बार अपने अनुपम सौन्दर्यमे विश्वको विमोहित करने ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि न केवल भगवान महावीर वाली अनेक सुन्दर सलोनी देव-रमणियों महावीरजीके पास और ऋषभदेवने ही इम नग्नावस्थाको धारण किया था
श्रावर राम रचने लगी और नाना प्रकारके हाव, भाव, किन्तु प्रत्येक तीर्थकरने अपने मुनि जीवनमे इस प्राकृतिक
कटाक्ष और मोहक अंगविशेषर्य वे अपनी केलि-कामना मुद्राको अपना कर नग्नपरिषहको सहन किया है।
प्रगट करने लगी कि जिसे देग्यकर किमी साधारण युवा जैन ग्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्धोंके पाली और चीनी
तपस्वीका स्खलित हो जाना बहुत संभव था किन्तु भगवान भाषाओंके ग्रंथों में भी जैन मुनियोको अचेलक अर्थात नग्न
महावीर पर इस कामसंन्यका कुछ भी असर न हुआ। रूप लिखा हुआ पाया जाता है। हिन्दुधोके प्राचीन ऋगवेद,
महावीर अजेय थे । फलन देव रमणियो अपनासा मुंह वराहमिहिरसंहिता, महाभारत विष्णुपुराण, भागवत,
लेकर चली गई। यह घटना भगवानके श्रामबल और वेदान्तसूत्र, दशकुमारचरित्र इत्यादि शास्त्रों में जैन मुनियों
इन्द्रिय-निग्रहकी पूर्णताकी द्योतक है। को 'नन' 'विवसन' आदि लिखा है। अचेलक अर्थात नग्न
दिगंबर व श्वेताम्बर सम्प्रदायके मतानुसार भगवान दशा ही कल्याणकारी है और यही मोक्ष प्राप्त वरनेका
महावीरका १२ वर्ष तक तपश्चरण करनेके उपरान्त ४० वर्ष सनातन लिंग है, यह बात जैनमनमे प्राचानकालसे स्वीकृत है। अतएवं जैन मुनियोंके यथागत दिगम्बर वेषम
की श्राय में केवलज्ञान प्राप्त होना दर्शाया गया है। वैसाख शका करना वृथा है।
सुदी १० के सुबत नामके दिन जम्भक ग्रामके बाहर ऋजु. दीक्षा धारण करने पर भगवान महावीरने ढाई दिन कृला नदीके बाम तट पर एक साल वृक्ष के नीचे भगवान का उपवास किया। महावीर पुराणका कथन है कि जब ज्ञान-ध्यानमे लीन विराजमान थे। समय मध्यान्हका हो भगवान सर्वप्रथम मुनिश्रवस्थामे श्राहारनि मत्त निकले गया था। सूर्यदेव अपने प्रचण्ड प्रकाशसे तनिक स्वलिन हो तो कृल नगरके कृतनृपने उनको पडगाह कर भकिपूर्वक चले थे, उसी समय भगवानको दिव्य केवलज्ञानकी प्राप्ति श्राहार दान दिया था। भगवान पारणा करके पुन: बनमें हुई और वे साक्षात तीर्थकर बन गये। भगवानको तीनों प्राकर ध्यानलीन और तपश्चरण-रत हो गये । वहा पर लोककी चराचर वस्तुयें उनके जाननेत्रमे झलकने लगी। नि.शंक रीतिमे रहकर उन्होंने अनेक योगोकी साधना की
भगवान त्रिलोकवंदनीय बन गये। ज्ञानावरणादि चार और एकांत स्थानमें विराजमान होकर बार-बार दश तरह
घातिया कोका उनके प्रभाव हो गया। भगवान इस के धर्म-ध्यानका चितवन किया।
सपारमें साक्षात केवली, परमामा हो गये। भगवानका ___ उपरान्त विचरते हुए वे उज्जयनीके निकट अवस्थित ज्ञान आज तक ज्योका त्यों प्रकाशम न है और सदैवके अतिमुनक नामक श्मशानमे पहुंचे और वहां रात्रिके समय लिये ऐसा ही रहेगा। यही दिव्य जीवन है, परमोत्कृष्ट
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०१२ !
भगवान महावीर
३५७
प्रकाश है. साक्षात ज्ञान, शांति और सुख है। जिस समय थे और बड़ी उत्सुकतासे यह समाचार महात्मा बुद्धको भगवान सर्वज्ञ हुए देवलोकके इन्द्र तथा देवतागण भगवानके सुनाने के लिये दौड़े हुए गये थे। भगवानके फेवली होते निकट आनन्दोत्सव मनाने आये। उन्होंने अनेक प्रकारसे भर. ही जनता उन पर एक दम मोहित होगई थी। बगान व बानकी स्तुति और बंदना की। हम भी इस समय उस दिव्य बिहार प्रान्तम वीरगुणानुवादकी धूमधाम खूब जोरोंसे थी। अवसरका स्मरण करके मन, वचन और कायकी विशुद्धतामे सिंघभूम ज़िलाका शुद्ध नाम हि भूमि' बताया गया है भगवानके परम पवित्र ज्ञानवर्द्धक चरणोंमे नतमस्तक होते हैं। क्योंकि वीर प्रजुका चिन्ह सिंह था। इसके अतिरिक्त विजय
उसी समय इन्द्रने भगवानका सभाभवन अर्थात सम- भूमि वर्द्धमाम जिसको अाजकल बर्दवान कहते हैं व वीरबमरण रचाया। समवपरणकी गंधकुटीमें अंतरीक्ष विमान भूमि श्रादि स्थान भगवान महावीरके पवित्र नाम और होकर भगवान महावीर सर्व जीवोंको समान रीतिमे उपदेश उनके सम्बन्धको प्रकट करने वाले हैं। देते थे जो कि जीवमात्रके लिये सुगम व प्राय था । वहां न भगवान महावीरकी सर्वज्ञताके संबन्धमे डा० विमल मतभेद था न जाति भेद न ऊँचका ख्याल था और न नीचका। चरण, M.A |D. अपनी पुस्तक Sme Khatसब समान-भावसे भगवानके उपदेशसं कृतकृत्य होते थे। My Tribes of Ancient India में लिखते हैं
इस दिव्य समवसरण-सहित भगवान सर्वत्र विहार कि- 'भगवान महावीर सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनन्त केवलज्ञानके करने थे । इस विहारमे उनके साथ चतुर्निकायिक संघ और धारी चलते, बैटते, माते, जागते सब समयोंमे पर्वज्ञ थे। मुख्य गणधर भी रहते थे। भगवानके सर्वप्रथम शिष्य वे अत्यन्त बुद्धिमान, परम विद्वान, दातार पुरुष, चतुःप्रकार और मुख्य गणधर वेदपारंगत प्रख्यात ब्रह्मण इन्द्रभूति में इन्द्रिय निग्रहम दत्तचित्त और स्वयं देवी सुनी वस्तुओं गौतम थे। भगवान महावीरने सनातन सन्यका उपदेश को बतलाने वाले थे। जनता उनको बहुत ही पूज्य दृष्टिले सर्वप्रथम इन्हीको दिया था। इनको मन.पर्यय ज्ञानकी प्रासि देखती थी।' हुई थी और इन्होंने मुख्य गणधरके पद पर विराजमान भगवान महावीरने अपनी समवसरणकी विभूति होकर भगवानकी वाणीकी द्वादशांगरूपम रचना की थी। यहिन सर्वत्र विहार किया और सब जीवोको बिना भेदभाव
भगवान महावीरका उपदेश सनातन यथार्थ सत्यक के धर्मोपदेश दिया। महावीर पुराणमें लिया है कि विदेह मिवा और कुछ न था। उन्होंने कोई नबीन मतकी स्थापना के राजा चेटकने भगवान के चरणोका आश्रय लिया था। नहीं की थ। किन्तु प्राचीन जैन धर्मको पुनः जीवित किया अंगदेशक शासक कुणिकने भगवानकी विनय की थी और था। उस समयकं प्रख्यात मतप्रवर्तक महामा गौतम बुद्धके बह कोशाम्बी तक भगवान के साथ साथ गया था । विषयमे तो स्पष्ट है कि उनके जीवन पर भगवान महावीर कौशाम्बीके नृपति शतानीकने भगवानकी उपासना की और की मर्वज्ञ-अवस्थाका ऐसा प्रबल प्रभाव पड़ा कि भगवान वह अन्तम भगवानके मंघम सम्मिलित हो गया था। महावीरके धर्म:चारके अन्तरवाल तक उनके दर्शन ही भगवानकी माता विशलाकी छोटी बहन मृगावती राजा मुश्किल होते थे। महात्मा बुद्ध के ५७ से ७० वर्षके शतानीककी पहरानी थी। राजा शतानीक जैनधर्मके परम मध्यवर्ती जीवन घटनाका उल्लेख नहीके बराबर मिलता भक्त थे। माता त्रिशलाकी सबसे छोटी बहन चन्दना है । स्वरेन्ड विशप बिगन्डेट माहब तो कहते हैं कि यह श्राजन्म कुमारी ही रही थी। वह सर्वगुणसम्पन्न परम काल प्राय. घटनाओंके उल्लंग्वम कोरा है। महात्मा बुद्ध के मुन्दरी थी। एक दिन जब वह राजोद्यानमें वायुसेवन कर उपरोक जीवनकालकी घटनाओंके न मिलनेका कारण मचा रही थी उस समय एक विद्याधर उसे उठा कर विमानमें मुच भगवान महावीरके धर्मप्रचारका प्रभाव है। यह बात ले उड़ा। किन्तु अपनी स्त्रीके भयमे वह उसको अपने घर बौद्ध ग्रन्थ 'मामगाम सुतन्त से भी मिट्ट होती है, जिसमें नहीं लेगया और मार्गमे ही छोड़ गया। शोकातुर चन्दना बतलाया है कि भगवान महावीरकी निर्वाण प्राप्तिकी ग्वबर को उस समय एक भीलने लेजाकर अपने राजाके सुपुर्द पाकर महाामा बुद्ध के , ग्व शिष्य श्रानन्द बडे हर्षित हुए कर दिया। दुष्ट भीलराजने चन्दनाको बहुत बाम दिये
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
३५८
अनेकान्त
वर्ष ५
किन्तु वह गती अपने धर्मसे विचलित नही हुई। हठात् थे। राजकुमार अभय, शतवाहन श्रादि मुनिधर्ममें लीन हसने एक व्यापारीके हाथ उसको बेच दिया। उसने भी हुए थे । ज्येष्टा, चन्दना पदृश राजकुमारियां भी आर्थि। निराश होकर कोशाम्बी में कुल रुपये ले कर चन्दनाको वृष- हुई थीं। राजगृहके मेट शालिभद्र, धन्यकुमार, प्रीतं र भसेन नामक सेठ के हवाले कर दिया । सती स्त्रियोंको अपने श्रादि महानुभाव वणिकॉमेग्मे परमपुरुषार्थके अभ्यासी हुग मनीत्वकी रक्षा के हेतु अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं और यह थे। अन्तमे धर्मप्रचार करते हुए भगवान पावापुर पहुंचे उनकी सच्चाईकी परीक्षा है। आपत्ति पड़ने पर भी धर्म और वहीमे उन्होंने मोक्षलाभ किया था। पावापुरके पालना सच्चा धर्म है। चन्दनाके मतावका उदाहरण मनोहर बनम अनेक सरोवरोंके मध्य महामणियोंकी शिला अनुकरणीय है।
पर विराजमान हुए बिहार छोड कर निर्जराको बढ़ाते हुए __ दयालु सेठ वृषभमेनने चन्दनाको बड़े प्रेम घरमे वे दो दिन तक वहां विराजमान रहे और जब चौथे कालके रहने दिया। चन्दना मेठानीके गृहकार्यमें पूर्ण सहायता तीन वर्ष ८॥ महीना बाकी रह गये थे, कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी देती थी, जो कि स्वामिभक्ति व कर्तव्य-परायणतावा एक की रात्रिके अन्तिम समयमै (चार बजे) स्वाति नक्षत्र में तीसरे श्रादर्श उदाहरण है। चन्दनाके अपूर्व रूप-लावण्यने सेठानी शुक्लध्यानमे तत्पर हुए। तदनन्तर उन्होंने तीनो योगका के हृदयमै डाह उत्पन्न कर दिया और वह चन्दनाको मन- निरोध कर समुच्छिन्नक्रिया नामके चौथे शुक्लध्यानका माने कष्ट देने लगी। उधर चन्दनाके भी कष्टोका अन्त श्राश्रय लिया और चारो अघानिया कोंको नाश कर शरीरश्रागया। भगवान महावीरका शुभागमन कोशाम्बीमे हुअा। रहित केवलगुणरूप होकर एक हजार मुनियोंके साथ सब दुखिया चन्दनाने उनको आहार दान देनेकी हिन्मत की। के द्वारा वांछनीय ऐमा मोक्ष पद प्राप्त किया। पतितपावन प्रभुका श्राहार चन्दगाके यहां हो गया। मन्य भगवानके इस अंतिम दिव्य श्रवरपरके समय भी स्वर्गहै भगवानको भक्त प्यारा है। लोग श्राश्चर्यमे पड गये. लोकके इन्द्र और देवतागण पाये थे और उन्होंने मोहका चन्दनाका नाम चागे पोर प्रसिद्ध हो गया। भगवानके नाश करने वाले भगवानके शरी की पूजा-बंदना की भक्तवत्सल होनेका यह एक ज्वलन उदाहरण है। कोशा- थी । नेवोने उस पवित्र शरीरको अग्निकुमार देवोक ग्बी नरेशकी पट्टगनीने जब यह समाचार सुने तो वह इन्द्र के मुकुटये प्रगट हुई अग्निकी शिग्वाम स्थापन क्यिा अपनी छोटी बहनको बडे श्रादर व प्रेममे राजमहलमे ले था। इसी अवसरपर ग्राम पामके गजा लोग पावापुर पहचे श्राई, किंतु वह वहां अधिक दिन न ठहर सकी। भगवान और वहां पर दीपोत्सव मनाया। कल्पसूत्रम इसका उल्लेख महावीरके दिव्य एवं पवित्र चरित्रका प्रभाव उसके हृदय इस प्रकार किया गया है :-- पर अंकित हो गया। वैराग्यकी घट्ट धारामे वह गोने 'उस पवित्र दिवस जब पृजनीय श्रमण महावीर सर्व लगाने लगी और शीघ्र ही वीरनाथके पास पहुंच कर मांगारिक दुःखामे मुक्त हो गये ना काशी और कौशलके उसने जिन दीक्षा ले ली।
१८ गजायाने १ मल्ल राजायाने, और लिछवि राजाश्री __ मगध देशके गजा श्रेणिक भगवानके अनन्य भन थे ने दीपोत्सव मनाया था। यह प्रोषधका दिन था और उन्होंने और उन्हीकी राजधानी राजगृहम भगवानने अधिक समय कहा ज्ञानमय प्रकाश तो लुप्त हो चुका है, प्राओ भौतिक व्यतीत किया था। जिस समय भगवान सर्वप्रथम राजगृह प्रकाशये जगतको दैदीप्यमान बनाये।" आये थे उस समय वेदपारंगत विद्वान इन्द्रभूति गौतम इस प्रकार इस दिव्य अवसरके अनुरूप अाज तक यह उनके साथ थे जो कि भगवानके प्रमुख गणधर थे। इनके दीपोत्सवका न्योहार याने दीपमालिका अथवा दिवालीका अतिरिक्त बहुतसे ब्राह्मग और क्षत्रियगज पुत्र तथा बणिक उत्सव चला आ रहा है । भगवान महावीरके परमश्रेयो मंठ आदि भगवानके विहार और धर्मप्रचारमे प्रबुद्ध हुए लाभकी पुण्य स्मृति और पवित्रता इस मोहारमे गर्भित है:
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपराधी
[ लेखक - श्री 'भगवत' जैन |
[?]
कोसाम्बी के धनकुबेर अंगारदेव प्रतिष्ठित व्यक्तियो में गिने जाते हैं। मन के साफ, प्रकृतिसे धार्मिक और सच्चरित्र पुरुष हैं। काफी आदर प्रतिष्ठा उन्हें प्राप्त है। प्रति धरातल अगर टटोला जायेगा, तव तो धन ही प्रमुख दिखाई देगा। क्योंकि आदर सरिता, धार्मिकता और नेकनीयतीक विना भी मिलता देखा जा रहा है। लेकिन निर्धनको दूसरे गुणो केस पुजता नही देखा गया। ऐसे दो चार दृशन्त जटाना गहरी खोजबीनका फल ही हो सकता हूँ। हॉ, विरागी मंडलकी बात जुदी है, क्योंकि वे हमारी दुनिया से जुड़े हैं । होता तो यही है, कि लाख 'देव' बदकारियों होते हुए भी 'पैसा' बुराइयों पर
रहता है। प्रतिम, पूजामे कमी नही आने देना ।
महाराज गंधर्वसेनने एक दिन एक मणि, पद्मरागमणि अंगारदेवको दी-किसी अलंकार मे जड़ने के लिये यही तो अंगारदेवका व्यवसाय था । वह 'जवान' चतुर कलाकार थे। लोग उनके कार्य पर मुग्ध थे । यहाँ तक कि दूर-दरसे उनके पास काम आता और जब लोटकर जाता, तो शायद उनकी प्रख्याति को और भी मजबूत और भी विस्तृत बनाने की शर्त लेकर ।
और अंगारदेव इस लायक साबित हो सके, कि उन्हें कोई भी बेशकीमती टिके सौपी जा सके । बड़े लोगोका यकीन जो बड़े लोगों पर ही होता है। गरीबांकी ईमानदारी उनकी निगाहमे चढ़नी ही
1
कब
[=]
सौंदर्य-निर्मायक अंगारदेव मरि-कांचन-संयोग के उपक्रममे व्यस्त थे। कभी किसी तरह लगाकर देखते, कभी किसी तरह । कभी सोचने- 'किस तरह लगाने से अधिक मौंदर्यवर्द्धक बन सकेगा ?
देर तक यही असमंजस रही । आखिर एक डिजाइन पसन्द आई। देर तो जरूर लगा, मगर डिज़ाइन भी ऐसी हाथ लगी कि एक बार खुशीसे मुँह दमक उठा । आत्म-संतो पकी लालीने ओटोपर मुस्कराहट लादी ।
उमंग उत्साह के साथ अङ्गारदेव बहुमूल्य मणिको अलंकार के रूप में परिणत करनेके लिए तैयार हो हो रहे थे कि उनका नज़र ईर्याप्रथम चलते हुए, दिगम्बरमाधुपर जा पड़ा। वे विश्ववन्य तपानिधि चर्याक लिए - शरीर स्थितिनिमित्त भोजन, नीग्स -भोजनक लिए वन नगर में पधारे थे ।
अंगारदेवकेमनमे भक्तिका निर्भर प्रवाहित हो टा, श्रद्धा मस्तक झुक गया । भीतर धार्मिक भावनाएँ जो पनप रही थी। सब कुछ यों ही छोड़छाड़, वे लगे महामुनिक आहार दानका पुण्य-उपाजन करने
निर्विघ्न आहार समाप्त हुआ। अंगारदेव सभक्ति, उल्हसित हृदय स्तुतिकर चरणोंपर लौट गए। मन उनका अपार हर्षका अनुभव कर रहा था ।
तपोधन ज्ञानमागर आहार ले फिर उद्यानके लिए लोटे | अंगारदेव मुग्ध-नेत्रों देखते रहे उसी ओर, जब तक वे दिखाई देते रहे। हृदयमें सोच रहे थे-कितना पवित्र दिन है, आज महामुनिकी चरण-रजम
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
अनेकान्त
घर पवित्र करनेका सौभाग्य मुझे मिल सका । पुण्यकर मकना - पुण्य कर्म की ही तो बात है । अवश्य ही आज मेरा पुण्योदय है । गौरवका विषय है। सचमुच आज भाग्यवान हूँ मै।
कई मिनट खड़े रहे, पवित्रपुण्य बर्द्धक भावनाओं में उलझे हुए। जब ज्ञान-सिन्धु दृष्टि ओझल हो गये, भावनाओं का क्रम भंग हुआ, तब वे लौटे ! दूकान पर ए, यह विचारकर कि-- लाओ पहिले मणिको फिट करदे अधूरा काम पड़ा है। फिर तसल्ली से रमाई जी मेगे ।'
पर यह क्या ?
अंगारदेवने इधर-उधर, यहाँ-वहाँ सब जगह की खोज का, ढूँड़ी ढकोरी । पर, गायब ! मणि लापता !
और अचरज तो यह कि बाकी सब चीजें ज्यों की त्यों । जैसे चारने दूसरी चीजे छूना, व्यर्थ ही समझा हा !
अंगारदेवका हृदय धक्से रह गया । यह हुआ क्या ?
चोरी ! भीषण चोरी !! दिन-दहाड़े लूट !!! माथे पर पसीने की बूँदे झलक उठी ! भूख-प्यास खुशी - उमंग सब नदारद ! जैसे खून जमता-सा जा रहा धीरे-धीरे
वह सिर थामकर बट गये वही ! चक्कर जो आ रहे थे ! पैरोमे बल जो नहीं रहा था, खड़े होने लायक ! आँखो के आगे पतंगे से उड़ने लगे थे !
पद्मराग-मणि !!!
विशाल धनकी मोहक वस्तु !
सोचने लगे--' गई कहाँ ? अभी-अभी तो यहाँ रक्खी ही थी। कोई आया भी तो नहीं। और मैं तो यही खड़ा रहा हूँ--निकट ही, यही थी इसमें शक नही ! और नीमरा कोई आया नही, फिर ?...
1 वर्ष ५
शुबहा भी हो। और मैंने ली नही । तब मुनि - - ? मुनि ही तो ? और कौन ? वे ले सकते हैं ? क्या मुनि चुरा ले गए होगे ? मणि, पद्मराग-र्माणि ! अगर मुनिन मणिचुराई हो ..? और नहीं चुराई तो ले कौन गया उसे ? गई कहाँ ?"
वह घबरा उठे --'अब करे क्या ?" विचार आगे बढ़े - 'मैं और मुनि, इन्ही दोके बीच मेसे मणि खोई जा रही है ! कैसे मजे की बात है ? बेशकमती वस्तु ! तीसरा कोई आया ही कहाँ ? जो किसीपर शक
क्षण भर रुका, जैस समाधानकी शक्ति संग्रहकी हो ! प्रश्न जटिल जो था सामने ! सोचने लगा फिर-'धन ऐसी ही वस्तु है ! विरागी विराग छोड़ दे तो अचरज क्या ? फिर थोड़ा लोभ तो था नहीं, पद्म राग-मणि ! ज़रूर मुनिकी नीयत बद हुई। और वही घुरा ले गए उसे नहीं गई कहाँ ? कोई आया भी तो नही उनके सिवा !"
अंगारदेवका मन क्रोधसे भर उठा । - - 'कैसा मुनि ? चोर ! - टाकू ! लुटेरा !!!" (4)
परम शान्त मुनि ज्ञान-मागर हो चुके थे-ध्यानम्थ, जब क्रोध में तने, धनके वियोग में पागल अंगारदेव उनके पास पहुँचे ।
'कहाँ है, मेरी मणि ? दुष्ट । चोर, उठाई गीरा ।" शर्म नहीं आती तुझे ? क्या यही तेरी तपस्या है ? मैने खाना दिया और तू चुरा लाया सम्पत्ति ! छलिया वही का ' बोल, रहने दे इस ढोंग को ! अब, देवली तेरी बगुलाभक्ति !'
पर मुनि चुप, ध्यानमग्न ।
अंगारदेवका का उमड़ा-बोलता नहीं, कहाँ है मेरी मणि ? निकाल दे सीधी तरह बन याद रखना मैगा थोड़े इस तरह !" मुनि मौन !
अंगारदेवका खून खौल उठा । 'आपा खो बैठे ! हाथका लम्बा बेत फैककर उन्हीं तपोधनको लक्ष्यवर माग, जिन्हें जरा-सी देर पहिले शिर झुकाकर अपने को धन्य समझा था ! अब जो भक्ति के बीच धनकी दीवार खड़ी हो चुकी थी ।
लेकिन निशाना बैटा--गलत ! बैन मुनिके परोपकारी-शरीर में न लगकर लगा समीप खड़ी हुई 'मोरनी' के गले पर ! और उस .चानक लगने वाली
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११ ]
अपराधी
चोटने कर दिया-हम्यमय चोरीका उद्घाटन ! लौटा । पर, चैन नही था उसे ! एक विचित्र वेदना
'मणि' मोरनीन उगल दी! और भागीक और उसे दबोचे दे रही थी।
अंगारदेवने यह देखा तो दग रह गया : लज्जामे घंटो पड़ा रोता रहा! फिर उठा और दर्बारमे नम्नक उपर न उठा। मरिण मामने पड़ी जगमग कर जाकर मणि महाराजको वापिस दे दी। उन्होंने पूछा-- रही थी। जैमे मुनिका निदोपता प्रमाणित होनस 'क्यो ?' वह खुश हो, या अंगारदेवको भक्तिपर-मूर्खतापर हँस बोले-'इस मणिने अब मुझे अपनी 'मणि' की म्ही हो।
याद दिला दी है। पहिल उसे आत्म-संतोपके लिए वीतरागी यानम्थ थे।
अपनाना मंग कर्तव्य है !! मोम्य-अबि
पर, महाराज खाक न समझे।-अंगारद लौट अंगारंदवने माग उठा ली। और चला घरकी आप! चित्त उनका कुछ हल्का होता जा रहा था। पार पर स पड़ रहे थे, जेम-वोमे बीमार हो। मेंहपर गहरी दामी न थी। हर कदमपर सोचना जाता था---'धरती फट जाय
और में उममें समा जाउ । मुंह दिग्वाने तक की जगह दमर प्रभात-- जा नहीं है अब
__ महाराज गन्धर्वसेनने एक सम्बाद सुना-अंगार
देव परम पूज्य, माधु-ज्ञानसागरक पद-सन्निकट बंटे, पश्चातापकी ज्वालामं भलमा टुआ अंगाग्दव घर दीक्षा ले रहे हैं।
श्राशा-गीत
क्या अपने को पान मगा" विकट उलेमनीमे उलझा है, लेकिन क्या मुलझा न मगा,
क्या अपने को पा न सकृगा? खो चटा है मै निजत्वको, मृत्यू-निराशाने घंग है । शेप न इतना ज्ञान मुद्दा अब. कौन पगया, क्या मेरा है, अगर प्रयत्न कम नो क्या मैं, मोई-ज्योनि जगा न मगा?
क्या अपने को पा न सकूँगा। माना, सब-कुछ लुटा-गंवाकर, बन बैठा हूँ आज अकिंचन । अपनी भूलोक कारण ही. उलझा है कांटीम जीवन !! लेकिन क्या मैं उन्हीं दिनांको, फिर वापिस लौटा नमकृगा?
क्या अपने को पा न म गा" मरी-पान्माके भीतर भी, रहता है अमरत्व अपरिमित । मृत्यु पराजय मान चुकी है, अनः आन्मा रहता जीवित '. अमर- अान्माम फिर माची, कैस जीवन ला न मगा?
क्या अपनको पान मगा' पूजकरी में पृज्य बन सक, जब इतनी क्षमता रग्बनाई। अचरज तो यह है कि अभी नक, क्या इस पदम दूर रहा है ? फिर रुकावट क्या पड़ती है, जो 'भगवत कहला न सकगा?
क्या अपनका पा न म गा"
श्री भगवन जैन
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
पंडित-गुण
-900
बात.
[कुछ वर्ष हुए गेहतक (पंजाब) के शास्त्रमण्डारको रेग्बत ममय, मैने एक गुटके परमे 'पंडितनगण' नामकी कविताको नोट किया था, जो अपभ्रंश भाषाम लिबी गई है और उमका लेवक है कवि 'नल्नु' । इममे शान्तिनाथ भगवानको नमस्कार करके पडितम पाये जाने वाले गुणोंके निर्देश-द्वारा पाहतकी पहिचान बतलाई है-अर्थात यह मुचित किया है कि जो इन गुणोम युक्त है वह परित' है और जिमम ये गुण प्रायः नही पाये जाने वह पंडित नहींपंडिन कहलानेका वास्तवम अधिकारी नहीं । मंगलाचरणके अनन्नर विषय-कथन की कोई प्रतिजा नहीं । कविताम काय ने अपना तथा अपने ममयका कोई परिचय भी नहीं दिया। मालूम नही इस कविकी और कितनी तथा कौन कोन कृनिया हैं, जिन्हे कुछ मालूम हो उन्हें प्रकट करना चाहिये । अस्तु अनेकान्तक पाठकाकी जानकारीक लिये उक्त कावना अनुवादके साथ नीच प्रकाशित की जाती है।
-सम्पादक
(मूल) पदविवि जगमंडणु कलि-मल-खंडणु मंतिणाहु मंतिक्करणु । मिव-उरि-संपत्तउ भव भय-चत्त बजिय-जम्म-जरा-मरण ॥छ। मो पंडित जी परतिय धंस, मो पंडित जी इंदिय दंडमो पंडिउ जो मनु संबोहह विणयचंतु बुहयणमहि पोहइ ।। मोपंडिउ जोप्रमुवय पाबा,जलनोलेहिं (कलकु पखालह। मो पंडिड जो बमण] वजह, परहे होम बोलनह लजह ॥ मोपंडिउ जो गणाणुप्पाचह' [सरधावंतु गुह अणुगगइ ।मो पंडिउ जो अप्पा मावहि वीतरागुअादिगु बाराहइ ।। सो पंडिड जो महुरड जंपह, धीक होइ जसु चित्तु न कपड़ । सोपडिउ जो मच्छक छंह,कोहु लोहु भय-माह विवजह ॥ मो पंडिट जो मापा शिंदह, तीन काख जिणवर-पय वनइ । मोपंडिउ जोमम-दमवंत उ, विमग्रनुक्ग्य पणु विमय विरत्तउ॥ *सो पंडिड जोभनदुहीमइ, सो पंडिउ जो मुक्षु ममीहइ। पत्ता-य पंडिय-गण बारिया, जंजिण शाहे मिटिया । कवि कहा नन्दु कर जोडकर, जम परंपर अपिग्षया ।
इति पंडितगण॥
(अनुवाद) उन जग-भूपण, पारा-गल-नाशक और शानिक ग्नेि वाले श्रीशा। ननाथको नमार है, जा शिवपर्गका पाम हुए हैं, भव-भयमे गहन है और जन्म-जग-मरणम मभित हैं।
पांडन वह है जोपरस्त्रीका त्यागी है। पौडन वह है जा इन्द्रियांको दगिदत करता है-उन्ह म्बासीन बना है। पंडिन वही जो अपने मनको मबाघ देता है, विनयवार बुधजनाक. माघशामा पाई।
पंडित वह है जो अग्मिादि) अणुव्र की गलना ४ बार उनके द्वारा पार-मलका उमा नदघा दालना है जिम नगद जनकी तरंगं मलका बहा देना है। पांडत यह है नो (यतादि) पसनोको त्याग र दमग दोषांको मनम जिस लज्जा पाती है।
पंडित यह है जी जान उत्पादनम लगा रहा है, [श्रद्धावान है और गृणाम अनुगग बना है] | पांडन वह है जो प्रात्माको ध्याना है और चीनगगकी प्रातदिन श्रागधना करना है।
पंडित वट है जो मधुर वचन बोलना है. धीरज रग्बना है और जिमका निन कापना नहीं। डिन वह ई जा मन्म-भावको छोड़ना है बार क्रोध लोभ तथा मद-हको न्यागता है।
पंडित वह है जो अात्मान्दा करता है और नीन बाल जिनेन्द्र-चग्गाकी वन्दना करता है। पांडन वह है जो ममदमवन्न है और विषय-मुग्य तथा इन्द्रिय-विषयोमे श्रामक नहीं होना । पाइन वट है जो ममार-दम्पम भयभीन रहते पडिन वह है जो मोक्षकी अभिलाषा रग्यता है।
ये पंडितगुण जिननाथकी शिनानमार कहे गये है। नल्द कवि हाथ जाट कर कहना कि जेमा पगम कथन चना अाया है यह उमीके अनुमार है।
कटका पाठ त्रुटिन चरणकी पूर्ति के लिए अपनी प्रोग्स ग्वया गया है। २ या पद्य अाधा है, मभव : मके श्रादि या अन्नके दो चरण लिम्वनेमें छूट गये हो।
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण
द्वितीय लेबन (लग्बक--न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल जन कोठिया)
पाउकोको मालूम है कि मैने 'नवार्यमूत्रका मंगला की सामग्रीमे समाण हुआ, उसी मामग्रीके पिष्टपेषणसे चरण' नामका एक विस्तृत लग्न लिवकर उसे अनेकान्त वृतकलेवर हुग्रा तथा उनकी उखिर तक बतलाया गया की गत जुलाई-अगस्त मास की संयुक्त किरण न...में है। साथ ही, उकडोनों विद्वानोके महीनोमे अनुत्तरित प्रकाशित कराया था। मेग वह लंब न्यायाचाय प. पडे हुए लेबोके उत्तरका ही लेखमें मुख्यतौल किया महन्द्रकणारजी शासीकाशीके उस लेखके पूर्णतः उतर गया है. फिर भी अपने उत्तरको उन पत्रोंमे प्रकाशित न
कराकर जिनमें उन विद्वानांके उत्तरणीय लेख प्रकाशित के साथ जनमिद्धाम्नमाकरकी जन मन की किरण हुए थे उसे अनेकाम्नमें प्रकाशित कराया गया और में प्रकाशित कराया था, और उसमें कुछ गहरी बन-बीन इस तरह विद्वदष्टिम मेरे जेवके महावको कम करने अथवा के साथ गार्माजीकी कतिपय गलत धारणाओं तथा भूला ।
'डौल' शन्द्रका प्रमाग मनं जान बृझकर किया है, क्याक को स्पष्ट करके बनलाया गया था। मेरे उस बग्यमे
शास्त्रीजी अपन नम्वक शुभम प्रकट तो यह कग्न है कि प्रभावित होकर शास्त्रीजीन शाम ही अपना दूसरा लेम्ब
'श्राप-परिहार' मलेका उनका माग उत्तर लेम्ब मुग्न्यतः उसी 'मोक्षमार्गस्य नेताम्म' शीर्षकको लिये हुए अनेकान्त
पगमप्रमादोर जिनढामजीके लेबोका लक्ष्य करक की गन किरण नं.--में प्रकाशित कगया है। शास्त्रीजी
लिया गया है परन्तु उनर उमंग गेमी बानीका भी का यह लग्ब मुझे ४ नवम्बरको देखनको मिला, जिम
दिया गया है जिनका उक्त दाना विटानाक लेग्यांक माथ दिन किम २० दिन अवकाशानन्तर घरमे वापिम बीर
काई मम्बन्ध नही है यार व म्याग कर पर गरे लेनम है। मेवामंदिरम आया था। लग्बका परकर मुझे कुछ पमनाना
मम्गन्ध म्बी है। यहाँ पर में नमक नार पर गम एक हुई और कुछ प्राममना भी। प्रपनना हनिय हुई कि
बात नाच प्रकट ये दना हगाखीजीन लेम्दमें अपनी उन दो मृलाको स्वीकार किया
अपनी दृभग अनुमान । पृ.८ में शास्त्रीजी है जिनके तीन तीन संस्करण होजाने पर भी वे उन्हें
लिग्बत है-"बना कि.मी प्राचीन प्रतियांक श्राधार मालमनही पड़ी थी और जिनमे एक नो बहुत ही
सन्याय मत्रकादिभिः' पाठकी कल्पना विद्याप नही
ani in मांटी थी। और अप्रमझाना हमालयं हुई कि, में लेखका
हा मकनी" परन्तु वाधमत्रकार'क स्थानपरत्वार्यपूर्णनया उसर न देकर उसके साथ पंचाका व्यवहार
मत्रकागादाम पाटी कल्पना न ना गमप्रमादजीने किया गया है जो उचित नही था इतना ही नहीं किन्तु
की यो योर न २० जनढामजान-दन दोन विद्वानांक उस पर कुछ वीटे भी फेंके गये हैं-उसे बिना किसी
लम्ब उन कल्पनाम शना है। बाम्नतम यह कल्पना मन जाँच पडतालके पं.रामप्रमादजी बम्बई और पं.जिनाम
ही अपन लग्बम की थी बार टमको पप्रम कई युक्रिया भा जीशोलापुरके जैनगजट तथा जैनबोधकर्म प्रकाशित बग्वा दीगी. जिनपर कार्ड विचार नहीं किया गया। नव प० 'न भूलोका पहला मस्करण 'न्यायमुदचन्द्र' के द्वितीय मंन्द्रकुमारजीका इम कल्पनाको उन विट्टानाकी कल्पना भागकी प्रस्तावनाम, दूमग मम्मरण 'धमंयकमलमानण्ड'की तथा उनके लेग्वीका 'उनग्गीय अंश' बनानागा 'कतना प्रम्नावनाम और तीमग मस्सग्ण जैनमिद्वान्नमाम्करम अधिक अमंगन जान पटना है हमे चिन पाठक म्य प्रकाशित उक लेखम हुआ है।
ममझ मन।
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
अनेकान्त
[वर्प५
उसके गौरवको गिरानेका वह प्रयत्न किया गया है जो लेख हलचल मची है. मानाऽपमानकी आशंकाने उन्हे धर दबाया का पूर्णत: उत्तर देकर नही किया जा सकता था। है, उनकी किसी प्यारी चीजको ठेस पहुँची है, उन्होने ___इसके सिवाय, लेखके शुरूमें जब मैंने यह पढ़ा कि मेरे लेखके उद्देश्यको कुछ गलत समझ लिया है और शास्त्रीजीने मेरे द्वारा प्रयुक्त हुए प्रमादजन्य तथा अनभिज्ञता इसलिये उन्हें यह सहन नहीं हो सका कि मेरे जैसा नवजैसे एक दो अप्रिय अथवा कटु शब्दों पर समभाव धारण शिक्षित अल्पवयस्क प्राणी, जो एक असे तक उनके साथ किया है और बदलेमें मेरे लिये शुभ भावनाओंके ही देने मित्रभावसे रह चुका है, कुछ अंशोंमे उनसे शिक्षा भी प्राप्त की बात कही है तो मुझे श्रा.की इस उदारता पर बडी कर चुका है और जो अभी अभी इतिहासत्तेत्रमं प्रविष्ट प्रसन्नता हुई: परन्तु लेखके अन्त में -एक श्राक्षेपके परिहार हुश्रा है उन जैसे लब्धप्रतिष्ट प्रोढ विद्वानोंके बिरोधमें कुछ में--जब मैंने यह देखा कि शास्त्रीजी अपने उस समभाव लिखनेका साहस करे। भले ही उगका वह लिम्बना को स्थिर नहीं रख सके हैं, प्रत्युत उन अनभिज्ञता तथा कितना ही कर्तव्यानुगंधको लिये हुए क्यों न हो, और वह प्रमाद दोषोंको मेरे ही योग्य बतलाकर मुझे दुगशीर्वाद स्वयं 'शबोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि' इस नक दे रहे हैं, तो मेरी वह प्रसन्नता अप्रसन्नताम बदल गई। नीनिका अनुसरण करने वाला भी क्यों न हो !! इसीसे ___ यापि मेरे द्वारा यथास्थल विकल्परूपमे प्रयुक्त हुए उन्होंने अपने उत्तरलेखका वैमा रुख अस्नियार किया है 'प्रमादजन्य' और 'अनभिज्ञता शब्द ऐसे नहीं थे जिनके कारण और उसके द्वारा मेरे लेखके महत्वको कम करके मेरे श्री.पं. महेन्द्रकुमारजीको नभित अथवा कुपित होनेकी कोई व्यक्तित्वको पाठकोंकी नजरोंमें गिरानेकी चेष्टा की है। इस बात होती, क्योकि बहुत कुछ सावधानी रस्त्रनेपर भी कभी विषयमे मैं अधिक कुछ भी न कहकर सिर्फ इतना ही कभी अपन-लोगोंये अनेक अंशोमें असाधानतारूप प्रमाद कहना चाहता हूं कि इस प्रकारका व्यवहार प्रौढ विद्वानी बन ही जाता है और अनेक विषयों तथा अंशोंमें अनभिज्ञता और खासकर इतिहासके विद्वानोंको शोभा नहीं देता--भले नो उस वक्त तक चलती ही रहेगी जब तक कि प्राप्माम ही मेरा यह कहना 'छोटा मुंह और बडी बान क्यों न सर्वज्ञताकी प्रादुर्भूति नहीं हो जाती। और इसलिये ऐसी समझा जाय । साथ ही यह भी निवेदन कर देना चाहता बातोंके सामने लाये जाने पर व्यर्थका क्षोभ तथा रोष कुछ यति मायनोगामेटी शामीजी नोभ अर्थ नहीं रखता--स्वासकर ऐसी हालतमे तो वह और भी हुआ हो तथा कष्ट पहुंचा हो तो मैं खुशीसे उन्हें वापिस निरर्थक होजाता है जबकि हम देग्य रहे हो कि हमने अर्थ
लिय लेता है, क्योंकि मेरा अभिप्राय किमीके चिनको के सममने पादिम मोटी भूलें की हैं और उनके कारण हमे दुग्खानेका नहीं था। अस्तु । अपनी भूलोंको स्वीकार करना पड़ा है तथा अपने हृदयमे मैंने अपने लेखम पं० रामप्रसादजी और प. जिनदाम कुछ पश्चात्ताप भी करना पड़ा है। प्रेमी स्थितिमे यह जीके लम्बाकी सामग्रीका कोई उपयोग किया या कि नही आशा नहीं की जाती कि कोई भी विचारक विद्वान् मात्र और मुझे उनके वे लेख उस समय तक देखनेको मिले भी ये शब्दोंके सामने आने पर क्षोभको धारण करे। फिर थे याकि नहीं. इन सब बातोका खुलासा मुख्तार साहबके भी लेखमें अपनाये गये उत्तरके स्त्र और उसके श्रादि- उस सम्पादकीय वक्तव्यमे भले प्रकार होजाता है जो उन्हीं अन्तक अंशों परसे यह साफ ध्वनित होता है कि शास्त्रीजी ने वस्तुस्थितिको स्पष्ट करनेके लिये अनेकान्तकी गत किरण को मेरे लेख पर कुछ क्षोभ जरूर हो पाया है, और इस (प० ३२६) में पं० महेन्द्रकुमारजीके लेम्ब पर प्रकाशिन लिये उसका कोई विशेष कारण भी जरूर होना चाहिये। किया है। इधर बाबू जयभगवानजी वकील पानीपतके-- कारणका पर्यालोचन करते हुए जहां तक मैं समझ सका हूँ-- जो मेरे लेख लिखनेके समय वीरग्वामन्दिरमे मौजूद थे-- मभव है मेरे समझनेमे कुछ भूल भी हो-मुझे गया मालम ता. २६ दिसम्बरके पत्रये यह मालम हो रहा है कि, परा है कि मेरे गहरे पर्यालोचन एवं गंभीर विवेचनको उन्होंने पं० महेन्द्रकुमारजीको कोई पत्र लिम्बा है, जिसमें लिये हुए युनियुक लेग्बके कारण शास्त्रीजीके मानसमे कुछ मुम्नार माहवके उन सम्पादकीय वक्ष्यका 'शब्दश
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
३६५
समर्थन करते हुए उन्हें यह प्राश्वासन दिलाया है कि पचवार्तिकोंका उल्लेख, जिसके द्वारा 'मोक्षमार्गस्य मेतारम्' 'मेरा लेख किसीके स्वाभिमानको ठेस पहुँचाने के लिये नहीं इस मंगलश्लोकको मुनीन्द्र-उमात्वातिका मंगलाचरण लिखा गया था बल्कि उसका लक्ष्य उन भूल-भ्रान्तियोंको बताया गया है (पृ. २२४)। दूर करने का था जिनके आधार पर समन्तभद्र जैसे प्राचार्यों ३ अष्टसहस्रीके 'शास्त्रारंभेऽभिष्ठुतस्य' इत्यादि को पूज्यपादके बादका विद्वान बतलाया जाने लगा है, अन्तिम वाक्यका उल्लेख, जिसके द्वारा उक्त मंगलश्लोकको
और साथ ही उनसे यह प्रार्थना भी की है कि वे अपने तस्वार्थसूत्रका प्रादिम मंगलाचाण बताया गया है (पु.२२४)। चितपे मेरे लेख-सम्बन्धी गलत फहमियों को दूर कर देव।' ५ 'श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः' आदि प्राप्तपरीक्षाका ऐसी हालतमें मुझे इस विषय पर अधिक कुछ भी लिखने उल्लेख और 'मुनिपुङ्गवाः सूत्रकारादयः' ‘स गुप्तिसमितिकी जरूरत मालूम नहीं होती। मैं अपनी श्रोरसे मिर्फ धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रेभ्यो भवतीति सूत्रकारमतम्' इतना ही स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मुझे अपना लेख 'कायवाङ्मनःकर्मयोगः इति सूत्रकारवचनात्' इन वाक्यों लिखकर समाप्त कर देने तक पं० रामप्रसाजी और पं. का उल्लेख, जिनके आधार पर उक्त मंगलश्लोकको सुत्रकार जिनदासजीके उन लेखों मेंसे कोई भी लेख देखनेको नहीं उमास्वातिकृत माननेका विद्यानन्दका अभिप्राय बताया मिला और न पाश्रमके किसी विद्वानसे उनके विषयका गया है (प० २२४, २२५)। कोई परिचय ही प्राप्त हुआ है, और इसलिये मेरे लेख में ५ 'तत्वार्थसूत्रकारादिभिः' पाठकी कल्पना और उस उन लेखोंकी मामग्रीका रंचमात्र भी उपयोग नहीं हुआ है- को पुष्ट करनेवाली युक्तियां (प० २२५, २२६)। मेरी प्रवृत्ति तो उन लेखोंके देखनेकी ओर १५ नवम्बरको ६ सूत्र और सूत्रकार-विषयक राजवार्तिकका उल्लेख हुई है, जिसकी मुख्य प्रेरणा पहले दिन शास्त्रीजीके उसर- और श्लोकवातिकका विशेष कथन (प० २२७, २२८)। लेख को पढ़कर ही हुई थी। जब मैंने उक्त दोनो विद्वानों के ७ विद्यानन्दके साहित्यमे सूत्रकार' शब्द प्रा. उमालेखों परसे कोई सामग्री अपने लेखमें ली ही नहीं और न स्वातिके लिये प्रयुक्त हुआ है. इसके ६ उल्लेख (पृ० २२५)। मुझे उस वक्त तक उनका कोई परिचय ही प्राप्त था तब ८ विद्यानन्दके ७ ग्रन्थों परमे ३६ उल्लेख, जिनमें कहीं मैं अपने लेग्यमे उनका आभार भी कैसे मान सकना था' भी विद्यानन्दने अपने पूर्ववर्ती प्राचार्योंको 'सूत्रकार' और इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। और इसलिये उन विद्वानों पूर्ववर्ती ग्रन्थोंको 'सूत्र' नहीं बताया है (१०२२६. २३०)। का अाभार न मानकर मुख्तार माहबका, जिनमे मुझे यथेष्ट प्रथम कारणको सदोष ठहराने के लिये प्रमाणरूप महायता मिली, आभार मानने पर शास्त्रीजीने जो आश्चर्य में दिगम्बर और श्वेताम्बर सूत्रग्रन्थोंके है उल्लेख, जिनमें व्यक्त किया है उसमें कुछ भी तय नहीं है--वह उत्तर मंगलाचरण किया गया है (प० २३१, २३२)। लेखही तप प्रकृतिका ही एक अंग जान पडता है। १० दूसरे कारणको दृषित करते हुए कर्मस्तव,
यहां पर मैं शास्त्रीजीसे बड़े ही विनम्रभावके साथ षडशीति अादिके टीका ग्रन्थों-भाष्यांका हवाला, जिनमें यह पूछना चाहता हूं कि, यदि मेरा लेख उक्त दोनों विद्वानों मूलग्रन्थके मंगलाचरणका निर्देश और व्याख्यान नहीं के लेम्वोंकी सामग्रीके पिष्ट-पेषणकोही लिये हुए है, जैसा कि पाया जाता है (पृ. २३२, २३३)। उनका कथन है, तो वे कृपया यह बतलानेका कष्ट ज़रूर टीका-ग्रन्थोमे मंगलाचरणके व्याख्यान और उठाएँ कि मेरे लेखकी निम्न १६ बातें उन विद्वानोंके लेखो अव्याख्यान दोनों प्रकारकी पद्धतिकी उपलब्धिका कथन, में कहां पर पाई जाती हैं ?:--
जिससे पूज्यपादके लिये मंगलश्लोककी टीका करना लाज़िमी . 'कथं पुनस्तरवार्थः शास्त्र' इत्यादि श्लोकवार्तिक नही पाता (प० २३३)। का अवतरण, जो तत्वार्थसूत्रके आदिमे किये गये मंगलाचरण १२ श्रा. पूज्यपाद-द्वारा सर्वार्थसिद्धि में उक्त मंगलश्लोक को मिद्धि के लिये प्रस्तुत किया गया है (१० २२३)। को अपनालेनेकी बात और दूसरों के द्वारा भी दूसरेके मंगला.
२ 'प्रबुद्धाशेषतत्वार्थे' इत्यादि श्लोकवार्तिकके दो चरणको अपनाये जाने के प्रमाणोंका उल्लेख (०२३३)।
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
अनेकान्त
[वर्ष ५
१३ श्लोकवार्तिकमें वर्णित 'वार्तिक' के लक्षणानुसार तीनों विद्यानन्दको विवक्षित हैं। तन्वार्थसूत्रका व्यनरछेदकर श्लोकवार्तिक और राजवार्तिकमें इस मंगलश्लोकका व्याख्यान मान श्लोकवार्तिक 'तत्' शब्दका वास्य नहीं है । इस बात न होनेका उल्लेख (पृ. २३३)।
को विज्ञ पाठक श्लोकवार्तिकके इस पूरे स्थल परमे भले १४ श्लोकवार्तिकमें भी उक्त मंगलश्लोकका व्याख्यान
प्रकार अवगत कर सकते हैं। किया गया है इसका स्पष्टीकरण (१० २३४)। _ 'मुनीन्द्र संस्तुत्ये' पदमे श्राये हुये 'मुनीन्द्र' शब्दसे
१५ तीसरा कारण दुसरे कारणसे भिन्न नहीं है विद्यानन्द प्रा. उमास्वातिका भी ग्रहण कर रहे हैं। ऐसा इसका निर्देश और पांचवें कारणके तीन अवयव मानकर ही पागे एक और उल्लेख 'मुनीन्द्राणामादिसूत्रप्रवर्तनम्' उनका सविस्तर उत्तर (पृ. २३४, २३५)।
के रूप में पाया है। वहाँ 'भुनन्द्र' का अर्थ विद्यानन्द निम्न १६ 'आदि' और इत्यादि' शब्दोंके प्रयोगकी प्रकार करते हैं :व्यर्थताका प्रदर्शन (पृ. २३४, २३५);
'इति युक्त (मुनान्द्राणां पगपरगुरूणामर्थतो ग्रंथतो यदि ये बात पं. रामप्रसादजी और पं. जिनदास जीके वा शास्त्रे-प्रथमनवप्रवर्तनम तद्विषयस्य श्रेयो मार्गस्य लेखों में नही पाई जाती हैं तो फिर मेरा लेख इन बातोंके पगपरप्रतिपाद्यैः प्रतिपित्सितत्वात ।' पिष्टपेषणको लिये हुए कैसे कहा जा सकता है? अस्तु ।
यहाँ स्पष्टतया 'मुनीन्द्र' शब्दमे ग्रन्थत. तन्वार्थसूत्रके इस सामान्यालोचन और निवेदनके बाद अब मैं उत्तर- आदिममूत्र-प्रवक्ता अपरगुम-उमास्वातिका भी उल्लेख लेखकी कुछ विशेष बातोको लेता है, और उनमे भी सबसे
किया गया है। श्लोकवार्तिक पृ० १ पर एतेनापरगुरुगणपहले उन बातोको लेकर उन पर अपना विचार प्रस्तुत धरादिः सूत्रकारपर्यन्तो व्याख्यात: इन शब्दों द्वारा सूत्रकरता हूं जो मेरे लेखकी कुछ बातों पर आक्षप-परिहारके
कार-उमास्वातिको बहुमानके साथ अपरगुरु माना है। रूपमें कही गई हैं।
अतः 'मुनीन्द्रसंस्तुत्ये · प्रवृत्तं सूत्रमादिमम्' इन वाक्यों में भाक्षेप-परिहार-समीक्षा
उमास्वातिका भी ग्रहण करना विद्यानन्दको इष्ट है। केवल इस प्रकरणमे शास्त्रीजा परिहारका मार 'प्रत्याक्षप' गणधर और उनके बाद के दो एक श्राचार्य ही उन्हें विवक्षित के रूप में देकर समाधान-रूप में उस पर अपना समीक्षात्मक
नहीं हैं बल्कि ग्रन्थतः प्रवका अपरगुरु-गणधरसे लेकर विचार प्रकट किया जाता है :
सूत्रकार पर्यन्त सभी विवक्षित हैं। १ प्रत्याक्षेप-'तदारम्भे पदमे आये हुये 'नत' शब्द
२ प्रत्याक्षेप-विना प्राचीन प्रतियोके श्राधारके प्राप्तका वाच्य तत्वार्थ मूत्र न होकर श्लोकवात्तिक है । यहाँ
परीक्षाके तत्वार्थसूत्रकारः उमास्वामिप्रभृतिभिः' पाठकी श्लोकवार्तिकके आदिमे किये गये 'श्रीवर्धमानमाध्याय मंगल
जगह 'तस्वार्थसूत्रकारादिभिः उमास्वामिप्रभृतिभिः' इस श्लोकको औचित्य सिद्ध किया है। और 'मुनीन्द्र पदमे
___ अन्य पाठकी कल्पना इतिहासके क्षेत्रमें ग्राह्य नही होसकती। विद्यानन्दको गणधर श्रादि विक्षित हैं न कि उमास्वानि ।
२ समाधान-'तचाथसूत्रकारादिभि:' पाठकी कल्पना १समाधान-प्रा. विद्यानन्द शास्त्र के ग्रादिम मंगला- संभाव्य कोटिम स्थित है, जिसकी पुष्टिम अनेक प्रमाण भी चरणका होना आवश्यक मानने हैं इसलिये 'कथं पुनस्तबार्थ. उपलब्ध होरहे हैं, जिन्हे मैंने अपने पिछले लेखमे एक शास्त्रं 'इन्यादिके द्वारा तत्वार्थसूत्र श्लोकवानिक और फुटनोट द्वारा प्रकट किया था और जिनपर उत्तर-लेखम कोई उसके व्याख्यान इन नीनाको शास्त्र सिद्ध करके 'ततस्तदा ध्यान नहीं दियाग या। 'मुनिपुङ्गवा पत्रकारादयः' 'मुनिभिः रम्भे' पटके द्वारा श्लोफवानिकादिके साथम मुख्यतया पत्रकारादिभिः' जैसे स्पष्ट उल्ले खोपरसे उक मंगत एवं तन्वार्थसूत्ररूप शास्त्रके प्रारम्भमे भी मंगलाचरण परापर गुरुका शुद्ध पाठकी कल्पना पुष्ट होनी ही है। इतिहास भी अधिश्राध्यान (स्मरण) करना सुयुक्त बतलाने हैं। अतः 'तदारम्भे' कांशरूपमे कल्पनाोके आधार पर ही तैयार होता है और पदमें आये हुये तन' शब्दका वाच्य शास्त्र है और वे जब उनकी पोषक घटनायें मिल जाती हैं तो वे प्रामाणिक शव तावार्थसूत्र, श्लोकवार्तिक और उसका व्याख्यान ये बन जाती हैं और इतिहामनिर्माण करती हैं । इसी तरह
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
उक्त पाठकी कल्पनाके पोषक जब अनेक उल्लेख उपलब्ध ____ तत्वार्थाधिगमाख्यं वहथं संग्रहं लघुप्रन्थम । होरहे हैं और यह भी पूरी तरह संभव है कि प्राचीन प्रतिमे वक्ष्यामि शिष्यहितमिममहेद्वचनैकदेशस्य ॥२॥ भी ऐसा ही पाठ मिले तब प्राचीन प्रतिके उपलब्ध न होने मर्थात्-मैं उमास्वाति जिमेन्द्र भगवानके एकदेशके नक उक्त पाठकी कल्पना इतिहागक्षेत्रमे अग्राह्य कैसे कही
सग्रहरूप इस अर्थबहुल लघुप्रथ तस्वार्थाधिगमको शिष्यजा सकती है? यदि शास्त्रीजी इसे यों ही अग्राह्य कहगे तो हितार्थ कहंगा। उनकी वह कल्पना भी अग्राह्य ठहरेगी जो उन्होंने था. इस कारिकासे ठीक पूर्वर्ती २१ वी कारिका कृत्वा विद्यानन्दकी मान्यताको पूर्वपरम्परा प्राप्त न होनेके सम्बन्ध निकरणशुद्धं तस्मै परमर्षये नमस्कारम्' इत्यादि हैं जिसमे में की है।
वीरभगवानके नमस्कारात्मक मंगलका प्रतिपादन है। इस ३ प्रन्यानेप-मेरा तात्पर्य प्राचीन संस्कृत भाषाम
मंगलाचरण करनेके बाद अपने ग्रंथ रचनेके उद्देश्यको निबद्ध सत्रग्रन्थोंम मंगलाचरण करनेकी पद्धति दृष्टिगोचर
प्रकट करनेके लिये ही उक्त २२ वी कारिका रची गई है। नहीं होने का है।
यहां इस कारिकामें श्राया हुश्रा 'वक्ष्यामि' पद विशेष ३ समाधान-पत्रग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत दोनों
ध्य न देने योग्य है और उससे साफ जाहिर होता है कि ही भाषायाम पाये जाते हैं। यदि संस्कृत भाषाके सत्रग्रंथ
कमसे कम इस २२ वीं कारिका तक तो तस्वार्थसूत्रकी ही अभिप्रेत थे नो श्रापको पहिले ही संस्कृत शब्द विशेषण
रचना नहीं हुई है। अन्यथा, तत्त्वार्थसूत्र बना चुकने के बाद रूपसे साथम देकर अपने पक्षको स्पष्ट करना चाहिये था।
गदि भाष्य बनाते समय यह कारिका रची गई होती तो दोष दिग्वाये जानेपर संस्कृतमत्रग्रन्थोंका अभिप्राय बतलाना
प्रा. उमास्वाति 'वच्यामि' पदका प्रयोग न करके 'उ' पत्तको परिवर्तन अथवा संशोधन करने जैसा है, और इस
जैसे पदका ही प्रयोग करते । तस्वार्थमूत्रकी उस सटिप्पण लिये इसके द्वारा आक्षेपका परिहार नहीं बनता । संस्कृत
प्रतिसे भी कारिकाएं मूल के साथ निबद्ध मालूम होती हैं मत्रांमे भी श्वेताम्बर तत्वार्थमत्रका उदाहरण पर्याप्त है, जिम
जिपका परिचय संपादक 'अनेकान्त' ने तृतीय वर्षकी प्रथम के मंगलमय पद्यको पागे स्पष्ट किया गया है। और ब्रह्म
किरणमें पृ० १२१ से १२८ तक दिया है, और जिसका सत्रादिके शुझमें 'अथ' शब्दका जो प्रयोग है ब्रह मङ्गला
मैंने अपने लेखमें फुटनोट द्वारा उल्लेख भी किया था। मक भी है, जैसाकि उन्हीकी श्रनिके निम्नवाक्यसे प्रकट है
५ प्रत्याक्षेप-कर्मग्रंथोंके भाष्य विशेषावश्यक
भाप्यकी तरह अविकल व्याख्यानात्मक न होकर भावश्यक ओङ्कारश्चाथशनश्च द्वावेता ब्रह्मणः पुग।।
नियुक्तिके मूलभाष्यकी तरह पूरकभाष्य हैं और इसलिये कण्ठं भित्या विनिर्याती तेन माङ्गलिकावुभौ ।।
उनमें मूलग्रंथके हरएक वाक्यका व्याख्यान करना आवश्यक -वैशेषिक सूत्रोप० पृ०.
नहीं है । इसीसे उनमें मंगलगाथाके सिवाय मध्यकी प्रत्याक्षप-वे ३१ कारिकाएँ मूलकी नहीं हैं, अनेक गाथाओंको भी अव्याख्यात छोड़ दिया है। परन्तु भाग्यकी हैं । तत्वार्थपत्र बना चुकनेके बाद उमा वानिने
अकलंक और पूज्यपादके अखण्ड व्याख्याग्रंथ-राजवार्तिक, भाग्य बनाते समय उन्ह मूलग्रयको लक्ष्य करके भाग्यके
सर्वार्थ सिद्धि ऐसे भाष्य नहीं है, उनमें मूलग्रंथके 'च' 'तु' अगरूपम बनाई हैं।
जैसे शब्दों को भी अव्याख्यात नहीं छोड़ा है। अत: इनके ४ समाचान---उक्त क.रिकाएँ मूलग्रंथके साथ ही विषयमें मंगलश्लोकको अव्याख्यात छोड़नेकी बात कहना निबद्ध (रची गई) है । तत्वार्थसत्र बना चुकने के बाद उमा- इनकी शैलीको न समझनेका ही फल है। स्वातिने उनकी रचना नही की, जैसा कि निम्न २२ वी ५ समाधान-पूरक भाष्य वे को जाते हैं जो मात्र कारिकामे स्पष्टतया प्रकट है, जो मूल ग्रंथका नाम, विषय, छटे हुए-पूर्वम अव्याख्यात विषय पर ही व्याख्या करें। प्रकृति, प्राकृति और प्रयोजनका उल्लेख करके उसके रचने किन्तु ऊपर जिन भाष्योंका हवाला दिया गया है वे च्याकी प्रतिज्ञाको लिये हुए है
ख्यात विषयका भी प्रतिपादन करनेये पूरक भाष्य नही कहे
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[ वर्ष ५
जा सकते हैं। और न सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक अख- म. २ सू०४७ ४८।०३ सू० ३१ । १०५ ण्ड व्याख्या ग्रंथ हैं। इनमें मी उक्त भाष्योंकी तरह मंगल सू० २०, ३६, ३८ । अ०६ सू० १८, २३, १४ । रलोकके अतिरिक्त मध्यके अनेकसूत्रों, पदों और शब्दोंको अ०७ सू० १०, ११, १२ । ०६ सू० ३२, ३३ । भी अभ्यास्यात छोर दिया गया है । 'च' 'तु' जैसे शब्दों
उदाहरक्षकी तो बात ही क्या है। ऐसी ही स्थिति श्लोकवातिककी व्याख्यापद्धतिकी भी है जिस पर भागेके प्रत्याक्षेपमें जोर (क) अव्याख्तातसुत्रदिया गया है। नीचेके कुछ उदाहरणोपरसे यह विषय
अ. ४ सू० २८, २९, ३०, ३१ । विल्कुल स्पष्ट हो जाता है और शास्त्री जीने अखण्ड व्याख्या (ब) व सूत्र जिनके रेखाङ्कित पद अव्याख्यात हैंहद्धतिकी जो नई बात कही है वह गलत ठहरती है:- १ भवनेषु च' (अ० ४ सू० ३७)
२ 'अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य' (म०८ सू०१८) (१) सर्वार्थसिद्धिके उदाहरण(क) अव्याख्यात सूत्र-लोकान्तकानामय सागरो- (ग) वे सूत्र जिनमें प्रयुक्त हुये 'च' 'वा' इति' और पमाणि सर्वेषाम् । (अ.४ सू०४२)
'अपि' शल्द अव्याख्यात हैं
म. २ स० ४७, ४८। (ख) सूत्र जिनके रेग्याङ्कित पद अव्याख्यात है--
प्र० ३ स. ४० । अ० ५ स० ७, २०, ३६ : . 'प्रत्यक्षमन्यत्' (भ० १, सू. १२)
श्र. ६ स. २४ । अ० ७ सू० १०, ११, १२ । २ तद्विगुणद्विगुणविस्तारा वर्षधरवर्षा विदेहान्ताः'
म. सू. ३२, ३३ । अ० १० सू. ३ ।
(०३ सू० २५) (घ) वे मत्र जिनके वार्तिक नहीं है-- ३ 'पारणाच्युताय मेकैकेन.. '(१०४,सूत्र. ३२)
अ० २ स. ३७, ३८, ४१ । प्र० ३ स. ११, १२ (ग) वे सूत्र जिनके उत्थान वाक्य नहीं हैं
१३ इत्यादि। अ०७ सू० २६ २७, २८, २६, अ. सू० २६ । अ. ४ स. १६, २८, २९, ३० इत्यादि । श्र.. (घ) वे सूत्र जिनमें प्रयुक्त हुये 'च' 'वा' 'इति' स. १९। शब्द अव्याख्यात हैं
(छ) वे मुत्र जिनके उत्थान-वाक्य नहीं हैंअ. ३ सु. ३५, ३१ । ०५ सू०७, ३६ । ०६
प्र. २ स. २५ । अ०३ स. १, ७, ११. २६ । अ० सू० १८, २५, २४ । १०७ सू० १०,११,१२। अ०१
४ स. १, २, ३ इत्यादि । अ०५ स० १ २, ३ सू० ३२, ३३ ।
प्रादि । १०६ स. १, २, १० आदि । अ० ७ स. (२) राजषार्तिकके उदाहरण
१.३, ११, १२ । अ० ८ सू० २५ । अ० ६ स. ६ (क) अव्याख्यात सूत्र
आदि । भ० १० स० ५। __'अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य' (म० ८ सू० १८) (च) वे सत्र जिनके वार्तिक और व्याख्यान न होने (ख) वे सूत्र जिनके रेखाहित पद अव्याख्यात हैं
के साथ-साथ उत्थानवाक्य भी नहीं हैं:. 'शेषाणां संमूर्खनम्' (अ० २ सू० ३१)
अ०४ सू. २६, ३०, २ 'पारणाच्युतादूवमेकैकेन ' (०४ सू० ३२) ऐसी हालतमे सर्वार्थ सिद्धि आदिको अखण्ड व्याख्या(ग) वे सूत्र जिनके उत्थानवाक्य नहीं है- ग्रन्थ एवं अविकल व्याख्यानात्मक बता कर मंगल-श्लोकके
अ. ७ सू० २६, २७, २८, २९, १०८, सू०२६ व्याख्यान पर जोर देना और श्वे० कर्मग्रन्थोंके भायोंको, (घ) वे सूत्र जिनमें प्रयुक्त हुए 'च' 'वा' 'इति' और जिनमें मंगल-गाथाका व्याख्यान नही है और न निर्देश ही 'अपि' शब्द अव्याख्यात हैं
है, पूरक भाष्य कह कर व्याख्यान न होने की पुष्टि करना
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०११]
तत्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण
३६६
तथा उनकी शैलीके न समझनेका भारोप काना कहाँ तक श्लोक सूत्र प्रन्थका मुख्य प्रवयव न होनेसे उसपर ग्यासगत है इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं।
ख्या होना या वातिक बनना भावश्यक नहीं है। मूलके ६ प्रत्याक्षेप-(क) बार्तिकका लक्षण कुछ भी क्यों किसा अशका व्याख्यान करना या न करना व्याख्याका न हो पर प्रश्न तो यह है कि जब अकलंकदेव और विद्या. रुचिविशेष पर प्रबलम्बित है, जैसा कि प्रत्याक्षेप नं०५ नन्द दोनों उमास्वामीके एक भी शब्दको बिना व्याख्या
के समाधानमें दिये हुए सर्वार्थ सिद्धि. राजवार्तिक और या उत्थानिकाके नहीं छोड़ते उनपर वार्तिक बनाते हैं,
श्लोकवातिक्में अभ्याख्यात अंशोंके स्पष्टीकरणसे प्रकट है। उन्थानिका लिखते हैं और अविकल व्याख्या पद्धतिसे उन
(ग) प्रा. विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिकर्मे सूत्रवार्तिकोंको की व्याख्या करते हैं । तब मंगल श्लोक क्यो उन्होंने
लक्ष्य करके उक्त वार्तिकका लक्षण किया है । मीमांसाअाता छोड़ा
श्लोकवार्तिक, न्यायवार्तिक, राजवार्तिक मादि सूत्र(ख) अथवा यह मंगलश्लोक भी सत्रग्रंथका अवयव
वातिक ग्रंथ हैं । उनके अपने पार्तिक सूत्रोंपर रचे हुए हैं होनेसे सूत्र कहलाया, सूत्र पद्यामक भी होते हैं अत: इस
और जन सबमें अनुपपत्ति चोदना, तत्परिहार और विशेष पर वार्तिक बनना न्याय प्राप्त है।
कथन किया ही गया है। दिग्नागके कारिकारूप 'प्रमाण(ग) श्लोकवार्तिकमें किया गया वार्तिकका लक्षण
समुच्चय' पर लिखा गया प्रमाणवार्तिक कारिकावार्तिक है
सूत्रवार्तिक नहीं। अत: सत्रवार्तिकोंको लक्ष्य करके किये प्रमाणवार्तिकमें व्याप्त है। वार्तिकका एक व्यापक लक्षण
गये विद्यानन्दके सत्रवार्तिक-खक्षणको कारिकावार्तिकरूप है ' उनानुक्तदुमक्तार्थचिन्ताकारि तु वार्तिकम् ' । अत: मगलश्लोकके त'वार्थसूत्र में उक्त होने से उसपर वार्तिक बनना
प्रमाणवातिकमे अश्यापक बताना समुचित नहीं है। 'मूल
भाग' या व्याख्येय अंश' को सत्र माना जावे तो प्राप्तउचित ही है।
मोमांसा, युक्त्यनुशासन, न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह ६ समाधान-(क) अकलंक और विद्यानन्दकी
श्रादि ऐसे ग्रन्थ हैं जिनकी कारिकाएँ मूलभाग या व्याख्येय व्याख्य पद्धतिके सम्बन्धमे जो कल्पना की गई है वह
अंश तो हैं पर वे सत्र नहीं हैं और न उनकी सूत्ररूपसे अव्यभिचरित एवं निर्दोष न होकर गलत है। जैपा कि
' प्रसिद्धि ही है। अतः सूत्रका 'मूलभाग' या 'ग्याख्येय अंश' प्रत्याक्षेप नं.५ के समाधानमें किये गये स्पष्टीकरणसे
लक्षण मानने पर वह उक्त ग्रंथों में प्रतिव्यापक हो जाता है प्रकट है। और इसलिये उसके आधार पर मंगलश्लोककी
और इस मूत्रलक्षणके माधारपर किया गया वार्तिकका अन्याख्यापर आपत्ति करना कुछ अर्थ नहीं रखता।
लक्षण भी उक्त ग्रंथों के टीकाग्रंथों में--प्रष्टशती, अष्टसहस्री, (ख) मंगलाचरण ग्रंथका मुख्य अवयव (अंग) नहीं युक्त्यनुशासनालङ्कार, न्यायविनिश्चयालंकार मादिमें-व्याप्त है। जहाँसे ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय शुरू होता है और जहाँ होनेसे ये सब भी वार्तिक ग्रंथ न्यायप्राप्त हो जाते हैं। समाप्त होता है वह सब अंश मुख्यत: ग्रंथ कहलाता है। क्योंकि इनमें भी कहीं अनुपपत्ति-परिहार और कहीं विशेषामंगलाचरणमें ग्रंथका प्रतिपाद्य विषय वणित नहीं होता भिधानके रूप में व्याख्यान पाया जाता है। परन्तु ये वार्तिक उसका एक प्रयोजन निर्विघ्नतया ग्रंथकी समाप्ति भी है, है नही, अतएव यही मानना उचित जान पड़ता है कि जियमे मालूम होता है कि ग्रंथ प्रधानतः मगलाचरणके विद्यानन्दने उक्त बार्तिकका लक्षण सूत्रग्रंथों पर लिखे गये बादके और समाप्ति पर्यन्तके लेखसंग्रहको कहते हैं । इस वार्तिकग्रंथोंको ही लक्ष्य करके बनाया है, और इस तरह दृष्टिमे मंगलाचरगा ग्रंथसे उसी प्रकार अलग है जिस प्रकार वह न तो प्रष्टशती आदिमें प्रतिव्यापक होता है और न ग्रंथकी प्रशस्ति । जब वह वस्तुत: ग्रंथसे अलग चीज़ है प्रमाणवार्तिक में अध्यापक । मत: छठा आक्षेप ज्योंका त्यों तब उसपर ग्रंथके व्याख्याकागेको व्याख्या करना अनिवार्य स्थिर रहता है। नहीं है। ग्रंथारम्भके पूर्वमे निबद्ध किया जानेसे वह ग्रंथका ७ प्रत्याक्षेप--'मंगल पुरस्परस्तव' शब्दोंसे अकलंकका आदिम अंश उपचारसे कहा जाता है । अत: उक्त मंगल- अभिप्राय उक्त मंगलश्लोकको सूत्रकार कृत माननेका नहीं है।
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७०
अनेकान्त
[ वर्ष ५
७ समाधान-पुरातनाचार्य श्री विद्यानन्दने अकलंक एक ग्रन्थकारने अज्ञान या प्रमादसे अन्यथा किया है, और के उक्त शब्दोंका जो अर्थ किया है वह जब तक भले प्रकार इस तरह प्रक्लक तथा विद्यानन्द जैसे प्राचार्योंके विन्ही ग़लत साबित नहीं हो जाता तब तक यह नहीं कहा जा वाक्योंका एक जैन या जैनेतर ग्रन्थकार यदि ठीक अर्थ न सकता कि अकलंकका अभिप्राय उक्त मंगलश्लोकको सूत्र- समझकर अन्यथा व्याख्यान करता है तो उसका वह व्याकारकृत माननेका नहीं है। विद्यानन्दके अर्थकी सुसंगतता ख्यान भी यथ.बत व्यार यानकी टिम पाजायेगा। परन्तु और उसका पुष्टंकरण इस लेख में श्रागे किया गया है। ऐसा नहीं है । अतएव तत्वार्थवृत्तिपद-विवरणमे उपलब्ध
प्रत्याक्षेर-'पाति' शब्दका ग्रयोग श्वेताम्बर ब्या- 'अव्यवस्थित व्यायान' या 'निर्देशमात्र' यथावत् व्याख्यान ख्याकारों और उनके ग्रंथोंके लिये क्यिा गया है और नहीं कहला सकता। प्रागे पाँचवें कारणके द्वारा इस मंगलश्लोकके विषयमें उन
१. प्रत्यक्षेप--'इत्यादि' शब्दमे उन युत्तियांका की असाम्प्रदायिक स्थिति प्रकट की गई है।
ग्रहण किया गया है जिन्हें इस लेखम दिया है। रममाधान--यदि दूसरे कारण में श्रादि शब्दके
१० समान--पहिले लेखम उमास्वानिकृत न द्वारा श्वेताम्बर व्याखयाकारों और उनके प्रयाको ग्रहण
होनेके पांच कारण गिनाये गये थे । इस लेख में दसरे करना इष्ट था तो वहीं दिगम्बर श्राचार्यों और उनके प्रथो
वैरी कोई कारण न बतलाकर जिन युनियों की ओर संकेत की सूची में दो एक श्वे. व्याख्याकारी और उनके प्रयाका
किया गया है वे विद्यानन्द की मान्यतामे बाधकरूपसे उपभी नामोल्लेख कर देना उचित था तभी वह उन सबका
स्थित की गई है, उनकी परिगणना उमारातिकृत न होने बोधक हो सकता था। पोचव वारण को पृथक रखकर उस
के का गमें नहीं की जा सकती। श्रतः 'इग्यादि' शब्द के के द्वारा असांप्रदायिक स्थितिको स्पष्ट करनेके साथ साथ
द्वारा उनका ग्रहण क्त्त जाना ठीक नहीं है। जब यह भी कहा गया है कि अमुक-अमुक श्वे. श्राचार्योने उक्त मंगलश्लोककी व्याख्या नहीं की है, तब दूसरे कारण
अनुपपत्तियोंकी अनुपपत्ति में 'पादि' शब्दके द्वारा उन श्वे. व्याख्याकारोंका पुनः उत्तरलेस के शुझमें शास्त्रीजीने 'बुछ अनुपपत्तियां इस निर्देश करना व्यर्थ ठहरता है। दोनों मेंस एको व्यर्थ जरूर उपशीर्षकके नीचे तीन अनुपपत्तियां दी हैं. जो श्रा० करना होगा। अत: पाँचवें कारण की व्यर्थताकी पाशिंका विधानन्दकी मोजमार्गम्य नेता' याति inar करके उसके परिहारका जो प्रय'न किया गया है वह युक्ति- तन्वार्थसूत्रका मंगलाचरण स्वीकार करनेरूप मान्यताको मंगत प्रतीत नहीं होता।
सन्दिग्ध पोटिमें रखकर उपस्थित की गई है और जिनका प्रत्याक्षेप-तत्वार्यवृत्ति-पद-विवरण की जैसी व्या- लक्ष्य प० रामप्रसादजी श्रादिके लेखोकी कुछ बातोका ख्यान-शैली एवं मर्यादा है उसीके अनुसार 'यथावत' उनर देदेना अथवा उनके समक्ष अपने पूर्वलेखकी स्थिति व्याख्यान शब्दका अर्थ लगाना चाहिये। ग्रंथकार जिम्मका को स्पष्ट कर देनामात्र जान पर ता है। क्योंकि लेखमे आगे जिस रूप में व्याख्यान करना चाहता है वही उसका 'यथा- चलकर यह स्पष्टरूपये स्वीकार कर लिया गया है कि वत्' व्याख्यान है।
कि विद्यानन्द उक्त मंगलश्लोकको उमास्वातिक तवार्थसमाधान-- तावार्थवृत्ति-पद-विवरण जब एक सूत्रका मंगलाचरण मानते थे और यह लिखकर कि "इस विवरणग्रन्थ है तब उसमें केवल अव्यवस्थितरूपसे निर्देश मंगलश्लोकको सूत्रकारकृत लिखनेवाले सर्वप्रथम श्रा० करदेनेमात्रको कोई भी विचारक विद्वान् 'यथावत् व्याख्यान' विद्यानन्द हैं" उनकी इस मान्यताके आधारको खोजनेका का रूप नहीं दे सकना । 'यथावत व्याख्यान' की यदि यही प्रयत्न भी किया गया है। ऐसी हालतम शास्त्रीजीके लिये परिभाषा मानी जाय कि "ग्रन्थकार जिसका जिस रूपमे विद्यानन्दकी उक्त मान्यता मन्दिग्ध कोटिमे न रहकर निश्चित व्याख्यान करना चाहता है वही उसका यथावत व्याख्यान वोटिमें आ जाती है और तब उनकी ये अनुपपत्तियों अनुहै" तो वह उस वाक्यार्थमें अतिव्यापक होजाती है जिसे पपत्नियों नहीं रहतीं किन्तु स्वयं ही अनुपपन्न होकर विचार
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
३७१
ताकी
.
.
.
..
के अयोग्य बन जाती हैं-दूसरे विद्वानोंके लिये तब उनके विद्यमानंद-मा
धार विचार अथवा अनुपपत्तिपरिहारकी जरूरत ही नहीं रहती।
अब मैं श.स्सी के लेखकीयांशष्ट दो बातों को भी अन्यथा, यह नहीं हो सकता कि इधर तो शास्त्रीजी विद्या- लेता
। विद्याः लेता है जो उन्होंने नई उपस्थित की हैं और जिनमेंसे नन्दकी मान्यताको नि श्चतरूपमें स्वीकार करें और उधर
(१) एक है विद्यानन्द की मान्यतामें पूर्वपरम्परामा प्रभाव उप मान्यता अनुपपत्तियां उपस्थित करें। इस प्रकार की की प्रवृत्ति लेखमें कथनके पूर्वापर-विरोधको प्रदर्शित करती
इन दोनों बातों के द्वारा शास्त्रीजीने प्राचार्य विद्यानन्दकी है। इसीसे निश्चित मान्यताकी मौजूदगीमें शास्त्रीजीके
उक्त मंगल श्लोक-विषयक सिद्ध मान्यताके महत्वको कम "पर मेरी तो यह अनुपपत्ति थी जो अब भी कायम है"
करनेके लिये यह बतलानेकी चेष्टा की है कि विद्यानन्दको "तो भी अभी प्रश्न अवशिष्ट रह जाते हैं जो इम (विद्यानन्द
अपनी इस मान्यताके लिये पूर्वाचार्य-परम्पराका कोई की) मान्यतामे अनुपपत्ति उत्पन्न करते हैं" 'पर प्रश्न तो
समर्थन प्राम नही थ', वह उनकी निजी मान्यता एवं यह है कि ये (विद्यानन्द) उमे । मङ्गलश्लोकयो) स्पष्टतः
गलत धारणा है जो अकलंककी अष्टशतीके एक वाक्यके नन्वार्थ नृत्रका अंग भी मानते थे क्या ?" इस प्रकारके शब्द
आधार पर-उसका गलत अर्थ करके-बना ली गई है। बहुत ही खटकते हुए जान पडने हैं । अतः अनावश्यक
और इस लिये यह नहीं कहा जा सकता कि प्रा. विद्यासमझकर अनुपपत्तियों के विचारतो यहाँ छोड़ा जाता है।
नन्दने 'मोतमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगल श्लोकको जो वैसे भी उक्त अनुपपत्तियों विषयके पिष्टपंषणको ही लिये
उमास्वाति के तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण प्रतिपादन किया है हुए है--उनपे अधिकाश बात तो पूर्वविचारित ही हैं.
वह वास्तवम तन्वार्थसूत्रका मंगलाचरण है या कि नहीं। जिम्ह फिर दोहरा-दोरावर कुछ परिवर्तित रूपमें रख
इमपरमं अनेक प ठकोंको यह देखकर आश्चर्य होगा कि दिया गया है और कुछ विद्यानन्दकी व्याख्यापद्धति जैसी
| जिन विद्यानन्द स्वामीको सूक्ष्मप्रज्ञ' बतलाया जाता है, बात ऐसी भी हैं जिन्हें लेखमे बार बार दोहराया गया है
जिन्हें स्वय शास्त्रीजीने न्यायकुमुदचंद्र-द्वितीय भागकी और जिन पर इसमे पूर्व 'प्राक्षेप-परिहार-समीक्षा' शीर्षकके
प्रस्तावनाम 'अनुल तलस्पी पाण्डित्य और सर्वतीनीचे कितना ही विचार प्रस्तुत किया जा नुका है और
मुख अध्ययन के धनी तक प्रवट किया है और जिनके उसके द्वारा उन्हें भले प्रकार निःसार प्रमाणित भी किया वचनाको प्रमाण मानकर श स्त्रीजी ने उनके श्राधारपर कुछ ही जा चका है। सी स्थितिमें मेरे लिये उन अनुपत्तियो पर समय पूर्व यह सिद्ध करनेका प्रयत्न किया था कि विद्यानंद विचार करना और भी अनावश्यक होजाता है। मैं नहीं ने उक्त मंगलश्लोकको श्रा०पूज्यपादक द्वारा तस्वार्थशास्त्रकी चाहता कि व्यर्थके पिष्टपेषण-द्वारा अपना तथा पाठकोंका भमिका बाधने समय सर्वार्थसिद्धिक मंगल रूपमें रचा हुश्रा समय नष्ट करूं।
बतलाया है, उन्ही विद्यानन्द स्वामीको शास्त्रीजी श्राज, हां, यदि शान्त्रीजी अपनी स्वीकृत मान्यता
अपने उस प्रयन्नमे असफल होनेपर, संदेहकी दृष्टिस देखने को वापिस ले लेंगे और फिरये यह कहने लगंगे कि 'पा. लगे हैं, याचार्य विद्यानन्द उस वाक्यका सीधा-सरल
अर्थ न समझकर गलत अर्थ करनेमे प्रवृत्त हुए हैं ऐसा विद्यानन्द उक्त मंगलश्लोकको उमास्वामिकृत तत्वार्थमूत्रका
प्रतिपादन करने लगे हैं, और इस तरह उनकी मान्यताके मंगलाचरण नही मानते थे' तो मैं उक्त तीन अनुपपत्तियों
महत्वयो कम करनेकी चेष्टामे लगे हैं । परन्तु नहीं, इसमें पर ही नहीं किन्तु और भी जो अनुपपत्तियाँ वे उपस्थित
श्राश्चर्य करनेकी ऐसी कोई बात नहीं है,-विद्वानों को जब करेंगे उन सब पर व्यवस्थित रूपसे विचार करनेके लिये
कोई नई बात उपलब्ध होती है तभी वे उसे प्रकट करते हैं खुशीके साथ प्रस्तुत हो जाऊँगा । और तब उनकी विद्यानंद
तदनुम्मार शास्त्रीजीको हाल में जो नई बात उपलब्ध हुई है की मान्यताके आधार वाली नई खोजकी बात व्यर्थ पद
उसे उन्होंने विचारकोंके सामने रखा है। अब उसपर जायगी-उसे ये उपस्थित ही नही कर सकेंगे। अस्तु । विचार करना ही विद्वानोंका कर्तव्य है।
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
अनेकान्त
[वर्ष ५
हाँ, विचार करते समय शास्त्रीजीने जो ढंग अख्तियार का व्याख्यान करते हैं। यह उनकी व्याख्यापद्धति है।" किया है उस परसे यह आशंका जरूर हो सकती है कि, "इसी तरह प्रकलंकदेव राज्यार्तिकमें तस्वार्थसूत्रके प्रत्येक हम अपने विचार-द्वारा शास्त्रीजीको सन्तुष्ट कर सकेंगे या अंशका या तो वार्तिक बनाकर या उन (उस ?) का सीधा कि नहीं? क्यों कि अभी शास्त्रीजी कई शताब्दी पूर्वके ही विशद व्याख्यान करते हैं।" इसके सिवाय, सर्वार्थसिद्धिबालचन्द्र योगीन्द्रदेव और श्रुतसागरादि टीकाकारोंके विषय की भूमिकामें तत्त्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति एक भब्यके प्रश्न पर में कहते थे कि उन्होंने उक्त मंगलश्लोकको उमास्वामिकृत बतलाई है, “भूमिकाके अनुसार यदि तत्वार्थसूत्रकी भव्यके तत्त्वार्थसत्रका जो मंगलाचरण बतलाया है वह उनकी प्रश्नके अनुसार उत्पत्ति हुई है तो सूत्रकारको मंगलाचरण माधुनिक कल्पना है-उन्हें उसके लिये पूर्वपरम्परा प्राप्त करनेका कोई अवसर या प्रसंग नहीं था"। "मूल तत्वार्थसूत्र नहीं थी, जब उन्हें विद्वानोंके स्पष्टीकरण-द्वारा विद्यानन्द की कुछ प्रतियोमे यह श्लोक भी नहीं है।" अतः विद्यानन्द तककी पूर्वपरम्परा प्राप्त होगई तब विद्यानन्द-मान्यतादी को अपनी मान्यताके लिये पूर्वपरम्परा प्राप्त नहीं थी। पूर्वपरम्पराका प्रश्न सामने लाया गया है। यदि किमी इस युक्तिवादके पिछले दो अंश पूर्वपरम्पराके विचार विद्वानने विद्यानन्द-मान्यताकी पूर्व परम्परा भी बतलादी तो के साथ कोई ग्वास सम्बन्ध नहीं रखते । मूलतत्त्वार्थसूत्रकी फिर उन दूसरे उत्तरोत्तर प्राचार्योंकी मान्यताका प्रश्न कुछ प्रतियोंमें इस मंगलश्लोकका न पाया जाना प्रकृत विषय उठाया जायगा, और इस तरह जब तक उक्त मंगलश्लोक पर कोई असर नहीं डालता-खामकर ऐसी हालतमें जब को टीकासहित उस श्वे. भाष्य में नहीं दिखला दिया जायगा कि उनकी प्राचीनताका द्योतक समयका उल्लेख भी साथमे जिसे शास्त्रीजी "स्वयं सत्रकारका स्वोपज्ञ भाप्य" न हो और अधिकांश प्रतियों में यह मंगल श्लोक पाया जाता प्रसिद्ध बतलाते हैं तब तक शायद वे सन्तुष्ट नहीं हो सकेंगे। हो। रही भव्यके प्रश्न पर तत्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति, इसके परन्तु ऐसी आशंका करके वर्तव्य-पालनमें शिथिल होना विषयमें प्रथम तो शास्त्रीजी खुद संदिग्ध हैं इसीसे 'यदि' व्यर्थ है--शास्त्रीजीका सन्तुष्ट होना न होना उनके प्राधीन शब्दका साथमें प्रयोगकर रहे हैं। दूसरे, तत्वार्थसूत्र प्रश्नोत्तर है, विद्वानोंको विचारक्षेत्रमें अपने कर्तव्यको ज़रूर पूग के रूपमे नहीं है--प्रश्नोत्तर रूपमे होनेपर उसमें उत्तरोंके करना चाहिये । यही सब सोच कर मैं शास्त्रीजीकी युक्तियों साथ प्रश्न भी रहने चाहिये थे, परन्तु प्रश्न तो दूर रहे, के निर्देशपूर्वक उन दोनों बातों पर अपना विचार प्रस्तुत प्रथम दो प्रश्नोंके उत्तर भी साथमे नहीं हैं। ग्रन्थकी सूत्रकरता हूं।
प्रकृतिको देखते हुए, सर्वार्थ सिद्धिकी भूमिकामे ग्रन्थावतार (१) पूर्वपरम्परा-विचार--
का जो सम्बन्ध व्यक्त किया गया है उसका इतना ही पहली बात पूर्वपरम्पराके अभाव-सम्बन्धमें प्राशय जान पड़ता है कि किसी भव्यके प्रश्नको लेकर शास्त्रीजीने जो युक्तिवाद उपस्थित किया है उसका सार और सभी भव्य जीवोंको लक्ष्य करके प्राचार्य महोदयने इतना ही है कि विद्यानन्दको तत्वार्थसूत्र पर अपने स्वतंत्र रूपसे इस ग्रन्थरत्नको रचना की है-यह प्राशय पूर्ववर्ती प्राचार्यों के दो ही टीकाग्रन्थ उपलब्ध थे एक प्रा. कदापि नहीं लिया जा सकता कि उस भव्य तथा प्राचार्य पूज्यपादकी 'सर्वार्थसिद्धि' और दूसरा श्रीभकलंव देवका महोदयके मध्य में जो साक्षात् प्रश्नोत्तर हुआ था उसीके 'राजवार्तिक', इन दोनों टीकाग्रंथोंमे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' उत्तर-भागको किसीने क्रमश: निबद्ध कर दिया है। तीसरे, इत्यादि मंगलश्लोककी कोई व्याख्या नहीं है, राजवार्तिको अवतार-कथा कुछ भिन्न प्रकारसे भी पाई जाती है। और इसका निर्देश तक भी नहीं है। यदि यह मंगलश्लोक चौथे, राजवार्तिकमें श्रीअकलंकदेव "अपरे पाराती याः"। तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण होता तो पूज्यपाद और अकलंक- नाऽत्र शिष्याचार्य सम्बन्धोविवक्षितः। किन्तु " इति निश्चित्त्य देव इसकी व्याख्या जरूर करते, क्योंकि "प्रा० पूज्यपाद मोक्षमार्ग व्याचिख्यासुरिदमाह।" इत्यादि इन प्रथम सूत्रके सर्वार्थ सिद्धि में तस्वार्थसूत्रके किसी भी अंशको बिना पीठिकावाक्योंद्वाराप्रश्नोत्तररूपसम्बन्धके प्रभावका भी सूचन याख्या और उत्थानके नहीं छोड़ते वे उसके एक एक शब्द करते हैं। अत: मंगलाचरणको अनवसरप्राप्त तथा अप्रा.
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
फिरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
३७३
संगिक नहीं कहा जा सकता और न ऐसा कहकर विद्यानन्द युक्तिसंगत नहीं है। और इसीतरह मात्र इन दो टीकाग्रंथों की मान्यताके लिये पूर्वपरम्पराका अभाव ही बतलाया परसे विद्यानन्द-मान्यताकी पूर्वपरंपराको खोजना भी युक्तिजा सकता है।
युक्त नहीं है। मान्यताकी पूर्वपरम्पराके लिये दूसरे टीकाअब रह जाता है युक्तिवादका प्रथम प्रधान अंश, इस
ग्रन्थ, तस्वार्थटीकायोमे भिन्न दम्रे ग्रन्थ, जिनमें प्राप्तके सम्बन्धमे मेरा निवेदन इस प्रकार है:
परीक्षादिकी तरह तत्वार्थसूत्रके मंगलाचरणका उल्लेख हो, प्रथम तो यह कहना ठीक नहीं कि प्रा. विद्यानन्दको
और अपने साक्षात्गुरु, दादागुरु तथा समकालीन दूसरे सर्वार्थ सिद्धि और गजवातिक ये ही दो टीकाग्रन्थ उपलब्ध
वृद्ध प्राचार्योसे प्राप्त हुभा परिचय ये सब भी कारण हो थे क्योंकि ऐसा कहना तभी बन सकता है जब पहले यह
सकते हैं । इनके सिवाय, अपने समयसे ५००-७०० वर्ष सिद्ध कर दिया जाय कि विद्यानन्दसे पहले तन्वार्थसूत्रपर
पहले की लिखी हुई मूल तस्वार्थसृग्रकी ऐसी प्रामाणिक इन दो टीकाग्रन्थोंके सिवाय और किसी भी दिगम्बर टीका
प्रतियों भी उस मान्यतामें कारण हो सकती हैं जिनमें उक्त ग्रंथकी रचना नहीं हुई थी। परन्तु यह सिद्ध नहीं किया
मंगलश्लोक मंगलाचरण के रूप में दिया हुआ हो । इतनी जा सकता, क्योकि अनेक शिलालेखो श्रादि परसे यह प्रकट
पुरानी--प्रा. उमास्वातिके समयतककी प्रतियोंका मिलना है कि पूर्वम दृसर भी टीकाग्रन्थ रचे गये हैं, जिनमें से एक
उस समय कोई असंभव नहीं था । आज भी हमें अनेक तो वही हो सकता है जिसका राजवातिकम प्रथम सूत्रके
ग्रन्थोंकी ऐसी प्रतियां मिल रही हैं जो अबसे ६००-७०० अनन्तर 'अपरे भारातीयाः' इत्यादि वाक्यों के द्वारा सूचन
वर्ष पहलेकी लिखी हुई हैं । ऐसी हालतमें मात्र सर्वार्थपाया जाता है। दूसरा स्वामी समन्तभद्रके शिष्य शिवकोटि प्राचार्य का टीकाग्रन्थ है, जिसका उल्लेख श्रवणबेलगोलके
सिद्धि तथा राजवातिकको विद्यानन्द-मान्यताकी पूर्वपरंपरा
के निर्णयका आधार बनाना अापत्तिसे खाली नहीं है। शिलालेख नं० १०५ के निम्न वाक्यमे पाया जाता है और जिसमे प्रयुक्त हुश्रा 'एतत' शब्द इस बातको प्रकट करता दूसरे, मर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिकमें उक्त मंगलहै कि यह श्लोक उसी टीकाग्रंथका वाक्य है और वहीये श्लोककी टीकाका न होना इसके लिये कोई बाधक नहीं है लिया गया है
कि उक्त मंगलश्लोक तत्वार्थका मंगलाचरण है और न "तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसरिस्तपोलतालम्बनदेहयषित। इसके लिये कोई माधक ही है कि विद्यानन्दकी मान्यताको संमारवाराकरपोतमेतत्तत्त्वार्थसत्रं तदलंचकार" पूर्वपरम्पगका समर्थन प्राप्त नही था, क्योंकि टीकाकारोंके यह भी नही कहा जा सकता कि उन दूसरे टोकाग्रंथी लिय यह है
लिये यह लाजिमी नही है कि वे मंगलश्लोककी भी व्याका विद्यानन्दको उपलब्ध होना असंभव था. क्योंकि उप. ख्या कर--खामकर ऐसी हालत में उनके लिये व्याख्या लब्धिमे अभवताका कोई कारण प्रतीत नहीं होता।
करना और भी अनावश्यक होजाता है जबकि उन्होंने मूल सभावना तो यहाँ तक भी होती है कि गुरुको जो ग्रन्थ
के मंगलाचरणको अपनाकर उसे अपनी टीकाका मंगलाउपलब्ध न हो वह शिष्यको उपलब्ध हो जाय, जैसे कि चरण बना लिया हो। सर्वार्थसिद्धि ऐसा ही टीकाग्रंथ है प्रमाणसंग्रहादि जो ग्रन्थ पं० गोपालदासजीको उपलब्ध जिम्ममे मूलके मंगलाचरणको अपना लिया गया है और नही थे वे श्राज नई खोजके कारण उनके शिष्योंको उप. राजवार्तिक ऐसी ही मूत्रवार्तिकरूप टीकाप्रकृतिको लिये लब्ध होरहे हैं। और इसलिये संभव तो यह भी है कि हुग है जो मंगलाचरणकी व्याख्याको अनावश्यक कर देती जो टीकाग्रंथ पूज्यपाद तथा अकलंकको प्राप्त न हो वह है। इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण एवं पुष्टीकरण मैंने विद्यानन्द के सामने मौजूद हो। अतः अपनेको उपलब्ध इन अपने प्रथमलेखमें कर दिया है और रहा-सहा इस लेखमें दो टीकाग्रन्थों परसे यह कल्पना कर लेना कि विद्यानन्दको 'आक्षेप-परिहार-समीक्षा उपशीर्षकके नीचेकर दिया गया है भी ये ही दो टीकाग्रन्थ उपलब्ध थे-इनसे पुराना अथवा अतः यहाँ पर उसको फिरसे दोहरानेकी जरूरत मालूम इनके समकालीन दुसरा कोई टीकाग्रन्थ उपलब्ध नहीं था- नहीं होती।
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७४
अनेकान्त
[वष ५
तीमरे, सर्वार्थ मिन्द्वि और राजवार्तिक्में मंगलाचरण की चरण अथवा सूत्रकार कृत नहीं लिखा है, तभी वे यह व्याख्याको आवश्यक बतलाते हुए जो हेतु दिया है-मूल प्रतिपादन करनेमे समय हो सकते हैं कि "इस मंगल श्लोक के किसी भी अंश अथवा शब्दको विना व्याख्याके न को सूत्रकार कृन लिखनेवाले सर्वप्रथम श्रा० विद्यानन्द हैं।" छोड़नेरूप व्याख्यापद्धतिको हेनुरूप प्रस्तुत किया है वह साथ ही, यह भी बतलाना होगा कि श्रा० विद्यानन्दकी पक्षाव्यापक एवं सदोष है, क्योंकि इन दोनों ही टीका ग्रन्थोंम शुद्ध मनोवृत्तिपर जो यह गंभीर आरोप अथवा लांछन मलके कितने ही पद-वाक्य तथा शब्द अव्याख्यान हैं और लगाया गया है कि उन्होंने यह जानते हुए भी कि कितने ही सूत्रोंके उत्थान-वाक्य भी माथमे नही हैं; जैसा उनकी उफ. मंगल नोक-विषयक धारणाको पूर्वाचार्यपरंपरा कि पहले इसी लेखमे 'माक्षेप परिहार-समीक्षा' उपशीर्षकके का समर्थन प्राप्त नहीं है, कुछ कारण सम 'प्रबल बाधक नीचे प्रत्यासेपनं. ५ ६ के समाधानोंमे स्पष्ट करके बत- हैं और यह 'पर्याप्त बलवनी' भी नही है, फिर भी उसे लाया जा चुका है। फिर मंगलाचरणकी व्याख्याकी तो अन्यत्र प्राप्तपरीक्षादिके द्वारा (और पकारान्तरसे शोकवात्तिक बात ही क्या है, जो ग्रन्थका प्रधान अंग नहीं होता, और के द्वारा भी) चलानेका प्रयत्न किया है. इसके लिय शास्त्रीजीके इसलिये जिसकी व्याख्या करना कोई अनिवार्य (लाज़िमा) पास क्या प्राधार है? क्या वे इसमे विद्यानन्दके निजी कार्य भी नहीं होता, बल्कि उसका करना-न करना च्या- स्वार्थादिक विम्मी प्रेरक कारणको बतला सकते हैं और ख्याकारोंकी रुचिविशेषपर अवलम्बित रहता है। यह भी बतला सकते हैं कि जब श्रा० विद्यानन्द अपनी
इस तरह पहली बातके समर्थन में जो युक्तिवाद उप- मान्यताका अन्य ग्रन्या द्वारा खुला प्रचार कर रहे थे तब स्थित किया गया है वह निदोष न होकर दोषोंमे परिपूर्ण उन्हें श्लोकवार्तिक में उक श्लोकको नम्वार्थस्यका अंग है-श्राचार्य विद्यानन्दकी मान्यताके विषयमे पूर्वपरम्पराके मानकर उसकी खुली व्याख्या करने में किस बातका भय प्रभावको सिद्ध करने में समर्थ नहीं है । और इसलिये उपस्थित था? और वह भय खुली व्याख्या न करनेमात्रये मान्यताके आधार पर विचार करते हुए उसकी भूमिकामे कैसे दूर होगया. जबकि विद्यानन्दजी लोकातिकमें ही शास्त्रीजीने जो यह प्रतिपादन किया है कि 'उक्त मंगल- प्रकारान्तरमे उसकी व्याख्या कर रहे हैं और उसकी सूचना श्लोकको सूत्रकारकृत लिखने वाली 'सर्वप्रथम' श्राचार्य भी अपनी बात परीक्षा-टीदाम दे रहे हैं । यदि शास्त्रीजी विद्यानन्द हैं, उन्हें जब अपनी धारणाके पक्षम पूर्वाचार्यों यह मब नहीं बतला सकेंगे तो उनका उक्त प्रतिपादन की परम्परा नहीं मिली और नोकवातिकमे उस श्लोक्का केवत्व प्रतिपादन ही रहेगा और इसलिये विदृष्टिम उम व्याख्यान करना प्रबल बाधक जेंचा तो वे अन्य प्रकारमे का कुछ भी मल्य नहीं हो सकेगा। उसके पदोंकी व्याख्या कर जानेपर भी नावार्थसूत्रके अंग. () आधार-विचार-- रूपसे उसे अव्याख्यात रखनेके कार्यमें पूज्यपाद श्रीर अक- अब ग्ही दसरी मान्यताके श्राधार वाली बान, शास्त्री लंक प्रादिक शामिल होगये हैं, इसमें कुछ भी सार नहीं जी यह स्वीकार करके कि "यह तो विद्यानन्द जैसे प्राचार्य है। ऐसा प्रतिपादन करके शास्त्रीजीने जाने-अनजाने एक के लिये कम सम्भव है कि वे ऐसी धारणा बिना किसी ऐसी भारी जिम्मेवारी को अपने ऊपर ले लिया है जिसका पूर्वाचार्यवाक्य के अवलम्बनके बना लेते," अवलंबकी अष्ट निर्वाह करना उनकी शकिसे बाहरकी चीज़ है, क्योंकि शतीके निम्न वाक्यको विद्यानन्दकी उग धारणा-मान्यताऐसे प्रतिपादनकी समीचीनता श्रथवा यथार्थताको व्यक्त का श्राधार बतलाते हैंकरने के लिये उन्हें यह बतलाना होगा कि प्रा. विद्यानन्द "देवागमेत्यादि मंगलपुरम्मरस्तवविषय परमान के सामने मूल तथार्थसूत्रकी जो प्रतियों थीं, जो दूसरी गुणातिशयपरीक्षामुपक्षिातैव म्वयं ." टीकाएँ थीं और तवार्थसूत्रके उल्लेम्व-विषयक जो दूसरा इस वाक्ससे ठीकपूर्ववर्ती दो मंगल पथोंमे अक्लंकर साहित्य था उस सब सामग्रीको उन्होंने देख लिया है और ने क्रमशः अहरसमुदयकीनद्वाणीकी और समन्तभद्दकी स्तुति उसमें कहीं भी उन्क मंगलश्लोकको तम्वार्थसूत्रका मंगला- करके समन्तभद्रकी एक कृनिकी वृनि लिम्बनेकी प्रतिज्ञाकी है
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १० ११]
तत्वार्थसूचका मङ्गलाचरण
३७५
-
और उस कृतिको भगवानका स्तव बतलाते हुए उसका पुरस्सरस्तवविषय' और परीक्षाके स्वीकार द्वारा प्रस्थकार नाम 'देवागम' दिया है, जोकि 'देवागम' शब्दसं प्रारम्भ श्रीसमन्तभद्रका श्रद्धा-गुणज्ञता-लक्षणरूप प्रयोकन इन होनेके कारण भकामरादि स्तोत्रोंके नामोंकी तरह सार्थक जान तीनों बातोंको सूचित विया है-अर्थात् यह बतलाया है पड़ता है। प्राचार्य विद्यानन्दने भी समन्तभद्रकी उस कृति कि प्राचार्य श्रीसमन्तभद्र ने देवागम इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा पर प्रष्टसहस्री नामकी एक अलंकृति (टीका) लिखी उस परम-प्राप्त देवके गुणातिशयकी परीक्षाको स्वीकार किया है जिसके प्रारंभिक एक ही मंगलपद्यमे उन्होंने है जो मंगलाचरगा के निमित्त रचे गये स्तवनका विषयभूत जिनेश्वर समुदाय और उनकी वाणीके साथ
है और उनकी इस परीक्षासे यह स्पष्ट है कि वे प्रासके
की समन्तभद्रकी स्तुति करके उनकी उम्प कृति पर अलं
गुणों के ज्ञाता थे और उक्त स्तवनप्रतिपादित-गुणोंसे विशिष्ट कृति लिम्बनेशी प्रतिज्ञा की है घर कृतिका नाम 'प्राप्तमीमां
श्राहमे श्रद्धा रखते थे। साथ ही यह भी प्रकट किया है सितम्' दिया है, जोकि उस कृतिको अन्तिम कारिका
कि श्रद्धा और गुण ज्ञता इन दोनोमेसे किसी एकके भी 'इतीयमाप्तमीमांसा' में दिये हुए नामके अनुकत्ल है। साथ
न होनेपर परीक्षाग्रंथकी उत्पत्ति बनती ही नहीं, क्योंकि ही नाममें प्रयुक्त हुए 'याप्त का विशेषण शास्त्रावतार
शामान्यायानुसारिता (श्रद्धा) से- स्वरुचिविरचितरवका परिरचित-स्तुति-गोचर' दिया है। यहाँ पर मैं इतना और भी
हार होनेसे-परीक्षाग्रन्थ मे उसी प्रकार विषयका उपन्यास बतला देना चाहता कि विद्यानन्द ने अपनी अष्टसहस्रीमे
(प्रस्ताव) होता है जिस प्रकार कि वह पूर्वशाखमे पाया अकलंककी अष्टशनीको पूर्णतः अपनाया है और उसका
जाता है। विद्यानन्दने प्रशतीके उक्त अंशको अपनाकर मूलत: अनुसरण करते तथा अपने क्थनका अष्टशतीसे
तदन्तर प्रयुक्त हुए 'इत्यनेन' जैसे शब्दोंके द्वारा अकलंक्के समर्थन करते हुए अकलंकके हार्दको व्यक्त करने और उनके
इसी श्राशयको और भी व्यक्त करते हुए अपने और अकप्रतिपाद्य विषयको पूर्वाचार्य-परम्पराकी मान्यनानुसार स्पष्ट लंके शब्दविन्यासकी एकाभितके नाते जो तुलना की है करने तथा मगत बिठलानेका भी पूरा प्रयत्न किया है। उसमें बतलाया है किऔर इस सब प्रयानके द्वारा वे स्वामी समन्तभद्र की कृतिको “मंगलपुरस्मरस्तवो हि शास्त्रावताररचितस्तति अलंकृत करने में प्रवृत्त हुए हैं। चुनौचे अपने मंगल पद्यके रुच्यते । मंगल पुरस्सरमस्येति मगलपुरस्सरः शालाविषयका स्पष्टीकरण करते हुए द्यिानन्दने, "तात्त- वतारकालान रचितः स्तवो मंगलपुरस्मरस्तवः इति कारपि तत वाद्दीपीकृतेत्यादिना तत्संस्तवविधनान्” व्याख्यानात।" इस वाक्यके द्वारा यह बतलाकर कि वृत्तिकार अकलंकदेवने अर्थात-मंगल पुरस्सरस्तव ही शास्त्रावतार रचितस्तुति भी इसीलिये 'उद्दीपीकृत इन्यादि पद्योक द्वारा बहसमुदाय कहा जाता है। क्योंकि मंगल है पुरस्सर जिसके ऐसा जो नवाणी और समन्तभद्रके स्तवनका विधान किया है, शास्त्रावतार काल वह 'मंगल पुरस्पर' कहलाता है और उस तदनन्तर अष्टशती वृत्तिके 'देवागमेन्यादि' उस श्राद्य वाक्य शास्त्रावतार काल के अवसर पर रचा गया जो स्तव स्तोत्र है को दिया है जिसे शास्त्रीजीने उपर्युक्त प्रकारमे अधूरा उद्धृत उमे 'मंगल पुरस्सरस्तव' कहते हैं, ऐया 'मंगलपुरस्परस्तव करके विद्यानन्नकी तत्वार्थशास्त्रके मंगलाचरण-विषयक पदका व्याख्यान है।
'मंगलपुरस्परस्न पदके इस न्यायानको शास्त्रीजी मान्यताका एकमात्र प्राधार बतलाया है और जिसका (बिन्दुस्थानीय) शेष अंश इस प्रकार है
'अर्थ' तथा 'अनुवाद' नाम देकर और अर्थ-अनुवाद तथा "श्रद्धा-गुणाज्ञतालक्षणं प्रयोजनमाक्षि लक्ष्यते। व्याख्यानमे कोई भेद न करके सीधा अर्थ' तथा 'सीधा नदन्यतरापायेऽथेस्यानुपपनेः । शाखन्यायानुसास्तिया अनुवाद' न करना बतलाते हैं। यद्यपि शाषीजीने स्पष्टरूपतथैवोपन्यासान।"
से यह नहीं लिखा कि विद्यानन्दने अर्थ करने में गलती की, इस पूरे वृत्तिवाक्य द्वारा अकलंकने मूलग्रंथका नाम उनका अर्थ वस्तुस्थितिके विपरीत है अथवा 'देवागम', देवागमके द्वारा जिस परमश्राप्तकी गुणातिशय- वह किसी तरह बनता ही नहीं, बल्कि अन्यपदार्थपरीक्षाको स्वीकृत किया गया है उसका विशेषण 'मंगल- प्रधान बबीहि समासके द्वारा वैसा अर्थ बनता जरूर है
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७६
अनेकान्त
[ वर्षे ५
इसे स्पष्ट स्वीकार किया है, फिर भी यह अर्थ सीधा नहीं, पाँचवे, देवागम स्वय प्रक्लंककी दृष्टिमे सीधा अर्थ पूर्वपद्यक अनुसन्धानसे दूसरा ही निकलता है भगवस्तोत्र ("भगवतां स्तवः") है और भगवत्स्तोत्र सारा
और उस दूसरे- अपने द्वारा प्रस्तुत किये गये सीधे- ही मंगलरूप होता है तब अक्लंकके विषयमें यह कहना अर्थको देकर प्रकारान्तरसे यह सूचित किया है कि विद्यानंद कि वे 'देवागम आदि पदोंको मंगलार्थक मानकर देवागमने सीधा अर्थ न करके जो गलती खाई है उसीका यह परि. स्तवके सम्बन्धमें मंगलशून्य होनेकी आशंकाका निराकरण णाम है कि वे उक्त मंगलश्लोकको तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण कर रहे हैं निर्रथक जान पड़ता है। बतता रहे हैं। प्रस्तु, शास्त्रीजीने प्रशतीके उक्त वाक्यका छठे देवागम प्राप्तमीमांसाके नामके साथ मूलत: एक जो सीधा अर्थ प्रस्तुत किया है वह इस प्रकार है
परीक्षाग्रन्थ है, जिसमें प्राप्त परीक्ष्य है और वह परीक्षाके "देवागम आदि मंगलपूर्वक किया गया जो स्तव अनंतर ही स्तुतिका विषय बनाया जासकता है-पहले नहीं: अर्थात् जिसमें देवागम नभोयान श्रादि मंगलसूचक पद चुनींचे देवागम द्वारा परीक्षाको समाप्त करके स्वामी समन्तविद्यमान हैं ऐसा जो स्तव उस देव गमस्तबके विषयभूत भद्रने युक्त्यनुशासनमें उन परमश्राप्त वीरभगवानको अपनी परमप्राप्तके गुणातिशयकी परीक्षाको स्वीकार करने वाले स्तुतिका विषय बनाया है जिन्हें देवागमकी प्रथम कारिकामे ग्रन्थकार..."
प्रयुक्त हुए 'नातस्त्वमसि नो महान्' जैसे शब्दोंके द्वारा इस अर्थके द्वारा शास्त्रीजीने जहाँ यह सुझानेका प्रयत्न परीक्षाके पहले 'महान्' प्रतिपादन नहीं किया था, जैसा कि किया है कि समन्तभद्र के सामने दूसरा ऐसा कोई शास्त्र युत्तयनुशासनकी प्रथम कारिकामें प्रयुक्त स्तुतिगोचरत्वं नहीं था जिसके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' जैसे मंगलाचरणमें निनीषवः स्मो वयमद्यवीरं' जैसे शब्दोंमे प्रकट है. जिनमें पाये हुए प्राप्तके गुणोकी इस 'देवागम' ग्रन्थमें परीक्षा की 'अद्य' परीक्षावसानसमयका द्योतक है और चौथी कारिकामें गई हो बल्कि स्वयं यह देवागमग्रन्थ प्राप्तकी परीक्षाको 'महानितीय प्रतिवक्तुमीशाः' जैसे शब्दोंके द्वारा उन्हें स्पष्टतया लिये हुए होने तथा स्तव कहा जानेसे उस 'स्तव' शब्दका 'महान्' भी घोषित किया है। यह सब स्थिति तीक्ष्णदृष्टि भी वाच्य है जो 'मंगलपुरस्सरस्तव' पदमें प्रयुक्त हुश्रा है। अकलंकदेवकी आँखोंसे ओझल नही थी, तब अकलंकके वहाँ बादको 'अतः' शब्दके प्रयोग द्वारा निष्कर्ष निकालते लिये यह संगत ही मालूम नहीं होता कि वे ऐसे परीक्षाहुए यह भी फलित करना चाहा है कि-"अकलंकदेव ग्रन्थमं प्राप्तके स्तवनादिरूप किमी मंगलाचरणकी श्राकांक्षा देवागम श्रादि पदोंको मंगलार्थक मानकर देवागमस्तवको अथवा अाशंका करें और उसे न देख कर प्रथम पद्यमें पडे मंगलशून्य होनेकी आशंकाका निराकरण कर रहे हैं।" हुए 'देवागम' 'नभोयान' जैसे शब्दोंके द्वारा उसकी पूर्ति परन्तु शास्त्रीजीकी ये दोनो ही बात समुचित प्रतीत नहीं करनेका प्रयत्न करें। होती। क्योंकि प्रथम तो जब तक प्राप्तका कोई गुणस्तोत्र
- श्रीविद्यानन्द प्राचार्य ने भी युक्त्यनुशास्नकी टीकामे 'अद्य' सामने न हो तब तक प्राप्तके उन गुणोकी परीक्षामें प्रवृत्ति
शब्दका वाच्य 'अस्मिन् काले परीक्षावसानसमये' दिया है। ही नहीं होती।
और प्रथम कारिकाकी प्रस्तावनामे स्पष्टरूपसे यह स्वीकार दसरे, वह श्रद्धा भी चरितार्थ नही होती जिसे अकलंक किया है कि 'प्राप्तमीमामा (दवागम) के द्वाग व्यवस्थापित ने परीक्षामें एक आवश्यक प्रयोजनक तौरपर स्वाकार किया। श्राप्तकी स्तुतिरूपमें यह ग्रन्थ उसके अनन्तर रचा गया है।
तीपरे, प्रकलंकके 'शास्त्रन्यायानुसारितया तथैवोपन्यासात' ये दोनों पद व्यर्थ जान पड़ते हैं।
"श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिभिरातमीमामायामन्ययोगव्यवचौथे, देवागमके प्रारम्भमें ऐसा कोई मंगलाचरण भी च्छेदाद् व्यवस्थापितेन भगवता श्रीमताहनाऽन्त्यतीर्थकरनहीं जिसमें वर्णित प्राहके स्वरूपको लेकर ही अगली परमदेवेन मा परीक्ष्य विचिकीर्पयो भवन्तः ? इति ते पृष्टा कारिकाओंमें उसकी परीक्षाको गई हो।
इव प्राहुः..."।
Page #404
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०११]
तत्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण
३७७
सातवें, अकलंकदेवकी ऐसी प्रकृति और प्रवृत्ति ही नहीं है। दूसरे ऐसा कहनेमे विद्यानन्दका तलस्पर्शी पाण्डित्य पाई जाती कि वे मगलाचरण शून्यताकी श्राशका करके और सर्वतोमुख-अध्ययन, जिसे शास्त्रीजीने स्वीकार किया उसके निराकरणका प्रयत्न करे अथवा किसी तरह मंगला- है. बाधक पड़ता है-उनका वह पाण्डिन्य और अध्ययन चरणी गति बिठ जाएँ। यदि ऐसी प्रकृति एवं प्रवृत्ति हमें उनकी उक्त सरलार्थ विषयक अन भज्ञताकी ओर होती और तत्वार्थसूत्रमे शास्त्रं जीके व नानुसार मंगला- अाकृष्ट नहीं होने देता । अकलंककी गूढमे गृढ पंक्तियों, चरण नही तो वे राजवार्तिकमे तत्वार्थमूत्रकी मंगल-शून्यता वाक्यों तथा पदोके मर्मको और अकलंलके हार्द (हृदगत का निरसन करते हुए 'थम सूत्रमें प्रयुक्त हुए सम्प्रदर्शनादि भाव ) को व्यक्त करने वाले श्राचार्यो में विद्यानन्दका ऊँचा पदोके द्वारा उस मंगलाचरणकी संगति जरूर बिठलाते। स्थान है। इसीसे उन्हें 'सूक्ष्मप्रज्ञ' कहनेमे श्रद्धेय पडित क्योंकि परीक्षा-ग्रन्थकी अपेक्षा निःश्रेयस शास्त्रमे उसकी संगति श्रीमुखलालजी जैसे उच्चकोटिके दार्शनिकविद्वानोंको गर्व बिठलाना कही अधिक संगत एवं श्रावश्यक था; जैसाकि और प्रानन्द होता है। अत: उनपर अनभिज्ञताका आरोप ब्रह्मसत्रकी प्रातिमे अथातो ब्रह्मजिज्ञासा सत्रमें प्रयुक्त हुए तो नहीं किया जा सकता । तब यही कहना होगा कि उन्हें 'अथ' शब्दके द्वारा उसके व्याख्याकारोंने मंगलकी संगति 'उक्त अर्थ भी हो सकता है। ऐसा मालूम जरूर था। परन्तु बिठलाई है और जिसे शास्त्रीजीने भी स्वीकार किया है। फिर भी उन्होंने उस सीधे-सरल अर्थको ग्रहण न करके परन्त राजवार्तिकमें ऐसा कुछ भी नहीं पाया जाता और जो दूसरा अर्थ स्वीकार किया है उसका कारण ? कारण इस लिये यही कहना होगा कि या तो अकलंककी वैली दो हो सकते हैं-एक तो यह कि विद्यानन्द उस सीधे प्रकृति तथा प्रवृत्ति नही थी और या थी तो राजवार्तिकमे अर्थको अबाधित और पूर्वपरम्पर के साथ संगत नहीं स. उन्होने जो मंगल वषयकी चर्चा नहीं की उसका यही मझते थे बल्कि उस प्रथको ही अबाधित एवं पूर्व परम्परा कारण है कि वे तत्त्वार्थसग्रमे मंगलाचरणका होना जानते के साथ संगत जानते थे जो उन्होंने विया, और दूसरा थे-भले ही अपने वार्तिककी प्रकृति के अनुसार उन्होने कारण यह कि पूर्वपरम्पराके साथ संगति-प्रसंगतिका कोई उसकी व्याख्यादि करना प्रावश्यक नही समझा। दोनों ही खयाज न रखकर उन्हें अपनी नई कपोलकल्पना अथवा हाललोंमे शास्त्रीजीके इष्टको बाधा पहुंचेगी। अत: उनका निराधार धारणाको चलाना ही इसके द्वारा इष्ट था। परन्तु सीधा अर्थ ही नहीं विन्तु उस अर्थके द्वारा उन्होंने जो उक्त इस पिछले कारण के सम्बन्धमें फिर यह प्रश्न पैदा होता है दो बाने सुझाई अथवा फलित करना चाही हैं वे भी बाधित कि पूर्वपरम्पराका उल्लंघन करके अपनी नई कपोलकल्पना ठहरेगी। और इसलिये उनके आधारपर यह नहीं कहा को चलानेमें विद्यानन्दका क्या हेतु था ?--किस स्वार्थादिके जा सकता कि श्री वद्यानन्द प्राचार्यने शास्त्रीजीका अभिमत वश उन्होंने ऐसा किया इसका कोई उत्तर नहीं बनता। सीधा अर्थ न करके कोई गलती अथवा भूल की है और और इसलिए जब तक इस प्रश्नका समुचित समाधान न वह गलती अथवा भूल ही उनकी उस मान्यताका एक कर दिया जाय तब तक दूसग कारण ग्राह्य नहीं हो सकता मात्र कारण है-श्राधार है।
-खासकर ऐसी हालतमें वह और भी अग्राह्य हो जाता इसके सिवाय, यहां यह प्रश्न पैदा होता है कि जब है जब हम विद्यानन्दके ग्रन्थों परसे यह देखते हैं कि उनकी अष्टशतीके उक्तवाक्यका शास्त्रीजीसम्मत अर्थ भी बन प्रकृति और परिणति अपनी पूर्वाचार्य-परम्पगका अनुसरण सकता था और वह सीधा-सरल अर्थ था, तो विद्यानन्दने करनेकी ओर ही पाई जाती है। चुनाँचे शास्त्रीजी भी अपने उसे छोड़कर दूसरा अर्थ क्यों किया ? इसके उत्तरमें यह लेखमे यह स्वीकार करते हैं कि 'यह तो विद्यानन्द जैसे तो नहीं कहा जा सकता कि प्रा. विद्यानन्दको वह सीधा प्राचार्यके लिए कम सम्भव है वि वे ऐसी धारणा विना अर्थ मालूम नहीं था, क्योंकि प्रथम तो सीधा-सरल अर्थ किसी पूर्वाधार्यवाक्य के पालम्बनके बना लेते।' ऐसी हालतमे सबसे पहले मालूम हुआ करता है-उसीपर पहली दृष्टि उपर्युक्त एकही कारण रह जाता है और वही समुचित जान पड़ती है, गूढ तथा गम्भीर अर्थ बादको दृष्टिपथमें आता पडता है। शास्त्रीजीके सीधे अर्थ और फलितार्थमें जो पात
Page #405
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७५
अनेकान्त
[ वर्ष ५
बाधाएँ ऊपर उपस्थित की गई है उनसे वह अबाधित नहीं की प्रतिपत्ति और अनिष्टकी निवृत्ति के लिये ही किया है। रहता, और जब अबाधित ही नहीं तब पूर्वपरम्पराके साय जैसा कि नीचे के कुछ उदाहरणोंसे प्रकट है:संगत भी कैसे हो सकता है? प्रा० विद्यानन्दका भर्थ -त. कृन्तन्तीति तीर्थकृतो मीमांसकाः" । तेषां सीधा-साधारण अर्थ न होकर विशेषार्थ है और वह पूर्व- समयास्तार्थकृत्सम्यास्तीर्थर छेदसम्पदाया कश्चिदेव सम्प्रपरम्पराके साथ संगत है, इसीसे उन्होंने उसे देते हुए दायो भवेद्गुरुः संवादका (१) नैव भवेदिति व्याख्यानान।" पहले ही यह सूचित कर दिया है कि मंगलपुस्सरस्तव ही
-श्रष्टस०, का०३ पृ. ५ शास्त्रावताररचितस्तुति कहा जाता है. जिसका कहा २ - "एकानेकप्रमाणवादिनास्वामान्यावृत्तरिति जाता है' (इत्युच्यते') यह पद स्वकपोलकरूपना अथवा स्व- (अष्टशती) - यथा च कापलादयोऽनेक.प्रमाण वादनरुचि-विरचितस्वकी भावनाको हटाकर क्थनकी ख्याति और तीर्थच्छेदसम्प्रदायास्तथा तचोपववादिनोऽपि (अनेकपूर्वपरम्पराके साथ उसकी संगतिका द्योतक है। साथ ही उस प्रमाणवादिनः), तैरेक्स्यापि प्रमाणस्यानामधानात् । नैवअर्थ अनन्तर 'इति व्याख्यानात' पद देकर तो उन्होंने उसकी प्रमाणवादनोऽनेवमाणवादिन इति व्याख्यानात् ।' स्थितिको और अधिक भी स्पष्ट कर दिया है। अर्थात् यह
-अष्टम०, का० ३ पृ. ४२ बतला दिया है कि मंगल पुरस्सरस्तव' पदका 'शामावतार
३--'श्राभलापतवंशानामामकापावेत. .. .' इति रचितस्तुति' सीधा अर्थ या अनुवाद नहीं है, किन्तु वह उस (न्य यविनिश्चय ) अभिजापविवेकत: अभिलापरहितत्वात का व्याख्यान है-पूर्वचार्यपरम्परासं प्राप्त विशिष्ट क्थन है। इात व्यास्यानात। -१एस०, का० १३ पृ० १२१ यहाँ व्याख्यानात्' शब्द खासतौरसे ध्यान देने योग्य है।
४-'अपीर मेव कारिका (मिलापतवंश नामऔर वह प्रामाणिकताको दृष्टिसे विद्यानन्द के उस की त्यादि) योज्या, श्रमिलापा६६२ इयां ल.परित जान है। मालूम होता है शास्त्रीजीने उस पर कुछ ध्यान
इति व्याख्यानात ।" - स०, का० १३ पृ० १२१ नहीं दिया, और शायद इसीसे उन्होंने विद्यानन्द के अर्थक
५-"प्रश्नवशादेव वस्तुन्यविरोधन विधिप्रतिषेध. साथ उसे उस भी नहीं किया। परन्तु कुछ भी हो
कल्पना सप्तभंगी हात(राजवातिक)वचनात · । विधिकलना. यथास्थान प्रयुक्त हुआ यह शब्द अपना खास महत्व खता
२ प्रतिषेध कल्पना, ३ क्रमतोविधि-प्रतिषेध रूपना, ४.", है और किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं कहा जा सकता।
७ माऽक्र.माझ्या विधिप्रतिषेधकल्पना च सप्तभंगीति न्यायकी परिभाष में 'ध्यारयान' संगत विशिष्ट वयनको
व्याख्यानान।" - स०, का. १५ पृ. १२५ अथवा प्रसिद्ध-अर्थसे भिन्न कथनको कहते हैं. जि.सकी पुष्टि
इन उदाहरणोरसे, जिनमेसे पहला समद्रिक "व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिनहि संदेहादल६एम
और शेष सब कलंकके पदोंके गृढ.र्य को व्यक्त करने इस सुप्रसिद्ध एवं प्राचार्य पूज्यपाद,' अकलंकदेवर और
वाले हैं, विज्ञ पाठक विद्यानन्दके हार्दयो भने प्रकार समझ विद्यानन्द के द्वारा अनुमोदित न्याय-वाक्यसे भी हो जाती
सकते हैं, उनके 'इति व्याख्यानात' पदके प्रयोगका रहस्य हैं, जिसे देकर अकलंकदेवने तो "इत्यनिष्ठस्य निवृतिभवति"
जान सकते हैं और साथ ही यह भी अनुभव कर सकते हैं शब्दों द्वारा यह भी प्रकट किया है कि इससे अनिष्टकी .
कि उन्होने अकलंक देवके मंगल पुरस्सरस्तव' इस गृढ पदका निवृति होती है।' चुनाँचे प्रा. विद्यानन्दने जहाँ स्वामी * श्रीअकलक देवकं वचन का ने गूढ तथा गम्भीराथंक होते समन्तभद्रकी कारिकाओं और अकलंकदेवकी प्रशतीके हैं यह बात नीचेक दो श्राचार्य-वाक्यांसे पाठक भले वाक्योंका सीधा-सरस अर्थ या अनुवाद किया है वहीं प्रकार अवगत कर सकते है-- उन्होंने 'व्याख्यानात' जैसे पदका प्रयोग भी नहीं किया- "गूढमर्थमकलङ्कवाङ्मयागाधमिनिहितं तदायनाम । अपनी भोरसे उन्होंने इस पदका प्रयोग संगत विशेषार्थ व्यञ्जयत्यमलमनन्तवार्यवाक् दीपवनिर्गनशंपदे पदे ॥"
वादिगजसरि १ सर्वार्थ सिद्धि पृ. ३०६ (शोलापुर संस्करण)।
"देवस्यानन्तबीयोऽपि पदं व्यक्त तु सर्वतः।। २ राजवातिक पृ०१३१,३५५ । ३ श्लोकवातिक पृ०५०४। न जानातऽकलङ्कस्य चित्रभेनर मुनि॥"-अनन्तवीर्याचार्य
Page #406
--------------------------------------------------------------------------
________________
फिरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
३७६
जो वह सामान्य अर्थ नहीं किया जिसे शास्त्रीजी सीधा अर्थ उपरक विवेचनकी रोशनी में प्रकट हुई परिस्थितियों परसे बतलाते हैं उसका कारण न तो तद्विषयक उनकी अनभिजता यह साफ जाना जाता है कि विद्यानन्दको अपनी है, न अपनी नई कल्पनाको चलाना है, बल्कि यही है कि वे उक्त मान्यताके लिये पूर्वपरम्पराका श्राधार जरूर प्राप्त थाउसे अविवक्षित, बाधित तथा पूर्वपम्पके साथ असंगत अर्थकी कोई गलती अथवा भ्रम उसका जनक नहीं है। जानते थे। इसीमे उन्होंने उसका परित्याग करके वह और इसलिये महान् प्राचार्य विद्यानन्दके अष्टसहस्री तथा विशेष अर्थ किया है जो पूर्वपरम्पराकी मान्यतानुमार प्राप्तपरीक्षादिगत कथनपर सन्देह करनेका कोई कारण अकलंकको विवक्षित और रूर्व प्रकारसे सुसंगत था। उनके नहीं है। शास्त्रीजीने जो सन्देह उपस्थित किया है वह 'इति व्याख्यानात' पदकी स्थिति भी 'इ तवचनात', इत्यभि- भ्रान्ति-जन्य है। धानात', 'इतिप्रतिपादन त्' 'इतिगुरूपदेशात्' पदोंके प्रयोग
उपसंहार जैसी है और वह इस बातको सूचित करती है कि उक्त पदका जो व्याख्यान उन्होंने दिया है वह या तो उसी रूप
इस प्रकार शास्त्रीजीके लेखके मूल भाग पर अपना में पहलेसे किसी अन्य मौजूद था- उन्होंने उसे वहाँसे विचार समाप्त करके अब मैं उनके 'उपसंहार' पर भी कुछ उदृत किया है, और या उसका स्रोत उन्हें पूर्वाचार्य- विचार प्रस्तुत करता हूं। अपने पूर्व लेखके उपसंहार में परम्परासे बीजरूपमै प्राप्त था-वे अपने गुरु दादागुरु लेखका सार देकर मैंने यह प्राशा व्यक्त की थी कि "शास्त्री तथा दूसरे समकालीन बृद्ध प्राचार्योके मुखसे वैसा सन जी इस परसे पुनः विचार करके अपने निर्णयको बदलेंगे चुके थे प्राचीन ग्रन्थोके उल्लेखों परसे भी यह मालूम कर और दूसरे विद्वान पाठक भी इस विषयको निति करार चुके थे कि 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मगलश्लोक देंगे," मेरी इस 'आशा' को शास्त्रीजीने अपने उत्तरलेखक तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण है, उसीवो लक्ष्य में रखकर
'उपसंहार' में प्रकारान्तरसे "अतिसाहसपूर्ण भाग्रह" सूचित स्वामी समन्तभनने 'प्राप्तमीमांसा' विस्वी है और उनकी
किया है। और मैंने अपने लेखमे शास्त्रीजीकी युक्तियोंका इस प्रामाणिक जानकारीमें मूलतत्त्वार्थसूत्रकी वे प्राचीन
निरसन करते हुए उनकी भूलोको प्रकट करके उनके निर्णय प्रतियां भी उनके सहायक हो चुकी थीं जो ५००-७०० वर्ष
को जो गलत ठहराया था तथा "विद्वानोंसे अपना अभिमत पहलेकी अथवा उमास्वातिके समय तककी लिखी हुई थीं
प्रकट करनेके लिये सानुरोध निवेदन" करके जो उन्हें विचार और उक्त मंगलाचरणको साथमें लिये हुए थी। इन दोनो
के लिये प्रेरित किया था उसे 'प्रोपेगेन्डेका साधन बनाकर अवस्थाओंसे भिन्न वह व्याख्यान विद्यानन्दकी निजी कल्पना
इतिहासक्षेत्रको दूषित कर देना' तथा 'सम्मतियों इकठ्ठी नहीं है। विद्यानन्द जहां केवल अपनी पोरसे कोई व्या
करनेकी अशोभन वृत्ति' बतलाया है। शास्त्रीजीकी ये दोनों ख्यान उपस्थित करते हैं वहीं 'व्याख्यातुं शक्यन्वात्' जैसे
बात कहाँ तक समुचित हैं इसे सहृदय पाठक स्वयं समझ पदोंका प्रयोग करते हुए देखे जाते हैं ।
सकते हैं। मैं तो इसे शास्त्रीजीके उस चोभका ही एक
परिणाम पममता हूं जो उन्हें मेरे लेख पर उत्पन्न हुआ है अत: शास्त्रीजीने प्रा. विद्यानन्दकी उक्त मंगलश्लोक
और जिसका कुछ उल्लेख मैंने इस लेखके शुरूमें किया है। विषयक मान्यताके लिये पूर्वपरम्पराका प्रभाव बतलाकर
इसीसे मैं इस पर कुछ भी लिखना नहीं चाहता। हाँ. यह अष्टशनीके 'देवागमेत्यादिमंगलपुरस्सरस्तव' वाक्यके
बात मेरी कुछ समझमें नहीं आई कि ऐसा करके मैंने किस अन्यथा अर्थको जो उसका एकमात्र अाधार कल्पित किया
बातका प्रोपेगेण्डा करना चाहा है? यदि शास्त्रीजी से है वह निराधार है-उसमें कुछ भी सार नहीं जान पड़ता।
विद्वत्ताका प्रोपेगेण्डा कहेंगे तो वे अपनेको इस प्रारोपसे * यथा-"अर्थशब्देन प्रत्यक्षस्याभिधानाद्वा, क्वचिद्विषयेण कैसे मुक्त कर सकेंगे, यह कुछ समझ नहीं पड़ता। क्यों कि विर्षायणो वचनाद्धर्मकीतिकारिकाया एव तन्मतदूषण- उन्होंने इतिहासविषयके भनेकलेस लिखे हैं, ग्रन्थोंकी परत्वेन व्याख्यातुं शक्यत्वात् । यथा च .......।" प्रस्तावना लिखी हैं और विद्वानोंको विचार के लिये प्रेरित
Page #407
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८०
अनेकान्त
{ वर्ष ५
तथा अनुरोधित भी किया है, तब तो उनके वे लेखादिक प्यते ।"
-श्लोकवा० पृ० २३६ भी उस प्रोपेगेगडेकी कोटिमें भाजायँगे। क्या शास्त्रीजी इसके सिवाय, शास्त्रीजीने जो यह उपदेश दिया है उन्हें भी इतिहासक्षेत्रको दूषित कर देने वाले ठहराएँगे? कि-"तत्त्वचिन्तन और इतिहास के क्षेत्र में पर्वग्रहोंसे मुक्त यदि नहीं तो फिर मेरे उस लेख पर वैसा आरोप कैसा? होकर तटस्थवृत्ति विचार करनेकी श्रावश्यकता है। इति. मैं तो जहाँ तक समझता है इतिहासक्षेत्र किसीकी गलतियां हासका क्षेत्र ही ऐसा है" इत्यादि वह बड़ा सुन्दर है, उस पकड़ने. अटियां बतलाने, भूले सुझाने और सत्यको अधि- में किसीको भी आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु अरछा काधिक रूपमें निकट लानेमे दूषित नहीं होता, किन्तु होता यदि शास्त्रीजी उस पर स्वयं पूर्णत: अमल करते प्रशस्त बनता है । दषित तो वह तब होता है जब किसी हुए भी नज़र पाते. क्यों कि अपने जैनसिद्वान्तभास्कर स्वार्थादिके वश सत्यको छिपाया जावे, जान-बम कर सत्य वाले लेखमे उन्होंने जो यह लिखा है कि "वस्तुत: यह का अपलाप पिया जावे. सत्यके प्रकट करने में असावधानी मंगलश्लोक श्रा०पूज्यपादने ही बनाया है" "यह श्लोक से काम लिया जावे अथवा याही चलती कलमसे विना निर्विवादरूपसे तत्वार्थसूत्रकी भूमिका बांधने वाले प्राचार्य अच्छी जांच-पड़ताल के किसी बातको निश्चित रूपमें प्रस्तुत पूज्यपादके द्वारा ही बनाया गया है" और बिना किसी कर दिया जावे, जब कि वस्तुस्थिति उस प्रकारकी न होवे। समर्थ हेतुके यह निर्णय भी दिया है कि-"विद्यानन्द उदाहरणके तौर पर शास्त्रीजीने अपने स्थायी साहित्य अपने पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको 'सूत्रकार' और पूर्ववर्ती न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भागकी प्रस्तावना (पृ. ३०) में किसी भी ग्रन्थको 'सूत्र' लिखते हैं" वह सब पर्वग्रहसे लिखा है--"श्रा० विद्यानन्द ने सर्वप्रथम अपना तत्वार्थ- उनकी मुक्तिको मूचित नहीं करता और न तटस्थवृत्ति श्लोकवार्तिक ग्रन्थ बनाया है. तदुपरान्त अष्टमहस्री और विचारका ही द्योतक है, किन्तु किमी पक्षविशेषके आग्रहको और विद्यानन्द महोदय" यह लिखना आपका योही लिये हुए जान पड़ता है। अस्तु । चलती कलमसे विना जाँच पडतालका जान पड़ता है। अन्तम मैं अपने इस लेखके लिये शास्त्री जीका हृदय क्योंकि 'विद्यानन्दमहोदय' ग्रंथ अष्टसहस्रीसे ही नहीं किन्तु से श्राभार प्रकट करता हूं, क्योंकि उनके उत्तर लेखके तत्वार्यश्लोकवार्तिकसे भी पहलेका बना हुआ है, और इम निमित्तको पाकर ही मेरी इस लेखके लिम्सनेमे प्रवृत्ति हुई, लिये श्लोकवार्तिक ग्रंथ विद्यानन्दकी 'सर्वप्रथम' कृति नहीं कितना ही नया साहित्य देखना पड़ा, विचार-विनिमय है जैसाकि स्वयं विद्यानन्दके निम्न उल्लेखोंसे प्रकट है
करना पडा, खोजकी ओर रुचि बढी और इस सबके फल- इति तत्त्वार्थालङ्कारे विद्यानन्दमहोदये च स्वरूप कितनी ही गुग्थियों ( उलझनों) को सुलभनेका प्रपञ्चत: प्ररूपितम्" -अष्टम० पृ० २८८-१०।
अवसर प्राप्त हुआ है। अत: इस सबका प्रधान श्रेय शास्त्री २-परीक्षितमसद्विद्यानन्दमहोदये ('यैः' पाठ अशुद्ध
जीको प्राप्त है--वे यदि उत्तर-लिखनेकी कृपा न करने तो -श्लोकवा० पृ० २७२ ३--"यथागमं प्रपञ्चेन विद्यानन्दमहोदयात।"
यह लेख भी न लिखा जाता और पाठक विचारकी कितनी
-श्लोकवा०पृ०३८५ ही बातोंसे वंचित रह जाते । इत्यलम् । ४-प्रपज्ञतो विचारितमेतदन्यत्रास्माभिरिति नेहो- वीरसेवामन्दिर, मरसावा संशोधन-इम लेखके छपने में जो खास अशुद्धियों हुई हैं उन्हे पाठक निम्न प्रकारसे सुधार लेवे
पृ. ३६८, का.२, पं. २ मे १४ के स्थानपर २४, पृ. ३६६, का. २, पं.२ मे 'मृलके' स्थानपर मूलके भी; पृ. ३७१, का, १, पं. ३ मे 'प्रश्न' से पहिले 'तीन' और पृ. ३७२, का. २, पं०६ में भी नहीं के स्थान पर 'नही भी' तथा पं.२६ में 'लक्ष्य करके' का निम्न फुटनोट बना लेब*जैसा कि मर्वार्थसिद्धि के इन वाक्योंसे प्रकट है--"विनेशयवशात्तवदेशनाविकरूपः । केमिसेपरुचयः,
अपरे नातिसंक्षेपेण नातिविस्तरेण प्रतिपाद्याः । “सर्वसत्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयास" इति अधिगमाप्युपायभेदोद्देशः कृतः।"
-भ०१ सू०८
Page #408
--------------------------------------------------------------------------
________________
* जैन-जगती*
. अनेकान्तको सहायता
विलम्बके लिये क्षमा-प्रार्थना हाल में भनेकान्तको बहसी निम्न सम्मनोंकी ओरसे कुछ खास कारण वश, जिनमें कामजी दुपाति १००) की सहायता माईत या पक्षालाबजी जैन अना और प्रेसकी कुछ गडबडी भी कारण है, अनेकान्तकी इस बालके प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार महाशय धन्यवाद संयुक्त किरणके प्रकाशनमें भाशातीत विलम्ब हो गया है। के पात्र हैं। इस सहायताका प्रधान श्रेय लादलीपसिंहजी इस कारण पाठकोंको जो प्रतीक्षा-जन्य कष्ट उठाना पड़ा। रतनलालजी कागजी देहबीको, उन्हींके खुदके त्यागभाव उसके लिये हम उनसे समाकी प्रार्थना करते हैं। और सम्पयनसे सहायताका यह सब कार्य सम्पस हुमा है।
प्रकाशक 'अनेकान्त' भाप पहले भी ५०) ह. की सहायता दे-दिखा चुके हैं,
kakkakka अतः भाप इसके लिये विशेष धन्यवादके पात्र हैं:
छपकर तैयार है ३०)ला. सिद्धोमल एण्ड सन्स कागजी, चावडी बाजार,
देहली (भाप पहले भी २० रु० की सहायता देचुके हैं)। ३०)लान्धमीमल धर्मदासजी कागजी, चावडी बाजार, देहली
(ले० कुं० दौलतसिंह लोदा 'भरविंद') (आप भी पहले २० रु. की सहायता दे चुके है)। १५) ला०पी०एल० वरचूमलजी कागजी, चा. बा. देहली। हजार सरल एवं सुष्टु पद्योंमें:१५) ला०दलीपसिंह रतनलालजी कागजी चा.बा.देहली।
'चोट है और स्वर उष्म है। यह जैनोंमें मेल १०) गुप्तदान (दातार महाशयने नामकी प्राज्ञा नहीं दी)। चाहती है। अत: पढ़ी जायगी तो उन्हें सजीव समाज व्यवस्थापक 'अनेकान्त के रूप में मरनेसे बचने में मदद देगी।'
-जिनेन्द्रकुमार, देहली। महाधवलकी प्राप्ति
'समाजको जागृत करनेका, उसको नवचैतन्योअनेकान्तके पाठकोंको यह सूचित करते हुए पी
दयका नवसन्देश देनेका और जीवन के नये भावोंकी प्रसन्नता होती है कि 'महाधवल' नामका ओ शास्त्र मूड.
प्रेरणा देनेका लेखकका ध्येय उर है। यह युवकोंको विद्रीके भण्गरमें सुना जाता था उसकी मकल पं०सुमेरचंद
माह्वान और रूढ़ियों तथा प्रशानको चेतावनी है। . जी दिखाकर बी०ए० सिवनीको मूडविद्री पंचों तथा
-भंवरलाल सिंघवी, कलकत्ता। भट्टारकजीके सदनुग्रहसे प्राप्त हो गई है। इसके लिये
"जैनसमाजका यह त्रिकालदर्शी दर्पण, रूदी दिवाकरजीको कितनी ही असुविधामों का सामना करना पड़ा
चुस्त साधुनों और श्रावकोंको चौकाने वाली, जागृतिके तथा भारी परिश्रम उठाना पड़ा, जिसके फलस्वरूप ही उन्हें
लिए संजीवन-वटी, भाडम्बर और पाखंडके लिए बम्ब साफल्यश्रीकी प्राप्ति हुई। अत: भाप अपनी इस सफ
का गोला है।' लताके लिये धन्यवाद के पात्र हैं और इसके लिये जनसमाज
-श्रीनाथ मोदी, जोधपुर । आपका चिरकृतज्ञ रहेगा । यह और भी प्रसन्नताकी बात है कि दिवाकरजीने इसके एक भागका हिन्दी अनुवाद भी
विद्यार्थियों, युवकों, समाज-चिन्तकों, साधुओं तय्यार कर लिया है और आप इसे जल्दी ही प्रकाशित
सभीके लिये उपयोगी करना चाहते हैं परन्तु कागजका भारी दाम चढ़ जानेसे वे २७५ पृष्ठकी पुस्तक छपाई आकर्षक प्रकाशनके कामको स्थगित कर रहे हैं। मेरी रायमें यह
मूल्य १) रु० पोस्टेज अलग कार्य गित नहीं होना चाहिये धनिकोंको इसमें सहयोग
पता:देना चाहिये और यह जैसे तैये प्रकाशित ही होजाना
(१) ज्ञानभंडार, जोधपुर चाहिये। देशकी वर्तमान परिस्थिकिको देखते हुए ऐसे
(२) श्रीजैन गुरुकुल बागरा, (मारवाड़) सत्कार्यों में विलम्बका होना किसी तरह भी बॉछनीय नहीं कहा जा सकता।
-सम्पादक
Page #409
--------------------------------------------------------------------------
________________
Registere No. A-731.
पुरातन-जैनवाक्य-सूची
(प्रेसमें)
पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि 'पुरातन-जैनवाक्य-सूची' (प्राकृतपद्यानुक्रमणी) नामका जो ग्रन्थ हो कुछ वर्षोंसे वीरमेवामन्दिरमें नय्यार हो रहा था वह अब प्रेसमें दिया जा चुका है, छपना प्रारम्भ होगया है और शर कई फार्म छप भी चुके हैं। यह ग्रन्थ ३६ पौडके उत्तम कागजपर २२४२६ साईजके अठपेजी श्राकारमें पाया जा रहा है, लगभग ५०० पृष्ठका होगा और प्रेसके पुख्ता वादेक अनुसार ३-४ महीनेमें छपकर प्रकाशित हो जायगा। इस ग्रन्थको हाथमें लेते हुए यह नहीं सोचा गया था कि इसकी तय्यारीमें इतना अधिक समय लग जायगा । पहले प्रत्येक ग्रन्थकी अलग अलग वाक्यसूची तय्यार की गई थी, बादको प्रो० ए० एन० उपाध्याय एम० ए० (कोल्हापुर) जेस मित्रोंका भी जब यह परामर्श प्राप्त हुआ कि सब ग्रन्थोंक वाक्योका एक जनरल अनुकम विशेष उपयोगी रहेगा
और उससे प्रन्थका उपयोग करने वालोकी शक्ति और समयकी बहुत बचत होगी, तब सूची किये गये वाक्योंको फिरसे का?पर लिखाकर उनका अकारादि क्रमसे जनरल अनुक्रम बनानका भारी परिश्रम उठाना पड़ा और तदनन्तर काडोंपरसे साफ कापी कराई गई । इस बीच में कुछ नये प्राप्त पुरातन प्रन्थोंक वाक्य भी सूची में शामिल होते रहे, और इस तरह इस काममें कितना ही समय निकल गया। इसके बाद जब प्रेसमें देने के लिये ग्रन्थकी जांचका समय आया तो मालूम हुआ कि कितने ही वाक्य सूची करनेसे छूट गये हैं और बहुतसे वाक्य अशुद्धरूपमें संगृहीत हुए हैं, जिनमेंसे कितने ही मुद्रित प्रतियोमें अशुद्ध छपे हैं और बहुतसे हस्तलिखित प्रतियों में अशुद्ध पाये जाते है। अतः प्रन्योंको आदिमे अन्त तक मिलाकर छूटे हुए वाक्योंकी पूर्ति की गई और जो वाक्य अशुद्ध जान पड़े उन्हें प्रन्थ के पूर्वापर सम्बन्ध, प्राचीन ग्रन्थों परमे विषयके अनुसन्धान, विषयकी संगति तथा कोषादिकी सहायताके आधारपर शुद्ध करनेका भरसक प्रयत्न किया गया, जिसमें यह ग्रन्थ अधिकसे अधिक प्रामाणिक रूपमें जनताके सामने आए और अपने लक्ष्य तथा उद्देश्यको ठीक तौरपर पूरा करने में समर्थ होसके । जांच के इस कामने भी काफी ममय ले लिया और कुछ विद्वानांको इममें भारी परिश्रम करना पड़ा। यही सब इम अन्धके प्रकाशनमें विलम्बका कारण है। मैं समझता है ग्रन्थके मामने आनेपर विजन प्रसन्न होंगे और इस विलम्बको भूल जायेंगे । अस्तु ।
यह अन्ध रिसर्च (शोध-खोज) का अभ्याम करने वाले विद्यार्थियों, स्कॉलरों, प्रोफेसरों, प्रन्थसम्पादकों, इतिहास-लेखकों और उन स्वाध्याय-प्रेमियों के लिये भी बड़े कामकी चीज़ है जो किसी शास्त्रमें 'उक्त'च' आदि रूप से आए हुए उद्धृत वाक्यों के विषयमें यह जानना चाहते हों कि वे कौनसे प्रन्थ अथवा ग्रन्थोंके वाक्य हैं। काराज की इस भारी मॅहगीके जमाने में इस प्रन्थकी कुल ३०० प्रतियां ही छपाई जा रही हैं। अतः जिन विद्वानों, लायबेरियों तथा शास्त्रभण्डारोंको इस प्रन्थकी जरूरत हो वे शीघ्र ही नीचेके पतेपर अपना नाम ग्राहकश्रेणी में दर्ज करालें, अन्यथा अल्प प्रतियों के कारण इस प्रन्थका मिलना फिर दर्लभ होजायगा । ग्रन्थ की तय्यारीमें बहुत अधिक व्यय होनेपर भी मूल्य लागतस कम ही रक्खा जायगा।
अधिष्ठाता 'वीरमेवामन्दिर
सरमावा. जि०महारनपुर
मुद्रक, प्रकाशक.परमानन्दशासी वीरसेवामन्दिर मरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तव प्रेम सहारनपुरमें मुद्रित
Page #410
--------------------------------------------------------------------------
________________
wat
रानीका
UM
॥ उभपानुभव धि
नित्यानुभय-इटिस
निषिष्टिः
JAN
Huaam
-
LD
राष्ट्र
अनुभय दृष्टि
S
जनवरी
वर्ष ५ किं. १२
सन्मादक- जुगल किदार मुख्तार "
namermanoraman
Amomandal
Page #411
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषय-सूची
१ ममन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने-मम्पादक पृष्ठ ३८१६ वेदना-गीत (कविता)-पं० चैनसुम्बदास न्यायतीर्थ २ममतभद्र औरदिग्नागमपूर्ववर्ती कौन?[न्या. दरबारीलाल ३८३ महाधवलअथवामहाबंधारप्रकाश-[पं.सुमेरचन्ददिवाकर४०५ ३जेनमादित्यममार्च.नऐi०सामग्रं [वासुदेवनग्रवालनयूरेटर ३६३८ साहित्य-परिचय और ममालोचन
४१७ हनागोर,जयपुरऔर अमेिरके कुछह लिग्रंथोकीसी-म० ३६८ अनेकान्तकाद्विवार्षिकहिसाब-अधिष्ठाता वीरसेवाम.दर'४२१ ५अरबंशभापाके प्रसिद्ध कविपरईधूप परमानन्दशास्त्री ४०.१० मापादकीय (टेप गया)
४२३
वीर-शासन-जयन्तीकी पुण्य-तिथि
जिस दिन वीर-शासनका जन्म हुआ-जैनियोंके अन्तिम तीर्थकर श्रीवीर भगवानने केवल-ज्ञानसे सम्पन्न होकर, आजसे कोई २५०० वर्ष पूर्व विपुलाचल पर्वतपर अपना धर्मोपदेश प्रारम्भ किया और उसके द्वारा लोकर्म अहिंमा नया अनेकान्तपर प्रतिष्ठित एवं 'सर्वप्राणिहित' के लक्ष्यमे लक्षिन 'मर्वोदय' तीर्थ प्रयनित हुश्रा-वह पावन दिवम श्रावण कृष्णा प्रतिपदाकी पुण्य तिथि है।
इसी दिन वीर-वाणीके द्वारा जीवोको उनके हितका वह सन्देश सुनाया गया जिसने उन्हें ढाबोंमे छूटनेका मार्ग बनाया, दुःस्वकी कारणीभूत भूल सुमाई, वहमोको दूर किया, यह स्पष्ट करके बतलाया कि सभी शान्ति एवं वास्तविक सुग्व अहिंसा और अनेकान्त-दृष्टिको अपनाने है, समतावा अपने जीवनाअंग बनाने में है, अथवा बन्धनमे-परतन्त्रताविभावपरिणतिमे छूटनमे हैं। साथ ही मब भामाश्रीको समान बतलाने हुए, श्रामविकासका सीधा त्या मरल उपाय सुझाया और यह स्पष्ट घोषित किया कि अपना उत्थान और पतन अपने हाथमे है, उसके लिए नितान्त दम पर श्रा. धार रखना, सर्वथा परावलम्बी होना अथवा दूसंगको दोष देना भारी भूल है। और उसके द्वाग पीडित पनिन एवं मार्ग युक्त जनताको यह आश्वासन मिला कि उसका उद्धार हो सकता है । तदनुसार स्त्रीजाति तथा शहापर होने वाले नकालीन अत्याचारीमा स्कावट पैदा हुई और वे सभी जन यथेष्ट म्पमे विद्या पटने नथा धर्ममाधनादिके अधिकारी ममझे जाने लगे।
इम तरह यह तिथि संमारके हित और सर्वसाधारणके उत्थान तथा कल्याणके माथ अपना सीधा एवं स्वाम सम्बन्ध रखती है और इस लिए सभीके द्वारा उत्सबके साथ मनाये जानेके योग्य है । हमी लिए इसकी यादगारमे कई वर्षमै वीरमेवामन्दिर परमावामे उन्मव मनानका प्रायोजन किया जाता है। अन्य स्थानोपर भी किया जा रहा है।
इस वर्ष यह पावन तिथि 1 जुलाई को रविवारके दिन अवतरित हुई है। इस बार और भी अधिक उत्साहके माय वाग्मेवामन्दिम्मेवारशासनजयन्ती मनाई जायगी और जलमा तातक रहेगा। अत: सर्वसाधारणसे निवेदन है कि वे इस अवसरपर वीरसेवामन्दिरमें पधारकर अपने उम महान उपकारीके उपकार-म्मरण एवं शामन-विवेचनम भाग लेते हुए वह दिन सफल करें और वीरप्रभुके सन्देशको जीवन में उतारने तथा जनताम प्रचारित करनेका रट मंबम्प करें। जो मजन समयपर वीरमेवामन्दिरमै न पायके उन्हें अपने अपने स्थानोपर इम मर्यानिशायी पावन पर्वके मनानेका थायोजन करके अपने कर्तव्यका पालन करना चाहिए।
निवेदक
जुगलकिशोर मुख्तार अधियाना 'वीरगेवामन्दिर' सरसावा (सहारनपुर)
Page #412
--------------------------------------------------------------------------
________________
*->>192245
वर्ष ५
किरा
विश्व तत्त्व-प्रकाशक
२२
* ॐ अर्हम् *
কা
नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥
वस्तुतत्त्व-संघक
वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर पौष, वीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं० १६६६
समन्तभद्र-भारती के कुछ नमूने
[ १३ ]
श्रीविमल- जिन स्तोत्र
*
जनवर्ग
सन १६४३ ई०
य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षाः स्वपरप्रणाशिनः ।
तएव तवं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्वपरोपकारिणः ॥ ६१ ॥
"तोकी अपेक्षा) जो नित्य-क्षणिकादिक नय हैं वे परस्पर में अनपेक्ष (स्वतंत्र) होने से - एक दूसरे की अपेक्षा नरखकर स्वतंत्रभाव से सर्वथा नित्य-क्षणिकादिरूप वस्तुतत्वका कथन करने के कारण स्वपर प्रगाशी है
निज और पर दोनोका नाश करने वाले स्व-पर वैरी हैं, और इसलिए दुर्नय हैं। वे ही नय, हे प्रत्यक्षज्ञानी विमल जिन ! आपके मत में, परस्परेक्ष (परम्परतंत्र) होने से - एक दूसरे अपेक्षा रखने से -- स्व-पर- उपकारी हैं - अपना और परका दोनांका भला करने वाले- दोनाका अस्तित्व बनाये रखने वाले स्व-पर-मित्र है, और इसलिये तत्त्वरूपसम्यक नय है ।'
यथैकशः कारकमर्थसिद्धये समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् ।
तथैव सामान्य विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥६२॥
'जिस प्रकार एक एक कारक - उपदानकारण या निमित्तकारण अथवा कर्ताद कारकाम से प्रत्येक शेष अन्यको अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थी सिद्धिके लिये समर्थ होता है, उसी प्रकार
Page #413
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८२
अनेकान्त
वर्ष
(हे विमलजिन !) आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होने वाले अथवा सामान्य और विशेषको विषय करने वाले (द्रव्यापिक, पर्याथिक आदि रूप) जो नय हैं वे मुख्य और गौण की कल्पनाम इट(आभात) हैं।-प्रयाजनक वश सामान्यको मुख्यरूपसे कल्पना (विवक्षा) हानेपर विशेपी गौणरूपस और विशेषकी मुख्यरूस कल्पना होनेपर सामान्यकी गौणरूपमे वल ना होती है, एक दूसरेकी अपेक्षाको कई छोड़ता नहीं. और इस तरह सभी नय सापेक्ष हं कर श्रने अर्थको मिद्धिरूप विवाक्षत अर्थक परिजानम ममथं होते हैं।
परस्परेशान्वयभेदलिङ्गतः प्रसिद्धसामान्यविशेषयोस्तव ।
समग्रताऽस्ति स्वपरावभासकं यथा प्रमाण भुवि बुद्धिलक्षणम् ॥६॥
'परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षाको लिये हुए जो अन्वय (अभेद) और भेद (व्यतिरेक) का ज्ञान है उससे प्रसिद्ध होने वाले सामान्य और विशेषकी ( हे विमल जिन ! ) श्रापकै मतमें उसी तरह समग्रता ( पूर्णता) है जिस तरह कि भूतलपर बुद्धि(ज्ञान, लक्षण प्रमाण म्व-पर-प्रकाशक-रूपमें समय (पूरा:-मब.लादेशी) हैअर्थात् जिम प्रकार मम्यग्ज्ञान-लक्षण-प्रमाण लोकम स्व-प्रकाशकत्व और प-प्रकाशक त्वरूप दो घमीम युक्त हुश्रा अने विषयमे पूर्ण होता है और उसके ये दोनों धर्म परम्परम विरुद्ध न ह कर मापन होते हैं--स्व-प्रयाशयत्व के बिना पर-प्रकाशकल और पर-प्रकाशकत्व के बिना स्व-प्रकाशकत्व बनता ही नहीं-उसी प्रकार एक वस्तुम विशेषग-विशे' यभाव मे प्रवर्तमान सामान्य और विशेष ये दो धर्म भी परस्पर में विरोध नहीं रखते किन्तु अविरोध रूपमे सापेक्ष होत हैसामान्य के विना विशेष और विशेषके बिना मामान्य अपूर्ण है अथवा यो कहिये कि बनता ही नहीं--,और मनिये दोनोंके मलसे ही वस्तुमे पूर्णता पाता है।'
विशेष्य-वाच्यस्य विशेषणं वचो यतो विशेष्यं विनियम्यते च यत् ।
तयोश्च सामान्यमतिप्रसज्यते विवक्षितास्स्यादिति तेऽन्यवर्जनम् ॥६४॥
'वाच्यभूत विशेष्यका-मामान्य अथवा विशेषका-वह वचन जिसमें विशेष्यको नियमित किया जाता है-विशेषण की नियतरूपताके माथ श्रावधारा किया जाता है- विशेषण' कहलाता है और जिसे नियमित किया जाता है वह 'विशेष्य' है। विशेषण और विशेष्य दोनों के मामान्यम्पताका जो अति रग अाता है वह (ह विमलजिन ! ) आपके मतम नही बनना; क्योकि विवाक्षत विशेषण-विशेष्यस अन्य अविवक्षित विशेषण-विशेष्यका 'स्यात' शब्दस वर्जन (पारहार) होजाता हे.-'म्यात्' शब्द की सर्वत्र प्रतिधा रहने से श्रावक्षित विशेषण-विशेग्यका ग्रहण नही दाना, और इमलिये अतिप्रमग दोष नहीं पाता।
नयास्तव स्यास्पदसत्यलाञ्छिता रसोपषिद्धा इव लोहधातवः ।
भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो भवन्तमायोः प्रणता हितैषिणः ॥६॥
(हे विमलजिन !) आपके मतमे जो (नित्य-क्षीणकादिनय हैं व मब स्यात्पद रूपी सत्यस चिहित हैंकोई भी नय स्यात्' शब्दके श्राशय (कथाचत के भाव में शून्य नहीं है, भले ही 'स्यात्' शब्द साथ में लगा हुअा हो या न हो-और रमोपविद्ध लोह धातुओके ममान-पारम अनुचित हुई लोद-ताम्रा द धानुग्रीकी तरह-अभिमत फलको फलते हैं-यथा स्थित वस्तुतन्यके प्रम्पगमे ममर्थ होकर मन्मार्गपर ले जाते हैं। इमीम अपना हित चाहन वाले आर्यजनोने आपको प्रणाम किया है-उत्तम पम्प मटा ई! श्राप मार ने नत-गतम्नक हुए है ।'
Page #414
--------------------------------------------------------------------------
________________
समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ?
( लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया )
X -X मन्तभद्र और दिग्नाग दोनों ही दो जुदे अनेक शिलालेखोंमें भी समन्तभद्रको पूज्यपादके पूर्वका
जुदे धर्म-सम्प्रदायोंके प्रधान श्राचार्य हो विद्वान् बतलाया है। दूसरे, स्वयं पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र
गये हैं-ममन्तभद्र जैन सम्प्रदायके और व्याकरण' के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' (५-४-१६८) x -x दिग्नाग बौद्ध सम्प्रदायके प्रमुख तार्किक इस सूत्रमे समन्तभद्रके मतका उल्लेख किया है। तीसरे, बिद्वानोंमेंसे हैं। जो सम्मान और प्रतिष्ठा जैनसमाजमें पूज्यपादके साहित्यपर समन्तभद्रके प्रयोका स्पष्ट प्रभाव स्वामी समन्तभद्को प्राप्त है संभवत: वही सम्मान और पाया जाता है। इस विषय में मुख्तारश्री पं० जुगलकिशोर प्रतिष्ठा बौद्धसमाजमे श्राचार्य दिग्नागको उपलब्ध है। जीका 'सर्वार्थ सिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' शीर्षक लेख दोनों ही अपने अपने दर्शनशास्त्रके प्रभावक विद्वानोमें बहुत ही अच्छे स्पष्टीकरणको लिये हुए है। अग्रगण्य है। दिग्नागका समय प्रायः ईमाकी ४ थी और अब प्रस्तुत विचार यह है कि स्वामी समन्तभद्र जो ५ वी शताब्दी (३४५-४२५ A D ) ' माना जाता पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं वे प्राचार्य दिग्नागके भी पूर्ववर्ती हैं या है, जब कि समन्तभद्रके समय-मम्बन्धमे जैनसमाजकी कि नहीं; क्योकि दिग्नाग और पूज्यपाद के समयमें जो थोड़ा मान्यता प्रामतौर पर दूसरी शताब्दी (शक सं०६०) अन्तर जान पड़ता है उस परसे दिग्नाग पूज्यपादके पूर्वकी है । यद्यपि इस मान्यतामे कुछ समयसे थोड़ा सा वर्ती मालूम होते हैं । इस विषयमें समन्तभद्र और विवाद उपस्थित है, फिर भी इतना तो सुनिश्रित है कि दिग्नागके साहित्यका अन्तःपरीक्षण करके, 'जो सत्यके स्वामी समन्तभद् पूज्यपादाचार्यसे. जिनका समय अनेक अधिक निकट पहुंचनेका प्रशस्त मार्ग है'. मैंने जो कुछ प्रमाण के श्राधारपर आमतौरपर ईमाकी पाँचवी शताब्दी अनुसन्धान एवं निर्णय किया है उसे मैं आज यहाँ अपने माना जाता है, पश्चाद्वर्ती नहीं हैं. किन्तु उनमे अथवा उनकी पाठकोंके सामने रखता हूँ :-- ग्रन्थ-रचनाके प्रारम्भये, जिसका अनुमानकाल ई. सन् ।
(१) बौदर्शनका प्रत्यक्ष-लक्षण प्राय: सभी बौद्ध४५० (A. D. ) के लगभग जान पड़ता है.४ पहले हो तार्किको और इतर दार्शनिकोंके विचारकी वस्नु रहा है। गये हैं। क्योंकि पट्टावलियोंके अतिरिक्त श्रवणबेलगोलके । वौद्ध दर्शनमे ही प्रत्यक्षका प्रारंभिक लक्षण उत्तरोत्तर १देखो, तत्वमंग्रहकी अंग्रेजी भूमिका पृ०७३ LXXIII
कितने ही संशोधन एवं परिवतनको लिये हुए है। किन्तु तथा वादन्यायके परिशिष्ट A. और ः।
इतना स्पष्ट है कि दिग्नागके पहिले भी बौद्ध-परंपराका २ देखी, पट्टावली' जो हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थोके अनु
प्रत्यक्ष निर्विकल्पक', 'अकल्पक' या 'प्रत्यक्षबुद्धि' के सन्धान-विषयक डा.भाण्डारकरकी सन १८८३.८४ की १ देखो, अनेकान्त वर्ष ५ कि० १०-११ पृ० ३४५-३५२। रिपोर्ट में प. ३२० पर प्रकाशित हुई है, तथा कर्णाटक- २ (क) निविकल्पं यदि जान वस्त्वस्तीति न युज्यते ।
भाषाभूषण में बी० लेविस राइम की अंग्रेजी प्रस्तावना। यस्माचित्त न रूपाणि निविकल्पं हितेन तत् ॥ ३ देग्यो, 'स्वामी ममन्तभद्र' पृ०१४१ १४ । पृज्यपादके
-लंकावतार सूत्र, मगायक ११२ शिष्य व नन्दीने वि० सं० ५२६ (ई० मन् ४६६) मे (ख) मयाऽन्यैश्च ताथागतेनुगम्य यथावहशितं प्रज्ञप्तं विवृतद्राविसंघकी स्थापना की है (दर्शनसार गा०२४-२८)। मुत्तानीकृतं । यत्रानुगम्य मम्यगवबोधानुच्छेदाशाश्वतो ४ देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० १४३ ।
विकल्पस्याप्रवृत्ति: स्वप्रत्यात्मायंज्ञानानुकूलं तीर्थव रपक्ष
Page #415
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८४
अनेकान्त
[वर्प ।
नाममे प्रसिद्ध था। उस समय बौद्ध नैयायिकोंके सामने वाचस्पति मिश्रने स्पष्टतया वसुबाशुका बतलाया है । प्रत्यक्ष लक्षणकी एक परंपरा थी और वह थी 'इन्द्रिय- किन्तु वसुबन्धु जिम समय 'विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि' नामक संनिकर्ष' या 'इन्द्रियजन्यव्यवसायामक ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रकरणग्रंथकी रचना करते हैं और उसमें विज्ञप्तिमात्र तत्व कहना। इसके विरोधस्वरूप चौद्धनैयायिकोंको प्रत्यक्षकी की प्रतिष्ठा करते हैं तो वे वहाँ रूपादि अर्थक विना भी परिभाषा दूसरी ही बनानी पडी। उन्होंने देखा कि इंद्रि- स्पादि-विज्ञप्तिरूप प्रत्यक्षको मानते है' और 'तै मिरिक' यसंनिकर्ष' और 'इन्द्रियजन्यव्यवमायान्मक ज्ञान' ये दोनों तथा 'स्वप्नवत्' दृष्टान्तके द्वारा अर्थाभावमे भी रूपादिही यथार्थ एवं वस्तुविषयक नहीं है, क्योंकि ये अर्थाभाव विज्ञप्तिक हानका समर्थन करते हैं, तब यह सदेह हो जाता में भी हो जाते हैं और इसका कारण विकल्पवासना है। है कि 'विज्ञान'कोश्यक्ष माननका सिद्धान्त बमुबन्धु अतः विकल्पवासनासे शून्य अर्थजन्यबोध ही प्रत्यक्ष है का है या उनके पूर्ववर्ती या समकालीन अन्य किसी और वही यथार्थ है-विकल्पात्मक इन्द्रियजन्य बोध या प्राचार्य का ? यह हो सकता है कि वसुबन्धु जिस समय जब इन्द्रियसंनिकर्ष प्रत्यक्ष नहीं है। दिग्नागके पहिले हमे
विज्ञप्तिमात्र तस्व' के प्रतिष्ठापक न रहे ही उस समय ऐसे प्रत्यक्षकी मान्यताका आभास दिग्नागके प्रमाणसमुच्चय
'अर्थाद्विज्ञान' को प्रत्यक्ष माननेका उनका सिद्धान्त रहा हो। गत एक कारिका से मिलता है जिसमे दिग्नागने उसे
कुछ भी हो, यह निश्चित है कि दिग्नागके पहिले वैसे खंडित किया है और कुछ अंशोंमें मान्य भी किया है।
प्रत्यक्ष लक्षणकी मान्यता थी और वह 'अकल्पक' निर्विमाथ ही एक कारिकामे 'जास्याद्यसयुनं कल्पनापोढ' को
कल्पक' 'प्रत्यक्षबुद्धि' 'रूपादिज्ञान' 'चक्षुगदिज्ञान' मादि प्रत्यक्षका लक्षण स्थिर किया है और दूसरी कारिका द्वारा नामांये ही प्रसिट था। प्रमागामा प्रत्यक्ष ज्ञानमें इन्द्रियोकी अमाधारणता एवं प्रधानता होने को खंडन करनेवाली वह कारिका इस प्रकार हैसे 'प्रत्यक्ष' नामकी सार्थकता और इन्द्रियजन्यता भी बत
तमोर्थाद्विजानं प्रत्यति नत्र तु । लाई है। दिग्नाग द्वारा कथित और उत्तरवनी अनेक
ततोऽर्थादिनि सर्व नयन तन्मात्रनो न हि ।। प्रथकारों द्वारा भी बंहित यह बौद्धप्रत्यक्षका लक्षण
-प्रमाणम. का. १५ परपक्षश्रावकप्रत्येकबुद्धागतिलक्षणं तत्सम्यम्जानम्। ..."
इस तरह यह निश्चितरूपमे कहा जा सकता है कि किन्तु उपमानमात्रमेतन्महामने यदुत गगानदीबालु
प्रत्यक्ष निर्विकल्प' या 'अकल्पक'के नामसे दिग्नागके पहिले काममास्तायोगता समा न विपमा अकल्पविकल्पनतः।"
भी माना जाता था और यह बौद्ध नैयायिकीकी खास -लकावनारमूत्र, पृ० २२८-३१
मान्यता थी। दिग्नागने इसमे मिर्फ अर्थजन्यताकी माली(ग) प्रत्यक्षबुद्धिः स्वानादौ यथा सा च यदा तदा। न साऽर्थों दृश्यते नस्य प्रत्यक्षत्वं कथं मतम् ॥१६॥
ततीर्थादिति यस्यार्थम्य याद्वजान व्यपादश्यनं याद नत --विज्ञतिमात्रना.सद्धिशिवा न तद्वान नाथान्नगद्भवात नत प्रत्यक्षमा
-न्यायवार्तिक (उद्योनकर) पृ० ४० , "अात्मन्द्रियमनोऽर्थमनिकर्पत यन्निष्पद्यते तदन्यदिति"
-वैशेषिकसूत्र ३, १, १८
१ "तदेवं प्रत्यक्षलक्षणं मध्य सुबन्धनता प्रत्यक्षलक्षण २ "इन्द्रियार्थमन्निकर्पोत्पन्न ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यव
विकल्पयितुमपन्यम्यति अपरे पनि।" सायात्मकं प्रत्यक्षम"
-चायवानिकतापर्यटीका पृ० १५० -न्यायसूत्र १, १,४ ३ "प्रत्यक्ष कल्पनापोडं नामजात्पाद्यसंयुतम्"
२ विज्ञप्तिमात्रमतदम्दावमा मनान" -विजन का. १
-प्रमाणम० का० : ३ द्वितीयका रिकाकी वृनिम भी, जो म्योपज जान पड़ती है, ८ "अमाधारण हेतुत्वाद यादेश्य तदिन्द्रिय."
इस प्रकारका उल्लेग्व है- यदि विना रूपाद्यर्थन म्यादि
विज्ञप्तिमत्पद्यत न रूपाद्यर्थात् । कस्मान काचहेश उत्पद्यते ५ बार पुनर्वर्णयन्ति ततीद्विजानं प्रत्यक्षामनि । तन्न. न सर्वत्र ... · ।"
--------
Page #416
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ?
३८५
चना की और मुख्यतया इन्द्रियजन्यनाका समर्थन किया। नामक प्रकरण की निग्न कारिकामें पाया जाता है:साथ ही कल्पनाका परिष्कार और उसकी परिभाषा भी प्रत्यक्षबुद्धिः स्वप्नादौ यथा सा च यदा तदा। बांधी' । बादमें तो इस परिष्कृत करने और परिभाषा न सोऽर्थी दृश्यते नम्य प्रत्यक्षत्वं कथं मतं ।। बाधनेके कारण वह प्रत्यक्षका 'कल्पनापोढ' लक्षण दिग्नाग
-विज्ञप्ति का.. का ही कहा जाने लगा । यहां तक कि उत्तरवर्ती अनेक प्रकल्पक' और 'चीतविक्रूपधी' शब्दका प्रयोग भी ग्रंथकारोंन दिग्नागके नामसे ही अपने ग्रंथो में उसे उद्धत कर वैसा ही है. जैसा कि लंकावतारसूत्र' के पूर्वोद्धत गद्य और के खंडन भी किया है। दिग्नागमे कई शताब्दी बाद हुये पच भागमे 'प्रकल्पाविकल्पनतः' और 'निविकरूपं यदि ज्ञान' प्रबल बौद्ध तार्किक धर्मकीर्तिने दिग्नागके तथाकथित वाक्योमे उपलब्ध होता है। प्रत्यक्षलक्षणमें 'अभ्रान्त' विशेषण लगाकर उसे मंशोधित इमपरमे यह स्पष्ट है कि समन्तभद्र प्रथम धाराके और पग्विधित किया। इसके बादके दार्शनिकोके खंडन ही उल्लेग्वकर्ना हैं-वही उनके समयमें प्रवाहित थी। मंडनका विषय तो प्राय. धर्मकीर्तिका 'अभ्रान्त'-विशेषण- यदि दुसरी या तीसरी धारा प्रवाहित होती तोवे मुख्यतया विशिष्ट प्रत्यक्ष लक्षण ही हुआ है। इस तरह हम देखते दिग्नागके 'जात्यानामयुतकल्पनापोढ रूप परिष्कृत लक्षण हैं कि बौद्ध परंपरामे प्रत्यक्ष लक्षण के बारेमे तीन धाराएँ का या धर्मकीर्तिके 'अभ्रान्त'-विशेषणविशिष्ट लक्षणका पाई जाती हैं-दिग्नागकी पूर्ववतिनी २ दिग्नागीय अथवा दोनांका ही उन्लेख एवं पालोचन करते, जैसा कि और ३ धर्मकीतीय।
दिग्नागके उत्तरवर्ती नाविकाने दिग्नागीय प्रत्यक्षलक्षण अब देखना यह है कि समन्तभद्रके साहित्यमे इन और धर्मकीर्तिके उत्तरवर्ती दार्शनिकोने दिग्नागीय तथा नीन धाराओमसे कौनसी धारा लक्षित होती है ? इसके धर्मकीर्तीय दोनों प्रत्यक्षलक्षणोंका निर्देश एवं मंडन-मंडन लिये हम यहां वे स्थल उपस्थित करते हैं जहां समन्तभद्र किया है। और इसलिये कहना होगा कि समन्तभद्र उस ने बौद्धसम्मत प्रत्यक्षका निर्देश या अालोचन किया है। समय हुए हैं जबकि प्रत्यक्षके लक्षणविषयमे पिछली दो ममन्तभद्रके वे स्थल निम्न प्रकार है--
विचारधाराओंका जन्म ही नही हुआ था। फलत: (१) 'प्रत्यक्षबुद्धिः क्रमते न यत्र'
समन्तभद्र धर्मकीर्ति के ही नहीं किन्तु दिग्नागके भी -युक्त यनुशामन० का०,२ पूर्ववना है। (B) "प्रत्यक्ष निर्देशवदायरिखमकल्पकं ज्ञापयितुं (२) 'समन्तगद दिग्नागके पूर्ववर्ती है' इसका एक ह्यशक्यम"
-युक्तचनु० का०, ३३ प्रबल माधक प्रमाण और है और वह यह कि दिग्नागने (३) 'वीतविकल्पधीः का'-युक्त चनुशा० का०१७ प्रमाणममुच्चय-गत एक कारिकाके द्वारा प्रमाणके फखरूपमें यहाँ 'प्रत्यक्षबुद्धि' शब्दका प्रयोग उसी प्रकारका है
'अज्ञाननाश' का खंडन किया है और यह बतलाया है कि जिस प्रकार कि वह वसुबन्धु के विज्ञप्तिमानतामिद्धि' फल सत रूप होता है, 'प्रज्ञाननाश' आसन है और उसके १ "रशियन प्रो. चिर विटाकी लिखते हैं कि-दिमागने सभी जगह होनेका नियम भी नहीं है इसलिये 'अज्ञानकल्पना के पाँच भेद किये थे-जानि, द्रव्य, गुण, क्रिया नाश' प्रमाणका फल नहीं है । प्रमाणसमुच्चयकी उस
और परिभाषा।' -न्यायकु. भा०प्र० प्रस्ना पृ० १०६ कारिकाका प्रकृत अंश इस प्रकार है-- २(क) ''अरे तु मन्यन्ते प्रत्यक्षं कल्पनापोढमिति । अथ केय अज्ञानादेर्न सर्वत्र व्यवच्छेदः फलं न सत ।।२३ कल्पना? नामजातियोजनेति ।"
१ लंकारतारसूत्रका एक चीनी अनुवाद र,गणभद्र द्वारा ई. -न्यायवार्तिक पृ० ४१
___ मन् ४४३ (AD) म हुशा है, ऐमा प्रो० Bunyul (ख) “संप्रति दिनागस्य लक्षणमपन्यम्यति । अपर इति" -न्यायवा. तात्प. पृ० १५३
Nanlo M A ने मन् १६२६ के संस्करण (जापान) ३ वमुबंधुका ममय तत्वसंग्रहकी भूमिकामे २८०-३६०A D.
में प्रकट किया है और इसमें यह मत्र ईमाकी ५वीं दिया है, देखो, भूमि० पृ० LXVI
शताब्दीसे बहुत पहलेका बना हुअा जान पड़ता है।
Page #417
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८६
अनेकान्त
[वर्ष ५
अब विचारणीय यह है कि अज्ञान-व्यवच्छेद है वह तो वास्यायन के भाप्यमे भी पाया जाता है, जिन (नाश) को प्रमाणका फल किस दार्शनिकने स्वीकार किया का समय लगभग ईसाकी तीसरी-चौथी शताब्दी है। है। न्याय' वैशेशिक, २ मीमांसा और बौद्ध क्सिी किन्तु उत्तरार्धमें जो 'प्रज्ञाननाश' फल दिया है वह समन्तमी परंपराने तर्कयुगीन समयमें 'अज्ञान-नाश' को भद्रका स्वोपज्ञ है, जिसे पूज्यपादने भी अपनी सर्वार्थ सिद्धि प्रमाका फल नहीं माना। चुनोंचे प्रसिद्ध दार्शनिक मे "उपेक्षा अज्ञाननाशो वा फलम्" इस वाक्यके द्वारा विद्वान् पं सुखलालजीने भी प्रमाणमीमांसाके अपने भाषा. अपनाया है। और सिद्धसेन दिवाकरने, जिनका समय टिरामे ऐसा ही प्रतिपादन किया है ?
उनके न्यायावतार-साहित्यपरसे ईसाकी ७ वी शताब्दीसे दिग्नागने जिन न्यायसूत्रकार और वास्यायनके प्रत्यक्ष- पहजेका निर्धारित नहीं होता', समन्तभद्रकी उक्त लक्षणका खंडन किया है। उन्होंने भी 'अज्ञान-नाश' को कारिकाका निम्न प्रकारसे अनुसरण किया हैप्रमाणका फल स्वीकार नहीं किया। जहां तक उपलब्ध
प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञानविनिवतेनम । जैन-जनेतर साहित्यका परिशीलन किया जाता है
केवलस्य सुग्वोपक्षे शेपस्यादानहानधीः ॥ २८॥ उसपरमे यही मानम होता है कि जैन-परंपराके
इस तरह अज्ञाननाश' को प्रमाणका फल बतलाना प्रमुख प्राचार्य स्वामी समन्तभद्रने ही सर्वप्रथम
एक जैनमान्यता है, जिसके श्राद्यपुरस्कर्ता पाचार्य समन्त'प्रज्ञान-नाश' को प्रमाणका फल कहा है और अपनी प्राप्त
भद्र है। अतः इस मान्यताका खण्डन करनेवाले दिग्नाग मीमांसाकी निम्न कारिकाके द्वारा उसे स्पष्टतया घोषित ।
समन्तभदसे पूर्ववर्ती न होकर उत्तरवती ही सिद्ध होते हैं। किया है--
यही वजह है कि समन्तभद्र के उत्तरवर्ती प्राचार्योंमेसे उन उपेक्षा फल मादाम्य शेपम्यादानहानधीः। की प्राप्तमीमांसा कृतिके समर्थ टीकाकार अकलक देवने जब पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्याम्य स्वगोचरे ॥१०२ समन्तभद्रमतके उक्त खंडनको देखा तो वे अपने पूर्वज यहां कारिकाके पूर्वाधमे प्रमाणका जो फल दिया हुश्रा
समन्तभद्रपर किये गये दिग्नागके इस श्राक्रमण एवं
प्रहारको सहन न कर सके और इसलिये वे प्राप्तमीमांसा १ "यदा संनिक पस्तदा ज्ञान प्रांमति: यदा ज्ञान तदा हानो
की उफ कारिकाकी व्याख्या (अष्टशती) में ही उसका सबल पादानोपेनाबुद्धयः फलम। -न्यायवा० भा० पृ० १७
उत्तर देते हुए लिखते हैं :-- २ "तत्त्वज्ञानान्निश्रेयमम् ।" -वैशेषिकस० १.१३
“मत्यादेः साक्षात्फलं स्वार्थव्यामोहविच्छेदः । ३ मीमासाश्लोकवा० ५६-७३ (अन्य सामने न होनेसे प्रमा
तदभावे दर्शनस्यापि संनिकाविशेषात् । क्षणपरिमी० टि. के आधार पर नंबर मात्र दिया गया है)।
णामोपलम्भवदविसंवादकत्वासंभवान।" ४ (क) "स्वमावनि: फलं वात्र तद्रपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवात्य प्रमाणं तेन मीयते।"
१ क्योकि मिद्धसेनने प्रत्यक्षके लक्षण मे कुमारिल के 'बाध
वनित' विशेषणका अोर धर्मकातिके 'अभ्रान्त' पदका -प्रमाणस० का० १०
प्रयोग किया है और कुमारिल तथा धर्मकीर्ति दोनो ही (ख) "विषयाधिगनिश्चात्र प्रमाणफलमिप्यते। स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूयं योग्यतापि वा।" ईसाकी ७ वी शताब्दीके विद्वान है।
-तत्त्वसं० का १३४४ २ न्यायावतारमे ममन्तभद्र के और भी कितने ही पद-वाक्यो ५ "अशानविनाशका फलरुपम उल्लेख. जिसका वैदिक- का अनुसरण पाया जाता है- 'अामायशमनल्लंघ्य बौद्ध परंपरामे निर्देश नही देखा जाता । ..."
महष्टिविरोधकम्' इत्यादि शास्त्र-लक्षण वाला रत्नकरण्ड
-प्रमाण भा० पृ० ६८ श्रावकाचारका यो पद्य नी ज्योका त्या नं०६ पर ६ देखो, प्रमाणममुच्चय का० १८, १६, २०, २१, २२, २३ उद्धृत है।
Page #418
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण ११]
समन्तभद्र और दिग्नाममें पूर्ववर्ती कौन ?
यहां रेखाङ्कन पद खासतौरसे ध्यान देने योग्य है, से पहिले हो चुके थे। यही कारण है कि समन्तभद्र जिसके द्वारा कहा गया है कि यदि 'प्रज्ञाननाश' को और दिग्नागके उत्तरवर्ती प्राप्तमीमांसाके न्याख्याकार प्रणाणका फल नहीं मानोगे तो जिस संनिकर्षका खंडन प्रकलकने सर्वप्रथम जैन-परम्परामें इस गुस्थीको करते हो उसमें और तुम्हारे निर्वि दर्शन-'कल्पनाप्रोढप्रत्यक्ष' सुलझाया और प्रमाण तथा फलके भेदाभेदके में कोई अन्तर नही रहता, क्योंकि दोनों ही विसंवादकताके सम्बन्धमें जैनदृष्टिकोणको स्पष्ट किया। समन्तभद्रके अव्यावर्तक हैं । और अविमवादी ज्ञान प्रमाण माना जाता समयमे ऐसी कोई गुत्थी उपस्थित नहीं थी, इसीसे समन्तहै। इससे भी साफ जाहिर है कि उन दिग्नागकृत खंडन भद्रको सामान्य भेदाभेदका अनेकान्तदृष्टिसे स्पष्टीकरण समन्तभद्रकी मान्यतासे ही सम्बन्ध रखता है, जिसका करते हुए और प्रमाण तथा फलकी व्यवस्था करते हुए भी समुचित उत्तर उनके उत्तरवर्ती अकलंकदेवने दिया है। उस गुग्थीको सुलझानेकी जरूरत पैदा नहीं हुई। दूसरे (३) दिग्नागने 'प्रमाणसमुच्चय' गत हवीं कारिकाकी वृसमे शब्दोंमें यो कहिये कि स्वामी समन्तभद्र तब हुए हैं जब प्रमाण और प्रमाण-फल के अभेदका प्रतिपादन एवं भेदका प्रमाण और फल के सम्बन्धमे भेदाभेद-विषयक दो मत थे खंडन निम्न प्रकारसे किया है
ही नहीं। "अत्र यथा बाह्यानां प्रमाणात्फलमर्थान्तरं तथा ऊपरके इस सम्पूर्ण विवेचन एवं साहित्यिक परीक्षण नास्ति । फल भूतं विषयाकारमुलायमानं (ज्ञान) मव्या- परसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि समन्तभद्र दिग्नागके पूर्ववर्ती पारं प्रतीयते।"
हैं-उत्तरवर्ती नहीं। और जब समन्तभद्र दिग्नागके पूर्व___ अर्थात बाह्या बौद्धतरोंके यहां जिम प्रकार प्रमाणसे वर्ती सिद्ध हो जाते हैं तब इसमें कोई सन्देह नहीं रहता फल भिन्न है वैमा यहां (बौद्धोके) नहीं है।
कि वे भर्तृहरि, कुमारिल और धर्मकीर्ति के भी पूर्ववर्ती हैं: यहां प्रमाण और फलके भेदका खंडन किया गया है क्योंकि ये तीनों ही थोडे थोडेसे भागे पीछेके समयको और प्रकारान्तरसे अभेदका प्रस्ताव किया है। दिग्नागके लिये हए ईमाकी ७वीं शताब्दीके विद्वान है और निर्विवाद पहिले वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक सभीके यहां प्रमाणसे रूपमे दिग्नागके उत्तरवर्ती प्रसिद्ध हैं। फिर भी इन प्राचार्यों फल मामान्यतया अलग स्वीकार तो किया जाता था परन्तु से समन्तभद्रके पूर्ववर्तिवमें कोई सन्देह न रहे अत: इन वैया पक्ष या मन्तव्यका उल्लेख नहीं होता था। दिग्नागके प्राचार्योंके साथ भी समन्तभद्रका विचार किया जाता हैफन और प्रमाणके अर्थान्तस्य ग्बंडनमेंसे ही दो पक्ष
समन्तभद्र और भर्तृहरिप्रकट हुए जान पड़ते हैं अर्थात जब दिग्नागने अर्थान्तरताका
भर्तृहरि शब्दाद्वैतवाद' के प्रतिष्ठाता और 'स्फोटचाद' ग्वंटन किया तब उसमें से अनर्थान्तरता फलित हुई। इस
के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। इनका तार्किकशैलीसे रचा गया नरह प्रमाण और फलके सम्बन्धमें भेद अभेदके दो पक्ष स्थिर हो गये। कुछ भी हो, अभेद पक्षके तो जन्मदाता
'वाक्यपदीय' नामका व्याकरण-ग्रन्थ अतिप्रसिद्ध है। भर्तृहरि दिग्नाग ही हैं। यदि समन्तभद्र दिग्नागके उत्तरवर्ती होते तो
के उत्तरवर्ती कुमारिल', धर्मकीति२. अक्लंक' विद्यानन्द
श्रादि ताकिकोंने इनके शब्दाद्वैत और स्फोटवादका खंडन व इस प्रमाण और फल-विषयक भेदाभेदके सम्बन्धमे
कंधेसे कंधा भिहाकर बडे जोरोंके साथ किया है। यदि जैन ष्टिकोण को दार्शनिकोंके मामने रग्बे बिना न रहते। . कोई वजह नही कि समन्तभद्र भाव अभाव, निन्य अनित्य १ "करणस्य क्रियायाश्च कथं च देकत्वं प्रदीपन मोविगमवत । प्रादि अनेक मुहोकी तो चर्चा करें और प्रमाण तथा फलके नानात्वं च परश्वादिवत् ।" -अष्टशती,ग्रामीका०१०२ भेदाभेदविषयक मुदं को यों ही छोड़ दें। इससे यह स्पष्ट १ मीमामा-श्लोकवार्तिक स्फोटबाद । मालूम होता है कि ममन्तभद्रका अस्तित्व उस समयका है २ प्रमाणवातिक ( ३-२५१ से )। जब प्रमाण और फलके सम्बन्ध भेदाभेदकी चर्चाका ३ गजवातिक पृ० २३१ । प्रवेश ही नहीं हुअा था-वे इस चर्चा के पुरस्कर्ता दिग्नाग ४ अष्टमहस्री पृ० २८५, श्लोकवातिक पृ० २४१
Page #419
--------------------------------------------------------------------------
________________
३८८
अनेकान्त
[वर्ष ५
समन्तभद्र भतृहरिके उत्तरवर्ती होते तो वे भी उनके अपनी प्राप्त भीमांसामे सर्व प्रथम सामान्यरूपसे सर्वका शब्दाद्वैतवाद और स्फोटवादका, जिसने अपने समयमै खूब प्रस्ताव करते हैं और कहते हैंजोर पकना था. बंडन किये बिना न रहते । परन्तु समन्त ताथकृत्समयानां च परस्परविरोधतः। भद्रकी एक भी कृतिम उक्त चर्चाकी गंध तक नही है। सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद्गुरुः॥ उत्तरवर्ती होने पर कोई वजह नहीं कि समन्तभद्र सामान्य
अर्थात्-सभी तीर्थ-प्रवर्तको और उनके उपदेशोंमें रूपसे भदैतवादका खण्डनकर जाने पर भी विशेषरूपये परस्परविरोध होनेसे सब तो प्राप्त नही होमकते, कोई ही बौद्धदर्शनसम्मत विज्ञानाद्वैत तथा बहिरर्थाद्वैत जैसे अद्वैतों
(एक) गुरु (प्राप्त-मवंज्ञ) होना चाहिये।
की की तो मालोचना कर जाये किन्तु भर्तृहरिके वाक्यपदीयगत
भट्ट कुमारिल इसकी आलोचना करते हुए लिम्बने हैंसन्दाद्वैतपर एक शब्द भी न लिखें, जिसकी चचाने अपने
सर्वज्ञेषु' च भूयम्मु विरुद्धार्थीपदेशिपु । ममयमे एक भारी तहलका मचा दिया था और कुमारिन.
तुल्यहेतुपु सर्वेषु को नामकोऽवधायेताम ।। धर्मकीर्ति, अकल क जैसे तार्किकोंको बरबस अपनी पोर
सुगतो यदि सर्वाज्ञः कपिलो नेति का प्रमा। प्राकर्षित किया था। इससे साफ है कि भर्तृहरिके असमालोचक
अथोभावपि सर्वाज्ञी मतभेदः तयोः कथम ।। समन्तभद्र उसी प्रकार भर्तृहरिके पूर्ववर्ती हैं जिस प्रकार कि
-तत्त्वम० का०३१४८-४६ भर्तृहरिके प्रसमालोचक दिग्नाग भर्तृहरिके पूर्ववर्ती है।
यहां समन्तभद्र के परस्परविरोधतः के स्थानमे कुमा समन्तभद्र और कुमारिल
रिलने विरुद्धापदेशिपु' पटका प्रयोग किया है और प्रमिन्द मीमांसकताविक कुमारिल भट्टने समन्तभद्रीय जिस विरोध की समन्तभदने सूचना मात्र दी थी उस माप्तमीमामाकी अनेक कारिकाओंकी पालोचना की है और विरोधको कुमारिल ने दूसरी 'सुगतो यदि सर्वज्ञः' इस प्राप्तमीमांसाके कितने ही पद, वाक्यों तथा कारिकाओंका कारिकाके द्वारा स्पष्ट किया है। साथ ही समन्तभद्र ने जो यह बिम्बप्रतिबिम्बरूपसे अनुपरगा भी किया है। नीचे इसका कहा था कि 'कश्चिदेव भवेद्गुरुः'-'कोई ही एक सर्वज्ञ कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है
होना चाहिए उसका विरोध कुमारिल ने 'को नामकोऽवयद्यपि सर्वज्ञत्व की मान्यता बहुत प्राचीन है और धार्यताम'-'किस एक का निश्रय करते यो' जैसे शब्दों उसका साधन भी दार्शनिकोंमे विविधरूपये किया है पर द्वारा किया है। समन्तभद्रने उसके माधनका जो ढंग एवं सरणि अपनाई है समन्तभद्र जब अपने उपयुन प्रस्तावानुसार एक वह अन्यग्र अलभ्य है। सातवी शताब्दी तक के न्याय, दूसरी कारिका में सर्वज्ञका मामान्यरूप से 'अनुमेयम्ब' हेतु वैशेषिक और बौद्ध दार्शनिक ग्रन्थों में न तो समन्तभद्र जैमी के द्वारा संस्थापन करते हैं तो कुमारिल इसकी भी पालो मर्वज्ञकी सिद्धि उपलब्ध होती है और न उन जैसी सर्वज्ञ- चना करते हैं। समन्तभद्रकी वह सामान्य मर्वजकी माधक साधनमें अपनाई गई सरीण ही पाई जाती है। समन्तभद्र कारिका निम्न प्रकार है-- १ न्याया-वैशेषिक ईश्वरको ही सर्वज्ञ मानत है । युक्त सूक्ष्मान्तरितदृगा प्रत्यक्षाः कचियथा । और वियुक्त योगी अामायाको मर्वज मानत तो हैं, पर
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वाज्ञसंस्थितिः ।। मोक्ष होने के बाद, उनका जान योगजन्य होनेसे शेष नहीं
यहां समन्तभद्रने 'कस्यचिन जैसे सामान्य शब्दका रहता। साख्य, योग और वेदान्त दर्शन भी न्याय- प्रयोग किया है जो सामान्य पुरुष' का वाचक है और उस
शपिककी ही तरह सर्वजत्व मानत है अन्तर सिर्फ इतना १ इन कारिकायांकी शतक्षितने तत्वमंग्रहम कुमारिल के है कि साव्य, योग प्रकृति (बुद्धि) नत्मे, वेदान्त बुद्धि- नाममे उदधृत किया है। अपमहत्री प्र. में विधानद म वर्म मर्वशत्व मानते हैं।
ने भी दूसरी कारिका 'नदुक' करके मालिका तपमे ---देखो, प्रमाण मी० भा० टि. पृ० २६ उद्धृत की है।
Page #420
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ?
३८९
-
सामान्य पुरुषमें 'अग्नि आदि पदार्थ रूपदृष्टान्तकी सामर्थ्य 'नरः कोप्यस्ति सर्वज्ञः तत्सर्वज्ञत्वमित्यपि । से 'अनुमेयत्र' (अनुमानके विषय) रूपहेतुके द्वारा सूक्ष्म, साधनं यत्प्रयुज्येत प्रतिज्ञान्यूनमेव तत् ।। अन्तरित (कालव्यवहित) और दूरवर्ती पदार्थों की प्रत्यक्षता सिधार्धाषितो योऽर्थः सोऽनया नाभिधीयते । की मिद्धि (अनुमान द्वारा साधना) की है। इस तरह इस कारि- यत्तूच्यते न तत्सिद्धी किश्चिदस्ति प्रयोजनम ।। काके द्वारा सर्वज्ञ-सामान्यकी सिद्धि की गई है। इसके पहिले यदीयागमसत्यवसिद्धेय सर्वज्ञतच्यते । समन्तभदने एक अन्य कारिकाके द्वारा 'सर्वज्ञता' की कसौटी न सा सर्वज्ञसामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ।। एवं नियामक 'वीतरागता' (दोष और श्रावरण की रहितता) ___ यावद् बुद्धो न सर्वज्ञस्तावद् तद्वचनं मृषा। को बतलाया है और उसका साधन भी उन्होंने 'वधियथा' यत्र कचन सर्वज्ञे सिद्ध तत्सत्यता कुतः।। जैसे सामान्य शब्दोफे प्रयोग पूर्वक किया है। समन्तभद्र अन्यस्मिन्नहि सर्वज्ञ वचनाऽन्यस्य सत्यता। की वह कारिका इस प्रकार है--
सामानाधिकरण्ये हि तयोरङ्गाङ्गिता भवेत् ।। दोपावरणयोहानिनिशेपास्त्यतिशायनान।
-तत्वसंग्रह ३.३० से ३२३४ तक । कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः॥
.. ये कारिकाएँ कुमारिल ने स्पष्टतया समन्तभद्रकी सामान्य इसमें बतलाया है कि किसी आत्मा-विशेषमें दोप
सर्वज्ञकी सिद्धि और विशेषसर्वज्ञकी सिद्धि के खंडनको लक्ष्य (अज्ञानादि) और भावरणों (ज्ञानावरणदिकर्म) का सर्वथा
करके रची हैं, क्योंकि कुमारिल के पूर्व समन्तभद्र के सिवाय क्षय होता है, क्योंकि इनकी न्यूनाधिकता देखी जाती है और
किसी भी दार्शनिकने उक्त प्रकारसे सर्वज्ञका साधन नहीं
किया है, जिसका यह वुमारिल कृत खंडन कहा जाय । हौं, जिम प्रारमामें यह 'वीतरागता' (निर्दोषता):क्ट हो जाती
बौद्ध परंपरामे बादको होने वाले बौद्धप्रवर शांतरक्षित और है उसी प्रामामे पूर्वोक सर्वज्ञता संभावित है, अन्यमें नहीं।
उनके शिग्य कमलशीलने 'अस्ति कोऽपि सर्गज्ञः, कचिहा समन्तभद्र नीचेकी दो कारिकाओं द्वारा इसी बातको प्रकट करते हैं और पूर्वोक्त सामान्य-सर्वज्ञताका श्राश्रय 'अर्हन्त
सर्वाज्ञत्वां, प्रज्ञादीनां प्रक.पदर्शनात्' रूपसे सामान्य निन को ही बतलाते हैं। यद्यपि समन्तभद्र ने आगेकी
सर्वज्ञसाधनका निर्देश अवश्य किया है, पर वह उनका इन कारिकायोमे भो जैनसम्मत 'अन्त' या 'जिन' शब्द
स्वतन्त्र उद्भावन नहीं है, वह तो कुमारिलकी उक्त कारिका प्रयोग नहीं किया है तथापि पूर्वापरके सम्बन्ध मिलाने
काओंका ही अर्थस्फोट है। दूसरे, जब शांतरक्षित कुमारिल पर यह मालूम हो जाता है कि जैनपरंपगभिमत स्यावाद
के नामसे उनकी उक्त कारिकाएं उद्धत करते हैं, तो कुमारिलनायक 'अर्हन्न-जिन' में ही उन्होने विशेषरूपसे सर्वज्ञता
कृत उक्त खंडन शांतक्षित या उनके व्याख्याकार कमल. का साधन किया है। समन्तभद्रकी वे दोनो कारिकाएँ इस
शील का खंडन नही कहा जा सकता। तीसरे, शांनरक्षित प्रकार हैं--
और कमलशील कुमारिल के उत्तरवर्ती विद्वान् हैं और
उनका समय ईसाकी आठवी शताब्दी है। जबकि कुमारिल स त्वमेवासि निर्दापी युक्तिश्मास्त्राविरोधिवाक।
सातवी शताब्दीके विद्वान् हैं। चौथे, समन्तभद्रके कितने अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धन न वाध्यते ।।
ही विचारों, पद-वाक्योंका अनुसरण या खंडन तत्वसंग्रहमें त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम । प्राप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन वाध्यते ॥
पाया जाता है, यहां तक कि समन्तभद्रके उत्तरवर्ती पात्र.
स्वामी, सुमतिदेव श्रादि दिगम्बराचार्यो तक्का खंडन भी -आप्तमी० का०६, ७
उपलब्ध है । अतः तत्वसंग्रहमें पाया गया सामान्य और कुमारिल, समन्तभद्र के द्वारा प्रयुक्त कश्चिद्' 'क्वचिद' और 'कस्यचितू इन सामान्य शब्दोको लेकर, उनके द्वारा
१ ये कारिकाएं अष्टमहस्री पृ० ७५ पर एतेन युदु भट्टेन'
करके उद्धत हैं। प्रस्थापित इस सामान्य और विशेष सर्वज्ञताका खंडन बढे
२देखो, तवसंग्रह पृ. ३७६, ३८२, ३८३, ४०६, ४१५, भावेश और युक्तिवादके साथ निम्न प्रकार करता है--
Page #421
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६०
अनेकान्त
[वर्ष
विशेषसर्वज्ञका साधन और उसकी सरणि समन्तभद्रका ही बतलाया था और उन्हींको सर्वज्ञ मानकर अन्य तीर्थअनुसरण है। यह अवश्य है कि कुमारिल ने उक्त कारिकाओं प्रर्वतकोंके मतों-भागमा-उपदेशोकी 'वन्मतामृतवाहनां' मे 'सुगत' अथवा 'युद्ध' का नामोल्लेख करके उनकी सर्वज्ञता 'श्राप्ताभिमानदग्धानां' इत्यादि कारिकायों के द्वारा पालोका भी निरसन किया है पर वह निरमन समन्तभद्रकी उक चनाकी थी तथा उनके उपदेशोंको युक्ति-शास-विरोधी कारिकाओंको ही प्राधार बनाकर किया गया जान पड़ता सिद्ध करके उनकी प्राप्तता न बनसकनेकी बात कही थी। है। क्योंकि बौद्धपरंपरामे कुमारिलके पहिले रचा गया ऐसा साथ ही जैनतीर्थकरके वचनोंमें दुतिशास्त्रका विरोध कोई भी बौद्धग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता, जिसमे सामान्य और दिखलाकर उनकी प्राप्ततामे विश्वास प्रकट किया था। विशेष दोनों ही प्रकारके सर्वज्ञत्वका बुद्धमे साधन किया गया समन्तभद्रकी यह नीति एवं सर्वज्ञ-साधनकी प्रक्रिया हो और जिसका कुमारिल ने पूर्वोक्त खडन किया हो। यहां कुमारिलको पसन्द नहीं पाई और इसलिये उसकी उन्होंने एक बात और भी ध्यान देने योग्य है और वह यह कि 'नरः कोऽप्यस्ति' इत्यादि कारिकायोंमे तीब्र पालोचना बौद्धतार्किक जितना सुगतके धर्मज्ञ होनेमे जोर देते हैं की। अन्तमे तो वे एक विशिष्ट युक्ति देते हुए कहते हैं कि उतना उनके सर्वज्ञ होनेमें नहीं । सर्वज्ञताको तो उन्होंने 'अन्यके पर्वज्ञ होनेपर दूसरेके वचनमे सत्यता नही गौण रूपसे स्वीकार किया है, जब कि जैनपरंपरा मुख्य पाती, समानाधिकरणता-एकाधिकरण वृत्तित्वके होनेपर रूपसे सर्वज्ञको मानती है । अत: यह साफ है कि कुमारिज- ही सर्वज्ञता और वचन-सत्यताम अगाङ्गिभाव-साध्यसाधन कृत उक्त खंडन समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसागत सर्वज्ञ बनता है-चुनांचे प्रकृतमे सर्वज्ञता तो सामान्यमे सिद्ध की सामान्य और विशेषकी साधक उपर्युक्त कारिकाओंको ही गई है और वचन-सत्यता (युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्य) लेकर किया गया है। बडे मार्केकी बात तो यह है कि अर्हन्त जिनमे बतलाते हैं। तो ऐसे वैयधिकरण हेतुओं समन्तभदने 'सूक्ष्मान्तरित'इत्यादि कारिकाके द्वारा सामान्य- (अन्यनिष्ठ निर्दोषता और युक्किशास्त्राविरोधी वचन) द्वारा तया सर्वज्ञकी सिद्धिकी थी और आगे चलकर उस सर्वज्ञ साध्य (सर्वज्ञता) की सिद्धि नही होसकती है। ऐसी दशा को 'स त्वमेवाऽसि' इन्यादि कारिकाके द्वारा 'महन्त जिन' में यह बिल्कुल स्पष्ट होजाता है कि कुमारिल ने समन्तभद्र १ हेयोपादेयतत्वस्य माभ्युपायस्य वेदकः।
को लक्ष्य करके ही उक्त खंडन किया है। यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥
भागे चलकर तो कुमारिलने 'वं यः केवलं ज्ञानदूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टन्तु पश्यतु ।
मिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः सूक्ष्मातीतादिविपयं जीवस्य प्रमाणं दूरदर्शी चे देहि गृध्रानुपास्महे ॥"
परिकल्पितं' इस कारिकाके द्वारा जैनसम्मत और वह भी -प्रमागवा०२-३२, ३३
समन्तभद्र-प्रस्थापित केवलज्ञान-मर्वज्ञताका बंडन स्पष्ट २ "स्वर्गारवर्गसम्प्रातिहेतुजोऽस्तीति गम्यते ।
शब्दोंमे किया है। ममन्तभद्रके पहिले जैनपरंपरामे सूक्ष्मामाक्षान्नकेवलं किन्तु मर्वजोऽपि प्रतीयते ॥”
तीतादि ( सूक्ष्मान्तरितादि) विषयरूपसे अनुमानके द्वारा
-तत्वसं० का० ३३०६ सर्वज्ञका साधन उपलब्ध नही होता । समन्तभद्गने ही "मुरव्यं हि तावत् स्वगमोक्षम प्रापकहेतुजत्वमाधनं भग- अनमानसे सर्वज्ञका साधन किया है। समन्तभद्रके उत्तरवनोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुन: अशेषार्थपरिज्ञातृत्वमाधन
वर्ती अकलंकके द्वारा कुमारिल को दिये गये समन्तभद्र मन्य तत् प्रामणिकम् ॥” -तत्त्वम०प० पृ०८६३ ३ "मर्वजवाद की परन्यगका अबलम्बी मुख्यतया जैनसम्प्रदाय १ एव यत्केवल जानमनमानविज़म्भितम । ही जान पड़ता है क्योकि जैन आचायोंने प्रथमसे ही नरें तदागपात सिद्धयेन्नच तेन चिनागमः ॥ अपने नीर्थकग मे मजित्वको माना और स्थारित किया मत्यमर्थच नादेव परुपातिशयो मतो। है । (प्राचा० ध्रु. २ चू० ३ पृ० ४२५A श्रा०नि० प्रभवः पोरुपेयोऽस्य प्रबन्धो नादियिते ।। गा० १२७)।" -प्रमाणमी० भापाटि० पृ०३०
-न्यायनिक का० ४१२, ४१३
Page #422
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ?
३६१
के कुमारिलकृत खंडनके जवाबसे भी यही मभ्रान्तरूपसे तौर पर एक स्थल उपस्थित किया जाता है जिसपरसे भी मालूम होता है, जिसमें उन्होंने 'अनुमानविम्भितम्' पाठक यह सहजमें ही जान सकेंगे कि समन्तभद्र वस्तुतः पदका प्रयोग करके यह स्पष्ट किया है कि कुमारिलने मात्र कुमारिलके पूर्ववर्ती विद्वान थे । वह स्थल निम्न प्रकार हैजैनमम्मत केवलज्ञानका ही खडन नही क्यिा किन्तु जो
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिप्वयं । केवलज्ञान (सर्वज्ञता) अनुमानके द्वारा विजम्भित (समन्त
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुक्म ।। भद्रद्वारा स्थापित किया गया है उसका उन्होंने खंडन
पयोव्रतो न दयत्ति न पयोत्ति दधिवतः। किया है।
अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ कुमारिलने समन्तभद्रके अनुमेयम्व' का खंडन करनेके लिये भी अनुमेयन्व जैसे ही प्रमेयत्वादिको सर्वज्ञके सद्भाव
-आप्तमी० का० ५६, ६० के बाधक बतलाकर जो यह कहा था कि 'जब प्रमेयत्व
समन्तभद्रकी इन कारिकाओंकी प्रतिबिम्बरूप कुमाभादि कर्वज्ञके बाधक हैं तब कौन उस सर्वज्ञकी कल्पना
रिखकी निम्न कारिकार्य हैं--- करेगा ? वह भी अकलंकको सहन नहीं हुआ और इसलिये 'वधमानकभङ्गच रूचकः कियते यदा । वे समन्तभद्रके 'अनुमेयत्व' हेतु की पुष्टि करते हुए कुमा- तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः । रिलको उनके इस खडनका निम्न प्रकार जवाब देते हैं। हेमाथिनम्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । "तदेवं प्रमयत्वसत्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति
न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम ।। नं कथं चेतनः प्रतिपेद्भुमर्हति संशयितुं वा।"
स्थित्या विनान माध्यरथ्यं तेन सामान्यनित्यता।' -श्रष्टश. प्राप्तमी० का०५
-मी० नोवा०पृ०६१६ अर्थान-प्रमेयन्व और सन्द आदि अनुमेयत्व हेतुका पाठक, देखेंगे कि इन कारिकाप्रोम समन्तभद्रका कितना पोपण करते हैं नो कौन चेतन उस सर्वज्ञका निषेध या अधिक विचारसाम्य और शब्दसाम्य पाया जाना है। इनके उसके सद्भावमे संदेह कर सकता है ?
अर्धका स्फोट करनेकी भी आवश्यकतामालूम नही होती, वह बौद्ध विद्वान् शांतरक्षितने भी कुमारिलके इस बंडन ऊपरसे ही स्वत. मालूम पर जाता है। अत: यह असंदिका जवाब दिया है और वह उचित ही हैं, क्योकि सर्वज्ञ ग्ध है कि समन्तभद्र कुमारिल के उत्तरवर्ती न होकर पूर्वको माननेवाले बौद्ध भी है-भले ही वे उसे गौणरूपमे ही वर्ती विद्वान हैं। क्या न मानने हों। ऐषी हालसमे अवैदिक कहे जानेके कारण कुमारिल के लक्ष्य जैनोंके साथ बौद्ध भी हो सकते समन्तभद्र और धर्मकीर्ति
समन्तभद्रने अपनी प्राप्तमीमांसामें 'स्यावाद' (भनेहैं। प्रत. कुमारिलके खंडनका जवाब अकलंक और शांतरक्षित दोनों दे मकते हैं।
कान्तवाद) का लक्षण निम्न प्रकार किया है--
स्याद्वादः सर्वथैकान्तन्यागात्तिवृत्तचिद्विधिः। कुमारिलने समन्तभद्रकी केवल अालोचना ही नही की, बल्कि अनेक स्थानोपर उनकी विचारसरणि और
मप्रभङ्गन्यापेक्षो ध्यादेयविशेषकः ॥१०४।।
इसमें बतलाया है कि 'सर्वथा एकान्तके त्यागपूर्वक जो उनके पद-वाश्योंका अनुसरण भी किया है। यहां नमूनेके
'किचिन' का विधान है वह स्याहार है--अनेकान्तसिद्धान्त १ प्रत्यक्षा विभवादि प्रमेयत्वााद यस्य च ।
है। धर्मकीर्ति ममन्तभद्रके इस लक्षणको पालोचना करते मद्भायवारणे शक्तं नु त कल्पयिष्यति म
हैं और उनके द्वारा प्रयुक्त "किंचिन' शब्दका उपहास करते -मी० श्लो० चोदनामू० का० १३२
हुए प्रमाणवार्तिकमें लिखते हैं-- : एवं यस्य प्रमेयत्ववस्तुसत्त्वादिलक्षण ।
एतेनैव यत्किञ्चिदयुक्तमश्लीलमाकुलम । निरन्तुं हेनवो शक्ता को न नं कल्यायष्यिति ॥
-तत्त्वसं० का०८८५ प्रलपन्ति प्रतिक्षिां तदायेकान्तमभवान ।। १-१८२
Page #423
--------------------------------------------------------------------------
________________
३१२
अनेकान्त
। वर्ष ५
अर्थात-कपिलमतके खंडनसे ही प्रयुक्त, अश्लील पदार्थोंके सद् और असद् रूप वस्तुस्वरूपका खंडनके लिये और पाकुल जो किंभित्' का प्रलाप-कथन है वह खंडित ही प्रयुक्त किये गये जान पड़ते हैं। क्योंकि धर्मकीर्तिने उक्त होगया, क्योंकि वह भी एकान्त संभावित है।'
खडन जैनदर्शन-सम्मत उभयात्मकताका किया है और जैन यहां धर्मकीर्तिने स्पष्टतया समन्तभद्रके सर्वथा एकान्त परम्परामें समन्तभद्रके पहिले तार्किकरूपसे उभयात्मकता के त्यागपूर्वक किंचित्के विधानरूप' स्याद्वादका खंडन किया का प्रतिपादन देखने में नहीं पाता। अतः समन्तभद्र धर्महै। समन्तभद्रके पहिले जैनदर्शनमै स्याद्वादका इस प्रकार कीर्तिके उत्तरकालीन किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होते। से लक्षण उपलब्ध नहीं होता। समन्तभद्रके पूर्ववर्ती यहां यह बात स्वास तौरसे नोट किये जानेकी है प्राचार्य कुन्दकुन्दने सप्तभंगोंके नामतो निर्देश किये हैं कि धर्मकीतिक इन दोनों भाक्षेपोंका जवाब प्रकपरन्तु स्यादादकी उन्होंने कोई परिभाषा नहीं बांधी। यहीं लंकदेवने न्यायविनिश्चयमे दिया है। यदि समधर्मकीर्तिके द्वारा खडनमें प्रयुक्त 'तदप्येकान्तसंभवात् तभद्र धर्मकीतिके उत्तरकालीन या समकालीन होते पद भी खास तौरसे ध्यान देने योग्य है जिससे साफ तो वे निश्चय ही धर्मकीतिके इन आरोपोंका जवाब देते ध्वनित होता है कि उनके सामने 'एकान्तके त्यागरूप और ऐसी हालतमें अकलंकको इनका जवाब देनेका अवसर अनेकान्त लक्षणकी वह मान्यता रही है जो 'किंचित् के ही न मिलता। इससे स्पष्ट है कि समन्तभद्र धर्मकातिके विधान द्वारा व्यत्सकी जाती थी तथा जिसका ही खंडन बहुत पहिले हो चुके हैं। और ऐसी दशामे धर्मकीर्तिके उन्होंने 'वह भी एकान्त संमवित हैं जैसे शब्दों द्वारा अन्धोम पाया जाने वाला विचार और शब्दका साम्य किया है। अनुसन्धान करनेपर यही मालूम होता है कि ममन्तभद्रका ही प्रामारी जान पड़ता है। वह मान्यता समन्तभद्रीय ही है, क्योंकि समन्तभदने ही इस प्रकार जोसमन्तभद्र ऊपर दिग्नागके पूर्ववर्ती सिद्ध सर्वप्रथम जैनपरंपरामे सर्वथा एकान्तके त्यागरूप अनेकान्त किये गये हैं वे भर्तृहरि. कुमारिल और धर्मकीर्ति के भी को स्यादाद माना है और उसकी रूपरेखा 'किंचित् के पूर्ववर्ती हैं इसमे कोई सन्देह नहीं रहता । और इसलिये प्रयोग-द्वारा प्रकट की है, और इसलिये यह निःसन्देह है इसविषयमें जिनविद्वानोंकी किसी समय कोई विपरीत धारणा कि समन्तभद्र धर्मकीतिके पूर्ववर्ती विद्वान थे।
बन गई है वे इस लेखपरसे या तो उसे सुधारनेमें प्रवृत्त ___ इसके सिवाय, समन्तभद्राने 'सदेव सर्व को नेच्छेन होंगे और या इस विषयपर कोई विशेष प्रकाश डालनेकी इत्यादि कारिका के द्वारा सब पदार्थोंको सद् और अपद कृपा करेगे. ऐसी दृढ प्राशा है। दोनो रूप माना है अर्थात उन्होंने यह बतलाया है कि वीरसेवामन्दिर, सरसावा 'विश्वके सब ही पदार्थ सत और असन् उभयरूप हैं। , यथा :समन्तभद्रके इस कथनकी भी धर्मकीर्ति आलोचना करने "जात्या विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रयादम् , हुए लिखते हैं--
चके लोकानरोधात् पनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे। सर्वस्योभयम्पत्वे तद्विशषनिराकृतः।
न ज्ञाता तस्य तस्मिन् नच फलमपरं ज्ञायते नापि किञ्चित् चोदिनो दधि खादेति किमुष्ट नाभिधावति ॥ इत्यश्लील प्रमत्तः प्रलपति जडधीराकुलं व्याकुलाप्तः ॥ १७० सर्वात्मत्वे च सर्वेषां भिन्नो स्यातां न धीध्वनी "तत्र मिथ्योत्तरं जानिर्यथानेकान्तविद्विषाम् । भेदसंभारवादस्य तदभावादसंभवः
दच्युप्रादेरभेदत्वप्रसंगादेकचादनम् । -प्रमाणवा०१-१३, १८५ पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषको-पि विदूषकः ॥” ३७१-७२ यहां 'सर्वस्योभयरूपत्वं' और 'सर्वामित्वे च सर्वेषां ये मुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपि सुगतः स्मृतः। पद ध्यान देनेयोग्य है. जो समन्तभद्र के द्वारा प्रतिपादित 'यब
तथापि मुगती बंद्यो मृग: खाद्यो यथेष्यते । १ सदेव सर्व को नेच्छेन्स्वरूपादि चतुष्टयात् ।
नया वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितः । असदेव विपर्यासान्न चेत्र न व्यवतिष्ठते ।।१५।। अाप्रमी चोदितो दधि स्वादेति किमुष्टमभिधावति ।। ३७३.७४
Page #424
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनसाहित्यमें प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री
(लेखक---श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, क्यूरेटर पी० म्यूजियम लखनऊ)
am-00.00
भारतीय इतिहासकी मामग्रीका क्षेत्र बहुत वि- प्राचीन समाजके अंगीभूत गोत्र-परिवारोंकी तालिकाएँ
शाल है। एक ओर पुगतत्व जगतसे प्राप्त वह हैं उनका मचित संपादन हमारे इतिहासके लिये बहुमूल्य एवं विपुल सामग्री है जिसकी प्रामाणिकना उतना ही आवश्यक है जितना कि पुराणों के भुवन सर्वोपरि मान्य है। हजारो शिलालेख, एवं उनमें भी कोषों में मंचित पर्वत-नदी जनपदोंकी बहुमूल्य भौगोअधिक मूर्तियाँ और सिक्के. मिट्टीके खिलौने, भाँडे- लिक सूचियोकी विस्तृत पहचान करना। महाभारत बर्तन, चित्र सब मिलकर प्राचीन भारतवर्षका एक के सूक्ष्म भूगोलको जाननेका भाव जब हमारे भीतर अनुपम प्रत्यक्षगम्य चित्र उपस्थित करते हैं। इस उदय होगा तभी मानों इस देशके साथ हमारे परिचय प्रकारकी सामग्रीका मिलमिला न केवल भारतवर्ष के का उदीयमान मंडल पूरी तरह विकसित होगा। वेलातटों तक ही मीमित है, बल्कि सूदर समुद्रोंको कालिदासके ग्रन्थो में जो संस्कृति-सम्बन्धी सामग्री पारकर पूर्वीय द्वीपोंमे तथा उतरीय गिरिगह्वरोंके भी है उसको भी हमें जी खोलकर अपनाना होगा। उम पार मध्य एशियाके आधुनिक रेतीले प्रदेशों तक बाणभट्ट की कादम्बरी और हर्षचरित तो मानों प्राचीन फेलता चला गया है। दूसरी ओर साहित्यसे उपलब्ध जीवनम सम्बन्धित शब्दोकी प्राप्तिके लिये कल्पवृक्ष इतिहास-माधनकी सामग्री पृथिवीकी कुक्षिम जुगोकर ही हैं। उनमे आये हुए मकरिका, शालभंजिका, रक्खी हुई सोने और चाँदीकी खानोकी तरह अक्षय्य पुलकबन्ध (बुंदकीदार छींट), इन्द्रायुधाम्बर (लहरूपसे भरी हुई है। कहा जाता है कि आदिराज पृथ रिया वस्त्र) आदि अनक पारिभाषिक शब्द प्राचीन ने हिमालयको वत्स बनाकर अनेक चमकीले रत्नोका लोकजीवनकी मम्कृति पर प्रकाश डालते हैं। इस पृथिवीसे दोहन किया था। उसी प्रकार साहित्यरूपी विशाल माहित्यके सागरको मथकर हम अपने भूतकामधेनुकी उचित आराधनाके द्वारा लोकके अतीत काल के सम्बन्धमें बहमूल्य सामग्री प्राप्त कर सकते हैं, इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश डालने वाले ममु- जो केवल गजाओकी नामावली न होकर वास्तविक उज्वल रत्नोका पुष्कल दोहन करने वाले धुरंधर पृथ सामाजिक जीवनका एक बहुरंगी चित्रपट प्रस्तुत कर की हमारे साहित्यजगतको आवश्यकता है। मर्वप्रथम सकती है। संस्कृतका विशाल साहित्य है । वेदोंमे लेकर शिवाजी अध्ययनकी यही परिपाटी बौद्ध और जैनसाहित्य के राष्ट्रीय उत्थानके काल तक संस्कृत माहित्यको जो के लिये भी चरितार्थ हो सकती है। बौद्धोंका बृहत निरन्तर धाग सहस्र मोतोंसे फुटकर बहती रही है पाली-साहित्य प्रकाशमें श्राचुका है। उसका इतिहासउसका अधिकांश भाग आज भी हमें उपलब्ध है। निर्माणमें सबसे अधिक उपयोग भी हश्रा है। पर उसमेंसे ऐतिहासिक तन्तओंको जोड जोड़कर हमें उपर जिस मौलिक दृष्टिकोणकी चर्चा की गई है उस अपने इतिहासका सुन्दर पट तैगार करना है। की शैलीम यदि समस्त पाली-बाबमयका अनुशीलन पाणिनिकी अष्टाध्यायीके गणपाठों में गोत्रों, शाखाओं किया जाय तो भारतीय संस्कृतिके महाकोषका एक और स्थानोंकी जो सूचियां हैं उनकी ओर अभी हमे सुन्दर अग तैयार हो सकता है। सौभाग्यसे बौद्धोंका ध्यान देना है। बौधायनके महाप्रवरकागड में जो संस्कृत साहित्य भी कुछ कम उपलब्ध नहीं है। और
Page #425
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६४
अनेकान्त
[वर्ष ५
ऐसा साहित्य,जो तिब्बती भाषाके तंजुर-कंजुर संग्रहो जैनसमाजकी एक दमरी बहुमूल्य देन है। वह मध्य में अनुवादरूपमें उपस्थित है, बहुत ही मूल्यवान है। कालका जैनसाहित्य है जिसकी रचना संस्कृत और इमसे भी अधिक महत्वपूर्ण चीनी त्रिपिटकोंका धुरंधर अरभ्रंशमें लगभग एक सहस्र वर्षों तक (५०० ई०संग्रह है, जिसमें मूल सर्वास्तिवादिन , महासधिक, १६०० ई०) होती रही । इसकी तुलना बौद्धों के उस पर सम्मितीय आदि बौद्ध-निकायोके अनेक प्राचीन ग्रन्थ वर्ती संस्कृत साहित्यम हो सकती है जो मम्राट कानाक सुरक्षित हैं। इस माहित्यको ऐतिहासिककी पैनी आंख या अश्वघोपके समयसं बनना शुरू हुआ और बारहवीं से टटोलनेसे उसमेंस केस मूल्यवान रत्न प्राप्त किये शताब्दी अर्थात नालन्दाके अस्त होने तक बनता रहा। जा सकते हैं इसका एक उदाहरण 'महामायूरी' ग्रन्थ दानो साहित्योमे कई प्रकारको समानता और कुछ है। इसके चीनी और तिब्धती अनुवाद तथा संस्कृत विषमताएँ भी हैं। दोनों में वैज्ञानिक ग्रन्थ अनेक है, मूलकी सहायतासे फेन विद्वान् सिलवा लेवाने जो काव्य और उपाख्यानोंकी भा बहुतायत है। परन्तु भौगोलिक अध्ययन सवासो पृष्ठोमे सन् १६१५ मे बौद्धोक सहजयान और गह्यसमाजम प्रेरित साहित्य जनेल एशियाटिकमें प्रस्तुत किया था वह आज भी के प्रभाव जैन लोग बचे रहे। जैनसाहित्यम ऐतिविद्वानोंका मार्ग प्रदर्शन करता है। पर आवश्यकता हासिक काव्य आर प्रबन्धोंकी भी विशेषता रही। इस बातकी है कि यह विराट् साहित्य भारतीयों के मध्यकालीन भारतीय इनिहामक लिय इस विशाल लिये सुलभ रीतिसे अनुवाद टिप्पणी के साथ प्रका- जैनमाहित्यका पारायण अत्यन्त आवश्यक है। यह शित किया जाय।
तत्व अब धीरे धीरे प्रगट हो रहा है। एक ओर हर्षकी बात है कि बौद्धसाहित्यसे मब वाताम यशस्तिलकचम्प और तिलक मंजरीसं विशाल गद बराबरीकी टक्कर लेने वाला जेनोंका भी एक विशाल ग्रन्थ है जिनमे मुम्लिमकालस पहलकी सामन्ल-संस्कृति माहित्य है। इसमें एक ओर तो प्राचीन द्वादशाग का मचा चित्र है, दूसरी ओर पप्पदन्तकृत महापुराण
आगमके ग्रन्ध और उनकी टीका प्राचीन पाली जैस दिग्गज ग्रन्थ है जिनम भापाशास्त्रके अतिरिक ग्रन्थोक समान श्रद्धास्पद कोटिमे है। दुर्भाग्यस उनके सामाजिक रहन-सहनका भी पर्याप्त परिचय मिलता है। प्रामाणिक और सुलभ प्रकाशनका कार्य बाद्धमाहित्य बाणभट्टकी कादम्बरीके लगभग पांचमी वर्ष बाद की अपेक्षा कुछ पिछड़ा हुआ रह गया। इसी कारण लिम्वा हई तिलकमंजरी नामक गाकथा संस्कृत महावीर काल और उनके परवर्ती कालके इतिहाम- साहित्यका एक अत्यन्त मनोहारी ग्रन्थ है। मंस्कृतिम निर्माण और तिथि-कर्मानणयम जैनमाहित्यका सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दोका बड़ा उत्तम संग्रह अधिक उपयोग नहीं हो पाया। अब शनैः शनैः यह इस ग्रन्थम प्रस्तुत किया जा मकता है। उदाहरणार्थ कमी दूर हो रही है। यदि पाली टेक्स्ट सोमायटीकी राजप्रासादोंमें मीसमहल (आदर्शभवन, पृ० ३७३) तरह एक विशिष्ट को टिकी अद्धमागधी टेक्स्ट सोमा- का प्रचार ११ वीं मदीमें ही हो चुका था। भानुचन्द्र यटी इस साहित्य के प्रकाशन कार्यको पूरा कर देती तो और मिद्धिचन्द्र जैसे जैन उपाध्यायाने कादम्बरी पर अवश्य ही लोकमें इस साहित्यके भी समुचित प्रसार टीकालिखी. परन्तु तिलकमंजगी अभीतक मसूरीश्र का माग सहाके लिये प्रशस्त होजाता । यह भी निश्चय टीकाकारी की प्रतीक्षा कर रही है। उमितिभवप्रपंचहै कि अब वह ममय चला गया जब विदेशी विद्वान कथा और ममगइञ्चकहा भी बड़े कथाग्रन्थ है जिनम इस कार्यको हमारे लिये पृग कर देते। अब तो उन स्थान स्थानपर तत्कालीन मांस्कृतिक चित्र पाये जाते है। भारतीय विद्वानांको ही. जो जैन-विद्यामं पारंगत हैं. हर्पको बात है कि जैनों के इस मध्यकालीन माहिइम श्लाघनीय-कार्यको समझदार धनिकोंकी सहायता त्यका प्रकाशन इधर बड़ी द्रनतिम होरहा है । परन्तु से पूरा करना होगा ! पर प्राचीन अंगोंक अतिरिक्त जैन भंडागकी मम्पूर्ण प्रनिधि एक प्रकारम अझ
Page #426
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
जैनसाहित्यमें प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री
३६५
पहेली है। पाटनके भंडार जगत्प्रसिद्ध हैं। जैसलमेर भी चुके हैं। श्री विजयधर्मसूरिने ऐतिहासिक रासके जैनभचरम भी अनेक अलभ्य ग्रन्थ हैं । इधर संग्रह भाग १-२ का १६१६-१७ में भावनगर सरकारंजा (प्राचीन नाम कायरंजकपुर ) के दो जैन स्वतीप्रेससे प्रकाशन किया था। पुरानी हिन्दी भाषा भंडारोंके ग्रंथ भी प्रकाशमें आये है।
में उपलब्ध ऐतिहासिक रामोंका संग्रह होना चाहिए। भारतीय इतिहासकी दृष्टिस जैनोंकी इस नूतन राजपूताना और युक्तप्रान्नके भंडारोमे इस प्रकारका सामग्रीका बर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है- साहित्य बहुत मिल सकता है। १. प्राचीन ऐतिहासिक काव्य- २. प्रबन्धसंग्रह__ ये काव्य विशेषविद्वान, सूरीश्वर अथवा युग- संस्कृत भापामें लिग्वे हुए पुरातन प्रबन्ध इतिप्रधान प्राचार्यों के जीवन या उनम मम्बन्धित किमी हासकी दृष्टिम बहुत मूल्यवान हैं। इनमें मेरुतुंगाचार्य महत्वपूर्ण घटनाको लेकर लिख गये गीत या रचना का प्रबन्धचिन्तामणि बहुत प्रसिद्ध है और सुन्दर हैं। हिन्दी भाषामे ऐसी रचनाओका एक अत्युत्तम मितिम मंपादित होकर मिघीजैनग्रंथमालामे छप भी संग्रह नातिहासिक जैनकाल्यग्रह' के नाम श्री चुका है। राजगेवर मूस्कृित प्रवन्धकोप भी इसी अगरचंद्र नाहटा और भंवरलाल नाहटाने संपादित ग्रंथमालामे छपा है। दूसरे पुटकर ऐतिहासिक प्रबकिया है। चारमास अधिक पृष्ठोम गीतोंका चुनाब है न्धोंको इकट्ठा करके श्री जिनविजयजी ने 'पुगतनजो भाषाके विकारमकी दृष्टिप भी ध्यान देने योग्य है।
प्रबन्धसंग्रह' नामक एक अतीच उपयोगी संग्रहग्रंथ ___एक गीतम १६-५७ वी शताब्दीक मारवाड़की प्रकाशित किया है । 'प्रबन्ध' को हम अाधुनिक शब्दों लोकदशाका केमा यथार्थ वर्णन है- जिस प्रकार में ऐतिहासिक-निबन्ध कह सकते हैं जो किमी मारवाड़ मोटा दश है स वहाक कोश भी लम्ब हैं, शामक, विद्वान या घटना-सम्बन्धी निहासिक जाननिवासी भट प्रक्रतिक है. मनम रांप नहीं रखते. फारीको लेकर लिया गया हो । मध्यकालका भारतीय कमरमे कटारी बाँधते है। बणिक लोग भी जबरे इतिहास प्रबन्धोंकी सामग्रीम लाभ उठाये विना योद्धा है, हथियार धारण किये रहते हैं, रगामिम पूर्ण नहीं बन मकता । हर्ष की बात है कि श्री जिनसपाला नही फेरते. वधर्मियांका धर्म में स्थिर विजयजीने इस प्रकारकी ऐतिहासिक मामग्री के प्रकाकरत हैं। निष्कपट वृद्धा भी लम्बा घंघट रखती हैं। शनके कार्य को बड़ी व्यवस्थितरीनिस मिघीजन जीवन में मादगी और रमाईम राबकी प्रधानता है। ग्रन्थमालामें आरम्भ किया है। चाहनांम ऊँट प्रधान है। पथिक लोग जहाँ थकते हैं ३. पावलीवही विश्राम लेने हैं, परन्तु चोरीका भय नही है। जैनसंघ एक जीविन संस्था है। इसका मंगठन मध्यकालीन जैन इतिहास में श्री हीरविजय, विजय- प्राचीनकालमे आजतक अवाधित चलता श्रा रहा सेन, विजयदव, भानुचन्द्र आदि विद्वान आचार्यों की है। जैनगुरु इम मंगठनके मेरुदण्ड हैं । इमलिये पर्यात ख्याति है, उनके संबंधमे भी इन फुटकर-गीता जैनाचार्य परंपगका अनुसंधान जैनसंघके क्रमसे लोककी श्रद्धाका अच्छा प्राभारा मिलता है। गुज- बद्ध इतिहासके लिये अत्यन्त आवश्यक है। जैनमंघ राती भापामे इस प्रकारके काव्य-गीतोंकी और के विकासका एक विस्तृत इतिहास अभी लिग्वा जाने भी अधिकता है। उनका एक संग्रह श्री जिनविजयजी को है। उसमें इस गुरुपरम्पराकी विशप आवश्यकता ने ऐतिहासिक गजेरकाव्यसंचय' के नाम किया है। होगी। ऐतिहामिक रासोंका मंग्रह भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। म तो जैन मंघके संगठनकी मूल रूपरेखा प्राचीन गुजराती भापाक रागों के तीन-चार सग्रह छप कल्पमूत्र में मिलती है। उसमें पृथक पृथक गणोंकी
Page #427
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६६
अनेकान्त
[वर्ष ५
शाखाओं और कुलों के नाम दिये गये हैं। पुरातत्वकी भावकश्रेष्ठीका सुन्दर विवरण पाया जाता है । यह अद्भत साक्षी है कि उन गण-शाखा-कुलोके संग- तत्कालीन शासक और प्रतिलिपिकारके विषयमें भी ठनका यथार्थ-परिचय कंकाली टीला मथुरासे मिले सूचमाएँ मिलती हैं । इतिहासके साथ भूगोलकी हुए पहली-दूसरी सदीके प्रतिमालेखोस प्राप्त होता है। सामग्री भी पाई जाती है। मध्यकालीन जैनाचायों मथुरा उस समय उत्तरी भारतमें जैनधर्म और संघ के पारस्परिक विद्या-सम्बन्ध. गच्छके साथ उनका का प्रमुख केन्द्र था। वहांका शक्तिशाली संघ समस्त सम्बन्ध, कार्यक्षेत्रका विस्तार, ज्ञानप्रसार के लिये उद्योग उत्तरापथमें प्रख्यात था । कल्पसूत्रम दिये हुए अधि- आदि विपयो पर इन प्रशस्ति और पुष्पिकाओंसे कांश नाम ज्यो के त्यो कंकाली टोलक गण-शाखा- पर्याप्त मामग्री मिल सकती है। श्रावकोंकी जातियों के कुलों में मिल जाते हैं। डा. बृलहरने 'इंडियन संक्ट निकास और विकास पर भी रोचक प्रकाश पड़ता है।
आफ दी जैनम' पुस्तकमें इसका तुलनात्मक विवेचन अभी तक जैनपुस्तक प्रशस्ति-संग्रह प्रथमभाग' प्रकाकिया है। संघका वह प्रान्तीय संगठन कालान्तरमे शित हो चुका है।
और भी वृद्धि को प्राप्त हुआ होगा। इसके प्रमाण मध्यकालीन जैन आचायोकी गुरुपरम्परा एवं गच्छोकी ५. प्रातमालखसंग्रहविविध पदावलियों को देखने मिलते हैं। श्री दर्शन- संघीयइतिहासका दमग माधन प्रतिविजयजीन पट्टावलीसमुच्चय नामक संग्रहमे इस माओं पर खुदे हुए लेख हैं। पुरातत्वस मम्बम्ध होने प्रकारको कई सूचियोका बहुत उपयोगी संकलन किया के कारण यह सामग्री अत्यधिक विश्वनीय मानी जाती
जीवनयी पारळ-पटावलीका है। किसी भी पुराने जैन मंदिर में हम जायं इस प्रकार प्रकाशन किया है। जिस प्रकार ब्राह्मण और उपनि- के लेखोंका अस्तित्व हमें मिलेगा । हस्तलिखितग्रन्थों में षदोके समयमे अध्येता लोग ब्रह्मास लेकर 'अस्माभि- जो स्थान पुष्पिकाओंका है वही मूर्तियोंपर प्रतिमारधीतम तकके विद्या वंशका स्मरण किया करते थे लेखोंका है। लगभग उसी प्रकारकी भापामें वेमी ही ( जिनमस कई सूचियां अभी तक उपलब्ध हैं ) उसी मूचना मिलती हैं। अभी देवगढ़के प्राचीन जिना प्रकार जैन लोग भी समण भगवान महावीरस आ- लयोंमें जो बिम्ब हैं उनपर कितने ही इसप्रकारक रम्भ करके उनके गण ओर गणधरोकी परम्पराका लख हमारे देखने में आए हैं। इसप्रकारके लेखोंका स्मरण करते हुए कालान्तरके आचार्योकी गुरु- मंग्रह श्रीपूर्णचन्द्रजी नाहरने छपाया था परन्तु शिष्यशृंखलाक द्वारा अपने विद्यावंशका पूरा ब्योग कार्य बहुत विस्तृत है और उसकी प्रगति आग बढ़नी रखते थे। मध्यकालीन जेनसंघमें जो अनेक विद्वान चाहिये। हा उनका पूरा विवरण यदि इन पट्टावलियां में
६. विज्ञप्तिपत्रमम्मिलित किया जाय तो संघका अच्छा इतिहाम तैयार हो सकता है।
विज्ञप्तिपत्र कुंडलीके आकारक उम आमंत्रणपत्र
की संज्ञा है जिस स्थानीय जैनसमाज भाद्रपद में ४. प्रशस्तिसंग्रह
पर्युपरणापर्व के अन्तिमदिन अपने दूरवर्ती प्राचार्य या गुरु-शिष्य-परम्पराके इतिहासके दो उत्तम साधन गुरुके पास भेजता था । उसमें स्थानीयमंघके पुण्य हैं। पहला तो हस्तलिग्वितग्रंथोंके आदिमें दी हुई कार्योंके वर्णनके साथ गुरुके चरणों में यह प्रार्थना प्रशस्तियाँ और अन्त में दी हुई पुप्पिकाएँ हैं। रहती थी कि वे अगला चातुर्माम्य उस स्थानपर आकर इनमें ग्रन्थलेखनकी प्रेरणा देने वाले जैनगुरुका, बिनाये। विज्ञप्तियों का जन्म गुजरातमें हुआ और जैनेउनके शिष्यका और ग्रन्थलेखनका मूल्य देने वाले तर समाज में इनका अभाव है। पहले विज्ञप्तिपत्र सामान्य
Page #428
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२
जैनमाहित्यमें प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री
३६७
प्रार्थनापूर्ण आमंत्रणके रूप में लिख जाते होगे परन्तु काल पाकर उनका रूप अत्यन्त संस्कृत होगया। उन- प्राचीनकालमें जैन संघपति और प्राचार्य समामें चित्रकारीको भी भरपूर स्थान मिला । प्रपण- रोहपर्वक लम्बी लम्बी तीर्थयात्राएँ किया करते थे। स्थानका चित्रमयप्रदर्शन विज्ञप्तिपत्रमें किया जाता
कुछ विद्वान साधु उन यात्राोका विवरण भी लिख था। संघके सदस्योका भी परिचय रहता और कभी
डालते थे। इस प्रकारके विवरण भूगोलकी दृष्टिसे कभी इतिहास-विषयक घटनाएँ भी आजाती थीं।
। अत्यधिक महत्वपूर्ण जान पड़ते हैं । इस विषयका श्रीजैनात्मानन्दसभा भावनगरकी ओरसे 'विज्ञप्ति
- अच्छा परिचय श्री नाथूरामजी प्रेमीने अपने ग्रन्थ त्रिवेणी' नामक तीन पत्रोंका एक संग्रह श्रीमुनि जन
जैन साहित्य और इतिहासके 'दक्षिणके तीथक्षेत्र' विजयजीके मंपादनमें सन १६१६ मे प्रशाशित हुआ नामक लेख में दिया है। इसमें ज्ञात होता है कि श्री था। इसमें मुनिसुन्दरमूरिका अपने गुरु देवसुदर- धर्मविजयसरिने प्राचीन-तीर्थमाला-संग्रह' नामका सूरिको लिम्बा हुआ मंचन १४६६ का एकपत्र १०८
___ एक संग्रह श्रीयशोविजयनग्रंथमाला भावनगरसे हाथ लम्बा है। अभी १६४२ में श्री डा. हीरानन्द
प्रकाशित किया था जिसका मल्य शास्त्रीने ऐशविज्ञप्तिपत्राज' नामसे अंग्रेजीमे एक
- शानियोंकी लिली र्ट मचित्र ग्रन्थ इम विषयपर श्रीप्रतापसिंह महाराज छोटी-बड़ी पच्चीस तीर्थमालाएँ हैं। श्री शीलविजय राज्याभिपक ग्रन्थमालामें बड़ौदेसे प्रकाशित किया है।
नामक एक प्राचीन साधुकी लिखी हुई तीर्थमाला भी इममे विज्ञप्तिपत्रों के स्वरूप और ऐतिहासिक महत्वका इसमें संग्रहीत है । संवत १७११-१७४८ के बीच सुन्दर विवेचन है। इसका पहला विज्ञप्तिपत्र आगरा जैनसंघकी ओरसे युगप्रधान मुनिश्रीविजयसनमुरिक यात्रा करके शीलविजयजीने अपने अनुभवस अपनी पाम पाटनमें भेजा गया था। यह विदित है कि तीर्थमालाको लिखा था। भारतीय भूगोलके अनुअकबग्ने हीरविजय, विजयसन और भानुचन्द्र आदि संधानमें इन तीर्थमालाओंसे पुराणगत तीर्थमाहाजैनाचार्यों के प्रभावमे आकर पर्युपणापर्वमे पशुहिसा- म्यों की तरह बहुत सहायता मिलसकती है। प्राचीन का मथा प्रतिषेध कर दिया था। पीछे जहांगीरके जैनग्रंथोम जिनप्रभसूरिकृत 'विविधतीर्थ-कल्प' तीर्थोंसमयमे यह आना रद्द कर दी गई । परन्तु राजा के इतिहासके लिये एक विलक्षण प्रन्थ है, जिसका रामदामकी प्ररणाम पुनः प्राचीन नियम बहाल किया विस्तृत विवेचनके साथ संपादन होना चाहिए। मूल गया। और जहांगीरने एक शाही फरमान आगरा ग्रंथ सिंघीग्रंथमालामे छप चुका है। इसमें मथुराके जैनममाजको १६१० में प्रदान किया। उसीकी सूचना प्राचीन जैन स्तूपका भी इतिहास है। इस विज्ञप्तिपत्रद्वारा बूढ़े युगप्रधान सुरीश्वर श्रीविजय
८ चरित्र-काव्यमनजीक पास भेजी गई । पत्रके प्रथमभागमें चित्र
जानकी मरमा किती गई। इस कोटिम हम देवानन्दमहाकाव्य, कुमारपालउममें सम्राट् जहांगीर और राजकुमार खुर्रम तथा चरित, प्रभावकचरित, जम्बूम्वामीचरितम , हीरगजा रामदामके भी चित्र हैं। चित्रकार प्रसिद्ध शालि- सौभाग्यकाव्य जैसे विशिष्ट काव्योंको रख सकते हैं वाहन हैं जो जहांगीरी दरबारके कुशल चितेरों में से जिनमें इतिहाससाधनकी अपरिमित सामग्री है। हाल थे। आगरेकी तत्कालीन जनताका भी चित्रमें अंकन हीमें सिंघीग्रंथमालामें 'भानुचन्द्रचरित' नामक एक है। आशा है भदागेके प्राचीन संग्रहोंमें ढढनेसे अतिमहत्वपूर्ण ग्रन्थ प्रकाशित हुआ है जिससे अकबरऔर भी महत्त्वपूर्ण विज्ञप्तिपत्र प्राप्त होगे।
कालीन इतिहास विशेषकर सम्राट और अन्य प्रमुख दरबारीजनोंके चरित्रपर सच्चा प्रकाश पड़ता है।
Page #429
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६८
अनेकान्त
सिद्धिचन्द्र रूपमें दूसरे कामदेव थे । अकबर छुटपन से ही उनको चाहते थे और महलमें भी उनके जाने की रोक-टोक न थी । भानुचंद्र की शिष्यतामें सिद्धि चन्द्र ने नैष्ठिक ब्रह्मचर्यव्रत धारण करके संन्यास लिया । वे अयन्त मेधावी और सचरित्र थे । अपने तपोमय जीवनसे उन्होंने सम्राट अकबर तथा जहांगीर को भी बहुत प्रभावित किया। उन्होंने बहुत निकट मे wears व्यक्तित्वका निरीक्षण किया था । उनका एक श्लोक ही सम्राट् जलालुद्दीन अकबर के विशाल व्यवसायी स्वभाव और गुणोंका सर्वोत्तम परिचय देने के लिये पर्याप्त है
काद्ज्ञानं न तद्वैर्यं न तद्बलम | शाहिना युवराजेन यत्र नैवोद्यमः कृतः ||१|५६|| अर्थात कोई भी कला, ज्ञान, साहस और बलका ऐसा कार्य नहीं था जिसका अभ्यास किशोरावस्था में युवराज अकबरने न किया हो। जिस इतिहासग्रंथ में reat after यह अनुपम गाथा न हो वह इति हास फीका कहा जायगा। अकबरनामा और आइने
[ वर्ष ५
अर्थात् 'मतिमानोंम श्रेष्ट वह अबुल फजल समस्त साहित्यरूपी समुद्रको पार कर चुका था । साहित्य में कुछ भी ऐसा नहीं था जो उसने देखा या सुना न हो ।'
मिद्धिचंद्र वे ही हैं जिन्हें अकबर ने 'खुष्कम' की उपाधि से विभूषित किया था और जिन्होंने अपने गुरु भानुचन्द्र के साथ कादम्बरीपर सर्व विदित टीका लिखी है। इनके गुरुने अकबरको सूर्यसहस्रनाम का अध्यापन कराया था, जब पारसीधर्मसे प्रभावित हो कर करके मनमें लोकको चैतन्यके प्रदाता भगवान सूर्य के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होगई थी ।
जैन साहित्य में से इस प्रकार के अन्य जितने भी काव्य मिल सके इतिहासके लिये वे अमूल्य होंगे । विदित हुआ है कि श्री नाथूरामजी प्रेमी कविवर बनारसीदास - विरचित हिन्दी आत्मचरित प्रकाशित कर रहे हैं जो अकबर - जहांगीर शाहजहांके राज्यकालसे सम्बन्ध रखता है और उस समयकी सामाजिक व धार्मिक अवस्थापर बहुत प्रकाश डालता है । इस प्रकार जैनसाहित्य में ऐतिहासिक साधनकी प्रभूत सामग्री है, जो क्रमशः प्रकाशमे आ रही है। अपभ्रंश साहित्य के जो अनेक ग्रन्थ श्रीहीरालाल जैन, प्रो० उपाध्ये और प्रो० वैद्यक सत्प्रयत्नोंसे प्रकाशमे आ रहे हैं उनमें भारतीय भाषाओं विशेषतः हिन्दी के विकास पर अपरिमित प्रकाश पड़ता है तथा आनुषंगिक रीतिसे देश-दशाका भी परिचय प्राप्त होता है ।
कवरी सदृश महाप्रन्थोंके रचयिता अबुल फजल के उदार मस्तिष्क बारेमें सिद्धिचंद्रने जिन स्तुतिभरे शब्दों का प्रयोग किया है उनसे प्रकट होता है कि कोई समशील विद्वान दूसरे आत्मसदृश विद्वानको पहचानकर कुछ कह रहा हैनिःशेषवाडमयांभोधेः पारदृश्वा विदांवरः || १९६७ नास्ति तद्वामये तेन न दृष्टं यच न श्रुतम् ॥ १७१
चैत्र शुक्ल २, बिक्रमाब्द २०००
नागौर, जयपुर और मेरके कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची
भण्डार,
नागौर, जयपुर और आमेर में हस्तलिखित जैनग्रन्थोंक बड़े बड़े भण्डार हैं । नागोरका एक भट्टारकीय शास्त्रजो पचास वर्ष बन्द था, अभी खुला है इसके उद्घाटन के अवसर पर वीर सेवामन्दिरसे प० परमानन्द जीशास्त्री को भेजा गया था । जो नागौर से जयपुर श्रामेर होते हुए वापिस आए हैं। उन्हें अपने इस प्रवासमे हन स्थानोंके जिन शास्त्र भण्डारीको देखनेका जितना श्रवमर मिल सका है उसके अनुसार उन्होने उन हस्तलिखित ग्रन्थीकी एक सूची तैयार की है जो गतवर्ष और इस वर्ष की अनेकान्त - किरण मे प्रकाशित ग्रन्थसृचियोम नहीं आए हैं और जिसे भण्डारक्रमसे नीचे दिया जाता है। इन स्थानीके भण्डारोम विपुल ग्रन्थराशि भरी पड़ी है, जिसका विशेष परिचय तभी दिया जा सकता है जब इन स्थानोंके सभी शास्त्र भण्डारोको पूरी तौर से देखनेका अवसर मिले | नागार के महारकजाने अपने शास्त्र भडारको पूरी तौरसे देखने नही दिया, इसका बहुत अफसोस रहा ! आशा है वे या तो स्वयं अपने शास्त्र भण्डार की एक विस्तृत प्रामाणिक सूची शीघ्र प्रकाशित करेगे और या दूसरोको वैसी सूची तैयार कर लेनेक लिये श्रामंत्रित करेगे । इन शास्त्र भण्डारीका विशेष परिचय फिर किसी समय दिया जायगा । -सम्पादक
Page #430
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
(१) भट्टारकीय शास्त्रभण्डार नागौरअन्ध-नाम
ग्रन्थकार-नाम
भाषा पत्रसख्या रचनासं लिपिसं. चन्द्रप्रभचरित्र कवि दामोदर
संस्कृत १३१ ७७२० १७८६ द्रव्यसंग्रहटीका भ. भाचन्द्रदेव
-- १६१६ नेमिपुराण
ब्र० नेमिदत्त प्रतिष्ठासूक्किसंग्रह पं. वामदेव
७६ यशोधर चरित्रपंजिका(अष्टमश्रा.) रत्नकरण्डश्रावकाचार कविवर श्रीचन्द
अपभ्रंश लक्ष्मी-सरस्वती-संवाद भ० श्रीभूषण
संस्कृत षट्कर्मोपदेश भ. अमरकीर्ति
अपभ्रंश ७६ १२४७११६८ सम्यक्त्वकौमुदी
पं० रइधू संस्कृतमंजरी भ. चन्द्रकीर्ति
संस्कृत
-- १८१८ (२) स्व. बाबा दुलीचन्दजीका शास्त्रभण्डार जयपुरप्रागमशतक ५० द्यानतराय
हिन्दी पद्य . .. करकंडुचरित्र भ. शुभचन्द्र
संस्कृत , २६ चन्दनाचरित्र : भ. शुभचन्द्र
१८२५ चन्द्रप्रभपुरास नरसिंहसुत हीराचन्द
हिन्दी पद्य । ३१२ तत्त्वसार टीका चौधरी पन्नालाल
प्रा. हिन्दी ४. त्रिभंगीसार-टीका पं० श्राशाधर
प्रा. संस्कृत : १७ नवतत्व-टीका चौधरी पन्नालाल
प्रा. हिन्दी पवनदूत
चादिचन्द्र पाण्डवपुराण
भ. प्रभाचन्द्रशिप्य वादिचन्द्र प्राकृतछन्दकोश कवि अल्ह
प्राकृत १३ वर्धमानकाव्य
अपभ्रश ७१ सिद्धान्तार्थमार ; पंडित रइधू
१२६३ (३) पाटोदीमंदिर जयपुरका शास्त्रभण्डारनमस्कारमंत्रक्ल्पविधिहिन भ. सिंहनन्दी
संस्कृत पुरुषार्थसिद्धय पाय-टीका
१५८२ भावनांगोपाख्यान
जिनचन्द्रशिप्य वामदेव भूपालचतुर्विशतिका-टीका
विनयचन्द्र नरेन्द्र भूपालचतुर्विंशतिका-टीका प. श्राशाधर वाग्भट्टालंकार-टीका
श्रेष्टिपोमराजसुत वादिगज श्रावकाचार पं० लक्ष्मीचन्द्र
अपनश । श्रेणिकचरित्र भ. विजयकीर्ति
हिन्दी पद्य श्रेणिकचरित्र
अपभ्रश ३
१६५५ सभाशृंगार
संरकृत २० । -- १६७१ सिद्धान्तसार वीरसेनशिगुणसंनशि० नरेन्द्रमन
१८६६ हनुमानचरित्र ब्र. अजित
। ८५ -- । १६५४
M
४
:::::
।
१००
Page #431
--------------------------------------------------------------------------
________________
३७२
अनेकान्त
[वर्ष ५
हो, विचार करते समय शास्त्रीजीने जो दंग अग्नियार का व्याख्यान करते हैं। यह उनकी व्याख्यापद्धति है।" किया है उस परमे यह आशंका जरूर हो सकती है कि इसी तरह प्रकलंकदेव राज्यातिक्मे तन्वार्थसूत्रके प्रत्येक हम अपने विचार-द्वारा शास्त्रीजीको सन्तुष्ट कर सकेंगे या अंशका या तो वार्तिक बनाकर या उन (उम") का सीधा कि नहीं? क्यों कि अभी शास्त्रीजी कई शताब्दी पूर्वके ही विशद व्याख्यान करने हैं। इसके सिवाय, सर्वार्थसिद्धि बालचन्द्र योगीन्द्रदेव और श्रुतमागरादि टीकाकारके विषय की भूमिकामे तत्त्वार्थ मूत्रकी उत्पति एक भव्यके प्रश्न पर मे कहते थे कि उन्होने उक. मंगलश्लोक्को उमास्वामिकृत बतलाई है, "भूमिकाके अनुसार यदि तत्वार्थसूत्रकी भव्यके तस्वार्थमन्त्रका जो मंगलाचरण बनलाया है वह उन-1 प्रश्नके अनुसार उत्पत्ति हुई सोमूत्रकारको मंगलाचरण भाधुनिक कल्पना है-उन्हें उसके लिये पूर्वपरम्पग प्राप्त करनेका कोई अवसर या प्रमंग नही था"। 'मूल तत्वार्थमूत्र नहीं थी. जब उन्हें विद्वानोंके स्पष्टीकरण द्वारा विद्यानन्द की कुछ प्रतियोमे यह श्लोक भी नही है।" प्रत. विद्यानन्द तककी पूर्वपरम्पग प्रास होगई तब विद्यानन्द मान्यताको रोपनी मान्यताके लिये पूर्वपरम्परा सनही थी। पूर्वपरम्पराका प्रश्न सामने लाया गया है। यदि किमी हम युकिवादक पिलले दो अंश पूर्वपरम्पगके विचार विद्वानने विद्यानन्द-मान्यताको पूर्व परम्परा भी बनलाठी नो के साथ कोई सम्बन्ध नही सम्बते । मूलतत्वार्थमूत्रकी फिर उन दमरे उत्तरोत्तर श्राचार्यों की मान्यताका प्रश्न कुछ प्रनियोंमे हम मंगनश्लोकका न पाया जाना प्रकृत विश्य उठाया जायगा, और इस तरह जब तक उन मंगलश्लोक पर कोई असर नहीं डालता-खामकर ऐसी हालतमे जब को टीकासहित उप० भाग्यमे नहीं दिग्याला दिया जायगा कि उनकी प्राचीनताका द्योतक ममयका उल्लेख भी साथम जिसे शास्त्रीजी "स्यय पत्रकारका म्बोपज भाय" न हो और अधिकांश प्रतियोमे यह मंगलोक पाया जाता प्रसिद्ध बतलाते हैं नव नक शायद वे सन्तुष्ट नहीं हो सकेंगे। हो। रही भव्यके प्रश्न पर तग्वार्थसूत्रकी उत्पत्ति, इसके परन्तु ऐसी आशंका करके कर्तव्य-पालनमे शिथिल होना विषयमं प्रथम नो शास्त्रीजी खुद मंदिग्ध है हमीस 'यदि' व्यर्थ है--शास्त्रीजीका मन्तुष्ट होना न होना उनके आधीन शब्दका माथमे प्रयोगकर रहे हैं। दूसरे, नवार्थमूत्र प्रश्नोत्तर है, विद्वानोंको विचारक्षेत्रमे अपने कर्तव्यको जरूर पूग के रूपमे नही है--प्रश्नोत्तर रूपमे होनेपर उममें उक्गके करना चाहिये । यही सब सोच कर मैं शास्त्रीजीकी युनियो पाथ प्रश्न भी रहने चाहिये थे; परन्त प्रश्न को दूर रहे, के निर्देशपूर्वक उन दोनों बातों पर अपना विचार प्रस्तुत प्रथम दो प्रश्नोंके उत्सर भी माथमे नही । ग्रन्थका मन करता है।
प्रकृतिको देखते हुए, समितिकी भूमिकामे ग्रन्थावतार (१) पूर्वपरम्परा-विचार--
का जो मम्बन्ध व्यक किया गया है उसका इतना ही पहली बात पूर्वपरम्पराके अभाव सम्बन्धमे प्राशय जान पड़ता है कि क्मिी भन्यके प्रश्न लेकर शास्त्रीजीने जो युक्तिवान उपस्थित किया है उसका सार और सभी भव्य जीवीको लक्ष्य करके प्राचार्य महोदयने इतना ही कि-विद्यानन्दको तत्त्वार्थसूत्र पर अपने स्वतंत्र रूपमे इम ग्रन्थनको रचना की है-यह प्राशय पूर्ववर्ती प्राचार्योंके दो ही टीकाग्रन्थ उपलब्ध थे एक प्रा. कदापि नहीं लिया जा सकता कि उस भव्य तथा प्राचार्य पूज्यपादकी 'सर्वार्थमिद्धि' और दूसरा श्रीप्रक्लवदेवका महोदयके मध्य में जो साक्षात प्रश्नोत्तर हुआ था उमाके 'राजवानिक', इन दोनों टीकाग्रंथोंम 'मोक्षमार्गस्थ नेतारम्' उत्तर भागको विमाने क्रमशः निबद्ध कर दिया है। तीसरे. इत्यादि मंगलश्लोककी कोई व्याग्या नही है, राजवार्तिक्मे अवतार-कथा कुछ भिन्न प्रकारमे भी पाई जाती है। श्रीर इसका निर्देश तक भी नहीं है। यदि यह मंगनश्लोक चौथे, राजवानिकी श्रीलंकदेव 'अपर श्रागनी याः। तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण होता तो पूज्यपाद और अकलंक नाऽत्र शिष्याचार्य सम्बन्धीविवक्षितः। किन्तु इति निश्चित्त्य देव इसवी व्याख्या जरूर करते, क्योकि "पा. पूज्यपाद मोक्षमार्ग व्याचिण्यासुरिदमाह ।" इग्यानि इन प्रथम मूत्रक मर्वार्थ सिद्धि में तस्वार्थसूत्रके किसी भी अंशको बिना पीठिकावाक्योद्वारा प्रश्नोत्तरस्पसम्बन्धक प्रभावका भीसूचन व्याल्या और उत्थानके नहीं छोड़ते वे उसके एक एक शब्द करते हैं। अत: मंगलाचरणको अनवसरप्रास तथा अप्रा.
Page #432
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १०-११]
नत्तार्थसूत्रका मंगलाचरण
३७३
संगिक नही कहा जा सकना और न ऐसा कहकर विद्यानन्द युनिमगत नहीं है। और इसीतरह मात्र इन दो टीकाग्रयों की मान्यता के लिये पूर्वपरम्पगका प्रभाव ही बतलाय, पम्मे विद्यानन्द मान्यताकी पूर्वपरंपराको ग्बोजना भी युकिजा सकता है।
युन नही है। मान्यता पूर्वपरम्पराके लिये दूसरे टीकाअब रह जाना है युनिवाडया:थम प्रधान अंश, इस
ग्रन्थ वाटीकामामे भिम दृग्र ग्रन्थ, जिनमें प्राप्तके सम्बन्ध मेग निवेदन इस प्रकार है
परीक्षादिकी नाहतवार्थमूत्रके मगलाचरणका उल्लेग्ब हो, प्रथम तो कहना टीक नहीं कि पा० विद्यानन्दको
और अपने मानानगुर, दादागुरु नथा समकालीन दगरे माधमिद्धि और गजवातिक ये ही टोकाग्रन्थ उपलब्ध
वृद्ध प्राचार्गेमे प्राप्त हश्रा परिचय ये मय भी कारण हो धं क्योंकि मा कहना नभी बन सकता है जब पहले यह
सका है। इनके सिवाय. अपने समयमे १००-७०० वर्ष सिद्ध कर दिया जाय कि विद्यानन्द पाल नवार्यमत्रपर
परलं की लिम्बी हुई मृग्न वामृत्रकी मी प्रामाणिक इन दो टीकाग्रन्थोंके सिवाय और किसी भी दिगम्बर टीका
प्रनियो भी उस मान्यनाम कारण हो सकती हैं जिनमें उक्त प्रथमीरनना नहीं हुई थी। पम्न यह सिद्ध नही क्यिा
मंगलश्लोक मंगलाण पमे दिया हुश्रा हो । इतनी जा याना, क्योंकि अनेक शिलालम्बी श्रादि पम्प यह प्रकट
पुगनी--श्रा. उमाम्बानिक समयनककी-नियोका मिलना है कि पूर्वमं दृमर भीटकानन्य रचे गये हैं, जिनममे एक
उस समय कोई असभव नहीं था । अाज भी हमे अनेक तो यही हो सकता है जिपका राजवातिकम प्रथम सत्रके
ग्रन्धाकी गयी प्रनियां मिल रही है जो अयमे ६००-७०० अनन्तर 'अपरे प्रागनीया इत्यादि वाक्यों द्वारा मृचन
वर्ष पहलं की लिम्बी हुई है । पपीहालनम मात्र मार्थपाया जाना है, दमग स्वामी समन्तभद्र के शिष्य शिवोटि
मिद्धि नथा गजवानिकको विद्यानन्द-मान्यतारी पूर्वपरंपरा पात्र या टीमग्रन्थ है. जिसका उल्लेख श्रवणबेलगोलके
के निर्णयका प्राधार बनाना श्रापनिमे बाली नही है। शिलालम्ब नं. 1. निम्न वाम पाया जाता है और जिसमें प्रयुक्त हुअा 'पतन शब्द इस यातको प्रकट करना
मरे, मामिति और राजयानिकर्म उक्तमगलहै कि यह श्लोक उमी टीकाप्रथका वास है और वहीं शोककी टीकाका न होना इसके लिये कोई बाधक नही है लिया गया है
कि उक्त. मंगलशोक तपार्थमयका मगलाचरण है और न "नम्यंव शिश्शिवको टिमरिम्नपोलनालम्बनयमित इसके लिये कोई माधक ही है कि विद्यानन्दकी मान्यताको मंगाग्वागकरपातमनत्तन्वार्थमन्त्रं नातंचकार ॥" पूर्वपरमगका समर्थन प्राप्त नहीं था. क्योंकि टीकाकागके __यह भी नहीं कहा जा सकता कि उन दसर टाकाया लियं या लाजिमी नहीं है कि वे मगलश्लोकी भी व्या का विद्याननम्या उपलब्ध होना श्रम भव था क्योंकि उप ग्या को ग्वामकर मी हाजनमें उनके लिये व्याया लब्धिमे अभवताका कोई कारण प्रतीत नहीं होता। करना और भी अनावश्यक होजाता है जबकि उन्होंने मूल मभावना तो यहा तक भी होनी है कि गुरूमा जो ग्रन्थ के मगलाभणको पनाकर उसे अपनी का मंगला. उपलब्ध न हो वर गिग्यको उपलब्ध हो जाय कि चरण बना लिया हो। मामिद याही टीकाग्रंथ है त्रमागासंग्रहादि जो ग्रन्थ पं. गोपालदागनीको उपलब्ध जिम्मम मूलके मंगनाना को अपना लिया गया है और नही थे वे अाज नई ग्बोजके कारण उनके शियाँको उप राजवानिक मी ही मूत्रवानिक टीकाकृतिको निये लब्ध होरहे हैं। और इसलिये मभव तो यह भी है कि हुग है जो मगलाचरणको व्य ग्याको अनावश्यक कर देती जो टीकाप्रथ पूज्यपाद तथा अकलंकको प्राप्त न हो वह है। इस विषयका विशेष मईकरण एवं पुष्टीकरण मैने विद्यानन्द के सामने मौजूद हो। धन अपनेको उपलब्ध इन अपने प्रथमलग्यमे कर दिया है और रहा महा इस लेग्यम दो टीकाग्रन्या परमे यह कल्पना कर लेना कि विद्यानन्दको 'आतंप परिहार ममीना उपशीर्षक नचिकर दिया गया है भी यही दो टीकाप्रम उपलब्ध थं-इनमे पुराना अथवा प्रत यहो पर उमको फिर दोहगनकी जरूरत मानम इनके समकालीन दृमरा कोई टीकाग्रन्थ उपलब्ध नहीं था- नहीं होती।
Page #433
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०२
अनेकान्त
[वष ५
जाते हैं । इनका वरदहाथ साधुस्वभाव और नूतनसाहि- अन्तरात्मा, निर्मल मति, मिद्धन्तरूपी रसायन त्यप्रेम ये तीनों ही बातें ग्रन्थों के निर्माणकार्य में विशेष के रसिक और मुनियों के भक्त जैसे विशेषणोंके द्वारा सहायक हुई हैं। जान पड़ता है उम समय माहू इनका खला यशोगान किया गया है* इम सबका क्षेमराज, और इनके भाई होलू एवं कुटुम्वीजन बड़े कारण इनकी धर्मनिष्ठता, उदारता आदि म्द्गु ण हैं। ही धर्मात्मा और परोपकारी सज्जन थे। ये अग्रवाल पंडित रइधू काठामघके माथुगन्वय और पुष्करजातिके प्रसिद्ध वणिक थे, दि. जैनधर्म के अनुयायी गणके भट्रारक यशःकीतिक शिष्य तथा भ० गुण थे. विद्वानोंका आदर-सत्कार करना और उनकी कार्तिके शिष्य थे। इन भटारकोंकी गही गोपाचल आवश्यकताओंकी यथेष्ट पूति करना अपना परम (ग्वालियर) में था। कविवर महाचन्द्रने अग्ने शान्तिकर्तव्य समझते थे। ग्रन्थकर्ताने स्वयं पार्श्वपुराण के नाथ चरित्र में जिसका रचनाकाल वि० सं० १५८७ निम्न पद्यों में इनका कुछ परिचय दिया है जो इस है, पुष्पदन्तादि महावियोक माथ पंडित रइधूका प्रकार है:
भी म्मरण किया है। सिरि-डुंगरसीह णरेद-रजि,
कविवर रइधूका ग्रन्थरचनाकाल यद्यपि उनकी वणिवह णिवसइ पुणु बहुदुमजि । खुदकी कुछ अन्यप्रशस्तियों में जो अभी तक देखने में दुक्खिय-जण-पोसणु गुणणिहाणु ,
आई हैं, उपलब्ध नहीं होना । संभव है कि अन्य जो भयरवालकुल-कमल-भाणु । किन्ही ग्रन्थोकी प्रशस्तियों में वह मिल जाय । परन्तु मिच्छत्तवसण-वासण-विरत्तु ,
इनकी समस्त रचना ग्वालियरके तोमरवंशी राजा जिणसत्थ-णिग्गहँ पाय-भत्त । डुंगरमिह और उनके पुत्र कीर्तिसिंहके राज्यकालमे सिरिसाहु पहूणु जि पहसियामु ,
हुई जान पड़ती है। इनके पाश्च पुगणनामक ग्रन्थकी तुहु णंदणु णिरुवमगुणणिवासु । एक प्रति वि०सं०१५४६ के चैत्रशुक्ला एकादशी शुक्रसिरि-खेमसीहु णामेण साहु ,
वारके दिन पुनर्वसुनक्षत्रम हिमारके महावीर चैत्यालय जिणधम्मोवरि जें बद्धगाहु।
में, सुलतानशाह सिकंदरक गज्यकालमें लिग्बी गई है जिणचरणोदण्ण वि जो पवित्तु ,
और वह रचनामे कुछ वर्ष बादकी ही प्रतिलिपि प्रायम-रस-रत्तउ जासु चित्त । जान पड़ती है। सम्मत्तरयणलंकिय सरीरु,
*. य. सिद्वान्तरमायने कसको भक्तो मुनीना मदा, कणयायलुब्व णिक्कंपु धीर ।
दानेनैव चतुर्विधन निधिना मंघस्य सपोषक:। इन पद्योंमें बतलाया गया है कि माह खेमसिह
____ जानत्येव विशुद्धनिर्मलमनिटेहात्मनोरंतरं, का निवाम गोपाचलके तोमरवंशी राजा दूंगरसिंहके मो श्री नंदतु नदन: सममही क्षेमाघमाधु:क्षितौ ॥१॥ राज्यमें था । ये दुखीजनों के पोपक, गुणनिधान,
-पार्श्वपगण मंधि १ अग्रवाल कुलकमलदिवाकर, मिथ्यात्व और व्यसना-
भार व्यसना- +देखो, 'अपभ्रंशभाषाका शातिनाथचरित्र' नामका मेग
तो टिकसे विरक्त, जिनशास्त्र और निग्रंथ गुरुओंक लेग्न, अनेकान्त वर्ष ५, करगा ६-७ पृ० २५३ । परमभक्त, साहू पहणु अथवा पजगणके पुत्र थे अनुपम xuथ मंबारे ऽस्मिन् नृपश्रीविक्रमादित्यगज्ये १५४६ गुणोंके धारक थे, जिन धर्मके उपासक, जिनागमके, वर्षे चैत्र मुदि ११ शुक्रवारे पुनर्वसुनक्षत्रे शुभनाम जोंगे रसिक तथा सम्यक्त्वरूपी ग्लम अलंकृत थे । और श्री हिसार पराजा मोटे १ श्री महावीर चैत्यालये मुलतान ममेरुपर्वतके समान निकंप,धीर तथा धन-करण-कचन मा (शा) दि (६) मिकदरगाप्रपर्तमाने। श्री काठासे समृद्ध थे। साथ ही चारप्रकार के दान द्वारा संघ सं माथुगन्वये पुष्कर गणे ॥" संपोषक, देह और आत्माके अन्तरको जानने वाले
--पाश्व पुराण लेखक प्रशस्ति
Page #434
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
अपभ्रंशभाषाके प्रसिद्ध कवि पं० रइधू
४०३
राजा इंगरसिंहके राज्यकालके ३ मूर्तिलेख मेरे और ग्रंथरचनाएँ भी की गई हैं । राजा डूंगरसिंहका देखने में आए हैं, जिनमें में एक सं० १४६७ का और राज्यकाल सं० १४६७ से कितने वर्ष पूर्व और सं० दो सं० १५१० के हैं । संवत् १४६७ के मूनि लेख*से १५१० के कितने समय बाद तक रहा, यह निश्चित रूप इतना तो स्पष्ट जान पड़ता है कि भगवान आदिनाथ से नही जा सकता, फिर भी सं०१५२१ से कुछ समय की उस मूर्तिकी प्रतिष्ठा प्रतिष्ठाचार्य पंडित रइधूने पूर्व तक उसकी सीमा रूर है; क्योंकि आरा जैनकराई है इसीस उन्हें प्रतिष्ठाचार्यरूपसं उल्लखित सिद्धान्त भवनकी 'ज्ञानार्णव की लेखक प्रशस्तिके, किया गया हैं। अन्वेषण करने पर ग्वालियरमें ऐसी जो सं० १५.१ मे लिम्वी गई है निम्न वाक्योंसे सं० कितनी ही मूतियां सलब उपलब्ध होसकती है जिनकी १५२१ में राजा इंगरसिंहकेपुत्र कीतिसिहका राज्य प्रतिष्ठा पं० रइधूने कराई होगी । साथ ही, अन्य दो करना पाया जाता है। मूर्ति लखोसे+ यह भी जाना जाता है कि गजा डूंगर- “मवत् १५२१ वर्षे असाढ मुदि६ सोमवासरे मिह के गज्यकालमें जैनमूर्तियोंका प्रतिष्ठाएँ हुई थीं। श्रीगोपाचलदुर्गे तोमरवंशे राजाधिराजश्रीकीनिसिहाराज्ये
प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुकरगणे भ० *"श्री श्रादिनाथाय नम: || मवत् १४६७ वर्षे वेशाख ...
श्रीगुणकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ० श्रीयशःकीर्तिदेवास्तत्पट्टे ७ शुक्र पनर्वमुनक्षत्रे श्री गोपाचलदुर्गे महाराजाधिराज
भ० श्रीमलयकीर्ति देवाम्तत्पट्टे भ० श्रीगुणभद्रदेवागजा श्री इंग.. [इंगर्गमद गज मंवर्नमान श्री काठासंघ
स्तदाम्नाय गर्गगोत्रे ... " माथुगन्यये पकग्गगाभट्टारक श्रीगुगणकीनिदेवास्तपट्टे
ज्ञानार्णवकी लेखक प्रशस्तिके सिवाय अन्य कोई यश:कानिदेव [at] प्रतिष्ठाचार्य श्री पांडत ग्धू - [ग्धृ]
साधन राजा की निसिहके राज्यकालका मेरे देखनेमे नस्य श्रान्नाये अग्रोतवंश गोयलगोत्रे माधुगत्मा तस्यपुत्र:
नही आया। इसलिये राजाकीतिमिहके गज्यकालकी भाषा नस्य भार्या नाड़ी पुत्र प्रथम माधुलेम्मा दिनीय माधु
कोई निश्चित सीमा नहीं बतलाई जा सकती। यहां महागजा तृतीय अमगज चतुर्थ धनपाल पचममाधु पाल्कः।
सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि सं०१५१० के साधु क्षेमसी भार्यानोरादेवी.. . ....... जे ज्य]स्त्री सर
बाद किमी ममय राज्यसत्ता कीर्तिमिह के हाथमें आई मुती पुत्र मल्लिदाम द्वितीय भार्या मावी पुत्र चन्द्रपाल ।
है। सं० १५२१ के बाद कितने समय तक उन्होने ममी पत्र द्वितीय साघु श्री गोजगजा भार्या देवस्य पत्र
गज्य किया यह अभी अनिश्चित है। हां, सं०१५५२ पर्णपाल एतघा मध्ये श्री ...." त्यादि जिनसंघाधिपति काला के एक मूर्ति लेखसे इतना जरूर पता चलता है कि मदा प्रगमति" ।।
उस समय ग्वालियरके राजा मल्लिसिह थे। मान्द्रम Indo Avans Vol. II P. 382
नहीं ये मल्लिसिंह किस वंश परम्पराके थे और इन (जैन लेखमंग्रह भाग २ पृ० ६२, ६३) का कीर्तिसिंहसे क्या सम्बन्ध था ? संभव है कीर्तिसिंह +दोनो मनिलेग्वामसे यहो पर एक का ही कुछ अंश उद्धृत के बाद राज्यके यही उत्तराधिकारी रहे हों। परन्तु किया जाना है।
इसमें कीर्तिसिहके राज्यकी उत्तराधिका पता चल xमिदि मंवत् १५१० वर्षे माघमुदि ८ अष्टम्या श्री गोप- जाता है। गिगे महाराजाधिगज गजा श्री डंगर [इंग] ग्न्द्र देवराज्य पंडित रडधूने 'सम्यक्त्वकौमुदी' की रचना राजा प्र . ... [वर्तमाने] श्री काष्ठासंघे माथुरान्वये भट्टारक श्री कीर्तिसिंहके राज्यकालमें की है, और उन्हें अपने पिता समकाति देवास्तापट्ट श्री हेमकी-देवास्तत्व? श्री विमलकीनिदेवा" ..."तस्य आम्नाये अग्रोनवंशे गर्ग गोत्र"" *श्रीमद्गोपाचलगढदगें महाराजाधिराज श्री मल्ल मिहदेव. Indo Aryans Vol II. P.383.84 गये प्रवर्तमाने संवत् १५५२ वर्षे ज्येष्ठ मुदि सोम(जैनलेग्वमंग्रह भाग २०६३)
वासरे....." प्राचीनलेवसंग्रह भाग २०६४
Page #435
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०४
अनेकान्त
। वर्ष ५
डंगरमिहके समान ही राज्यभारको धारण करने में २ यशोधरचरित्र ३ वृत्तसार ४जीबंधरचरित्र ५ पार्श्वसमर्थ बतलाया है । साथ ही उन्हें निर्मलकीर्तिसे युक्त नाथपुराण ६ हरिवशपुराण ७ दशलक्षणजयमाला कालचक्रवर्ती भी प्रकट किया है। जैसाकि सम्यक्त्व. ८ सुकौशलचरित्र : रामपुराण १० पोडशकारण जयकौमुदीके निम्न पद्योंसे प्रकट है:
माला ११ महावीरचरित्र १२ करकंडुचरित्र १३ अण'तोमर-कुल-कमल-वियास-मित्त ।
थमीकथा १४ सिद्धचक्रचरित्र १५ जिणंधरचरित्र १६ दुबार - वैरि - संगर - अत्तित्तु ।
उपदेशरत्नमाला १७ आत्ममंबोधन १८ पुण्याश्रवकथा ढुंगरणिवरजधरापमत्थु ।
१६ श्रीपालचरित्र २० सम्मत्तगुणनिधान २१ सम्यवंदियजण समधियभूरिश्रन्थु ।
ग्गुणरोहगा २२ सम्यक्त्वकौमुदी २३ मिद्धान्तार्थसार । चउराय-विज-पालण-अणंदु ।
ग्रन्थों की इस नाम सूचीपरसे इतना स्पष्ट जाना हिम्मल-जस-वल्ली-भवण-कंडु ।
जाता है कि कविवरने पुराण एवं चरित्र ग्रन्थोंके कलि चक्किटि पायडणिहाणु ।
अतिरिक्त, सिद्धान्त, अध्यात्म और छंदशास्त्रादि विषय सिरि कित्तिसिंधु महिवह पहागु ॥"
के ग्रन्थोंकी भी रचनाकी है।
ग्रंथांकी इस नाममचीपरसे इतना तो स्पष्ट जाना उपरके इस समस्त विवेचनपरमे पंडितरडधुका
जाता है कि कविवरने पुगण एवं चरित्र ग्रंथोके ग्रन्थ रचनाकाल म्पप्रतया वि० सं० १४६७ से लेकर
अतिरिक्त सिद्धान्त, अध्यात्म और छंदशास्त्रविषयक म० १५०१ तक मालूम होता है। अर्थात यह वि०
ग्रंथोकी भी रचना की है। की १५ वी शताब्दीके उत्तरार्धमें १६ वीं शताब्दीके
शास्त्रभण्डागेंमें अन्वेपण करनेपर इनकी और भी पूर्वार्धमें हुए है।
कृतियोंका पता चल सकता है । आशा है विद्गग कविवर रडधून अपभ्रंश भापामें बहुतमे ग्रन्थों इस विषयमें अन्वेपण करनेका प्रयत्न करेंगे। और का निर्माण किया है। अब तक इनके बना हुए २३ उसकी सूचना वीरसंवामन्दिरको भेजनका कष्ट उठायेगे ग्रन्थों का पता चला है। ये सब ग्रन्थ देहली, बम्बई क्योकि वीरसेवामन्दिरमे साहित्य तथा इतिहास-विषय और नागौर के शात्रभण्डागेमे पाए जाते हैं। इनके की मभी सामग्रीका संग्रह किया जा रहा है। नाम इस प्रकार है-१ आदि पुराण ( महापुराण) वीरसंबामन्दिर, मरसावा
वेदना-गीत
mero (ले०६०चैनसुखदास न्यायतीर्थ) नाथ ! सब कुछ खोगया, फिर भी न तुझको दया आती! सत्यव्रतका पुण्य फल मुझको मिलेगा यह न मान ! | मर चुकीं सारी समुत्थित-भावनाएँ नाथ । मेरी, ये समस्याये चिरन्तन कब खुलेंगी यह न जानें। यह विकट नेरी उपेक्षा हा ! मुझे प्रतिपल सताती! प्राण-खाऊ यातनाएँ खा चुकी हैं प्राण मेरे ! कब कहाँ अवमान होगा, इस निराशाको निशाका ? प्रार्थना फिर भी न भगवन् ! क्यों यहां अवधान पाती? दिव्य · दर्शन और कब होगा प्रभो तेरी दिशाका ? कल्पनाकी सौधमाला हो खडी गिरती अनुक्षण ! सब विकल हैं योजना अाज मेरी क्या कहूं मैं ! इम अशक्त मनस्थलीमे पर कहां तेरा निरीक्षण ! दुःख जर्जर हृदयकी श्राहे न हा ! तुमको जगातीं !! चेतना सब खोगई निवि बन्धन यह पडा है ! नाथ ! निष्ठामें बिताई जिन्दगी सारी मनोहर ! यह । तपस्याकी विफलता हा! मुझे निशदिन रुलाती!! निराशंसित सान्त्वना तेरी न पाई आज तक पर ! व्यर्थ ही अधिकारकी--बातें बनाकर क्या करूँ अब ? क्या विदा ले लूँ यहाँसे थक चुका हूं बोल तो कुछ ? खो गया रमणीय गौरव इन विधानामे यहां जब। | दुम्बकी ज्वाला न मेरी आज तो हियमे समाती !!
Page #436
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाधवल अथवा महाबन्ध पर प्रकाश (ले०-५० सुमेरचन्द्र जैन दिवाकर बी० ए०, शास्त्री न्यायतीथे )
[ इस लेख में जिम ग्रन्थगजका सामान्य परिचय दिया गया है वह अतिप्राचीन जैनसिद्धान्त-शास्त्र है, जो बहुत अर्मे मे मृडचिद्रीकी एक कालकोठर्गमे बन्द था, जनता उसके दर्शनोंको तरमती थी और उसका परिचय पानेके लिए उत्सुक थी । वाँसे उमके उद्धारका प्रयत्न चल रहा था परन्तु समाजके दुर्भाग्यवश सफलता नहीं मिल रही थी। हाल में भाग्यने पलटा खाया, सत्प्रयत्नद्वारा अधिकारी वर्गका हृदय परिवर्तित हुश्रा और अन्.को मृडबिद्रीक भट्टारक श्री चारुकीतिजी पंडिताचार्य, श्री डी. मंजेय्या हेगड़े बी० ए० एम० एल० मी. धर्मस्थल, श्री रघुचन्द्रजी बल्लाल मगलौर आदि पंचोकी कृगसे दिवाकरजी को ग्रन्य-प्रतिलिपिकी अनुज्ञा प्रास होगई और उन्होंने एक वर्षम ही पूरी नवल कराकर अपने पाम मॅगाली । उमीक फलस्वरूप यह लेख ।दवाकर ने मेरे अनुरोधपर प्रस्तुत किया है, जिसके लिए मैं आपका आभारी हूँ । यहापर मैं इनना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि लेख मुझे कानपुर परिपद्-अधिवेशनमे ता. २५ अप्रेलको दिया गया था परन्तु उमी दिन रेलवे स्टेशनसे मरा बोक्स गुम हो जानेके कारण प्रस्तुत लेख दूसरे कितने ही बहुमूल्य साहित्य के साथ नष्ट हो गया था। लेखकमहोदयने फिरसे परिश्रम करके इसे जल्दाम तय्यार किया है, ऐसा वे सूचित कर रहे हैं । साथ ही, यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मूल ग्रन्थके सामने न होने श्रादिसे लेम्बके सम्पादनम अपनी यथष्ट प्रवृत्ति नहीं होमकी है । कई स्थानोपर कुछ उलभने पैदा हुई, जिन्हे लेखक की जिम्मेदारीपर ही छोड़ दिया गया है । मूल ग्रन्थ अनुबाद-मांहत शीघ्र प्रकाशित होने के योग्य है-कागजको वर्तमान समस्या, जमकी ओर लेखकजीने मकेत किया है, उनमें बाधक न होनी चाहिए । सिद्वान्त-ग्रन्थोंके उद्धार-कार्यका कितना ही फण्ड अवशिष्ट सुना जाता है, उसे काममे लाना चाहिये।
-सम्पादक शवल, जयधवल तथा महाधवल नामक सिद्धान्त ख्यान है। इन छह बंडोमेंसे महाबन्धको छोडकर शेष
'ग्रन्थोका नाम सपूर्ण दिगम्बर जैनसमाजमे अत्यन्त पांच खंडोपर जिस टीकाकी रचना वीरसेन प्राचार्यने की श्रद्धा-पूर्वक लिया जाता है। वैसे तो संपूर्ण जैनवाग्गगा भग- वह 'धवला' टीका कही जाती है । षटमंडागमके छठे चान वर्धमानस्प हिमाचल मे अवतरित होनेके कारण बंडको जो महाबन्ध है, जैनसंसारमे महाधवल' कहते हैं। पूजनीय है, वंदनीय है. किन्नु उपरोक्त सिद्धान्तत्रयका किन्तु जहां तक ग्रन्थ परम्पराका सम्बन्ध है वहां तक भगवानमे विशेष सन्निकट सम्बन्ध है, इससे उनके प्रति 'महाबन्ध' का 'महाधवल' नाम दृष्टिगोचर नहीं होता है। अधिक पादरका भाव होना स्वाभाविक है।
'महाधवल शब्दका प्रचार अधिकसे अधिक सं०१६३० मामान्यतया यह समझा जाता था कि महाधवलके
तकके लेखमें पाया जाता है। कारंजाके प्रख्यात शास्त्रभंडार मदृश ही जयधवल नथा धवल शास्त्र प्राचीन है किन्तु
मे 'प्रतिक्रमण' नामकी एक पोथी है उसमे निम्नलिखित अब इन ग्रन्थोके परिशीलनमे यह बात स्पष्ट हो गई है कि
उल्लेख पाया जाता हैमहाधवलको छोडकर धवल तथा जयधवल मूल ग्रन्थ धवलो हि महाधवलो जयधवलो विजयधवलश्च । नहीं हैं. किन्तु ये टीकायों के नाम है। महाधवल शास्त्र ग्रंथा श्रीमद्विरभी प्रोक्ताः कविधातरस्तस्मात ॥१३॥ मात्र मूल सूत्ररूप में है । जीवस्थान, तुल्लकबंध, बंध- इसमे धवल, जयधवल तथा महाधवल के साथ साथ स्यामिव वेदना, वर्गणा तथा महाबन्ध इन छह विषयों विजयधवल का भी उल्लेख किया है। यह विजयधवल का वर्णन करने वाला प्रागमपाहित्य पटग्वंडागमके नाम ग्रन्थ कौन है ? इस पातका अनुसंधान होना जरूरी है।
Page #437
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०६
अनेकान्त
[वर्ष ५
भागे चौदहवें श्लोक में इस प्रकार लिखा है- स्पष्टताकी दृष्टि से धवला, जयधवलाके मुकाबले में महाबंधको तत्पट्टे धरसेन कस्समभव सिद्धान्तगः सेंशुभः ? महाधवल कहाजाना प्रारंभ हुआ होगा। एक बात यह भी तत्रट्टे खलु वीरसेनमुनियो यश्चित्रकूटे परे। होगी कि जब परंपरा-शिष्य धीरसेनस्वामी जिनसेनस्वामीकी येलाचार्यसमीपगं वृततरं सिद्धान्तमल्पस्य ये । रचना अपने अपने विषयोंका विशेष प्रकाश डालनेके वाटे चैत्यवरे द्विसप्ततिति सिद्धाचलं चक्रिरे ॥१४॥ कारण धवल तथा जवधवल कही गई, तब उनके भी
इसके साथमें यह भी लिखा है "संवत् १६३७ अत्यन्त पूज्य मूल-सूत्रकर्ता भूतबलि स्वामीकी कृतिको आश्विनमासे कृष्णपक्षे अमावस्या तिथौ शनिवासरे महाधवल कहनेमें वास्तविकताके निरूपसके साथ साथ शिवदासेन लिखितम्"
भक्तिका भी भाव रहा होगा। इस महाधवल नामका प्रयोग पं० टोडरमलजीने महाबध और धवला टीका ये धरसेनाचार्यकी परंपरा गोमट्टसार कर्मकांडकी बडी टीका पृ० ३१४ मे भी किया है। की चीजे हैं. कारण धरमेनस्वामीने व्याख्या-प्रज्ञप्ति तथा ___ यथा-तहां गुणस्थान विषै पक्षान्तर जो महाधवलका दृष्टिवाद अंगके अशरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृतको अपने दूसरा नाम कषायप्राभृत(?)ताका कर्ता जो यतिवृषभाचार्य शिष्यों पुष्पदंत-भूनर्बाल को पढाया जिसको पढ़कर उन ताके अनुसार ताकरि अनुक्रमतें कहिए हैं।"
मुनियुगलने षटखढागम शास्त्रकी रचना की । जयधवला जान पड़ता है सिद्धान्तशाखोंका साक्षात् दर्शन न होने की परंपरा षटखंडागमसे जुदी है। गुणधर प्राचार्यने के कारण पं० टोडरमलजीने कषायप्राभृतको महाधवल कषायप्रामृतका उपदेश प्रायमंच तथा नागहस्तिको दिया, लिख दिया है । वास्तवमे कषायप्राभृत पर लिखी गई टीका उनसे अध्ययन करके यतिवृषभाचार्यने चूर्णिसूत्रोंकी को जयधवला कहते हैं।
रचना की। इन चूर्णिसूत्रोंपर वीरसेनाचार्य नथा जिनमेनामहाबन्धमें अनुभागबन्धके अंतमे महाबन्धका उल्लेख चार्यरचित टीकाको 'जयधवला' कहते हैं। पाया है यथा---
षट खंडागमके पांच भागोंकी श्लोकसंख्या छह हजार "सकलधरित्री विनुत प्रकटित यधीशे मल्लिकन्वे वेरिसि ।
है। इनमें प्रारंभक १७७ सूत्रोंकी रचना तो पुष्पदन्त सत्पुण्याकर महाबंधद पुस्तक श्रीमाधनंदिमुनिपति गिचल"
प्राचार्यने की बादमें संभवत. उनका स्वर्गवास हो गया, महाबन्धके रचयिता भूनबलि प्राचार्य हैं, इस बातका
इससे शेष सूत्रोंकी रचना भूतबलि स्वामीने की तथा निश्चय धवला टीकाम पाए हुए निम्न उल्लेखसे हो जाता
संपूर्ण महाबंध भी भृत बलिस्वामीकृत हैं। प्राचार्य इंद्रहै, जिसमे बतलाया है कि इस बातका खुलासा वर्णन
नंदि महाबधकी श्लोक संख्या त्रिंशतसहस्र बताते हैं. भूतबलि भट्टारकने महाबन्धमे किया है :
किन्तु ब्रह्म हेमचंद्र अपने श्रुतस्कंधमें इसका प्रमाण ४० "जत बधावहाण त चावह । पयाडबधा हजार श्लोक लिखते हैं। यथाहिदिबधो, अणुभागबंधा, पदेसबंधो चेदि । एदेसि सत्तरिमहस्स धवलो जयधवलो माट्टिमहम्स बोधव्यो चदुण्डं बंधाणं विहाणं भूदलिभडारएण महाबंधे महबंधो चालीसं सिद्धंनतयं अहं वंदे। सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि एत्य ण लिहिदं।" इस भिन्न २ श्लोकसंख्याकी प्रतिपादनाका कारण यह -धवला अ० पृ० १२५६
प्रतीत होता है कि, इंद्रनंदि प्राचार्यने महाबंधके विद्यमान महाबन्ध-श स्त्रका महाधवल नाम क्यों प्रचारमे पाया
अक्षरोंकी गणना करके सख्या निर्धारित की । ब्रह्म हेमचंद्र यह भी बात चिंतनीय है। हमे तो यह प्रतीत होता है कि ने सांकेतिक अक्षरोंको पूर्ण मानकर गणना की, अत. धवला और जयधवला टीका द्वारा जिस प्रकार मूल सूत्र- गणनामें भेद हो गया । बात यह है कि महाबंधमे सांकेकारके भावको स्पष्ट करने की आवश्यकता हुई, वैमी श्राव. तिक संक्षिप्त भाषाका बहुत अधिक उपयोग हुअा है। जैसे श्यता महाबंधके बारेमें नहीं हुई; क्योंकि वह स्वयं भूतबलि ओरालियसरीरको 'पोरा. मात्र लिखा है 'वेगुच्चियसरीर' भट्टारकने अत्यन्त खुलासारूपसे रचा है। अत: विषयकी को 'वेगु०' मात्र लिखा है। इंद्रनंदिने श्रीरा० को दो अक्षर
Page #438
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
महाधवल अथवा महाबंधपर प्रकाश
४०७
गिना होगा, किन्तु ब्रह्म हेमचंद्रने उसे • अक्षररूपसे गिना श्रुतकेवली १०० वर्षमें हुए । पचान विशाखाचार्य, प्रौष्टिल, होगा यही कारण है कि ग्रंथके प्रमाणका उल्लेख करनेमे त्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थदेव, तिषण, विजयाचार्य, मतभेद होगया. वास्तवमें वह दृष्टिकोणका ही भेद है। बुद्धिल , गंगदेव तथा धर्मसेन थे ग्यारह प्राचार्य परिपाटी इस ग्रंथमें हजारों बार कर्मप्रकृतियों के नामोंका पुनः पुनः क्रमसे ११ अंग १० पूर्व के पाठी हुए। ये शेष नार पूर्वोके प्रयोग हा है इसलिए ग्रंथकारने संक्षिप्त सांकेतिक शैली एक देशके भी ज्ञाता हुए। इसमें १८३ वर्ष बीत गए। में लिखनेका मार्ग अंगीकार किया, ऐसा प्रतीत होता है। बादमें नज्ञत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्र वसेन तथा
इस तरह महाबथके चालीसहजार श्लोक गिनने पर कंसाचार्य ये पांच प्राचार्य परिपाटी क्रमसे १५ अंग तथा भूतर्बाल स्वामीकी संपूर्ण कृति ३७७ सूत्रोंसे न्यून ४६ १४ पूर्वोक एकदेशके ज्ञाता हुए । इसमें १२३ वर्ष और हजार श्लोक प्रमाण माननी होगी।
व्यतीत हुए। बादमें सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु तथा महाबंधमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशबंधका लोहार्य हुए, इनमे १७ वर्ष बीते। बादमे नदिसंघीय वर्णन किया गया है। अत: 'महाबध' यह नामकरण अन्वः प्राकृन-पहावलीके अनुसार इयंगधारी' -एकांगके धारक र्थ है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशबधका यथाक्रम अर्हदलि, माघनदि, धरसेन, पुष्पदन्त, भृतबाल इनका वर्णन किया है। इसीसे मालूम होता है कि उमास्वामी समय क्रमश: २८+२१+१३+३०+२०११८ वर्ष प्रमाण श्राचार्य ने भी तत्वार्थसूसमें 'प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्त- रहा। इस प्रकार वीरनिर्वाणके ६८३ वर्ष बाद भूतबलि द्विचयः' (अध्यायमसूत्र३) यह पाठक्रम अंगीकार किया है। स्वामीका उल्लेख प्राप्त होता है । ६२+१००+१३+१२३
महाबंधके रचयिता- इस ग्रन्थराजके रचयिता +९७१ ११८८६८३)। इस पट्टावलीमें दो वर्षकी भूलका भूतबलि स्वामीका कुछ भी इतिहास महाबंधमे उपलब्ध उल्लेख प्रो. हीरालाल जीने अपनी धवला प्रथमम्बण्डकी नही होता है। अन्य साधनोमे ज्ञात होता है कि भगवान भूमिकाके पृ०२० पर किया है, किन्तु इन्दौर, प. महावीर स्वामीके निर्वाणके अनन्तर ६२ वर्षके भीतर खूबचन्द जी शास्त्रीके पास जो पट्टावलीकी प्रति है, उसमे गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य तथा जैवस्वामी ये तीन केवली भूत्व दूर होजाती है। परिपाटी-क्रमसे (Succes-V-हुए। मामान्यतः 'छह अट्ठारह वामे तेवीस वावग वास मुगिरणाहं (५०) लोगोंकी यह धारणा है, कि जंबूस्वामी अतिम केवली हुए दम गाव अटुंगधरा वास दुसदवीस सधेसु ॥११॥ हैं, किन्तु यह कहना अनुबद्ध केवलीकी अपेक्षा ठीक कहा यहां काटकमें जब (५०) देकर मख्याका खुलासा जा सकता है। केवली पामान्यकी अपेक्षासे कहा जाय तो किया गया है तब वावणके स्थान पर वरण' पाठ होना
धर केवलीको अंतिम केवली मानना होगा। तिलोय- चाहिए । इस तरह दो वर्षकी भूल का भ्रम दूर होजाता है। पएणत्तिके चौथे अध्यायमें लिखा है कि अंतिम केवली इस पहावलीके अनुसार भूतबलि श्राचार्यका समय विक्रम श्रीधर हुप यथा
संवत् (६८३-४७०२५३) एवं ईसवी (६८३-५२७ : जादो सिद्धो वीरो तदिवसे गोदमो परम-णागी। १०६) श्राता है। जादे तस्सि मिद्धे मुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६।। धवला टीकामें जो षटविंडागमके प्रारंभके बारेमें कथा तम्मि कदकम्मणासे जंबूमामि त्ति कंवली जादो। दी है, उसमे ज्ञात होता है कि धरसेन प्राचार्य के पास दो तत्थ वि मिद्धिपवण्णे केवलिणो गास्थि अणुबद्धा १५७७ मुनिराज श्रुतरक्षण के लिए भेजे गए, उनमें ग्रहणशकि ईडलगिरिम्मिचरिमो केवलगाागीममिग्धिगे सिद्धो तथा धारणाशक्तिकी विशेषता थी। वे मुनियुगल भूतबलि चारणरिसीसुचरिमोसपासचंदाभिधाणो य||१४७६।। और पुष्पदंतके नामसे ख्यात हुए। महाबधके अध्ययनमे
उपरोक्त तीन अनुबद्ध केवलियोंके पश्चात विष्णु, नंदि- यह बात भली प्रकार समभामे श्रा जाती है कि भृतबलि मित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु ये पाँच अनुबद्ध स्वामीकी धारणा नथा ग्रहण-शकि कितनी असाधारण
Page #439
--------------------------------------------------------------------------
________________
४०८
अनेकान्त
[वपं ५
कोटिकी रही होगी?
रचना करने का अवसर ही नहीं दिया। यही बडा सौभाग्य भूतबलि स्वामी 'अत्यन्त विनयवान' 'शोलरूपमाला' रहा कि पुण्यचरित्र भतबलि स्वामीने काफी विस्तृत तथा से विभूषित थे । वे 'देश, कुल, जातिसे विशुद्ध' थे। वे महत्वपूर्ण रचना करके अनुपम जिनवाणीकी रक्षा की, संपूर्ण कलात्रोंमे भी निष्णात थे । वे मंत्रशास्त्रके भी जिम्मे पढ़कर हृदय श्रद्धासे उनकी परोक्ष वंदना करता है। प्राचार्य थे, क्योंकि धरसेन प्राचार्यने उनको साधनार्थ जो दुःख है कि ऐसी पूजनीय विभूनियोंके बारेमे व्यक्तिगत मंत्र दिया था, वह अशुद्ध था और उसकी शुद्धि करके उनने जीवनको अधिक प्रकाशमें लानेवाली सामग्रीका अभाव है। मंत्रकी साधना की थी। मंत्रके अधिष्ठाता देवताने प्रसन्न होकर संतोष इस बातका है कि जिस जिनबाणीके पवित्र रससे जब अपनी सेवाएँ अर्पित की, तो इनने किसी प्रकारको भी उनका हृदय लबालब भरा हुआ था, वह पखंडागम इच्छा नहीं प्रगट की, इससे इनकी उज्वल निस्पृह मनो- और विशेषतया महाबंधके रूपमे हमारे सामने विद्यमान है। वृत्ति स्पष्ट होती है। ये अपने गुणोके कारण देवताओं द्वारा महाबधकी भाषा शुद्ध प्राकृत है और इसमें धवला, बंदित थे। जब धरसेन श्राचार्य ने इनको महाकर्मप्रकृति जयधवलाके समान 'क्वचित् प्राकृतभारत्या क्वचियंस्कृतप्राभृतके उपदेशका कार्य श्रमाढ सुदी को पूर्ण किया, मिश्रया' की शैली नही अंगीकार की गई है । जैसा क तब देवताओंने भी इस सफलतापर हर्ष व्यक्त किया था, पहले कहा जा चुका है, स पूर्ण ग्रन्थमे बंधके भेद चतुष्टय तथा भूतजातिके देवोने इनकी पुष्पोसे पूजा की तथा शख पर श्रोध तथा श्रादेश-- सामान्य तथा विशेषकी अपेक्षामे तूर्य आदि वाद्योग मकार किया । इसे देखकर धरसेन विवेचन किया गया है। संपूर्ण ग्रंथका पर्यालोचन करनेपर स्वामीने उनका अन्वर्थ नाम भूतबलि रवखा । इस गुरु ज्ञात होगा, कि ग्रंथमे कहीं भी कोई ऐतिहासिक उल्लेम्ब दत्त नामके पूर्व में इनका क्या नाम था, यह जाननेके अभी नहीं पाया जाता है। तक साधन उपलब्ध नही हुए।
कही २ श्राचार्य महाराजने भिन्न परंपराका संकेत यं महान गुरुभक्त थे तथा गुरदेवके अनुशासनका
अवश्य किया है । कालानुगमन प्रदेशबंधका वर्णन करने पूर्णतया पालन करते थे। इसका एक प्रमाण यह है कि
हुए ताडपत्र २१३ में लिखा हैप्रथममाप्ति होने पर प्राचार्य धरसन स्वामीने उसी दिन .
दिन अवट्टिदबंधकालो जह० एम०, उक्क० पवाइज्जनेगा अथवा इंदनं दिकृत श्रुतावतारको अपेक्षा दुसरे ही दिन उवदेमंग पत्रकारमसमयं, अगण पुग स्वदेसरण वहांये रवाना होनेका आदेश दिया और इस प्राजाका परागारमसमय ।"-अवस्थित बंधका काल जघन्यमे एक उनने पालन किया । वैसे जिन गुरुदेवके पादपद्मोके समीप समय है । उत्कृष्टमे पूर्वाचार्यके उपदेशकी अपेक्षा ११ समय भतबलि तथा पुष्पदन्त स्वामीको अनुपम श्रागमअमृत है तथा अन्य पटेसाठी प्रोता
है, तथा अन्य उपदेशकी अपेक्षा १५ समय प्रमाण है।" पान का सौभाग्य मिला था, कमसे कम उन गुरुदेवके पास
इसप्रकार यहां उ'कृष्ट बकाल में एक मत समयका और वर्षाकाल बिताने की उनकी इच्छा का होना स्वाभाविक था
मग १५समयका बताया है। यह बात भी ध्यान देने योग्य क्न्तुि गुरुकी श्राज्ञा अनुल्ल धनीय समझ उनने विनीत है कि भिन्चर परंपरागो'उपदेश' शब्दके द्वारा वताया गया तथा अनुशासनप्रिय शिष्यवृत्तिका पूर्ण परिचय दिया। है, जिससे मौलिक उपदेश-परंपगपर प्रकाश पडता है।
षट खंडागमके १७७ मूत्रोकी ही रचना पुष्पदन्त संपूर्ण प्रथम २१ ताडपत्र हैं। इनमें से लेकर २७ स्वामीने की। बादमे शेष रचना केवल भूतबलि स्वामीने ताडपत्र पर्यन्न मन्चमपंजिकाजी महाबंधको छोड शेप की। इस प्रसग यह देव दुर्विपाकको सोचकर हृदयमे परग्बडागमके पाच विषयस्थल पर प्रकाश डालती है। यताप होना है कि जिनशासनकी विशेष रक्षार्थ निमित्त महाबंधना प्रारंभ जिम नाटपत्र नं. २८ से होना था शास्त्रके महानज्ञाता धरमेन अाचायने भाबलि तथा पुप दुर्भाग्यसे वह गायब है, अतः ग्रन्थका प्रारंभ किस शैली दन्तको अपने अधिगत विशिष्ट शास्त्रमे पारंगत किया से प्रार्य महाराजने किया, यह नहीं कहा जा सकता है। किन्तु ऋरकालने पुष्पदंत स्वामीको १७७ भूत्रोंसे अधिक एक नाइपत्रमं करीब २०० श्लोक प्रमागा ग्रन्थका लोप
Page #440
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
महाधवल अथबा महाबंध पर प्रकाश
४०६
होगया होगा। संपूर्ण ग्रंथमें १४ ताड़पत्र पूर्णतया नष्ट हो एण वेदणाखंडस्स आदीए मंगल तत्तो प्राणेदूण उवि. गये तथा कहीं-कहीं और अंश भी नष्ट हो गया । इसप्रकार दस्स णिवत्तविरोहादो।......" बहुत सा महत्वपूर्ण अंश नष्ट होजानेसे अनेक स्थलों पर इसके प्रागे टीकाकार वीरसेनाचार्य लिखते हैं कि---- पूर्णतया सम्बन्ध-विच्छिन्न होने के साथ साथ रस भंग हो वेदना, वर्गणा तथा महाबन्ध इन तीन खंडों में वह किस जाता है, लेकिन किया क्या जाय ? शास्त्रोंकी रक्षाके विषय खंडका मंगल है? तीनों खंडोंका मंगल है। यह कैसे जाना में हमारी लापरवाहीका ही यह सब परिणाम है। जाय ? क्योंकि वर्गणा तथा महाबन्धके आदिमे मंगल नहीं
प्रकृतिबंध ताडपत्र ५० तक पाया जाता है। स्थिति- रचा गया है। मंगलके विना भूतबलि भट्टारक ग्रन्थका बंध ११३ पत्र पर्यन्त है। अनुभागबंध १७० पत्र पर्यन्त प्रारम्भ नहीं करते, अन्यथा उनको अनाचार्यस्व दोष है तथा प्रदेशबंध २१६ पृष्ठ पर्यन्त है। संपूर्ण ग्रंथमें २१६ का प्रसंग माता है। यथाताड़पन हैं, जिनमेंसे पंजिकाके २७ तथा विनष्ट १४ पत्रोंको ____ "उवरि उच्चमाणेसुतिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? घटानेपर शेष ग्रंथ १७८ ताडपत्र-प्रमाण रहता है। तिएणं खंडाणं । कुदो ? वग्गणामहाबंधारणमादीए
मूल ताडपत्रीय प्रति कानडी लिपिमें हैं, उसकी देव. मंगलाकरणादो। ण च मंगलण विणा भूदलिभटानागरी लिपिमे भी एक प्रति मूडबिद्रीके सिद्धान्तमंदिरमें रो गंथस्स पारभदि, तस्स अणाइरियप्पसंगादो।" विद्यमान है। हमने मूडबिद्रीकी ताइपम्रीय प्रतिके अनुसार (धवला हस्तलिखित सिवनी प्रति पृ० ७३४,७५५,७५६) देवनागरी प्रतिका ३ विद्वानोंके द्वारा संतुलनका कार्य कराया इससे कमसे कम इस बातकी प्रसन्नता है कि महाबंध
और फिर शुद्ध प्रतिसे नकल कराई और पश्चात् फिर मूल का मंगलाचरण बननेके योग्य सामग्री वेदनाखंडके आदि प्रतिसे मिलान कराया। इस प्रकार हमारे पास जो मूल ग्रंथ में निबद्ध है और वह भी गौतमस्वामी-रचित मंगलाचरण की नकल आई, वह मातृप्रतिके पूर्णतया अनुरूप है, इस इस प्रकार किया गया है:बातपर अविश्वास करनेकी कोई बात नहीं है।
णमो जिणाणं ||१|| णमो प्रोहि जिणाणं ॥२॥ णमो हां, तो ग्रन्थका प्रथम ताइपत्र नष्ट होगया, तब इसका परमोहिजिणाणं ॥३॥ णमो सम्बोहि जिणाणं ॥४॥ णमो श्रारम्भ कैसे किया गया, यह बात जाननेके साधनोंका एक अणंतोहि जिणाणं ॥१॥ णमोमोबुद्धीणं ॥६॥ णमो प्रकारमे अभाव है। इससे सामान्यतया यह ख्याल होता था बीजबुद्धीणं ॥७॥णमोपदाणुसारीणं ॥८|| णमो संभिरणकि ग्रन्थका मंगलाचरण भी नष्ट होगया होगा, किन्तु यह सोदराणं ॥६॥ यमो उजुमदीणं ||१०|| णमो विउलमदीण प्रसन्नताकी बात है कि भूतबलि स्वामीने महाबन्ध ॥११॥ णमो दसपुम्वियाणं ॥१२॥ णमो चोद्दसपुब्बियाणं का कोई स्वतन्त्र मंगलाचरण नही बनाया, किन्तु उनने ॥१३॥ णमो अटुंगमहाणि मित्तकुसलाण ॥१६॥ ण पो वेदनाखंडके प्रारम्भमं जो मंगलरचना की वही वर्गणा तथा विउब्वगपत्ताणं ॥१५॥ णमो विजाहराणं ||१६|| णमो महाबन्धका मंगल समझना चाहिए, ऐसा वीरसेनस्वामीने चारणाणं ॥१७॥ णमो पण्हसमणाणं ||१८|| णमो श्रागाअपनी धवलाटीकामें बताया है। यह भी विशेष बात है सगामीणं ||१६|| णमो आसीविसाणं ॥२०॥ णमो दिछिकि वह मंगलाचरण स्वयं भूतबलि स्वामीके द्वारा रचित विसाणं ॥२१॥ णमो उग्गतवाणं ॥२२॥ णमो दित्ततवाणं नहीं है, उनने गौतमस्वामीके द्वारा रचित 'महाकम्मपयडि. ॥२३|| णमो तत्ततवाणं ॥२४॥ णमो महातवाणं ॥२४॥ पाह' के धादिमे रचित मंगलसूत्रोंको उठाकर वेदनाखंड णमो घोरतवाणं ॥२६॥ णमो घोरपरकमाणं ॥२७॥ णमो के प्रारम्भमे स्थापित किया है। अत: वेदनाखण्डकी अपेक्षा घोरगुणाणं ॥२८|| णमोऽघोरबम्हचारीणं ॥२६॥ एमो वह मंगल अनिबद्ध कहा गया है। वीरसेनस्वामी कहते हैं- प्रामोसहिपत्ताणं ॥३०॥ णमो खेलोसहिपत्ताणं ॥३१॥
"महाकम्मपयडिपाहुडस्म कदिश्रादिचउवीमणियोगा- णमो जल्लोसहिपत्ताणं ॥३२॥ णमो विट्ठोसहिपत्तागण ॥३३॥ वयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडार- णमो सम्बोसहिपत्ता ॥३४॥ यामो मणबलीणं ॥३५॥
Page #441
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१०
अनेकान्त
[वर्ष ५
णमो वचिबली ॥३६॥ णमो कायबलीणं ॥३७॥ णमो गाथाके अनन्तर लिखा हैखीरसवीणं ॥३॥ णमो सप्पिसवीणं ॥३॥ यमो महु- "एवं पोधिणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा सवीणं ॥४०॥ नमो अमइसवीणं ॥४१॥ णमो अक्खीण- कदा भवदि।" महाणासाणं ॥४२॥ णमो सम्वसिद्धापदणाणं ॥३॥ बादमें मनःपर्ययज्ञानावरणकी प्ररूपणा करते हुए णमो वहुमाणवुद्धि रेसिस्म ॥४४॥
कहा गया हैउपरोक्त मंगलाचरणमे गौतमस्वामीरचित " सूत्र हैं "उजुमदिणाणं 'मणेग माणसं पडिविदहत्ता है। कारण, 'मोजिणाण' इस प्रथम मंगलसूत्रकी टीकाके परेसिं सरणादी मदिचिंतादि विजाणदि ।” अन्त में तथा दूसरे सूत्रकी प्रारम्भिक भूमिकामें वीरसेन इसी भावको प्रारमसात करके अकलंकदेव इन शब्दोंमे स्वामी लिखते हैं---
व्यक्त करते हैं---"आगमे हक्त मनसा मनः परिच्छिद्य "एवं दवट्रियजणाणुग्गहणटुं णमोक्कारं गोदमा परेपां संज्ञादीन जानाति इति मनसाऽऽत्मनेत्यर्थः।" भडारओ महाकम्मपयडीपाहुडस्स आदिहि काऊरप पज्ज
(राजवार्तिक पृ०५८) वट्ठियणयाणुग्गहणट्ठमुत्तरसुत्ताणि भणदि।
“जीविदमरणं लाभालाभं सुहदुक्खं गगरविइससे यह विदित होता है कि 'महाकम्मपयडीपाहुड'के णासं देसविणासं जणपदविणासं अदिवुट्टि प्रणाप्रारंभमें गौतम स्वामीने द्रव्य र्थिक नयाश्रित अर्थात् सामान्य
बुट्टि दुवुट्टि सुभिक्ख दुभिक्खं ग्वेमाखमं भयरोगं दृष्टिवाले जीवोंके अनुग्रह निमित्त सामान्य रूपसे जिनोंको
उन्भमं इन्भमं संभमं वत्तमणाणं जीवाणं, णोवत्त
, नमस्कार करके तदनन्तर 'जिणाणं' की विशेषता बतानेके
मणाणं जीवाणं जाणादि । (महाबंध)" लिये पयायाथिक दृष्टि वालाके अनुग्रहाथ शेषसूत्राका रचना "तमात्मना आत्माववृध्यात्मनः परेषां च चिता की है। और इसपरसे यह परिणाम स्वत: निकल पाता है
जीवितमरणसुखदुःखलाभालाभादीन विजानाति । कि ये मंगलसूत्र गौतमस्वामीके रचे हुए हैं, जिन्हें भूदबलि या
व्यक्तमनसा जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम।" प्राचार्यने वेदनाखण्डकी प्रादिमे अपनाया है और इन्हें ही
(राजवातिक पृ०५८) महाबन्धका भी मंगलाचरण समझना चाहिए।
इससे ध्वनित होता है कि अकलकदेवर भी भूतबलि ग्रंथका अंतःपरीक्षण
स्वामीका प्रभाव रहा है और वे महाबंधको भागम' शब्दसे ग्रंथका प्रथम पृष्ठ तो अनुपलब्ध है ही, उसके अनन्तर उल्लेखित करके ग्रंथकी पूज्यता तथा मान्यताको व्यककर रहे हैं। उपलब्ध महाधवलकी प्रथमपंक्ति इस प्रकार है-'अयणं- ग्रन्थमे मनःपर्ययज्ञानावरणका वर्णन करनेके अनन्तर संबच्छर-पलिदोवम-सागरावमादयो भवंति"। इसके केवल ज्ञानावरणकी प्ररूपणा करते हुए कहा गया हैअनंतर १६ गाथाश्रोमें अवधिज्ञान सम्बन्धी कांडकोका "जं तं केवलणाणावरणीयं कम्मं तं एयविधम् । वर्णन पाया है। प्रथम गाथा इस प्रकार है
तस्स परूवणा कादवा भवदि । सयं भगवं उप्पण्णअंगुलमावलियाए भागमसंखेजदो वि संखेज्जा। णाणदरिसी सदेवासुरमणुसस्स लोगस्स अगदि गदि अंगुलमावलियंतो श्रावलियं अंगुलपुधत्तं॥ चयणोपवादं बंधं मोक्खं, इद्धि जुदि अणुभागं तक्क
गोम्मटसार-जीवकाण्डमे यह गाथा नं०४०३पर उद्ध्त कलं (१) मणो मासिक भुत्तं कदं पडिसेविंद आदिकी गई है। इसी प्रकार अन्य गाथाएँ भी जीवकाण्डमें कम्मं अरहकम्मं सव्वलोगे सधजीवाणं सव्वभावे पाई जाती हैं। इन सोलह गाथाओंके सिवाय संपूर्ण ग्रंथमें समं मम्मं जाणदि।। पग्ररूप एक भी पंकि नहीं है। इन गाथाओं में की अंतिम एवं केवलणागणावरणायम्स कम्मस्स पावणा गाथा इस प्रकार है--
कदा भवदि।" परमोधिमसंखेज्जा लोगामेत्ताणि समयकालो दु। इसी प्रकार दर्शनावरण श्रादि कृतियाँकी रूकीर्तना रूवगद लभदि दव्वं खेत्तोवममगणिजीवहिं॥ की गई है। सर्वबंध नोसर्वबंध का श्रोध तथा श्रादेश
Page #442
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
महाधवल अथवा महाबंधपर प्रकाश
की अपेक्षा दो प्रकारसे निर्देश किया गया है--
संपरणदाए सीलवदेसु णिरदि-चारदाए प्राचासएसु अपरि"पोषेणारातराइगस्स पंच पगदीओ किं सव्वबंधो हीणदाए खणलवपडिबुज्मणदाए लडिस वेगसंपण्णदाए यो सबबंधो ? सम्वबंधो। सम्बाश्री पगदीश्री बंधमा- यथाछामे तथा तवे समणाण समाधिसंधारणदाए समणाणं णस्स सव्वबंधो। तदूण बधमाणस्स णोसनबंधो।" समाधिसंधारण दाएसमणाणं विजाववजोगयुतदाएसमणाणं
इसके अनन्तर लिखा है--"यो सो जहरहबंधो पासुगपरिभागदाए परहंतभत्तीए बहुस्सुदभत्तीए पवयणअजहरहबंधो णाम तस्स इमो दुविहो णिद्दे सो प्रोघेण। भत्तीए पवयणवच्छल्लदाए पवयणपभावणदाण, अभिक्षणं श्रादेसेण य।"
णाणोपयोगयुतदाए एदेहि सोलसेहि कारणेहि कारणेहि इसी प्रकार आगे लिखा है--
जीवोहिन्थयर णामागोदं कम्मबंधदि । जस्स इणं कम्मस्स उदजो सो सादियबंधो अणादियबंधो ४ । तस्स इमो येण सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अञ्चणिजा पूजणिजा वंददुविहो णिदेसो प्रोघेण प्रादेसेण य ।
णिजा, णमंसणिजा धम्मतिस्थयरा केवलिणो भवंति ।" इस पर जो वर्णन किया गया है उसको गोम्मटसार यहाँ तीर्थकर प्रकृतिकी कारणभूत सोलह कारण भाकर्मकांडकी गाथा नं. १२४ में इस प्रकारसे बद्ध किया है- वनाओंकी गणना की गई है जो इस प्रकार हैं--दर्शन
'घादितिमिच्छकमाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचनो। विशुद्धता, विनयसंपन्नता, शीलवतेषु निरतिचारता, श्रावसत्तेतालधुवाणं चदुधा मेमाण य तुदुधा।
श्यकेषु अपरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगमहायधका वर्णन देखिये--"श्रोषेण पंचणाणावरण । संपन्नता, यथाशक्तितप, माधुसमाधिसंधारणता, वैयावृश्यणवदंसणावरण मिच्छत्त सोलसफसाय भय दुर्गच्छा तेजा- योगयुक्तता, साधुपासुक परिचागसा, अर्हद्भक्ति, बहुश्रतभक्ति, कम्मदय वरण. ४ अगुरु. उप. निमिण पंचतराइया प्रवचनभक्ति, प्रवचनवन्सलता, प्रवचन प्रभावनता, कि सादि.४१ सादियबंधो वा०४।"
अभीचणज्ञानो योगयुक्तता । इन मोलह कारणोंमे तीर्थकर "सादासादं सत्तणोकमाय चदु श्रायु, चदुगदि पंच- प्रकृतिका बंध होता है | जादि तिरिण मरीर छस्संठाण तिरिण अंगोवंग छस्संघडण यहाँ या विशेष बात ध्यान देनेकी है कि धवलाटीकामे जो चत्तारि आणुपुव्वि परघादुस्सास श्रादावुजोचं दो विहायदि पंडश कारणों के नाम गिनाए हैं. उनके क्रम मे तनिक नसादि दसयुगलं तिथयर योचुच्चागोदाण किं सादि०४ ? अन्तर है । यही न०८ पर माधुममाशिमंधाराता है, सादिय द्धवबंधो।"
तो धवलामे साधु प्रासुक परिमागताका पाट है। नं.६ पर बंधसामित्तविचयमे बंध प्रबंध बंधव्युच्छित्तिका वर्णन वयावृत्य योग युक्तताके स्थानम 'माधुममाधिमंधारणता' किया गया है । यथा--
का पाट है। नं. १० मे साधु प्रासुगपरिचागताके स्थानम पचणाणावरणीय चदुदंसणावरणीय जसगित्ति उच्चा- यावृत्य योगयुक्तताका पाठ है । शेष पाठ समान है गोद-पंचनंतराइगाणं को बंधगो अबंधगो ? मिच्छादिट्टि- कवल साधु प्रासुकपरिचागताके स्थानमे धवलामे साधु 'पहुडि याव सुहुमसापराय सुद्धि संजदा तिबधा । सुहुम- प्रामुक परित्यागता लिवा है । तत्वार्थसूत्रम संवेग, मारपापराहय सुद्धि संजददवाए चरिम समयं गंतूण बंधो ममाधि, शक्तितस्त्याग, मार्गप्रभावनाका पाट है उनके वोरिछजदि । गदे बंधा, अवसेसा प्रबंधा।"
स्थानमे पहा क्रमश: लब्धिमंवेगमपन्नता, माधुममाधिमंधागोमट्टमार कर्मकाण्डकी गाथा १०१ के उनरार्धमें इस रणता, प्रामुकपरिचागता, प्रवचनप्रभावनताका पाट है। विषयको निम्न प्रकार संक्षिप्त किया गया है--
प्राचार्यभक्तिका महाधवल मे पाठ नही पाया है. किन्तु पढमं विग्धं दसण चउ जस उच्चं च सुहमने।" उसके स्थानम एक नवीन भावना और है, जिसका नाम है
इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के बंधादिके बारेमे जानना 'क्षणलवप्रतिबोधनना' । इसका अर्थ यह है--'क्षणलव' चाहिये। आगे तीर्थकरप्रकृतिके बंधके कारणों पर इस काल के द्योतक हैं। उम विशेष कानमे मापदर्शन ज्ञान प्रकार प्रकाश डाला गया है--'दंपण विसुज्झदाए विणय- व्रत-शील-गुणोका उज्वल करना, कलंककाप्रक्षालन करना
Page #443
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१२
अनेकान्त
। वर्ष ५
इस 'बंधसामितविचय' प्रकरण में प्रादेशकी अपेक्षा णाशावरणीयगां णियमा बंधगो। एवमेक्कमेक्कस्स बंधगो।" चौदहमार्गणाओं में बंधव्युच्छित्ति आदिका वर्णन है, किन्तु परस्थान-संन्निकर्षका वर्णन इस प्रकार किया गया भागे ताडपत्र नं. २८ गायब होजानेसे यह प्रकरण अधूरा है-तत्थ भोघेण भाभिणिबोधियणाणावरणं बंधतो चदुरह गया। साथ ही अगले कालभंगवित्रय' का भी पूर्वाश- दंसणा० पंचंत णियमा बंधगो। पंचदंस० मिच्छत्त सोलनष्ट हो गया है।
सक भयदुर्ग चदुवायु श्राहारदु. तेजाक० वरण. ४ अगु. कालभंगविचयकी प्रतिपादनाका नमूना इस प्रकार है:- ४ श्रादाउजो० णिमिण तित्ययरं सिया बंधगो, सिया
"तित्थयरं पढमाए जहरणेण चदुरासीदिवस्ससह- प्रबंधगो । सादं पिया बं०, सिया अबं०, प्रसाद सिया स्माणि; उक० सागरो० देसू० विदियाए जह० सागरोवम० ब०, सिया अबं०, दोए पगदीणं एक्कदरं बंधगो । ण सादिरेयायिा, उक. तिमिण सागरो० देसू० तदियाए जह. चेव श्रबं.। .." तिरिया सागरो. सादिरेयाणि, उक्क० तिण्णि सागरो. पागे भागाभागानुगमका वर्णन ५० पृष्ठोंमें इस प्रकार सादिरेयाशि" .......।
है--यहाँ असंही मार्गणाकी अपेक्षा कहते हैं कि--"असइसमे प्रेसकापीके २० पेज लगे हैं । अंतरानुगममें एणी धुविगाणं बंधगा सव्वजी. केव० ? अशंता भागा; २४ पेज लगे हैं। उसका वर्णन इस प्रकार है
प्रबंधगा सत्थि । सेसाणं णादीणं तिरिक्खोघं सरिणमण"अतराणुगमे दुविहो णिदेसो, श्रोघेण श्रादेसेण य।" जोगिभगो।" "तत्व मोघेण पंचणाणावरण-छदंसहावरण-सादासाद- भागे १० पेजोंमें परिमाणानुगम है जो इस प्रकार चढसंजलणपुरिसवेद-हस्सरदि-अरदि-सोग-भयदुर्गुच्छा- है-- ... "सादधगाबंधगा केव.? अणंता। प्रसादपंचिदिय-तेजाकम्मइय-समचदुरससंठाण-वण्णा० ४ - अ. बंधगाबंधगा केव.? अयंता दोग वेदणीयाणं बंधगा: गुरु. ४ - पसथविहायगदि तस० ४ - थिरादि दोरिण बंधगा अणंता । एवं सत्तोणक० पंचजादि छास्संठाणं छ युगल-सुभग-सुस्सर-प्रादेज-णिमिण-तित्थयर-पंचतरा-
संघ० दोविहाय. तसथावरादिदमयुगलं दोगोदं च ।"
टोविटाय इगाणं बंधतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहरणे एग
श्रागे ५ पेजोंमे क्षेत्रानुगमका वर्णन है यथा-- समझो। उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं; एवरि णिहा पचला जह- "सादासाद-बंधगा प्रबंधगा केवडि खेत्ते ? सबलोगे। एणुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।"
दोरणं वेदणीयाणं बंधगा केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे। प्रबं. भागे 'संरिणयासं'-संन्निकर्ष प्रकरणके स्वस्थान तथा पर- धगा केवडि खेत्ते । लोगस्म असंखेजदिभागे। एवं सेस्थानसे दो भेद हैं। इसमें ३८ पेज लगे हैं। 'मत्थाणस- साणं पत्तेगेण वेदगीयभंगो।" रिणयासे पगदं दुविधो गिद्देसो पोषेण श्रादेपेण य ।
स्पर्शानुगममें ४० पृष्ठ हैं। यथा--तस्थ अोघेण सत्य श्रोघेण प्राभिणिबोधियणाणावरणीयं बंधतो चदुगह पंचणा छदसणा० अटक. भयदु० तेजाक. वगण. ४ अथवा वनादिकी प्राप्ति करना-वृद्धि करना प्रतिबोध हे, अगु० उप० णिमि पंचंतराइगाणं बंधगेहि केवडिय खेतं उमका भाव प्रतिबोधनता है। क्षणलवोंकी प्रतिबोधनताको फोसिदं ? सव्वलोगो। प्रबंधगा लोगस्स असंखेजदिभागो क्षणलवप्रतिबोधनता कहते हैं।
असंवेजा वा भागा वा सम्बलोगो वा।" धवलाटीकामे बताया है, कि एक भावनास भी तीर्थकर भागे कालानुगम के वर्णनमें ११ पृष्ठ लगे हैं। उस प्रकृतिका बंध होता है, किन्तु उस एक भावनाम अन्य का नमूना इस प्रकार है-- पन्द्रह भावनाएँ समाविष्ट रहती हैं। पन्द्रह भावनाअोको - "तथ पोषेण पंचा० णवदंम मिच्छत्त० सोलसक. छोड़कर एक भावना सागोपाग जीवित नहीं रह मकती। भयदु० नेजाक० श्राहारदुर्ग वरण. ४ अगु० ४ श्रादाउजो. इन भावनाओके विषयमे धवलाटीकामे जो सुन्दरतया णिमिणतिन्थर पंचतराइगाणं बंधगा अबधगा केवचिरं अपूर्व प्रकाश डाला है यह स्वतन्त्र लेखका विषय है। कालादो होति ? सव्वद्धा। सादासादाणं बंधा बंधाग.
Page #444
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
महाधवल अथवा महाबन्ध पर प्रकाश
४१३
सम्वद्धा । दोरणं बंधा बंधगा केवचिरं कालादो होति ? भेंट किया था। मलिकन्वा देवीको 'वनितारन, रूपवती', सम्बद्धा । एवं सेसाणं पगदीणं वेदणीयभंगो ।" 'शील निधान', 'जिनेन्द्रचरणभ्रमर' तथा 'अनुपम गुणोंका अंतरानुगमका । पृष्ठोंमे वर्णन है:--'प्रादेलेय रहगेसु भडार' कहा गया है। दो प्रायुब्बंधगा जहरणेण एगसमत्रो, उक्कस्सेण चउ- माघनंदि मुनिपति सिद्धान्तशास्त्रोंके पारंगत विद्वान् ब्बीसं मुहुत्तं, अदालीसमुहुतं, पक्वं, मासं, बेमासं, थे। वे सिद्धान्त-सिंधुकी वृद्धि करनेको चंद्रमाके समान थे, चत्तारिमासं, छम्मासं, बारसमासं । एवं सब्बणेरडगाणं। गुप्तित्रय भूषित थे, शल्यहित थे एवं कामविजेता थे। उन सेमपगढीणं णस्थि अंतरं।" |
के करकमलोंमे महाबधकी प्रति समर्पित की गई थी। भावानुगमका वर्णन १७ पृष्ठोंमें है। यथा
___आचार्य माघनंदिके सिवाय गुणभद्रसूरिका उल्लेख 'थीण गिद्धितिग बारस कसा बंधगा त्तिको भावी? आता है। वे उज्वलचरिन थे और कामरूपी मत्तगजके प्रबंधगा त्ति को भावो ? उवमिगी वा खइगो वा ख
कुंभस्थलको विदीर्ण करनेमें उत्सुकमृगेन्द्र तुल्य थे । योवसमिगो वा।"
मेघद्र व्रतिपतिका भी वर्णन है। आगे १०३ पेजोमे अल्पबहुत्वका वर्णन है। उसमे प्राचार्य माधनंदि, मेघचंद्र तथा गुणभद्रसूरि कब हुए. स्वस्थान-जीव-अल्पबहुःख, परस्थान-जीव अल्पबहुग्व, स्व.
इनका क्या सम्बन्ध था प्रादि बातोपर प्रशस्तिमे कोई स्थान-अन्द्रा-अल्पबहत्व परस्थान-प्रदा-अरूपबहत्वका प्रति- प्रकाश नहा पड़ता। पादन विस्तारपूर्वक किया गया है । नमूना इस प्रकार है
मलिकम्वा देवीके पति राजा 'मन' को विनयवान, ___ "सम्वत्थोवा सादामादा दोरणं पगीयं प्रबंधगा शीलवान, गुणोका निधान, सहज तथा उन्नतबुद्धिशाली जीवा । मादबंधगा जीवा अणंतगुणा। प्रसादबधगा जीवा
कहा गया है। इनके विषयम और ऐतिहासिक सामग्री सखेजगुणा । दोरणं बंधगा जीवा विसंसाहिया।"
ग्रथकी इस दानप्रशस्तिमे नहीं प्राप्त हो मकी "सवयोवा मगुसायुबंधगा जीवा । शिरयायुबंधगा
प्रशस्तिके पाठसे यह बात हृदयमे आनन्द उत्पन्ना जीवा असंखेजगुणा। देवायुबंधगा जीवा असंखेजगुणा।
करती है कि, जिनवाणी माताके श्रमक ग्रन्थरत्नका उद्धार तिरिक्वायु- बंधगा जीवा अणनगुणा। चदुए श्रायुगाए
कर रक्षा करनेका पुण्यमय अनुपम सौभाग्य महिलारत्न बंधगा जीवा विमेसाहिया। प्रबंधगा जीवा संखेज्जगणा।
जैन राजमाता मल्लिकब्बा देवीको प्राप्त हुश्रा ।
इससे यह ज्ञात होता है कि पुरातनकाल में बडे २ ___इस प्रकृतिबधके वर्णन करनेवाले अंशकी अंतिम
नरेश, महारानी आदिका मुकाव शास्त्रोंक उद्धारकी ओर पनियां इस प्रकार हैं--
कितना अधिक था। लोगोका ज्ञानको उच्च पाराधना की सुक्क ले० प्राणदभंगी । सम्मादिट्टी. वइग.
ओर झुकाव था, इसी कारण सरस्वती मानाकी जगतमे वेदग. उवसम. श्रोधिशाणिभंगो । पवरि उवसम०
खूब प्रतिष्ठा थी। श्राज श्रुत-सेवाकी ओर हमारा उचित आयुगाणंणाथि अप्पाबहुगं। आहाराणुवादेश प्राहारमूलोघं ।
लक्ष्य न हानेका यह परिणाम है कि, उच्च ज्ञान के क्षेत्रमे अगाहाग कम्मद का जोगिभगो । एवं परस्थाया श्रद्धा अप्पा
हमारा पहलेके समान उन्नत स्थान नहीं है। बहुगं ममत्तं । एवं पगदिबंधी समतो।"
आम जो महाबंधकी रक्षा हुई उसका श्रेय ललनारग्न प्रशस्ति-प्रकृतिबंधके अंतमे कोई प्रशस्ति नही है। मलिकव्वा देवीकी मामयिक तथा अपूर्व वदान्यताको है। स्थितिबंध, अनुभागबंध तथा प्रदेशबंधके अंत में जो प्रशस्तियों ग्रंथराजकी प्रतिलिपि करनेका कार्य मादित्य नामक हैं उनपे यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत ग्रथका नाम महाबंध महानुभावने किया था। मुडबिद्रीम जो ताइपत्रकी प्रति है। ग्रंथकर्ताका नाम इसमे नहीं दिया गया है। सेनगजाकी विद्यमान है, वह एक हजार वर्षके करीब प्राचीन है। धर्मपत्नी महिलारत्न मल्लिकचा देवीने अपने पंचमीव्रतके अब प्रशस्तिके पचोको देखिए जो संस्कृत तथा काड उद्यापनमे यह ग्रंथ नकल करवाकर माघनंदि यतीन्द्र को दोनोंमे हे :
Page #445
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
(तादपत्र ११३ पर स्थितिबंधकी यह प्रशस्ति है) खचरणं सीवप्रतापोद्धत-विततबलोपेतपुष्पेषुभृत्सं" यो दुर्जयस्मरमदोत्कटकुंभिकुंभ
हरणं सैद्धान्तिकाग्रेसर नेने नेगदं माघनंदिनतीन्द्रम् ।। मंचोदनोत्सुकतरोप्रमृगाधिराजः ।
कद पद्य शल्यग्रयादपगतस्त्रायगौरवारिः
महनीयगुणनिधानं, सहजोन्नतबुद्धिविनयनिधिएने नेगन्दं । संजातवान् म भुवने गुणभद्रसूरिः॥१॥ महि विनुतकित्ते कित्सित-महिमानं मानिनाभिमान सेनम् ।। दुर्वार-मार-मद-सिंधुर-सिंधुरारिः
विनपद शील दोल गुणदोलादिय पिनपुडिज मनोशल्यत्रयाधिकरिपुस्त्रयगुप्तियुक्तः । जनरति रूपि नोल्ब निसिसिर्द मनोहरमप्पुदोंदुसिद्धान्तवाधिपरिवर्धन-शीलरश्मिः,
रूपि नमने दानदांगरमेनिप वधूत्तमे यप्प संदसे. श्रामाघनंदिमुनिपोऽजनि भूतलेस्मिन् ॥२॥ नन सति मल्लिकम्वेगे धरित्रियो लार्दोरे सद्गुणंगलिं ।। स्रग्धरावृत्त-कन्नड़
मकलधरित्रीविनुतप्रकटितयधीशे मल्लिकन्वे वेरिसिमापु"वर-सम्यक्रवद देशसंयमद सम्यग्वोधदत्यंतभा- ण्याकर महाबंधद पुस्तक श्रीमाधनन्दिमुनिपति गित्तल । सुरहात्रिक सौग्न्यहेतु वेनिसिदादान दौदार्य दे
प्रदेशवंधके अंतकी प्रशस्तिकतरदि गोतने जन्मभूमि येनुतं सानंदादिक्कतुम्- श्रीमलधारिमुनीन्द्रपदामलसरमीरुहभृगनमलिनकित्ते । भरमेल्लं पोगलुत्तमि दभिमानाधीननं सेननम् ।३।। प्रेममुनिजनकैरव सोमनेनल्कापुनन्वियतिपतिनेमेदं ॥१॥ सुजनते सन्थन्मोलपु गुणोन्नति पेयु जैनमा- जितपंचेषु प्रतापानलममलतरो'कृष्टचारित्ररारागंज गुणमेवं सद्गुणमिवत्यधिकं तव गोप्पन्नध- जिततेज भारतिभासुरकुचकलशालीदभाभारनृत्ना। मजनिवनेंदु कित्ते सुमतीधरे मेदिनि गोप्पि तोबेचि यतमागेदारहारं समदमनियमालंकृतं माघनंदि .
तजसमरूपनं नेगलद-पेननं नुद्धगुणप्रधाननम् ॥ ४ ॥ तिनाथं शारदाभ्रज्वल विशदयशोवल्लरीचक्रवालं ॥२॥ अनुपम-गुण-गणदतिवर्मन शीलनिदाने रसेव जिनपदसन्को- जिनवक्त्रांभोजविनिर्गतहितनुतराद्धान्तकिंजल्कसुस्वादन । कनद-शिलीमुम्बि येनमा ननदिदं मल्लिकन्वें ललनारत्नम५ ... ... ... . .. .. ." जयदनत भूपेन्द्रकोटीरसेना । श्रावनिता सनद, पावग पोगललरिदु जिनपूजेय ना. निनिकायभ्राजितांघिद्वयनखिलजगद्व्यनीलोत्पलांगा ना-विधद दानदलिन- नाव दोला मलिकन्वेवं पोल्वदार। दनताराधीशने केवकम भुवनदोल माघनं दिवतीन्द्रम् । ३ । श्रीपंचमियं नोंतुद्यापनमं माडि वरेसि राद्धान्तमना । वरराद्धान्तामृतांभोनिधितरलतरंगोत्कटत्रालितांतरूपवती 'सेनवधू' जिनकोपं श्रीमाधनं दियतिपनि गित्तल।६।" करण श्रीमेघचंद्रव्रतिपतिपदपकेरुहासक्तषपं अनुभागबंधके अंतकी प्रशस्ति (ताडपत्र १६८) नग्धगवृत्तम
चरण सैद्धान्तिकाग्रे सरनेने नगेलद माघनंदिव्रतीन्द्रं ॥४॥ जितचेतो जातनुर्वीश्वरमुकुटनटोद्दष्टपादारविन्द- श्रीपंचामयं नोंतुद्यापनेयं माडि बरेसि राद्धान्तमना । द्वितयं वाक्कामिनी पीवर कुचकलशालं कृतोदारहार- पवती सेनवधू जितकोप श्रीमाघनंदिनतिपति गित्तल ।। प्रतिमंदुदौरसंसृत्यतुल-विपिन-दावानलं माघनंदि
महाबंधकी विषयसूची वतिनाथं शारद्वाभ्रोन्चल-विशदयशो राजिता शांतकान्तम्।। कंदपदा
प्रकृतिबंध- इसमें निम्न विषयांका वर्णन किया गया हैभाव-भव-विजयि-वरवाग्दे विमुखनन्नरत्नदर्पण-कान
(१) प्रकृतिममुकतना (२) पर्वबंध (३) नामवंबंध मावनिपालक नेनिपद-निलावि तकित्ते माघनं दियतीन्द्रम् । (३) उत्कृष्टबध (२) अनुस्कृष्टबंध (६) जधन्यबंध (७) अ. महामृग्धरावृत्तम
जधन्यबंध (6) मादिबंध (E) अनादिबंध (१०) ध्र वबंध वरराद्धातांभोनिधितरल नरंगोकरक्षालितांत. - (११) अध्र वबध । १२) बंधसामिविचय (१३) बंधकाल करणं श्री मेघचंद्रबतिपति पदपकरहामकृष'- (१४) बध-अंतर (१५) बंध-पत्रिकर्ष (१६) भंगविचय
Page #446
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
महाधवल अथवा महाबन्धपर प्रकाश
४१५
वृद्धिबंध
(१७) भागाभाग (१८) परिमाण (११) क्षेत्र (२०) स्प
भुजगार बंध शन (२१)काल (२२)अंतर (२३)भाव (२४)अल्पबहुत्व। स्थितिबंध-इस बन्धकी (क) मूल तथा (ख) उत्तर
यहाँ मूलप्रकृति-स्थितिबंधके समान समुत्कीर्तनसे प्ररूपणाओंका सार इस प्रकार है
अल्पबहुत्वपर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार जानना चाहिए। (क) मूलप्रकृतिस्थितिबंध
पदनिक्षेपबंध (१) स्थितिबंधस्थानप्ररूपणा
भुजगारबंध इसमें तीन अनुयोगद्वार होते हैं। समुन्कीर्तन, स्वामि(२) निषेकप्ररूपणा
व तथा अल्पबहुत्व । (३) पाबाधाकांडकग्ररूपणा (४) अल्पबहुवप्ररूपणा
इसमें समुत्कीर्तनसे लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त तेरह इस अर्थपदसे निम्नलिखित २४ अनियोगद्वार होते हैं
के अनुयोगद्वार कहे गये हैं।
विशेष--यहां तादपत्र नं. १०६, ११२ नष्ट होगए (3) अर्द्धच्छेद (२) सर्वबंध (३) नोपर्वबंध (४)
हैं। अत: बहुत अंश छूटा हुआ है। उस्कृष्टबंध (५) अनुत्कृष्टबंध (६) जघन्य (७) अजघन्य
अध्यवसानसमुदाहार (८) सादि (1) अनादि (१०) ध्रुव (११) अधव (१२)
इसमे तीन अनुयोगद्वार हैं-- बंधसामित्त वि० (१३) काल (१४) अंतर (१५) सन्निकर्ष (१६) भंगविचय (१७) भागाभाग (16) परिभाग (18)
(१) प्रकृति-समुदाहार
(२) स्थिति-समुदाहार क्षेत्र (२०) स्पर्शन (२१) काल (२२) अंतर (२३) भाव
(३) जीव-समुदाहार (२४) अल्पबहुत्व ।
अनुभागवंध-इस बन्धकी (क) मूल तथा (ख) उत्तरभुजगारबंध
प्ररूपणामोंका सार इस प्रकार हैयहां बंधस्वामित्व समुत्कीर्तनसे लेकर अल्पबहुत्वपर्यन्त
अनुभागबंध तेरह अनुयोगद्वार होते हैं । पदनिक्षेपबंध
(क) मूलप्रकृति-अनुभागबंध इसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं--
अनुभागबंधके प्रारंभके तादपत्र नहीं हैं।" .. (१) समुन्कीर्तन (२) स्वामित्व (३) अल्प बहुत्व ।
(1) स्वामित्व (२) काल (३) अंतर (४) समिकर्ष वृद्धि बंध
(५) भंगविनय (६) भागाभाग (७) परिमाण (८) क्षेत्र यहां वृद्धि बंधमें समुत्कीर्तन स्वामित्वमे लेकर अल्प
(E) स्पर्शन (१०) काल (११) अंतर (१२) भाव (१३)
अल्पबहुत्व बहुत्वपर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार होते हैं।
यहां स्वामित्वमे तीन अनुयोगद्वार हैं--प्रत्ययानुगम, (ख) उत्तरप्रकृति-स्थितिबंध
विभागदेश तथा प्रशस्त प्रशस्त प्ररूपणा।
वृद्धिबंध । इम उत्तरप्रकृति-स्थितिबंध चार अनुयोगद्वार होते हैं
इसी प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार संपूण होते हैं । (१) स्थितिबंधस्थानप्ररूपणा
(१) भुजगारबंध का अर्थ है कि पहले समयमें जो (२) निषेकप्ररूपणा
अनुभागबंध है द्वितीयमे अधिक अनुभागबंध करना । (३) श्रावधाकांडकप्ररूपणा
(२) अल्पतर बंध का यह अर्थपद है कि प्रथममे जो (४) अल्पबहुविप्ररूपणा
अनुभागबधके स्पर्धक हैं दूसरे समयमै बहुतरसे अल्पतर इस अर्थपदसे अर्द्धच्छेद, सर्वबंध, नोपर्वबंध आदि बंध होना अल्पतर बंध है। अल्पबहुचपर्यन्त २४ अनुयोगद्वार होते हैं।
(३) अवस्थितबंधमे जो अनुभागबध के स्पर्धक है,
Page #447
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
(वर्ष ५
उसके बाद भी उतने ही उतने स्पर्धकोंका बंध हो उसे
उत्तर कृतिप्रदेशबंध अवस्थित बंध जानना।
(४) प्रवक्तव्यबंधका तात्पर्य है कि प्रबंधके अनंतर उत्तरमें मूलप्रकृति प्रदेशबंधके समान योजना करना। बंधका होना।
उपरोक्त संक्षिप्त प्रकृतिबंधके अवतरणों तथा अन्य तीन इस अर्थपदमे स्वामित्वमे लेकर अल्पबहुस्वपर्यन्त तेरह
बंधोंकी साधारण वर्णनसूचीसे महाबंधकी शैली और अनुयोगद्वार हैं। पदनिक्षेप
प्रमेयका कुछ अंदाजा हो सकता है, वैसे तो विना अथक (१) इसमें समुत्कीर्तन, स्वामित्व तथा अल्पबहुरव ये
प्रकाश में पाए अभ्यासीको ग्रंथकी गंभीरता, मार्मिकता तथा तीन अनुयोगद्वार होते हैं।
लोकोत्तरपनेकी यथार्थ कल्पनाका होना असंभवप्राय है। (२) वृद्धि बंधमें समुत्कीर्तनसे लेकर अल्पबहुस्खपर्यन्त
इस ग्रंथका प्रथम भाग अनुवाद-सहित तैयार कर नेरह अनुयोगद्वार पाए जाते हैं।
लिया है। यदि कागजका प्रभाव अंतराय न बना होता तो (३) अध्यवमान समुदाहाम्मे ये द्वादश अनुयोगद्वार
अब तक लोगोके हाथमें ग्रन्थ पहुँच सकता था। पहले जानना चाहिए । (१) अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा (२)
तो महाबंध ग्रंथ भंडारके बंधन में बढ़ रहा, अब वह स्थान प्ररूणा (३) अंतर-प्ररूपणा (४) कांडक (५) प्रोज
कागजके अभावमे बंधा हुभ्रा नज़र आता है, देख वह युग्म (६) षट्स्थान (७) अध.म्तन (८) समय (1) वृद्धि इस धनसे मुक्त होकर कब प्रकाशमे श्राता है? (१०) यवमध्य (११) अध्यवमान (१२) अल्पबहत्व ।।
निष्कर्ष-संक्षेप में कहना होगा कि, महाबंध जैन (ब) उत्तरप्रकृति-अनुभागबंध
कर्म-साहित्यका अन्यत तेजोमय अथवा दीप्तिपूर्ण ग्रंथ रन है
और यह उपलब्ध सभी जैनकर्म माहित्यके लिए उपजीव्य इसमें दो अनुयोगद्वार है। (1) निषेकप्ररूपणा । रहा है। इसके म्वाध्यायसे भावोंमे गगद्वेष मंद होता है (२) स्पर्द्धकप्ररूपणा।
और विपाक-विचय धर्मध्यानकी वृद्धि होती है । कर्ताइस अर्थपदम ममुकीर्तन, सर्वबंध. नोपर्वबंध आदि वादियाने तो जीवके भाग्यकी डोर एक परमेश्वरके हाथ में चौबीस अनुयोग द्वार पाए जाते हैं।
सौपकर छुट्टी प्राप्त करली, किन्तु जैनियोंने ईश्वरको केवल प्रदशबन्ध-इस बन्धकी मुल तथा उत्तर प्ररूपणाओंका श्रामविकासकी उज्वल अवस्था मानकर प्रत्येक जीवको सार इस प्रकार है
अपने अपने भाग्यका निर्माता बताया है, तब फिर वह प्रदेशबन्ध
जीवोंका विचित्र परिणमन क्या और कैसे होता है, इस मूल प्रकृतिप्रदेशबंध
बातका उत्तर जैनकर्म साहित्यसे ही प्राप्त होता है, उस कर्म मूल में पाठ कर्मोंका भागाभागका विभाग जानना चाहिए। माहित्यक बंध' अंशपर प्रात:स्मरणीय भूतबलि प्राचार्यने
इस अर्थपदमे २४ अनुयोगद्वार जानने चाहि । यथा ४० हजार श्लोकामे अत्यन्त गंभीर तथा अप्रतिम शैलीमे स्थानप्ररूपणा, पर्वबंध, नामवंबंधये अल्पबहुत्व पर्यन्त। इस ग्रन्थमे प्रकाश डाला है।
भुजगारबंधमे पदनिक्षेप, वृद्धि बंध, अध्यवमान समु- इस ग्रंथगजके अधिक प्रचार न होने का कारण एक तां दाहार तथा जीवयमुदाहार हैं।
महाबंधका स्वयं महाबन्धनकी अवस्थामे बहुत समय तक स्थानप्ररूपणाम--योगम्थान-प्ररूपण तथा प्रदेश- रहना है । दुसर विषयकी सूक्ष्मता भी साधारण जनताप्ररूपणा हैं। योगस्थानप्ररूपणाम ये दस अनुयोगद्वार हैं- में ग्रंथक उचित प्रचार न होनम कारण हुई है। अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गगाप्र०, स्पर्धकप्रक. अतर, श्राशा है जब यह ग्रंथगज प्रकाशमं प्राण्गा, नम स्थान, अननरोपनिधा, पर पगंपनिधा, समय, वृद्धिप्रा, अधिकमे अधिक जिज्ञासु तथा तत्यप्रेमी लोग ज्ञानवर्धन अल्पाहुन्य।
के साथ साथ प्रामकन्यागमे प्रवृत्त होंगे।
Page #448
--------------------------------------------------------------------------
________________
साहित्य-परिचय और समालोचन
१ भारतीयदर्शन-लग्वक, श्रीबल देव उपाध्याय शास्त्राणि जम्बुका विपने यथा ।न गर्जति महाशक्तिर्याएम०ए० माहित्याचार्य, प्रोफेसर हिन्दू-विश्व-विद्यालय, वद्वेदान्तकेशरी ॥"यह आक्षेप-परक पद्य इसका निदकाशी । प्रकाशक, पं. गौरीशंकर उपाध्याय जतनवर, शक है । तटस्थवृत्ति एवं शोध-खोजकी दृष्टि से लिखी बनारम। पृष्ठ संख्या, सच मिलाकर ६२०। साइज, जाने वाली ऐतिहासिक और तात्त्विक विवेचनाओंक Fox३० सोलह पेजी । मूल्य, ३| रु.1
अवसर पर कट्टर साम्प्रदायिकताके द्योतक ऐसे पद्यको प्रस्तुत प्रन्थका विषय चार खंडोमें विभाजित है अपनाकर प्रस्तुत करना उचित नहीं कहा जा सकता। और उनम १६ परिच्छेदों द्वारा भारतीयदर्शनोंका
उमसे विवेचनका महत्व गिर जाता है। प्रत्येक दर्शन मंक्षिप्त परिचय कगया गया है। प्रथम खंडमें भारतीय
__ अपनी अपनी असाधारण विशेषताओंको लिय हए दर्शनका उपोद्घात, श्रीन दर्शन और गीतादर्शनका कथन है, फिर अद्वैतवेदान्त ही सर्वोपरि है यह नहीं कहा है। दमर ग्लंडम चार्वाक, जैन और बौद्धदर्शनका जा मकता और न दूमर दर्शनां तथा उनके शास्त्रोको
यानी याय जम्बुक (गीदड़) मदृश्य बतलानेसे उसकी कोई प्रतिष्ठा वैशपिक. माग्व्य, योग, कममीमामा और अद्वैत वेदात हा हा मकती है। रूप पट्दर्शनोका वर्णन है। चतुर्थवडमेतत्रांक रहस्य जेनदशेनका विवेचन करते हा यपि उसकी का विवेचन दिया हुआ है । उपोद्घानमे भारतीय चारित्र-मीमांसाको महत्वपूर्ण बतलाया गया है तथा दर्शनोकी पाश्चात्य दशनोसे महत्ता एवं व्यापकताका भारतक एक छत्र सम्राट चन्द्रगुप्तमौर्यको भी जैनदिगदर्शन करते हुए भारतीयदशनों के क्रमिक विकाम धर्मानुयायी लिखा है परन्तु लग्बकने जनदर्शनकी तथा उनके उदय-अभ्युदयका संक्षिप्त परिचय और उनकी ममीक्षाका जो मिम्न शब्दोद्वाग नतीजा निकला है पारस्परिक ममानताकरोचक कथन दिया है। ग्रन्थम वह किसी तरह भी ठीक नहीं कहा जा सकता। विविध दशनाक विवेचनके अवसरपर प्रत्येक दर्शन उसमें शंकराचाय के द्वारा 'म्याद्वाद' का मामिक खंडन की झंयमीमांमाके साथ साथ चारित्रमीमांसाका भी किया जाना बतलाना, और स्याद्वादको विराम दन मंक्षिप्त परिचय देदिया गया है, जिमम पाठकोको सभी वाले विश्रामगृह जितने महत्वका प्रकट करना बहुत ही दर्शनोकी कितनी ही ज्ञातव्य मामग्राका एकत्र संकलन आपत्तिक योग्य जान पड़ता है। शकराचार्यनं तो मिल जाता है और उमसं विचार-विनिमय करनेमें स्याद्वादक रहस्यको ममझा ही नहीं । लोकमान्य तिलक बहुत कुछ महूलियत होजाती है। समूचे ग्रन्थकी आदि कितने ही जेनेतर प्रौढ विद्वानोन भी इम लग्वन-शैली बहुत कुछ रोचक, उदार तथा भाषा मॅजी म्वीकार किया है । समझा होता ना वे कदापि स्याद्वाद हुई है, और इसम ग्रन्थक पढ़ने में आनन्द आता है- को संशयवाद न बतलाते और न लेखक महाशय ही वह भारमा मालूम नहीं होता।
'म्यान' का अर्थ 'शायद' तथा 'संभव' प्रकट करते, हाँ. लखन जहॉ पस्तकको पठनीय और संग्रह- जो जेनष्टिक चिल्कुल विपरीत है । अम्त, आपके वे गीय बनानका भरमक प्रयत्न किया है वहाँ कहीं कहीं शब्द निम्न प्रकार हैं:जाने-अनजान दृमरे दर्शनांके महत्वको गिगन "इमी समन्वय-टिम वह पदाकि विभिन्न रूपा अथवा कम करनकी चेष्टा भी की है। चुनाँचे अौत का समन्वय करता जाता, तो समग्र विश्वम अनुस्यन वेदान्नकी समीक्षा के अन्त में दिया हुआ "नावद्गन्ति परमनत्व तक अवश्य ही पहुँच जाता। इसी दृष्टिको
Page #449
--------------------------------------------------------------------------
________________
४१८
अनेकान्त
[वर्ष ५
ध्यान में रखकर शंकराचार्यने इस 'स्याद्वाद' का मार्मिक उल्लेख किया है। इसी तरह सिद्धसेन दिवाकर और खंडन अपने शारीरिक भाष्य (२।२।३३) में प्रबल समन्तभद्रके समयकी बात है। समन्तभद्र सिद्धसेनसे युक्तियों के सहारे किया है। यह जैनसिद्धान्त दार्शिनिक बहुत पहले होगये हैं; सिद्धसेनके न्यायावतार पर विवेचनके लिये आपाततः उपादेय तथा मनोरंजक समन्तभद्र के साहित्यकी कितनी ही छाप है, 'प्राप्तोप्रतीत होता है, पर वह मूलभूत तत्त्वके स्वरूप पज्ञमनुल्लंध्य' नामका पद्य तो उसमें ज्योंका त्यों समझानेमें नितान्त असमर्थ है। इसी कारण यह समन्तभद्र के रत्नकरण्ड' से उठाकर रक्खा हा है। व्यवहार तथा परमार्थ के बीचों बीच तत्त्वविचारको प्रो०हर्मन जैकोबी आदि अनेक विद्वानोंने यह सिद्ध कतिपय क्षणके लिये विस्रम्भ तथा विराम देने वाले करके बतलाया है कि 'सिद्धसेनका समय ईसाकी विश्राम-गृहसे बढ़कर अधिक महत्व नहीं रखता।" ७वीं शताब्दीसे पहलेका नहीं हो सकता'; जबकि
ग्रन्थमें दार्शनिक विवेचनाओं के साथ ऐतिहासिक समन्तभद्रका पूज्यपाद (ईमाकी ५ वीं शताब्दी) मे व्यक्तियों और उनके समयादिकका भी उल्लेख किया पहले होना सुनिश्चित है, और वे दिग्नागसे भी गया है। ऐसे उल्लेख अनेक स्थानोंपर लिन एवं पूर्व के विद्वान सिद्ध होते हैं, जैसा कि इसी किरणमें टिपूर्ण जान पड़ते हैं और वे बहुधा खुदकी जाँच- अन्यत्र प्रकाशित न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी पड़तालके परिणाम मालूम नहीं होते-कुछ सुने- कोठियाके लेखसे प्रकट है। सुनाये, कुछ दूसरोंके पुराने उद्धरणमात्र और कितने ग्रंथकी छपाई-सफाई उत्तम है और वह विचारको ही नई खोजोंसे अछूतं जान पड़ते हैं । उदाहरणके के पढ़ने तथा संग्रह करने के योग्य है। तौरपर समन्तभद्रको सिद्धसेन दिवाकरसे दो शताब्दी
-मूललेखक, कविवर पं. बनारबादका (क्रमशः५वीं ७वी शताब्दीका)विद्वान बतलाना
सीदासजी । सम्पादक, श्री माताप्रसाद गुप्त एम० ए०. और विद्यानन्दका दूसरा नाम 'पात्रकेसरी' प्रकट
डी० लिट् , अध्यापक, प्रयाग-विश्वविद्यालय । प्रकाकरना ऐसे ही उल्लेखोंकी कोटिमें आता है। क्योंकि
शक, प्रयाग-विश्वविद्यालय हिन्दी-परिषद्, प्रयाग । 'पात्रकेसरी' विद्यानन्दका दूसरा नाम न होकर एक
पृष्ठसंख्या, सब मिलाकर ७३ । मू०, एक रुपया। दूसरे ही महान प्राचार्यका नाम है जो अकलंकदेवसे
प्रस्तुत पुस्तक अर्द्धकथानकके रूपमे पं० बनारसीभी पहले होगय हैं और जिनके 'विलक्षणकदर्थन'
दामजीकी ५५ वर्षकी आत्मकथा है। १७ वी शताब्दी ग्रंथका स्पष्ट उल्लेख मिलता है तथा 'अन्यथानुपपन्न
- के प्रतिभासम्पन्न जैनकविकी जीवन-घटनाओंका यह त्वं यत्र तत्र त्रयेण किम' इत्यादि पद्य जिनका खासतौरसे
एक मांगोपांग सजीव वर्णन है, जिसमे अपने गुणपरिचायक है। इस विषयका अच्छा स्पष्टीकरण एवं
दापोका यथार्थ परिचय दिया गया है। यह कविवर भूलोंका परिमार्जन आजसे कोई १३-१४ व५ पहले की एक अनूठी मुलकृति है। यदापि इस कथाका प्रायः अनेकान्त-सम्पादक पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने
सभी परिचय विदवर पं० नाथूरामजी प्रेमीने अग्ने उम लखमें किया है जो प्रथम वर्षके अनेका- 'बनारसी-विलास' की प्रस्तावनामें दे दिया था और न्तकी द्वितीय किरणमें 'पात्रकेसरी और विद्यानन्द' मूलके कुछ छन्दोको भी पाठकोंकी जानकारी के लिये शीर्षकके साथ प्रकाशित हुआ है और जो उस वक्तसे उदधृत कर दिया था। परन्तु कविवरका यह ममूचा बगबर विद्वग्राह्य होता चला आया है। शान्तरक्षित ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित ही था, जिसे अब उक्त
और कमलशील जैसे बौद्धविद्वानोन भी, जो विद्या- हिन्दी परिषद्। प्रकाशित करके कमीको पूरा किया है। नन्दसे पहले हो गये हैं, तत्व-संग्रह तथा उसकी टीका पुस्तकके शुरू में ११ पेजकी भूमिका है, जिसमे में 'पात्रकेसरी' के मतका पात्रस्वामी नामादिके साथ सम्पाटकजीने कविवर बनारसीदासजीके 'उदार व्य
Page #450
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
साहित्य-परिचय और समालोचन
४१६
याति ५७५
क्तित्व' और 'कलात्मक आत्माभिव्यंजन' की ओर १६४ जैसी विरी(?)कुरीजाकी जैसी चिरी कुरीजकी पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया है। और उनकी इस २३७ तूप कृतिक महत्व-सम्बन्ध में लिखा है-
२५२ देइ दिये हैं कपाट दर दर दिये कपाट "हमारे साहित्यकी जो खोज अभी तक हुई है ३३५
नाहिन
जांहि न उसके अनुसार प्राचीन हिन्दी साहित्यकी यह पहली ३६६ साथ
नाथ और अकेली आत्म-कथा है, और कदाचित् समस्त
मीत
गीत आधुनिक भारतीय आर्यभाषा-साहित्यमें इससे पूर्वकी ४३४
धी उन
घीउ न कोई आत्म-कथा न निकलगी। केवल इस नाते भी ४७८ पटने
पढ़ने कृतिका अपना महत्व है। फिर लेखन-कलाकी दृष्टिस
धने
घने तो प्रस्तुत आत्म-कथा एक उत्कृष्ट रचना है।" इत्यादि
संग
संघ साथ ही, कविवरके जीवनकालसे सम्बन्धित एवं ६२७
द्रगद (?)
प्रगट आत्मकथामें उल्लेखित घटनाओंकी जाँच करके ६३६ पढ़ता
पंडित लिग्या है कि-"फलतः 'अर्द्धकथा' की ऐतिहासिकता ६४३ मुष वद्या मुख वद्य भली भॉति प्रमाणित है।”
सुरत न भई सुमिरन भई
६४६ इमके सिवाय, प्रस्तुत पुस्तक तथा कविवरकी
जथा
दशा अन्य कुछ कृतियों में पाई जानेवाली कतिपय तिथियों
६५० मन परे जधर अवधधरमनपर अरु अवधिधर को 'इंडियन क्रानोलोजी' मे दिये हए चक्रों आदिके ६५३ सम बीच यहु भांत(?) यह उकिष्टी दौर आधारपर अशुद्ध पाकर यह कल्पना की है कि वे यदि श्रद्धेय पं. नाथूरामजी द्वारा सम्पादित लिपिकारोंकी असावधानीका परिणाम जान पड़ती हैं। 'बनारमीविलाम' में दिये हुए कविवरके परिचयको ___ ग्रन्थका प्रकाशन किमी बहत ही अशुद्धि प्रतिपरस ही ध्यानस देख लिया होता तो इनमेंसे बहतमी किया गया है। इसी पन्तकभर में प्रशद्धियोंकी भर- अशुद्धियोंका सहज हीमें संशोधन होजाता। परन्त मार है। कितनी ही अशुद्धियाँ तो ऐसी रह गई हैं उक्त विलासके पासमें रहते हए भी पुस्तकके संशोधन जिनका सुधार जन नियमोंको लक्ष्य में रखकर भी में उसका उपयोग नहीं किया गया, यह आश्वयका महज ही में किया जा सकता था जिनका उल्लेख विषय है ! इस प्रकार यह सरकरण अशुद्धियोंसे परिसम्पादकजीने भूमिका में किया है । और इसमें यह पूर्ण है । इतना होने पर भी यह घटिया कागज पर कहे विना नहीं रहा जाता कि पम्नकका सम्पादन जैमा छपाया गया है और मूल्य एक रु० रक्खा गया है, जो होना चाहिये था वैसा नहीं हो सका है और उसके बहुत अधिक है। फिर भी सम्पादक और प्रकाशक लिये एक उत्तमम्पम सम्पादित मंस्करणकी जरूरत का यह प्रयत्न हिन्दी जगनके लिये प्रशंसनीय हैं। अभी बनी हुई है। इस संस्करणमें बहुत ही खटकने ३ पावन-प्रवाह-लेखक, पं. चैनसुखदामजी वाली अशुद्धियों में से कुछ अशुद्धियाँ नमूनेके तौरपर
न्यायतीर्थ, अध्यक्ष श्री दि० जैनमहापाठशाला, मरिणनीचे दी जाती हैं:
हारोंका रास्ता, जयपुर । अनुवादक, पं० मिलापचन्द पद्य नं0
जी न्यायतीर्थ तथा प्रक शक, पं० श्रीप्रकाशजी शास्त्री, ७१ मोय रनाई (?) मन मो परनाई सेन मंत्री सद्बोधग्रन्थमाला' मणिहारोंका रास्ता, जयपुर १०५ दिन बीति धने
दिन बीते घने सिटी। पृष्ठ संख्या १०० । मूल्य, छह आना। १६४ मारी ई र टोक मा रोई उर ठोक लेखकने प्रस्तुत पुस्तकम 'अनानि' आदि १४
Page #451
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष५
विभिन्न विषयों पर सुन्दर सूक्तियोंका निर्माण संस्कृत का डेड़ रुपया। पदोंमें किया है। पद्योंकी रचना सरल और मरस है, प्रस्तुत पुस्तक देवकुमार-ग्रंथमालाका पंचमपुष्प है।
और वे अपने विषयके स्पष्ट परिचायक हैं। अनुवाद इस संग्रहमें ५४ प्रथोंकी प्रशस्तियाँ दी गई हैं। ये भी अच्छा हुआ है। अनुवाद साथमें रहनेसे पाठकों सब प्रशस्तियाँ जैनसिद्धान्तभास्कर में क्रमशः प्रकाशित को मूलका सहज हीमें परिचय हो जाता है । पुस्तक हुई हैं। उन्हींका यह अलग पुस्तकरूपमें प्रकाशन अच्छी अयोगी एवं संग्रहणीय है। इसके लिये लेखक है। ग्रंथप्रशस्तियोंका ऐतिहासिक जगतमें कितना और प्रकाशक दोनों धन्यवाद के पात्र हैं।
महत्व एवं आदर है और उनमें कितनी ऐतिहासिक ४ तस्वन्याय-विभाकर (स्वोपाटीकासहित) मामग्री निहित है इसे बनलानेकी आवश्यकता नहीं। -लेखक, पाख्यानवाचस्पति श्रीविजयलब्धिसूरीश्वर। इतिहासज्ञों और रिमर्च के स्कालरों के लिये तो वे प्रकाशक, लब्धिसूरीश्वरग्रन्थमाला, वाणी । पृष्ठ संख्या बहुत ही उपयोगी होती हैं। ममस्त दि. ग्रंथोंकी मब मिलाकर ६६४ । मूल्य, मजिल्द प्रतिका पाँच रु०। प्रशस्तियोंके संकलन हो जाने पर जैन इतिवृत्त
मुलग्रंथका परिचय अनेकान्त वर्ष ३ किरण ६ मे के निर्माणमे जो मुविधा प्राप्त होगी वह अकथनीय दिया जा चुका है । यह उमी ग्रंथको विस्तृत स्वापज्ञ है। परन्तु ग्वद है कि इम और दि० जैनसमाजका टीका है । इममें मूलग्रंथके प्रतिपादा विषयका स्वयं लक्ष्य नहीके बगबर है। इस दिशामे जैन-सिद्धान्न प्रथकार द्वारा अच्छी तरह स्पष्टीकरण किया गया है। भवनका यह प्रथम कदम प्रशमनीय है। ४०पृष्ठों में दी गई विस्तृत विषय-सूचीम टीका-गत मभी इस प्रथके माथ प्रशम्तियोंम आए हा श्राचार्य, स्थलोंका महज ही परिचय मिल जाता है। ग्रंथ न्याय- मुनि-आयिका, गरमा-गच्छ, श्रावक, श्राविका, शासक, शास्त्र के अभ्यासियोंके लिये उपयोगी और संग्रहणीय शासिका, माचव, मनानायक, कोपाध्यक्ष एवं गजहै। कागजको महगाई के समयमें पुस्तकक कलेवदि ष्ठियोंकी सूनक और ग्रंथ तथा नदगन स्थलोको भी को देखते हुए मूल्य भी कम ही रक्खा गया है। समाविष्ट करनेवाली एक २० पृष्ठोकी तालिका अका५ प्रशस्ति-संग्रह-संपादक पं० के० भुजबली गदि क्रमम दी है, जिसमें कितनी ही तिहासिक शास्त्री, जैन मद्धान्त भवन, आग। प्रकाशक, बा० बातोंका महज ही पयवेक्षण किया जा सकता है। निर्मलकुमार जैन मंत्री जैन-मिद्धान्तभवन आग। पुस्तक पटनाय तथा संग्रह करने योग्य है। पृष्ठ सम्या, सब मिलाकर २२८ । मृल्य, अजिल्ल प्रति
-परमानन्द जैन शास्त्री हमारे अधुनिक जैनकवि--------- ----........-------- एक मर्वाङ्गपूर्गा मंग्रहका आयोजन
अखल भारतीय दिगम्बर जैनपरिषदके कानपुर अधि- रमागनी जैन, धर्मपन्नी दानवीर माहू शान्तिप्रसादजी जैन, वेशनके अवसरपर होने वाले कवि-सम्मेलनकी सफलतासे डालमिया नगर (बिहार) के पतेपर शीघ्र भिजवाद। प्रभावित होकर परिषद्के सभापति, दानवीर माहू शान्ति.
कवितासंग्रहकी प्रति जैन पत्रांक उन ग्राहको की बिना प्रसादजीने एक ऐसे कविता-संग्रह के संकलन और प्रक शन
मूल्य भेंटकी जायेगी जिनकी सूची हमे पव्र सम्पादकी द्वारा का भार अपनी धर्मपत्नी श्रीमती रमारानी जनक सुपुट प्राप्त होगी। पत्रांके ग्राहक इस सम्बन्ध पत्रक सम्पादका किया था जिसमें प्राधुनिक जैन कवियोंकी सर्वोत्तम रचनाये
को पहलेसे ही सूचित करें ताकि कुल संख्याक अनुमानके संग्रहीत हो और जिसका प्रकाशन सागपूर्ण तथा सुन्दर अनमार पुस्तक छपाई जाए। प्रत्यक ग्राहकका केवल एक ही हो। श्रीलचमीचन्द्र जैन एम० ए० श्रीर श्री अयोध्याप्रमाद प्रति भेट की जायेगी। आशा है जैन समाज सभी सम्पाजी गोयलीयके पहयोगमे श्रीमती रमारानी जैनने संग्रहका दकांके कवि और कवियित्रियों अपनी मर्वोनम चिनाएँ कार्य प्रारम्भ कर दिया।
उपर्युन पनेपर शीघ्र भेजनेकी कृपा करेंगे । कविताप्रोका समस्त जैन समाजके कवियो और कवियित्रियोम विषय चाहे धार्मिक हो या लौकिक, किन्तु वह साहित्यिक निवेदन है कि वह अपनी पाठ आठ दस-दस मत्तम दृष्टिमे उच्च कोटिकी होनी चाहिये, जिन्हें अजैनबन्धु भी रचनायें अपनी फोटो और संक्षिप्त जीवनी, शीघ्र ही श्रीमती चावगे पढ़ें। --मंत्री---भा०दि.जैनपरिषद
Page #452
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तका द्विवार्षिक हिसाब
वीरसेवामन्दिरसे अनेकान्तका प्रकाशन प्रारम्भ हुए दो तक उन्नति ही कर सका है जिस हद तक उन्नति करना उसे वर्ष हो चुके। इन दो वर्षों में अनेकान्तका चौथा और इष्ट था-घाटेकी श्राशंका उसे बराबर सताती रही, जिससे पाँचौं वर्ष शामिल हैं । वीरसेवामन्दिरने नवम्बर सन् उसकासकोच दूर होनेमे नहीं पाया और वह यथेटरूपमे प्रगति १९४० में प्रकाशन-भारको अपने ऊपर लिया था, फर्वरी नहीं कर सका, फिर भी इन दो वर्षोंमे उसे पहनेकी तरह सन् १९४१ में चतुर्थ वर्षकी प्रथम किरण प्रकाशितकी थी घाटा उठाना नहीं पडा, प्रत्युत इसके वह कुछ पैसा बचा
और अब पंचम वर्षकी अन्तिम किरणको, कागज आदिकी सका है जो अगले वर्ष में कदम बढ़ानेके लिये प्रोत्साहित कर कुछ परिस्थितियोंके वश, जून मासकी समाप्तिपर प्रकाशित रहा है, और यह सब भी कुछ कम सौभाग्यकी बात नहीं है। किया जा रहा है। इस तरह अनेकान्तका हिसाब अढाई आशा है आगामी वर्ष प्रेमी पाठक इसकी ओर विशेषरूपसे वर्षका हो जाता है, जिसे इस किरणके साथ पाठकोंके सामने प्राकृष्ट होगे और वर्तव्यनिष्ठ उदार महानुभाव नेकान्तके रख देना उचित मालूम होता है। हिसाबको सामने रखनेसे प्रति अपने कर्तव्यको ध्यानमें लाकर उसे सब पोरसे निश्चिन्त पहले मुझे यह प्रकट करते हुए बडी प्रसन्नता होती है कि बनाने एवं ऊँचा उठानेके लिये अपना पूरा सहयोग प्रदान अबकी बार अनेकान्तको घाटेका मुंह देखना नहीं पड़ा, करेंगे | अस्तु । जिसका सारा श्रेय उन सहायक सजनोको प्राप्त है जिन्होंने हिसाबका जो गोशवारा प्रागे दिया जाता है उसमे तृतीय वर्षकी १२ वी किरण (पृ० ६६६ ) में प्रकाशित प्रकट है कि इन दो वर्षों में वास्तविक आमदनी 'मेरी प्रान्तरिक इच्छा' और चतुर्थ वर्षके नववर्षाङ्क (पृ. ११२१) की हुई । खर्चकी कुल रकम ३४८१10) मे ३६ ) में दिये हुए मेरे 'श्रावश्यक निवेदन' पर ध्यान देते से ८६) की उस रकमको मिन्हा कर देनेपर जो बकाया हुए अनेकान्तको सहायता भेजने-भिजवानेकी उदारता कागज तथा पोष्टेजकी बाबत जमा की गई, खर्चकी वास्तविक दिखलाई है. और इस लिए मैं उनका खास तौरसे आभारी रकम ३३१२-) होती है, जिसे श्रामदनीकी उक्त रकममेसे हूं। यद्यपि मेरे निवेदनपर उतना ध्यान नहीं दिया गया घटा देनेपर ७२६) अवशिष्ट रहते हैं । इनमेसे १२) जितना कि दिया जाना चाहिये था और इसी लिये अने- को उस रकमको घटानेपर जो इस किरणके खर्च में प्रायः कान्तको अभी तक अपने भविष्यके विषयमें वह निश्चिन्तता देनी है, ६३७०) की जो रकम बाकी रहती है वही इन प्राप्त नहीं हुई जो होनी चाहिए थी और न वह उस हद दोनों वर्षोमें लगभग बचतकी रकम समझनी चाहिये।
गोशवारा हिसाब 'अनेकान्त' ना०१ नवम्बर सन् १६४० से ३० जून सन १६४३ तक आमद (जमा)
खर्च (नाम) ४) पिछले सम्पादक-श्राफिम खाते बाकी ।
१७२||) कागज खर्च में दिये इस प्रकार:
२१६॥) धर्मदाख हंसकुमार, सहारनपुर । १९५६) ग्राहकोंसे प्राप्त, जिसमें १०५४)वी०पी० पोष्टेज
१०५७)। मामनचन्द राधाकिशन, सहारनपुर । श्रादिके शामिल हैं:
७०||2) मंगृमल कागजी, सहारनपुर । १०१६॥) चतुर्थ वर्ष की बाबत मय ५७ )
१६०11-) सिद्धोमल ऐंड सन्स काग़जी, देइली। वी० पी० पोष्टेज श्रादिके।
३०६।।1-) धूमीमल धर्मदाम, देहली। ६३६||) पंचम वर्षकी बाबत मय ४७॥)
४॥) सुन्दरलाल नथीमल भार्गव, देहली। बी० पी० पोष्टेज श्रादिके।
३) नन्दराम सूरजमल कागजी, देहली।
२५१) कौशलप्रसाद, सहारनपुर । १६५६)
४२||-) रघुवीर सिंह सर्राफ, देहली। ६३) समन्तभद्र श्राश्रमसे प्राप्त स्थायी सदस्योंकी बाबत.
३४) वीरसेवामन्दिर-ग्रन्थमाला, सरसावा । जिन्हें अनेकान्त फ्री भेजा गया।
१७२||)
Page #453
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२२
अनेकान्त
[वर्ष५
---
-.
१७३५) सहायकोंसे प्राप्त प्रथम-द्वितीय-तृतीय मार्गद्वारा- ११६)। श्रीवास्तवप्रेस सहारनपुरको दियेबाबत छपाई १३५०) प्रथम मार्गसे, जिसमें १०५०) चतुर्थ वर्ष
बँधाई, मय छपाई रैपसं, चिट्ठी, कार्ड लिफाफे, में और ३००) रु० पंचम वर्षमें प्राप्त हुए।
पते प्रादिके, पंचमवर्षकी ११वीं किरण तक३८१) द्वितीय और तृतीय मार्गसे (२२१+१५६)
१०२६)छपाई अनेकान्त मयटाइटिल व चित्रोंके। जिसमें १७८) चतुर्थ वर्षमें और २०७)
१३६%) बधाई अनेकान्त । पंचम वर्षमें प्राप्त हुए।
३३)। छपाई रैपर्स श्रादि मय २) बनवाई
लिफाफोंके व-) टिकट रसीदके लिए। २८४) अनेकान्तकी फाइलों तथा फुटकर किरणोंकी विक्री
११६५) से प्राप्त, जिसमें १०४) पोष्टेज श्रादिके भी
११४) मुरारी फाइन आर्ट प्रेस देहलीको दिये ब्लाक्स शामिल हैं:
की बनवाई और पाँच किरणोंके बाहरी टाईटिल १११) चतुर्थवर्षमें २८ फर्वरी १६४२ तक ।
पेजोंकी छपाईके, मय पेपर पैकिंगादि चार्ज के। २७२-) पंचम वर्षमें ३० जून १९४३ तक।
२०) धूमीमल धर्मदास कागजी देहलीको दिये दो २८४०)
किरणों के बाहरी टाइटिल पेजोंकी छपाई बाबत ७) विज्ञापनोंसे प्राप्त, जिसमें ५६॥) चतुर्थ वर्षकी बाबत
मय पेपर व पैकिंगादि चार्जके। और १९) पंचम वर्षकी बाबत हैं।
२५१-)॥ डिजाइनों तथा ब्लाक्सकी बनवाई में दिये२०) रद्दीकी विक्रीसे प्राप्त।
१२) आशाराम शुक्ला डिजाइनर को। ॥ पोष्टेजकी बाबत बाहरसे प्राप्त, उस पोष्टेजके अतिरिक्त
११||-) राज ब्लाक वर्क्स देहलीगे। जो ग्राहकोंसे वी० पी० श्रादिके साथ वसूल हुये
10)|| एम. मुमताज, सहारनपुरको । पोष्टेजमें शामिल है, और जो प्रायः टिकटोंके रूपमें
२५१-॥ पत्र व्यवहार के लिए प्राप्त हुआ।
- १२) जवाहर प्रिंटिंग वर्क्स कलकत्ताको दिये मार्फत बाबू ४१२१18)
छोटेलालजीके, 'ग्रीष्मपरीषहजय' चित्रकी छपाई श्रादिमें ८७|1)|| कागज खाते जमा इस प्रकार :
२३) महसूल रेलवे पासलोमें, मय मजदूरी, चंगी,डैमरेज २४||1)| कागजकी विक्रीस श्राप ।
व तांगा आदि खर्चके। ६२|| कागज स्टाकमे मौजूद ।
||1)| महसूल बैरंग पत्रादिक ।
२७४७) स्टेशनरी खाते खर्च । |||-) पोष्टेज खाते जमा, जो ३० जून सन् १९४३ को १२६)।। सफर खर्च, प्रेस श्रादिको जाने मानेमें । खर्च होने से ब.की रहा।
५२६-) वेतनमें दिये इस प्रकार:
२०४) पं० शंकरलालको मास २० दिनके । ८६)
१२॥a)|| बा० मूलचन्दको १६ दिनके । ४२१०-)||
१०६) पं० परमानन्दको ३ मासकी बाबत । १०३०) पं. रविचन्दको, १२ मास २१ दिनके ता० २१ दिसम्बर १९४२ तक।
५२६-) (शेष अगले पृष्टके दूसरे कालम पर)
Page #454
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पादकीय
१. अनेकान्तकी वर्ष-समाति
कृतज्ञता व्यक्त करने आदिके लिये उसे प्रकट कर ___ इस किरण के साथ अनेकान्तका पंचम वर्प समाप्त
देना ही उचित समझा गया । आशा है उदारमना होरहा है। इस वर्षमें अनेकान्तने अपने पाठकोंकी
बाबू साहब इसके लिये हमें क्षमा करेंगे। और भी कितनी सेवा की, कितने नये उपयोगी साहित्यकी सृष्टि
जिन सज्जनोंने सहायता भेजी तथा भिजवाई है वे की, कितनी नई खोजें उपस्थित की, क्या कुछ विचार
सभी धन्यवादके पात्र हैं-नये ग्राहक बनाने वालोंमें जागृति उत्पन्न की, तत्त्वार्थसूत्रके मंगलाचरण और
इस वर्ष भी श्री दौलतरामजी 'मित्र' इन्दौरका नाम समन्तभद्र के समयादि-सम्बन्धमें कैमी कुछ उलझनें
विशेषरूपसे उल्लेखनीय है। सुलभाई और व्यर्थ के झगड़े-टंटोंसे यह कितना अलग
इसके सिवाय, जिन लेखकोंने अपने महत्वके रहकर ठोस मेवाकार्य करता रहा, इन सब बातोंको
लेखोंद्वारा अनेकान्तकी सेवा की है और उसे उन्नत, बतलानेकी जरूरत नहीं-विज्ञ पाठकोंसे इनमें कोई
उपादेय तथा स्पृहणीय बनाने में मेरा हाथ बटाया है भी बात छिपी नहीं है। हाँ, इस बातपर मुझे बराबर
उन सबको धन्यवाद दिये विना भी मैं नहीं रह खेद रहा कि इस वर्ष मेरा अस्वस्थता और कागजकी
सकता । इन सज्जनों में पं० नाथूरामजी प्रेमी, श्री समस्यादिके कारण पत्र समय पर प्रकाशित नहीं हो भगवत्स्वरूपजी 'भगवत', पं० फूलचन्दजी शास्त्री, मका ! इसके लिये पाठकोंको जो प्रतीक्षा-जन्य कष्ट
बा० जयभगबानजी वकील, न्यायाचार्य पं० महेन्द्रउठाना पड़ा है उसके लिये मैं उनसे क्षमा-प्रार्थी हैं। कुमारजी, न्या. पं० दरबारीलालजी, पं०सुमेरचन्दजी साथ ही, धारणाम पेज भी कुछ कम रह गये । मेरी दिवाकर, प्रोव्हीरालालजी, श्री वासुदेवशरणजी अग्रधारणा ४० पेज (५ फार्म) प्रतिकिरणके हिसाबले वाल क्यूरेटर, डा० बनारसीदास, पं० के०भुजबलीजी ४८० पेज देनेकी जरूर थी, जिसमें ५४ पेजकी कमी
शास्त्री, श्रीविजयलालजी, पं० परमानन्दजी शास्त्री,
" रह गई; फिर भी कागजकी इस बेहद मॅहगाईके
पन्नालालजी साहित्याचार्य, श्री दौलतरामजी 'मित्र',
। जमानेम टाइटिल पेजों से अलग ४२६ पेजका घणा
पं०दीपचंदजी पांड्या, पं० काशीरामजी शर्मा 'प्रफुहि.त', मैटर ३) २० में दिया जाना कम नहीं कहा जा
(पृष्ठ ४२२ का शेषांश) सकता। इसपर भी मेरा विचार अगले वर्ष में इस
३६३॥-) पोटेज खाते खर्ध । कमीको पूरा करनेका अवश्य है । अस्तु; इस वर्ष जिन
११) सामयिक पत्रों के मँगानेमें खर्च । सज्जनोंने नई सलायता प्रदान की है उममें तीन नाम
१) मुतफरिक स्वाते खर्च-बट्टा हुंडी-चेक आदिमें। खाम तौरम उल्लेखनीय हैं और बे हैं बाबू छोटेलाल जी जैन रईम कलकत्ता, ला० दलीपसिंहजी कागजी
३४८११) देहली और बाबू विमलप्रसादजी सदर बाजार १२) इस १२ वीं किरणकी पूरी छपाई, बंधाई, पोष्टेज देहली, जिन सभी महानुभावोंका मै हृदयसे आभारी और कुछ कागज आदिकी बाबत अंदाजन खर्च हूँ। इनमें भी बा० विमलप्रसादजी विशेष धन्यवादके करना तथा देना बाकी है। पात्र हैं, जिन्होंने अपनी ओरसे २६ जैन-अजेन व्य
६३७/०) लगभग बचत । क्तियों एवं संस्थाओंको अनेकान्त फ्री भिजवाकर एक अनुकरणीय आदर्श उपस्थित किया है। आप अपना
४२१०॥1-1 नाम प्रकट करना नहीं चाहते थे, एक वर्ष तक हमने
जुगलकिशोर मुख्तार सेउ गुप्त रकबा परन्तु वर्षकी समाप्ति पर स्पष्ट रूपमें
अधिष्ठाता वीरसेवामन्दिर' सरसावा।
Page #455
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२४
अनेकान्त
[वष ५
श्रीनगरचन्दजी नाहटा, मुनिकान्तिसागरजी और बा० इंच कम हो जायगा। इससे वीरसेवामन्दिरके सामने महावीरप्रसादजीके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय हैं। नये-नये उत्तम ग्रंथों के प्रकाशनकी जो विशाल योजना श्राशा है ये सब सज्जन आगेको और भी अधिक है उसमें भारी सुविधा हो जायगी । अब अनेकान्त उत्साह एवं तत्परताके साथ अनेकान्तको अपना पूर्ण पत्र द्वारा महत्वके अप्रकाशित प्राचीन ग्रन्थोंको अनुसहयोग प्रदान करनेका ध्यान रक्खेगे, और दूमरे वादादिके साथ प्रकाशित करके कितने ही लुप्तप्राय सुलेखक भी उसे अपनी बहुमूल्य सेवाएँ अपेण करने एवं अलभ्य साहित्यके उद्धारका पूरा प्रयत्न किया की उदारता दिखलाएँगे।
जायगा और इस बातकी ओर विशेष ध्यान रक्खा इस वर्षके सम्पादनकालमें मुझमे जो भूले हुई
जायगा कि जो ग्रंथ प्रकाशित हो वह यथासंभव एक हों अथवा सम्पादकीय कर्तव्यके अनुरोधवश किये हो अंकमें पूरा हो जाय । इसीसे पत्रको मासिकक गये मेरे किसी भी कार्य-व्यवहारसे या टीका-टिप्पणी स्थानमें त्रैमासिकका रूप दिया जा रहा है, जिसकी से किसी भाईको कुछ कष्ट पहुँचा हो तो उसके लिये पृटसंख्या ग्रंथानुरूपसे कुछ घट-बढ़ रहने पर भी वर्ष मै हदयसे क्षमा-प्रार्थी है। क्योंकि मेरा लक्ष्य जानबभ भरमें ५०० के लगभग जरूर होगी। पत्र में प्रकाशित कर किमी को भी व्यर्थ कष्ट पहुँचानेका नही रहा है
ग्रन्थोकी पृष्ठसंख्या अलग-अलग रहेगी, जिससे वे और न सम्पादकीय कर्तव्यसे उपेक्षा धारण करना ही
पत्रके लेखीय भागमे अलग करके रख तथा स्वतंत्र मुझे कभी इष्ट रहा है।
रूपस उपयोगमें लाये जासकं । लेखीय भागमें महत्व
का गवेषणापूर्ण तात्विक, ऐतिहासिक तथा जीवनके २. अगले वर्षकी योजना
लिये उपयोगी साहित्य रहेगा। और इस तरह पत्रको गत किरणमें अनेकान्तके लिये जो चिन्ता व्यक्त सर्वोपयोगी तथा बार-बार पढ़ने योग्य बनानेका पूर्ण की गई थी और प्रेमी पाठकोंमे इस पत्रके जारी आयोजन किया जायगा। पहली किरण में पंचाध्यायी रखने न रखने आदिके विपय समस्याके हल करने के कर्ता कविवर राजमल्लजीका 'अध्यात्मकमलमातरूप सम्मति माँगी गई थी उसके उत्तर में पत्रको एड' नामका महत्वपूर्ण ग्रंथ सानुवाद प्रकाशित किया बन्द कर देनेकी तो किमीकी भी राय नहीं हुई- जायगा, जिम्की विज्ञप्ति टाइटल के चतुर्थ पेज पर दी अनेकोंने बन्द करनेकी आशंकामात्रपर भारी दुःख गई है। साथमें 'लोकविजययंत्र' नामके एक प्राकृत प्रकट किया है। इमसे पत्रको बन्द न करके जारी गाथाबद्ध प्राचीन ग्रंथको भी यंत्रमहित देनेका विचार रखनेका हा निश्चय किया गया है। रही मूल्य और है, जिससेसहज हीमें देश-विदेशके भविष्यका कितना
आकार-प्रकारादिकी बात, कागजकी भारी मॅहगाई ही परिज्ञान होसकेगा और जो बड़ा ही अपूर्वग्रन्थ है। एवं दुष्प्राप्ति, मरकारी आर्डर और तदनुमार पत्रोकी अगली किरणोंमें भद्रबाहु-निमित्तशास्त्र, मृत्युविज्ञान, मूल्यवृद्धिको देखते हुए बार्षिक मूल्य ३) २० के स्थान आयज्ञानतिलक (प्रश्नशास्त्र), और कविवर राजमल्ल पर ५) रु० स्थिर करना पड़ा है-हिन्दुस्तान जैम का ऐतिहासिक उल्लेखों के उदाहरणोंसे परिपूर्ण पिगल भारी संख्यामे प्रकाशित होने वाले पत्रों तकने २) रु० शास्त्र जैसे ग्रंथ भी यथावमा प्रकाशित किये जायेंगे। मासिके स्थान पर ३॥) रु० मासिक कर दिया है, और भी कितने ही महत्व के अप्रसिद्ध प्रार्चन ग्रन्थोंको माथ ही प्रकार छोटा करक पृष्टमंख्या भी घटा की ऐतिहामिक परिचयादिके साथ प्रकाशमे लानेका विचार है। अनेकान्तका आकार २०४३० साइज अटपेजीक है। आशा है इस नवीन योजनामें अनेकान्तके प्रेमी स्थानपर २०४२६ अठपेजी कर दिया है, जो लम्बाई पाठको तथा साहित्योहारके पुण्य कार्यमे दिलचस्पी में वर्तमान आकार जितना ही रहेगा, चौड़ाई में एक रखनेवाल मजनोंका पूरा सहयोग प्राप्त होगा।
Page #456
--------------------------------------------------------------------------
________________
किरण १२]
सम्पादकीय
३ शाहा जवाहरलालजी और जैन ज्योतिष- कुछ असंसे आपके हृदयमें यह खयाल पैदा हुआ शाहा जवाहरलालजी प्रतापगढ़ (राजपूताना) के ।
कि ज्योतिप-विषयका जो विशेष अनुभव हमने प्राप्त एक प्रमिद्ध जैन चैद्य एवं मम्पन्न व्यक्ति है। बाल्याव
किया है वह कहीं हमारे साथ ही अस्त न होजायस्थासे ही शास्त्रों के अभ्यासी एवं प्रतिष्ठादि कर्मकाण्डों
उसका लाभ दमरोंको मिलना चाहिये । माथ ही, यह के ज्ञाता हुंवड जातिके महाजन है। आपकी अवस्था
शुभ भावना भी जागृत हुई कि जैन ज्योतिप-ग्रन्थोंका ६६ वर्षकी हो गई है । धन-कुटुम्बादिसे समृद्ध होने के
हिन्दी में अनुवाद करके उन्हें ममाज में प्रचारित किया माथ साथ आपके पाम निजका अच्छा शास्त्रभराडार ज
जाय, जिमसे जैनियों में ज्योतिपविद्याकी जानकारी है, जिसकी एक सूची भी आपने मेरे पास भेजी है। बढ़े और पब्लिकपर उनके ग्रन्थरत्नोंका अच्छा प्रभाव यद्यपि मग अभी तक आपसे कोई साक्षात्कार नहीं
पड़े । फलतः देवेन्द्रमूरिके शिष्य हेमप्रभसूरि-विरचित हुआ, फिर भी पत्रों तथा कृतियोपरस यह स्पष्ट जाना
'त्रैलोक्य प्रकाश' नामका जो १३७० शोक-परिमाण जाता है कि आप बड़े ही विनम्रस्वभाव एवं सरल
जैन ज्योतिप ग्रंथ आपको संवत् १६५६ के श्रावण प्रकृति के सज्जन हैं-अभिमान तो शायद आपको छूकर
माममें श्री शान्निविजयजी महाराज के पासस, गन्दनही गया। अपनी बेटियोंको समझना, भलको सहपे
मौर में उनके चातुर्मामके अवसरपर, उपलब्ध हुआ म्वीकार करना और भूल बतलाने वाले के प्रति कृतज्ञता
था और जिमकी तीन दिन में ही आपने स्वयं अपने व्यक्त करना जैस आपमें उदारगुण हैं। इसके सिवाय,
हाथमे प्रतिलिपि की थी नथा ३६ वर्ष तक जिसका पगेकार की आपके हृदयमें लगन है और आप अपने
अवलोकन एवं मनन होता रहा था, उसकी आपने अन्तिम जीवन में माहित्यसेवाका भी कुछ पुनीत कार्य
श्रावण संवन १६६८में भापावनिका बनानी शुरू कर कर जाना चाहते हैं । वैद्य होने के साथ माथ ज्योतिप
दी और माघ वदि ३ संवत १९६८ मोमवारक दिन के विपयम आपकी बडी मचि है और उस ओर उम पूरा कर दिया। साहित्यमवाके क्षेत्र में यही अापकी प्रवृत्तिकी कुछ रोचक कथा भी है। आप शुरु शुरू
पहली कृति है, जिसके अन्तम श्राप लिखते हैंमटेके व्यापार में तेजी-मंदी जाननेके अर्थ शकुनादिका
"आज ६५ वर्षकी श्रायुमें केवल यह एक ही त्रुटिपूर्ण परिचय प्राप्त करनेकी ओर बढ़े और बढ़ते बढ़ते
कार्य करने पाया है।" आप स्वयं अपनी वचनकाम ज्योतिप-शास्त्रों के अभ्यासमें गाढ़ रुचि कर बैठे ! जैन
अभी २० प्रतिशत त्रुटियोका अनुभव कर रहे हैं और ज्योतिपक कुछ ग्रन्थोंको पाकर तो आपकी रुचि इस उन्हें दूर करनके प्रयत्नमें हैं। क्योंकि ग्रंथकी जो प्रति ओर और भी प्रदीप्त हो उठी और आपने उनमें मरे आपको उपलब्ध हुई वह बहुत कुछ अशुद्ध है । इमीसे ग्रन्थोंकी अपेक्षा कितनी ही विशेषताओंका नोट किया ता०१८ जनवरी सन १६४२ को जो पहला पत्र आपने है और अनेक स्थानोपर जनप्रक्रियाको विभिन्न पाया मुझे लिखा, उममें अपनको प्राप्त कुछ जैन ज्योतिष है। साथ ही, आपको यह देखकर कष्ट हआ है कि ग्रन्थोंका परिचय देते हुए तथा त्रैलोक्यप्रकाशकी जैन ज्यातिपके कुछ ग्रन्थोंको अजननि थोड़ासा परि- टीका-समाप्ति की सूचना करते हुए, शुद्ध प्रतियों के प्राप्त वर्तन करके या नामादिक बदलकर अपना बना लिया कराने आदिकी प्ररेणा की है, जिससे जिन श्लोकोंका है, जिसका कारण जैनियोंका प्रमाद और उनमें ज्यो- अर्थ मंदिग्ध है अथवा छोड़ना पड़ा है उस सबकी तिष विद्याकी कमी तथा तद्विपयक ग्रंथोंक पठन-पाठन पूर्ति होजाय तथा जैन ज्योतिपके अन्य भी कुछ ग्रन्थ का अभाव ही कहा जा सकता है। इस विषयके आपने देखने को मिले। इस पत्रमे दूसरे दो ग्रन्थोंकी भी कुछ नमूने भी प्रमागग-सहित उपस्थित किये है, जिन्हें टीका किये जानेका उल्लेख करते हुए और जैनज्योतिपफिर किमी ममय प्रकट किया जायगा।
ग्रन्थोंकी विलक्षण प्रक्रियाका कुछ नमूना दिखलाते हुए
Page #457
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्त
[वर्ष ५
अन्तमें लिखा है-"आयुका कुछ भरोसा नहीं, इस लाया है, भद्रबाहनिमित्तशास्त्रके जोड़की एक भी कारण आज यह विचार हुआ कि (यह सब सूचना) दूमरी कृति कहीं देखने में नहीं आती ऐसा प्रतिपादन बतौर रिकार्ड के आपकी सेवामें भेजदें। इसके बाद किया है और लोकविजययंत्रके विषय में यह सूचित आपने अपनी उक्त भापावचनिकाको मेरे पास देखने किया है कि वह सरलतामे घर बैठे देश-विदेशमें होने के लिए भेजा है, भद्रबाहु-निमित्तशास्त्रके कुछ अध्या- वाले मुभिक्ष, दुर्भिक्ष, युद्ध, शान्ति, रोग, वर्षा, महेंयोंका अनुवाद भी भेजा है और 'लोकविजययत्र' गाई और महामारी आदिको प्रतिवर्ष पहले ही नामके प्राकृत-गाथाबद्ध ग्रन्थकी टीका भी मेजी है। जान लेनेका एक निराला ही ग्रन्थ है। इसके साथमें माथही जैन ज्योतिष-विपयक एक लेख भी प्रेपित एक बहुत बड़ा यत्र है जिसमें दिशा-विदिशाओं में किया है जिसमें अन्य बातांक अतिरिक्त जैनाचार्यों की स्थित देश-नगदिके नाम हैं और उनमें होनेवाले मान्यतानुमार चन्द्रमाको मन्दगामी और शनिको शुम अशुभको वाङ्कोंकी महायतास जाना जाता है। शीघ्रगामी सिद्ध किया है, जबकि अन्य ज्योतिर्विद् शाहाजीकी इच्छा है कि इस ग्रंथकी टीकाको एक साथ चन्द्रमाको शीघ्रगामी और शनिको मन्दगामी (शनैश्चर) और निमित्तशास्त्रके अनुवादको क्रमशः अनेकान्तमें बतलाते हैं । त्रैलोक्यप्रकाश. भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र ार प्रकाशित किया जाय अथवा वीरसंबामन्दिरसे इनका लोकविजय यंत्र इन तीनों मूल ग्रथोंकी आपने बड़ी स्वतंत्रपमें प्रकाशन किया जाय । मै आपकी इस प्रशंमा लिम्बी है-त्रैलोक्यप्रकाशको जन ज्योतिए- मब शुभ भावना एवं मदिच्छाका अभिनन्दन विपयका और तेजी-मंदी जानने का अपर्व ग्रन्थ बन- करता हूँ।
जुगलकिशोर मुख्तार
पिछली फाइलें समाप्त अनेकान्तके द्वितीय और तृतीय वर्पकी फाइलें कभी की समाप्त हो चुकी हैं, उनके लिये कोई भी मजन आर्डर देनेका कष्ट न उठा । प्रथम वर्षकी ५-६ फाइल ही विक्री के लिये अवशिष्ट हैं, मूल्य ५) पोष्टेज ॥) अलग । शेप चतुर्थ और पंचम वर्ष की फाइलें अभी इच्छानुमार मिल सकती हैं, मूल्य वही ३) रु० पोटेज फ्री।
व्यवस्थापक 'अनेकान्त'
pumme
CUSA
Page #458
--------------------------------------------------------------------------
________________
भनेकान्तको महायता
१०) श्रीमती चमेली देवी धर्मपत्नी स्व. भाई रामप्रसाद गत किरण १०.११में प्रकाशित सहायताके वाद १.६) जी जैन श्रोवरसियर, सरसावा, हाल एटा। रु. की निम्न सहायता प्राप्त हुई है, जिसके लिये दातार १०) बा. विश्वंभरदासजी जैन गार्गीय झांसी (पौत्र महाशय धन्यवादके पात्र हैं :
जि० कान्तिप्रसाद के विवाहकी खुशीमें)। ५०) बा. जयभगवानजी वकील मादि जैन पंचान पानी- १) चौ० दर्शनलाल जीयालाल जी जैन, सुलतानपुर जि.
पत, मध्ये सौ रुपयेकी स्वीकृत सहायताफे बाकी रहे सहारनपुर । हुए। इस रकममे २०) रु० ला. सूरतराय रघुबर. २) श्रीमती हीरादेवी सुपुत्री बा. रघुबरदयाल जी जैन, दयालजी जैन श्राडती मर्चेट व कमीशन एजेण्ट करोल बाग, देहली। पानीपतकी ओरसे हैं।
२) ला. भागमलदास रामचन्द्रदासजी जैन, मुजफ्फरनगर १५) संठ कल्याणमल जी गोधा, उज्जैन और सेठ बैजनाथ (पुत्र विवाहगी खुशीम)।
जी बडजात्या, मुजफ्फरनगर (चि. पुत्र नरेन्द्रकुमार २) ला. गोविन्दराय श्रीचन्दजी जैन, बडका-बधीत जि.
और चि० पुत्री शान्तिदेवीके विवाहकी खुशीमें)। मेरट (पुत्र विवाहकी खुशीमें)। ११) ला०ब.बलाल श्यामलालजी जैन श्राइती, खतौलीजि०१) श्रीमती चान्दवाई धर्मपत्नी बा. चन्दूलाल जी जैन
मुजफ्फरनगर (चि. श्यामलालके विवाहको खुशीमे)। अब्दुल्लापुर जि. अम्बाना (लायबेरीके लिये) १०) ला. मुन्नालाल भगवानदास पर्राफ. क्लाथमर्चेन्ट
अधिनाता 'वीरसेवामन्दिर' ललितपुर (दो पुत्रियों के विवाहकी खुशी में)। ५) शाह सौभाग्यचंद कालीदासजी जैन, पो.डबका बडौदा)
विलम्बका कारण ५) ला• मित्तरसेन मामचन्दजी जैन, देवन्द जि. सहा.
___ कागजके न मिलने, सम्पादकजीके अम्वस्थ रहने और नपुर (पितामहीके देहावसानपर निकाले हुए ६०१)
दो बडे तरयार लेखोंके कानपुरके परिषद् अधिवेशनमें चोरी के दानये )।
चले जाने तथा फिरसे उनके लिखाये जाने श्रादिके कारण ४) ला. नन्दुमल (फर्म हीरालाल नन्दमन) और ला. इस किरणके प्रकाशनमें असाधारण विलम्ब हो गया है,
कुन्दनलाल (फर्म उमरावसिंह रतनलाल) देहली जिपका हमे खेद है ! अाशा है इस मजबरीके लिये पाठक (ध नेमचंद और पुत्री दर्शनमालाके विवाहकी वशी क्षमा करेंगे।"
.. . -प्रकाशक. में), मार्फत बा० पन्नालाल जैन अग्रवाल देहली। अध्यात्मकमलमातण्डकामानुवाद प्रकाशन ५) ला० शिखर चन्दजी जैन अफजलगढ़ जि. बिजनौर
यह ग्रन्थरन उन विद्वहर कविराजमल्लकी कृति है जो (चि. पुत्र राजेन्द्रकुमारके विवाहकी खुशी में)। चलायी और लाटी संहिता जैसे ग्रन्थोंके प्रसिद्ध ग्रन्थ२) ला० भोलामाथ कामताप्रसादजी जैन सरधना जि. कार और इस लिये इसके महत्व-सम्बन्धमें अधिक मेरठ (चि. कामताप्रसादके विवाहकी खुशी में)।
कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है। जिन मजनोंने पंचाध्याव्यवस्थापक 'अनेकान्न'
यीको देखा है वे कविचरकी युनि-पुरस्सर चमत्कृत लेखनीमे
भले प्रकार परिचित हैं। फिर भी यहां इतना कह देना ही वीरसेवामन्दिरको महायता
पर्याप्त होगा कि इस१०५पद्यात्मक कृजे में अध्यामसमुद्रको बहे अनेकान्तकी गत किरण नं० ८- में प्रकाशित सहा- कौशल के साथ बन्द किया गया है। पाठक इसके अध्ययन यताके बाद वीरसेवामन्दिर सरसावाको जो नई सहायता से बड़े-बड़े अध्यागम ग्रंथोंको मथकर निकाले हुए नवनीत प्राप्त हुई है वह निम्न प्रकार है, और इसके लिये दातार का रसास्वादन करेंगे । वीरसेवामन्दिग्ने अनेकान्तके छठे महाशय धन्यवाद के पात्र हैं:
वर्षकी प्रथम किग्यमे इस पूरे ग्रंथको अनुवाद तथा प्रस्ता११) ला० शीतलप्रमाद गिरनारीलालजी जैन, चकरीता वनादिके साथ दे देनेका निश्चय किया है। आशा है भादों
जि० देहरादून (चि. महावीरप्रसादके विवाहकी खुशी सदीमें अनेकान्तकी नई योजनाके साथ यह ग्रंथ पाठवोंके में लायब्रेके लिये)।
हाथों में पहुंचकर उन्हें पानन्दित करेगा। -अधिष्ठाता
Page #459
--------------------------------------------------------------------------
________________
Registere No. A-137.
Promusnan
aadarun Teagasansapg
Settrina X
araandrolya
-vasana
(प्रेसमें)
पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि 'पुरातन-जैनवाक्य-सूची (प्राकृतपद्यानुक्रमणी) नामका जो ग्रन्थ कुछ वर्षोंसे वीरसेवामन्दिरमें तय्यार हो रहा था वह प्रेसमें दिया जा चुका है और बाघेसे उपर छप भी चुका है'घ' वर्गके वाक्य समाप्तिके करीब है। यह ग्रन्थ ३६ पौण्डके उत्तम कागजपर २२४२६ साइजके अठपेजी श्राकारमें छपाया जा रहा है, प्रस्तावनादि सब मिलाकर लगभग ५०० पृष्ठका होगा और आशा है जल्दी ही प्रकाशित होजायगा।
इस ग्रन्थको हाथमें लेते हुए यह नहीं सोचा गया था कि इसकी तय्यारीमें इतना अधिक समय लग जायगा। पहले प्रत्येक ग्रन्थकी अलग अलग वाक्य-सूची तय्यार की गई थी, बादको प्रो०ए०एन० नपाध्याय एम०ए०, कोल्हापुर जैसे मित्रोंका भी जब यह परामर्श प्राप्त हुआ कि सब ग्रन्थों के वाक्योंका एक जनरल अनुक्रम विशेष उपयोगी रहेगा
और उससे ग्रन्थका उपयोग करने वालोंकी शक्ति और समयकी बहुत बचत होगी, तब सूची किये गये वाक्योंको फिरसे काॉपर लिखकर उनका अकारादि क्रमसे जनरल अनुक्रम बनानेका भारी परिश्रम उठाना पड़ा और तदनन्तर कापरसे साफ़ कापी कराई गई। इस बीच में कुछ नये प्राप्त पुरातन ग्रन्थों के वाक्य भी सूची में शामिल होते रहे,
और इस तरह इस काममें कितना ही समय निकल गया। इसके बाद जब प्रेसमें देनेके लिए ग्रन्थकी जाँचका समय पाया तो मालूम हुआ कि कितने ही वाक्य सूची करनेसे छूट गए हैं और बहुतसे वाक्य अशुद्ध रूपमें संगृहीत हुए हैं, जिनमेंसे कितने.ही मुद्रित प्रतियों में अशुद्ध छपे हैं और बहुतसे हस्तलिखित प्रतियोमें शुद्ध पाये जाते हैं । अतः
प्रन्थोंको आदिसे अन्त तक मिलाकर छूटे हुए वाक्योंकी पूर्ति की गई और जो वाक्य अशुद्ध जान पड़े उन्हें प्रन्थ , पूर्वापर सम्बन्ध, प्राचीन ग्रन्थों परस विषयक अनुसन्धान, विषयकी संगति तथा कोप-व्याकरणादिकी सहायताके
भाधारपर शुद्ध करनेका भरसक प्रयत्न किया गया, जिससे यह प्रन्य अधिकसे अधिक प्रामाणिक रूपमें जनताके सामने आए और अपने लक्ष्य तथा उद्देश्यको ठीक तौरपर पूरा करने में समर्थ होसके।जांचके इस कामने भी, जिसमें कम-परिवर्तनको भी अवसर मिला, काफी समय ले लिया और कुछ विद्वानोंको इसमें भारी परिश्रम करना पड़ा। यही सब इस प्रन्थके प्रकाशनमें विलम्बका कारण है। मैं समझता है ग्रन्थके सामने आनेपर विद्वज्जन प्रसन्न होंगे और इम विलम्बको भूल जायँगे । अस्तु ।
यह प्रन्थ रिसर्च (शोध-खोज) का अभ्यास करने वाले विद्यार्थियों, स्कॉलरों, प्रोफेसरों, प्रन्थसम्पादकों, । इतिहास-लेखकों और उन स्वाध्याय-प्रेमियों के लिये भी बड़े कामकी चीज़ है जो किसी शास्त्रमें 'उक्तच' आदि रूपसे
आए हुए उद्धृत वाक्योंके विषयमें यह जानना चाहते हों कि वे कौनसे प्रन्थ अथवा प्रन्थों के वाक्य हैं। काराजकी इस भारी मँहगीके जमाने में इस प्रन्थकी कुल ३०० कापियाँ ही छपाई जा रही हैं। अतः जिन विद्वानों, कालिजों, लायबेरियों तथा शासभण्डारों आदिको इस ग्रन्थकी जरूरत हो वे शीघ्र ही नीचे पतेपर अपना नाम ग्राहक श्रेणी में दर्ज करालें, अन्यथा अल्प प्रतियोके कारण इस ग्रन्थका मिलना फिर दुर्लभ हो जायगा। प्रन्थकी तय्यारीमें बहुत 'अधिक व्यय होनेपर भी मूल्य लागतसे कम ही रक्खा जायगा। पिछली सचनाको पाकर कुछ विद्वानों तथा संस्था. :ोंने अपने लिए कापियाँ रिजर्व कराई हैं, शेषको शीघ्र ही करा लेनी चाहिये।
सरसावा, जि. सहारनपुर
Page #460
--------------------------------------------------------------------------
_