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अपभ्रंश भाषाका शान्तिनाथचरित्र
(ले०- पं० परमानंद जैन शास्त्री)
अनेकान्तके चौथे वर्ष की पाँचवीं किरणमे नया- हुए लेखक ने उसे ५००० हजार सूचित किया है, मन्दिर देहली के कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोकी जो एक जिसका अभिप्राय संधिवाक्यो आदिका भोगणनाकरक सूची प्रकाशित की गई थी उसमे बह ग्रन्थोको, जिनका श्लोकसंख्या बतलान का जान पड़ता है। इस ग्रन्थम सम्प्रद यादि-विपयक निर्णय नहीं हो सका था, 'संदिग्ध ५३ पारच्छद ह। पत्र संख्या १५३ ३ । यह प्रात ग्रन्थसम्प्रदाय-ग्रन्थ' शीर्षकके नीचे प्रकट किया गया था। रचनास एक वष बाद अथात् वि० स० १५८८ म उनमें से आज चौथे ग्रन्थ 'शान्तिनाथचरित्र' का फाल्गुण वदी पंचमाक शुभादन विष्णुदास लखक क संक्षिप्त परिचय अनेकान्तके पाठकों को कराया जाता द्वारा लिखागइ ह । विष्णुदास ऊधाबामण (मूदव)का है जिससे ग्रन्थकारक सम्प्रदाय तथा नामादि-विपयफ पुत्र था । संभवतः उसीक द्वारा ग्रन्थका प्रथम प्रात सारा सन्देह भी दूर हो जाता है।
लिखो गई, इसीसे उसका नाम मूलमे 'वण्हण वि यह शान्तिनाथ चरित्र अपभ्रंश भापाका एक ऊधापुत्तएण' आदि वाक्योंके द्वारा संनिविष्ट किया दिगम्बर ग्रन्थ है । इसके रचयिता कवि महिन्दु गया है। (महीचन्द्र या महाचन्द्र) है, जो इल्लराजके पुत्र थे। ग्रन्थप्रशस्तिमें कविन योगिनीपुर (दिल्ली) का इससे अधिक ग्रन्थकारका कोई विशेष परिचय उक्त सामान्य परिचय कराते हुए काठासंघक माथरगच्छ ग्रन्थप्रतिपरस उपलब्ध नहीं होता । इस ग्रन्थकी और पुष्करगणक तीन मुनियों (भट्टारकों) का नामोरचना अग्रवाल वंशक मंडनस्वरूप गर्ग-गोत्रीय ल्लेख किया है-यशःकीर्ति, मलयकीर्ति और गुणभदभाजराजसुत ज्ञाना (ज्ञानचन्द्र)क पुत्र विद्वान श्रावक सरि । इसके बाद ग्रंथका निर्माण कराने वाले साधामाधारणकी प्रेरणा की गई ह* । जैसाकि निम्न
रण नामक अग्रवाल श्रावकके वंशादिका विस्तृत पद्य र तदनन्तरक संधि वाक्यसे प्रकट है:--
परिचय दिया है। और ग्रंथके द्वितीयादि परिच्छेदक भो सुणु बुद्धीसर वरमहि दुहुहर, इलराजसुप्र णाखिजइ । प्रारम्भमें एक एक संस्कृत पद्यद्वारा भगवान शांतिनाथ मण्णाणसुश्र माहारण दोसणिवारण वरणरेहि धारिजइ ॥ का जयघोप करते हुए उनमे, पुष्पदन्तक महापुराणकी
'इय सिरिमंतिणाहचरिए णिरुवमगुणरयण संभरिए तरह, माधारणकेलिये श्री और कीर्तिआदिकी रक्षा करने अण्णाणमयो (?) इल्लराजसुअ-महिंदुविरइए सिरिणाणा- की प्रार्थना की गई है। उन पद्योंको अलग परिशिष्टमे मुअ-संघाहिव-महाभब्व माहारणस्प णामंकिए भन्वियण- दे दिया गया है और उनसे ग्रन्थकार कविकी संस्कृतजणमणाणं दयरे मिरिइढिदेव - णमीयारकरणं सेणिय रचना-चातुरीका भी अच्छा परिचय मिल जाता है। महागय सिरिवड्ढमाणसमवसरण गमणं धम्मक्रवाण-निसु- ग्रंथका मंगलाचरण निम्न प्रकार है:णणं पढमो इमो परिच्छेश्रो सम्मत्तो ॥छ॥'
जिणमय-तरु कंधर णुय भुविकंधर सुरवह संतिहु पयजुयलु । कविवर महाचन्द्र ने इस ग्रन्थकी रचना योगिनीपुर उत्तमु तह केरउ सुक्खजणेरउ चरिउ कहमि पणविवि अमलु ॥ (दिल्ली) में बादशाह बाबरके राज्यकालमें विक्रम मं०
इसके बाद 'जय श्राहणाह जय रणाह रगाह । जय १५८७ क कातिक माम के प्रथमपक्षका पचमाक दिन अजिय गयं रइ-पीझरणाह । आदि रूपमे चतुर्विशति पूर्ण की है। । ग्रंथकी श्लोक-ख्या मृलमें ४३०० तीर्थकरों और जिनवाणीकी स्तति की गई है। पश्चात (तेतालीममई) दी है, परंतु ग्रन्थप्रतिको समाप्त करते
आचार्य, उपाध्याय, साधु और सम्यग्दर्शनादिको नम* एयाहि मज्झ माहारणेण कागविउ एह गंयु तण। स्कार किया गया है। इसके बाद धर्मकथा कहनेकी । विक्मगबहु नवगयकालइ. रिमि वसुसर भुविधेकालइ। प्रतिज्ञा की गई है। इसके अनंतर ग्रंथमें अकलंक, कत्तियपढमपवित्र पंचमदिणि हुउ परिपुण्णवि उग्गंतद इणि॥ पूज्यपाद, नेमिचन्द्रसैद्धान्तिक, चतुर्मुख, स्वयंभू ,