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अनेकान्त
[वर्ष ५
है । 'भरतेशवैभव' में भी तत्त्वज्ञानकी कमी नहीं है। अजीव, आश्रव, बंध, संघर, निर्जरा, मोक्ष,पुण्य, पाप) खासकर योगविजय, मोक्षविजय एवं अर्ककीर्तिविजय इन्हें भले प्रकार जान कर भी वास्तव में आत्मा तत्त्वज्ञानका भाण्डार ही हैं । रत्नाकर कोरे लेखक ही शरीरसे भिन्न है,शरीर अचेतन है, आत्मा चेतनास्वरूपी नही थे; परन्तु एक सच्चे प्रात्मानुभवी भी । इसके है; यो विचार करनेवाला ही सुखी है न? ॥३॥ लिये इनके मुखमे निकले हुये अनुपम, बहुमूल्य वचन हे रत्नाकराधीश्वर ! आपने बताया है कि आत्मा ही ज्वलन्त उदाहरण हैं। 'राजालिकथे' से विदित केवलज्ञानगम्य है। शरीरके समान वह चक्षरिद्रियगोचर होता है कि रत्नाकर एक अच्छे योगज्ञ भी थे। कथा नहीं होता। जिस प्रकार पत्थर में सुवर्ण, पुष्पमें सुगन्ध, के कर्ताका कहना है कि अपने गृहस्थाश्रममें जिस दृधमें घी और लकड़ीमे आग अव्यक्तरूपमें व्याप्त है यो समय कवि कारक्लके भैररस ओडेयर के राजदरबार समझकर अभ्यासद्वारा ही वह प्राप्त होता है।॥४॥ मे आस्थानकविके पदपर थे, उस समय उनपर हे रत्नाकराधीश्वर ! जिस प्रकार पत्थरमें दिखाई राजकुमारी सहसा आसक्त हो गयी थी । ये उससे देनवाली कान्ति सुवर्णका गुण, वृक्षमे दिखाई देने मिलने के लिये योग-द्वारा वायु-धारणकर सदैव वाला मार भागका चिन्ह आर दूधमें दिखाई देने सौधाग्रमे खिड़की द्वारा आया-जाया करते थे । वाली मलाई घीका चिन्ह कहा जाता है उसी प्रकार अकस्मात जब एक रोज़ यह बात राजाको ज्ञात हुई इस शरीरमे दिखाई देने वाली चेतना, ज्ञान, वचन तब उसी गेज़ भयमे रत्नाकरने अपने गुरु महेन्द्र- आदि जीवके गुण हैं यो आपने फरमाया है ॥५॥ कोत्तिमे दीक्षा लेली । अस्तु, मै अब रत्नाकरजीके हे रत्नाकराधीश्वर : जिस प्रकार पत्थरको शोधन 'रत्नाकराधीश्वरशतक' के कुछ प्रारम्भिक पद्योंका हिन्दी से सुवर्ण, दुधको मथनेस मक्खन और लकड़ीको अनुवाद 'अनेकान्त' के पाठको के समक्ष रख रहा हूँ। जोरसे रगड़नसे आग प्राप्त होती है उसी प्रकार शरीर ___'शृङ्गारकविहंसराजके प्रभु हे रत्नाकराधीर ! में आत्माको जुदा मानकर अभ्यास करनेसे क्या शोभायमान लेपनद्रव्य, मुन्दर और सुगन्धित पुप्पों आत्माको देखना असाध्य है ॥६॥ की माला, अनध्ये रत्नोंका हार र बहुमूल्य वस्त्र ये हे रत्नाकराधीश्वर ! उत्कृष्ट ज्ञान-दर्शन-चारित्रसभी केवल शरीरकै अलंकार हैं, इसलिये ये त्याज्य स्वरूप, मंगलमय, अतिशयोसे युक्त, दूसरोकी सहायता हैं । श्रात्मस्वरूपकी श्रद्धा, आत्माका ज्ञान और विशिष्ट के विना स्वस्वरूपको प्राप्त, सुखस्वभाव, बाधारहित चारित्र ये तीनों चित्तके अलंकार हैं, इसलिये ये उपा- श्रीर विषयासक्तिसे विमुख आत्मा इस शरीरमें पैर देय है, यह समझकर आपने इन त्रिरत्नोंको मुझे के अंगूठे से लेकर मस्तक तक सर्वाङ्ग व्याप्त है ॥७॥ प्रदान करनेकी कृपा की है ॥ १॥
हे रत्नाकराधीश्वर ! धूपसे नहीं सूखनेवाला, आग हे रत्नाकराधीश्वर ! जीवाजीवादि तत्वोमें उत्पन्न से नहीं जलनवाला, पानीस नहीं भीगनेवाला, तंज होनेवाली प्रीति ही सम्यग्दर्शन है, उन तत्वोंको भले से तेज़ तलवारसे भी नहीं करने वाला, ज्ञान-दर्शनप्रकार समझना सम्यग्ज्ञान है और इम सम्यग्ज्ञानकी स्वरूप यह आत्मा परवस्तुओके चिन्तनसे अपने स्वसहायतासे किसी प्राणीको किमीप्रकारकी पीड़ा उत्पन्न रूपको भूलकर क्षधारोगादिसे नष्ट होनेवाले इस न हो इस ढंगम चलना सम्यकचारित्र है; यह कहकर शरीरमें मिल गया है । इसलिये अपने स्वरूपके इन्हीं तीनोंको आपने मुक्तिका कारण बताया है चिन्तनसे ही यह सुखी हो सकता है न ? ||८||
हे रत्नाकराधीश्वर ! पद्रव्य, ( जीव, पुद्गल, हे रत्नाकराधीश्वर नाशस्वभावी, निश्चेष्ट, सदोष धर्म, अधर्म, आकाश. काल ) पञ्चास्तिकाय, (जीवा- इस जड़ शरीरको यह श्रात्मा अपनी चैतन्य-शक्तिसे स्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति- सारथीके समान चलाता है, मृदंगकारके समान बुल काय, आकाशास्तिकाय ) सप्ततत्व, ( जीव, अजीव, वाता है और नटके समान नचवाता है। देखो इसका आम्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) नवपदार्थ (जीव, सामर्थ्य | ॥॥