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________________ रत्नाकर वर्णी और उनका रत्नाकराधीश्वर शतक (ले०-५० के० भुजवली जैन शास्त्री ) रत्नाकर वर्गी उल्लेखनीय प्राचीन कन्नड़कवियोंम योगविजय, मोविजय और अर्ककीर्तिविजय इस से अन्यतम हैं। कवि रत्नाकरसिद्ध, रत्नाकर- प्रकार पांच भागों में विभक्त है । इसमें ६६६६ पद्य अण्ण आदि नामोंमें भी ये विश्रुत थे । देवचन्द्रका हैं। जनश्रति ऐमी है कि कविने लगभग दस हज़ार प्रसिद्ध कथाग्रन्थ 'गजावलिकथे' मे ज्ञात होता है पद्यपरिमित इस महान ग्रन्थको नौ महीनों में ही पूर्ण कि ये महविद्रीके सूर्यवंशी राजकुलके देवराजके किया था। इसीसे इनकी कविताशक्तिका परिचय सुपुत्र थे और इनका 'रत्नाकर' नाम अपने माता-पिता मिल जाता है। कविकी शैली सरल है; अतः इनके के द्वारा ही रखा हुश्रा जन्मनाम था। इनका वर्णीपद पूर्वोक्त ग्रन्थोक स्वाध्यायसे भावुक पाठकों के सरस दीक्षा-प्राप्त है । वर्णोजीके दीक्षागुरु मृडाबद्रीके हृदयमें सहसा एक अनिर्वचनीय आनन्द स्वयमेव भट्रारक चारुकीर्ति थे। रत्नाकरने बाल्यावस्थामे ही उमड आता है। अपनी कृतियोंको क्लिष्ट बनाना काव्य, अलंकारादि विपयो में पाण्डिल्य प्राप्त कर प्राचार्य कविको सर्वथा इष्ट नहीं था। इस बातको उन्होंने कुन्दकुन्द के प्राभृतत्रय, प्राचार्य पूज्यपादक समाधिश- स्वयं अपने मुंहसे कहा है और उसको अन्त तक तक, श्रीपानन्दीके म्वरूपम्बोधन आदि अनेक यावच्छक्य निबाहा भी है। रत्नाकर अपने हृद्गत श्राध्यात्मिक ग्रन्थोंका मनन किया था। ये कारकलके बड़े से बड़े विचारोंको भी थोड़े शब्दों में हस्तामलकवत भैरग्स प्रोडयरके गजदरबग्में 'शृंगारकविराजहंम' स्पष्ट वाचकों के सामने रखने की अनुपम शक्ति रस्ते की उपाधि प्राप्त कर श्रास्थानस्थित सभी विद्वानोंपर थे। इस प्रकारका सामर्थ्य सभीमें नहीं होता । कवि अपना सिक्का जमाये हुए थे । रत्नाकरका समय का रचनाचातुर्य भी विलक्षण था। इसके लिये आपक उपर्युक्त 'राजावलिकथे' के मनसे शालिवाहन शक भरतेशवैभवका 'भोगविजय' ही उज्ज्वल निदर्शन है। १४७६ ( ई० मन १५५७) है । इस समय कन्नड वस्तुतः कथाभाग इसमें बहुत कम है, फिर भी कवि भाषामें रत्नाकरप्रणीत मुख्य चार ही ग्रन्थ उपलब्ध ने प्रकरणोंद्वारा केवल तीन दिनकी बातोको बढ़ाकर होते हैं-१ भरतेशवैभव, : अपराजितेश्वरशतक, छोटे-छोटे १६ प्रकरणोंमें वर्णन किया है। इसका ३ रत्नाकराधीश्वरशनक र ४ त्रिलोकशतक। वर्णनक्रम बीसवी शताब्दीके उच्चकोटि के उपन्यामोंमे शतकत्रयोमेमे पहला शतक उपलचम्पयाला छंदमें, कुछ भी कम नहीं है । 'भोगविजय' का कथाभाग दुमरा शादू लमत्त भमें एवं तीमरा कंटोमें रचित है। नाटकोके ममान आस्थान-रंगमे प्रारम्भ होता है। ये ग्रन्थ 'शतक' कहलाने पर भी वास्तवमें मपाद-शतक ये कवि प्रत्येक विषयमें पूर्ण दक्ष थे; अतः जिम हैं । इन शनकोमेसे प्रथम दोमे बैगग्यका तथा विषयको अपने हाथमे लेते थे उस निचोड़कर ही अन्तिममें त्रिलोकका वर्णन है । साहित्यिकदृष्टिमे भी छोड़ते थे। कविकी शृंगारवर्णन-सम्बन्धी अमेयशक्ति तीनों ग्रन्थ बहुत ही उत्तम हैं। इनका भरतेशवैभव को देखकर उनकी श्रृंगार-कवि हंसराज' यह उपाधि सांगत्य (छन्दका एक भेद) में रचा हुआ एक सर्वोत्तम सर्वथा अन्वर्थ जॅचती है । इनकी कृतियां हास्य,शान्त काव्य है । इममें सम्राट् भरतकी जीवनी बड़े रोचक आदि अन्यान्य रमोंसे भी परिपूर्ण हैं । रत्नाकरके ढंसेगचित्रित य ह ह ग्रन्थ भोगविजय, दिग्विजय, शतकद्वयमें तो तत्त्वज्ञान विराग्य कूट-कूट कर भरा
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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