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________________ २५० अनेकान्त [वर्ष ५ 'नहीं, बाबू ! वह काढ़ी नहीं है ! अगर कोढ़ी 'ऐ तुमने सब पैसे उसे देदिये ? क्या सोचकर?' होता, तब क्या वह यो मरने जाता ! कोढ़ियों को 'यही सोचकर कि वह दुनियाका सबसे बड़ा दया-पात्र आत्म-हत्या करने की जरूरत नहीं पड़ती-बाबू जी! है। जिसके लिए आदमी कहलाने वालों के पास भी उनपर तो कठोर-से-कठोर आदमीको भी तरस आता सहानुभूति नही !' है, दया आती है ! और मै जानती हूँ-शायद कोई कोढ़ी भूखा भी रातको न सोता ह गा! पर, वह जो कोदी नहीं है, इसीलिए तो आत्म-घातको उतारू था! दसरे दिन मैं उसे लेकर उसकी झोंपड़ी तक गया, दुनिया उसपर दया नही कर सकती, तरस नहीं ला उम 'दया-पात्र' को देखने ! रास्ते में उसने कहासकती क्योंकि वह तन्दुरुस्त है ! बिना भेपक भीग्व 'अब वह मेरे यहाँ ही रह रहे हैं। मैं कह रही हैंनहीं, यह तो पुराना मसला है ! आज तो भीख के कि वह भी कोढी बन जाएं, तो खानेका घाटा न लिए भेप ही नही, वोसियों बातो की जरूरत पड़ती रहेगा।" है। पेशा जो हो गया है !..' मैने कहा-"कोढी बनजा' का क्या मतलब ?' मैने पूछा-'फिर तुम्हे उसपर दया कैसे आई?' वह बोली-'पहले दया नहीं ! कर्तव्य सूझा कि बोली-'आप नहीं जानते ? 'भीख' भी आज 'मरने वाले को बचाना चाहिए !' फिर जब उसकी अभागे हिन्दुस्तानमें एक पेशा है । और नकली कोढ़ी बाते सुनी तो जी पानी-पानी बन गया !... ' बनना है एक तरीका, व्यापारकी तरह ! वैसे दया जो 'ऐसा क्या कहा, उसने ?' मै पूछ बैठा ! किसीको नही आती! कहने लगी-'उसने कहा, मैन नोकरी तलाशी, मैने लपककर पूछा-'क्या तुम भी नक़ली-को दिन गिड़गिड़ाकर भीख माँगी, पर मुझे समाजसे कोई हो ? चीज़ न मिली! उल्टी फटकार, डाट, डपट और वह हंसी और बोली-'यो सब नक़ली ही नहीं अपमान ! आखिर चोरीपर नज़र डाली, लेकिन वह होते-बाबू ! पर यह सच है कि मैं उतनी कोढिन मुझसे हो न सकी ! मैं निराश होकर अपने जीवनको नही है, जितनी कि आप मुझे देखते है !' अब खत्म कर देना चाहता हूँ। क्योंकि दुनियाको झोपड़ी भागई। मेरी ज़रूरत नही ! दुनियामें, मेरे लिये जगह नही, मैने उम दया-पात्र को देखा तो दंग रह गया। अन्न नही-कुछ नही !' वह रो उठा ! जान उसकी दफ्तर में आने वाला वही उम्मेदवार ही तो था ! .. भूखके मारे निकली जा रही थी ! उसने बताया कि चार दिनसे उसके मुंह में एक दाना भी नहीं गया ! 'ओफ !' अनिच्छा, मेरे मुंहसे निकला! मैन उमे एक छोटी दूकान कगदी है ! अपेक्षाकृत वह बोली-'मेग मन जानें कैसा हो उठा। चैन मे है वह ! पर, वह इस पर बहुत शर्मिन्दा दिन-भरकी कमाईके साढ़े सात आने मैंने उसके हाथों है कि भूग्वमे उमने बुग खाना खाया । हालाँकि में देकर कहा-लो भैय्या ! पहले खाना खाओ, फिर कोढिनके पंसे अदाकर चुका है। लेकिन फिर भी दूसरी बातें होंगी!' उसके दिलमें एक कसक है !
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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