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________________ किरण ६-७ आदमी जानवर या बेकार २४६ कुछ यों ही! समझ बैठे ! लेकिन तुम आदमी नहीं; नारकी हो, आशा लेकर आते हैं, और फटकार लेकर लौटते हैवान हो, जानवर हो! जिसके दिलम......!' हैं ! मुमीबत तो यह है कि सभ्यताका बर्ताव उनपर दर्बान ने धक्का देकर निकाल बाहर किया ! कारगर ही नहीं होता ! नौकरी क्या माँगते हैं—पूग साहब बड़बड़ाता रहा, न जाने क्या ? "मै चुप, मुचिरापन याः करके आते हैं, शायद ! मरने-मारने, काम में लगा रहा! लड़ने-झगड़नेको उतारू ! आखिर फटकार ही उनसे पिड छुड़ानेमें समर्थ होती है। "बाबू, दुखिया-अपाहिज-मुहताजको एक पैसा ... उम दिन भी एक आया-शरीरका तन्दुरुस्त, एक' 'पैसा !!! उम्रका नोजवान । गोरा-चिट्टा, साफ-सुथरा ! कपसोल पिछले दो इतवारों में दो इकन्नियां मै उसे दे का जूता, ढीला पजामा और ऊपर घरका ध या, चूका था ! दयाके सबब, या पुण्य के लोभ से-कुछ भी पुराना कोट | निचोडनकी सिकुडनं अभी भी बाकी थीं। समझिए ! सिरपर लम्बे-लम्बे बाल थे-मॅभाले हुए ! पर, तेल एक इकन्नी फैक मैं चला कि वह बोली--'बाबू!' उनमें नहीं था, पानी से भीगे हुए थे, तभी शायद मैने पास आकर पूछा-'क्यों ? काढ लिये गये थे, अस्त-व्यस्त नहीं थे ! जमे थेसब!... घिघियाफर वह बोली-'एक 'दुअन्नी' और घिघियाफर वह बोली- 'द ___माहब सुबह से दो उम्मीदवारोंको फटकार चुका दे सकेंगे" था ! काम के वक्त यह तृकाने-बदतमीजी उसे पसन्द मैं कुछ उदार-सा हो गया था ! जेबसे दुअन्नी नही था ।....... निकाल, उम देते हुए कहाकलम चलाते-चलाते ही माहबने डाट बताई-- 'यह लो ! क्यों ? क्या करोगी-इतने पैसोंका ?' 'चले जाओ, जगह नहीं है यहाँ !' 'बाबू एक आदमी को चाहिये! वह बेचारा...!' 'मगर सुनिये तो......?" 'तुम्हारा आदमी है ? 'जरूरत नहीं ! 'मेरा अपना और कोई नहीं है-इसके सिवा!'और उसने अपनी योग्यताके गवाह-सार्टी- बच्चेको हाथ लगाते उसने कहा ! फिकेटम-मेज़पर पटक ही दिए ! बदबूसे पास खड़ा होना मुश्किल हो रहा था ! माहब भल्लाया-'श्रादमी हो या जानवर ?' पर, उसकी बात जान लेने की इच्छा भी बलवती हो 'आदमी ! तीन दिनका भूखा आदमी अगर उटी! 'आदमी' ही रह सकता है, तो माहेब । मुझे भी मैने पूछा-'नब ?' आदमी ही कहना होगा !'-दबंगपनके माथ उमने वह कहने लगीउत्तर दिया । 'परसों, परले दिनकी बात है !-बारहसे कुछ माहबका मुंह मारे क्रोधके लाल हो पाया- ज्यादे बजे होगे, तब मैं सोनेको चली, बाबू। अपनी 'शप" झोंपड़ी की तरफ ! झोंपड़ी उधर है जमनापार ! जहाँ और घन्टी बजादी ! ताँगे-इक्के खड़े रहा करते हैं ! रोज पुलपर होकर दर्वान आगया ! जाती हैं ! उस दिन जो गई तो देखा एक बाबू जान वह भी कुछ उग्र हो गया, मुंह उमका भी सुर्व देने के लिये लहराती हुई-धारामें कूदे जा रहे हैं, हो रहा था ! बोला--'जानवर हो तुम ! जो मैंने उन्हें पकड़ लिया.. . !' आदमियत के बर्ताव को भी भूले हुए हो ! पैमा 'ऐ ? तुमने बचा लिया उमे ? अच्छा ? क्या वह पाकर-दोनों वक्त खाना पाकर तुम अपने को आदमी भी कोढ़ी है !
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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