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________________ श्रादमी, जानवर, या बेकार ? [ एक स्केच ] ( लेखक-श्री 'भगवत्' जैन ) एकबार नहीं, कई बार कॉन्टेबिलको ठोकर मारते शो' देखकर लोटा है, मैंने इस करुण-पुकारको हुए मैने उसे देखा है । और देखा है दयापात्रोंको सुना है ! । पसा देते हुए भी ........ छुट्टीका दिन था-इतवार ! माग-सब्जी लेकर घर वह गस्तेमे ज़राह कर, फुट पाथ पर बैठी रहती लौट रहा था किहै-अपने बच्चेको फ्ट-टाटक ट्रकड़ेपर वैटाले हाए ! 'बाबू एक पैमा, दुखिया-अपाहिज-मुहताजको श्रास-पाय दुर्गन्धि उड़ा करती है, मक्खियाँ भिन- एक पैसा ...... " भिनाया करती हैं ! पैर अनायास रुक गए ! एक इकन्नी निकालकर वह जो कोदिन है। माग शरीर घाचोंसे भर मैंने उमके आगे फेक दी। रहा है । गल रहा है। हाथोंकी उंगलियाँ गिर चुकी गुदड़ा-लपेटी हथेलियोमे उसने इकन्नी उठाकर है। हथली भर बाकी हैं। वह चिथडे में की हैं- यत्नम रिपाई और कृतज्ञ-दृष्टिस निहारने लगी-मरी बदके मारे टहग नही जाता उसके पाम । ... श्रार! जाने कैसे पाप किये हैं-उसने , घडी-भरको पर, बच्चा रोता ही रहा, उसी तरह ! मेरी इकन्नी चैन नहीं मिलता। पीडाक मारे तो रोती ही रहती ने उसपर कोई असर नहीं किया ! मुझ लगा-जम है । पर, दुसरी वेदना जो उसपर और है-'अन्न। बच्चे को इसन भी कुछ अधिक चाहिए। वह पराक अगर कुछ-बछ बच्चे पर भी है ! उसका शरीर महत्वको अभी नहीं समझ पाया है ! . . . . . भी ऐसा हो रहा है जैम-छलनी । मक्खियाँ उसे भी झालम अमरुद निकालकर मन उसके आगे बहुत परेशान करती हैं । रोता वह भी खूब है जी डाल दिए ! खोलकर । रक्त-माँस-हीन चार सालका बच्चा हेमा वह बहल गया ! लगता है, जैसे-दो-ढाईसे अधिक नहीं! गम्ते-भर मै मोचता गया- उनके साथ-माथ हो कितनी घृणामयी है उसकी माँ ! कितना दयनीय- मनुष्यकी आवश्यकता बढ़ती है ! और आवश्यजीवन है उमका, यह वह नहीं जानना ! कताआके साथ-साथ ही जावनकी कटुता ! उम्र है चालीमके करीब ! पर मुमीबतोंने, कठोंने बच्चा अमरूदसे बहलता है। और शरीरकी भयंकर, नरक-दृग्य-प्रदर्शक बीमारीने भिखारिन इफन्नीस । उसे एक दम परतंत्र. मुहताज, अपाहिज और जीर्ण- मै पाँच रुपयेकी तरक्कीसे खुश हो गया । और शीर्ण बना दिया है ! साहव पाँच मौ रुपये पाने पर भी जले-भने रहते हैं। ___ 'बावृ एक पैमा, दुग्दिया-अपाहिज-मुहताजको एक...... मा!' 'नो वैकैन्सी (जगह नही है) का वोर्ड टॅगा रहने जय-जब मै उस गम्ते जाता हूँ, बराबर यह पर भी, दफ्तरमे नौकरी तलाश करने वालोंकी कमी आवाज़ मेरे कानों में आती है । मुबह, दिन, दोपहर, नही रहती ! श्रीमतन प्रतिमप्ताह, दर्जन-भर तो आते गत और श्राधी-आधी रात तक भी, जब मै 'मैकिन्दु- ही हैं ! जिनमें कुछ प्रेप्याट, कुछ अंडर-प्रेज्याएट और
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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