________________
गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्रवणबेलगोलके संस्मरण
किरण ६-७ ]
पढ़ता है कि मोम्मटेश्वरको मूर्ति गोम्मटेश्वर मूर्तिके समान है । जब अन्य तत्सदृश वस्तु ही नहीं, तर तुलना किसके साथ की जाय चतः अतुलनीय कहना पूर्णतया संगत है। कहते हैं कि जिस कलाकारने इस कलामय मूर्तिका निर्माण किया था वह लगभग १२ वर्ष तक अत्यन्त पवित्रता के साथ रहा था और उसने उच्च साविक जीवन बिताया था। उसकी सच्ची पवित्र साधनाको इतनी सफलता मिली, कि उसकी महिमाके लिए शब्द नहीं हैं।
कभी-कभी हृदय उस पाषाणको धन्य कहता है, जो भले ही एकेन्द्रिय जीव रहा, किन्तु जिसको गोम्मटेश्वर की त्रिभुवनबंदित मुद्रा धारण करनेका सौभाग्य प्राप्त हुना और जो अनन्त प्राणियां के कल्याणका निमित्त बना, बनता है और बनता रहेगा ।
गोम्मटेश्वर के समीप श्रानेपर मस्तक सदा उन्नत रहता है, चित्तमें किसी प्रकार की चिन्ता या भीति नही रहती, घरेल छोटी मोटी श्राकुलताएं नहीं सतात x । ठीक है महान ग्रामाका श्राश्रय पाकर कौन महान नहीं बनता है ? गोम्मटेश्वर के चरणों समीप बैठने पर ऐसा प्रतीत होता है, मानों हम सब प्रकारकी कटोसे मुक्त होकर ऐसे आयको प्राप्त कर चुके हैं जहाँ भविष्य कोई आपकी आशंका नहीं है।
फर्गुसन महाशयका कथन है कि – “मिश्र देश के
संसार भरने इस मूर्ति अधिक विशाल और प्रभावशाली मूर्ति नहीं है मिश्रमे भी कोई मूर्ति इससे अधिक नहीं है।"
डा० कृष्ण एम० ए० पी० एच० डी० लिखते हैं-"शिवपीन जैनधर्मके संपूर्ण त्यागको भावना इस मृतिके अङ्ग अङ्ग में अपनी छैनीसे पूर्णतया भरदी है । मृतिकी नग्नता जैनधर्मके सर्वत्याग की भावनाका प्रतीक है । एक दम
* कविवर रवीन्द्रनाथ टागोर ऐसे ही प्रदेशको कामना अपनी गीताजलि व्यक्त करते हैं।
Where the mind is without fear and the head is
held hungh, Where knowledge 19 free, Where the world has not been broken up into fragments by narrow domestic walls, ....Into that heaven of freedom, my father let mg country awake
'GITANJALI'
२४७
सीधे और मस्तक ऊँचा किए खड़े इस प्रतिमाका श्रङ्गविन्यास पूर्ण आत्मनिग्रहको सूचित करता है। श्रोठोंकी दयामयी मुद्रा स्वानुभूत श्रानन्द और दुःखी दुनियाके साथ सहानुभूतिकी भावना होती है।"
गोम्मटेश्वरकी मूर्ति कमियों, मायुक्योंके लिये सदा aata Erytra aथा भावनाओंको प्रदान करती है । बारहवीं के विज्ञान पंडित मालिका' नामकी २७ पद्यमय कविताद्वारा भगवान का गुण कीर्तन कन्नड भाषा में किया है, इसके एक पद्य में कवि बड़ी मार्मिक बात कहता है कि
“यन्त उत आकृति वाली वस्तु सौन्दर्यका दर्शन नहीं होता है, जो अतिशय सुन्दर वस्तु होती है वह तीय तारवाली नहीं होती है; किन्तु गोम्मटेश्वर की मूर्ति यह लोकोत्तर विशेषता है कि अत्यन्त उत श्राकृतिधारी होनेपर भीथनुपम सौन्दर्य से विभूषित हैं ।"
यथार्थमे महिमाशाली भगवानगोमटेश्वरका जितना भी वर्णन किया जाय थोडा है । उनके दर्शनका श्रानन्द स्वानुभवका विषय हैं, जिसे मनुष्य कभी भी भूल नहीं सकता ।
इस प्रपंग में हमें महाकवि भगवजिनसेनाचार्य की भगवान बाहुबलिको लक्ष्यकरके लिखी गई यह श्रमर उक्ति स्मरण हो श्राती है कि
जगनि जयिनमेनं योगिनं योगिवयैः, अधिगतमहिमानं मानितं मानिनीयः । स्मरति इदि नितान्तं यः स शान्तान्तरात्मा, भजति विजयलक्ष्मी माशु जैनीमजय्याम ||
"
'जगमे जयशील योगीश्वरोंके द्वारा जिनकी महिमा परज्ञान है आदरणीय व्यक्तियोंके द्वारा सम्मानित इम इन योगिराज बाहुबलि गवानको हृदयमे वारंवार स्मरण करता है, उसकी आत्मा शान्त अंतःकरण वाली होती हुई जैनेश्वरी तथा अजेय विजयश्रीको प्राप्त करती है।'
उन गोम्मटेश्वर बाहुबलि भगवान्का दर्शन कर लौटे कई दिन बीत गए, किन्तु वह पुण्यस्मृति सदा ही चित्त में विराजमान रहती है । उन बाहुबलि प्रभुके श्रीचरणोंको परोक्ष प्रणाम है 1