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अनेकान्त
[वर्ष
विशेषसर्वज्ञका साधन और उसकी सरणि समन्तभद्रका ही बतलाया था और उन्हींको सर्वज्ञ मानकर अन्य तीर्थअनुसरण है। यह अवश्य है कि कुमारिल ने उक्त कारिकाओं प्रर्वतकोंके मतों-भागमा-उपदेशोकी 'वन्मतामृतवाहनां' मे 'सुगत' अथवा 'युद्ध' का नामोल्लेख करके उनकी सर्वज्ञता 'श्राप्ताभिमानदग्धानां' इत्यादि कारिकायों के द्वारा पालोका भी निरसन किया है पर वह निरमन समन्तभद्रकी उक चनाकी थी तथा उनके उपदेशोंको युक्ति-शास-विरोधी कारिकाओंको ही प्राधार बनाकर किया गया जान पड़ता सिद्ध करके उनकी प्राप्तता न बनसकनेकी बात कही थी। है। क्योंकि बौद्धपरंपरामे कुमारिलके पहिले रचा गया ऐसा साथ ही जैनतीर्थकरके वचनोंमें दुतिशास्त्रका विरोध कोई भी बौद्धग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता, जिसमे सामान्य और दिखलाकर उनकी प्राप्ततामे विश्वास प्रकट किया था। विशेष दोनों ही प्रकारके सर्वज्ञत्वका बुद्धमे साधन किया गया समन्तभद्रकी यह नीति एवं सर्वज्ञ-साधनकी प्रक्रिया हो और जिसका कुमारिल ने पूर्वोक्त खडन किया हो। यहां कुमारिलको पसन्द नहीं पाई और इसलिये उसकी उन्होंने एक बात और भी ध्यान देने योग्य है और वह यह कि 'नरः कोऽप्यस्ति' इत्यादि कारिकायोंमे तीब्र पालोचना बौद्धतार्किक जितना सुगतके धर्मज्ञ होनेमे जोर देते हैं की। अन्तमे तो वे एक विशिष्ट युक्ति देते हुए कहते हैं कि उतना उनके सर्वज्ञ होनेमें नहीं । सर्वज्ञताको तो उन्होंने 'अन्यके पर्वज्ञ होनेपर दूसरेके वचनमे सत्यता नही गौण रूपसे स्वीकार किया है, जब कि जैनपरंपरा मुख्य पाती, समानाधिकरणता-एकाधिकरण वृत्तित्वके होनेपर रूपसे सर्वज्ञको मानती है । अत: यह साफ है कि कुमारिज- ही सर्वज्ञता और वचन-सत्यताम अगाङ्गिभाव-साध्यसाधन कृत उक्त खंडन समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसागत सर्वज्ञ बनता है-चुनांचे प्रकृतमे सर्वज्ञता तो सामान्यमे सिद्ध की सामान्य और विशेषकी साधक उपर्युक्त कारिकाओंको ही गई है और वचन-सत्यता (युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्य) लेकर किया गया है। बडे मार्केकी बात तो यह है कि अर्हन्त जिनमे बतलाते हैं। तो ऐसे वैयधिकरण हेतुओं समन्तभदने 'सूक्ष्मान्तरित'इत्यादि कारिकाके द्वारा सामान्य- (अन्यनिष्ठ निर्दोषता और युक्किशास्त्राविरोधी वचन) द्वारा तया सर्वज्ञकी सिद्धिकी थी और आगे चलकर उस सर्वज्ञ साध्य (सर्वज्ञता) की सिद्धि नही होसकती है। ऐसी दशा को 'स त्वमेवाऽसि' इन्यादि कारिकाके द्वारा 'महन्त जिन' में यह बिल्कुल स्पष्ट होजाता है कि कुमारिल ने समन्तभद्र १ हेयोपादेयतत्वस्य माभ्युपायस्य वेदकः।
को लक्ष्य करके ही उक्त खंडन किया है। यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥
भागे चलकर तो कुमारिलने 'वं यः केवलं ज्ञानदूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टन्तु पश्यतु ।
मिन्द्रियाद्यनपेक्षिणः सूक्ष्मातीतादिविपयं जीवस्य प्रमाणं दूरदर्शी चे देहि गृध्रानुपास्महे ॥"
परिकल्पितं' इस कारिकाके द्वारा जैनसम्मत और वह भी -प्रमागवा०२-३२, ३३
समन्तभद्र-प्रस्थापित केवलज्ञान-मर्वज्ञताका बंडन स्पष्ट २ "स्वर्गारवर्गसम्प्रातिहेतुजोऽस्तीति गम्यते ।
शब्दोंमे किया है। ममन्तभद्रके पहिले जैनपरंपरामे सूक्ष्मामाक्षान्नकेवलं किन्तु मर्वजोऽपि प्रतीयते ॥”
तीतादि ( सूक्ष्मान्तरितादि) विषयरूपसे अनुमानके द्वारा
-तत्वसं० का० ३३०६ सर्वज्ञका साधन उपलब्ध नही होता । समन्तभद्गने ही "मुरव्यं हि तावत् स्वगमोक्षम प्रापकहेतुजत्वमाधनं भग- अनमानसे सर्वज्ञका साधन किया है। समन्तभद्रके उत्तरवनोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुन: अशेषार्थपरिज्ञातृत्वमाधन
वर्ती अकलंकके द्वारा कुमारिल को दिये गये समन्तभद्र मन्य तत् प्रामणिकम् ॥” -तत्त्वम०प० पृ०८६३ ३ "मर्वजवाद की परन्यगका अबलम्बी मुख्यतया जैनसम्प्रदाय १ एव यत्केवल जानमनमानविज़म्भितम । ही जान पड़ता है क्योकि जैन आचायोंने प्रथमसे ही नरें तदागपात सिद्धयेन्नच तेन चिनागमः ॥ अपने नीर्थकग मे मजित्वको माना और स्थारित किया मत्यमर्थच नादेव परुपातिशयो मतो। है । (प्राचा० ध्रु. २ चू० ३ पृ० ४२५A श्रा०नि० प्रभवः पोरुपेयोऽस्य प्रबन्धो नादियिते ।। गा० १२७)।" -प्रमाणमी० भापाटि० पृ०३०
-न्यायनिक का० ४१२, ४१३